रविवार, 27 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानियों के संदर्भ में डॉ कंचन सिंह का आलेख ---मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से परिचित कराती हैं दयानंद गुप्त की कहानियां

 


मानव जिस समाज में जन्म लेता है उस समाज का प्रभाव अविच्छिन्न रूप से उसके व्यक्तित्व को गढ़ता है। सामाजिक विषमताएं उसके व्यक्तित्व को निरंतर उद्वेलित करती रहती हैं, फलस्वरूप वह अपने भावी जीवन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए तत्पर हो उठता है। एक साहित्यकार का कर्तव्य बोध उसे उसके अनुभवों के आधार पर संचित मान्यताओं के आलोक में समाज का पथ प्रदर्शन के लिए निरंतर प्रेरित करता रहता है। कोई रचनाकार अपने तत्कालीन देशकाल. वातावरण से निर्लिप्त रहकर साहित्य सर्जना नहीं कर सकता, इसलिए साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने भी कहा था " साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़ परिमार्जित व सुंदर हो तथा जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो । साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसमें जीवन की सच्चाईयां और अनुभूतियां व्यक्त की गई हो।

      उपर्युक्त वक्तव्य के सन्दर्भ में श्रद्धेय श्री दयानन्द गुप्त जी के साहित्य अनुशीलन में हम पाते हैं कि उनका समग्र साहित्य अनुभवजन्य सत्य का ही दस्तावेज है। कोई भी रचना सिर्फ रचने के लिए नहीं लिखी गयी वरन देश समाज व्यक्ति कि समस्याओं को उजागर कर आने वाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करने हेतु की गयीं। श्री गुप्त जी का आविर्भाव उस समय हुआ ( 12.12.1912 - 25.3.1982) जब राष्ट्र पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा मुक्ति के लिए छटपटा रहा था। भारत के तमाम क्रान्तिकारी गाँधीवादी , रचनाकार तथा अन्य राष्ट्र भक्त अपने-अपने तरीके से देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थे। ऐसे वातावरण में पले-बढ़े श्री गुप्त जी का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा संपन्न था। एक साथ अनेक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए वो साहित्य सर्जना में भी निरंतर संलग्न रहे। एक कुशल राजनेता, जिम्मेदार अधिवक्ता, समर्पित समाजसेवी व सचेत पत्रकारिता से मिले अपने अनुभवों को साहित्य में रचते बसते रहे। फलस्वरूप तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व धार्मिक सन्दर्भ उनके साहित्य में स्वत उद्घाटित होते गए।

श्री गुप्त जी की रचनाओं में तीन कहानी संग्रह कारवां सन 1941, श्रृंखलाएं सन 1943 , "मंजिल"  सन 1956 में प्रकाशित हुआ । एक काव्य संग्रह "नैवेद्य " सन 1943 में प्रकाशित हुआ । एक नाटक का भी सृजन " यात्रा का अंत कहाँ " गुप्त जी ने सन् 1946 में किया। एक साप्ताहिक पत्र “ अभ्युदय का प्रकाशन व संपादन] सन 1952 में प्रारंभ किया, जो साहित्यिक व समसामयिक विषयों के कारण लोकप्रिय पत्र प्रतिष्ठित हुआ।
     जिस समय श्री गुप्त जी का साहित्य हिंदी साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था, उस समय के अद्वितीय कवि महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने भी उनकी रचनाशीलता से प्रभावित हो उनके प्रथम कहानी संग्रह "कारवां" की भूमिका में अपना हृदयोद्गार इस प्रकार उद्घाटित किया -
" श्री दयानन्द गुप्त मेरे साहित्यिक सुहृद है। आज के सुपरचित कवि एवं कहानी लेखक, मुझसे मिले थे तब कवि एवं कथाकार के बीज में थे बीज आज लहलहाता हुआ पौधा है वकालत के पेशे की जटिलता में इनके हृदय की साहित्यिकता नहीं उलझी, यह अंतरंग प्रमाण बहिरंग कहानियों के संग्रह के रूप में मेरे सामने है। "
वस्तुतः श्री गुप्त जी का सम्पूर्ण साहित्य अपनी सरल संप्रेषणशीलता के कारण सहज ही पाठक से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। मैं इनकी रचनाओं से अत्यंत अभिभूत हूँ और तनिक आश्चर्यचकित भी इन रचनाओं का वैसा प्रचार-प्रसार नहीं हुआ जिसकी अधिकरणी ये रचनाएं हैं।
    श्री गुप्त जी की कहानी" नेता" मेरी प्रिय कहानी है। यह कहानी तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि पर रची गई है। यह वह समय था जब पूरे राष्ट्र में देशभक्ति की लहर दौड़ रही थी। तत्कालीन राजनेता अपने पार्टी के विचारों से इस प्रकार बंधे थे कि देश व समाज के समक्ष परिवार हित गौण हो गया था। यदि मैं ऐसे लोगों को गृहस्थ बैरागी की संज्ञा दूं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। वे तन मन धन पूरी तरह राष्ट्र को समर्पित थे। कहानी के प्रारंभ में ही पता चल जाता है कि कहानी का नायक सेठ दामोदर दास दामले गांधी जी की विचारधारा से प्रभावित हैं। वह कांग्रेस पार्टी के साधन संपन्न प्रतिष्ठित प्रभावी राजनेता हैं, जो देश हित में निरंतर सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। एक दिन में कई कई जगह व्याख्यान देने जाते हैं अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में उन्हें यह मान ही नहीं होता कि उनका परिवार उनके सान्निध्य के लिए कितना तरस रहा है। उनके परिवार में पत्नी व छः साल की पुत्री है, जो पिता के स्नेह के लिए अहर्निश व्याकुल रहती है। जब सेठ जी का सेक्रेटरी उनसे कहता है कि परिवार के प्रति भी हमारे कुछ कर्तव्य हैं तब सेठ दामले कहते हैं" हमें मानव में विभिन्नता और अंतर पैदा करने का अधिकार कहां ? अपने संबंधियों को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं। "
     इस संभाषण से पता चलता है कि तत्कालीन समय के नेता जो वास्तव में समाज का नेतृत्व करने के अधिकारी थे अपने दल की नीतियों से बंधे ये लोग असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी थे। इनका पूरा जीवन देश व समाज के उत्थान के लिए समर्पित था, दरअसल वह दौर ही ऐसा था अपनी छोटी सी बच्ची की कहानी सुनने की अभिलाषा भी वह पूरी नहीं कर पाते। लेखक यहां यह भी स्पष्ट संकेत करते हैं कि सेठ दामले अपने परिवार से स्नेह तो बहुत करते हैं परंतु स्नेह प्रदर्शित करने के लिए उनके पास वक्त नहीं है। वह अहर्निश देश सेवा में कार्यरत रहते हैं। पिता-पुत्री के संवाद पाठक को मार्मिक संवेदना से भर देते हैं।
  एक अन्य घटना से भी लेखक सेठ दामले के व्यक्तित्व को उद्घाटित करते हैं। जब सेठ दामले को एक संगीत सभा में व्याख्यान देने जाना होता है, तो चूंकि उन्हें संगीत शास्त्र का अल्प ज्ञान भी नहीं था लिहाजा उनके सेक्रेटरी के सुझाव पर कि आप कोई गीत सुने और वही भाव अपने व्याख्यान में बोल दें। उस दिन सेठ दामले  ने पत्नी के पास जा बड़े ही प्रेम से एक गीत सुनाने का अनुरोध किया क्योंकि उनकी पत्नी बहुत मधुर गाती थी, पति के अप्रत्याशित इस प्रेम भरी मनुहार से अभिभूत होकर वह एक मधुर गीत सुनाने लगीं। इधर सेठ जी गीत सुनते और अपने विचारों को एक कागज पर लिपिबद्ध करते जाते। अचानक उनकी पत्नी ने जब उन्हें ऐसा करते देख मर्मान्तक पीड़ा से आहत हो गीत बंद कर अपने पति से कहती है यदि आपको अपना काम ही करना था तो झूठे प्रेम का स्वांग करने की क्या आवश्यकता थी। सेठ जी उतनी ही इमानदारी से बोलते हैं मैं तो अपने भाव लिख रहा था आज के व्याख्यान के लिए इस कथन से उनकी पत्नी को अपने आत्मसम्मान पर चोट महसूस होती है। वो कहती हैं गीत तो आप कहीं और भी सुन सकते थे। उन्हें ऐसा लगता है कि पति उनसे प्रेम नहीं छल करते हैं। सेठ जी यंत्रवत वस्त्र बदलकर व्याख्यान देने चले जाते हैं, बिना यह समझे कि उनकी पत्नी व पुत्री पर उनके ऐसे बर्ताव से कितनी पीडा हो रही होगी।
    लेखक यहाँ पति-पत्नी के संवाद के माध्यम से यह भी स्पष्ट करते हैं कि सेठ दामले आधुनिक विचारधारा के होने के कारण स्त्री-पुरुष समानता के पोषक है तभी तो वो पत्नी को कहते हैं कि तुम भी बाहर निकलो, देश सेवा करो जिस समाज में स्त्री को घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी उस समय यह संवाद लेखक की प्रगतिशील विचारधारा को प्रदर्शित करता है। प्रस्तुत कहानी मुझे कहानीकार के जीवन से अधिक प्रभावित जान पड़ती

" वे पत्र " यह कहानी एक रचनाकार की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालती है। वस्तुतः जिस साहित्य रचना पर लोग सम्मान व पुरस्कार प्राप्त करते हैं क्या वे सचमुच इसके अधिकारी हैं या नहीं ? लेखक के अनुसार इस सत्यता का सत्यापन होना आवश्यक है। एक अन्य सामाजिक विद्रुपता को यह कहानी रेखांकित करती है भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अपने क्षुद्र लाभ के लिए सत्य को उद्घाटित न होने देना जो उक्त कहानी में आनंद का भतीजा करता है। वह अपने लाभ के लिए सत्य छुपाने के एवज में मूल्य भी अदा करता है। आज भी हमारे समाज में इस बुराई की जड़ें इतनी गहरी हैं, जिन्हें आसानी से नष्ट करना मुश्किल जान पड़ता है।

