मंगलवार, 14 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की आठ शिशु व बाल कविताएं । ये कविताएं हमने ली हैं उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

 


1. तोते राजा

तोते राजा, तोते राजा। 

सोने के पिंजड़े में आजा। 

तुझे बनाऊंगा मैं राजा ।।


मिर्च और अमरूद खिलाऊं। 

राम-राम कहना सिखलाऊं। 

सारी दुनिया तुझे घुमाऊं ॥


तोता: सोना-चांदी मुझे न भाता। 

मेरा है कुदरत से नाता। 

जो भी मिल जाये वह खाता ।


हम पक्षी हैं गगन बिहारी। 

है स्वतंत्रता हमको प्यारी । 

पराधीनता है दुख भारी ।।


2. मछली रानी

मछली रानी, मछली रानी। 

वैसे तो तुम बड़ी सयानी। 

धारण करतीं रूप सलौना ।

जल में जैसे चांदी सोना ।।


उछल-कूद कर कला दिखातीं। 

बच्चों के मन को हर्षातीं। 

लेकिन तुमको लाज न आती- 

छोटी मछली को खा जातीं।।


मछली-मछली को नहिं खाये । 

भय और भूख सभी मिट जाये। 

रंग - बिरंगी छवि छा जाये । 

हम हर्षित हों, जग हर्षाये।।


3. कबूतर

श्वेत-श्याम और लाल कबूतर। 

करते खूब धमाल कबूतर । 

तनिक हिला दी डाल, कबूतर। 

उड़ जाते तत्काल कबूतर ।।


हम लेते हर साल कबूतर । 

खुश होते हैं पाल कबूतर । 

करते नहीं वबाल कबूतर। 

मुदित रहें हर हाल कबूतर।।


जब खाते तर माल कबूतर। 

खूब फुलाते गाल कबूतर।

चलते मोहक चाल कबूतर। 

हमको भाते बाल कबूतर।।


4. बादल 

उमड़-घुमड़ कर आते बादल। 

आसमान में छाते बादल । 

हम सबको हर्षाते बादल ।

गर्मी दूर भगाते बादल ।।


बरसा करने आते बादल। 

हमको हैं नहलाते बादल। 

छुट्टी करवा जाते बादल। 

हमको हैं अति भाते बादल ।।


पोखर को भर जाते बादल। 

खेती को सरसाते बादल । 

मोरों को मदमाते बादल । 

सबको खुश कर जाते बादल।।


हम भी बादल से बन जायें- 

सबको सुख दें, खुद हर्षायें।


5. अच्छे-अच्छों से अच्छे हम!

भारत माता के बच्चे हम ।

सीधे-साधे हैं सच्चे हम। 

हैं नहीं अकल के कच्चे हम। 

अच्छे-अच्छों से अच्छे हम।।


यह भारत देश हमारा है। 

यह सब देशों से न्यारा है। 

बह रही प्रेम की धारा है।

यह तारों में ध्रुवतारा है।।


यह राम-कृष्ण की धरती है। 

इसमें मर्यादा पलती है। 

वीरता मचल कर चलती है। 

बैरी की दाल न गलती है।।


दुश्मन की नजर निराली है। 

हमको भड़काने वाली है। 

रिपु-सैन्य अकल से खाली है। 

पिटती उसकी नित ताली है।।


अति वीर हमारी सेना है। 

हथियारों का क्या कहना है? 

दुश्मन तो चना- चबैना है। 

पर हमें शांति से रहना है।।


यदि हम अपनी पर आ जाएं। 

चिबड़े की तरह चबा जाएं। 

घुड़की यदि दे दें दुश्मन को- 

भागें, पाताल समा जाएं।।


6. नेकी का अंजाम

ऊधमपुर में एक बेचारी, 

विधवा बसती, थी कंगाल। 

किसी तरह थी दिवस बिताती- 

बेच पुराना घर का माल।


एक दिवस वह ज्यों ही निकली, 

लेकर टूटे-फूटे थाल। 

तभी द्वार पर देखा उसने- 

घायल एक विहग बदहाल।


हृदय हो गया द्रवित, 

देखकर- बहती हुई खून की धार। 

किया तुरत उपचार, स्वस्थ हो- 

चला गया अपने घर-द्वार।


कुछ दिन बाद एक दिन आया, 

वह पक्षी ले दाना लाल। 

पा उसका संकेत माई ने- 

क्यारी में बोया तत्काल।


हर्षित होकर उस वृद्धा ने- 

समझ इसे विधना का खेल। 

देखभाल की उसकी निशिदिन- 

तो उसमें उग आई बेल।


उगा एक तरबूज बेल पर 

समझ उसे पक्षी का प्यार। 

तोड़ लिया वृद्धा ने उसको 

ज्यों ही पक कर हुआ तैयार।


लगी काटने बड़े चाव से, 

वृद्धा मन में भर उल्लास । 

स्वर्ण मुहर उसमें से निकलीं- 

जब माई ने दिया तराश।


हुई प्रसन्न अकिंचन वृद्धा, 

पाकर स्वर्ण मुहर अनमोल। 

देन समझकर परमेश्वर की, 

उसने वे सब रखीं बटोर।


नेकी करने का दुनिया में, 

कैसा अच्छा है अंजाम। 

उन्हें बेच करके वृद्धा ने 

चुका दिये निज कर्ज तमाम


7. हमको खूब सुहाती रेल

छुक-छुक करके आती रेल, 

हमको है अति भाती रेल,

प्लेटफार्म पर आकर रुकती, 

कोलाहल कर जाती रेल।


हलचल खूब मचाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


तीर्थ और मंदिर दिखलाती, 

गौरवमय इतिहास बताती, 

गिरि-कानन, नादियों-झरनों पर 

खुशी-खुशी सबको ले जाती।


सुखमय सैर कराती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


बिजली, तेल, कोयला खाती, 

पानी पी-पी शोर मचाती, 

भीमकाय इंजन से लगकर, 

आती, ज्यों बौराया हाथी।


हमको खूब डराती रेल। 

हमको नहीं सुहाती रेल।


हरिद्वार की हर की पैरी, 

या प्रयाग की संगम लहरी, 

शहर बनारस की धारा या, 

कलकत्ता की गंगा गहरी।


सबको स्नान कराती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


कोई चना, चाट ले आता, 

कोई गर्म पकौड़े खाता, 

चाय गर्म की आवाजों से- 

सोया प्लेटफार्म जग जाता।


तंद्रा दूर भगाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


कितनी सुंदर है, अति प्यारी, 

सभी रेल पर हैं बलिहारी, 

रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर 

चहक रहे सारे नर-नारी।


मंजिल पर पहुंचाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


इंजन कुछ डिब्बे बन जायें, 

हम बच्चों को सैर करायें, 

दीन-दुखी दिव्यांगों को हम- 

खूब घुमायें, खूब रिझायें।


हमको यह सिखलाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


सीमाओं पर विपदा आती, 

फ़ौजों को रण में पहुंचाती, 

आयुध और खाद्य सामग्री- 

सैनिक शिविरों में ले जाती।


हमको विजय दिलाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।।


8. गौरैया

सुबह-सुबह छत पर आ जाती गौरैया,

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


रात हुई जाकर सो जाती। 

प्रातः कलरव खूब मचाती, 

चीं-चीं, चीं-चीं, चीं-चीं करके 

हमें लुभाती, तुम्हें लुभाती।


धरती पर ऐश्वर्य लुटाती गौरैया! 

