मानव जिस समाज में जन्म लेता है उस समाज का प्रभाव अविच्छिन्न रूप से उसके व्यक्तित्व को गढ़ता है। सामाजिक विषमताएं उसके व्यक्तित्व को निरंतर उद्वेलित करती रहती हैं, फलस्वरूप वह अपने भावी जीवन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए तत्पर हो उठता है। एक साहित्यकार का कर्तव्य बोध उसे उसके अनुभवों के आधार पर संचित मान्यताओं के आलोक में समाज का पथ प्रदर्शन के लिए निरंतर प्रेरित करता रहता है। कोई रचनाकार अपने तत्कालीन देशकाल. वातावरण से निर्लिप्त रहकर साहित्य सर्जना नहीं कर सकता, इसलिए साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने भी कहा था " साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़ परिमार्जित व सुंदर हो तथा जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो । साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसमें जीवन की सच्चाईयां और अनुभूतियां व्यक्त की गई हो।
उपर्युक्त वक्तव्य के सन्दर्भ में श्रद्धेय श्री दयानन्द गुप्त जी के साहित्य अनुशीलन में हम पाते हैं कि उनका समग्र साहित्य अनुभवजन्य सत्य का ही दस्तावेज है। कोई भी रचना सिर्फ रचने के लिए नहीं लिखी गयी वरन देश समाज व्यक्ति कि समस्याओं को उजागर कर आने वाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करने हेतु की गयीं। श्री गुप्त जी का आविर्भाव उस समय हुआ ( 12.12.1912 - 25.3.1982) जब राष्ट्र पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा मुक्ति के लिए छटपटा रहा था। भारत के तमाम क्रान्तिकारी गाँधीवादी , रचनाकार तथा अन्य राष्ट्र भक्त अपने-अपने तरीके से देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थे। ऐसे वातावरण में पले-बढ़े श्री गुप्त जी का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा संपन्न था। एक साथ अनेक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए वो साहित्य सर्जना में भी निरंतर संलग्न रहे। एक कुशल राजनेता, जिम्मेदार अधिवक्ता, समर्पित समाजसेवी व सचेत पत्रकारिता से मिले अपने अनुभवों को साहित्य में रचते बसते रहे। फलस्वरूप तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व धार्मिक सन्दर्भ उनके साहित्य में स्वत उद्घाटित होते गए।
श्री गुप्त जी की रचनाओं में तीन कहानी संग्रह कारवां सन 1941, श्रृंखलाएं सन 1943 , "मंजिल" सन 1956 में प्रकाशित हुआ । एक काव्य संग्रह "नैवेद्य " सन 1943 में प्रकाशित हुआ । एक नाटक का भी सृजन " यात्रा का अंत कहाँ " गुप्त जी ने सन् 1946 में किया। एक साप्ताहिक पत्र “ अभ्युदय का प्रकाशन व संपादन] सन 1952 में प्रारंभ किया, जो साहित्यिक व समसामयिक विषयों के कारण लोकप्रिय पत्र प्रतिष्ठित हुआ।
जिस समय श्री गुप्त जी का साहित्य हिंदी साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था, उस समय के अद्वितीय कवि महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने भी उनकी रचनाशीलता से प्रभावित हो उनके प्रथम कहानी संग्रह "कारवां" की भूमिका में अपना हृदयोद्गार इस प्रकार उद्घाटित किया -
" श्री दयानन्द गुप्त मेरे साहित्यिक सुहृद है। आज के सुपरचित कवि एवं कहानी लेखक, मुझसे मिले थे तब कवि एवं कथाकार के बीज में थे बीज आज लहलहाता हुआ पौधा है वकालत के पेशे की जटिलता में इनके हृदय की साहित्यिकता नहीं उलझी, यह अंतरंग प्रमाण बहिरंग कहानियों के संग्रह के रूप में मेरे सामने है। "