" तोला" यह कहानी पारिवारिक पृष्ठभूमि के अंतर्गत स्नेह, प्यार, ममता, त्याग, क्षमा, ईर्ष्या. द्वेष जैसे भावों को अभिव्यंजित करती एक सशक्त कहानी है। कहानी का नायक तोला निःसंतान होने के कारण अपना सारा स्नेह बैलों पर लुटाता है। उसका छोटा भाई रामबोला ईर्ष्यावश तोला के एक बैल को विष दे देता है। पुत्रवत बैल की आकस्मिक मृत्यु से आहत तोला का जीवन घोर नैराश्य में डूब जाता है। फिर भी वह अपने छोटे भाई के जेल जाने पर दोनों परिवारों का गुजारा अकेले करता है। छोटा भाई पितातुल्य बड़े भाई के सदव्यवहार से आत्मग्लानि में डूबकर उसके गले लग जाता है। निःसंतान तोला आह्लादित हो उससे अपने गले से लगा बोल उठता है आज मेरा लाल मुझे मिल गया " सहज और सरल भाषा में लिखी यह कहानी पाठक के अंतर्मन को प्रभावित करने में पूरी तरह सफल है।
" नया अनुभव " यह कहानी लेखक के गाँधीवादी विचारधारा को प्रतिबिंबित करती है। कहानी
का मुख्य पात्र रामजीमल अनेक बुराइयों के साथ ही साथ चोर भी है। एक बार पकड़े जाने पर उसे जेल हो जाती है। जेल से छूटने के बाद उसके अनथक प्रयत्न के बाद भी समाज के लोग उसे अपने यहां कोई काम नहीं देते। थका हारा भूखा-प्यासा, एक रात वो मंदिर में शरण लेता है। रात्रि में पैसों से भरी थैली पर उसकी क्षुब्ध निगाहें जैसे ही पड़ती हैं वह मचल उठता है उसे लेकर भागता है पर महंत के शिष्यों द्वारा पकड़ कर महंत के सामने लाया जाता है। किन्तु महंत उसका पक्ष लेते हुए यह कहते हैं कि यह थैली मैंने ही इसे दी थी। यह सुनते ही रामजीमल को जीवन का आत्मबोध होता है। समाज के ठोकर के कारण सत्य के प्रति डगमगाता उसका आत्मविश्वास महंत के व्यवहार से सदा के लिए स्थिर हो गया।

" न मंदिर न मस्जिद " धार्मिक उन्माद किस तरह व्यक्ति को सामान्य जीवन मूल्यों से दूर कर देता है। धर्म के ठेकेदार तत्कालीन समय से लेकर आजतक धर्म की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं। इस कहानी में लेखक हिन्दू मुस्लिम के बीच सामंजस्य स्थापित करने का सुदृढ़ प्रयास करते हैं। आज के समाज में भी यह कहानी अत्यंत प्रासंगिक हैं क्योंकि आज भी धर्म के नाम पर ओछी राजनीति एक बड़ी समस्या है ।

" अंधविश्वास " जैसा शीर्षक से ही प्रतीत होता है कि यह कहानी हमारे समाज की आदिम बीमारी को प्रतिबिंबित करती है। मानव सभ्यता की विस्मयकारी उन्नति के बावजूद, पुरातन काल से लेकर आज तक हमारे समाज में अन्धविश्वास की बीमारी खत्म नहीं हुई। आज भी न जाने कितने ढोंगियों की गुजर बसर इस अंधविश्वास के पिष्टपेषण से ही होती है।

" ऐसी दुनिया " यह कहानी एक ऐसे अभिजात्य पुरुष की है जो दोहरी मानसिकता से ग्रसित है। समाज को दिखने के लिये उसके आदर्श का पैमाना बहुत महान है। किन्तु अंदर से वह नितांत पतित और चरित्र भ्रष्ट, दोगले व्यक्तित्व का स्वामी है। सहशिक्षा के विरोध में भाषण तो देता है परन्तु अपने विद्यालय की ही प्राचार्य के साथ उसके अंतरंग सम्बन्ध उसकी दोहरी मानसिकता को प्रदर्शित करते हैं। लेखक बड़े ही बेबाकी से व्यंगात्मक शैली में समाज के ऐसे कापुरषों पर करारा चोट किया है। आज भी हमारे समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है।
   उपर्युक्त कहानियों की भाषा तत्सम युक्त खड़ी बोली है शब्दों का चयन बड़े ही कलात्मक ढंग से भावों की सृष्टि करने में समर्थ है। कहीं-कहीं गद्य में भी पद्य के सामान काव्य प्रवाह देखने को मिलता है, जो लेखक के भाषा ज्ञान पर मजबूत पकड़ को दर्शाता है। मुहावरों से अलंकृत भाषा में अंग्रेजी शब्दों का भी सहज प्रयोग श्री गुप्त जी के अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को भी प्रदर्शित करता है। शैली की दृष्टि से कहानियां अपने समकालीन कहानीकारों की तरह ही पाठक पर यथेष्ट प्रभाव डालने में समर्थ हैं।
    उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि श्री दयानंद गुप्त जी की कहानियां मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से पाठक को परिचित कराती है। उनके लेखन का वैशिष्ट्य है कि वह समाज केंद्रित है इसीलिए ये हमारा आज भी मार्ग दर्शन करने में समर्थ हैं। इनकी प्रासंगिकता इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी आज भी वैसी ही हैं जैसी तत्कालीन समय में थीं। ये कहानियां लेखक के आधुनिक प्रगतिशील सोच एवं प्रबुद्ध व्यक्तित्व को पाठक के समक्ष विभिन्न स्तरों पर प्रतिबिंबित करती हैं।


✍️ डॉ. कंचन सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभागाध्यक्ष
दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज
मुरादाबाद ( उ. प्र) 244001

शनिवार, 26 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी की 192 अप्रकाशित काव्य रचनाएं उन्हीं की हस्तलिपि में । इन रचनाओं में गीत भी हैं, दोहे, कुंडलियां, मुक्तक, लघुकाव्य, खण्डकाव्य भी । ये सभी रचनाएं उनकी एक डायरी में लिपिबद्ध हैं, जिसे हमें उपलब्ध कराया है उनके सुपुत्र उमेश शर्मा जी ने ।


 

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:::::::::::प्रस्तुति::::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

शुक्रवार, 25 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी का नवगीत .....

 

लिखना सीख रहे हैं

नए-नए

अर्थों से जुड़कर

टिकना सीख रहे हैं


शब्दों की

चौपाल लगाना

रंगों, ध्वनियों से

बतियाना

अच्छा-अच्छा

होने सा हम

दिखना सीख रहे हैं


घर तक आए

बाज़ारों में

विज्ञापन में

अख़बारों में

लोग अजीब

तरह से जाकर

बिकना सीख रहे हैं


राजा-रानी

पहले जैसे

जीवन जीते

खूब मज़े से

गर्म तबे पर

रोटी जैसा

सिकना सीख रहे हैं

✍️ माहेश्वर तिवारी

गुरुवार, 24 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर)की साहित्यकार चंद्र कला भागीरथी की कविता -किसी ने सोचा न था


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार सन्तोष कुमार शुक्ल सन्त की रचना ---गया भरोसा टूट सुहाने सपनों से .....


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा --स्याही

 


बुधवार, 23 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी की 21 रचनाएं -------




 (1) वीणा वादिनी -वंदना 

वीणा-पुस्तक-धारिणी  शुभदे ।

नीर-क्षीर-प्रविवेक कुशल-कुल-हंस -वाहिनी सुख दे ।

विविध-विधान-कला-शुभ-आकर ,गुण-गण-मंडित बाले ।

आगम-निगम-विचार-विमल-मति,चंद्र प्रभासित-भाले ।।

कवि-कुल-कमल-दिवाकर भासित ज्योति किरण से तेरी ।

मंत्र-तत्व-निधि ऋषि गण जीवित दया-दृष्टि से तेरी ।।

जननी विश्व की विषम-विवशता का दुःख सत्त्वर हर दे ।

सफल-कल्पना-भाव-व्यंजन-रस-मय मानस कर दे ।।

(2)

तिल तिल नित्य जला करता हूँ 

जन जन का अभिशाप वहन कर सब का सदा भला करता हूँ ।


कविता सुधा जगत को देता ,

विषम व्यथा उससे ले लेता ,

विषमय जीवन नौका खेता ,

जलनिधि के उद्गम ज्वार को पल पल सखे दला करता हूँ ।


सुख की मैं करता न  कल्पना ,

दुःख तो सदा रहा है अपना ,

कैसे कह दूँ इसको सपना ,

हिमकर की किरणों को छूकर हँस हँस नित्य गला करता हूँ ।


सत्यम शिवम् लक्ष्य वह मेरा ,

करे सुंदरम जहां बसेरा ,

मग में बटमारों का डेरा ,

सहयात्री का पता न पाकर पग पग हाथ मला करता हूँ ।


(3)

आज मुझे लगता है ऐसा मानो सारे काम चुक गए ।।

क्योंकि सामने मेरे आकर कृष्ण चंद्र सुख धाम रुक गए ,

रुकें या कि जायें जग भर के जो भी नाते दार हमारे ।

नटखट प्रेम पियासे नैना कृष्ण चरण में स्वयं झुक गए ।।


(4)

पथिक रे !साँझ पड़ी घर चल ,

धीमी गति से मिले न मंज़िल मिटे न मन हलचल ।

जो कल मिले पथिक थे पिछले आगे गए निकल ।।

घड़ी घड़ी क्या खोल बांधता हो कर तू यों बेकल ।

पल पल की अब देर हो रही गोल रखो बिस्तर बंडल ।।

नभ में काले मेघ घिरे हैं लगे बरसने रिम झिम जल ।

पगले पाँव उठा चल जल्दी होने लगे पंथ पंकिल ।

धीरज की लक़ुटी लेकर अब राम नाम केवल संबल ।।

(5)

हमारो जीवन धन घनश्याम ,

अपर देव सब रंक बावरे नाहिन तिन सों काम ।।

मीत सोई परखत पै साँचो सीसहु देत कटाय ,

पैयत कहूँ ऐसों जन नाहीं मरे कतहुँ कत धाय ।

मात पिता सुत बंधु त्रियादिक करत स्वार्थी प्रीत ,

जानत हूँ पै तजियत नाहीं कैसी उलटी रीत ।

ऐसो कब करिहो माधव ज़ू नाम रसौ बसु जाम ,

द्वारे परो परो दिन काटों बिसरै जग को नाम ।

मधुकर है सब जग भरमानो कुसुम सुमन सों प्रेम ,

अंत सार नहिं पायो तिन महँ जारौं झूठौं नेम ।।


(6)

अरी ओ रुक जा आँसू धारा ?

माना तुझे दूर जाना है यहाँ न कोई सहारा ।

सोच समझ कर चलना होगा ।

विपदा में ही पलना होगा ।

काँटों में भी खिलना होगा ।

देख सोच ले एक बार फिर कुछ न रहेगा चारा ।।

तू मुक्ता की मँजु मालिका ।

खल -दल -धालिनी प्रबल कालिका ।

मानस कृंदन की मरालिका ।

क्यों करती है कोष रिक्त यह अतुल अमूल्य हमारा ।।

जो तब मूल्य समझ पाएगा ।

हँस हँस प्राण गवाँ पाएगा  ।

जीवन ज्योति जला पाएगा ।

आज नहीं तो कल पाएगा है जो दूर किनारा ।।


(7) गीत और वे

मैं गीत लिखूँ या सुनूँ उनकी ?