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया ?


पंखों में स्वर्णिम रंग भरा, 

वाणी में मृदुल मृदंग भरा, 

है रति के बच्चों सी लगती, 

अंगों में मुदित अनंग भरा।


यह कितना मीठा राग सुनाती गौरैया !

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


नीलगगन में उड़कर आती, 

शिशुओं का भोजन है लाती, 

चीं-चीं करते बच्चों को वह- 

खूब खिलाती, खूब पिलाती।


थपक-थपककर उन्हें सुलाती गौरैया।

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


नन्हीं परियों जैसी भाती, 

कलरव करती मन हर्षाती, 

छोटे बच्चों की खेल सखी, 

पल में आती पल में जाती ।


घर में उत्सव सा कर जाती गौरैया! 

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


जनम जनम का इससे नाता, 

इसे न देखे मन अकुलाता, 

देख अलिन्दों या वृक्षों पर 

अपना मन हर्षित हो जाता।


आती फिर फुर से उड़ जाती गौरैया।

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?

सोमवार, 6 नवंबर 2023

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से 5 नवंबर 2023 को आयोजित काव्य-गोष्ठी

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की मासिक काव्य-गोष्ठी रविवार 5 नवंबर  2023 को मिलन विहार स्थित आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज में हुई। कवि नकुल त्यागी द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि रामदत्त द्विवेदी ने की। मुख्य अतिथि वरिष्ठ गजलकार ओमकार सिंह ओंकार एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ कवि रघुराज सिंह निश्चल एवं नकुल त्यागी उपस्थित रहे। 

रचना-पाठ करते हुए वरिष्ठ गजलकार ओंकार सिंह ओंकार ने गजल पेश की- 

किस तरह घर को बनाते हैं बनाने वाले। 

क्या समझ पाएंगे यह आग लगाने वाले।। 

नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने दोहे प्रस्तुत किए- 

मानवता की देह ही, होती लहूलुहान।

 युद्ध समस्या का कभी, होते नहीं निदान।। 

आशाएँ मन में न अब, होतीं कभी अधीर। 

इच्छाएँ सूफ़ी हुईं, सपने हुए कबीर।। 

वरिष्ठ कवि रघुराज सिंह निश्चल ने सुनाया- 

सोचिए आकर जगत में क्या किया। 

किस तरह बहुमूल्य यह जीवन जिया। 

जिंदगी भर बस यही करते रहे। 

सोचिए फिर उठ गए खाया पिया।। 

नकुल त्यागी ने कहा - 

जगमग जगमग दीप जले हैं दिवाली आई। 

मार दशानन राम लखन संग अवध जानकी आई।। 

रामदत्त द्विवेदी ने सुनाया- 

यादों में ना रहते जग की दौलत के रखवारे लोग। 

केवल दिल पर लिखे जाते धर्मशास्त्र के प्यारे लोग।। 

कवि केपी सरल ने सुनाया- 

चलत रही रस्साकसी, हम दोनों के बीच। 

हल्का हम को देख कर, रहा बुढापा खींच।। 

गई जवानी बीत अब, बिगड़़े तन मन खेल।  

वृद्धापन बीमारियाँ, मुझ पर रहा धकेल।। 

कवि अशोक विद्रोही ने वीररस की कविता सुनाई- 

भारत मां की रक्षा खातिर, हमको आज बदलना होगा।

 सेज छोड़कर मखमल की, अब अंगारों पर चलना होगा। 

आस्तीन में छिपे हुए जो, बिषधर जहर उगलते हैं। 

उन जहरीले नागों के फन, हमको आज कुचलना होगा। 

पदम सिंह बेचैन ने कहा- 

और कितनी बेरुखी माधव हमें दिखलाओगे। पाओगे हमको वही जहां कहीं तुम जाओगे।। 

कार्यक्रम का संचालन नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने किया। राजीव प्रखर द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा ।










बुधवार, 1 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी से डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’ की बातचीत। यह साक्षात्कार उन्होंने सितंबर 2000 में लिया था, जो मुरादाबाद से प्रकाशित समाचार पत्र ’दैनिक आर्यभाषा” के दिनांक 21सितंबर 2000 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद यह साक्षात्कार वर्ष 2023 में प्रकाशित उनके साक्षात्कार-संग्रह “प्रश्न शब्दों के नगर मे” में भी प्रकाशित हुआ है।


 साहित्येतर कारणों से हिंदी कविता का जनसंवाद कम हुआ

*** हिंदी कविता ख़त्म होने की घोषणाएँ उन्हीं लोगों ने कीं, जो उससे जुड़े नहीं रहे

*** अपना माल बेचने वाले दुकानदारों का जमावड़ा हिंदी काव्य-मंच 

*** अपने समय और व्यापक समाज के दुख-दर्द का संवाहक बना है नवगीत।

कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। यदि यह बात सच है, तो यह भी सत्य है कि दर्पण ज़िंदगी की आवश्यकता है। इस प्रकार साहित्य जि़ंदगी की अहम ज़रूरत हुआ।

हिंदी काव्य साहित्य में गीत का महत्वपूर्ण स्थान है। गीत पर चर्चा हो और नवगीतकार माहेश्वर तिवारी का उसमें जि़क्र न हो, यह असंभव है। एक बातचीत के दौरान जब उनसे यह पूछा जाता है कि हिंदी कविता की वर्तमान में क्या स्थिति है, तो इस प्रश्न का उत्तर वह विस्तार से देते हैं। कहते हैं- ‘‘हिंदी कविता समाप्त हो गई है, वह मर गई है, ऐसी घोषणाएँ पिछले दिनों राजेंद्र यादव और सुधीश पचौरी जैसे लोगों ने कीं। ये घोषणाएँ ऐसे लोगों की थीं जो कविता या उसकी समीक्षा से जुड़े हुए नहीं हैं और समय-समय पर कुछ अप्रत्याशित घोषणाएँ करते हुए चर्चा में बने रहने का प्रयास करते रहते हैं।’’