वस्तुतः श्री गुप्त जी का सम्पूर्ण साहित्य अपनी सरल संप्रेषणशीलता के कारण सहज ही पाठक से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। मैं इनकी रचनाओं से अत्यंत अभिभूत हूँ और तनिक आश्चर्यचकित भी इन रचनाओं का वैसा प्रचार-प्रसार नहीं हुआ जिसकी अधिकरणी ये रचनाएं हैं।
श्री गुप्त जी की कहानी" नेता" मेरी प्रिय कहानी है। यह कहानी तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि पर रची गई है। यह वह समय था जब पूरे राष्ट्र में देशभक्ति की लहर दौड़ रही थी। तत्कालीन राजनेता अपने पार्टी के विचारों से इस प्रकार बंधे थे कि देश व समाज के समक्ष परिवार हित गौण हो गया था। यदि मैं ऐसे लोगों को गृहस्थ बैरागी की संज्ञा दूं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। वे तन मन धन पूरी तरह राष्ट्र को समर्पित थे। कहानी के प्रारंभ में ही पता चल जाता है कि कहानी का नायक सेठ दामोदर दास दामले गांधी जी की विचारधारा से प्रभावित हैं। वह कांग्रेस पार्टी के साधन संपन्न प्रतिष्ठित प्रभावी राजनेता हैं, जो देश हित में निरंतर सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। एक दिन में कई कई जगह व्याख्यान देने जाते हैं अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में उन्हें यह मान ही नहीं होता कि उनका परिवार उनके सान्निध्य के लिए कितना तरस रहा है। उनके परिवार में पत्नी व छः साल की पुत्री है, जो पिता के स्नेह के लिए अहर्निश व्याकुल रहती है। जब सेठ जी का सेक्रेटरी उनसे कहता है कि परिवार के प्रति भी हमारे कुछ कर्तव्य हैं तब सेठ दामले कहते हैं" हमें मानव में विभिन्नता और अंतर पैदा करने का अधिकार कहां ? अपने संबंधियों को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं। "
इस संभाषण से पता चलता है कि तत्कालीन समय के नेता जो वास्तव में समाज का नेतृत्व करने के अधिकारी थे अपने दल की नीतियों से बंधे ये लोग असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी थे। इनका पूरा जीवन देश व समाज के उत्थान के लिए समर्पित था, दरअसल वह दौर ही ऐसा था अपनी छोटी सी बच्ची की कहानी सुनने की अभिलाषा भी वह पूरी नहीं कर पाते। लेखक यहां यह भी स्पष्ट संकेत करते हैं कि सेठ दामले अपने परिवार से स्नेह तो बहुत करते हैं परंतु स्नेह प्रदर्शित करने के लिए उनके पास वक्त नहीं है। वह अहर्निश देश सेवा में कार्यरत रहते हैं। पिता-पुत्री के संवाद पाठक को मार्मिक संवेदना से भर देते हैं।
एक अन्य घटना से भी लेखक सेठ दामले के व्यक्तित्व को उद्घाटित करते हैं। जब सेठ दामले को एक संगीत सभा में व्याख्यान देने जाना होता है, तो चूंकि उन्हें संगीत शास्त्र का अल्प ज्ञान भी नहीं था लिहाजा उनके सेक्रेटरी के सुझाव पर कि आप कोई गीत सुने और वही भाव अपने व्याख्यान में बोल दें। उस दिन सेठ दामले ने पत्नी के पास जा बड़े ही प्रेम से एक गीत सुनाने का अनुरोध किया क्योंकि उनकी पत्नी बहुत मधुर गाती थी, पति के अप्रत्याशित इस प्रेम भरी मनुहार से अभिभूत होकर वह एक मधुर गीत सुनाने लगीं। इधर सेठ जी गीत सुनते और अपने विचारों