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गुरुवार, 3 नवंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार स्मृति शेष मालती प्रकाश की कहानी ......."अंतरंग का अंत"। ये कहानी उनके कहानी संग्रह "आखिर कब तक" से ली गई है। इस कृति का विमोचन एक जून 2008 को नगर निगम सभागार मुरादाबाद में तत्कालीन मेयर डाक्टर एस. टी हसन एवं आकाशवाणी दिल्ली के निर्देशक लक्ष्मी शंकर बाजपेयी ने संयुक्त रूप से किया था।


आज सुबह साढ़े सात बजे से मेरी अंतरंग सखी पूर्वा का मृत शरीर मेरी आँखों के सामने है। उसे अंतिम यात्रा पर ले जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। न किसी की आंख में आँसू, न वेदना, न छटपटाहट न ही कोई बेचैनी। जैसे उसका दुनिया से चले जाना बहुत मामूली-सी बात हो। उसके होने या न होने से घर वालों के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा लग रहा था कि उसके जहाँ से चले जाने पर घरवाले जैसे एक प्रकार की राहत महसूस कर रहे हों, क्योंकि अब किसी को उसकी जरुरत नहीं थी। उसकी उपस्थिति भी उसके घरवालों को भार लगती थी। यद्यपि वह किसी पर शारीरिक या आर्थिक रूप से निर्भर नहीं थी। कृत्रिमता का मुखौटा उसके चेहरे पर न था। वह जो थी, वैसे ही दीखती थी। किसी प्रकार का आवरण उसने अपने मुख पर नहीं ओढ़ा था। दिखावा करना उसे नहीं आता था। पर आज के जीवन की दिनचर्या में नाटक का बहुत बड़ा हाथ है। जो अपने आपको बहुत अच्छा साबित करने का ड्रामा करना जानता है, उससे अधिक सफल आज के युग में कोई नहीं है।

    पूर्वा से मेरी मित्रता तीसरी कक्षा में साथ-साथ पढ़ने के दौरान आरंभ हुई थी और आज जीवन के अंतिम सोपान तक हम दोनों की अंतरंगता, घनिष्ठता में कोई अंतर नहीं आया था। विद्यार्थी-जीवन से हम दोनों (पूर्वा-प्रज्ञा) की जोड़ी मशहूर थी। चाहे खेल का मैदान हो, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रतियोगिताएँ हों या कोई भी परीक्षा अथवा टेस्ट हो, हम दोनों ही हर जगह छाए रहते थे। पूर्वा को समय की पाबंदी, अनुशासन व स्वच्छता बहुत पसंद थी, जिसके कारण उसकी एक अलग पहचान थी। रंग भी उसका मुझसे उजला था। भगवान ने उसे बहुत मधुर कंठ दिया था। उसका गाना सुनने को सब उत्सुक रहते थे। एक तो उसका कंठ मधुर था ही,

दूसरे भावों की गहराई में पैठ कर वह गाती थी उसका लेख ऐसा जैसे मोती टंके हो। यही नहीं, सारे घर के कामों में कुशल । खाना बनाने में इतनी होशियार कि खाने वाले उसकी प्रशंसा किए विना नहीं रहते थे। सिलाई, बुनाई एवं कढ़ाई में भी दक्ष।

     जाड़ों के दिनों में थपरिवारवालों के साथ-साथ रिश्तेदारों एवं मिलनेवालों के भी भिन्न-भिन्न डिजाइन के स्वेटर वह बनाती थी। उसके बनाए हुए स्वेटरों की चर्चा हर जगह होती थी। मेरे माता-पिता कभी-कभी मजाक में मुझसे कहते-"प्रज्ञा, अपनी सखी पूर्वा से तुम भी कुछ सीख लो। क्या कमाल की लड़की है। गुणों की खान है। उसके माँ-बाप ऐसी संतान को जन्म देकर धन्य हैं। बधाई के पात्र हैं। उन्हें‌ उसकी शादी करने की भी कोई चिंता नहीं करनी पड़ेगी। कोई भी खुशी से उसे अपने घर की रौनक बना लेगा। भगवान ऐसी होनहार संतान हर किसी माँ-बाप को दे।" 

     मेरे मम्मी-पापा को भी मुझ पर बड़ा गर्व था, क्योंकि मेरी और पूर्वा की जोड़ी हर बात में बराबर की थी। मैं भी उसी की टक्कर की थी। उसके रिश्तेदार भी कहते कि जिस घर में पूर्वा जाएगी, उस घर को वह रोशन कर देगी। उसके ससुराल वाले

बड़े भाग्यशाली होंगे पूर्वा जैसी लड़की को बहू के रूप में पाकर। मेरी इतनी अंतरंग सखी होते हुए भी मुझे कभी-कभी उसकी अतिप्रशंसा सहन नहीं होती थी और मैं अनायास बिना किसी बात के खीझ उठती थी। दोनों का नाम भी लगभग एक साथ

रोशनी में आता था, पर मुझे अंदर से लगता कि लोग मुझसे अधिक उसकी प्रशंसा करते हैं। उस समय मेरी बुद्धि इतनी परिपक्व नहीं थी। जैसे-जैसे मुझमें परिपक्वता आती गई, वैसे-वैसे मित्रता में प्रगाढ़ता आती गई और हम दोनों दो शरीर एक मन- मित्र सदा के लिए बन गए। दोनों के बीच राई-रक्ती भी छिपा नहीं था। ऐसा कुछ गलत था भी नहीं, जिसे छिपाने की जरूरत पड़ती। हम दोनों ही परिश्रमी एवं

लोकप्रिय थे। पूर्वा का परिवार बड़ा था और मेरा छोटा परिवार था। पूर्वा के चार भाई और तीन बहनें थीं। मेरे केवल एक भाई था जिसका नाम प्रतीक था। मेरे और पूर्वा के पापा एक ही कम्पनी में काम करते थे, उन दोनों में भी अच्छी दोस्ती थी, पर बड़ा

परिवार होने के कारण पूर्वा के पापा का हाथ थोड़ा तंग ही रहता था। हम दोनों ने बी.ए. की पढ़ाई समाप्त की कि दोनों के मम्मी-पापा हमें शादी के बंधन में बॉधने को तैयार हो गए। पूर्वा और आगे पढ़ना चाहती थी तथा अपना कैरियर भी बनाना

चाहती थी,पर मेरा ऐसा कोई विचार नही था, यदि अवसर मिले तो आगे भी पढ़ा जा सकता है। नहीं तो मेरी गिनती अनपढ़ों में तो हो नहीं सकती थी। कैरियर की ओर कोई विशेष रुचि नहीं थी। मेरा सोचना था या तो कैरियर बनाया जाए या घर-

गृहस्थ संभाला जाए। दोनों को निभाने की ताकत मुझमें नहीं थी। अत: मैंने अपनी शादी की स्वीकृति अपने मम्मी-पापा को दे दी । 

     मेरी शादी मद्रास और पूर्वा की शादी बैंगलोर के एक साधारण परिवार में हो गई। पूर्वा ने सोचा था कि ऐसे परिवार में उसके रूप और गुणों की अधिक कद्र होगी। अमीर लोगों को अपनी अमीरी का नशा रहता है। बात-बात में वे लोग दहेज और दूसरी बातों का ताना मारेंगे। उन्हें किसी की भावनाओं से कोई मतलब नहीं होता।

    शादी के तुरंत बाद तीन दिन की लंबी यात्रा से पूर्वा बेहद थक गई थी और एकदम अनजानी जगह में उसने कदम रखा था। चारों ओर का वातावरण नया और अनजान, खाना-पीना, पहरावा एवं भाषा तथा तौर-तरीके सब अलग। यद्यपि जिस परिवार में शादी हुई थी, वह यू.पी. का ही परिवार था जो लंबे अर्से से बेंगलोर में रहने लगा था। उसके पति को छोड़कर परिवार में कोई अधिक पढ़ा-लिखा नहीं