श्री तिवारी कहते हैं कि कविता आज भी लेखन की केंद्रीय विधा है। प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में प्रकाशित होने वाली पुस्तकें इसका प्रमाण हैं। हालाँकि वह इस बात को भी स्वीकारते हैं कि पुस्तकों की इस ‘बड़ी संख्या’ में कूड़ा करकट भी कम नहीं होता। वह बताते हैं कि आज हिंदी कविता विश्व कविता के समानांतर उससे आँखें मिलाते हुए खड़ी है। यह अलग बात है कि अन्यान्य साहित्येतर कारणों से उसका जन संवाद पहले की अपेक्षा कुछ कम हुआ है। श्री तिवारी कई कवियों के नाम गिनाते हैं कि अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, नरेंद्र जैन, स्वप्निल श्रीवास्तव, ध्रुव नारायण गुप्ता, कात्यायनी, चम्पा वैद्य, गगन गिल जैसे असंख्य मुक्तछंद के कवि ही नहीं, बल्कि डा. शिव बहादुर सिंह भदौरिया, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, गुलाब सिंह, अमरनाथ श्रीवास्तव, अवध बिहारी श्रीवास्तव, शतदल, यश मालवीय जैसे अनेक गीत कवि भी महत्वपूर्ण लेखन में निरंतर सक्रिय हैं। उनका कहना है कि डा. रामदास मिश्र, केदारनाथ सिंह आदि ही नहीं, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री से लेकर लीलाधर जगूड़ी, विनोद कुमार शुक्ल, कुमार अंबुज, एकांत श्रीवास्तव, बद्री नारायण आदि तक एक साथ कई पीढि़याँ कविता लेेखन में सक्रिय है।

नवगीत का प्रयोग और वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता के सवाल पर श्री तिवारी कहते हैं कि हिंदी में नवगीत का जन्म ऐतिहासिक कारणों से हुआ। छायावादोत्तर गीत काव्य में जब कविता बेडरूम आदि के चित्रा परोसने में लग गई, तब गीत के नए रूप की तलाश आवश्यक हो गई। कविता के पुराने अलंकरणों को छोड़ने की बात निराला और पंत पहले ही कर चुके थे। वह मुक्त छंद में पहले ही घटित हो गया। इसलिए नई शैली के गीतों को पुराने गीतों से अलग करने के लिए उन्हें ‘नवगीत’ नाम दिया गया।

श्री तिवारी बताते हैं कि नवगीत का स्वरूप अपने कथ्य और बिंब विधान में नया था ही, उसने अपनी छांदसिक बुनावट के लिए निराला के ‘नवगति, नवलय, ताल-छंद नव’ को आधार बनाया। नवगीत जब तक अपने समय और व्यापक समाज के दुख-दर्द का संवाहक बना रहेगा, उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़ा करना स्वयं अप्रासंगिक होगा।

नवगीत के पक्ष में श्री तिवारी कुछ कवियों के नवगीतों की पक्तियाँ भी उदाहरण स्वरूप सुनाते हैं-

पुरखे थे। पेड़ बने

हाथों में पंछी के घोंसले लिए

छाया नीचे, मीठे फल ऊपर

मिल जाते बिन जतन किए,

आँधी में। वे फल टूट झरे

- दिनेश सिंह


क्या बतलाएँ

कुछ भी निश्चित नहीं रहा अब

नंदन वन में

नियम पुराने। टूटे सारे

न जिसकी जो मरज़ी करता है

सूरज। लाता है अंधियारे

बे-मौसम पत्ता झरता है

फूल खिलें। अगले बसंत में नहीं ज़रूरी

- कुमार रवींद्र


पेड़ अब भी आदिवासी हैं

पेड़ खालिस पेड़ हैं अब भी

पेड़ मुल्ला हैं, न पंडित हैं न पासी हैं

- सूर्यभानु गुप्त

श्री तिवारी बताते हैं कि नवगीत में प्रगतिशीलता की चर्चा करते हुए श्री ‘रंग’ ने ‘शताब्दी के अंत में नवगीत का प्रगतिशील पथ और चुनौतियाँ’ शीर्षक वाले लेख में लिखा है कि शताब्दी के अंत में प्रगतिशील गीतकारों ने सामाजिक, सरकारी तंत्र, मानवीय संबंध तथा उत्पादन और उपभोग के समस्त मानवीय चक्र के द्वंद्व को पूरी ईमानदारी से उजागर किया है। 

वर्तमान में नई कविता की स्थिति के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि यह विडंबना है कि प्राध्यापकीय जगत में मुक्तछंद की कविता के प्रति आचार्य रामचंद्र शुक्ल का फ़तवा आज भी सर्वमान्य-सा ही है।

श्री तिवारी कहते है कि मुक्तछंद वाली कविता छंदमुक्त नहीं है, सिर्फ़ यह समझने की ज़रूरत है। वह नई कविता के साथ एक विडंबना और बताते हैं कि इसकी पाठ शैली हिंदी में वैसी विकसित नहीं हुई है, जैसी बंगला में। साथ ही प्रश्न भी करते हैं कि विश्व की तमाम भाषाओं में नई हिंदी कविता के अनुवाद और अनेक देशों में उनका कविता के रूप में ही पठन-पाठन क्या यह सिद्ध नहीं करता कि हिंदी की नई कविता विश्व कविता के परिवार में शामिल हो गई है।

हिंदी काव्य मंचों की वर्तमान स्थिति से श्री तिवारी बेहद चिंतित हैं, कहते हैं कि आज हिंदी काव्य मंचों की स्थिति काफ़ी ख़राब है। इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो हिंदी काव्य मंच अब कविता या कवियों का मंच नहीं रह गया है, वह अपना-अपना माल बेचने वाले दुकानदारों का जमावड़ा बन गया है।