को एक कागज पर लिपिबद्ध करते जाते। अचानक उनकी पत्नी ने जब उन्हें ऐसा करते देख मर्मान्तक पीड़ा से आहत हो गीत बंद कर अपने पति से कहती है यदि आपको अपना काम ही करना था तो झूठे प्रेम का स्वांग करने की क्या आवश्यकता थी। सेठ जी उतनी ही इमानदारी से बोलते हैं मैं तो अपने भाव लिख रहा था आज के व्याख्यान के लिए इस कथन से उनकी पत्नी को अपने आत्मसम्मान पर चोट महसूस होती है। वो कहती हैं गीत तो आप कहीं और भी सुन सकते थे। उन्हें ऐसा लगता है कि पति उनसे प्रेम नहीं छल करते हैं। सेठ जी यंत्रवत वस्त्र बदलकर व्याख्यान देने चले जाते हैं, बिना यह समझे कि उनकी पत्नी व पुत्री पर उनके ऐसे बर्ताव से कितनी पीडा हो रही होगी।
लेखक यहाँ पति-पत्नी के संवाद के माध्यम से यह भी स्पष्ट करते हैं कि सेठ दामले आधुनिक विचारधारा के होने के कारण स्त्री-पुरुष समानता के पोषक है तभी तो वो पत्नी को कहते हैं कि तुम भी बाहर निकलो, देश सेवा करो जिस समाज में स्त्री को घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी उस समय यह संवाद लेखक की प्रगतिशील विचारधारा को प्रदर्शित करता है। प्रस्तुत कहानी मुझे कहानीकार के जीवन से अधिक प्रभावित जान पड़ती
" वे पत्र " यह कहानी एक रचनाकार की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालती है। वस्तुतः जिस साहित्य रचना पर लोग सम्मान व पुरस्कार प्राप्त करते हैं क्या वे सचमुच इसके अधिकारी हैं या नहीं ? लेखक के अनुसार इस सत्यता का सत्यापन होना आवश्यक है। एक अन्य सामाजिक विद्रुपता को यह कहानी रेखांकित करती है भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अपने क्षुद्र लाभ के लिए सत्य को उद्घाटित न होने देना जो उक्त कहानी में आनंद का भतीजा करता है। वह अपने लाभ के लिए सत्य छुपाने के एवज में मूल्य भी अदा करता है। आज भी हमारे समाज में इस बुराई की जड़ें इतनी गहरी हैं, जिन्हें आसानी से नष्ट करना मुश्किल जान पड़ता है।
" तोला" यह कहानी पारिवारिक पृष्ठभूमि के अंतर्गत स्नेह, प्यार, ममता, त्याग, क्षमा, ईर्ष्या. द्वेष जैसे भावों को अभिव्यंजित करती एक सशक्त कहानी है। कहानी का नायक तोला निःसंतान होने के कारण अपना सारा स्नेह बैलों पर लुटाता है। उसका छोटा भाई रामबोला ईर्ष्यावश तोला के एक बैल को विष दे देता है। पुत्रवत बैल की आकस्मिक मृत्यु से आहत तोला का जीवन घोर नैराश्य में डूब जाता है। फिर भी वह अपने छोटे भाई के जेल जाने पर दोनों परिवारों का गुजारा अकेले करता है। छोटा भाई पितातुल्य बड़े भाई के सदव्यवहार से आत्मग्लानि में डूबकर उसके गले लग जाता है। निःसंतान तोला आह्लादित हो उससे अपने गले से लगा बोल उठता है आज मेरा लाल मुझे मिल गया " सहज और सरल भाषा में लिखी यह कहानी पाठक के अंतर्मन को प्रभावित करने में पूरी तरह सफल है।
" नया अनुभव " यह कहानी लेखक के गाँधीवादी विचारधारा को प्रतिबिंबित करती है। कहानी
