:::::::::::::प्रस्तुति::::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' के तत्वावधान में सुप्रसिद्ध साहित्यकार माहेश्वर तिवारी के 82वें जन्मदिन तथा उनकी रचनाधर्मिता के 66 वर्ष पूर्ण होने पर 22 जुलाई 2021 को काव्य गोष्ठी एवं संगीत संध्या का कार्यक्रम "पावस-राग" का आयोजन नवीन नगर स्थित 'हरसिंगार' भवन में किया गया। कार्यक्रम का शुभारंभ सुप्रसिद्ध संगीतज्ञा बालसुंदरी तिवारी एवं उनकी संगीत छात्राओं- लिपिका, कशिश भारद्वाज, संस्कृति, प्रवर्शी और सिमरन द्वारा प्रस्तुत संगीतबद्ध सरस्वती वंदना से हुआ। इसके पश्चात उनके द्वारा सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी के गीतों की संगीतमय प्रस्तुति हुई- 'बादल मेरे साथ चले हैं परछाई जैसे/सारा का सारा घर लगता अंगनाई जैसे'। और 'डबडबाई है नदी की आँख/बादल आ गए हैं/मन हुआ जाता अँधेरा पाख/बादल आ गए हैं।
गोष्ठी में यश भारती से सम्मानित सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने पावस गीत पढ़ा-
एक चिड़िया डाल पर
कौन शायद इस तरह हम हैं
धूप के अक्षर समय के भाल पर
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ . मक्खन 'मुरादाबादी' ने गीत प्रस्तुत किया---
मैं हुआ जिस गीत से
फिर गीत वह मुझसे हुआ
ठीक से बांधें चलो अब
गीत गाड़ी का जुआ।
मुख्य अतिथि वरिष्ठ ग़ज़लकार डा. कृष्ण कुमार नाज़ ने ग़ज़ल पेश की --
वादों की फ़ेहरिस्त दिखाई और तक़रीरें छोड़ गए
वो सहरा में दरियाओं की कुछ तस्वीरें छोड़ गए
रामचरितमानस, रामायण, भगवद्गीता, वेद, पुराण
अभिनंदन उन पुरखों का, जो ये जागीरें छोड़ गए
कार्यक्रम का संचालन कर रहे योगेन्द्र वर्मा व्योम ने पावस गीत प्रस्तुत किया-
बूँदों ने कुछ गीत लिखे हैं
चलो गुनगुनायें
हरी दूब से, मिट्टी से
अपनापन जता रहीं
कई-कई जन्मों का अपना
नाता बता रहीं
सिखा रहीं कैसे पत्तों से
बोलें-बतियायें
कवयित्री विशाखा तिवारी ने रचना प्रस्तुत की-
आज व्याकुल धरती ने
पुकारा बादलों को
मेरी शिराओं की तरह
बहती नदियाँ जलहीन पड़ी हैं
वरिष्ठ कवि डॉ.मनोज रस्तोगी ने रचना प्रस्तुत की-
नहीं गूंजते हैं घरों में
अब सावन के गीत
खत्म हो गई है अब
झूलों पर पेंग बढ़ाने की रीत
नहीं होता अब हास परिहास
दिखता नहीं कहीं
सावन का उल्लास
चर्चित दोहाकार राजीव 'प्रखर' ने दोहे प्रस्तुत किए-
प्यारी कजरी साथ में, यह रिमझिम बौछार
दोनों मिलकर कर रहीं, सावन का शृंगार
जब तरुवर की गोद से, खग ने छेड़ी तान
सावन चहका ओढ़ कर, बौछारी परिधान
कवि मनोज 'मनु' ने ग़ज़ल सुनाई-
आपकी याद चली आई थी कल शाम के बाद
और फिर हो गई इक ताज़ा ग़ज़ल शाम के बाद
तू है मसरूफ, कहां दिन में मिले वक्त तुझे
तू किसी रोज़ मिरे साथ निकल शाम के बाद कवयित्री अन्जना वर्मा ने सुनाया-
दुनिया के इस रंगमंच पर
सभी रोल कर जाते हैं
होठों पर मुस्कान सजाकर
दिल के दर्द छिपाते हैं
ग़ज़लकार राहुल शर्मा ने सुनाया-
क्यूँ मेरी ज़रूरत पे ही हर बार अचानक
हर शख्स नज़र आता है लाचार अचानक
जीवन के तमाशे को तमाशे की तरह देख
झटके से बदल जाएँगे किरदार अचानक
कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने सुनाया-
चलो मौत की खटिया
खड़ी करते हैं
क्यों न ये शुरुआत हम सब
अपने दिमाग के दालान से करें
डा. चन्द्रभान सिंह यादव ने विचार पेश किए- वसंत मौसम की युवा अवस्था है तो पावस बचपना।बच्चे के हँसने,रोने और चिल्लाने जैसा है वर्षा, कड़ी धूप और बिजली का चमकना।वर्षा की बूदें वनस्पतियों के साथ मनुष्यों के जीवन के लिए जरूरी हैं।
कवि प्रत्यक्षदेव त्यागी ने सुनाया-
क्यों हमेशा तू ही पकाये खाना
और मैं बस खाऊँ
कार्यक्रम संयोजक आशा तिवारी एवं समीर तिवारी द्वारा प्रस्तुत आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम विश्राम पर पहुँचा।
योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
संयोजक- संस्था 'अक्षरा', मुरादाबाद
मोबाइल-9412805981
जब भी जले हैं पाँव
घर की याद आई
नीम की
छोटी छरहरी
छाँह में
डूबा हुआ मन
द्वार का
आधा झुका
बरगद : पिता
माँ : बँधा आँगन
सफर में
जब भी दुखे हैं घाव
घर की याद आई
यह शहर का
शोरगुल
वह गाँव का
सूता-परेता
आग में झुलसी हुई
तुलसी
धुएँ में
जया-जेता
रेत में
जब भी थमी है नाव
घर की याद आई
इस गीत के रचनाकार यश भारती पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी का आज जन्मदिन है, जो माहेश्वर तिवारी जी के करीबी रहे हैं वे अच्छे से जानते होंगे कि, सब उन्हें दादा कहते हैं। हमारे दादा आज 81 वर्ष के हो चुके हैं, लेकिन उनके नवगीत आज भी बिल्कुल ताजगी भरे हैं।
18 मार्च 2021 का दिन मेरे लिए अविस्मरणीय रहेगा। इस दिन मुरादाबाद के हिन्दू कॉलेज में हिन्दी परिषद की बैठक में विशेष अतिथि के रूप में दादा शामिल हुए थे। इस बैठक में हिन्दी परिषद के अध्यक्ष के रूप में मुझे दादा के करकमलों से सम्मानित होने और उन
का उद्बोधन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उन दिनों कृषि कानूनों का विरोध भी आवेग पर था। दादा ने अपने उद्बोधन में कहा -"कि जब-जब सत्ता निरंकुश होगी, तब-तब ओजस्वी कवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना -'सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है' गूंजेगी। आज सरकारें अपने खिलाफ सुनना नहीं चाहती, पत्रकारिता का गला घोट दिया गया। उपनिवेशवाद से लेकर हम आज यहां तक आए हैं, इसमें ना जाने कितने लेखकों, पत्रकारों, कवियों और समाजसेवियों ने अपनी भूमिका निभाई , केवल इसलिए कि हमें ऐसी सरकारों की जरूरत थी !!
(बर्फ होकर
जी रहे हम तुम
मोम की जलती इमारत में
इस तरह
वातावरण कुहरिल
धूप होना
हो रहा मुश्किल
जूझने को
हम अकेले हैं
एक अंधे महाभारत में’
दादा का यह गीत आज के माहौल को बताने के लिए काफी है। )
अपने सम्बोधन में आगे दादा ने आगे कहा था- कविता, सत्ता की निरंकुशता का पर्दाफाश करती है, आपातकाल लगने पर जैसे दुष्यंत कुमार की गजलें मुंहजुबानी गायी जाती थी ,जरूरत पड़ने पर ऐसा दोहराया जा सकता है। दादा कहते हैं , कविता में कवित्व महाप्राण अंग है, जो उसकी नींव है। यदि कविता में कवित्व मर जाए, तो कवि को हम जिन्दा कह सकते हैं क्या ?? कदापि नहीं!!