था। पति से प्रथम भेंट में उसने सुना कि वे अपनी छोटी बहन की अच्छी जगह शादी करना चाहते हैं। जिस बहन की शादी दो-तीन वर्ष पहले हुई थी, उसकी शादी में वे जो चीजें जब नहीं दे पाए थे, अब देना चाहते हैं, क्योंकि वह भी इनसे छोटी है। अपने बड़े भाई-भाभी तथा माँ की सेवा करना चाहते हैं। अपने दोनों छोटे भाइयों की पढ़ाई पूर्ण करवाकर नौकरी पर लगाना चाहते हैं। अपनी शादी या पूर्वा के

बारे में कुछ नहीं कहा। स्वाभाविक रूप से पूर्वा का मूड खराब हो गया। उसने अपने बड़े भाई की शादी तथा रिश्तेदारों की शादियों में जो बहुओं का ससुराल में स्वागत एवं शगुन होते देखा था, यहाँ तो उसके बिलकुल विपरीत था। किसी बात का शगुन नहीं, बस पहले दिन से ही अपमान होना शुरू हो गया। जो कुछ भी पूर्वा को उसके मायके से मिला था, पूरे परिवार द्वारा बेदर्दी से उसका इस्तेमाल किया जाने लगा। किसी भी चीज पर उसका कोई अधिकार नहीं था। उसमें अपने पति के प्रति अपार प्रेम एवं आदर की भावना थी। वह यही सोचती थी कि कितनी भी दूरी हो. उसे पति का सहारा तो हमेशा मिलेगा ही। पति ने धीरे-धीरे उसकी सारी आशाओं एवं

भावनाओं को मिट्टी में मिला दिया। धीरे धीरे अपने पति की वास्तविकता को वह जानने लगी। उसके प्रति उन्हें कोई मोह या खिंचाव या स्नेह की कोई भावना नहीं थी। वैसे उनमें स्वतंत्र रूप से कुछ करने का साहस या विश्वास नहीं था। कोई निर्णय अपने आप नहीं ले सकते थे, पर पत्नी को हर बात में घरवालों के सामने नीचा दिखाने में कभी नहीं चूकते थे। शायद यही उनकी मर्दानगी थी।

      बेंगलोर पहुँचने के एक सप्ताह बाद ही पूर्वा के सीने में ऐसा दर्द हुआ कि उसे डॉक्टर के पास ले जाना पड़ा। पूर्वा ने अपने पति प्रमोद का अति कड़वा, कटु एवं असली स्वर पहली बार तब सुना जब वे बड़ी रुखाई से डॉक्टर से बात कर रहे

थे। बनावटी मीठी बोली का उन्होंने आवरण ओढ़ रखा था, जिससे लोगों को वे प्रभावित करने का प्रयास करते थे। असली रूप उनका पत्नी के अतिरिक्त कोई और नहीं जानता था। डॉक्टर के यहाँ से घर आकर अपनी माँ, बहन-भाइयों तथा भाभी

के सामने पूर्वा के पति उससे बोले-"मुझे बेंगलोर में नौकरी ढूँढ़नी होगी । मैसूर रहकर गुजारा नहीं हो सकता। मैं तुम्हारे पल्लू से बँधकर तो नहीं बैठ सकता और फिर थोड़ा गैस की वजह से दर्द हो गया, कोई हार्ट-अटैक तो नहीं हुआ जो बड़ी आफत आ गई हो। मामूली-सा दर्द है लेटने या आराम करने की कोई जरूरत नहीं है। नार्मल तरीके से घरवालों का काम में हाथ बँटाओ।"

     पूर्वा का मरण तो उसी दिन से आरंभ हो गया। दूरी के कारण विवाह के तुरंत बाद वह अपने मायके अलीगढ़ न जा सकी। यदि कोई पूर्वा से बातचीत करना चाहता तो घर का कोई न कोई सदस्य वहाँ अवश्य रहता। उसे तो मुँह खोलने की अनुमति थी ही नहीं। कम पढ़े-लिखों ने फूल-सी कोमल गुणों की खान पूर्वा पर शासन करना शुरू कर दिया। जिसे देखो वह किसी न किसी काम की ओर उसे

संकेत करता ही रहता। प्रमोद की भाभी यानी पूर्वा की जिठानी प्रमोद और अपने पति विनोद के सामने यही बताने की कोशिश में लगी रहती कि पूर्वा को घर का कोई काम नहीं आता। एक दिन कुछ और कहने को नहीं मिला तो वह प्रमोद से कहने लगी-" भैया, एक मजे की बात बताऊँ, आज मैंने पूर्वा से रसोइघर में जाकर जरा सब्जी चलाने को कहा तो महारानी हाथ में घड़ी पहनकर रसोई में घुसी। अब

आप ही बताइए कि घड़ी पहनकर क्या कोई रसोई का काम होता है? कहीं हमें नीचा तो दिखाना नहीं चाहती कि वह हमसे अधिक पढ़ी-लिखी है।"

     इसी तरह सास अपने बड़े बेटे विनोद और प्रमोद से पूर्वा की झूठी शिकायतें करती रहती। दूसरों की बातों का उसे बुरा तो बहुत लगता पर जब कोई बाहरवाला उसके किसी काम की प्रशंसा करता और उस समय उसके पति प्रमोद कहते कि उनकी भाभी और बहनें इससे भी अच्छा करती हैं। इस समय वह इतनी घायल हो जाती कि कई दिनों तक उसका मूड खराब रहता। एक बार उसने हल्के गुलाबी रंग

का गोल गले के आकार का तथा आगे से खुला हुआ ऊन का ब्लाउज बनाया जो सबको बहुत अच्छा लगा था। एक दिन प्रमोद के एक मित्र और उनकी पत्नी ऐसे ही मिलने आए थे, उस समय पूर्वा ने वही ब्लाउज पहन रखा था। मित्र की पत्नी ने कहा-" आपका ब्लाउज तो बहुत अच्छा लग रहा है। हाथ का बुना हुआ लग रहा है? आपने स्वयं बनाया या किसी से बनवाया।"

उसके बोलने से पहले प्रमोद बोल उठे-" मेरी छोटी बहन इससे भी अच्छे स्वेटर बनाती है।" जबकि उस बहन को बुनने की सलाइयाँ भी पकड़नी नहीं आती थीं।

हर बात में टॉग अड़ाना उसके किए गए काम पर पानी फेरना जैसे उनके हर्ष का विषय हो। पूर्वा आम का अचार बहुत अच्छा बनाती थी, जो भी खाता, उस अचार की तारीफ अवश्य करता और तब प्रमोद महाशय कहते कि यह अचार आमलेट आम का है इसलिए इसका स्वाद इतना अच्छा है। यदि कोई उसके द्वारा बनाए गए डोसे की तारीफ करे तो झट उस कम्पनी का नाम बताने लगते जिस कम्पनी का वह डोसे का आटा होता। हर समय हर बात में घर के हर सदस्य के उसके साथ सौतेले व्यवहार का पारिणाम यह हुआ कि उसके चेहरे की मुस्कान, हॅसी सब गायब हो गई। उसे सुनाकर उसके पति सबसे कहते कि कुछ लोगों का चेहरा हमेशा मगरमच्छ की तरह रहता है।

     शादी के चालीस दिन के बाद उसका भाई उसे लेने आया,तब उसे ऐसा लगा जैसे कैद से उसकी रिहाई हो रही हो। वह दोबारा उस घर में आना नहीं चाहती थी, पर उसे पता चला कि वह गर्भवती है। मायके में जाकर मानसिक एवं शारीरिक दोनों