हिंदी कवियों के हास्य कविताओं की ओर बढ़ते रुझान के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि हास्य जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन वह भी जब बाज़ार में बिकने वाली वस्तु बन जाए तो उसके प्रति ऐसे लोगों का रुझान बढ़ेगा ही जो कविता से कम, धनोपार्जन में अधिक दिलचस्पी रखते हैं। हिंदी कवियों का अधिकाधिक हास्य की ओर रुझान बाज़ार की शक्तियों से निर्धारित और प्रेरित हो रहा है, उसके पीछे गहरे साहित्यिक मूल्यों से लगाव नहीं है।

व्यंग्य कविता से क्या अभिप्राय है, इस प्रश्न पर श्री तिवारी का कहना है कि ‘व्यंग्य’ शब्द अंग्रेजी के ‘सटायर’ शब्द के आधार पर निर्मित है। वि+अंग की संधि से व्यंग शब्द बना है, जिसका अर्थ है चुहुल या परिहास अथवा विसंगतियों पर कटाक्ष। इसका प्रयोग वेदों में भी ढूँढा जा सकता है, किंतु नाट्य शास्त्र में इसके स्पष्ट संकेत मिलते हैं।

वर्तमान में अधिकतर कवियों द्वारा अछांदिक कविता लखे जाने के प्रश्न पर श्री तिवारी कहते हैं कि कविता अछांदिक नहीं होती। गड़बड़ी यह हुई कि छांदसिकता के लिए ‘तुक’ को अपरिहार्य मान लिया गया, जबकि ‘लय’ महत्वपूर्ण है। यदि ‘तुक’ को ही आधार माना जाए, तो वैदिक रिचाएँ भी अछांदिक मानी जानी चाहिएँ, जबकि ऐसा नहीं है। यहाँ तक कि लोकगीतों में भी छंद का विधान वैसा नहीं है, जैसा मोटे तौर पर सोचा-समझा जाता है।

इस दौर में काव्य मंच और साहित्य में सामंजस्य समाप्त होता जा रहा है? इस प्रश्न के उत्तर में श्री तिवारी का कहना है कि मंच और साहित्य में सामंजस्य लगभग सन् 1960 तक रहा। बाद में जैसे-जैसे मंच पर बाज़ार हावी होता गया, दोनों के रिश्तों में फ़र्क़ आता गया। यह सामंजस्य फिर से बनाया जा सकता है, पहले छोटी-छोटी गोष्ठियों और फिर व्यापक जन-संवाद के माध्यम से। पहले मंच साहित्य का मंच था, जिसे मनोरंजन के मंच में तब्दील कर दिया गया, जबकि साहित्य का प्रयोजन सस्ता मनोरंजन नहीं, बल्कि अनुरंजन के साथ जन-रुचियों और संस्कारों को उदात्त बनाना रहा है।

वर्तमान में काव्य मंचों पर गीत की स्थिति पर चर्चा करते हुए श्री तिवारी एक पंक्ति सुनाते हैं- ‘अब दादुर वक्ता भए तुमको पूछे कौन’। ठीक इसी जैसी स्थिति मंच पर गीत की है। वह स्वर्गीय वीरेंद्र मिश्र के गीत की पंक्तियाँ भी सुनाते हैं-

गीत वह 

जो पढ़ो झूम लो

सिर्फ़ मुखड़ा पढ़ो

चूम लो

तैरने दो समय की नदी

डूबने का निमंत्रण न दो,

वह कहते हैं कि अब मंच पर गीत के नाम पर ऐसे भी तथाकथित कवि आते जा रहे हैं, जिनकी रचनाएँ समय की नदी में सफलतापूर्वक तैरकर पार हो जाने की जगह अपने श्रोता को सिर्फ़ डुबोती हैं। फिर हास्य और तथाकथित ओज का मंच पर क़ब्ज़ा भी गीत को उसके स्थान पर बेदख़ल करने में ही लगा हुआ है।

कवियों और कविताओं की जनता से क्या अपेक्षाएँ हैं? इस प्रश्न पर श्री तिवारी कहते हैं कि इन्हीं संदर्भों में एक प्रश्न और भी महत्वपूर्ण है कि जनता कविता सुनने आती है या नाटक-नौटंकी का मज़ा लेने? कविता सुनने की कुछ शर्तें होती हैं। उसके लिए श्रोता के मन में कविता के संस्कार होने चाहिएँ। मूँगफली बेचने वालों या चाट का ठेला लगाने वालों में कविता के संस्कार की बात बेमानी है। उन्हें तो चुटकुले और काव्यपाठ में कुछ नाटकीयता भली लगती है। पहले लोग कविता के पास आते थे, अब कविता ही लोगों के पास जाने लगी है। कवि भी वैसा ही तर्क देने लगे हैं, जैसा सिनेमा वाले यानी आम जनता की रुचि की बात। जब कविता जनरुचि से निर्धारित होगी और कला मूल्यों को पीछे छोड़ दिया जाएगा, तो यही होगा जो हो रहा है।

वह कहते हैं कि सीमित वर्ग में गोष्ठियों की बात मैं इसलिए करता हूँ कि वहाँ कविता अपनी शर्तों के साथ लोगों के पास जाएगी, लोगों की रुचि से संचालित होकर नहीं, अन्यथा उसकी भी वही स्थिति होगी, जो बाज़ार में फ़ैशनेबुल साबुनों, तेलों और सौंदर्य प्रसाधनों की है। आम साबुन का गुण अब मैल साफ़ करना नहीं, गोरापन बढ़ाना हो गया है।


हिंदी-ग़ज़ल और उर्दू-गीत की साहित्य में क्या स्थिति है? इस प्रश्न पर श्री तिवारी का कहना है कि हिंदी-ग़ज़ल एक गढ़ा हुआ नाम है। हिंदी कवियों द्वारा लिखी गई ग़ज़ल को मैं ज़्यादा से ज़्यादा हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहता हूँ। 

निराला, त्रिेलोचन, आचार्य जानकी बल्लम शास्त्री, शमशेर बहादुर सिंह, शंभुनाथ शेष, बलवीर सिंह रंग आदि ने तो हिंदी-ग़ज़ल नाम का प्रयोग नहीं किया, फिर आज क्यों? फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने एक बार कहा था कि ग़ज़ल को जि़ंदा रखने की उम्मीद अब हिंदी वालों से है, लेकिन उन्होंने भी इसे हिंदी-ग़ज़ल का नाम नहीं दिया। श्री तिवारी कहते हैं कि हिंदी भाषा की प्रकृति ही ग़ज़ल की बनावट के अनुरूप नहीं है। यह हिंदी कविता की जातीय परंपरा को बाधित या नष्ट करने में भी कारक हो सकती है। फिर ग़ज़ल लिखने वाले हिंदी कवि, पूर्व उल्लिखित कवियों को छोड़ दिया जाए तो ग़ज़ल की परंपरा और उसके व्याकरण से अपरिचित हैं। नये लोगों में कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन क़तार में शामिल तमाम लोग हिंदी-कविता परंपरा ही नहीं, ग़ज़ल के साथ भी दुराचार करने में लीन हैं।