हर आदमी हथियार लेकर युद्ध नही करता। युद्ध संसाधनों का नहीं, साहस का काम है। सच्चा रचनाकार कालजयी होता है, जो हमेशा-हमेशा के लिए अपने पाठको में जीवित रहता है। पाठक, किसी भी लेखक के स्तम्भ होते हैं समय की मांग है, कि लेखको को अपने पाठको से संवाद करना चाहिए, ताकि लेखन को आवश्यकतानुसार मोड़ा जा सके। लेखक समाज की वह नींव है, जिस पर इमारत खड़ी की जाती है। यदि भविष्य को सुधारने के लिए लेखक सख़्त हो जाए, तो दुनिया की कोई ताकत भविष्य को बिगाड़ नहीं सकती।
कविता की भाषा के बारे में दादा ने कहा कि, कविता की भाषा केवल एक होती है वो है- संवेदना। कविता का मतलब केवल छंद होना नहीं है। हर वो लाइन कविता है जिसमें संवेदना शामिल होती है। जिस कवि में यह गुण विद्यमान है, उसके लिए कविता लेखन वरदान है।
हमारे निवेदन पर उन्होंने अपना एक चर्चित गीत भी सुनाया था ----
एक तुम्हारा होना
क्या से क्या कर देता है,
बेजुबान छत दीवारों को
घर कर देता है ।
ख़ाली शब्दों में
आता है
ऐसे अर्थ पिरोना
गीत बन गया-सा
लगता है
घर का कोना-कोना
एक तुम्हारा होना
सपनों को स्वर देता है ।
आरोहों-अवरोहों
से
समझाने लगती हैं
तुमसे जुड़ कर
चीज़ें भी
बतियाने लगती हैं
एक तुम्हारा होना
अपनापन भर देता है ।
आज उनके जन्मदिन पर मुझे उनके कई गीतों का स्मरण हो रहा है ----
‘याद तुम्हारी जैसे कोई
कंचन-कलश भरे
जैसे कोई किरन अकेली
पर्वत पार करे
लौट रही गायों के संग-संग
याद तुम्हारी आती
और धूल के संग-संग मेरे
माथे को छू जाती
दर्पण में अपनी ही छाया-सी
रह-रह उभरे
जैसे कोई हंस अकेला
आंगन में उतरे’
हिन्दी के विख्यात गीतकवि स्व. भवानीप्रसाद मिश्र को उक्त गीत बहुत पसंद था, उन्होंने होशंगाबाद के एक कवि सम्मेलन में इस गीत की काफी प्रशंसा की थी ।
उनका ये गीत आज की स्थितियों-परिस्थितियों की ओर संकेत करता है -----
आने वाले हैं
ऐसे दिन आने वाले हैं
जो आँसू पर भी
पहरे बैठाने वाले हैं
आकर आसपास भर देंगे
ऐसी चिल्लाहट
सुन न सकेंगे हम अपने ही
भीतर की आहट
शोर-शराबे ऐसा
दिल दहलाने वाले हैं’
-------------------
सोये हैं पेड़
कुहरे में
सोये हैं पेड़।
पत्ता-पत्ता नम है
यह सबूत क्या कम है
लगता है
लिपट कर टहनियों से
बहुत-बहुत
रोये हैं पेड़।
जंगल का घर छूटा,
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में
बेघर होकर जीते
सपनो में खोये हैं पेड़।
साठ और सत्तर के दशक की फिल्मों के गाने तो ऐसे होते हैं कि उन्हें जितनी बार सुनो, उतनी बार कई सारे सवाल खड़े हो जाते हैं. मसलन. एक गाना है, ” लो, आ गयी, उनकी याद, वो नहीं आये ? ” गाने में कोई कमी नहीं है, मगर हम इसे जब भी सुनते हैं, तो अफ़सोस होता है कि जिसे आना चाहिए था, कम्बख्त वह तो आया नहीं, याद पहले आ गयी. अब हीरोइन याद से कब तक काम चलाएगी ? हीरो या तो किसी लोकल ट्रेन से आने की वजह से अपने निर्धारित समय से कई घंटे लेट हो गया है या फिर उसकी याद में इसी किस्म का गाना गाने वाली कोई और मिल गयी है तो उसने सोचा होगा कि चलो, इसका गाना भी सुनते चलें. कुछ भी हो सकता है. आना-जाना किसी के हाथ में है कि गाना गाकर याद किया तो हाज़िर ?
” लो, आ गयी उनकी याद…..” गाना अपने शबाब पर है. संगीतकार सारे साथ चल रहे हैं कि पता नहीं कौन सा सुर बदलना पड़ जाये ? गाने वाली गाये जा रही है, ” लौ थरथरा रही है, अब शम्मे-ज़िन्दगी की, उजड़ी हुई मोहब्बत, मेहमाँ है दो घड़ी की……. ” शम्मे-ज़िन्दगी की यानि वह ज़िन्दगी, जिसकी पोज़ीशन अब शम्मां की तरह की हो गयी है, उसकी लौ जो है, वह थरथरा रही है और वो जिसके एवज़ में सिर्फ़ याद ही हमेशा आ पाती है, अभी तक नहीं आ पाया है, इसलिए गाना संगीतकारों सहित अपने अगले पड़ाव पर पहुंच जाता है. जंगली जानवरों से भरे सुनसान जंगल में हीरोइन इतना नहीं थरथरा रही, जितनी उसकी ज़िन्दगी की शम्मां की लौ थरथरा रही है. आज उसके ना आ पाने की वजह से उसकी मोहब्बत बेमौसम बरसात में हुई बारिश की वजह से उजड़ी फसल की तरह उजड़ गयी है और अब सिर्फ़ दो मिनट में गाना ख़त्म होने तक की ही मेहमाँ है, उसके बाद वह अपने घर और यह अपने घर, मगर वह जो कम्बख्त हीरो है, वह अभी तक नहीं आ पाया है.
