रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था कला भारती की ओर से रविवार 20 जून 2021 को आयोजित काव्य गोष्ठी

 


आप जानते हैं ,

मैं, गीत नहीं लिखता ।
       सुख कब आते हैं ;
       पीड़ा के आंगन में ।
       रहा अकेला मैं ,
       अपनों के कानन में ।
मेरा पका घाव ,
फिर भी नहीं रिसता ।।
        छोटे से घर में ,
        ईर्ष्या की दीवारें ।
        बाहर से अच्छा ,
        दिलों में दरारें ।
भोला मन है ये,
सदा रहा दबता ।।
         विश्वासों पर ही तो,
         दिन कम हो जाता ।
         निजी आस्थाओं में ,
         मन कहीं खो जाता।
भोर से भी अपना,
भ्रम नहीं मिटता ।।
         पक्षी करते कलरव,
         अच्छा सा लगता है।
         सांझ ढले जब-जब,
         भीतर डर लगता है।
करे क्या मानव,
ईमान यहां बिकता ।।
आप जानते हैं,
मैं, गीत नहीं लिखता ।।

✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
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उड़ रही रेत गंगा किनारे
              महकी आकाश में 
                       चांदनी की गंध
              अधरों की देहरी
                       लांघ आए छंद
गंगाजल से छलके
नेह के पिटारे
उड़ रही रेत गंगा किनारे
          कौन खड़ा है नभ में  
               लेकर चांदी का थाल
          देखो बुला रहा पास किसे   
              फैला कर किरणों का जाल
किस के स्वागत में चमक रहे
नभ में अनगिन तारे
उड़ रही रेत गंगा किनारे
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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पत्तों पर मन से लिखे, बूँदों ने जब गीत ।
दर्ज़ हुई इतिहास में, हरी दूब की जीत ।।

किये दस्तख़त जब सुबह, बूँदों ने चुपचाप ।
मन के कागज़ के मिटे, सभी ताप-संताप।।

रिमझिम बूँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार ।
पूर्ण हुए ज्यों धान के, स्वप्न सभी साकार ।।

पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात ।
चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात ।।

भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन ।
अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन ।।

बरसो, पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध ।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध ।।

पिछला सब कुछ भूलकर, कष्ट और अवसाद ।
पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद ।।
✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मुरादाबाद
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जिन्दगी से दर्द ये जाता नहीं
और अपना चैन से नाता नहीं।

आस की कोई किरण दिखती नहीं।
बेबसी में कुछ कहा जाता नहीं।।

जिन्दगी मजदूर की भी देखिए।
दो घड़ी भी चैन वो पाता नहीं।।

रात दिन खटता है रोटी के लिये।
माल फोकट का कभी खाता नहीं।।

सत्य की जो राह पर चलने लगा,
साजिशों के भय से घबराता नहीं।।

काम आयेगी न ये दौलत तेरी,
मौत का धन से तनिक नाता नहीं।।

वो कहाँ किस हाल में है क्या पता,
यार की कोई खबर लाता नहीं।।

कृष्ण जय जयकार के इस शोर से
झुग्गियों के शोर का नाता नहीं।।

,✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG - 69, रामगंगा विहार,
मुरादाबाद,  (उ.प्र.)
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दुख सह कर भी बच्चों के हित
खुशियां जो ले आता है ।
बाहर गुस्सा प्रेम हृदय का 

कभी नहीं दिखलाता है।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।
लव पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है
खुद खाये कुछ,या न खाए,
परिवार न भूखा रह जाये।
सब सोयें अमन चैन से पर,
रातों को नींद नहीं आये।
परिवार का पालन पोषण
जिस के हिस्से आता है।
संतानो के लिए सदा
दुनिया भर से लड़ जाता है।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।
लव पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है।।
जीवन भर कमा कमा कर जो,
धन जोड़े जान खपा कर जो।
तन काटे और मन को मारे,
बन  गये महल और चौबारे।
अपनी पूंजी पर भी जो
हक कभी नहीं जतलाता है।
बच्चों के हित अक्सर घर में
खलनायक बन जाता है।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।।
लव पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है।।
तन पिंजर बल काफूर हुआ,
चलने से भी मजबूर  हुआ
बच्चे अब ध्यान नहीं रखते,
कुछ भी सम्मान नहीं रखते,
अपने सारे दुख जो अपने
अंतर बीच छुपाता है।
अपने मन की व्यथा कथा
ना दुनिया से कह पाता है।।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है।
संकट की घड़ियों में भी
दुख प्रकट नहीं कर पाता है
संतापों का सारा विष
चुपचाप स्वयं पी जाता है
लब पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है
पिता वही कहलाता है।।