वह उर्दू गीत की स्थिति को तो और भी दयनीय बताते हैं कि उर्दू गीत न तो लोकगीत की परंपरा से प्राणरस ग्रहण करते हैं और न स्वस्थ साहित्यिक गीतों की परंपरा से। वे तो प्राचीन सिनेमा के गीतों के समक्ष भी खड़े नहीं हो पाएँगे। उन्हें सुनकर हँसी आती है।

इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया के कविता पर प्रभाव के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया इतना प्रभावशाली नहीं हुआ है कि वह कविता को प्रभावित कर सके। आकाशवाणी का पहले, जब प्रोड्यूसर का पद हुआ करता था और इस कार्य को कोई सृजनधर्मी ही सँभालता था, अवश्य कुछ सीमा तक प्रभाव रहा। तब साहित्यिक प्रसारण लोग ध्यान से सुनते थे। दूरदर्शन के एकाध कार्यक्रम को अपवाद मान लिया जाए तो उसके अधिकतर प्रसारण बाज़ार से उठाए गए माल का उपयोग ही हैं।

उनका कहना है कि प्रिंट मीडिया में ‘आज’ जैसे अख़बार तथा सरस्वती, ज्ञानोदय, कल्पना, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान व वसुधा जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य ने नए रचनाकारों को प्रेरित-प्रभावित किया। कुछ हद तक यह कार्य हिंदुस्तान दैनिक तथा जनसत्ता के रविवासरीय अंकों ने भी किया। उस भूमिका में आज कुछ लघु पत्रिकाएँ भी अपना काम कर रही हैं। श्री तिवारी कहते हैं कि अपनी जानकारी के अनुसार मैं यह कह सकता हूँ कि ‘आज’ ने हिंदी के कई कवियों- कथाकारों को स्थापित होने में सहयोग दिया। वर्तमान में इलेक्ट्रानिक मीडिया की स्थिति तो व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं से भी ज़्यादा घटिया है।

रविवार, 29 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ सीमा अग्रवाल की रचना .... ध्वज अपने प्रतिमानों का, विश्व में फहराए हिन्दी...


भारती के भाल सजे, सम्मान जग में पाए हिन्दी।

स्वर्णिम इतिहास अपना, आज फिर दोहराए हिन्दी।


मात्र भाषा ही नहीं ये, जान है निज संस्कति की,

ध्वज अपने प्रतिमानों का, विश्व में फहराए हिन्दी।


एक ताल पर इसकी, थिरक उठे ये जग ही सारा, 

गूँज उठें सकल दिशाएँ, गीत कोई जब गाए हिन्दी।


गंध निज माटी की सोंधी, वर्ण-वर्ण से इसके आए,

संस्कारों की खुशबू भीनी, देश-देश बगराए  हिन्दी।


बँधें बोलियाँ एक सूत्र में, माला के रंगीं मनकों-सी,

उन्नत भाल भरा हो गर्व से, कंठहार बन जाए हिन्दी।


ओछे खेल में राजनीति के, जन-मन भटक न पाए,

भाषायी सब झगड़े, सूझ से अपनी सुलझाए हिन्दी।


विविधता में एकता की, झलक जहाँ पर दे दिखाई,

बन-ठन आएँ सभी बोलियाँ, ऐसा पर्व मनाए हिन्दी।


बात ही निराली मातृभाषा की, माँ- सी लगती प्यारी,

दिखावे का प्यार और का, नेह माँ-सा छलकाए हिन्दी।


हो ग्रसित जो हीन ग्रंथि से, अंग्रेजी के पीछे दौड़ रहे,

उस भाषा में क्या है ऐसा, जो न तुम्हें सिखलाए हिन्दी।


गुलामी के व्यामोह से, अब तो मन अपना मुक्त करो,

बड़े गर्व से बड़ी शान से, अधरों पे तुम्हारे आए हिन्दी।

✍️ डॉ सीमा अग्रवाल

जिगर कालोनी

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार आनन्द वर्धन शर्मा की कविता ...ये बूढ़ी आँखें.

 


खुद कम देखतीं,

 हमें सब कुछ दिखातीं,

 ये बूढ़ी आँखें।

जीवन का सार बतातीं,

ये बूढ़ी आँखें।

कभी हँस कर नेह  बरसातीं,

ये बूढ़ी आँखें।

कभी इशारों में डाँट लगातीं,

 ये बूढ़ी आँखें।

ममता का सुखद संसार,

 ये बूढ़ी आँखें।

 हमारा सारा प्यार-दुलार,

 ये बूढ़ी आँखें।

 घर का मान-सम्मान,

 ये बूढ़ी आँखें।

सबका स्वाभिमान,

 ये बूढ़ी आँखें।

यूँ हीं सदा बनी रहें,

ये बूढ़ी आँखें।

अनुभव के पाठ पढ़ाती रहें,

 ये बूढ़ी आँखें।

 ✍️आनन्द वर्धन शर्मा

लाजपत नगर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

              

शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) के साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ....रेलवे प्लेटफार्म की गतिविधियां


 रेलवे प्लेटफार्म कई सारी गतिविधियों को संपन्न करने के काम आते हैं ! ‘ गतिविधियाँ ‘ हम उन तमाम हरकतों के गतिशील बने रहने को कहते हैं, जो किसी भी नंबर के प्लेटफार्म पर किसी भी वक़्त, किसी भी रूप में की जा सकती हैं ! इसमें बिना टिकिट गाड़ी में बैठने से पहले टी टी या गार्ड से ‘ सेटिंग ‘ की गुज़ारिश के अलावा किसी वीरान और तनहा पड़े प्लेटफार्म पर किसी से इश्क फरमाने जैसी बातें शामिल हैं !इन गतिविधियों में रेलवे कर्मियों के अलावा पुलिस, यात्री या कोई भी प्रतिभागी हिस्सा ले सकता है ! इधर-उधर के मंहगे होटलों में जाने से क्या फायदा ?