जिस दम ही कविता लिखने को 

यह हाथ लेखनी आती है ।

दिल खोल तभी श्रीमती विभा 

पाइपिंग धोती मंगवाती है । 

मैं यहाँ रहूँ वे वहाँ रहें ,

बेचारी समय न पाती हैं ।

इसलिए रात को पास बैठ चलने लगती उनकी धुन की ।।1।।

मैं चाहूँ चालीस रुपयों में ,

घर का सब काम चला लेना ।

हाँ , अल्प बचत के लिए और ,

उनसे दस पाँच बचा लेना ।

वे गुरु घाघ की चेली हैं 

चाहे चलचित्र चला लेना ।

उपदेश कला में महा निपुण वे कहतीं बात सदा गुण की ।।2।।

मैं चाय नहीं पी पाता वे ,

राष्ट्रीय पेय  बतलाती हैं ।

मैं यदि काफ़ी को मना करूँ 

वे खोज विटामिन लाती हैं ।

यदि मैं उनको सिर्रिन कहता ,

वे मुझको डाँट पिलाती हैं ।

है ऊपर से तुर्रा यारो , कुछ बात कही बस वे ठिकनीं ।।3।।

दस बक्सों में साड़ी जम्फ़र 

पर वे कपड़े से नंगी  हैं ।

है अस्सी तोले सोना भी 

फिर भी ज़ेवर की तंगी है ।

हैं मेरे तन पर जीर्ण वस्त्र 

जिनमें पेवंद पंचरंगी हैं ।

क्यों मेरी गंध नहीं भाती क्या बू है मुझमें लहसुन की ।।4।।

( रचनाकाल १९६०)

(8) कविता से वार्ता

कौन तुम मनोमोहिनी रानी ?

अनजाने संकेतों से क्यों,हमको पास बुलातीं ?

रूप राशि पर इठलाकर क्यों,मानस कमल खिलातीं।

आगे बढ़ने की लगन लगा शोणित में आग लगातीं ।

कुलिशों के अंबारों को तुम मोम समान गलातीं ।

 कहो अभी तक कभी तुम्हारी महिमा किसने जानी ।।1।।

 अधरों की मुस्कान तुम्हारे कवि का जीवन बनती ।

भ्रकुटी रेख की क्षणिक कुटिलता जीवन संशय बनती ।

केशपाश शृंगार मनोरम पल पल आगे बढ़ता ।

जीवन का अभिशाप कभी वरदान मनुज का बनता ।

कभी सरलता कभी कुटिलता, यह प्राचीन कहानी ।।2।।

मैं याचक बन कभी तुम्हारे द्वार चला आया था ।

सेवा की टूटी फूटी साई एक साध लाया था ।

किंतु तुम्हारे द्वार पहुँच कर यह मैंने पहचाना ।

तुम कविता हो मधुरिम कटु-तम यही तुम्हारा बाना।

सफल साध करनी ही होगी मैं याचक तुम दानी ।।3।।

मिटे दंभ ,प्राचीन नष्ट हो जड़ता जड़ से उखड़े ।

नयी चेतना मिले मनुज को बीतें बीते झगड़े ।

कवि के मन में जगे राष्ट्र हित बलि पथ हो नित आगे ।

हिले धरा पापों की गठरी उतर शीश से भागे ।

तुम सी लाली हो जीवन में , जो अनुराग निशानी ।।4।।


(9)

हताश जीवन निराश आँखें अतीत गाथा बता रहीं हैं ।

विकल भटकते हुए मनुज की दबी विवशता जता रही है ।।1।।

न जान पाए तुम्हें तनिक भी विशाल मति युत महान ज़ौहरी ।

पड़ी उपेक्षा की धूलि मुख पर मलीन मतिता जता रही है ।।2।।

अगर न तुमको था प्यार मुझसे न छेड़ते वह सितार तंत्री ।

जहाँ विकलता अवतार लेकर निराश पर फड़ फ़ड़ा रही है ।।3।।

गगन बिहारी इन तारकों में कहीं तुम्हारी झलक मिलेगी ।

यही दुराशा दिन रात मन में न आँख पलकें गिरा रही है ।।4।।

सरोवरों के खिले कमल में तुम्हारी आभा समझ रहा था ।

द्विरेफ़ बन कर विचर रहा हूँ सुगंध भीनी लुभा रही है ।।५।।

कहीं तुम्हारा यदि रूप होता , मिला न होता कहीं ठिकाना ।

अरूपता जब निखिल जगत को ,बना के चकई नचा रही है ।।6।।


(10)

वे मधुमय दिन रात कहाँ हैं? 

बीत चुकीं सुख की मधु घड़ियाँ ,

टूट गईं बन्धन की  कड़ियाँ ,

सूख गईं पथ की फुलझड़ियाँ ,

        वह जीवन-सुख-प्रात कहाँ है ?1।

कुसुम सदा विकसित रहते जो ,

शीतल सुरभि सदा बहते जो ,

मधुकर चुहल मुदा सहते जो ,

         शूल बने , सुख बात कहाँ है ?2।

मृदु यौवन की अमल तरंगें ,

नवजीवन की नयी उमंगें  ,

प्रेम दीप के अमर पतंगे , 

            हैं तो दीपाघात कहाँ हैं  ? 3।


(11)

शलभ क्यों खोते हो तुम प्राण ?

माना प्रेम तुम्हारा अनुपम सुलभ नहीं पर प्राण ।

प्रेम चंद्रमा से करके भी क्या चकोर ने पाया ?

चिनगी चुगी आग की पल पल सुंदर गात जलाया ।

मूढ़बुद्धि को इतने पर भी क्या अपना हित भाया ?

उड़ा पकड़ने प्रियतम को वह उलटा भू पर आया ।

                     पर खाया फिर भी विरह बाण ।

सरसिज़ से कर प्रेम मधुप भी क्या पाता आनंद ।

नित्य कमल-समपुट -कारा में हो जाता है बन्द ।

बीन-राग पर मोहित होकर उरग बँधा मति मंद ।

नाद श्रवण के ही तो भ्रम  में हिरण फँसा है फंद ।

                        खा गया मूर्ख जो बधिक बाण 

तुम दीपक की जिस ज्वाला पर अपनी देह जलाते ।

क्या अपने हित तुम शतांश भी प्रीति वहाँ तुम पाते ।

गोपी गण सम तुम जितने भी कृष्ण दीप पर जाते ।

नहीं जानते रे उतनी ही  वे विरहाग्नि जलाते ।

                             लो अब तो हित की बात मान 


(12)

याद शहीदों के शोणित की जिसदम मन में आती ,

मस्तक तो ऊँचा हो जाता पर भर आती छाती ।

वह नाना की विकट वीरता ,लक्ष्मीबाई का बलिदान ।

बुला रहा है वीरों तुमको ,रखो सदा भारत का मान ।

शाह रंगीला सिंगापुर की लो समाधि से निकला ,

जिसपर हुई क्रूरता लखकर कुलिश मोम बन पिघला ।

सुना रहा वह आज तुम्हें सत्तावन का गौरव इतिहास ।

स्वागत सबका मन करता है बजती यश दूँदभि सोल्लास ।

तात्या टोपे ने भी खेली अपने गर्म रुधिर से होली ।

अंग्रेज़ों की न्याय हीनता की चोली खुल खोली ।

कानपुर के लौह खम्ब में  मैना बाँध जलायी ।

अंग्रेज़ों की पशुता पापिनि जग में पड़ी दिखायी ।

यह स्वतंत्रता देवि देश में नहि सरलता से आयी ।

वीर रक्त से सिंचित कण कण ,इसका पड़ता दिखलायी ।

सत्ता वन अरु बयालिस में, कितनों का बलिदान हुआ ।

उन्नीस में डायर के हाथों कितनों का अवसान हुआ ।

उनको करें समर्पित हम क्या रिक्त हुआ सब अपना कोश ।

देख देख कर एक दूसरे को देते आपस में दोष ।

नयन बिंदु की मसि से अंकित ह्रदय पटल पर अनमिल रेख ।

वीरों के हित हो श्रद्धांजलि कमल कुसुम सम मेरा लेख ।।

(13)

कैसे मिटे देश की पीड़ा जबकि राष्ट्र मस्तिष्क विकल है ।

वह देखो आ रहा सामने निरे बाल सिर पर है धारे ,

जीवन का पूर्वार्ध अभी है फिर भी बाल पके हैं सारे ।

चिथडों में से झाँक रही हैं कई अस्थियाँ कर विद्रोह ।

पेट काट कर पहने चप्पल फिर भी है प्राणों का मोह ।

कोट भले ही पहन रहा है किंतु न इसका कुछ सम्बल है ।।


रोटी , दूध ,वस्त्र का दिन दिन इसके घर में रहा अभाव ।

विषम परिस्थिति का जीवन की इस पर पड़ता प्रथम प्रभाव ।

ऊँचे दर्जे की शिक्षा से इसके शिशु रह जाते हैं ।

जीवन के सुखमय दिवसों से वे वंचित रह जाते हैं ।

किंतु हिमाचल-सम यह फिर भी अपने व्रत पर सदा अचल है ।।


परिचय इतना ही काफ़ी है, फिर क्यों समझ सके नहि आप ।

यह शिक्षक है सकल जगत का किंतु भूख का ढोता पाप ।

निज राज्य में हुआ उपेक्षित खो बैठा अतीत सम्मान ।

यह जनता से ,अभिभावक से , छात्रों से। पाता अपमान ।

कान बंद सरकार किए है , झूठी ज़िद पर रही मचल है ।।


एक वर्ग में हो समानता यही योग्यतम है सिद्धांत ।

फिर भी कितने बंधु हमारे बने हुए हम से संभ्रांत ।

बढ़े हमारा वेतन भी अब पेंशन की सुविधा हो प्राप्त ।

शिक्षक बंधु हों मीटिंग में निज गौरव हो जावे प्राप्त ।

कैसे उन्नति की आशा हो उर में सुलगा विषम अनल है ।।


यदि शिक्षा के योग्य परिस्थिति करनी है तुमको निर्माण ।

यदि शिक्षा को उन्नत करना अनुशासन का रखना ध्यान ।

यदि छात्रों में नैतिक ,बौद्धिक , आध्यात्मिक उत्थान चाहते ।

यदि भारत का निखिल विश्व में अजर, अमर सम्मान चाहते ।

शिक्षक को भी मानव मानो यही एक सदुपाय सरल है  ।।

(रचना काल १९५५)


(14)

अरे ओ जीवन के अवसाद !

