बुधवार, 16 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ....गिद्ध


       

 ‌"पापा!कुछ करो ना! मेरा दम घुट रहा है, और  सांस भी उखड़ रही है।" एंबुलेंस की सीट पर लेटे कार्तिक ने ऑक्सीजन मास्क के पीछे से अटकते - अटकते बड़े दयनीय स्वर में कहा तो बराबर की सीट पर बैठे डॉ० राघव मल्होत्रा की मजबूर आंखों में जलकण झिलमिलाने लगे।

    कार्डियक अस्थमा से पीड़ित बेटा थोड़ी - थोड़ी देर में यही करुण पुकार करने लगता था और वे कसमसा कर रह जाते थे। ऑक्सीजन के सहारे ही सांसे चल रही थीं, और वह भी समाप्ति की ओर थी। एंबुलेंस में लिटाए - लिटाए कहाँ - कहाँ नहीं भटकते फिरे थे वे... कभी बोथम हॉस्पिटल तो कभी संजीव आरोग्य केंद्र, कभी सरस्वती अस्पताल तो कभी देवनंदिनी चिकित्सालय… सभी जगह रटारटाया सा प्रत्युत्तर मिलता - 'सॉरी! अस्पताल में भरती करने के लिए कोई बैड खाली नहीं है, न ही ऑक्सीजन उपलब्ध है। कहीं और प्रयास करें!'

    स्वयं भी महानगर के सुप्रतिष्ठित चिकित्सक होने के नाते अपने कई डॉक्टर मित्रों से वे फोन पर अनुरोध भरी भिक्षा मांग चुके थे - "बस एक सिलेंडर की भिक्षा दे दीजिए या फिर अपने अस्पताल में भरती कर लीजिए! मेरे बेटे की जिंदगी का सवाल है, कोई भी, कितना भी मूल्य चुकाने को तैयार हूं।"

   पर सब जगह निराशा ही हाथ लगी - "इस समय बहुत बड़ी मजबूरी है। हॉस्पिटल में कोई भी बैड खाली नहीं है। और ऑक्सीजन भी कुछ ही घंटों की शेष है! जिलाधिकारी से गुहार लगाई है कि किसी भी तरह ऑक्सीजन की व्यवस्था कराएं! वरना हम रोगियों को बचा न सकेंगे!"

    वे गिड़गिड़ा भी पड़ते थे जैसे फोन पर ही पैर छूने को आतुर हों - "मेरा इकलौता बेटा है, ऑक्सीजन न मिली तो कुछ भी हो सकता है… बस थोड़ी सी गैस दे दीजिए! ताकि इस समय का काम चल सके, बाद में तो मैं कोई और भी व्यवस्था कर सकता हूं।"

   उनके अभिन्न मित्र डॉ० कुलकर्णी ने तो उन्हें झिड़क ही दिया था - "तुम्हारे लिए तुम्हारे बेटे की जान कीमती है तो हमारे लिए हमारे अस्पताल में भरती रोगियों की जान कीमती है। हम उनका जीवन कैसे दांव पर लगा दें? कई पेशेंट तो ऐसे हैं जो केवल ऑक्सीजन के आश्रय पर ही जिंदा हैं। इधर ऑक्सीजन समाप्त, उधर उनकी जिंदगी समाप्त।"

   "अर्थात् तुम्हारे लिए मेरे बेटे की जान कीमती नहीं है, वे अनजान बीमार कीमती हैं जिनसे तुम्हारा दूर-दूर तक कोई रिश्ता - नाता नहीं? कुछ पेशेंट काम में आ भी गए तो क्या हुआ? तुम पर क्या असर पड़ेगा उनका? पर मेरा बेटा तो बच जाएगा। मेरे बेटे से तो मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। यूं समझिए कि मेरे बेटे के बचने से मुझे भी जिंदगी मिल जाएगी। वरना मैं भी जीते जी मर जाऊंगा।" डॉ मल्होत्रा करुण कटाक्ष करते - करते भावपूर्ण आवेश में आ गए थे।

   डॉ कुलकर्णी इस कटाक्ष पर तिलमिला गए थे - "डॉ० राघव मल्होत्रा! तुम अपने पेशे के प्रति कर्तव्य विहीन हो सकते हो परंतु मैं नहीं। मुझे सब पता है तुम्हारे अस्पताल में क्या-क्या होता है? मुझे आवेशित कर मेरा मुंह मत खुलवाओ!"