रूप से पूर्वा बहुत बीमार रहने लगी। उसे पानी भी नहीं पचता था। उसका चेहरा पीला पड़ गया था। एक तो संसुराल वालों का बुरा व्यवहार उसे दुखी किए रहता था, दूसरे यहाँ भी उसकी प्रशंसा करने वाले भी मायके में लंबी अवधि तक रहने के

कारण तरह-तरह की बातें किया करते थे। कुछ रिश्तेदार महिलाएँ उसकी मम्मी से कहा करती थीं कि प्रथम प्रसव मायके में नाना के लिए भारी होता है, शुभ नहीं होता। उधर पति महाशय का कभी-कभार पत्र आता तो उसमें अप्रत्यक्ष रूप में

लिखा होता कि उनकी मम्मी का कहना है कि उनके यहाँ पहली डिलीवरी मायके में होती है। पूर्वा इतनी दुखी हो गई कि उसे समझ न आता कि ये उसकी शादी की खुशियाँ उसे मिल रही हैं या किसी जन्म के पाप का दंड। उसे लगता था कि उसकी तरह उसका बच्चा भी अनचाहा है। किसी को उसके आने की खुशी नहीं है। परिणामस्वरूप न तो उसे किसी से बातचीत करना अच्छा लगता था न खाना-पीना। वह ऐसा महसूस करने लगी जैसे उससे कोई अपराध हो गया हो, जिसके कारण वह अपनों से ही मुँह छिपाए रखना चाहती है। शादी के आरंभ की यह अवधि जिसके सहारे लड़कियाँ अपने जन्म लेने वाले घर को भुलाकर अपना नया घर बसाती हैं, उसमें जब घुन लग जाए तो किसी प्रकार की भी अच्छी फसल फल ही नहीं सकती। वियोग की घड़ियाँ, प्यार का स्पर्श जब रिक्त हो, तब वह रिक्तता किसी भी चीज से भरी नहीं जा सकती। इन सारी परिस्थितियों का परिणाम वही हुआ, जिसकी आशंका उसकी मम्मी को थी । बच्चा कमजोर और अस्वस्थ पैदा

हुआ। जन्म से ही बीमार, हर समय दवाइयाँ ही दवाइयाँ। पूर्वा की भरी जवानी बच्चे की चिकित्सा, देखभाल में ही निकल गई । वह जीवन के मधुमास को जी नहीं सकी। जैसे उसका बेटा बड़ा होता गया उसकी बीमारियाँ बढ़ती गई और‌ उसकी नियति इतनी क्रूर कि यहाँ भी उसके पति ने अपनी जिम्मेदारी से बड़ी चतुराई से हाथ धो लिए। सारा आरोप पूर्वा के घर वालों पर लगा दिया कि उन्होंने

ठीक तरह से देखभाल नहीं की।

 माँ के खिलाफ बाप ने ऐसा विष भरा इंजेक्शन बेटे

के लगाया कि जब तक वह जीवित रही उसने उसे अपना दुश्मन समझ उससे कभी सीधे मुँह बात नहीं की। पूर्वा के पति में एक प्रतिशत भी कोमल भाव उसके लिए नहीं था। एक ही व्यक्ति है, जिसे घर के हर सदस्य की छोटी से छोटी जरूरत मालूम रहती थी और यथासंभव सबकी जरूरतें पूरी भी की जातीं पर उसकी भी कोई जरूरत हो सकती है, उस पर कतई ध्यान नहीं दिया जाता। वह कितना भी

काम कर ले, घर-गृहस्थी का भार संभाल ले, उसकी कोई कदर नहीं थी, उसके पति कहा करते थे कि घर का काम कोई काम नहीं होता। मानसिक कार्य के कोई मायने होते हैं।

  विष के घूँट पीते हुए उसने एक पुत्री को भी जन्म दिया। उसके दोनों बच्चों के भविष्य के लिए उसने अपना मानसिक संतुलन कायम रखने का

प्रयास करते हुए प्राइवेट एम. ए. एवं साहित्य रत्न की परीक्षाएँ पास की। एक विद्यालय में काम मिलने पर उसकी जिम्मेदारी तो दुगनी-तिगुनी हो गई पर लाभ यह हुआ कि उसकी प्रतिभा को स्वयं के बच्चों तथा छात्र-छात्राओं के माध्यम से बाहर आने का अवसर मिलने लगा। कड़े परिश्रम से अनेक विद्यार्थियों का भविष्य उज्ज्वल करते हुए वह आगे बढ़ती रही। काम का बोझ बहुत अधिक होने के कारण उसका रक्तचाप बहुत बढ़ जाता, मधुमेह ने भी अपने फंदे में जकड़ लिया। शरीर

की सारी हड्डियाँ कमजोर होकर गलने लगीं। सारे जोड़ों में हर समय दर्द रहने लगा। अपने खाने-पीने की ओर उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया। हर समय बेटे की बीमारी की चिंता और काम का बोझ उस पर सवार रहता था। पति ने ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर भी उसे सांत्वना नहीं दी, न ही सहारा। जितना लोग उसकी प्रशंसा करते उतने ही उसके पति उससे जल भुन जाते। खुले आम अन्य महिलाओं के दुख सुख की इतनी पूछताछ करते कि उन महिलाओं को स्वंय बड़ा अटपटा लगता। अब आलम यह हो गया कि जब भी आने जाने वाले पूरवा की प्रशंसा करते वे अपनी बढ़ाई का ऐसा पिटारा खोलते कि आने वाले उकता जाते।

   पूर्वा का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था, उस पर रात दिन निर्जीव सी घर और बाहर के काम में पिसती जा रही थी, जैसे सब उसे पूरी तरह मिटाने पर तुल गए हों। पूर्वा इतनी टूट चुकी थी कि उसने मुझसे भी कुछ कहना छोड़ दिया था।

 एक बार उसने बताया कि फोन पर भी बात करने से दूसरे कमरे के रिसीवर से उसकी सारी बातें सुनते हैं। किसी का उससे फोन पर बात करना उन्हें बिलकुल

पसंद नहीं। यदि पूर्वा से मिलने कोई आ जाए तो उसका भी उन्होंने अपमान करना शुरू कर दिया था। घर में सबके मन-मस्तिष्क में यह बिठा दिया गया कि वे नितांत अच्छे हैं और पूर्वा बिलकुल खराब । 

    घर में पूर्वा का अस्तित्व ही लोप हो गया। उसके पति ने उसके बच्चों को भी अप्रत्यक्ष रूप से उसके खिलाफ कर दिया। हर बात में उनकी यही कोशिश रहती कि सब उनका ही आदर करें और पूर्वा का अपमान।

धुआँ-धुआँ, रफ्ता-रफ्ता उसका रोम-रोम घुटने लगा और उसके ब्रेन में भी तकलीफ पैदा हो गई जिसके कारण हर समय उसे तेज सिर दर्द रहने लगा एवं

चक्कर आने लगे। ऐसी मानसिक स्थिति में एक दिन वह घी बना रही था, जो काफी देर से उबल रहा था। चम्मच से चलाते ही खौलता हुआ पूरा घी उसके

दाहिने हाथ पर गिर पड़ा। आलू के बराबर बड़े-बड़े दो-तीन छाले पड़ गए। डॉक्टर के पास हमेशा की तरह वह अकेली गई। डॉक्टर ने छाले काट दिए, जिससे उसे बहुत दर्द हो रहा था, उसी दर्द में अकेले आकर उसने बाएँ हाथ से घर का ताला खोला, जिसमें उसे बहुत तकलीफ हुई। उसकी तकलीफ से तो किसी को कुछ लेना-देना नहीं था, बस सबको इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि सारा काम अब

कौन करे? एक बार तो सबको मरना होता है, लेकिन पूर्वा तिल-तिल मरने के लिए नित्य प्रात: जीवित हो उठती। अपनी जिंदा लाश को स्वयं ढोती रहती। मानसिक तनाव एवं शारीरिक रोग उम्र बढ़ने के साथ-साथ बढ़ते ही जा रहे थे। नित्य-प्रतिदिन अपमान की बढ़ती प्रबल मात्रा के ज्वर ने पूर्वा को ऐसा जकड़ा कि वह बिस्तर से उठ ही नहीं पाई।

     जीवन-भर पूर्वा अलग रहने की बात सोचती रही, पर कभी किसी कारण से तो कभी किसी और कारण से वह अलग रहने की योजना में सफल न होने पाई। संतप्त मानसिक दशा में पूर्वा ने मुझे एक दिन फोन किया और कहा-"प्रज्ञा, मैं अब

बहुत थक गई हूँ। क्या कुछ दिनों के लिए मैं तुम्हारे पास आकर रह सकती हूँ?"