ठहर तनिक तो कर लेने दे विगत क्षणों को याद ।

तेरे लिए गँवायी मैंने माता की मृदु गोद ,

तेरे ही हित छोड़ दिया था शैशव का मधु मोद ,

अरे तुझी पर वार दिया था मैंने मधुर विनोद ,

तेरा स्वागत करने को मैं लाया विषम विषाद ।1।

यौवन का मृदु आँचल पकड़े आया मैं उस ओर ,

हाव भाव की मृदुल लालिमा लेती जिधर हिलोर ,

विकट , विकटतर तथा विकटतम तेरे विपती झकोर ,

होकर जिनसे मनुज विताड़िट करता विपुल निनाद ।2।

कभी धरा पर ,कभी गगन पर आशा दृष्टि लगायी ,

मानस के ईंधन में सुख की स्मरण चिता सुलगायी ,

और कहूँ क्या, तुझे निठुरतम कभी दया क्या आयी ,

गूँज रहा है अरे देख ले ,तेरा वह अपवाद ।3।

व्योम बिहारी विशद विभाकर है तुझसे आक्रान्त,

चारु चंद्र भी घटते घटते हो जाता विक्रांत ,

त्रस्त बेचारे तारे सारे रहते कभी न शांत ,

देव मंडली में तुझ पर ही होता वादविवाद ।4।

देख ध्यान रख इतना फिर भी अपनी बात निभाना ,

आया है तो मुझे छोड़कर अब तू कहीं न जाना ,

दुःख से बचने को तू मेरे मन को बना ठिकाना , 

तेरे एकांगी होने से जग का मिटे विषाद ।5।


(15)

न्योछावर मैं एक फूल ।

 मौन व्रंत पर सुरभित होता ।

किंतु वेदनान्वित धरती पर रहा सदा ही मैं निर्मूल ।।1।।

मात्रवेदि पर चढ़ने वाले ।

पीड़ित का दुख हरने वाले ।

देश प्रेम के जो मतवाले ।

जिस पथ के हों पथिक गिरूँ मैं , निकले मन का शूल ।।2।।

वीर तुम्हारा पथ निर्भय हो ।

वीर तुम्हारा मत निर्भय हो ।

वीर तुम्हारा बल निर्भय हो ।

मुझसे ले आह्लाद लालिमा करो देश गत शूल ।।३।।


 (16) 

कवि तुम्हारे रुदन में भी गान बसता है ।

इस निराले जगत में अपमान सस्ता है ।।

जिस कुसुम की गंध मुझको कुसुम से अतिरिक्त भायी।

जिस कुसुम की सी मृदुलता ना कहीं पड़ती दिखायी ।

जिस कुसुम की गंध ने मुझसे निखिल जागती छुड़ायी ।

जिस कुसुम की मंजुता की मंजुता शशि में समायी ।

छीन मेरे उस कुसुम को दैव हँसता है ।।१।।

विकल मानव की व्यथा को निज व्यथा तुम मानते हो ।

विकट रजनी के तमस को भी दिवस ही मानते हो ।

अति निराशा के समय को आश उद्गम जानते हो ।

हत कुसुम अलि को कहो कवि , लेश भी पहचानते हो ।

यदि नहीं तो विवश अलि को काल डँसता है ।।२।।

आज जग जाने न क्यों कर रहा उपहास मेरा ।

कालिमा से लिख रहा है दैव क्यों इतिहास मेरा ।

अयुत यामा यामिनी को काट देगा कब सवेरा ।

भा सका सहवासिनी को जब नहीं सहवास मेरा ।

देख लो विश्वास जग का आज नसता है ।।३।। 


(17)

दिखा दे अभी कलेजा चीर ,लगा यदि देश प्रेम का तीर ।

जीवन तक का बलिदान आज जो कर सकता हो ,

जो देश प्रेम का भाव सभी में भर सकता हो , 

जो विपुल विपत्ति पयोधि हर्ष से तर सकता हो ,

स्वातन्त्रय हेतु कटिबद्ध देश पर मर सकता  हो ,

वही हमारा वीर धीर जो हरे हमारी पीर ।।१।।

लाखों लाल गँवा कर हमने यह स्वतंत्रता पाई ,

रक्त शहीदों का कण कण में देता है दिखलाई ,

कानपुर का लौह खम्ब वह मैना जहाँ जलाई ,

वह देखो आज़ाद , चंद्र की स्मृति क्यों हो आयी ,

वहीं हमारे वीर विराजें हृदय कमल को चीर ।।२।।

गांधी का सत्याग्रह प्यारा सदा जिसे भाता है ,

स्वार्थ भूत से कभी स्वप्न में जिसका नहीं नाता है ,

जो पल पल मदमत्त बना सवात्न्त्र्य गीत गाता है , 

वही हमारा वीर स्वच्छ ज्यों सुर-सरिता का नीर ।।३।। 


(18)

दूर होता जा रहा है आज मुझसे लक्ष्य मेरा ।

बीज बोता जा रहा है क्यों जगत में घन अँधेरा ?

छल-कपट अनुकूल पानी वायु पाकर बढ़ रहे हैं।

स्वार्थ केवल तत्व जग का पाठ अनुपम पढ़ रहे हैं ।

सत्य,गरिमा मय दया के शुभ्र अंकुर कट रहे हैं।

भव्य-भूषित-भाव भाव के मन पटल से हट रहे हैं ।

मार्ग भी मिलता नहीं अरु ना कहीं मिलता बसेरा ।।1।।

यातनाएँ भी निशा की सह सकूँगा मैं सभी ।

भान था अपमान की चिंता न मुझको है कभी ।

आज़माने को खड़ा हूँ कर्म भी मैं भाग्य भी ।

आश क्या कुछ मिल सकेगी आज माँगी भीख भी ।

बस इसी से है भटकता फिर रहा लघु चित्त मेरा ।।2।।

यह निराशा एक केवल मित्र जो है साथ मेरे ।

पल-विपल क्षण-क्षण मुझे जो रह रही है साथ घेरे ।

रह सकेगी अंत तक क्या , कुछ नहीं इसका पता जब ।

देश का सौभाग्य या दुर्भाग्य कैसे दूँ बता तब ?

मैं भँवर में फँस गया हूँ और नाविक रूष्ट मेरा ।।3।।

एक क्या लाखों करोड़ों उठ रही थीं भाव लहरी ।

डूब जाता हिम अचल भी खा के जिनकी चोट गहरी ।

देखता क्या हूँ , अचानक पूर्व दिग में ललिमा थी ।

भागती सी जा रही चुपचाप निशि की कालिमा थी ।

हो चुका था व्यक्त धूमिल काट रजनी को सवेरा ।।

आ गया सहसा निकट वह दूर जो था लक्ष्य मेरा ।।4।।


(19)

गा दो कवि , कोई मधुर गीत । 

गा देता हूँ सुन लो तुम में यदि कविता से हो तनिक प्रीत ।।

अज्ञान निशा भागी जाती तारे भी लेते हैं हिलोर ।

हल्की सी आहट पाते ही नौ -दो- ग्यारह हो गए चोर ।

मागध तमचुर ध्वनि देता है जागो जागो हो चुका भोर ।

 बन गई हार भी अमर जीत ।।1।।

वार वधु कोकिल मृदुतम संगीत सुनाती जाती है ।

कलिकाएँ मुस्कानभरी चुटकी से टाल लगाती हैं ।

मधुपावलि कोमल गुंजन मिसअति अनुपम वाद्य बजाती हैं ।

जन- गण - मन नूतन रीति प्रीति ।।2।।

मेरी अतुलित निधि के समक्ष देखो लज्जित वह धनद कोष ।

मेरी थैली के रत्न गिनो मोती,मोहन,वसु,लाज,घोष।

राजेंद्र ,जवाहर,मालवीय,सरदार,कृष्ण,टैगोर ,बोस ।

गा रहे देव भी यशोगीत ।।3।।

भारत माता क्यों कलुषित हो  जन-मन के घृणित विचारों से ।

स्वार्थ लोभ हो जायँ भस्म शासन के तप्त अंगारों से ।

मनुजों में प्रीति- प्रतीति जगें मानवता युक्त विचारों से ।

 ले मानवता देवत्व जीत ।। 4।।

  

(20)                                 

क्लांत उर के हेतु कवि तुम क्या मधुर संदेश लाए ।

कल्पना तितली उड़ाने के कहीं आदेश पाए ।

खिन्न हो जब जग दुखों से यामिनी के पास जाता ।

करुण जीवन की व्यथाएँ कृष्णतम तम में छिपाता ।

पर वहीं क्या विवश मानव लेश भी विश्रांति  पाता ।

स्वप्न में साकार होकर दैन्य दुःख फिर भेंट जाता ।

मेटने विधि लेख उसका क्या अमिट आदेश लाए ।।

मैं व्यथित ,मेरे व्यथित कोई न सुख की नींद सोता ।

क्षिति व्यथित है नभ व्यथित है कब कहाँ सुख प्रात होता ।

एक प्राणी की व्यथा से यदि प्रलय उत्पात होता ।

ग्रीष्म आतप यदि पवन का विकट झंझावात होता ।

तो बताओ शांतिप्रद कुछ यदि मृदुल उपदेश लाये ।।

कह रहे क्या विकल मानव की व्यथा का नाश हूँ मैं ।

कल्पना ही के सहारे निखिल जग की आस हूँ मैं ।

एक पद से ताप जग का खो हुआ क्रत कृत्य हूँ मैं ।

एक पद से सब जगत को दे रहा चैतन्य हूँ मैं ।

एक मेरे ही सहारे भक्त ने  परमेश पाए ।।


(21)

भारत का स्वर्णिम सुप्रभात ।

हैं पूर्व सरोवर में विकसित अरुणिम सुरभिt शत वारिजात ।।

मुकुलित क़लिका जो रही रात सौभाग्य सूर्य था अस्त प्राय ।

वह द्विगुणित शक्ति-संचयन कर विकसाता क़लिका प्रकट आय ।।

जगती का वैभव विपुल सर्व भारत के सम्मुख लघु लखात। 

चर्चिल के मुख से वह सिगार देखो धरती पर खिसक जात ।।

इसके ही एक जवाहर की आभा से दीपित दिग्दिगन्त ।

है पश्चिम में शतदल प्रपात भारत के पथ-पथ शत बसन्त।। 

हो चुका केसरी बन्ध मुक्त विक्रीडित जग में दिवारात ।

खो चुका दीन का मनस्ताप उत्तुंग शिखर  सम्मुख दिखात ।।

(रचनाकाल 26 जनवरी 1950 )


::::::::::::::प्रस्तुति:::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मंगलवार, 22 जून 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 15 जून 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों डॉ रीता सिंह, दीपक गोस्वामी 'चिराग', वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी', प्रीति चौधरी,सीमा रानी,अशोक विद्रोही,रेखा रानी,मीनाक्षी वर्मा,धर्मेन्द्र सिंह राजौरा,चन्द्र कला भागीरथी,सुदेश आर्य, राजीव प्रखर, कंचन खन्ना की कविताएं और कमाल ज़ैदी 'वफ़ा' की कहानी ....


काले काले बादल आये

नील गगन में धूम मचाये

सोनू मोनू भी खिड़की से

देख नज़ारे खूब हर्षाये ।


आगे पीछे दौड़ रहे वे

चोर सिपाही खेल रहे वे

छूने इक दूजे को देखो

बने बाबरे घूम रहे वे ।


गरज गरज कर खूब डराये

पानी बस थोड़ा सा लाये

नाव बनायी कागज की जो

राजू उसको चला न पाये ।


डॉ रीता सिंह,आशियाना, मुरादाबाद

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चांऊ बिल्ली, म्यांऊ बिल्ली ।

दोनों बिल्ली बड़ी चिबिल्ली ।

 चांऊ-म्यांऊ खास सहेली।   

दोनों नटखट,एक पहेली ।


बीच रास्ते रोटी पाई।

दोनों में हो गई लड़ाई। 

मेरी रोटी,मेरी रोटी ।

भिड़ गयीं दोनों बिल्ली मोटी।


फिर आया वह कालू बंदर ।

वानर पूरा मस्त-कलंदर ।

बंद करो तुम बहिन लड़ाई ।

देखो अब मेरी चतुराई। 


एक तराजू लेकर आए।

रोटी के दो भाग कराए। 

दोनों पलड़े आधी रोटी। 

पर उसकी नीयत थी खोटी।


 जो पलड़ा भी दिख गया भारी।

 उसकी रोटी मुंँह में मारी। 

बांयी खायी, दांयी खायी। 

फिर से बांयी, फिर से दांयी।


 दोनों देख रही बर्बादी।

 रोटी बच रही केवल आधी।

चाऊ ने म्यांऊ को देखा।

म्यांऊ ने चाऊ को देखा। 


दोनों में कुछ हुआ इशारा ।

झगड़ा मिट गया पल में सारा।


 रुको-रुको  ओ! कालू भाई।

बन गए भाई आप कसाई।

बंद करो ये अपना लफड़ा।

खत्म हो गया है यह झगड़ा।


छीने फिर रोटी के टुकड़े।

खिल गये उन दोनो के मुखड़े।

मिलीं गले,फिर बंद लड़ाई।

मिल कर थी फिर  रोटी खाई।


--दीपक गोस्वामी 'चिराग'

शिव बाबा सदन,कृष्णाकुंज

बहजोई(सम्भल) 244410 उ. प्र.