यही नहीं, कई गाने ऐसे हैं, जिनको हम जब भी गुनगुनाते हैं तो कई किस्म के कई सवाल आ खड़े होते हैं हमारे सामने और हम उनकी व्याख्या अपने ढंग से कर डालते हैं. एक सवाल और था जो बचपन से हमारे ज़हन में कौंधता रहा है कि फिल्मों में गाने गाकर ही अपनी बात कहने की कौन सी तुक है और जब गाने गाये ही जा रहे हैं तो संगीतकार उनके साथ क्यों चल रहे होते हैं ? वे अपने गाने गायें, हमें कोई ऐतराज़ नहीं, मगर उनमें इस किस्म की बातें तो ना कहें कि ” उजड़ी हुई मुहब्बत मेहमाँ है दो घड़ी की…..” एक बार अगर महबूब नहीं आ पाया तो मुहब्बत उजड़ गयी ? आज अगर कोई महबूब ना आ पाए तो अपनी मुहब्बत को उजड़ने से बचाने के लिए महबूबा फ़ौरन किसी दूसरे महबूब को मोबाइल करके बुला लेगी. पहले ऐसी बात नहीं थी. लानत है उस ज़माने की मुहब्बत पर.
✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश
लगी-उठाई फड़ के।
पेड़ पुरातन सभ्य समाजी
नस्से देखो जड़ के।।
इन साँसों में बसी न हिंसा
मुनिजन इनमें रहते।
धड़कन और शिराओं में बस
वेद-मंत्र ही बहते।।
पावन शब्द-दूत ही भेजे
जब भी दुश्मन कड़के।
रौंदी नहीं सभ्यता कोई
सदा उद्धरण बोये।
जब-जब भी मानवता सिसकी
परवत हमने ढोये।।
आहत धड़कन कहीं मिली तो
हम भी भीतर फड़के।
जुल्मों से भी आँख मिलाकर
नहीं आँख है मींची।
संस्कृतियों के गले न काटे
मुरझी थिरकन सींची।।
बीन-बान कर सदा पिरोये
मोती बिखरी लड़ के।
कभी व्यवस्था करी न बंधक
कभी न उल्लू साधे।
लोकतंत्र की निर्मलता के
बने नहीं हम बाधे।।
छाया देते सड़ी तपन को
ठहरे वंशज बड़ के।
✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी, झ-28, नवीन नगर
कांठ रोड, मुरादाबाद,पिनकोड: 244001
मोबाइल: 9319086769
ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com
त्रिवर्णी, शचींद्र भटनागर जी द्वारा रचित अनमोल कृति है। प्रस्तुत पुस्तक में 1960 से 1970 के मध्य लिखी गई पुस्तक "खंड खंड चांदनी से 18 गीत,उसके बाद 1970 से 1995 के मध्य लिखी गई पुस्तक" हिरना लौट चलें " से 20 गीत "ढाई अक्षर प्रेम के" से 16 गीत संकलित हैं सभी नवगीतों में अंतर्मन की जीवन अनुभूतियों का बहुत ही सुंदर चित्रण है रचनाएं छंदबद्ध है काव्य सौंदर्य की अनुभूति प्रत्येक गीत से फूटती प्रतीत होती है। जीवन संघर्ष एवं जिजीविषा के आत्मसात प्रतिबिंब ,मिथक, संकेत स्पष्ट होते हैं । सामाजिक विद्रूपताओं विसंगतियों का पर्दाफाश करती हुई मन: स्थितियों को गीतों में पिरोया गया है जिन तीन पुस्तकों से गीत संकलित किए गए हैं ,खंड खंड चांदनी, ,हिरना लौट चलें, और ,ढाई आखर प्रेम के, वह एक लंबे कालखंड में बदलती परिस्थितियों का समय रहा है जिसको बड़े ही सुंदर ढंग से कवि ने उत्कृष्ट शब्द चयन लेखन में प्रस्तुत किया है
खंड खंड चांदनी से उद्धरित जनसंख्या नियंत्रण को दर्शाता गीत देखिए
आओ हम रोपें दो पौधे फुलवारी में
इतने ही काफी हैं
छोटी सी क्यारी में
हर पौधे की अपने सपनों की बस्ती हो अपनी कुछ धरती हो
अपनी कुछ हस्ती हो
हर पौधे के द्वारे गर्वीली गंध रुके
बासंती यानों पर उड़ता आनंद रुके
भटनागर जी ने जनसंख्या विस्फोट पर इसी गीत के उत्तरार्ध में लिखा है --
भीड़ भरी बस्ती में लूट हुआ करती है
सब कुछ कर सकने की
छूट हुआ करती है
कोई व्यक्तित्व वहां उभर नहीं पाता है
संवर नहीं पाता है
उभर नहीं पाता है
धूप नहीं मिलती है ,वायु नहीं मिलती है उपवन के उपवन को आयु नहीं मिलती है सारे पौधे
सूखे सूखे रह जाते हैं
प्यासे रह जाते हैं
