नगर के दो प्रमुख साहित्यकारों का निधन हो गया था और उनकी स्मृति में श्री शिव अवतार 'सरस' के निवास पर शोक सभा थी। दिवंगत साहित्यकार थे श्री शंकर दत्त पाण्डे और श्री बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी।इनमें से पांडे जी से तो मेरा व्यक्तिगत परिचय था किन्तु 'प्रवासी' जी से साक्षात्कार का सौभाग्य मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ।यद्यपि मैं उनके रचनाकर्म से भली-भांति अवगत था। प्रवासी जी के व्यकितगत जीवन के बारे में कुछ न जानते भी मैं उनके प्रति एक अदृश्य आकर्षण अनुभव कर रहा था। तभी 'सीपज' मेरे हाथ आयी। आद्योपान्त पढ़ गया और यह इच्छा बलवती हुई कि काश प्रवासी जी की कुछ और पुस्तकें पढ़ने को मिली होती। यह कवि 'प्रवासी' जी से मेरा मानसिक साक्षात्कार था।
फिर तो प्रवासी जी के बारे में जानने की उत्कण्ठा तीव्र हो गयी। उनके व्यक्तित्व के कई आयाम उद्घाटित होने लगे और उनके प्रति मेरा आदरभाव गहरा हो गया। पतला दुबला लम्बा शरीर, स्वर्णिम काया, तेजोद्दीप्त नेत्रों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, कुर्ता-पाजामा और चप्पलें कुल मिलाकर 'प्रवासी' जी की आकृति बड़ी भव्य थी। वे दूर से देखने पर पूरे गांधीवादी दिखायी पड़ते थे। स्वभाव से अत्यन्त विनम्र किन्तु पूरे सिद्धान्तवादी । अनुचित को कभी सहन नहीं किया और अन्याय के प्रति अपनी वाणी से ही नहीं कलम से भी आजीवन संघर्षरत रहे। एक विचित्र किस्म का अक्खड़पन भी उनमें था ठीक वैसा ही जैसा धूमिल में था। व्यवस्था की विसंगतियों से भिड़ने को सदैव तत्पर। नगर के लोग जो 'प्रवासी' जी को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं वे उनके बारे में ऊँची राय रखते हैं।
किन्तु मैं तो उनके साहित्यकार व्यक्तित्व से ही परिचित हो सका हूँ। जहाँ तक उनके साहित्यिक व्यक्तित्व की बात है वे निश्चित ही ऊँचे दर्जे के साहित्यकार, विशेषकर कवि थे। यद्यपि उनका लेखन स्वांतः सुखाय ही था किन्तु वे ऐसे साहित्य को निरर्थक मानते थे जो जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर न रचा गया हो। शायद यूँ ही उन्होंने एक जगह यह बात कही है
हो न कल्याण भावना जिसमें
काव्य ऐसा असार होता है ।
निज दृगों में पराश्रु भरने से
हर्ष मन में अपार होता है ।
वस्तुतः 'प्रवासी' जी अपने जीवनकाल में गांधी जी से काफी प्रभावित थे। गांधी दर्शन का प्रभाव केवल उनके आचार-व्यवहार पर ही नहीं बल्कि साहित्य पर भी परिलक्षित होता है। दरअसल, 'प्रवासी' जी उस पीढ़ी के साहित्यकार थे जिसने स्वाधीनता के संघर्ष में स्वयं भाग लिया था बल्कि राष्ट्र के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव की आवश्यकता को भी अनुभव कर लिया था। तभी उन्होंने अपनी एक लम्बी कविता में लिखा है
यहाँ मन्दिरों में चलता है नित अर्जन पूजन
यहाँ मस्जिदों में अजान का होता मृदु गुंजन ।। गुरुद्वारों-गिरजाओं से नित मधुरम ध्वनि आती।
सुन जिसको सानन्द प्रकृति, निजमन में हर्षाती।। आते यहीं विश्वपति धर तन, शत शत नमन करो।
यह धरती सुरपुर सी पावन, शत-शत नमन करो ।।
'सीपज' 'प्रवासी' जी का चर्चित काव्य संग्रह है। यूँ उनकी 'प्रवासी सतसई', 'हिन्दी शब्द विनोद', 'बच्चों की फुलवारी' और 'मंगला' शीर्षक पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी है। किन्तु 'सीपज' अद्वितीय है। यह उनकी हिन्दी-उर्दू गज़लों का संग्रह है। 'सीपज' के जरिये प्रवासी जी ने हिन्दी कविता में एक विलक्षण प्रयोग किया है जो उनसे पहले शायद किसी ने नहीं किया है। 'सीपज' में 'प्रवासी' जी ने पूरी हिन्दी शब्दावली या हिन्दी वाक्यों का उपयोग करते हुए विशुद्ध हिन्दी गज़लें लिखी है। यूँ हिन्दी में गजल लिखने की परम्परा भी दशकों पुरानी हो चली है और गोपाल दास 'नीरज' जैसे गीतकार 'गीतिका' नाम से गज़ले कहते रहे हैं। स्वयं महेन्द्र प्रताप जी भी गीत-गजल के नाम से एक मिश्रित विधा का