मो. 9548812618

ईमेल-deepakchirag.goswami@gmail.com

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आज टिफिन में क्या लाए हो,

मुझे         दिखाओ         तो,

नमक मिर्च का मुझको थोड़ा,

स्वाद         चखाओ        तो।


गोलू   बोला   लंच   ब्रेक   में,

ही                  दिखलाऊंगा,

इससे  पहले  एक   कौर  भी,

नहीं                  खिलाऊंगा।


तेरी  इतनी   हिम्मत  मुझको,

आँख       दिखाता           है,

अपनेसड़े टिफिनकी किसपर,

धौंस         जमाता            है।


अब   तू  देगा  तब  भी   तेरा,

लंच          न          खाऊंगा,

नहीं  तुझे  अपनी   गाड़ी  से,

लेकर                    जाऊँगा।


तभी  बज  गई  लंचब्रेक  की,

टन,      टन,      टन      घंटी,

हाथ साफ  करने  को  खोली,

पानी           की          टंकी।


इतना  गुस्सा  क्यों  करते हो,

ओ           चिंटू           दादा,

साथ  बैठ    खाना   खाते  हैं,

हम          आधा    -   आधा।


माफ करो  गोलू  अब मुझसे,

हुई      भूल       जो       भी,

साथ  परांठों   के   खाते   हैं,

हम          आलू         गोभी।


गुस्सा  करना  बुरी   बात  है,

सुने           सभी         बच्चे,

साथ   प्यार   के  रहने  वाले,

होते            हैं          अच्छे।

          

           

वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी',मुरादाबाद/उ,प्र,9719275453

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आज अमिया अचार 

भई सूखत हमार 

 हम खात बार बार 


जब माई  धमकात 

हम जाकर चुपचाप 

खट्टी अमिया खात 


दाँत खट्टे हो जात 

नैन खुल नही पात 

फिर भी हमको भात 


धूप पाँव जल जात 

पसीना बहुत आत 

फिर भी अमिया खात 


हम काग को उड़ात

तो चिरिया आ जात 

दुपहरिया भर खात 


चोंच भरो न हमार 

छोड़ अमिया अचार 

जाओ अपने द्वार


  प्रीति चौधरी, गजरौला, अमरोहा

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सुबह सवेरे बांग लगाकर 

मुर्गा  सबको जगाता है। 

उठो देर तक नही सोना, 

हमको ये सिखलाता है। 


अगर देर तक सोयेगे हम, 

जीवन अपना खोयेगे हम। 

गया समय नही आयेगा ,

जीवन व्यर्थ रह जायेगा। 


वक्त ही होता बहुत महान, 

इसकी कीमत सदा ही जान। 

वक़्त यदि व्यर्थ चला जायेगा, 

फिर जीवन भर पछतायेगा। 


मुर्गा हमको सुबह जागकर, 

यही सीख सिखलाता है। 

सभी काम समय पर करना, 

सदा जीवन सफल बनाता है |


✍🏻सीमा रानी, पुष्कर नगर, अमरोहा 

         मोबाइल फोन नम्बर 7536800712

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याद बहुत आता मुझे ,

        वह बचपन का गांव ।

वह अम्बुआ की कैरियां,

         वह पीपल की छांव।


सावन की बरसात में ,

       जल का प्रबल बहाव।

हम बच्चों की टोलियां,

       वह कागज की नाव।


पिलखन में झूले पड़े, 

            तीजों  का त्यौहार। 

रंग बिरंगी ओढ़नी,

           गातीं राग मल्हार ।।


झूठ मूंठ की शादी ,

           होती  धूम   मचाते ।

सज धज कर बाराती,

            आते हंसते  गाते ।


फिक्र कोई घर की थी,

            न  जीवन की चिंता‌।।

खूब खेलना  खाना ,

        न इतना पढ़ना पड़ता।


गांव हमारा छोटा सा,

            था    देखा   भाला।

जहां गुजारा हर पल,

            बड़ा उमंगों वाला।


इतना प्यारा बचपन ,

           क्या भूला जाता है ?

जितना उसे भुलाऊं ,

            दूना याद आता है।


खोया बचपन मेरा ,

           अब कोई लौटा दे ।

मेरा सब कुछ ले ले,

          बालक मुझे बना दे।।


पर जीवन अनमोल ,

          सदा आगे चलता है।

बीता हर एक पल न,

       वापस फिर मिलता है ।।


इसीलिए  हर गम को,

         खुशियों को अपना लो।

करके कठिन परिश्रम,

          जो भी चाहो पालो।।


अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद

 मोबाइल फोन 82 188 25 541

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अब कहां की तैयारी ,

 कर दी मम्मा बोलो।

      आने दो पापा को , 

      संग साथ चलेंगे मां, हम सैर सपाटे को।

      आते होंगे पापा इतनी भी जल्दी क्या।   

      भूखे होंगे पापा,

  ब्रेकफास्ट बनाया क्या।

      अपनी धुन में बेटी ,

कहती ही जाती है।

       पापा जो लाए थे,

 मेरी  ड्रैस निकाली क्या।

       क्या ढूंढ रही हो गुमसुम सी,

        कुछ तो मम्मा बोलो ।

        आने दो पापा को,

क्यों कुछ भी नहीं बताती हो,

चुपचाप किसी उलझन में हो,

 क्यों लपक फ़ोन पर जाती हो।

  बाहर क्यों लोग इकट्ठा हो

   बातें करते हैं पापा की।

   कोई ईनाम मिला है क्या,

   या हुई तरक्की पापा की।

   मैं भी तो उनकी बेटी हूं , 

   कुछ तो मम्मा बोलो।

   आने दो पापा को।

   जो जीत के आएंगे,

   आते ही मुझे अपने 

कांधे पे बिताएंगे।

    मेरी प्यारी गुड़िया की 

नई ड्रेसेज लाएंगे।

       सारी फरमाइश मेरी

 पूरी कराएंगे।

      आपकी भी लाएंगे  

साड़ी मम्मा बोलो।

      आने दो पापा को।

  दरवाजे पर दस्तक 

जैसे पापा देंगे।

  आते ही मैं उनको

 जयहिंद बोलूंगी।

  मां थाल सजा लेना,  

तुम स्वागत करने को।

   मैं थाली बजा  दिल से 

वन्दे मातरम् बोलूंगी।

   आने दो पापा को।

   रेखा सबसे न्यारी  गुड़िया

, हूं न मम्मा बोलो।

       

   रेखा रानी, विजयनगर गजरौला, जनपद अमरोहा उत्तर प्रदेश

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 चिड़िया रानी आ जाओ ना 

दाना पानी खा जाओ ना


 अखियां तरसे नैना भीगे

 रैना बीती तुमको देखे

 चीं चीं चीं चीं गीत सुहाना 

कितना मनमोहक गाती थी

 हमको फिर वही सुना जाओ ना 

चिड़िया रानी आ जाओ ना

 दाना पानी खा जाओ ना

 नन्हीं प्यारी मेरी गौरेया 

 तुम बच्चों की धड़कन थी 

कभी अंगना में कभी पेड़ पर 

फुदक फुदक कर चलती थी

दरस सोन चिरैया फिर से दिखला जाओ ना

 चिड़िया रानी आ जाओ ना

 कभी रेत में नहा नहा कर 

हम को हंसी दिलाती थी 

कभी पेड़ पत्तों में छुप कर 

आंख मिचोली कर जाती थी

प्राकृतिक खिलवाड़ से चली गई तुम, 

लुप्त कहीं हो जाओ ना 

चिड़िया रानी आ जाओ ना


मीनाक्षी वर्मा,मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश

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लौट आओ गौरैया रानी

लिए खड़े हैं दाना पानी

नन्हे बच्चे तुम्हें बुलाते

नहीं करेंगे अब शैतानी


बिना तुम्हारे सूना आंगन

सूना मेरे मन का उपवन

चीं चीं करती आ जाओ तुम

कितनी मधुर तुम्हारी वाणी


छूटा जब से साथ तुम्हारा

टूटा कोई सपना प्यारा

ऐसे रूठी हो तुम जैसे 

बीती कोई याद पुरानी


धर्मेन्द्र सिंह राजौरा, बहजोई

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ये छोटे छोटे बच्चे

होते मन के सच्चे


ना कोई इनमें छल कपट

ना ईष्र्या द्वेष हैं इनमे


आपस में मिलकर रहते

देखते सुंदर सुंदर सपने


खेल खेलते मिल जुल कर

गीत गाते प्यार के


माता पिता से प्यार करते

बडो का आदर सत्कार करते


मन में ना कोई भेद-भाव

ना कोई जाति धर्म का अन्तर


ईश्वर का स्वरूप है बच्चे

तन मन से होते सच्चे।


 चन्द्र कला भागीरथी, धामपुर जिला बिजनौर

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चलता फिरता रथ लगता, मुझको अपना घर।

चतुर सारथी हैं पापा और हम सवार उसपर ।

मम्मी तो जैसे मशीन है कभी नही थकती,

सबसे बाद मे सोती और पहले सबसे उठती।

चमकाती इस रथ को अंदर बाहर नीचे ऊपर,

चतुर सारथी पापाऔर हम सब सवार उसपर।

योद्धा की तरह भाई बहन हम आपस मे ही लड़ते 

तुनक तुनक कर खींच तानकर इधर-उधर गिरते पड़ते।

पढते लिखते खाते पीते कभी चढ जाते छतपर

चतुर सारथी पापा जैसे हम सवार उसपर।

चलता फिरता रथ लगता,मुझको अपना घर,

चलते फिरते रथ लगते मुझको सबके घर। 


 सुदेश आर्य, मुरादाबाद

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बाल कहानी 

  "सॉरी "                                                                    "अम्मा भय्या ने आज फिर गिलास तोड़ दिया".झाड़ू से कमरे में शीशे के गिलास की किरचें उठाते हुए कंचन ने ज़ोर से अम्मा को बताया ।'अरे, मैंने 'सॉरी' बोल तो दिया 'अमरीश ने गुस्से से कंचन की ओर देखते हुए कहा।

'अम्मा भय्या ने मेरे कपड़ो पर चाय गिरा दी अब मै बिना ड्रेस के कैसे कालेज जाऊं ?' रुआँसी होते हुए कंचन ने फिर अम्मा से अमरीश की शिकायत की।