मैंने कहा, "क्यों नहीं पूर्वा, यह भी तुम्हारा ही घर है। अपने आने की सूचना देना, मैं एयरपोर्ट पहुँच जाऊँगी।" मैं उसका आने का समाचार जानने के लिए बेचैन हो गई। मुझे लगा कि कुछ गंभीर मामला है। उसके फोन के बाद से हर समय उसके फोन का इंतजार मुझे रहता कि तीसरे दिन रात के बारह बजे फोन की घंटी बजी। रिसीवर उठाते ही उधर से आवाज आई कि पूर्वा की हालत बहुत गंभीर है।

डॉक्टर के अनुसार उसके बचने की उम्मीद बहुत कम है। यदि देखना चाहती हो तो तुरंत आ जाओ। यह समाचार सुनते ही मेरे हाथ-पाँव कॉपने लगे। उसी समय अपने बेटे तरुण को सोते से जगाया और जो भी फ्लाइट सबसे पहले उपलब्ध हो, उसकी

दो टिकटें लाने के लिए कहा और दो घंटे के अंदर ही जाने की तैयारी की। साढ़े पाँच बजे की फ्लाइट के लिए साढ़े चार बजे ही अपने पति के साथ एयरपोर्ट पहुँच गई। सुबह सात बजे तक पूर्वा के घर बैंगलोर हम पहुँच गए। पूर्वा के प्राण जैसे मुझमें ही

अटके हों। मेरे पहुँचने पर वह बोल तो कुछ न सकी, पर मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर मुझे टुकुर-टुकुर देखती रही। जैसे उसकी आँखें मुझसे कह रही हों-"यहाँ तो मेरा कोई अंतरंग न बन सका, पर तू तो मेरी एकमात्र अंतरंग सखी है, पर तू भी इस अभागी सखी के किसी काम न आ सकी? अरे! मरने के बाद तो सभी को अकेले यात्रा करनी होती है। मुझे तो जीते जिंदगी सबने सागर की भँवर में अकेले

छोड़ दिया। खैर अब उस परमपिता से ही अपने कर्मों का लेखा-जोखा जान पाऊंगी। इस तरह की जिंदगी जीने को उसने उसे क्यों मजबूर किया?" बस फिर उसने सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

     पूर्वा के दुखांत के बाद मैं भी सामान्य जीवन की सॉसें न ले पाई। हमेशा उसका पीला चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता जितना अधिक मैं उसके बारे में सोच-सोच दुखी होती रहती कि पूर्वा की इतनी उपेक्षा क्यों हुई कि वह जी ही नहीं

पाई। उसकी गलती क्या थी ? क्या कमी थी उसमें जो ससुराल में उसका रूप और उसके गुण सदा आँसू बहाते रहे, जरा-सा प्यार पाने को तरसते रहे। यह सब देखकर हृदय इतना घायल हो गया है। बार- बार मेरे सामने एक बड़ा-सा प्रश्न-चिह्न उभरता

है कि यही स्वतंत्र भारत की नारी की प्रगति है। किस समानाधिकार की बात हम करते हैं? किस नारी-स्वतंत्रता की बड़ी-बड़ी डींगें हम मारते हैं ? यदि थोड़ी भी दृष्टि हम इधर-उधर घुमाएँ अनेक पूर्वा अपने इर्द-गिर्द दिखाई देंगी, जो इस उन्नत

समाज में इस तरह का जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।

✍️ मालती प्रकाश

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ....शिक्षा का मंदिर


जय प्रकाश कोई बीस साल बाद गाँव लौटा तो उसके कदम अनायास की गाँव से सटे जँगल की और बढ़ गए जहाँ एक दूर तक फैला हुआ आश्रम था। आश्रम के मुख्यद्वार पर एक लकड़ी की बड़ी सी तख्ती लगी हुई थी, जिसपर मिट चुके अक्षरों में लिखा हुआ था "शिक्षाका मंदिर"।

जेपी जी हाँ अब जयप्रकाश को शहर में लोग इसी नाम से जानते थे, ने अपना बचपन और अपनी प्रारंभिक शिक्षा इसी आश्रम में प्राप्त की थी।

पण्डित बलदेव प्रसाद शास्त्री जी ने अपनी कोई चार एकड़ जमीन में यह आश्रम बनाया था जहाँ वे अपनी पत्नी सहित बच्चों को संस्कार युक्त शिक्षा देते थे।

उनके आश्रम में दूर-दूर से बच्चे पढ़ने के लिए आते थे।

आश्रम में बच्चों के रहने और खाने की भी बहुत उत्तम व्यवस्था थी।

सभी बच्चों को स्वावलंबी बनाने की पण्डित जी की प्राथमिकता रहती थी।

आश्रम से पढ़े अनखों बच्चे देश-विदेश में उच्च पदों पर कार्य कर रहे थे।

  जेपी भी शहर में एक मल्टीनेशनल कंपनी में मुख्य अधिशासी के पद पर कार्य कर रहा था।

  जेपी को आश्रम को उजड़ा देखकर घोर आश्चर्य हो रहा था। वह द्वार पर उग आयी जंगली लताओं को हटाकर द्वार के अंदर जाने लगा।

अभी उसने कदम बढ़ाया ही थी कि उसने पीछे से एक आवाज सुनी, "कहाँ जा रहे हो साहब जी? अब यहाँ कोई नहीं रहता।

"लेकिन ये आश्रम...?" जेपी ने पलटते हुए पूछा।

जेपी ने देखा पीछे एक बूढ़ा आदमी लाठी पकड़े खड़ा था।

"हाँ साहब आये थे एक संत स्वभाव के पण्डित जी जिन्होंने अपना सबकुछ लगाकर ये मंदिर बनाया था, लेकिन धीरे-धीरे आधुनिकता की दौड़ में लोगों को ये संस्कारशाला अच्छी लगनी बन्द हो गयी।

और जब सन्त ने देखा कि लोगों को संस्कार और जीवन मूल्य सीखने से अधिक रुचि पाश्चत्य चीजों में हो रही है तो वे अंदर से आहत हो गए और एक दिन चले गए सबको छोड़कर। माता जी भी उनसे बिछोह सह नहीं पायीं और तीसरे ही दिन वे भी देह छोड़ गयीं।