✍️ अशोक विद्रोही , प्रकाश नगर मुरादाबाद
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बाहर वृक्षों का क्षरण, भीतर कलुष विचार।
हो कैसे पर्यावरण, इस संकट से पार।।

नवयुग में है झेलती, अपशिष्टों के रोग।
गंगा माँ को चाहिये, भागीरथ से लोग।।

चुपके-चुपके झेल कर, कष्टों के तूफ़ान।
पापा हमको दे रहे, मीठी सी मुस्कान।।

कृपा इस तरह कर रहा, वृक्षों पर इन्सान।
नहीं दूर अब रह गया, घर से रेगिस्तान।।

वृक्षों पर विध्वंस ने, पायी ऐसी जीत।
गाथाओं में रह गये, अब झूलों के गीत।।

प्यासी धरती रह गई, लेकर अपनी पीर।
मेघा करके चल दिये, फिर झूठी तक़रीर।।

भू माता की कोख पर, अनगिन अत्याचार।
इसका ही परिणाम है, चहुँ दिशि हाहाकार।।

पावन तट पर हो रहा, कैसा भीषण पाप।
जल में कचरा फेंक कर, जय गंगे का जाप।।

✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
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धूप सा कड़क बन छाँव की सड़क बन
उर की धड़क बन,पिता हमें पालता।

डाँट फटकार कर कभी पुचकार कर,
सब कुछ वार कर,वही तो  सँभालता।

जीवन आधार बन प्रगति का द्वार बन
ईश का दुलार बन,साँचे में है ढालता।

मेरा आसमान पिता,मेरा अभिमान पिता
जग वरदान पिता,संकटों को टालता।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
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सनम कैसे छिपायें हम ये दिल की बात बारिश में।
हुए मुश्किल बहुत ही आज तो हालात बारिश में।।

नहीं काबू रहा इन धड़कनों पे अब मेरा कुछ भी,
मिली है प्यार की जब से मुझे  सौग़ात बारिश में।।

निगाहों में अभी तक रक्स करते हैं वही मंज़र,
बिताये साथ जो हमने हसीं लम्हात बारिश में।।

कभी जो साज़ पे छेड़े थे हम दोनों ने ही हमदम,
रहें हैं गूँज देखो फिर वही नग़्मात बारिश में।।

जुबाँ पे जो कभी तुम आज तक 'ममता' न ला पायीं
पढ़ें हैं आँख में वो अनकहे जज़्बात बारिश में।।

✍️ डाॅ ममता सिंह, मुरादाबाद
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मतवाले से बादल आये , लेकर शीतल नीर
धरती माँ की प्यास बुझायी , हर ली सारी पीर ।
पाती सर सर गीत सुनाती , बूँदे देतीं ताल
तरुवर झूम - झूम सब नाचें , हुए मस्त हैं हाल ।

नदियाँ कल - कल सुर में बहतीं , सींच रही हैं खेत
सड़कें धुलकर हुईं नवेली , बची न सूखी रेत ।
तपते घर भी सुखी हो गये , आया है अब चैन
गरमी से बड़ी राहत मिली , तपते थे दिन - रैन ।

✍️ डॉ. रीता सिंह, मुरादाबाद
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दूर रह कर हमें तू सताया न कर।
बात अनदेखी कर के दिखाया न कर।

हैं जवानी का मौसम ये दो चार दिन-
वक्त है साथ जितना भी जाया न कर।

प्यार है गर निगाहें मिलाया करो,
मोड़ कर मुँह, दिल को दुखाया न कर।

हम जो पिघले, जलेगा वो दिल तेरा भी,
बेरुखी यूँ दिखा कर जलाया न कर।

उफ्फ संभाला है किंतने, जतनो से दिल,
पास आ कर के हमको रिझाया न कर।

यूँ तो जलता है हर इक ये मौसम मिरा,
आग बरसात मे भी लगाया न कर।

✍️ इन्दु रानी,मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
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उनकी सूरत देखे बिन मोहे
न चैन न सुख कोई पाना
आज की साँझ ढले मोहे
पिया मिलन को जाना

न देखूँ सूरज भोर का
न दिन को घर पर जाना
जब तक लगे न सुध पिया की
न अन्न जल मोहे पाना
आज की साँझ मोहे
पिया मिलन को जाना