'सॉरी' अमरीश ने मुस्कराते हुए कंचन की ओर देखकर कहा. बेचारी कंचन मुँह लटकाकर बैठ  गई मगर आज उसने सोच लिया था कि आज शाम को जब टयूशन पढ़ाने वाले सर आएंगे तो वो उनसे भय्या की शिकायत जरूर करेगी शाम को सर आये तो उसने अमरीश के आने से पहले उन्हें सारी बात बता दी कि किस तरह भय्या उसे परेशान करते है और सॉरी कहकर पल्ला झाड़ लेते है  सर ने अमरीश को सबक सिखाने की सोच रखी थी  होमवर्क चैक करते समय गलती पर उन्होंने अमरीश के बायें गाल पर चपत लगाया और सॉरी बोलकर यह कहते हुए दाये गाल पर भी चपत लगा दिया  कि उन्हें दाये पर चपत लगाना था ।सर के जोरदार चपत से अमरीश का गाल लाल हो गया सर ने फिर  'सॉरी' कहते हुए उसे समझाया कि 'सॉरी' का मतलब यह नही की गलतियों पर गलतियां करते रहो और 'सॉरी' बोल दो यह सही नही है आजकल लोग बड़ी बड़ी गलतियां करके 'सॉरी' बोल देते है और फिर वही गलतियां दोहरा देते है 'सॉरी' का मतलब उस गलती को न करना या गलतियों से तौबा करना है।सर की बात सुनकर अमरीश ने उन्हें वचन दिया कि आगे से वो ऐसी गलती नही करेगा  जिसपर उसे शर्मिंदा होना पड़े।


कमाल ज़ैदी 'वफ़ा', सिरसी (संभल),  मोबाइल फोन नम्बर 9456031926

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी पर केंद्रित डॉ राजीव सक्सेना का आलेख ---- प्रेम और पीड़ा के कवि - स्व प्रवासी जी । यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।

 


नगर के दो प्रमुख साहित्यकारों का निधन हो गया था और उनकी स्मृति में श्री शिव अवतार 'सरस' के निवास पर शोक सभा थी। दिवंगत साहित्यकार थे श्री शंकर दत्त पाण्डे और श्री बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी।इनमें से पांडे जी से तो मेरा व्यक्तिगत परिचय था किन्तु 'प्रवासी' जी से साक्षात्कार का सौभाग्य मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ।यद्यपि मैं उनके रचनाकर्म से भली-भांति अवगत था। प्रवासी जी के व्यकितगत जीवन के बारे में  कुछ न जानते भी मैं उनके प्रति एक अदृश्य आकर्षण अनुभव कर रहा था। तभी 'सीपज' मेरे हाथ आयी। आद्योपान्त पढ़ गया और यह इच्छा बलवती हुई कि काश प्रवासी जी की कुछ और पुस्तकें पढ़ने को मिली होती। यह कवि 'प्रवासी' जी से मेरा मानसिक साक्षात्कार था।

      फिर तो प्रवासी जी के बारे में जानने की उत्कण्ठा तीव्र हो गयी। उनके व्यक्तित्व के कई आयाम उद्घाटित होने लगे और उनके प्रति मेरा आदरभाव गहरा हो गया। पतला दुबला लम्बा शरीर, स्वर्णिम काया, तेजोद्दीप्त नेत्रों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, कुर्ता-पाजामा और चप्पलें कुल मिलाकर 'प्रवासी' जी की आकृति बड़ी भव्य थी। वे दूर से देखने पर पूरे गांधीवादी दिखायी पड़ते थे। स्वभाव से अत्यन्त विनम्र किन्तु पूरे सिद्धान्तवादी । अनुचित को कभी सहन नहीं किया और अन्याय के प्रति अपनी वाणी से ही नहीं कलम से भी आजीवन संघर्षरत रहे। एक विचित्र किस्म का अक्खड़पन भी उनमें था ठीक वैसा ही जैसा धूमिल में था। व्यवस्था की विसंगतियों से भिड़ने को सदैव तत्पर। नगर के लोग जो 'प्रवासी' जी को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं वे उनके बारे में ऊँची राय रखते हैं।

किन्तु मैं तो उनके साहित्यकार व्यक्तित्व से ही परिचित हो सका हूँ। जहाँ तक उनके साहित्यिक व्यक्तित्व की बात है वे निश्चित ही ऊँचे दर्जे के साहित्यकार, विशेषकर कवि थे। यद्यपि उनका लेखन स्वांतः सुखाय ही था किन्तु वे ऐसे साहित्य को निरर्थक मानते थे जो जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर न रचा गया हो। शायद यूँ ही उन्होंने एक जगह यह बात कही है

हो न कल्याण भावना जिसमें 

काव्य ऐसा असार होता है ।

 निज दृगों में पराश्रु भरने से

  हर्ष मन में अपार होता है ।


वस्तुतः 'प्रवासी' जी अपने जीवनकाल में गांधी जी से काफी प्रभावित थे। गांधी दर्शन का प्रभाव केवल उनके आचार-व्यवहार पर ही नहीं बल्कि साहित्य पर भी परिलक्षित होता है। दरअसल, 'प्रवासी' जी उस पीढ़ी के साहित्यकार थे जिसने स्वाधीनता के संघर्ष में स्वयं भाग लिया था बल्कि राष्ट्र के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव की आवश्यकता को भी अनुभव कर लिया था। तभी उन्होंने अपनी एक लम्बी कविता में लिखा है

यहाँ मन्दिरों में चलता है नित अर्जन पूजन

यहाँ मस्जिदों में अजान का होता मृदु गुंजन ।। गुरुद्वारों-गिरजाओं से नित मधुरम ध्वनि आती। 

सुन जिसको सानन्द प्रकृति, निजमन में हर्षाती।। आते यहीं विश्वपति धर तन, शत शत नमन करो।

 यह धरती सुरपुर सी पावन, शत-शत नमन करो ।।


'सीपज' 'प्रवासी' जी का चर्चित काव्य संग्रह है। यूँ उनकी 'प्रवासी सतसई', 'हिन्दी शब्द विनोद', 'बच्चों की फुलवारी' और 'मंगला' शीर्षक पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी है। किन्तु 'सीपज' अद्वितीय है। यह उनकी हिन्दी-उर्दू गज़लों का संग्रह है। 'सीपज' के जरिये प्रवासी जी ने हिन्दी कविता में एक विलक्षण प्रयोग किया है जो उनसे पहले शायद किसी ने नहीं किया है। 'सीपज' में 'प्रवासी' जी ने पूरी हिन्दी शब्दावली या हिन्दी वाक्यों का उपयोग करते हुए विशुद्ध हिन्दी गज़लें लिखी है। यूँ हिन्दी में गजल लिखने की परम्परा भी दशकों पुरानी हो चली है और गोपाल दास 'नीरज' जैसे गीतकार 'गीतिका' नाम से गज़ले कहते रहे हैं। स्वयं महेन्द्र प्रताप जी भी गीत-गजल के नाम से एक मिश्रित विधा का

उपयोग काव्य सृजन के लिए करते रहे हैं। अन्य हिन्दी कवियों ने भी विपुल मात्रा में गज़लें लिखी हैं। लेकिन दूसरे कवियों में जहाँ गजल के नाम पर उर्दू गजल की भोंडी नकल की है और उर्दू शब्दों का जमकर उपयोग किया है वही 'प्रवासी' जी की हिन्दी गज़लों में उर्दू के शब्द न केवल दुर्लभ हैं बल्कि छन्दशास्त्र की दृष्टि से भी वे एकदम 'परफेक्ट' है। जहाँ हिन्दी के कवियों ने गजल लिखते समय उर्दू के गज़लकारों की तरह इश्क, आशिक या महबूब जैसे परम्परागत प्रतीकों को अपनी आधार वस्तु बनाया है वहीं प्रवासी जी की हिन्दी गज़लें इन सबसे काफी दूर जान पड़ती हैं और वे सामान्य तौर पर हिन्दी गजलों में पाये जाने वाले दोषों से मुक्त है। यद्यपि "सीपज' में प्रवासी जी की उर्दू गजलें भी संग्रहीत हैं किन्तु हिन्दी गज़लों की दृष्टि से प्रवासी जी हिन्दी के कथित गज़लकारों के लिए न केवल एक मानक हैं बल्कि उनके आदर्श भी सिद्ध हो सकते हैं। अपनी एक गज़ल में प्रवासी जी ने लिखा है


'काव्य कहलाता वही जो गेय है,

छंद, यति गति हीन, रचना हेय है।

 निज प्रगति तो जीव सब ही चाहते। 

 किन्तु जग उन्नति मनुज का ध्येय है ।।


ऐसी बात गज़ल के जरिये और वह भी विशुद्ध हिन्दी शब्दावली में कहने की सामर्थ्य 'प्रवासी' जी में ही हो सकती है। यदि संक्षेप में 'प्रवासी जी के साहित्य को रेखांकित करना हो तो इसे सहज ही 'प्रेम, पीड़ा और आँसुओं का साहित्य' कहा जा सकता है। निज मन की पीड़ा उनके काव्य विशेषकर गज़लों का मुख्य स्वर रहा है। जैसे मोती सीपी से जन्म लेता है उसी तरह 'सीपज' 'प्रवासी' जी के उर की घनीभूत पीड़ा के परिणाम स्वरूप दृग-सीपियों से जन्मा है। जीवन के अभावों और विश्वासघातों ने कवि को शायद इतनी पीड़ा दी है कि दुख या अवसाद उनका स्थायी 'मूड' बन गया है। महान अंग्रेज कवि शैली की तरह 'मैलानकोली' सदैव उनके अवचेतन और सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर हावी रहा है। शायद यूँ ही जीवन संध्या पर शैली द्वारा रची गयी प्रसिद्ध कविता 'स्टेन्जास रिटेन इन डिजेक्शन नियर नेपल्स' की तर्ज पर प्रवासी जी लिखते हैं 

पीर बढ़ती जा रही है क्या करें।

सुधि कभी की आ रही है, क्या करें ।।

स्वर हुये नीलाम, वीणा बिक गयी। 

गीत पुरवा गा रही, क्या करें ।। 

आज जन का विषमयी स्वर पान कर।

 ' साँस घुटती जा रही है, क्या करें।


महीयसी महादेवी वर्मा की 'मै नीर भरी दुख की बदली' की तरह 'प्रवासी' जी के काव्य में भी पीड़ा और अश्रुओं की बार-बार अभिव्यक्ति हुई है और हृदय की वेदना 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान' की तर्ज पर कविता के रूप में निःसृत हुई है। " सांत्वना दे दे हृदय को बींध जाता कौन है। विष बुझे स्वर्णिम चषक से मधु पिलाता कौन है।" इस दृष्टि से मन की पीर प्रवासी जी के लिए वरदान भी सिद्ध हुई है, क्योंकि अगर मन में पीड़ा न होती तो वे इतने समर्थ कवि कैसे बन पाते ?