उपयोग काव्य सृजन के लिए करते रहे हैं। अन्य हिन्दी कवियों ने भी विपुल मात्रा में गज़लें लिखी हैं। लेकिन दूसरे कवियों में जहाँ गजल के नाम पर उर्दू गजल की भोंडी नकल की है और उर्दू शब्दों का जमकर उपयोग किया है वही 'प्रवासी' जी की हिन्दी गज़लों में उर्दू के शब्द न केवल दुर्लभ हैं बल्कि छन्दशास्त्र की दृष्टि से भी वे एकदम 'परफेक्ट' है। जहाँ हिन्दी के कवियों ने गजल लिखते समय उर्दू के गज़लकारों की तरह इश्क, आशिक या महबूब जैसे परम्परागत प्रतीकों को अपनी आधार वस्तु बनाया है वहीं प्रवासी जी की हिन्दी गज़लें इन सबसे काफी दूर जान पड़ती हैं और वे सामान्य तौर पर हिन्दी गजलों में पाये जाने वाले दोषों से मुक्त है। यद्यपि "सीपज' में प्रवासी जी की उर्दू गजलें भी संग्रहीत हैं किन्तु हिन्दी गज़लों की दृष्टि से प्रवासी जी हिन्दी के कथित गज़लकारों के लिए न केवल एक मानक हैं बल्कि उनके आदर्श भी सिद्ध हो सकते हैं। अपनी एक गज़ल में प्रवासी जी ने लिखा है
'काव्य कहलाता वही जो गेय है,
छंद, यति गति हीन, रचना हेय है।
निज प्रगति तो जीव सब ही चाहते।
किन्तु जग उन्नति मनुज का ध्येय है ।।
ऐसी बात गज़ल के जरिये और वह भी विशुद्ध हिन्दी शब्दावली में कहने की सामर्थ्य 'प्रवासी' जी में ही हो सकती है। यदि संक्षेप में 'प्रवासी जी के साहित्य को रेखांकित करना हो तो इसे सहज ही 'प्रेम, पीड़ा और आँसुओं का साहित्य' कहा जा सकता है। निज मन की पीड़ा उनके काव्य विशेषकर गज़लों का मुख्य स्वर रहा है। जैसे मोती सीपी से जन्म लेता है उसी तरह 'सीपज' 'प्रवासी' जी के उर की घनीभूत पीड़ा के परिणाम स्वरूप दृग-सीपियों से जन्मा है। जीवन के अभावों और विश्वासघातों ने कवि को शायद इतनी पीड़ा दी है कि दुख या अवसाद उनका स्थायी 'मूड' बन गया है। महान अंग्रेज कवि शैली की तरह 'मैलानकोली' सदैव उनके अवचेतन और सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर हावी रहा है। शायद यूँ ही जीवन संध्या पर शैली द्वारा रची गयी प्रसिद्ध कविता 'स्टेन्जास रिटेन इन डिजेक्शन नियर नेपल्स' की तर्ज पर प्रवासी जी लिखते हैं
पीर बढ़ती जा रही है क्या करें।
सुधि कभी की आ रही है, क्या करें ।।
स्वर हुये नीलाम, वीणा बिक गयी।
गीत पुरवा गा रही, क्या करें ।।
आज जन का विषमयी स्वर पान कर।
' साँस घुटती जा रही है, क्या करें।
महीयसी महादेवी वर्मा की 'मै नीर भरी दुख की बदली' की तरह 'प्रवासी' जी के काव्य में भी पीड़ा और अश्रुओं की बार-बार अभिव्यक्ति हुई है और हृदय की वेदना 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान' की तर्ज पर कविता के रूप में निःसृत हुई है। " सांत्वना दे दे हृदय को बींध जाता कौन है। विष बुझे स्वर्णिम चषक से मधु पिलाता कौन है।" इस दृष्टि से मन की पीर प्रवासी जी के लिए वरदान भी सिद्ध हुई है, क्योंकि अगर मन में पीड़ा न होती तो वे इतने समर्थ कवि कैसे बन पाते ?
'प्रवासी' जी ने बच्चों के लिए भी बहुत सी रचनाएं लिखीं। 'प्रवासी सतसई', 'बच्चों की फुलवारी' और 'बाल गीत मंजरी' (अप्रकाशित) उनकी प्रसिद्ध बाल कृतियां हैं, किन्तु 'प्रवासी' जी की बाल साहित्यकार के रूप में पहचान नहीं है। न ही बाल साहित्य के दृष्टिकोण से उनका मूल्यांकन किया गया है। यदि उनकी बाल रचनाओं का सम्यक मूल्यांकन किया जा सके तो कवि रूप में हम उनके एक और नये आयाम से परिचित हो सकेंगे।
✍️ राजीव सक्सेना
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें