हास्य व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी एक ऐसे रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल श्रोताओं को गुदगुदाते हुए हास्य की फुलझड़ियां छोड़ीं बल्कि रसातल में जा रही राजनीतिक व्यवस्था पर पैने कटाक्ष भी किए। सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया तो आम आदमी की जिंदगी को समस्याओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया। पदम् श्री गोपालदास नीरज के शब्दों में कहा जाए तो हुल्लड़ मुरादाबादी की ख्याति हास्य व्यंग विधा के एक श्रेष्ठ कवि के रूप में है लेकिन उन्होंने जो दोहे और गजलें कहीं हैं वे उन्हें एक दार्शनिक कवि के रूप में भी स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं। हास्य के लहजे में कुछ शेर तो उन्होंने ऐसे कहे हैं जो बेजोड़ हैं और जो हजार हजार लोगों की जुबान पर हैं। हिंदी में तो कोई भी हास्य का ऐसा कवि नहीं है जो उनकी ग़ज़लों के सामने सिर ऊंचा करके खड़ा हो सके।
हिंदी के हास्य कवियों की जब कभी चर्चा होती है तो उसमें हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है । जी हां , एक समय तो ऐसा था जब
हुल्लड़ मुरादाबादी अपनी हास्य कविताओं से पूरे देश मे हुल्लड़ मचाते फिरते थे। कवि सम्मेलन हो या किसी पत्रिका का हास्य विशेषांक छपना हो तो हुल्लड़ मुरादाबादी का होना जरूरी समझा जाता था । रिकॉर्ड प्लेयर पर अक्सर उनकी रचनाएं बजती हुई सुनने को मिलती थीं ।दूरदर्शन का कोई हास्य कवि सम्मेलन भी हुल्लड़ जी के बिना अधूरा समझा जाता था। इस तरह अपनी रचनाओं के माध्यम से हुल्लड़ मुरादाबादी ने पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की ।
आजादी से पहले मुरादाबाद आकर बसा था परिवार
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हुल्लड़ मुरादाबादी का जन्म 29 मई 1942 को गुजरांवाला (जो अब पाकिस्तान में है )हुआ था। उनके पिता श्री सरदारी लाल चड्डा बर्तनों का व्यवसाय करते थे। यह संभवतः कम लोगों को ही मालूम होगा कि आप का वास्तविक नाम सुशील कुमार चड्डा था। भारत के आजाद होने से पहले ही आपका पूरा परिवार मुरादाबाद आकर बस गया था। शिक्षा दीक्षा मुरादाबाद में ही हुई। सन 1958 में आपने पारकर इंटर कॉलेज से हाईस्कूल तथा वर्ष 1960 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की थी।बीएससी सन 1965 में तथा सन 1971 में हिंदी विषय से स्नातकोत्तर की परीक्षा स्थानीय हिंदू डिग्री कॉलेज से उत्तीर्ण की । इसी बीच 1969 में आपका विवाह हो गया। वर्ष 1970-71 में आपने एस एस इंटर कॉलेज तथा 1971-72 में आरएन इंटर कॉलेज में अध्यापन कार्य किया ।
पहली बार लाल किले पर 1962 में पढ़ी कविता
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पारकर इंटर कॉलेज में जब वह पढ़ते थे तो वहां हिंदी के एक अध्यापक पंडित मदन मोहन व्यास थे जो एक चर्चित साहित्यकार व संगीतकार भी थे उन्हीं की प्रेरणा व निर्देशन में हुल्लड़ मुरादाबादी का साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ। वह दिवाकर उपनाम से वीर रस की कविताएं लिखने लगे। 2 दिसम्बर 1962 में आपने पहली बार किसी स्तरीय मंच से काव्य पाठ किया । भारत चीन महायुद्ध के संदर्भ में उस वर्ष राष्ट्रीय रक्षा कोष सहायतार्थ एक अखिल भारतीय वीर रस कवि सम्मेलन लालकिला दिल्ली में आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता महाकवि रामधारी सिंह दिनकर कर रहे थे । उक्त कवि सम्मेलन में एक श्रोता के रूप में हुल्लड़ जी भी मौजूद थे । कविसम्मेलन के दौरान राष्ट्र की रक्षा के लिए कुछ देने का प्रश्न आया तो उन्होंने अपनी एक सोने की अंगूठी उतार कर दे दी तथा देशभक्ति से ओतप्रोत एक वीर रस की रचना भी पढ़ी, जिसकी पंक्तियां थी -
तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहां गया
। बोलो राणा की संतानों, वह जोश तुम्हारा कहां गया।। जाकर देखो सीमाओं पर, जो आज कुठाराघात हुआ । जाकर देखो भारत मां के, माथे पर जो आघात हुआ।। गर अब भी खून नहीं ख़ौला, गर अब तक जाग न पाए हो ।। मुझको विश्वास नहीं आता, तुम भारत मां के जाए हो ।।इसके बाद तो न जाने कितने कवि सम्मेलनों में रचना पाठ किया और एक तरह से वे हास्य के पर्याय बन गए । आपने मुरादाबाद के कुछ बुद्धिजीवियों व रचनाकारों को साथ लेकर हास परिहास नामक संस्था का भी गठन किया। वर्ष 1971 में यहीं से हास परिहास नामक एक मासिक पत्रिका भी संपादित की जो वर्ष 1975 तक प्रकाशित होती रही।
फिल्मों में भी किया अभिनय
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आपकी रचनाओं की ख्याति को देखते हुए वर्ष 1977 में मशहूर हास्य अभिनेता व निर्माता निर्देशक आई एस जौहर ने उन्हें फिल्मों में लिखने का ऑफर भी दिया। उस समय वह नसबंदी फिल्म का निर्माण कर रहे थे। उन्होंने हुल्लड़ जी का उसमें एक गीत क्या मिल गया सरकार तुझे इमरजेंसी लगा कर लिया जिसे संगीतबद्ध कल्याणजी-आनंदजी ने किया तथा महेंद्र कपूर व मन्ना डे ने गाया। इस तरह धीरे-धीरे उनका फिल्मों की ओर झुकाव होने लगा और वर्ष 1979 में वह मुरादाबाद छोड़कर मुंबई जाकर स्थाई रूप से रहने लगे। वहां प्रसिद्ध अभिनेता निर्देशक निर्माता मनोज कुमार को अपना गुरु बनाया तथा उन्हीं की प्रेरणा से आगे बढ़ते गए । फिल्म सन्तोष में भी उन्होंने एक अच्छी भूमिका निभाई । इससे पूर्व शिवानी की कहानी पर आधारित फिल्म बंधन बांहों का में भी उन्होंने अभिनय किया। दरअसल अभिनय करने के अंकुर भी उनमें छात्र जीवन में ही फूटे । वर्ष 1960-61 में हिंदू डिग्री कॉलेज की हिंदी साहित्य परिषद द्वारा आयोजित एकांकी नाटक प्रतियोगिता में उन्हें सर्वोत्तम अभिनय करने पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था । इसके अतिरिक्त भगवतीचरण वर्मा के एकांकी नाटक दो कलाकार , ऋषि भटनागर रचित सफर के साथी, डॉ शंकर शेष रचित एक और द्रोणाचार्य में भी उन्होंने प्रमुख भूमिकाएं अभिनीत की।
सन 1989 में सपरिवार लौटे मुरादाबाद
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परिवार के साथ मुंबई चले जाने के बाद भी मुरादाबाद से उनका जुड़ाव बना रहा। यही कारण रहा कि वर्ष 1989 में गर्दिश के दिनों में वह पुन: सपरिवार यहां वापस लौट आए। मुंबई से जब वह वापस मुरादाबाद आए तो साहित्य के प्रति उनका मन उचट सा गया था। उनका साहित्य से पुन: रिश्ता कायम हुआ दैनिक स्वतंत्र भारत के माध्यम से। अपने मित्र चुन्नी लाल अरोड़ा के बहुत आग्रह के बाद उन्होंने स्वतंत्र भारत के लिए लिखना शुरू किया। उसके बाद फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वर्ष 2000 में वह फिर मुरादाबाद की पंचशील कालोनी छोड़कर पूरी तरह मुम्बई में बस गए। 12 जुलाई 2014 को उन्होंने मुंबई के गोरेगांव स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली।
प्रकाशित साहित्य एवं सम्मान
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हुल्लड़ मुरादाबादी की प्रमुख कृतियों में इतनी ऊंची मत छोड़ो, मैं भी सोचूं तू भी सोच, अच्छा है पर कभी कभी, तथाकथित भगवानों के नाम,सत्य की साधना, त्रिवेणी , हज्जाम की हजामत, सब के सब पागल हैं , हुल्लड़ के कहकहे ,हुल्लड़ का हंगामा, हुल्लड़ की श्रेष्ठ हास्य व्यंग रचनाएं ,हुल्लड़ सतसई, हुल्लड़ हजारा, क्या करेगी चांदनी, यह अंदर की बात है मुख्य हैं । एचएमबी द्वारा आपकी हास्य रचनाओं के अनेक रिकॉर्ड्स एवं कैसेट्स रिलीज हो चुके हैं जिनमें प्रमुख रूप से हंसी का खजाना , हुल्लड़ का हंगामा , हुल्लड़ के कहकहे, हुल्लड़ मुरादाबादी से मिलिए बेहद पसंद की गई हैं । आपको विभिन्न पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया जिनमें प्रमुख रूप से काका हाथरसी पुरस्कार, महाकवि निराला सम्मान, हास्य रत्न अवार्ड, कलाश्री पुरस्कार, ठिठोली पुरस्कार, इंडियन जेसीज का टी ओ वाई पी अवार्ड मुख्य हैं।