पीयूष की न चाह मोहे
न कंचन मोहे पाना
जिस घट पिया बसें
उस घट की गंगा बन जाना
आज की साँझ मोहे
पिया मिलन को जाना

न हिय के घाव भरूं मैं
न वैद्य को कोई लाना
पिया मिलन की औषधि मोहे
रुचि रुचि हिय लगाना
साँझ ढले प्रिय चाह में
पिया मिलन को जाना

न कोई सुख चैन
न सुधा कंचन पाना
पिया मिलन की चाह में
मोहे दरसन को है जाना

✍️ विभांशु दुबे विदीप्त , मुरादाबाद
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जो मिल जाये गर हमसफ़र खूबसूरत।
तो हो जाये अपना सफ़र ख़ूबसूरत।
है अपनों में शामो सहर ख़ूबसूरत।
जहां है मुहब्बत वो घर ख़ूबसूरत।
ग़ज़ल का मुतालाह किया तो ये जाना,
ज़बानों में अपना जिगर खूबसूरत।
दरख्तों से किसने परिंदे उड़ाए,
न मौसम है सुंदर शज़र खूबसूरत।
न महफूज़ सलमा न अब निर्भया है ,
तो फिर कैसे कह दे नगर ख़ूबसूरत।
है वो खूबसूरत जो ग़म आशना है,
खुदा की नजर में बशर खूबसूरत।
वज़ीफ़ा शुभम जिनका नाम-ए -वफ़ा है ,
हयात उनकी मिस्ल ए कमर खूबसूरत।

✍️ शुभम कश्यप, मुरादाबाद
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दिन को दिन रात को रात समझो,
दिल से दिल मिले तभी अपना समझो।
यूं तो रास्ते हैं सभी खूबसूरत,
जो मंजिल तक पहुंचाये वही अपना समझो ।।

ग़ुरबत को ग़ुरबत ज़रदारी को ज़रदारी समझो,
तर्बियत से तर्बियत मिले तभी अपना समझो।
ग़ैरत शख्शियत सूफ़ियत सभी हैं जरूरी,
यूं ही दिल्लगी में न किसी को अपना समझो ।

रंज को रंज उल्फत को उल्फत समझो,
जो हर असरार को समझे उसे अपना समझो।
यूं तो हर शख़्श है इनायत रब की,
जो इंसान को इंसान समझे उसे अपना समझो।

✍️ अमित कुमार सिंह(अक्स)7C/61बुद्धिविहार फेज , मुरादाबाद,मोबाइल-9412523624
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आइये संकल्प सिद्ध करें, देश के गलियारों में
छुआ-छुत से भरी जातिवाद की ऊँची दीवारों में
जब अपना ही घर लूट लिया देश के गद्दारों ने,
जनता खड़ी देखती रही सिमटी अपने किरदारों में,

✍️  प्रशान्त मिश्र, मुरादाबाद
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पिता का हृदय विशाल है कितना,
आसमां का फैला विस्तार है जितना।
पिता के पास है सुरक्षा का अटूट घेरा,
पिता हर मुश्किलों में देते सहारा।
पिता ईश्वर से पहले साथ देता है,
पिता हर दुःख का रुख मोड़ देता है।
पिता की गोद में मिलता है असर ऐसा,
जो लगता है सुख के समंदर के जैसा।
पिता के क्रोध में भी प्यार का पुट होता है,
पिता भी छिप छिपकर हमारे लिए रोता है।
जो संतान के वास्ते त्याग दे अपना हर सुख,
भुला देता है खुद को भी पिता वह होता है।
पिता के व्यक्तित्व को समझना भी कब आसान है,
वह भीतर से कोमल बाहर से चट्टान सा कड़ा होता है।।
✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर", ठाकुरद्वारा
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जीवन दायक जीवन का आधार पिता
बालक का तो है सारा संसार पिता
धरती मां है नभ का है विस्तार पिता
बालक गीली माटी हैं तो  कुम्हार पिता
जिसके हाथों में मूर्त बन जाती है
ऐसा अद्भुत शिल्पकार है यही पिता
जीवन दायक जीवन का आधार पिता
बालक का तो है सारा संसार पिता।
✍️ आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, मुरादाबाद
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खुद अभावों को चुना, बच्चों में खुशियां बाँट दीं.
और चुने काँटे स्वयं को, पंखुरी सब बाँट दीं.
अभिनन्दन ऐंसे  पिता का जो करो सब कम ही कम है.
मुँह छुपा रातों को रोया, जो बच्चों को झिड़की डांट दी.
✍️ बाबा संजीव आकांक्षी, मुरादाबाद



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