बाकी रही बात आश्रम की तो साहब सन्त की माया थी जो उनके ही साथ चली गयी।

  आश्रम में छात्र तो ऐसे भी ना के बराबर ही रहते थे जो उनके जाते ही चले गए थे।

किसी ने भी गुरु के काम को आगे बढ़ाकर इस आश्रम को संभालने की कोशिश नहीं कि।

तो साहब 'अब यहाँ कोई नहीं रहता।" बूढ़े ने कहा और  लाठी खटखटाता एक ओर चल दिया।

जेपी का दिल जैसे बैठ सा गया था।

वह आश्रम को पुनः संचालित करने की योजना अपने दिमाग में बना रहा था। उसके कानों में बार-बार बूढ़े के शब्द गूँज रहे थे, "अब यहाँ कोई नहीं रहता साहब"

✍️ नृपेंद्र शर्मा सागर 

ठाकुरद्वारा, 

मुरादाबाद 

उत्तर प्रदेश, भारत


गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह ब्रजवासी की लघु कहानी......मुल्ला उमर का वहम


मुल्ला उमर बहुत  ही वहमी किस्म का इंसान था। वैसे तो वह खूब हट्टा-कट्टा इकहरे बदन का गोरा चिट्टा इंसान होते हुए भी बीमारी का वहम पाले रहता। उसकी खुराक भी ऐसी कि नौजवानों को भी पीछे छोड़ दे। फिर भी उसके दिमाग में यही फितूर रहता कि हो न हो मेरा शरीर पूरी तरह  स्वस्थ नहीं है। बस इसी उधेड़ बुन में घरवालों से नई से नई चीजें बनवाकर खाता रहता। घर वालों के समझाने पर भी वह कुछ समझने को तैयार न होता। ज्यादा कुछ कहने पर घरवालों को ही उल्टा सीधा कहने लगता।

    एक दिन वह एक पहुंचे हुए दरवेश हनीफ मियां के पास पहुँचा। आदाब अर्ज़ के पश्चात उसने मियां जी से कहा कि हे दरवेश, मुझे हर वक्त ऐसा क्यों लगता रहता है कि मेरे भीतर कोई बड़ी बीमारी पल रही है। मैं जिससे भी पूछता हूँ वह यही कहकर 

टाल देता है कि तुम बिल्कुल ठीक हो। कहीं से भी बीमार नहीं लगते। यह तो केवल तुम्हारे मन का वहम है वहम, और वहम का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं।,,,,

    क्या आप भी ऐसा ही मानते हैं दरवेश जी। दरवेश जी मुस्कुराकर बोले। बेटा,, यदि तुम इस वहम से छुटकारा ही पाना चाहते हो तो, जैसा मैं कहूँ  वैसा करो। तुम्हारी शंका का समाधान तुम्हें अवश्य ही मिल जाएगा।

    उमर ने कहा मोहतरम आपका हुक्म सर आंखों पर।

आप जो कहेंगे मैं वैसा ही करूंगा। दरवेश ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा। बेटा, तुम अभी जाकर दुनियाँ के माने-जाने किसी अस्पताल में उसके मुख्य द्वार से प्रवेश करके वहाँ के सभी वार्डों में ज़ेरे इलाज मरीजों को ध्यान से देखते हुए अस्पताल के पिछले दरवाज़े से बाहर निकल जाना। तुम्हें तुम्हारी बीमारी का तुरंत समाधान मिल जाएगा।

    उमर ने वैसा ही किया और  एक जाने-माने अस्पताल के मुख्य द्वार से प्रवेश करके उसके भिन्न-भिन्न वार्डों से गुजरते हुए आगे बढ़ने लगा।

   सबसे पहले हड्डी वार्ड का नज़ारा देखकर उसका दिल ही बैठने लगा। उसने देखा कोई रो रहा है, कोई बेहोश पड़ा है। किसी की टांगें शिकंजे में कसी हुई हैं, तो किसी की टांगों को वजन लटकाकर ऊपर उठा रखा है।किसी का पूरा शरीर ही पट्टियों से बंधा हुआ है।

       थोड़ा और आगे बढ़ा तो उसने देखा डॉक्टर लोग एक मरीज के सीने को ज़ोर-ज़ोर से दबाकर उसे साँस दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। उसने दिल पक्का करके एक डॉक्टर से पूछा आप ऐसा क्यों कर रहे हैं। तो डॉक्टर ने बताया भैया, इसका दिल कोई हरकत नहीं कर रहा है। दिल को चालू करने के लिए ऐसा करना पड़ता है। चल गया तो ठीक वर्ना,,,,,,,कह नहीं सकते। मुँह व नाक में कई नालियां देखकर उसने आगे बढ़ना ही ठीक समझा।

     इस तरह वह कभी आंखों,कभी दांतों, कभी टी.बी. वार्ड तो कभी चीर फाड़ कर रहे डॉक्टरों के शल्य चिकित्सा कक्ष में दूर से ही झांकते हुए अल्लाह- अल्लाह करता हुआ आगे बढ़ गया। रास्ते में हर एक डॉक्टर के पास मरीजों की लंबी-लंबी लाइनें देखकर जल्दी से बाहर निकलने का रास्ता खोजने लगा। पूछते-पाछते वह अस्पताल के बाहर आकर सोचने लगा कि पीर साहब ने ठीक ही कहा था। अब मुझे  पूरा यकीन हो गया है कि मुझे कोई बीमारी नहीं है ।

   मुल्ला उमर ने दरवेश जी के साथ-साथ सभी घरवालों को आदाब करते हुए अपने ऊपर परवरदिगार के रहमोकरम की सराहना करते हुए सभी से कहा कि बेवजह वहम करना बहुत बड़ी नासमझी है भाई।

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर  9719275453

                    

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की कहानी .....अधूरा डाक्टर

   


 रोजी मैडम प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद अपनी नई कोठी में आराम से जीवन ब्यतीत कर रहीं थीं। समय काटने के लिए उन्होंने बी०एस०सी०/एम०एस०सी० के छात्र- छात्राओं को 'फिजिक्स' विषय की कोचिंग पढ़ाना शुरु कर दिया था। उनके पास अनेक छात्र और छात्राएं पढ़ने आतीं थीं । उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी।

           उन्हें वैसे तो सभी छात्र-छात्राओं से बहुत लगाव था परन्तु सचिन को वह बहुत अधिक पसंद करतीं थीं। सचिन की मेहनत-लगन और व्यवहार से वह बहुत प्रभावित थीं। दिनों-दिन सचिन के प्रति उनका लगाव बडता गया। सचिन ने प्रथम श्रेणी में बी०एस०सी० पास किया था। उसे एम०एस०सी० में यूनिवर्सिटी में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ था। अब तो उन्होंने ठान लिया था कि सचिन के नाम के आगे 'डाक्टर' लगवाना है।

           रोजी मैडम अपनी कोठी में अकेली रहतीं थीं। वह अभी तक अविवाहित थीं। यद्यपि उनके पास घर के काम के लिए नौकर-चाकर थे। फिर भी वह प्राय: अपने निजी कार्य सचिन से ही करातीं थी। धीरे-धीरे वह सचिन के साथ उसकी मोटर साईकिल पर पीछे बैठ कर अपने बैंक के कार्य व बाजार के कार्य के लिए भी जाने लगीं। उन्हें सचिन के साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता। लोगों को उनका साथ घूमना अखरने लगा था। सब अपनी-अपनी तरह से बातें बनाने लगे थे। बातें होने लगीं और दूर तक फैलती गई। अचानक एक दिन बिना पूर्व सूचना के रोजी मैडम के बडे भाई व भाभी उनके घर पर आ धमके। काफी दिनों तक उनके मध्य वाद-विवाद चला। उन्होंने सचिन के रोजी मैडम के घर आने-जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। इतना ही नहीं उन्होंने  सचिन को आरोपित करते हुए पुलिस से लिखित में शिकायत भी कर डाली। सचिन बहुत डर चुका था।आखिर विवादों से बचने के लिए  भारी मन से सचिन हमेशा के लिए शहर छोड़ कर चला गया।