:::::;;;; प्रस्तुति :::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
हिंदी के हास्य कवियों की जब कभी चर्चा होती है तो उसमें हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है । जी हां , एक समय तो ऐसा था जब
हुल्लड़ मुरादाबादी अपनी हास्य कविताओं से पूरे देश मे हुल्लड़ मचाते फिरते थे। कवि सम्मेलन हो या किसी पत्रिका का हास्य विशेषांक छपना हो तो हुल्लड़ मुरादाबादी का होना जरूरी समझा जाता था । रिकॉर्ड प्लेयर पर अक्सर उनकी रचनाएं बजती हुई सुनने को मिलती थीं ।दूरदर्शन का कोई हास्य कवि सम्मेलन भी हुल्लड़ जी के बिना अधूरा समझा जाता था। इस तरह अपनी रचनाओं के माध्यम से हुल्लड़ मुरादाबादी ने पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की ।
आजादी से पहले मुरादाबाद आकर बसा था परिवार
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हुल्लड़ मुरादाबादी का जन्म 29 मई 1942 को गुजरांवाला (जो अब पाकिस्तान में है )हुआ था। उनके पिता श्री सरदारी लाल चड्डा बर्तनों का व्यवसाय करते थे। यह संभवतः कम लोगों को ही मालूम होगा कि आप का वास्तविक नाम सुशील कुमार चड्डा था। भारत के आजाद होने से पहले ही आपका पूरा परिवार मुरादाबाद आकर बस गया था। शिक्षा दीक्षा मुरादाबाद में ही हुई। सन 1958 में आपने पारकर इंटर कॉलेज से हाईस्कूल तथा वर्ष 1960 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की थी।बीएससी सन 1965 में तथा सन 1971 में हिंदी विषय से स्नातकोत्तर की परीक्षा स्थानीय हिंदू डिग्री कॉलेज से उत्तीर्ण की । इसी बीच 1969 में आपका विवाह हो गया। वर्ष 1970-71 में आपने एस एस इंटर कॉलेज तथा 1971-72 में आरएन इंटर कॉलेज में अध्यापन कार्य किया ।
पहली बार लाल किले पर 1962 में पढ़ी कविता
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पारकर इंटर कॉलेज में जब वह पढ़ते थे तो वहां हिंदी के एक अध्यापक पंडित मदन मोहन व्यास थे जो एक चर्चित साहित्यकार व संगीतकार भी थे उन्हीं की प्रेरणा व निर्देशन में हुल्लड़ मुरादाबादी का साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ। वह दिवाकर उपनाम से वीर रस की कविताएं लिखने लगे। 2 दिसम्बर 1962 में आपने पहली बार किसी स्तरीय मंच से काव्य पाठ किया । भारत चीन महायुद्ध के संदर्भ में उस वर्ष राष्ट्रीय रक्षा कोष सहायतार्थ एक अखिल भारतीय वीर रस कवि सम्मेलन लालकिला दिल्ली में आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता महाकवि रामधारी सिंह दिनकर कर रहे थे । उक्त कवि सम्मेलन में एक श्रोता के रूप में हुल्लड़ जी भी मौजूद थे । कविसम्मेलन के दौरान राष्ट्र की रक्षा के लिए कुछ देने का प्रश्न आया तो उन्होंने अपनी एक सोने की अंगूठी उतार कर दे दी तथा देशभक्ति से ओतप्रोत एक वीर रस की रचना भी पढ़ी, जिसकी पंक्तियां थी -
तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहां गया
। बोलो राणा की संतानों, वह जोश तुम्हारा कहां गया।। जाकर देखो सीमाओं पर, जो आज कुठाराघात हुआ । जाकर देखो भारत मां के, माथे पर जो आघात हुआ।। गर अब भी खून नहीं ख़ौला, गर अब तक जाग न पाए हो ।। मुझको विश्वास नहीं आता, तुम भारत मां के जाए हो ।।इसके बाद तो न जाने कितने कवि सम्मेलनों में रचना पाठ किया और एक तरह से वे हास्य के पर्याय बन गए । आपने मुरादाबाद के कुछ बुद्धिजीवियों व रचनाकारों को साथ लेकर हास परिहास नामक संस्था का भी गठन किया। वर्ष 1971 में यहीं से हास परिहास नामक एक मासिक पत्रिका भी संपादित की जो वर्ष 1975 तक प्रकाशित होती रही।