'प्रवासी' जी ने बच्चों के लिए भी बहुत सी रचनाएं लिखीं। 'प्रवासी सतसई', 'बच्चों की फुलवारी' और 'बाल गीत मंजरी' (अप्रकाशित) उनकी प्रसिद्ध बाल कृतियां हैं, किन्तु 'प्रवासी' जी की बाल साहित्यकार के रूप में पहचान नहीं है। न ही बाल साहित्य के दृष्टिकोण से उनका मूल्यांकन किया गया है। यदि उनकी बाल रचनाओं का सम्यक मूल्यांकन किया जा सके तो कवि रूप में हम उनके एक और नये आयाम से परिचित हो सकेंगे।

 


✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था कला भारती की ओर से रविवार 20 जून 2021 को आयोजित काव्य गोष्ठी

 


आप जानते हैं ,

मैं, गीत नहीं लिखता ।
       सुख कब आते हैं ;
       पीड़ा के आंगन में ।
       रहा अकेला मैं ,
       अपनों के कानन में ।
मेरा पका घाव ,
फिर भी नहीं रिसता ।।
        छोटे से घर में ,
        ईर्ष्या की दीवारें ।
        बाहर से अच्छा ,
        दिलों में दरारें ।
भोला मन है ये,
सदा रहा दबता ।।
         विश्वासों पर ही तो,
         दिन कम हो जाता ।
         निजी आस्थाओं में ,
         मन कहीं खो जाता।
भोर से भी अपना,
भ्रम नहीं मिटता ।।
         पक्षी करते कलरव,
         अच्छा सा लगता है।
         सांझ ढले जब-जब,
         भीतर डर लगता है।
करे क्या मानव,
ईमान यहां बिकता ।।
आप जानते हैं,
मैं, गीत नहीं लिखता ।।

✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
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उड़ रही रेत गंगा किनारे
              महकी आकाश में 
                       चांदनी की गंध
              अधरों की देहरी
                       लांघ आए छंद
गंगाजल से छलके
नेह के पिटारे
उड़ रही रेत गंगा किनारे
          कौन खड़ा है नभ में  
               लेकर चांदी का थाल
          देखो बुला रहा पास किसे   
              फैला कर किरणों का जाल
किस के स्वागत में चमक रहे
नभ में अनगिन तारे
उड़ रही रेत गंगा किनारे
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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पत्तों पर मन से लिखे, बूँदों ने जब गीत ।
दर्ज़ हुई इतिहास में, हरी दूब की जीत ।।

किये दस्तख़त जब सुबह, बूँदों ने चुपचाप ।
मन के कागज़ के मिटे, सभी ताप-संताप।।

रिमझिम बूँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार ।
पूर्ण हुए ज्यों धान के, स्वप्न सभी साकार ।।

पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात ।
चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात ।।

भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन ।
अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन ।।

बरसो, पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध ।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध ।।

पिछला सब कुछ भूलकर, कष्ट और अवसाद ।
पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद ।।
✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मुरादाबाद
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जिन्दगी से दर्द ये जाता नहीं
और अपना चैन से नाता नहीं।

आस की कोई किरण दिखती नहीं।
बेबसी में कुछ कहा जाता नहीं।।

जिन्दगी मजदूर की भी देखिए।
दो घड़ी भी चैन वो पाता नहीं।।

रात दिन खटता है रोटी के लिये।
माल फोकट का कभी खाता नहीं।।

सत्य की जो राह पर चलने लगा,
साजिशों के भय से घबराता नहीं।।

काम आयेगी न ये दौलत तेरी,
मौत का धन से तनिक नाता नहीं।।

वो कहाँ किस हाल में है क्या पता,
यार की कोई खबर लाता नहीं।।

कृष्ण जय जयकार के इस शोर से
झुग्गियों के शोर का नाता नहीं।।

,✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG - 69, रामगंगा विहार,
मुरादाबाद,  (उ.प्र.)
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दुख सह कर भी बच्चों के हित
खुशियां जो ले आता है ।
बाहर गुस्सा प्रेम हृदय का 

कभी नहीं दिखलाता है।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।
लव पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है
खुद खाये कुछ,या न खाए,
परिवार न भूखा रह जाये।
सब सोयें अमन चैन से पर,
रातों को नींद नहीं आये।
परिवार का पालन पोषण
जिस के हिस्से आता है।
संतानो के लिए सदा
दुनिया भर से लड़ जाता है।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।
लव पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है।।
जीवन भर कमा कमा कर जो,
धन जोड़े जान खपा कर जो।
तन काटे और मन को मारे,
बन  गये महल और चौबारे।
अपनी पूंजी पर भी जो
हक कभी नहीं जतलाता है।
बच्चों के हित अक्सर घर में
खलनायक बन जाता है।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।।
लव पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है।।
तन पिंजर बल काफूर हुआ,
चलने से भी मजबूर  हुआ
बच्चे अब ध्यान नहीं रखते,
कुछ भी सम्मान नहीं रखते,
अपने सारे दुख जो अपने
अंतर बीच छुपाता है।
अपने मन की व्यथा कथा
ना दुनिया से कह पाता है।।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है।
संकट की घड़ियों में भी
दुख प्रकट नहीं कर पाता है
संतापों का सारा विष
चुपचाप स्वयं पी जाता है
लब पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है
पिता वही कहलाता है।।

✍️ अशोक विद्रोही , प्रकाश नगर मुरादाबाद
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बाहर वृक्षों का क्षरण, भीतर कलुष विचार।
हो कैसे पर्यावरण, इस संकट से पार।।

नवयुग में है झेलती, अपशिष्टों के रोग।
गंगा माँ को चाहिये, भागीरथ से लोग।।

चुपके-चुपके झेल कर, कष्टों के तूफ़ान।
पापा हमको दे रहे, मीठी सी मुस्कान।।

कृपा इस तरह कर रहा, वृक्षों पर इन्सान।
नहीं दूर अब रह गया, घर से रेगिस्तान।।

वृक्षों पर विध्वंस ने, पायी ऐसी जीत।
गाथाओं में रह गये, अब झूलों के गीत।।

प्यासी धरती रह गई, लेकर अपनी पीर।
मेघा करके चल दिये, फिर झूठी तक़रीर।।

भू माता की कोख पर, अनगिन अत्याचार।
इसका ही परिणाम है, चहुँ दिशि हाहाकार।।

पावन तट पर हो रहा, कैसा भीषण पाप।
जल में कचरा फेंक कर, जय गंगे का जाप।।

✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
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धूप सा कड़क बन छाँव की सड़क बन
उर की धड़क बन,पिता हमें पालता।

डाँट फटकार कर कभी पुचकार कर,
सब कुछ वार कर,वही तो  सँभालता।

जीवन आधार बन प्रगति का द्वार बन
ईश का दुलार बन,साँचे में है ढालता।

मेरा आसमान पिता,मेरा अभिमान पिता
जग वरदान पिता,संकटों को टालता।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
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सनम कैसे छिपायें हम ये दिल की बात बारिश में।
हुए मुश्किल बहुत ही आज तो हालात बारिश में।।

नहीं काबू रहा इन धड़कनों पे अब मेरा कुछ भी,
मिली है प्यार की जब से मुझे  सौग़ात बारिश में।।

निगाहों में अभी तक रक्स करते हैं वही मंज़र,
बिताये साथ जो हमने हसीं लम्हात बारिश में।।

कभी जो साज़ पे छेड़े थे हम दोनों ने ही हमदम,
रहें हैं गूँज देखो फिर वही नग़्मात बारिश में।।

जुबाँ पे जो कभी तुम आज तक 'ममता' न ला पायीं
पढ़ें हैं आँख में वो अनकहे जज़्बात बारिश में।।

✍️ डाॅ ममता सिंह, मुरादाबाद
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मतवाले से बादल आये , लेकर शीतल नीर
धरती माँ की प्यास बुझायी , हर ली सारी पीर ।
पाती सर सर गीत सुनाती , बूँदे देतीं ताल
तरुवर झूम - झूम सब नाचें , हुए मस्त हैं हाल ।

नदियाँ कल - कल सुर में बहतीं , सींच रही हैं खेत
सड़कें धुलकर हुईं नवेली , बची न सूखी रेत ।
तपते घर भी सुखी हो गये , आया है अब चैन
गरमी से बड़ी राहत मिली , तपते थे दिन - रैन ।

✍️ डॉ. रीता सिंह, मुरादाबाद
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दूर रह कर हमें तू सताया न कर।
बात अनदेखी कर के दिखाया न कर।

हैं जवानी का मौसम ये दो चार दिन-
वक्त है साथ जितना भी जाया न कर।

प्यार है गर निगाहें मिलाया करो,
मोड़ कर मुँह, दिल को दुखाया न कर।

हम जो पिघले, जलेगा वो दिल तेरा भी,
बेरुखी यूँ दिखा कर जलाया न कर।

उफ्फ संभाला है किंतने, जतनो से दिल,
पास आ कर के हमको रिझाया न कर।

यूँ तो जलता है हर इक ये मौसम मिरा,
आग बरसात मे भी लगाया न कर।

✍️ इन्दु रानी,मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
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उनकी सूरत देखे बिन मोहे
न चैन न सुख कोई पाना
आज की साँझ ढले मोहे
पिया मिलन को जाना

न देखूँ सूरज भोर का
न दिन को घर पर जाना
जब तक लगे न सुध पिया की
न अन्न जल मोहे पाना
आज की साँझ मोहे
पिया मिलन को जाना

पीयूष की न चाह मोहे
न कंचन मोहे पाना
जिस घट पिया बसें
उस घट की गंगा बन जाना
आज की साँझ मोहे
पिया मिलन को जाना

न हिय के घाव भरूं मैं
न वैद्य को कोई लाना
पिया मिलन की औषधि मोहे
रुचि रुचि हिय लगाना
साँझ ढले प्रिय चाह में
पिया मिलन को जाना

न कोई सुख चैन
न सुधा कंचन पाना
पिया मिलन की चाह में
मोहे दरसन को है जाना

✍️ विभांशु दुबे विदीप्त , मुरादाबाद
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जो मिल जाये गर हमसफ़र खूबसूरत।
तो हो जाये अपना सफ़र ख़ूबसूरत।
है अपनों में शामो सहर ख़ूबसूरत।
जहां है मुहब्बत वो घर ख़ूबसूरत।
ग़ज़ल का मुतालाह किया तो ये जाना,
ज़बानों में अपना जिगर खूबसूरत।
दरख्तों से किसने परिंदे उड़ाए,
न मौसम है सुंदर शज़र खूबसूरत।
न महफूज़ सलमा न अब निर्भया है ,
तो फिर कैसे कह दे नगर ख़ूबसूरत।
है वो खूबसूरत जो ग़म आशना है,
खुदा की नजर में बशर खूबसूरत।
वज़ीफ़ा शुभम जिनका नाम-ए -वफ़ा है ,
हयात उनकी मिस्ल ए कमर खूबसूरत।

✍️ शुभम कश्यप, मुरादाबाद
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दिन को दिन रात को रात समझो,
दिल से दिल मिले तभी अपना समझो।
यूं तो रास्ते हैं सभी खूबसूरत,
जो मंजिल तक पहुंचाये वही अपना समझो ।।

ग़ुरबत को ग़ुरबत ज़रदारी को ज़रदारी समझो,
तर्बियत से तर्बियत मिले तभी अपना समझो।
ग़ैरत शख्शियत सूफ़ियत सभी हैं जरूरी,
यूं ही दिल्लगी में न किसी को अपना समझो ।

रंज को रंज उल्फत को उल्फत समझो,
जो हर असरार को समझे उसे अपना समझो।
यूं तो हर शख़्श है इनायत रब की,
जो इंसान को इंसान समझे उसे अपना समझो।

✍️ अमित कुमार सिंह(अक्स)7C/61बुद्धिविहार फेज , मुरादाबाद,मोबाइल-9412523624
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आइये संकल्प सिद्ध करें, देश के गलियारों में
छुआ-छुत से भरी जातिवाद की ऊँची दीवारों में
जब अपना ही घर लूट लिया देश के गद्दारों ने,
जनता खड़ी देखती रही सिमटी अपने किरदारों में,

✍️  प्रशान्त मिश्र, मुरादाबाद
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पिता का हृदय विशाल है कितना,
आसमां का फैला विस्तार है जितना।
पिता के पास है सुरक्षा का अटूट घेरा,
पिता हर मुश्किलों में देते सहारा।
पिता ईश्वर से पहले साथ देता है,
पिता हर दुःख का रुख मोड़ देता है।
पिता की गोद में मिलता है असर ऐसा,
जो लगता है सुख के समंदर के जैसा।
पिता के क्रोध में भी प्यार का पुट होता है,
पिता भी छिप छिपकर हमारे लिए रोता है।
जो संतान के वास्ते त्याग दे अपना हर सुख,
भुला देता है खुद को भी पिता वह होता है।
पिता के व्यक्तित्व को समझना भी कब आसान है,
वह भीतर से कोमल बाहर से चट्टान सा कड़ा होता है।।
✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर", ठाकुरद्वारा
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जीवन दायक जीवन का आधार पिता
बालक का तो है सारा संसार पिता
धरती मां है नभ का है विस्तार पिता
बालक गीली माटी हैं तो  कुम्हार पिता
जिसके हाथों में मूर्त बन जाती है
ऐसा अद्भुत शिल्पकार है यही पिता
जीवन दायक जीवन का आधार पिता
बालक का तो है सारा संसार पिता।
✍️ आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, मुरादाबाद
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खुद अभावों को चुना, बच्चों में खुशियां बाँट दीं.
और चुने काँटे स्वयं को, पंखुरी सब बाँट दीं.
अभिनन्दन ऐंसे  पिता का जो करो सब कम ही कम है.
मुँह छुपा रातों को रोया, जो बच्चों को झिड़की डांट दी.
✍️ बाबा संजीव आकांक्षी, मुरादाबाद



मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी) साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की रचना -----


पिता पूंजी है

एफडी है

ड्राफ्ट है

ग्रेच्युटी है

जो सब हमे

बनाने में लगती है

उसके पास होती

है  सिर्फ पेंशन

बुढ़ापे की टेंशन।

2

मां घर है ..

पिता मकान

खेत खलिहान

औलाद के हाथों में

भविष्य का सामान।

3

पिता अनुशासन है

चुपचाप चलने वाला

शासन है..

जब हम कुछ नही

कह पाते

वो आंखे पढ़ लेता है

पर्स खोल देता है।।


4

पिता बीज है

अंकुर है

दिखता नहीं

न हो यदि

कोई खिलता नहीं।

5

पिता शाख है

साख है..

फैलता है

महकता है।।

6

पिता गुप्त प्रेम है

जब सो जाते हैं

उसके अंश

वह चुपके से आता है

अपलक देखता है..

निहारता है..

चमक जाती हैं उसकी

आँखें...हाँ...वाह

अपना अंश है।

वह बेटी का दहेज

बेटे का कैरियर है

वह पैदा नही करता

न दूध पिलाता है..

मगर..

सबको पालता है।।

✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी, मेरठ

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की रचना ----पर्वत जैसे पिता स्वयं ही होते घर की शान

 


पर्वत  जैसे  पिता   स्वयं   ही
होते      घर       की      शान
उनकी    सूझ-बूझ  से  थमते
जीवन       के          तूफान।
      

अनुशासित जीवन का दिखते
पापा                    दस्तावेज़
सतत    संस्कारों    से    रहते
हरपल         ही        लवरेज
उनके  होंठों   पर  सजती   है
नित         नूतन       मुस्कान।
पर्वत जैसे-------------------

व्यर्थ  समय  खोने  वालों   से
रहते          हरदम           दूर
कठिन  परिश्रम  ही  है  उनके
जीवन         का          दस्तूर
आलस  करने  से  मिट जाती
मानव          की       पहचान।
पर्वत जैसे ----------------------

घर  के  हालातों   से  भी वह
अनभिज्ञ       नहीं         रहते
रिश्तों   की    जिम्मेदारी    से
वे     सदा       भिज्ञ       रहते
अपने   और   पराए   का  भी
रखते           हैं        अनुमान
पर्वत जैसे-------------------

प्रातः अपने  मात - पिता  को
करते          रोज़        प्रणाम
ले   करके  आशीष   सदा  ही
करते          अपना       काम
उनकी सुख सुविधाओं का भी
रखते           पूरा         ध्यान।
पर्वत जैसे--------------------

बच्चों   में  बच्चे   बनकर   के
सबसे          करते         प्यार
इसमें   ही  तो   छुपा  हुआ  है
जीवन         का         आधार
दिल से  नमन  करें  पापा  का
करें          सतत        सम्मान।
पर्वत जैसे--------------------

✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र,

  मोबाइल 9719275453

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम की रचना ----साधना है मां, पिता है सिद्धि का अनुभव

 


मार्गदर्शक है पिता,रखता दुखों से दूर भी।

बाढ़ की संभावनाओं में पिता पुल है

धर्म शिक्षा आचरण की मूर्ति मंजुल है

हर्ष है सत्कार की आश्वस्ति से भरपूर भी।

धूप वर्षा से बचाता जिस तरह छप्पर

लाज घर की मां, पिता से मान पाता घर

गेह-उत्सव में पिता बजता हुआ संतूर भी।

शंखध्वनि माता, पिता है यज्ञ का गौरव

साधना है मां, पिता है सिद्धि का अनुभव

पिता मंगलसूत्र भी है,मांग का सिन्दूर भी।

मार्गदर्शक---

✍️ डॉ अजय अनुपम मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की कविता ----पिता ही बस एक परम है

 


पिता पर कविता लिखना

सहज नहीं है , दुष्कर है ,
भले ही
पिता को जीने
और पिता होने का
कितना ही
अनुभव भीतर है ।                                                  
मां कृपा से जब
हुई उधेड़बुन भीतर
पिता को कहने में ,
खड़ी विवशताएं
दीखीं उस क्षण
पिता सा रहने में ।
मां बोली,तू अपनी बुन,
पर पहले मेरी सुन ।
पिता,बरहे चलता
वह पानी है,जो
मुरझाई धूप से
दूब में जीवन भरता है,
पिता,वह साधन है
जो थाम थमा उंगली से
बच्चों को खड़ा करता है।
पिता,वह सपना है
जो अपने आप, आप को
छोटा करके
बच्चों को
रोज़ बड़ा करता है।
पिता,वह संयम है,जो
जिद पर बच्चों की
अपनी जिद पर
नहीं अड़ा करता है ,
पिता ही तो
संपूर्ण पराग फूलों का
जो बच्चों पर
घड़ी घड़ी हर पल
दिन रात झड़ा करता है।
पिता-
गरम नरम है
धरम करम है ,
सोचें तो
पिता ही बस
एक परम है ।।
    डॉ.मक्खन मुरादाबादी
   झ-28, नवीन नगर
   कांठ रोड, मुरादाबाद
   मोबाइल:9319086769

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी ) आमोद कुमार अग्रवाल का मुक्तक ---


हर कोलाहल का अंत एक,सूनापन ही होता,
हर बसंत पतझर का, अभिनंदन ही होता,
बिटिया के नेह का,जीवन कितना सीमित ये,
तनिक देर के बाद पिता,अपने आँगन ही रोता ।
 ✍️ आमोद कुमार अग्रवाल, दिल्ली






मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल की रचना ----पिता बनकर पिता का मोल अब अपनी समझ आया


नहीं चिंता रही कोई, न कोई डर सता पाया

पिताजी आपके आशीष.की हम पर रही छाया


हमारी प्रेरणा है आपका सादा सरल जीवन 

सदा हम पर रहे बस आपके व्यक्तित्व का साया.


नहीं सोचा कि कैसी है, पिता की जेब की सेहत।

रखी जिस चीज पर उंगली, उसी को हाथ में पाया।


जरूरत के समय अपना, न कोई काम रुकता था।

भुला अपनी जरूरत को, हमारा काम करवाया।


भले थी जेब खाली किंतु चिंता में नहीं देखा

अभावों का हमारे पर नहीं पड़ने दिया साया।


पिता खामोश रहकर हर, घड़ी चिंता करे सबकी,

पिता बनकर पिता का मोल अब अपनी समझ आया।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG - 69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद।

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद्र वर्मा व्योम का गीत ------जब तक पिता रहे तब तक ही घर में रही मिठास

 


बहुत दूर हैं पिता

किन्तु फिर भी हैं
मन के पास

पथरीले पथ पर चलना
मन्ज़िल को पा लेना
कैसे मुमकिन होता
क़द को ऊँचाई देना
याद पिता की
जगा रही है
सपनों में विश्वास

नया हौंसला हर पल हर दिन
देती रहती हैं
जीवन की हर मुश्किल का हल
देती रहती हैं
उनकी सीखें
क़दम-क़दम पर
भरतीं नया उजास

कभी मुँडेरों पर, छत पर
आँगन में आती थी
सखा सरीखी गौरैया
सँग-सँग बतियाती थी
जब तक पिता रहे
तब तक ही
घर में रही मिठास

✍️  योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद
मोबाइल-9412805981

मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु का गीत ----पिता परिस्थिति की बिसात पर, चलना हमें सिखाए

 


सिर पर छाँव पिता की

कच्ची दीवारों पर छप्पर ...

आंधी बारिश खुद पर झेले,
हवा थपेड़े रोके
जर्जर तन भी ढाल बने,
कितने मौके-बेमौके
रहते समय समझ ना पाते
जाने क्यों हम अक्सर ....

सारी दुनियादारी जो भी
नजर समझ पाती है,
वही दृष्टि अनमोल,पिता के
साए संग आती है ..,
जिससे दुष्कर जीवन पथ पर
नहीं बठते थक कर,...

माँ का आंचल संस्कार भर,
प्यार दुलार लुटाए,
पिता परिस्थिति की बिसात पर,
चलना हमें सिखाए
करते सतत प्रयास कि बच्चे
होवें उनसे बढ़कर .....

-मनोज 'मनु'
मोबाइल- 063970 93523

मुरादाबाद के साहित्यकार अखिलेश वर्मा की ग़ज़ल ------लौटा नहीं कभी फिर जाकर पिता का साया


दे दे मुझे कोई तो ......लाकर पिता का साया

हैं खुशनसीब जिनके सर पर पिता का साया।


कोई नहीं है चिंता ......... कुछ फ़िक्र ही नहीं है

जिसको मिला है हर दम घर पर पिता का साया।


मिलते हैं शाम को जब ऑफिस से लौटकर तो

मिलता जहां है सारा पाकर पिता का साया ।


भगवान तू मुझे भी ......लौटा दे उस पिता को

जीवन बड़ा है मुश्किल खोकर पिता का साया।


सेवा करो पिता की .......कोई कसर न छोड़ो

लौटा नहीं कभी फिर जाकर पिता का साया।


✍️ अखिलेश वर्मा, मुरादाबाद