              इस बात को काफी वर्ष बीत चुके थे। सचिन ने अकेले ही अपने आप को सम्हाला। अपना संघर्ष जारी रखा।अब उसने अपना छोटा सा परिवार बसा लिया था जिसमें उसकी 'लेक्चरर' पत्नी व एक 15 वर्षीय बेटी जहान्वी थी। सचिन सरकारी विभाग में 'साइंटिस्ट' के पद पर बडा अधिकारी बन चुका था।उसने रोजी मैडम के सपने को साकार करने के लिए नौकरी के साथ-साथ अपनी 'डाक्टरेट' भी पूरी कर ली थी। एक दिन वह अपने परिवार के साथ घूमने जा रहा था। रास्ते में उसे अपना पुराना शहर दिखा तो उससे रहा न गया। उसे अपनी 'रोजी मैडम' के साथ बिताये एक-एक पल याद आने लगे।वह उन्हें कभी नहीं भूला था और न ही कभी भूल पायेगा। सचिन ने अपनी गाडी़ शहर के अंदर रोजी मैडम की कोठी की तरफ मोड़ ली। सचिन आश्चर्य से बोल उठा -"अरे यह क्या, यहां तो सब कुछ बदल चुका है, कोठी की जगह आलीशान तीन मंजिला भवन ! " वह भोंचक सा भवन को एकटक देखता रहा। अगले ही पल वह सब कुछ समझ चुका था। भवन में बडे-बडे अक्षरों में लिखा था-              

"सचिन एण्ड रोजी इंस्टीट्यूट आफ साईन्सेज" 

    सचिन ने स्टेयरिंग पर माथा टिकाया और आंसुओं की झडी़ लगा दी। सचिन की पत्नी और बेटी जहान्वी कभी एक-दूसरे को देखते कभी सचिन को।                        

✍️ धनसिंह 'धनेन्द्र'

चन्द्र नगर, 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी-मोरल सपोर्ट

             श्यामा ड्यूटी से थकी हारी घर लौटी थी।उसका सिर बहुत जोरों से दर्द कर रहा था।हाथ मुंह धोकर और कपड़े बदलकर आज वह सीधे अपने कमरे में जाकर लेट गयी।तभी उसकी बुजुर्ग सास ने कमरे में आकर पूछा, "क्यों बेटा आज खाना नहीं खायेगी?" "नहीं, मम्मी जी!आज भूख तो नहीं लग रही,पर सिर में बहुत दर्द हो रहा है।सोच रही हूँ थोड़ा आराम कर लूं तो शायद ठीक हो जाये।" "ठीक है बेटा,तू आराम कर ले।" यह कहकर वह बाहर के कमरे में चली आयीं।

     श्यामा की आंख लगी ही थी कि उसे किसी के रोने की आवाज सुनाई दी।उसने ध्यान दिया तो बाहर के कमरे से आवाज़ आ रही थी।उसकी 10 साल की बेटी रो रही थी और उसकी दादी उसे चुप करा रही थी।श्यामा झट से उठकर कमरे की ओर गयी तो सास की आवाज सुनकर ठिठक गयी,"चुप हो जा मेरे बच्चे।देख तेरी मम्मी अभी ड्यूटी से थकी घर लौटी है और थोड़ा आराम कर रही है।तू मुझे बता क्या बात हुई? दादी सुनेगी अपने बच्चे की बात।"

      दादी ने उसे अपनी गोद में बैठा लिया था और अब वह चुप होकर दादी के सीने से लगी अपनी किसी सहेली की शिकायत दादी से कर रही थी।श्यामा के सिर का दर्द मानो छू हो गया था।अचानक उसकी सहेली मीना की सालों पहले कही बातें उसके दिमाग में घूम गयी,"श्यामा,हर्षित से कह कर अपनी जेठानी की तरह तू भी अपना मकान अलग क्यों नहीं कर लेती।आखिर तेरी खुशियां,तेरी जिन्दगी,तेरी आजादी भी कुछ है या नहीं।अरे इन बूढ़े सास ससूर की सेवा करते करते ही तेरी जिन्दगी न बीत जाये तो कहना।मेरी एक बात गांठ बांध ले,कमान अपने हाथ में हो तभी जीवन के लुत्फ उठाये जा सकते हैं वरना... जी मम्मीजी...जी पापा जी... कहते हुए ही पूरी जिन्दगी कट जायेगी।हा हा हा....." किटी में शामिल सभी सहेलियों के ठहाकों के स्वर उसके कान में गूंजने लगे थे। अचानक उसका ध्यान टूटा और उसने कमरे में देखा कि अभिलाषा दादी के पिचके कपोलों पर अपने प्यार की मुहर लगा रही थी और कह रही थी,"आई लव यू दादी!आप कितनी अच्छी हो।सारी प्राब्लम ही साल्व हो गयी,अब मैं नताशा के चिढ़ाने पर रोऊंगी ही नहीं तो वह भी मुझे चिढ़ाएगी नहीं,है न।" 

      श्यामा दादी पोती के स्नेहिल आलिंगन को मंत्रमुग्ध हो देख रही थी कि तभी फिर किसी के सुबकने की आवाज उसके कानों में पड़ी।यह आवाज भूतकाल के एक वृतांत से थी जो सहसा श्यामा की आंखों के सामने से गुजर गया था।उसकी सहेली मीना घंटों जार जार रोने के बाद अब जोरों से सुबक रही थी।आखिर अपनी 12 साल की बेटी को फांसी के फन्दे पर लटका देखकर कौन मां इस तरह न रोयेगी? काश कोई एक बड़ा तो घर पर होता जो कामकाजी माता पिता के घर में न होने पर मोबाइल के जाल में फंसे इन मासूम बच्चों को मोरल सपोर्ट दे पाता,जो तिल भर की समस्या को ताड़ में न बदलने देता,जो प्यार की बाड़ से ऐसी तमाम घटनाओं को रोके रखता।लोगों की तरह तरह की ये सारी बातें अब मिश्रित होकर ज़ोर ज़ोर की भिन्नभिन्नाहट का रूप ले चुकी थी।

      श्यामा एक झटके से वर्तमान में लौटी।कमरे में दादी पोती अब भी मीठा मीठा कुछ बतिया रहे थे।दादा जी,पोते अमन के साथ मार्केट से सब्जियां लेकर आ चुके थे।"बहु! एक कप चाय मिल जाएगी क्या?" पापा जी ने श्यामा को आवाज दी। इससे पहले कि श्यामा कुछ कहती मम्मी जी ने पापा जी से कहा,"रूको मैं बना लाती हूं चाय।आज श्यामा की तबियत ठीक नहीं है।"

मम्मी जी कुर्सी से उठ ही रही थी कि श्यामा ने हर्ष मिश्रित आवाज में उन्हें आश्वस्त किया,"अब मैं ठीक हूं मम्मी जी।आप बैठो मैं चाय बना कर ला रही हूं।"

    किसी फिल्म की हैप्पी एंडिंग का मधुर संगीत फिर श्यामा की कल्पना में गूंजने लगा था।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर ) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ........ पिता का श्राद्ध

     


पिता का श्राद्ध है आज…

     निकेत बड़े श्रद्धा भाव से पूजा पाठ की तैयारियों में लगा है…और पत्नी रसोई में विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने में व्यस्त है…श्वसुर की पसंद का मटर पनीर, कोफ्ते, बूंदी का रायता,मेवे पड़ी मखाने की खीर, शुद्ध गोघृत का सूजी का हलवा,उड़द की दाल की कचोड़ियां आदि आदि।

     मां का कमरा रसोई से कुछ दूर है। उच्च रक्तचाप व मधुमेह की रुग्णा मां की दो कदम चलने में ही श्वास फूलने लगती है। बार-बार कण्ठ शुष्क हो जाता है और बार बार प्यास लगती है। और थोड़ी-थोड़ी देर में मूत्र त्याग की इच्छा होने लगती है। अन्य दिनों में तो बेटा अथवा पौत्र उन्हें शौचालय ले जाकर मूत्र विसर्जन करा लाते थे…परंतु आज तो कोई भी उनके समीप नहीं आया…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…जिन्हें मरे हुए आज पूरे पांच वर्ष हो चुके हैं…प्रति वर्ष उनका श्राद्ध मनाया जाता है…सुस्वादु व्यंजन उनके नाम पर पंडित और कौए को खिलाए जाते हैं। पंडित पूजा पाठ का उपक्रम करता है, दक्षिणा लेता है और सामान की पोटली बांधकर घर ले जाता है…बस हो गया श्राद्ध…

     वह अलग की बात है कि जब तक वे जीवित रहे तब तक पुत्र और पुत्रवधू दोनों ही उनकी घोर उपेक्षा करते रहे। उनकी पसंद के सुस्वादु व्यंजन तो क्या सामान्य भोजन के लिए भी तरसाया जाता था…

     मधुमेह की रुग्णा होने के कारण मां को भूख सहन नहीं हो पाती…हर दो घण्टे पर उन्हें कुछ न कुछ खाने के लिए चाहिए, वरना उन्हें कमजोरी और चक्कर महसूस होने लगते हैं।

     लेकिन आज तो उन्हें सुबह से कुछ भी नहीं मिला…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…बेटा और बहू तैयारियों में व्यस्त हैं न…श्राद्ध के विधि विधान में कोई कमी न रह जाए…किसी भी तरह पितर न रुष्ट होने पाएं…

    भूख बड़ी तेजी से सता रही है उन्हें…टकटकी बांधे वे निरंतर रसोई की ओर निहार रही हैं…हर आहट पर उन्हें लगता है कि  कुछ खाने को मिलने वाला है…इस मध्य हांफती-कांपती वे कई बार शौचालय हो आयी हैं और लौटते हुए तिर्यक दृष्टि से वे रसोई में भी झांक आयी हैं।

     जब उन्हें लगा कि यदि कुछ देर उन्हें खाने को कुछ न मिला तो रक्त शर्करा शून्य हो जाएगी और वे मूर्छित हो जाएंगी। तो उन्हें बहू से याचना भाव से कहना ही पड़ा– "बहू!भूख सहन नहीं हो रही…रात का ही कुछ रखा हो तो वही खाने के लिए दे दे!"

     बहू की त्योरियां चढ़ गयीं – "मां जी कुछ तो धीरज रखा करो!आज पिताजी का श्राद्ध है तो बिना पूजा पाठ किए, बिना पंडित जी को भोग लगाए आपसे कैसे झुठला दें? पुण्य कार्य में विघ्न बाधा डालकर क्यों अनर्थ करने पर तुली हुई हो?"

     पौत्र को उनसे कुछ सहानुभूति हुई तो वह उन्हें आश्वस्त करने आ पहुंचा – "अम्मा! पापा पंडित जी को बुलाने गये हैं बस आने ही वाले होंगे। जैसे ही पंडित जी को भोग लगाया जाएगा वैसे ही सबसे पहले मैं आपका थाल लेकर आऊंगा।"

     उनके मन में आशा की एक नन्ही सी किरण जगी । और वे अपने बिस्तर पर लेटी मुख्य द्वार की ओर अनिमेष निहारने लगीं…पुत्र के पंडित जी के साथ आने की प्रतीक्षा में…

     किंतु पुत्र अकेला ही बाहर से ही  तीव्र स्वर में कहते हुए भीतर घुसा चला आया – "पंडित जी को आने में कुछ देर लगेगी क्योंकि वे अन्य घरों का श्राद्ध निपटाने गये हैं।इन लोगों के लिए कोई एक घर तो होता नहीं जो सुबह से ही जाकर जम जाएं,दस घर जाना होता है। कहीं चेले चपाटों को भेज देते हैं कहीं खुद जाते हैं। हमारे घर तो वे स्वयं ही आएंगे,हमारा श्राद्ध कर्म अच्छी तरह जो निपटाना है। यहां से उन्हें दक्षिणा भी अच्छी मिलती है।"

     मां जी के मन में टिमटिमा रहा आशा का नन्हा दीप भी बुझ गया…पता नहीं पंडित जी कब आएंगे?...कब तक उन्हें इस भूख से तड़पना होगा?

     साहस जुटा कर वे किसी भिक्षुणी की भांति पुत्र के सामने गिड़गिड़ाने लगीं – "बेटा!तू मेरे मरने के बाद भी तो मेरा श्राद्ध कर्म करेगा ही न,तो वह श्राद्ध मेरे जीते जी कर ले! बेटा बहुत जोर की भूख लगी है,बस तू मुझे दो सूखी रोटी दे दे! चाहे मेरे मरने के बाद मुझे कुछ मत देना खाने के लिए।"

     पुत्र की भृकुटि वक्र हो गयी– "अम्मा! तुम भी हर समय कैसी कुशुगनी की बातें करती रहती हो? पंडित जी को जिमाने से पहले तुम्हें कैसे जिमां दें? क्यों हमसे घोर पाप कराने पर तुली हो? जब इतनी देर रुकी हो तो थोड़ी देर और नहीं रुक सकतीं क्या?"

     मां जी की आंखों में अश्रु छलछला आए…अपने रक्तांश से ऐसे तिरस्कार की तो उन्हें स्वप्न में भी आशा नहीं थी।

     लड़खड़ाते बोझिल से कदमों से वे अपनी कोठरी में घुसीं और निढाल सी, निष्प्राण सी ओंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ीं।सिकुड़ी आंखों से अविरल अश्रुधार प्रवाहित हो पड़ी…और पता नहीं कब तक होती रही?

     कुछ समय उपरांत पंडित जी बाहर से ही शोर मचाते हुए घर में प्रविष्ट हुए – "जल्दी करो भाई! मुझे और घरों में भी जाना है।"

     पूजा पाठ की औपचारिकता पूर्ण होते ही पंडित जी के सामने सारे व्यंजनों से सजा थाल लाया गया तो उन्होंने क्षणिक दृष्टिपात थाल पर करते हुए आदेशात्मक स्वर में कहा –"ऐसा करो यजमान!इसे खाने का मेरे पास वक्त नहीं है,अभी और भी घर निपटाने हैं। इसमें दक्षिणा रखकर इसे मेरे घर दे आओ! भगवान तुम्हारे पिता की आत्मा को संतृप्त रखे।"

     पंडित जी के जाने के बाद मां जी को सुस्वादु व्यंजनों से भरा भोजन  थाल पहुंचाया गया…

     किंतु यह क्या?...मां जी तो तब तक उसे ग्रहण करने की स्थिति में ही नहीं रही थीं…शायद उन्हें मधुमेही संज्ञाशून्यता ने आ दबोचा था।

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 8077945148

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघु कहानी.......आज भी,,,,

सर्वज्ञान विद्यालय के छात्र भीखू से स्वजातीय छात्रों ने पूछा अरे यार आज तो तुम एकदम सुस्त,थके-थके,मरियल से दिख रहे हो। तुम्हारा चेहरा भी बुझा बुझा और शरीर भी बेदम सा लग रहा है। तुम्हारे सूखे होंठों पर जमी पपड़ी भी तुम्हारी शारीरिक स्थिति को परिभाषित कर रही है। हो न हो कोई न कोई बीमारी अंदर ही अंदर पनप रही है। बोलो मित्र क्या बात है।