   "क्या कर लोगे मेरा तुम, अपना मुंह खोलकर? अरे मैं भी सब जानता हूं तुम्हारे अस्पताल में कितने - कितने काले कारनामें होते हैं? तुम तो मरे हुए पेशेंट की चमड़ी तक उधेड़ लेते हो। डैड बॉडी से भी पैसे बनाते रहते हो।" आवेश में वे भूल गए कि उनका बेटा गंभीर रूप से बीमार है और वह उसी के लिए एक यूनिट ऑक्सीजन के लिए दर-दर भटक रहे हैं।

   आक्रोश में तमतमा गए थे डॉ० कुलकर्णी - "अरे हम तो मरे हुए की ही चमड़ी उधेड़ते हैं, पर तुम तो वह गिद्ध हो जो जिंदा आदमी का मांस नोंच नोंचकर खा जाता है। बताओ! तुम्हारे हॉस्पिटल में सामान्य पेशेंट की भी कोविड टैस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आती है या नहीं? फिर उसे रेमडेसिविर इंजेक्शन लगा - लगाकर लाखों रुपए वसूलते रहते हो या नहीं? ऑक्सीजन खत्म हो जाने का नाटक रचकर ब्लैक में खरीदने के बहाने तुम कई गुना दाम वसूलते हो या नहीं? फिर उसकी डैड बॉडी ही तुम्हारे हॉस्पिटल से कई सतह वाले कफन में पैक होकर बाहर निकलती है या नहीं?... डॉ० राघव मल्होत्रा! सच पूछो तो यह तुम्हारे उन्हीं कुकृत्यों का परिणाम है कि महानगर में इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी तुम्हें एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए किसी भूखे भिखारी की तरह भीख मांगनी पड़ रही है।"

   बुरी तरह बौखला गए थे डॉ० राघव मल्होत्रा। कोई प्रत्युत्तर नहीं सूझा तो झुंझलाकर फोन ही डिस्कनेक्ट कर दिया था उन्होंने।

   डॉ० कुलकर्णी ने उनकी आत्मा को झकझोर दिया था... कठोर और कटु सत्य कह दिया था कुलकर्णी ने... उनकी आंखों में अपने ही अस्पताल के कुकृत्य किसी चलचित्र की भांति उभरने लगे……. 


   महानगर का सुप्रतिष्ठित 'आयुष्मान हॉस्पिटल'… संचालक डॉ० राघव मल्होत्रा… एक सिद्धहस्त कुशल सर्जन के रूप में दूर-दूर तक उनकी विशिष्ट पहचान थी। जटिल से जटिल सर्जरी के केस बड़ी सरलता से सुलझा लिए जाते थे उस हॉस्पिटल में। सर्जरी के कुशल प्रवक्ता के रूप में व्याख्यान देने भी वे देश - विदेश में जाते रहते थे... और मोटे शुल्क पर अन्य अस्पतालों की भी विजिट करते रहते थे... हर ओर से धन की बौछार... हर समय सिर पर धन कमाने का जुनून सवार...

   मानवीयोचित संवेदनाएं हृदय के किसी कोने में न थीं… जीवन का एक ही उद्देश्य, एक ही धर्म, एक ही कर्तव्य... मानव को जितना नोंचा - खसोटा जाए, कमी मत छोड़ो! चर्म तक उधेड़ लो... इस संसार में कोई किसी का नहीं, बस पैसा ही काम आता है।

   अर्थात् यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि उनके भीतर एक गिद्ध छिपा बैठा था, जो नोंचने - खसोटने का कोई अवसर नहीं छोड़ता था।

   और जब एक नन्हें से वायरस कोरोना ने देश भर में महाप्रलय मचायी तो उनके प्रखर महत्त्वाकांक्षी मस्तिष्क ने आपदा में भी अवसर तलाशने में विलंब नहीं किया। प्रशासन के सहयोग से उन्होंने 'आयुष्मान हॉस्पिटल' को 'कोविड-19 उपचार केंद्र' में परिणत करने में सफलता अर्जित की तो वहां सर्जरी के स्थान पर कोरोना पीड़ित रोगियों का उपचार किया जाने लगा।

   फिर तो धन की घनघोर वर्षा होने लगी... कोई सर्जरी का रोगी भी आ जाता तो निराश उसे भी नहीं किया जाता... पहले उसे भरती किया जाता, फिर उसका कोरोना टैस्ट किया जाता। पॉजिटिव प्रदर्शित कर कोविड-19 का उपचार करने की ओट में लाखों रुपए वसूले जाते... कभी रेमडेसिविर का अभाव बताकर रोगी के परिचारकों को इधर-उधर भटकाया जाता, कभी ऑक्सीजन की कमी दर्शाकर नचाया जाता और इस ओट में मोटी कमाई की जाती।

   परंतु रोगी बचता तब भी नहीं था - 'सॉरी! बहुत कोशिश की हमने, पर पेशेंट को बचा नहीं सके! फेफड़े पूरी तरह गल गए थे।'

   कई सतह वाले कफन में पैक्ड डैड बॉडी ही बाहर निकलती थी। वह भी कोविड अस्पताल के प्रोटोकॉल के अनुसार परिजनों को नहीं दी जा सकती थी। मृत शरीर से भी धन वसूलने में पीछे नहीं रहा जाता था - 'श्मशान गृह में इंच भर भी जगह खाली नहीं है।' यह अभाव दर्शाकर किसी अन्य स्थान का भारी-भरकम शुल्क जमा कराया जाता था। और क्रियाकर्म का शुल्क तो अलग से था ही जो अस्पताल के कर्मचारियों की सदाशयता पर निर्भर करता था।

   परीक्षणशाला अपनी, मेडिकल स्टोर अपना, कर्मचारी अपने, समूची व्यवस्था अपनी... आयुष्मान हॉस्पिटल में आने वाला हर रोगी कोविड-19 वायरस पॉजिटिव ही निकलता था, चाहे वह सामान्य खांसी, जुकाम से ही पीड़ित क्यों न हो।

   और यह भी उसकी एक विशेषता ही थी कि शायद ही कोई रोगी उसमें से स्वस्थ होकर बाहर निकलता हो?... लोग स्वस्थ होने की आशा हृदय में पाले अपने रोगी को हॉस्पिटल में भरती करते और अपना सब कुछ दांव पर लगाकर कुछ दिन बाद ही लुटे - पिटे जुआरी की तरह खाली हाथ रोते - बिलखते घर वापस लौटते।


   किसी समाचार पत्र का पत्रकार था वह, जिसके पिता को उदरशूल की शिकायत पर वृक्काश्मरी के संदेह मे अल्ट्रासाउंड तथा अन्य परीक्षणों आदि के लिए भरती किया गया था।

   सर्वप्रथम कोविड टैस्ट किया गया… परिणाम आने तक कोई उपचार नहीं, कोई परिचार नहीं... एक गिलास पानी अथवा एक कप चाय के लिए रोगी तरसता रहा... वह दर्द से तड़पा तो चीखने - चिल्लाने पर डरा - धमकाकर शांत कर दिया गया...

   रिपोर्ट आयी - कोविड-19 वायरस : पॉजिटिव (हाइली सेंसेटिव)... यह तो सुनिश्चित था ही।

   पत्रकार को रोग की गंभीरता समझा दी गयी - 'वायरस का प्रभाव गुरदों पर हुआ है, गुरदे संक्रमित होकर सिकुड़ गए हैं, और निरंतर गलते जा रहे हैं। क्या परिणाम होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता? फिर भी हम पूरी कोशिश करेंगे। हमें विश्वास है कि हम रोगी को बचा लेंगे। किंतु खर्च कुछ ज्यादा हो सकता है। हालांकि हम कम से कम खर्च में ही काम चलाने की कोशिश करेंगे।'

   पत्रकार ने उनके पैर पकड़ लिए - 'मेरे पिता को बचा लीजिए डाक्साब! मैं खुद बिक जाऊंगा, पर अस्पताल का खर्च पूरा वहन करूंगा।'

   भीतर ही भीतर पुलकित हो उठे डॉ० मल्होत्रा… अच्छा मुर्गा फंसा है... उनके मस्तिष्क में बैठे गिद्ध ने तत्काल ही किसी योजना को साकार रूप देना प्रारंभ कर दिया...

   सुबह होते ही लाखों रुपए जमा करा लिए जाते... कभी परीक्षण के नाम पर, कभी दवाइयों के लिए, कभी रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर, कभी ब्लैक में खरीदी गई ऑक्सीजन के नाम पर, कभी वेंटिलेटर के लिए, कभी नेफ्रोलॉजिस्ट की विशेष विजिट के लिए, कभी विदेश से मंगाए गए कुछ विशेष उपकरणों के शुल्क के रूप में...

   पत्रकार ने बहुत बार पिता से मिलने का प्रयास किया। परंतु हर बार ही उसे रटा - रटाया सा आश्वासन देकर शांत कर दिया जाता - 'आप निश्चिंत होकर घर जाइए अथवा वेटिंग हॉल में जाकर बैठिए! जो कुछ भी नयी सूचना होगी, आपको फोन पर दे दी जाएगी।'

‌‌   सप्ताह भर बाद उसे सूचना दी गयी - 'वायरस ने लैफ्ट किडनी तो पूरी तरह डैमेज कर ही दिया है, लंग्स (फेफड़े) भी गल चुके हैं। फिर भी हम बचाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। हम अमेरिकी नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ ऑस्टिन से संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं, एक बार उन्होंने देख लिया तो आपके पिता निश्चित रूप से बच जाएंगे। परंतु उनकी फीस आपको भरनी होगी।'

   कुछ दिन बाद उसे पुनः आश्वस्त किया गया - 'अमेरिकी डॉ० ऑस्टिन की एडवाइस के अनुसार ही ट्रीटमेंट दिया जा रहा है। हमें विश्वास है कि सफलता अवश्य मिलेगी। हम उन्हें बचा लेंगे।'

   'क्या मैं एक झलक देख सकता हूं अपने पिता की?' उसने डरते डरते पूछा था।

   'बेवकूफ! क्या बक रहे हो? वह कोरोना पेशेंट हैं, उसे देखने की तुम सोच भी कैसे सकते हो?' डॉ० मल्होत्रा ने उसे इतनी बुरी तरह झिड़क दिया था कि वह सहमकर रह गया था।

   पता नहीं उसे किसी नर्स अथवा वार्डबॉय ने कोई संकेत दिया था अथवा अंतर्चेतना में कोई झंकार हुई थी कि उसे डॉ० मल्होत्रा की विश्वसनीयता पर संदेह होने लगा था। यह भी संभव हो सकता है कि अस्पताल से दिन - प्रतिदिन निकलने वाली लाशों ने उसे उद्विग्न किया हो।

   उसी रात्रि को जब समूचा अस्पताल निद्रा के आगोश में समाया पड़ा था वह पी पी ई किट पहनकर उस वार्ड में घुस गया जहां उसके पिता भरती थे... और वह यह देखकर दंग रह गया कि वहां कई लाशें रोगियों के रूप में पड़ी थीं... नासिका व मुख पर लगे मास्क मात्र प्रदर्शन भर के लिए... दोनों हाथों की नसों में ड्रिप की नलियां लगी हुईं...

   स्वयं उसके पिता भी मुर्दे के रूप में परिणत हो चुके थे... उदर पर टेप से चिपकायी गयी रुई पर रक्त स्राव के निशान... तो क्या पिता का पेट चीरा गया था? क्यों चीरा गया होगा?... क्या किसी अंग की चोरी की गयी है?... गुर्दा ही या कुछ और?

   'हे भगवान्! ये लोग डॉक्टर हैं या गिद्ध? जो इंसान के अंग नोंचकर खाने से भी नहीं चूकते।' उसकी आंखों में पीड़ा मिश्रित विस्मय का संसार उमड़ आया।

   डॉक्टर के सामने पड़ते ही उसने हंगामा मचा दिया - 'इंसानी खाल में छिपे गिद्ध हो आप! मेरे जीवित पिता को नोंच - नोंचकर खा गए? वरना तो बताइए! उनके पेट को क्यों चीरा गया? कौन सा अंग निकाला गया है उसमें से? मैं अभी पुलिस में रिपोर्ट करूंगा, उनका पोस्टमार्टम होगा, और आप जेल जाएंगे! अरे मैं तो अच्छे भले पिता को लेकर केवल इस परीक्षण के लिए यहां आया था कि बायीं कुक्षि में उठने वाला दर्द पथरी का है अथवा कुछ और?... और आपने लाखों रुपए बनाकर भी उन्हें जिंदा नहीं ‌छोड़ा।'

   बहुत शोर मचा, भीड़ इकट्ठी हो गयी, पुलिस भी आयी और पत्रकारों का दल भी आ विराजा।

   पुलिस को तो उन्होंने चढ़ावा चढ़ाकर शांत कर दिया, परंतु अखबारों को शांत न कर सके।

‌   बाद में उन्होंने अपने स्टाफ को बुरी तरह डांट - फटकार लगायी - 'वह भीतर घुसा कैसे? भीतर का सच लोगों के सामने उजागर हुआ तो क्या प्रतिष्ठा रह जाएगी हॉस्पिटल की? कौन जिम्मेदार होगा गिरती साख के लिए? तुम लोगों को मासिक वेतन के अतिरिक्त भी बहुत कुछ दिया जाता है, कहां से निकलेगा वह?'

   वही हुआ... अगले दिन के समाचार पत्र उनके समाचारों से भरे पड़े थे - महानगर का सुप्रसिद्ध 'आयुष्मान हॉस्पिटल' बना गिद्धों का अड्डा। हॉस्पिटल में भर्ती छद्म कोरोना के रोगियों के अंगों की तस्करी चरम पर... पुलिस प्रशासन मौन।

   फिर तो आए दिन उन पर आरोपों की बौछार होने लगी... जिनमें कहीं न कहीं सत्यता भी थी... कभी कोविड रोगियों के लिए जीवन रक्षक माने जाने वाले रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी का आरोप, कभी उसके स्थान पर डिस्टिल्ड वाटर लगाकर रोगियों को मार डालने का आरोप, कभी ऑक्सीजन का कृत्रिम अभाव प्रदर्शित कर कई गुना अधिक मूल्य वसूलने का आरोप, कभी हॉस्पिटल में 'बैड फुल' की तख्ती लगाकर बैक डोर से मोटी राशि लेने का आरोप, कभी गुरदा चोरी का आरोप, कभी रोगियों के स्वर्णाभूषण उतार लेने का आरोप…

   अर्थात् दिन - प्रतिदिन आयुष्मान हॉस्पिटल की प्रतिष्ठा धूमिल होती चली गई... जितना यश डॉ० मल्होत्रा ने अपने कौशल व मृदुलाचरण से अर्जित किया था वह सब उनकी गिद्धवृत्ति की भेंट चढ़ गया... वे डॉक्टर गिद्ध के नाम से चर्चित होते चले गए…….