भूखे रह जाते हैं
जो बदलाव समाज में होते हैं उनको परिलक्षित करते हुए वह लिखते है -----
हर दिशा से
आज कुछ ऐसी हवाएं चल रही है
आदमी का आचरण बदला हुआ है
इस तरह छाया हुआ भय और संशय है परस्पर
बात मन से
मन नहीं करता यहां पर
हर लहर में उच्चता की होड़ इतनी है
कि जिसको देखकर
सागर स्वयं डरता यहां पर
कल्पना विध्वंस की करता यहां पर
दिन ठहर गया गीत में वह कहते हैं---
अभी-अभी इमली के पीछे
दिन ठहर गया
रोक दिया वाक्य
जो विराम ने
पत्तों के पीछे से
झांक लिया लंगड़ाते धाम ने
जैसे मुड़कर देखा हो
सजल प्रणाम ने
लंबाए पेड़
पात शाखाएं
छायाएं दिशा दिशा नापतीं
एक सलेटी साड़ी पर
एक और गीत देखिए ------
अंधकार उतरा
पिघल गया सूर्यमुखी रूप
बिल्लोरी जल में
एक लहर सोना मढी
एक लहर मूंगे जड़ी
एक लहर मोथरी छुरी
जैसे हो सान पर चढ़ी
शाम के लुहार ने
तपा हुआ लोहखंड
अग्नि से निकाला
पल भर में बुझा हुआ दिवस पड़ा काला
कितना सुंदर प्रकृति चित्रण इस गीत में किया है
मनोभावों को गीत में उतारते हुए वह लिखते हैं-----
पूस की रात
कांप रही कोने में रात पूस की
धवलाई किरणों को
कुतर गई सांझ
गोधूली ओढ़
मौन पीछे दीवार सिटी सीढ़ी से
उतर गई सांझ
और किसी वृद्धा सी दुबक गई
डरी डरी
रीढ़ झुकी कटिया भी पूस की
कांप रही कोने में रात पूस की
कवि जो देखता है उसके मन की व्यथा गीतों में अनायास ही फूट पड़ती है ----
मेरा दर्द कि मैं न गांव ही रह पाया
न शहर बन पाया
लुप्त हुई
कालीनों जैसी
खेत खेत फैली हरियाली
बीच-बीच में पगडंडी की शोभा वह
मन हरने वाली
अब न फूलती सरसों
डालों पर मदमाते बौर नहीं हैं
तन मन की जो थकन मिटा दे
वह शीतल से ठौर नहीं हैं
सबको छांह बांटने वाला
मैं न सघन पाकर बन पाया
और गांव से शहर की ओर होने वाले पहले पलायन पर कवि ने लिखा
गांव सारा चल दिया
जाने किधर
हम निमंत्रण को तरसते रह गए
रुक गई वे दुध मुंही किलकारियां
मौन भाषा चिट्ठियों की खो गई
थम गईं
रिमझिम फुहारें सांवनी
गंध सोंधी मिट्टियों की खो गई
--------------------------
कल तक जलजात जहां गंध थे बिखेरते
उग आया वहीं पर
सिवारों का जंगल
इस कदर अंधेरा है
विष भरी हवाएं हैं
पार पहुंच पाना भी लगता है मुश्किल
हम इतनी दूर
चले आए हैं बिन सोचे
आज लौट जाना भी लगता है मुश्किल
सोचा था पाएंगे हम बयार चंदनी
किंतु मिला कृत्रिम
व्यवहारों का जंगल
संवेदनशील देखिएगा.... कवि कहता है-
औरों के क्रूर आचरण
कई बार कर लिए सहन
अपनों का अनजानापन
मीत सहा नहीं जाता
सूरज को
छूने की होड़ लिए वृक्षों से
कहीं नहीं मिलतीं
मनचाही छायाऐं
ऊंचे उठने की लघु ललक लिए बिटपों की
बौनी रह जाती हैं
अनगिनत भुजाएं
एक गीत और देखिएगा-
गंध का छोर मिलेगा
हिरना लौट चलें
अभिनंदन करती
आवाजों के शोर बीच
भाव मुखर एक भी नहीं
सभी यंत्र चालित हैं
बोलते खिलौने हैं
जीवित स्वर ही एक भी नहीं
इन ऊंचे शिखरों पर
बहुत याद आता है
बादल बन बन बगियों में घिरना
लौट चलें
अंत में कुछ गीत "ढाई आखर प्रेम के" से देखिएगा--
एक आकर्षण
अगरु की गंध में
भीगे नहाए क्षण
मलय की छांव छूकर
लौट आए प्रण
फिर भी मौन हूं मै
वह तरल निर्वाधिनी गति
रुक गई
एक ऊंचाई
थरा तक झुक गई
और मेरी दृष्टि
हो आई गगन के पार
गंधिल निर्जनो में
विमल चंदन वनों में
एक आकर्षण
अतल गहराइयों तक
डूब आया मन
खिंचावों में घिरा
मेरा अकेलापन
फिर भी मौन हूं मैं
और देखिए कवि की संवेदना----
कोलाहल जाग गया
सांसों के गांव में
निमिष निमिष भीग गया
रसभीने भाव में
ऊंघ रहा है इस क्षण
उनमन सा एक सुमन एक कली जागी