फिल्मों में भी किया अभिनय
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आपकी रचनाओं की ख्याति को देखते हुए वर्ष 1977 में मशहूर हास्य अभिनेता व निर्माता निर्देशक आई एस जौहर ने उन्हें फिल्मों में लिखने का ऑफर भी दिया। उस समय वह नसबंदी फिल्म का निर्माण कर रहे थे। उन्होंने हुल्लड़ जी का उसमें एक गीत क्या मिल गया सरकार तुझे इमरजेंसी लगा कर लिया जिसे संगीतबद्ध कल्याणजी-आनंदजी ने किया तथा महेंद्र कपूर व मन्ना डे ने गाया। इस तरह धीरे-धीरे उनका फिल्मों की ओर झुकाव होने लगा और वर्ष 1979 में वह मुरादाबाद छोड़कर मुंबई जाकर स्थाई रूप से रहने लगे। वहां प्रसिद्ध अभिनेता निर्देशक निर्माता मनोज कुमार को अपना गुरु बनाया तथा उन्हीं की प्रेरणा से आगे बढ़ते गए । फिल्म सन्तोष में भी उन्होंने एक अच्छी भूमिका निभाई । इससे पूर्व शिवानी की कहानी पर आधारित फिल्म बंधन बांहों का में भी उन्होंने अभिनय किया। दरअसल अभिनय करने के अंकुर भी उनमें छात्र जीवन में ही फूटे । वर्ष 1960-61 में हिंदू डिग्री कॉलेज की हिंदी साहित्य परिषद द्वारा आयोजित एकांकी नाटक प्रतियोगिता में उन्हें सर्वोत्तम अभिनय करने पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था । इसके अतिरिक्त भगवतीचरण वर्मा के एकांकी नाटक दो कलाकार , ऋषि भटनागर रचित सफर के साथी, डॉ शंकर शेष रचित एक और द्रोणाचार्य में भी उन्होंने प्रमुख भूमिकाएं अभिनीत की।
सन 1989 में सपरिवार लौटे मुरादाबाद
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परिवार के साथ मुंबई चले जाने के बाद भी मुरादाबाद से उनका जुड़ाव बना रहा। यही कारण रहा कि वर्ष 1989 में गर्दिश के दिनों में वह पुन: सपरिवार यहां वापस लौट आए। मुंबई से जब वह वापस मुरादाबाद आए तो साहित्य के प्रति उनका मन उचट सा गया था। उनका साहित्य से पुन: रिश्ता कायम हुआ दैनिक स्वतंत्र भारत के माध्यम से। अपने मित्र चुन्नी लाल अरोड़ा के बहुत आग्रह के बाद उन्होंने स्वतंत्र भारत के लिए लिखना शुरू किया। उसके बाद फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वर्ष 2000 में वह फिर मुरादाबाद की पंचशील कालोनी छोड़कर पूरी तरह मुम्बई में बस गए। 12 जुलाई 2014 को उन्होंने मुंबई के गोरेगांव स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली।
प्रकाशित साहित्य एवं सम्मान
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हुल्लड़ मुरादाबादी की प्रमुख कृतियों में इतनी ऊंची मत छोड़ो, मैं भी सोचूं तू भी सोच, अच्छा है पर कभी कभी, तथाकथित भगवानों के नाम,सत्य की साधना, त्रिवेणी , हज्जाम की हजामत, सब के सब पागल हैं , हुल्लड़ के कहकहे ,हुल्लड़ का हंगामा, हुल्लड़ की श्रेष्ठ हास्य व्यंग रचनाएं ,हुल्लड़ सतसई, हुल्लड़ हजारा, क्या करेगी चांदनी, यह अंदर की बात है मुख्य हैं । एचएमबी द्वारा आपकी हास्य रचनाओं के अनेक रिकॉर्ड्स एवं कैसेट्स रिलीज हो चुके हैं जिनमें प्रमुख रूप से हंसी का खजाना , हुल्लड़ का हंगामा , हुल्लड़ के कहकहे, हुल्लड़ मुरादाबादी से मिलिए बेहद पसंद की गई हैं । आपको विभिन्न पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया जिनमें प्रमुख रूप से काका हाथरसी पुरस्कार, महाकवि निराला सम्मान, हास्य रत्न अवार्ड, कलाश्री पुरस्कार, ठिठोली पुरस्कार, इंडियन जेसीज का टी ओ वाई पी अवार्ड मुख्य हैं।
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डॉ मनोज रस्तोगी
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