    रेलवे प्लेटफार्म पर कई ऐसे भी डिब्बे खड़े दिखाई देते हैं, जो ब्रिटिश काल से वैसे ही खड़े हैं, जैसे कि अंग्रेज उन्हें छोड़ कर गए थे ! भारी होने कि वजह से वे इन्हें अपने साथ नहीं ले जा सके ! ये डिब्बे अब लैलाओं और मजनूओं के सांस्कृतिक कार्यों के काम आते हैं ! यूं तो रेलवे स्टेशनों पर आपको विभिन्न किस्म के नज़ारे देखने को मिलते होंगे, मगर गौर से देखें तो भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के लिए देश-भ्रमण करने कि कोई ज़रुरत नहीं पड़ेगी ! सब कुछ यहीं मिल जाएगा !

    नाक पौंछकर फिर उसी हाथ से रोटी सकते बैल्डर, पागल किस्म की लड़की में विभिन्न किस्म की संभावनाएं तलाशते पुलिस वाले, बिना टिकिट-यात्री को पकड़कर उनसे मोल-भाव करते टीसी, बदबूदार पानी पीकर रेलवे को कोसते यात्री, किसी भी दशा में कहीं भी सो जाने वाले सिद्धांत में विश्वास करने वाले ग्रामीण या ज़हरखुरानी के शिकार व्यक्ति पर ज़्यादा शराब पीकर ज़मीन पर गिरे होने के आरोप लगाते रेलवे और पुलिस के न्यायशील कर्मी , जैसे सैकडों दृश्य हैं, जिमें ‘ इंडियन कल्चर ‘ तलाशी जा सकती है !

    देखने के नज़रिए हैं कि आप किसको किस नज़रिए से देख रहे हैं ? टिकिट होने के बाबजूद टीसी आपको और आपकी पर्स वाली जेब को किस नज़रिए से देख रहा है या ‘ बम-चेकिंग अभियान ‘ पर निकले रेलवे पुलिस कर्मी आपकी अटैची को बैंत मार कर आपको किस नज़रिए से देख रहे हैं ? या अन्य सीटें खाली होने के बाबजूद लड़कियों से सट कर बैठने वाले खूसट , मगर भाग्यशाली बूढे को वहां बैठे लड़के किस नज़रिए से देख रहे हैं आदि ऐसी अनेक बातें हैं, जो रेलवे से जुडी हैं, मगर हमारा नजरिया जो है, वो वही है, जो हमेशा से रहा है ! उसमें कोई बदलाव नहीं है ! 

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....मौसम, छतरी और उधार




        "मौसम अच्छा हो गया आज।" यह जानते हुए भी कि अच्छे मौसम में हर व्यक्ति ऐसा ही महसूस कर रहा होगा, एक दोस्त ने अपने दोस्त को बिना अंधा साबित किये अपनी बातचीत का पहला वाक्य छोड़ा।

        "हां यार, कल कितना बुरा मौसम था ? गर्मी के मारे हालत ख़राब थी।" दूसरे दोस्त ने मौसम-सम्बंधी अपना विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए पहले दोस्त का ज्ञानवर्धन करने के लिहाज़ से कहा।

       "लगता है, बारिश होगी।" मौसम की भविष्यवाणी में अपनी माहिरी प्रदर्शित करके पहले वाले ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा।  

       "बारिश हुई, तो भीगना पड़ेगा हमें।" दूसरे दोस्त ने बारिश के पानी में गीलापन होने की बुराई करते हुए जवाब दिया।

       "छतरी होती तो शायद इतना नहीं भीगते।" भीगने से पूर्व जल-रक्षक छतरी की भूमिका और फिर उसकी प्रंशसा भी बात की बात में हो गई।

      "छतरी से बैटर बरसाती रहती है। नीचे का हिस्सा भी नहीं भीगता उसमें।" स्वज्ञानजन्य  बेहतर विकल्प का तात्कालिक प्रदर्शन करते हुए दूसरे दोस्त ने चारों  दिशाओं में अपनी गर्दन घुमाकर ऐसे देखा कि अगर और लोग भी उसकी यह बात सुन रहे हों, तो 'क्या बात कही है आपने,' वाले अंदाज़ में उसकी तारीफ़ 

करें।

      "वो तो है ही। छतरी अपनी जगह है, बरसाती अपनी जगह ।" पहले दोस्त ने यह बात कुछ इस अंदाज़ से की, जैसे उसने 'प्राचीन वर्णाश्रम-व्यवस्था  में हर वर्ण का अपना अलग महत्त्व था, जैसी कोई बहुत ज्ञानपरक और गूढ़ बात कही हो और जिसकी कि तारीफ़ होनी चाहिए।

       "लेकिन बारिश के साथ अगर आँधीनुमा हवा चल पड़े, तो छतरी किसी की नहीं रहती । कई मर्तबा तो वह उल्टी भी हो जाती है । " जीवन की तरह छतरी की भी निरर्थकता को सिद्ध करने की  गरज से दूसरे दोस्त ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया ।

      "देखा जायेगा । अभी कौन सी बारिश हो रही है।" वार्ता-समापन की शैली में पहले वाला दोस्त 

बुदबुदाया।

     "और क्या। बातों-बातों में असली बात तो मैं भूल ही गया । यार, दौ सौ रुपये उधार दे दो। एक तारीख़ को लौटा दूँगा।" दूसरे ने अच्छे मौसम में अर्थदान की भूमिका प्रस्तुत करते हुए कहा।

      और इस तरह पहले वाले दोस्त का अच्छा-ख़ासा आंतरिक मौसम ख़राब हो गया।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल)निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....हमारे शहर के निराले कुत्ते...



धर्मराज युधिष्टिर ने जो सबसे गलत काम किया, वह यह था कि वे खुद तो स्वर्ग की सीड़ियां पार करके चले गए, मगर अपने उस कुत्ते को पीछे ही छोड़ गए, जिसके नाम को लेकर अभी भी एकमत होने के चक्कर में इतिहासकार एकमत नहीं हो पाए हैं. अखबारों में अपना नाम ना छापने की शर्त पर कुछ इतिहासकारों ने यह मानने का दावा किया है कि इंडिया में कुत्तों का आदि पूर्वज वही कुत्ता था और बाकी सब जो देश भर में घूम रहे हैं, वे उसके वंशज हैं. प्राचीन काल में कुत्तों को वह सम्मान प्राप्त था, जो वफादारी की कमी होने की वजह से आदमी का भी नहीं रहा होगा. बेवफाई की कसमें खाने पर लोग कहा करते थे कि "खा, अपने कुत्ते की कसम कि तूने बेवफाई नहीं की." बाद में यही बेवफाई शायरी में महबूबा के लिए इस्तेमाल की जाने लगी.