ऐसी कुछ बात हुई
बनकर ज्यों छुईमुई
सोई है एक डगर एक गली जागी
अंत में एक गीत और --
जाने फिर मिले
या न मिले खुला गगन कहीं
यह नीला नीला आकाश सरल मन सा
आओ कुछ देर यहां बैठे हम ठहरें
यदि शचीन्द्र भटनागर जी को, उनकी संवेदनाओं को जानना है तो यह पुस्तक एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए।
कृति : त्रिवर्णी (नवगीत संग्रह)
रचनाकार : शचीन्द्र भटनागर
प्रकाशक : हिंदी साहित्य निकेतन, 16 साहित्य विहार, बिजनौर, उत्तर प्रदेश, भारत
संस्करण : प्रथम 2015
मूल्य : ₹300
::::::::प्रस्तुति::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
थोड़ी मस्तियाँ
थोड़ी तालियाँ
थोड़ी गालियाँ
थोड़ी शरारतें
थोड़ी शिकायतें
थोड़ी अदावतें
थोड़ी हरारतें
बुढ़ापे को नजदीक आने न दें
जवानी आसानी से जाने न दें
सोलह शृंगार
नए से विचार
थोड़ा नक़द
थोड़ा उधार
थोड़ा क़ायदा
थोड़ा फ़ायदा
थोड़ा वायदा
फैला रायता
बुढ़ापे को हरदम कहें अलविदा
जवानी की मस्ती रहेगी सदा
थोड़ी आशिक़ी
थोड़ी बेवफ़ाई
थोड़ी दिलजोई
थोड़ी लड़ाई
कभी घूमना
कभी तान सोना
कभी गपबाज़ी
कभी आँखें भिगोना
करो ग़र बुढ़ापा फटकेगा नहीं
सफ़र खूबसूरत अटकेगा नहीं
कभी पेग अंग्रेज़ी
कभी मीठी लस्सी
कभी मस्त चखना
कभी दारू कच्ची
कभी खुल ठहाके
कभी थोड़ी तन्हाई
कभी महफ़िलें
कभी प्रिय से जुदाई
नकारात्मक सोच कभी आने न दें
दिल अपना किसी को दुखाने न दें
कभी जंगलों में
तो सागर किनारे
कभी दोस्तों में
कभी अपने सहारे
कभी दोस्ती भी
कभी दुश्मनी भी
कभी आशनाई
कभी दिल्लगी भी
यह जज़्बा कभी कम होने न दें
बुढ़ापे को हावी होने न दें
✍️ प्रदीप गुप्ता B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065
रूप तुम्हारा कोमल-कोमल,
प्रीत तुम्हारी निर्मल-निर्मल
अधरों पर मुस्कान मनोरम,
लगती है पावन गंगाजल
पुलकित कर देता है मुझको,
संग तुम्हारे बातें करना
शब्दों में ढलकर वाणी से,
बहता है फूलों का झरना
सारी सृष्टि तुम्हारी ही छवि
और तुम्हारी ही अनुगामी
तुम पुरवाई-सी सुखदायी,
वर्षा की बूँदों-सी चंचल
अपना भाग्य सराहे पल-पल,
उर-आँगन का कोना-कोना
लगता है जग-भर पर तुमने,
कर डाला है जादू टोना
तुम आकर्षण की मूरत हो,
तुम देवी हो सम्मोहन की
सागर-सी भी मर्यादित हो,
नदिया-सी भी हो उच्छृंखल
भावों ने सीखा है तुमसे,
उत्सुक होकर पेंग बढ़ाना
चिंतन के उन्मुक्त गगन में,
इंद्रधनुष बनकर मुस्काना
मगर तुम्हारे स्वप्न हठीले,
यूँ भी करते हैं बरजोरी
खटकाते रहते हैं अक्सर,
मन के दरवाज़े की साँकल
2 - दुनियाभर का खेल-तमाशा
दर्शक बनकर देख रहा हूँ
दुनियाभर का खेल-तमाशा
आस कहीं पाई चुटकीभर
और कहीं पर घोर निराशा
जिस क्षण मुश्किल हो जाता है
अपनों से सम्मान बचाना
मन को बोझिल कर देता है
संबंधों का ताना-बाना
कैसे आख़िर पहचानूँ मैं
चेहरों से ऐसे लोगों को
भेष बदलकर हो जाते जो
पल में तोला, पल में माशा
सब चेहरों पर सजे मुखौटे
सबने चढ़ा रखे दस्ताने
भ्रम का ओवरकोट पहनकर
बरबस लगते हाथ मिलाने
भाषा की मर्यादा तजकर
अनुशासन का पाठ पढ़ाते
बोली में विष घोल रहे हैं
रख दाँतों के बीच बताशा
सज्जनता का करें प्रदर्शन
साधारण क्या, नामचीन भी
किंतु निकलते हैं भीतर से
निपट खोखले, सारहीन भी
शिष्टाचार छपा है इनके
रँगे-पुते चेहरों पर, लेकिन-
गाढ़े मेकप के पीछे से
झाँक रही है घनी हताशा
✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'
सी-130, हिमगिरि कालोनी
कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.