   "मैं मर जाऊंगा पापा! कुछ करो! मुझे बचा लो! शहर के इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी आप कुछ नहीं कर रहे?" मलीन से, बिखरते से स्वर में कहा कार्तिक ने तो उनकी सोच की परत दरक गयी।

     चौंककर उन्होंने बेटे के चेहरे की ओर देखा... चेहरा निरंतर पीला पड़ता जा रहा था और स्याह आंखें बुझी - बुझी सी, होंठ पपड़ाए हुए, कपोल भीतर धंसे हुए... अपनी विवशता पर उनका अंतर्मन रो पड़ा।

   फिर भी बाहरी मन से उन्होंने उसे दिलासा देने का प्रयत्न किया - "डोंट वरी माय लवली सन! बहुत जल्दी मैं कोई न कोई समाधान निकालता हूं। मैं अपने प्यारे बेटे को जरूर बचा लूंगा।"

   यकायक उन्हें राजकीय चिकित्सालय में नियुक्त कार्डियोलॉजिस्ट डॉ० गर्ग का ध्यान आ गया... उनसे उनके बहुत मधुर संबंध थे। डॉ गर्ग ने अनेकों रोगी उनके हॉस्पिटल में अग्रसरित किए थे, बदले में उन्होंने गर्ग को मोटा कमीशन दिया था।

   और उनकी एंबुलेंस राजकीय चिकित्सालय की ओर दौड़ पड़ी... डॉ० गर्ग से कुछ सहायता मिलने की आशा में...

‌   डॉ० गर्ग ने मधुर वाचन शैली में उनका उत्साहवर्धन किया - "चिंता मत करो माय डीयर फ्रेंड! इस अस्पताल में आपको बैड भी मिलेगा और ऑक्सीजन भी... और यदि वेंटिलेटर की आवश्यकता हुई तो मैं वह भी उपलब्ध कराऊंगा…" क्षणिक ठिठककर वे मुख्य बिंदु पर भी आ ही गए - "किंतु दोस्त! अस्पताल के नियमानुसार सर्वप्रथम कोरोना टैस्ट अनिवार्य है।"

   कोरोना टैस्ट का नाम सुनते ही उनके हृदयाकाश में विचित्र - विचित्र सी आशंकाओं के बादल मंडराने लगे... कोरोना टैस्ट का मतलब - कोविड-19 वायरस पॉजिटिव... जब उनके आयुष्मान हॉस्पिटल में आज तक कोई भी परीक्षण नेगेटिव नहीं दर्शाया गया तो इसी राजकीय अस्पताल का क्या विश्वास?... और यदि पॉजिटिव आया तो?...

   पॉजिटिव परिणाम की दिशा में सोचते ही उनकी पूरी देश स्वेद बिंदुओं से लथपथ हो गयी... उन्होंने आज तक किसी रोगी को अपने हॉस्पिटल से जिंदा नहीं लौटाया तो राजकीय व्यवस्थाओं पर भी कैसे विश्वास किया जा सकता है?... उन्हें लगा कि कोरोना के रूप में यमदूत तैयार खड़े हैं... एक - एक सांस से जंग जीतने को संघर्ष कर रहे इकलौते बेटे को ले जाने के लिए…

   इस हृदयाघाती कल्पना से तो उनका दिल धक्क से बैठ गया... उन्होंने माथे पर हाथ रख लिया और किंकर्तव्यविमूढ़ से भयावह विचारों के अंधड़ में चकरघिन्नी की तरह घूमने लगे।