    हमारे शहर में नगर पालिका होने की वजह से कुत्तों की पैदावार भी खूब हो रही है. ऐसा क्यों है, यह रिसर्च का विषय होने के बावज़ूद अभी तक किसी शोधार्थी के गाइड के दिमाग में नहीं आ पाया है. रास्ता चलते कौन सा कुत्ता, कब काट ले, कुछ नहीं कहा जा सकता. जो लोग कुत्तों से डरते हुए साइड में निकलने की कोशिशें करते हैं, कुत्ते सबसे ज़्यादा उसी शख्स की तरफ मुखातिब हो लेते हैं और तब अपनी पैंट में मौजूद टांगों की रक्षा के लिए उसके अन्दर से भर्राई सी आवाज़ निकलती है कि "बचा लो, यार, यह किन सज्जन का कुत्ता है ?" वह आदमी इस बात को जानता है कि अगर "यह किस कमबख्त का कुत्ता है," जैसी कोई बात बोल दी, तो वह कभी भी अपने कुत्ते से कटवाए बिना बाज नहीं आएगा.

    हमारी कॉलोनी को ही ले लीजिये. ऐसी-ऐसी नस्लों के कुत्ते लोगों ने पाले हुए हैं कि वे लाख 'हट-हट' या 'शीट-शीट' जैसी ध्वनियां करने के बावज़ूद, जब तक अच्छे भले आदमी की रही सही जान नहीं ले लेंगे, उसे यूं ही घूरते रहेंगे. इन कुत्तों से डरकर भागने  की ज़रा सी बात अगर मन में भी सोच ली, तो समझें कि वे या तो शराफत से आपको आपके घर के अन्दर तक दौड़ाकर आयेंगे या बहुत मूड में हुए, तो ऐसी जगह पर काटेंगे कि आप यह बताने की पोज़ीशन में भी नहीं रहेंगे कि यहीं पर क्यों काटा, अन्य किसी उपयुक्त स्थान पर क्यों नहीं ?

    भौंकने की अवस्था में काटने के संकेत देने पर कुत्ते को चुपाने का एक ही तरीका है और जो बहुत कारगर माना जाता है. जितनी जोर से कुत्ता भौंक रहा है, उससे भी जोर से अगर भौंक दिया जाये, तो कुत्ते को थोड़ी सी तसल्ली मिल जाती है कि आदमी और कुत्ते का कॉम्बिनेशन है, इसलिए इसे ना काटा जाये तो ही सही है. ना काटे जाने वाला आदमी अपनी इस गुप्त विद्या को अपने बच्चों को भी सिखा जाता है, ताकि इंजेक्शनों का खर्चा बचाने के काम आये. अब कोई कुत्ता पागल है या नहीं है, यह जानने के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चाहिए, वरना हर कुता अपने आप को पागल समझने की गुस्ताखी के एवज़ में इस कदर काट खाता है कि इंजेक्शन लगाने लायक जगह भी ढूंढनी मुश्किल हो जाये कि अब ये कहां लगाएं ?

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़मीर दरवेश की ग़ज़ल ...तोड़ना है घमंड पर्वत का, चल इसे रास्ता किया जाए!

 


جب کوئی فیصلہ کِیا جائے

دل سے بھی مشورہ کِیا جائے۔

जब कोई फ़ैसला किया जाए,

 दिल से भी मशविरा किया जाए।

خود کو ہی آئِنہ دکھانا ہے،

 آ  تجھے  آئِنہ  کِیا  جائے۔

ख़ुद को ही आइना दिखाना है,

 आ तुझे आइना किया जाए ।

کی ہے تا زندگی وفا پہ وفا ،

 اور اے عشق کیا کِیا جائے۔

की है ता ज़िन्दगी वफ़ा  पे वफ़ा,

 और ए इश्क़ क्या किया जाए।

 یہاں ظالم کے ہوش اڑائے ہیں،

یہاں  سجدہ ادا کِیا جائے۔

यहां ज़ालिम के होश उड़ाएं हैं,

 यहां सजदा अदा किया जाए।

توڑنا ہے گھمنڈ پربت کا ،

چل اسے راستہ کِیا جائے

तोड़ना है घमंड पर्वत का,

 चल इसे रास्ता किया जाए!

ہے جو بے بس کے آنسوؤں کی لڑی،

 اس  کو  موجِ  بلا   کِیا  جائے !

हैं जो बेबस के आंसूओं की लड़ी,

 उसको मौजे-बला किया जाए।

✍️ज़मीर दरवेश                ضمیر درویش

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में गुरुग्राम निवासी) के साहित्यकार डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल की बाल कविता ....गीत लिखें हम प्यार के



गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार राजीव कुमार भृगु का बाल गीत ....चलो मेला चलें

 


मेला एक लगा है भारी,

खेल खिलौने न्यारे।

मन को रोक न पाओगे तुम 

लगते हैं सब प्यारे।


चलो खरीदें ये लाला है,

इनका पेट बड़ा है।

ये किसान है काॅंधे पर हल,

बैलों बीच खड़ा है।


ये सैनिक, बंदूक हाथ में,

सीमा पार निहारे ।


चलो चलें आगे भी घूमें,

मेला रंग बिरंगा।

वहाॅं खड़े नेता जी देखो,

थामे हाथ तिरंगा।


उनके पीछे खड़ा भिखारी,

दोनों हाथ पसारे।


चलो वहाॅं पर चलें देख लें,

भीड़ लगी है भारी।

अपने तन को बेच रही है 

बेटी एक बिचारी।


चढ़ी बाॅंस पर नाच दिखाती

भूखे तन से हारे।


सब धर्मों के कैसे कैसे ,

प्यारे ग्रन्थ सजे हैं।

अलग अलग दूकानें इनकी,

न्यारे साज बजे हैं।


भला कौन इनको पढ़कर जो,

अपना भाग्य सॅंवारे।

✍️राजीव कुमार भृगु 

सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार के 19 मुक्तक


हर कोलाहल का अंत एक,सूनापन ही होता,

हर बसंत पतझर का, अभिनंदन ही होता,


बिटिया के नेह का,जीवन कितना सीमित ये,


तनिक देर के बाद पिता,अपने आँगन ही रोता ।।1।।


लोकतंत्र का कत्ल हुआ है, आज़ादी भी खतम हुई,

मीसातंत्र चलाकर सत्ता पागल और बेशरम हुई।

अन्याय और शोषण का अब राज न चलने पायेगा,

ठैर सकी कब रैन अंधेरी तरुणाई जब गरम हुई।। 2।।


बहुत याद आती हैं तुम्हारी बातें वो सारी,

ज़िन्दगी ही बदल दी जिन्होंने हमारी।

जब मंज़िल जुदा हों तो मुड़ना ही बेहतर,

कुछ इस तरह से रहना,न याद आए हमारी।।3।।

         