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समर्पण--- परिवार व समाज के विभिन्न पात्रों की जीवन यात्रा के विभिन्न मोड़ों व विभिन्न पड़ावों से गुजरता हुआ एक ऐसा उलझाव भरा, किंतु हृदय के गहरे समुद्र में उतर जाने वाला कथानक...जिसे आप पढ़ते- पढ़ते द्रवीभूत हो उठेंगे...बार -बार आंखें छलछला आएंगी आपकी! लगेगा ... सब कुछ आपकी आंखों के सामने ही घटित हो रहा है।
पात्र भी आपको अपने जाने -पहचाने से ही प्रतीत होंगे। ऐसे ऐसे अकल्पित रहस्योद्घाटन कि आप आश्चर्य चकित हुए बिना न रह सकेंगे। और... एक विश्व विख्यात धर्मोपदेशक, कथावाचक, योगीराज का तो आप ऐसा रुप देखेंगे कि नेत्र विस्फारित रह जाएंगे आपके... दांतों तले अंगुली दबाने को विवश हो जाएंगे आप।
सुरुचिपूर्ण कथानक,अनुपम शिल्प, विश्लेषणात्मक चिंतन, लालित्य पूर्ण भाषा व रोचक शैली में लिखा गया एक ऐसा उपन्यास, जिसे आपका मन चाहेगा कि एक ही सांस में पढ़ जाएं।
'समर्पण' में है विविध चरित्रों का विश्लेषण... जैसे--- दिव्यप्रभा ---कथानक की केंद्रबिंदु... धर्मांधता की ओट में छली गई अभागी युवती... कोमलांगी,,करुणहृदयी, संवेदनशील, छुईमुई सी, कोंपल सी वयस वाली, धर्म भीरु...विवशताओं के बंधन हैं जिसमें... उमंगों की हत्या से उपजी वेदनाएं हैं।
मन के किसी कोने में पारिवारिक चिकित्सक डॉ अनंत श्रीवास्तव कब दबे पांव आ समाया, कोई आहट न हो सकी?
एक है 'डॉ अनंत श्रीवास्तव'--- ऐसा भावुक प्रवृत्ति का प्रतिभाशाली डॉक्टर,जो दिव्यप्रभा के परिवार का चिकित्सक तो है ही,शुभाकांक्षी भी है। वैदिक विचारधारा का अनुयाई, श्रेष्ठाचरणी, गंभीर प्रवृत्ति का आदर्श युवा चिकित्सक।
हृदय में दिव्यप्रभा के प्रति प्रेमांकुर प्रस्फुटित होने लगे थे, परंतु कभी अभिव्यक्ति का साहस न संजो सका।
उपन्यास की धुरी 'योगीराज देवमूर्ति आचार्य'--- असफल डॉ दिवाकर का वह परिवर्तित स्वरुप... जिसने उसे न केवल स्वदेश अपितु विदेशों में भी ऐसी अपार ख्याति दिलाई...कि आसमान की ऊंचाइयों की उड़ान भरने लगा वह...
प्रत्येक क्रिया फल प्राप्ति की आशा से अनुप्राणित... वर्तमान के सुप्रसिद्ध कथावाचकों अथवा धर्मगुरुओं का प्रतिनिधि।
सेठ भानुशरण--- कानपुर का उद्योग पति... धर्म प्रेम की ओट में धनार्जन... लोहे को स्वर्ण में परिवर्तित कर देने की कला में सिद्धहस्त... चिकित्सा क्षेत्र में असफल 'डॉ दिवाकर' को 'योगीराज देवमूर्ति' में परिवर्तित इसी शिल्प कार ने किया था।
और 'दीपेश '--- महत्वाकांक्षी और निर्मल विराट व्यक्तित्व का स्वामी,दिव्यप्रभा का सहोदर, राष्ट्र हितकारी विचारधारा का पक्षधर...