   डॉ० गर्ग ने उन्हें उहापोह के दलदल में फंसे देखा तो बड़े ही स्निग्ध स्वर में उन्हें परामर्श देने लगे - "क्यों माय डीयर फ्रेंड! इसे तुम अपने ही अस्पताल में भरती क्यों नहीं कर लेते? एक पूरा वार्ड कोरोना पेशेंट से खाली कराओ और बेटे के लिए व्यवस्थाएं बनवा लो! मैं वहीं आकर विजिट कर लूंगा।"

‌‌   जैसे कोई जुआरी जुआ खेलकर हताश - निराश सा परिक्लांत और बोझिल कदमों से घर लौटने को मजबूर हो, वैसे ही उनकी एंबुलेंस भी अपने ही आयुष्मान हॉस्पिटल की ओर द्रुतगति से दौड़ने लगी थी।

   अपने हॉस्पिटल पहुंचकर वे समूचे स्टाफ पर निर्देशात्मक कर्कश स्वर में बरस पड़े - "एक पूरा वार्ड मेरे बेटे के लिए खाली कराओ! पेशेंट को उठा - उठाकर बाहर फेंक दो!... भाड़ में जाएं, जिंदा बचें या मरें... उनकी किस्मत। किंतु मेरा बेटा हर हाल में बचना चाहिए!... पहले कोरोना टैस्ट कराओ बेटे का... और ध्यान रहे! वास्तविक रिजल्ट बताना है, केवल पॉजिटिव ही रिपोर्ट नहीं बतानी है... और तत्काल ही सारे पेशेंट की ऑक्सीजन रोककर बेटे को लगानी है... यह भी ध्यान रखना है कि केवल ऑक्सीजन मास्क ही लगाकर नहीं छोड़ देना है अपितु गैस भी सप्लाई करनी है।… और जरूरत पड़ी तो रेमडेसिविर इंजेक्शन भी लगाने होंगे... किंतु ध्यान रहे ओरिजिनल इंजेक्शन ही लगाने हैं, उनकी जगह डिस्टिल्ड वॉटर नहीं... ओरिजिनल इंजेक्शन मैं स्वयं लाकर दूंगा... बल्कि लगाऊंगा भी मैं ही स्वयं अपने हाथों से, मुझे तुम लोगों पर किंचित विश्वास नहीं।"

   कालचक्र की यह कैसी विडंबना थी कि उनके भीतर बैठे भूखे गिद्ध ने परिस्थितियों का कितना जटिल मकड़जाल बुन दिया था कि अपने ही हॉस्पिटल पर विश्वास डगमगा गया था, हॉस्पिटल से संबंधित हर व्यवस्था हर व्यक्ति संदिग्ध लगने लगा था... उन्हें प्रतीत हो रहा था कि हॉस्पिटल का समूचा स्टाफ ही गिद्धों में परिणत हो गया है... डरावनी डरावनी सी आशंकाओं के कृमि कुलबुलाने लगे थे उनके भीतर कि कहीं ये गिद्ध उनके बेटे को भी नोंच - नोंच न खा जाएं...

   किंतु जब तक महानगर के उस सुविख्यात, सर्वसाधन संपन्न, दंभी व गिद्धवृत्ति शल्य चिकित्सक के लाड़ले बेटे को एंबुलेंस से उठाकर उस स्पेशल वार्ड में भर्ती किया जाता, तब तक एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए तरस रहे उस अभागे की सांसो की डोर टूट चुकी थी... न जाने कब एंबुलेंस में रखा ऑक्सीजन सिलेंडर खाली हो चुका था... एक-एक सांस के लिए व्यवस्था से जंग कर रहे बेटे की निश्चेतन पथराई आंखें शायद अब भी अपने पिता से करुण स्वर में याचनामयी गुहार लगा रही थीं - "पापा! कुछ करो ना!"


 ✍️डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़

बिजनौर, 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर  9411012039 / 8077945148

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