उषा की पहली किरणों, खिलते शाखसारों में,

बादलों के संग आता सावनी फुहारों में,

मन्दिरों के घंटों की ध्वनियाँ यादें लाती,

कोई झिलमिलाता है रात को सितारों में ।4।।


नेह की बतियाँ रात रात भर, कहने वाला कोई नहीं,

एक दिन भी अपनो के घर, रहने वाला कोई नहीं,

सबकी अपनी अपनी मंज़िल, अपनी अपनी कश्ती हैं,

मेरी तरह यूँ पानी के संग, बहने वाला कोई नहीं ।।5।।


रोज़ चेहरे पे नया चेहरा लगाने वाले,

खुद गुमराह हैं मुझे राह दिखाने वाले,

ये होते हैं कुछ और दिखते हैं कुछ,

झूठे वादों से मेरा दिल बहलाने वाले ।।6।।


बिताया खेल कर बचपन जहाँ,वह आँगन नहीं था,

न वह पेड़ पर झूला कहीं,वह सावन  नहीं था,

पता पूछतीं है आज भी गलियाँ गाँव की,

जहाँ छोड़ा था वह बचपन वहाँ यौवन नहीं था ।।7।।


जान जाती है तो हम जाने देंगे

ऐ वतन तुझपे आँच न आने देंगे

यूँ तो सदा से अहिंसा के पुजारी हैं हम

वक्त पड़ा तो बम भी बरसाने देंगे।।8।।

     

कौन जाने किस घट की बूंदें किस प्यासे की प्यास बुझाएं, 

निराश मन के घोर तिमिर में आलोक का विश्वास दिलाएं, 

शासन, सत्ता,हमसफर सब, राह में तन्हा छोड़ गए जब, 

जाने किस कवि के गीत, मंज़िल की फिर आस जगाएं।।9।।


दिन गए तो चली गईं संग, प्यार की वो कहानियाँ, 

कौन, कब, कहाँ मिला था, शेष अब हैं निशानियाँ, 

गुरबत में भी कैसा हम में एक अज़ब सा आकर्षण था, 

सुन्दरता वो मासूम कितनी, लाज में थीं जवानियाॅं।।10।।

                        

कोई औरों की खुशियों के वास्ते ही जी रहा है, 

और कोई दूसरों के रक्त की मय पी रहा है, 

हम ही सुख हैं, हम ही दुख हैं, हम ही अपने दोस्त-दुश्मन, 

आदमी ही ज़ख्म देता, आदमी ही सी रहा है।।11।।


अस्त होता वो सूरज गोल, बोल रहा है अवसान के बोल, 

संध्या चुपके चुपके पूछे, दामन में हैं कितने झोल, 

कितने ज़ख्म मिले हैं तुझको, कितने ज़ख्म दिए हैं तूने, 

क्या पाया,क्या खोया जग में, तराजू में ये कभी तू तोल ।।12।।


लम्हा, लम्हा ज़िन्दगी को जी तो लिया, 

कांच पिघला हुआ जैसे पी तो लिया, 

सैंकड़ों सर्प दंश की पीड़ा हो ज्यों, 

ज़ख्म रिसते रहे, यूँ सी तो लिया ।।13।।


तुम्हारे विलुप्त प्यार की प्रतिध्वनि हूँ मैं, 

जादू से उस रूप की करतल ध्वनि हूँ मैं, 

बेझिझक हॅसी वो और बोलती आंखें तुम्हारी, 

सिमटी हुई यादों की अंर्तध्वनि हूँ मैं ।।14।।

    

रुग्ण मन, जर्जर तन

एक सत्य, परिवर्तन

बुझता दीपक शनै:शनै:

धुंआ पहन, ताप सहन।।15।।


कैसा धुंधला उदासी का घेरा, 

शाम लगता है आज सवेरा, 

एक रात हस्ती की बितानी, 

न होंगे जो कल होगा सवेरा।।16।।


वह तो तुम थे, तुम ही थे वह जिसको चाहा हर पल हमने, 

देख अकेला गम ने हमको, घेर लिया हमको कल गम ने, 

गर खंडहर ही जब होना था, क्यों सपनों के महल बनाए, 

मुस्कान अधर से दूर फिर भी, पी लिया सब अश्रु जल हमने।।17।।


वह जीवन था, जीवन था वह,अपना पराया भान नहीं था, 

अजनबी संग मन लगता था, किसी मे कोई मान नहीं था, 

भूख लगी तो किसी पड़ोसी या दोस्त के घर खा लेते, 

जिस दिन कालेज दोस्त न आता, पढ़ाई में भी ध्यान नहीं था।।18।।


दिल रोता है पहले फिर आंख रोती है, 

हर रिश्ते की यहाँ एक उम्र होती है, 

हम मरते नहीं,रिश्ते मरते यहाँ, 

बाद उसके तो ज़िन्दगी लाश ढोती है।।19।।


✍️ आमोद कुमार

दिल्ली, भारत


सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा का गीत ....प्रौढ़ावस्था हुयी सयानी, बोनसाइ त्योहार हुए हैं



पर्व मनाते यंत्रवत् हम

थके हुए त्योहार हुए हैं

पृथक आत्मा तन के ज्यों 

रीतिबद्ध त्योहार हुए हैं । 


कलाइयों पर सजी राखियाँ 

मन ,बच्चे जैसे निर्मल थे

प्रौढ़ावस्था हुयी सयानी 

बोनसाइ त्योहार हुए हैं ।

  

पर्वों की अवतंस श्रंखला

सुखधाम धरा की निश्चलता

स्थिर और ठहरे जीवन में

सक्रियता के नाम हुए है । 


त्योहारी इस सभ्यता का

संयम से संपोषण करना

जीवन जीने के अर्थों में   

ये सकाम  ललाम हुए है । 


पर्व मनाते यंत्रवत् हम 

थके हुए त्योहार हुए हैं 

पृथक आत्मा तन की ज्यों  

रीतिबद्ध त्योहार हुए हैं ।। 


✍️ मनोरमा शर्मा

जट्बाजार

अमरोहा

उत्तर प्रदेश, भारत