परिस्थितियों के मकड़जाल ने उसे कहां से कहां पहुंचा दिया... मानव धर्म रक्त के बिंदु बिंदु में समाहित... जीवन की विडम्बना ने उसे इतना ऊंचा उठा दिया कि उसके व्यक्तित्व के समक्ष सभी बौने प्रतीत होने लगे।
कृति : समर्पण (उपन्यास)
लेखक : डॉ अशोक रस्तोगी,अफजलगढ़, बिजनौर, उ.प्र.
प्रकाशक : काव्या पब्लिकेशन दिल्ली
पृष्ठ संख्या : 351 मूल्य : ₹499
वैसे तो वह सरकारी डाक बंगला था।
कुछ समय से उसमें ठहरने वाले कई अफसरों की अनायास मृत्यु हो जाने के कारण उसमें रुकने को कोई भी तैयार नहीं होता।होते-होते उसका नाम भूत बंगला पड़ गया।
एक बार एक दिलेर फौजी अफसर ने उसमें ठहरने की इच्छा जताते हुए जिलाधिकारी से आज्ञा लेने का मन बनाया।जिलाधिकारी ने उस फौजी अफसर को उसके बारे में विस्तार से बताकर वहां न ठहरने की सलाह दी।परंतु फौजी ने उस बंगले के रहस्य को जानने का प्रण करते हुए अपना मंतव्य उजागर कर दिया।
जिला अधिकारी ने कुछ मजदूर लगाकर उसकी सफाई करा दी।फौजी अफसर एक कमरे में बिस्तर लगाकर लेट गया।लेटते ही उसे नींद आ गई।रात्रि के ठीक बारह बजे कमरे के दरवाजे पर ठक,ठक की आवाज़ हुई।फौजी की आंख खुल गई।उसने आवाज़ लगाई कौन है,कौन है।कोई उत्तर न मिलने पर दिल में थोड़ी घबराहट लिए वह सो गया।थोड़ी सी आँख लगने पर वही ठक-ठक की दस्तक फिर हुई।फौजी उठा और दरवाजा खोकर देखा परंतु वहां कोई नज़र न आया मगर दूर किसी कोने से एक खौफनाक हंसी उसके कानों में अवश्य पड़ी।
फौजी दिल पक्का करके हनुमान चालीसा पढ़ते हुए कमरे में आकर बैठ गया। पुनः हिम्मत बटोरते हुए वह ऊपर छत के एक कोने में छुपकर बैठ गया।और फिर से उसी दस्तस्क का इंतज़ार करने लगा।
तभी उसने देखा एक सफेद सी आकृति दरवाज़े के समीप आकर रुकी और चारों ओर देखते हुए दरवाज़ा बजाने का प्रयास किया।जैसे ही उसका हाथ दरवाज़े तक पहुंचता,फौजी अफसर ने ऊपर से छलांग लगा दी।और उस सफेद पोश बुरी आत्मा को दबोचते हुए पूछा, बता तू कौन है और क्या चाहता है। फौजी ने उसके ऊपर पड़ी चादर को हटाया तो वह वहां का पुराना चौकीदार कल्लू निकला।
फौजी अफसर ने उसे कमरे में लेजाकर पहले तो उसकी जमकर धुलाई की। फिर उसके मुंह से वह सत्य उगलवा लिया,जिसके बल पर कल्लू दहशत से मरने वाले अधिकारी का सारा सामान लेकर रफूचक्कर हो जाता।इसके पहले भी वह नौ लोगों को अपना शिकार बना चुका था। जिसके कारण ही उस बंगले को भूत बंगला कहा जाने लगा।
फौजी अफसर ने कल्लू को साथ लेजाकर जिला अधिकारी के सम्मुख पेश करके उसके काले कारनामों का खुलासा किया। जिलाधिकारी महोदय ने फौजी अफसर की बहादुरी को सलाम करते हुए प्रशासन से उक्त बंगला उन्हीं के नाम करने की शफारिश करते हुए,अपराधी कल्लू को जेल भिजवा दिया।
इस प्रकार वह भूत बंगला सदा-सदा के लिए इस पैशाचिक नाम से मुक्त हुआ। फौजी अफसर ने यह प्रमाणित कर दिया कि हौसले में ही जीत छुपी होती है।
✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र,
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::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
✍️ श्वेता शर्मा, लंदन
✍️ कमाल ज़ैदी 'वफ़ा', सिरसी (सम्भल)