का मुख्य पात्र रामजीमल अनेक बुराइयों के साथ ही साथ चोर भी है। एक बार पकड़े जाने पर उसे जेल हो जाती है। जेल से छूटने के बाद उसके अनथक प्रयत्न के बाद भी समाज के लोग उसे अपने यहां कोई काम नहीं देते। थका हारा भूखा-प्यासा, एक रात वो मंदिर में शरण लेता है। रात्रि में पैसों से भरी थैली पर उसकी क्षुब्ध निगाहें जैसे ही पड़ती हैं वह मचल उठता है उसे लेकर भागता है पर महंत के शिष्यों द्वारा पकड़ कर महंत के सामने लाया जाता है। किन्तु महंत उसका पक्ष लेते हुए यह कहते हैं कि यह थैली मैंने ही इसे दी थी। यह सुनते ही रामजीमल को जीवन का आत्मबोध होता है। समाज के ठोकर के कारण सत्य के प्रति डगमगाता उसका आत्मविश्वास महंत के व्यवहार से सदा के लिए स्थिर हो गया।
" न मंदिर न मस्जिद " धार्मिक उन्माद किस तरह व्यक्ति को सामान्य जीवन मूल्यों से दूर कर देता है। धर्म के ठेकेदार तत्कालीन समय से लेकर आजतक धर्म की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं। इस कहानी में लेखक हिन्दू मुस्लिम के बीच सामंजस्य स्थापित करने का सुदृढ़ प्रयास करते हैं। आज के समाज में भी यह कहानी अत्यंत प्रासंगिक हैं क्योंकि आज भी धर्म के नाम पर ओछी राजनीति एक बड़ी समस्या है ।
" अंधविश्वास " जैसा शीर्षक से ही प्रतीत होता है कि यह कहानी हमारे समाज की आदिम बीमारी को प्रतिबिंबित करती है। मानव सभ्यता की विस्मयकारी उन्नति के बावजूद, पुरातन काल से लेकर आज तक हमारे समाज में अन्धविश्वास की बीमारी खत्म नहीं हुई। आज भी न जाने कितने ढोंगियों की गुजर बसर इस अंधविश्वास के पिष्टपेषण से ही होती है।
" ऐसी दुनिया " यह कहानी एक ऐसे अभिजात्य पुरुष की है जो दोहरी मानसिकता से ग्रसित है। समाज को दिखने के लिये उसके आदर्श का पैमाना बहुत महान है। किन्तु अंदर से वह नितांत पतित और चरित्र भ्रष्ट, दोगले व्यक्तित्व का स्वामी है। सहशिक्षा के विरोध में भाषण तो देता है परन्तु अपने विद्यालय की ही प्राचार्य के साथ उसके अंतरंग सम्बन्ध उसकी दोहरी मानसिकता को प्रदर्शित करते हैं। लेखक बड़े ही बेबाकी से व्यंगात्मक शैली में समाज के ऐसे कापुरषों पर करारा चोट किया है। आज भी हमारे समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है।
उपर्युक्त कहानियों की भाषा तत्सम युक्त खड़ी बोली है शब्दों का चयन बड़े ही कलात्मक ढंग से भावों की सृष्टि करने में समर्थ है। कहीं-कहीं गद्य में भी पद्य के सामान काव्य प्रवाह देखने को मिलता है, जो लेखक के भाषा ज्ञान पर मजबूत पकड़ को दर्शाता है। मुहावरों से अलंकृत भाषा में अंग्रेजी शब्दों का भी सहज प्रयोग श्री गुप्त जी के अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को भी प्रदर्शित करता है। शैली की दृष्टि से कहानियां अपने समकालीन कहानीकारों की तरह ही पाठक पर यथेष्ट प्रभाव डालने में समर्थ हैं।
उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि श्री दयानंद गुप्त जी की कहानियां मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से पाठक को परिचित कराती है। उनके लेखन का वैशिष्ट्य है कि वह समाज केंद्रित है इसीलिए ये हमारा आज भी मार्ग दर्शन करने में समर्थ हैं। इनकी प्रासंगिकता इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी आज भी वैसी ही हैं जैसी तत्कालीन समय में थीं। ये कहानियां लेखक के आधुनिक प्रगतिशील सोच एवं प्रबुद्ध व्यक्तित्व को पाठक के समक्ष विभिन्न स्तरों पर प्रतिबिंबित करती हैं।
✍️ डॉ. कंचन सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभागाध्यक्ष
दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज
मुरादाबाद ( उ. प्र) 244001