     भीखू की कक्षा के कुछ साथियों द्वारा उसकी सुस्ती का कारण जानने की हठ करने पर उसने कहा, भाइयो कई दिन से मैं तेज ज्वर व खाँसी से पीड़ित था। बुखार ऐसा कि कभी उतर जाता और फिर इतनी तेजी से चढ़ता की पूरे शरीर को ही जलाकर रख देता। कुछ भी खाने को मन न होता।

      आज कुछ कम होने पर विद्यालय आने की हिम्मत कर पाया। आज आजादी का  अमृत महोत्सव भी तो है। मैंने सोचा आप सभी से मिलकर मन खुश हो जाएगा।  और कुछ अधूरे कार्य भी आपके सहयोग से पूरे हो जाएंगे।

     भीखू के सभी मित्र यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उसे पूर्ण सहयोग देने की बात कहते हुए कक्षा में  ले जाकर बैठा दिया। भीखू के सभी दोस्त जिनमें नथुआ, खचेड़ू, कलुआ, भैरों, हीरा ने भीखू से पूछा भैया, कुछ खाओगे। हमारे पास जो भी है मिल बांट कर खा लेंगे। भीखू ने कहा नहीं भैया मुझे बिल्कुल भूख नहीं है। आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद। यदि हो सके तो दो घूँट पानी पिला देना। बहुत प्यास लगी है। सारा हलक सूख रहा है। 

     इतना कहते ही भीखू अचेत होकर धरती पर गिर गया। उसके सभी साथी चीखते-चिल्लाते विद्यालय के प्रधानाचार्य भद्राचरण शुक्ला जी के कार्यालय में पहुंचे  और भीखू की अचेतावस्था से अवगत कराते हुए कहा सर, विद्यालय का नल खराब हो गया है। यदि आप अपने घड़े में से थोड़ा जल दे दें तो आपका बड़ा उपकार होगा। यह कहते हुए सभी ने पानी हेतु अपने गिलास आगे बढ़ा दिए।

    इतना सुनते ही प्रधानाचार्य ने सभी छात्रों को फटकार लगाते हुए अपने कक्ष से तुरंत  बाहर निकल जाने का आदेश देते हुए कहा। तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई कि तुमने अपने गंदे पैर मेरे कक्ष में रखे। मेरा सारा कमरा ही अपवित्र कर दिया।

    मैं खूब समझता हूँ कि पढ़ने के नाम पर ऐसे नाटक करना तुम नींच जाति के छात्रों की पुरानी आदत है।

   नहीं-नहीं गुरुवर ऐसा नहीं है, भीखू वास्तव में ही बहुत बीमार है। उसे दो घूँट पानी न मिला तो उसके प्राण संकट में पड़ जाएंगे। नथुआ ने विनम्र भाव से पुनः जल देने की प्रार्थना करते हुए कहा। गुरुजी आप स्वयं चलकर देख लेते तो सत्य असत्य का पता चल जाता।

   प्रधानाचार्य ने क्रोधवश कहा कि मैं अपने घड़े से दो घूँट तो क्या, दो बून्द पानी भी उस अछूत को नहीं दे सकता। मुझे अपवित्र नहीं होना समझे और जहां तक चलकर देखने की बात है तो मैं अपनी परछाईं भी उसके समीप ले जाना पाप समझता हूँ।

    सवर्णों को छोड़कर उसके अन्य सहपाठी बड़े उदास मन से कक्षा में लौट आए। सभी ने मिलकर भीखू को उठाया और विद्यालय परिसर के बाहर बह रहे नाले के पानी को कपड़े से छानकर पिलाने को जैसे ही उसका मुँह ऊपर उठाया तो देखा कि उनका प्रिय मित्र भीखू उन्हें सदा-सदा के लिए छोड़कर जा चुका है।

    सारे के सारे मित्र दौड़े-दौड़े भीखू के गांव पहुंचे और उसके देहांत की दुखद सूचना देकर स्वयं भी दहाड़ें मार कर रोने लगे।

    देखते ही देखते सारा गाँव एकत्र होकर स्कूल में हो रहे भेद-भाव पर रोष प्रकट करने संबंधित पुलिस थाने पहुँचा। परंतु वहां भी ऊंच नीच के घृणित व्यवहार ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। सभी लोग अपना सा मुँह लेकर लौट आए और अपने नसीब को कोसते हुए भारी मन से भीखू का अंतिम संस्कार यह कहते हुए कर दिया कि, अब शांत बैठने से काम नहीं चलने वाला। हम सभी को एक साथ इस भेद-भाव की कुप्रथा से लड़ना ही पड़ेगा।और कहना होगा भाड़ में जाए ऐसी आजादी जिसमें दशकों बाद आज भी......


✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"

 मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल फोन नंबर 9719275453

               

गुरुवार, 28 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की कहानी ....एक रात की कहानी

     


 कभी नहीं सोचा था कि मैं कुछ लिखुंगा। एक दिन मुझे अपनी मौसी के घर रुकना पडा। वहां मुझे बिल्कुल भी नींद नहीं आ रही थी। बेहतरीन सुसज्जित कमरा । साफ सुथरा बिस्तर। अर्दली, काम करने वाले सरकारी और निजि नौकर -चाकर। मौसा जी पुलिस में सी०ओ०थे । सब सुविधाऐं थीं। लेकिन मुझे एक दिन - एक रात काटने में ही परेशानी हो रही थी।

      नहाने-धोने व खाने-पीने से लेकर पूरा दिन औपचारिकता में बीता । मौसा-मौसी से थोडी बात ड्राईंग रुम में बैठ कर और थोडा खाने की टेबिल पर हुई। मौसी खुद तो किसी काम में ब्यस्त नहीं थी प्ररन्तु पूरा दिन नौकरों को काम बताने ,उनसे मन-माफिक काम कराने में लगीं रहतीं।घर की चमचमाती साफ सफाई से ही लग रहा था कि वह साफ-सफाई के प्रति कितनी गंभीर व चिंतित रहती हैं। यह सब देख मेरी मनोदशा ही बदल गई। यहां तो चुपचाप पडे रहना ही बेहतर है। पानी का गिलास ,चाय का कप आदि उठाने से लेकर मुंह लगाने और फिर सम्हाल कर रखने तक बडे सलीके व जिम्मेदारी का निर्वाह करना पड रहा था। 

      एक तो पुलिस वालों का घर फिर तेजतर्रार मौसी जी बस यह समझो कि उस कोठी की दीवालें,छतें,फर्श,आंगन व गार्डन के फूल-पौधे, घास आदि सब सख्त अनुशासन में थे। अगर थोड़ा बहुत अनुशासनहीन कोई था तो वह 'डिबलू' था। 'डिबलू' मौसा मौसी का प्यारा डोगी था।आदतन भोंकना,लिपटना,चिपटना उसका जन्म सिद्ध अधिकार था। मौसी शाकाहारी थी प्ररन्तु डिबलू के लिए हर दूसरे दिन नान वेज दिया जाता था।  

      

     रात बहुत हो गई थी। अर्ध रात्री में मौसा जी की गाड़ी आती है। मौसा जी घर में प्रवेश करते ही अभी उन्होंने अपनी बर्दी उतारी ही थी कि बाहर से सिपाही  हेण्ड सेट लेकर आता है और मौसा जी की बात कराता है। किसी थाने के इंस्पेक्टर का संदेश था । कार और बस में आमने सामने टक्कर में कार सवार सभी चार सवारियों की मृत्यु हो चुकी थी। बस क्या था फिर तो तुरंत उतरी हुई वर्दी मौसा जी के बदन पर आ गई और आनन-फानन में गाडी में बैठ चले गये।

      पुलिस के लिए आकस्मिक दुर्घटनाऐं ही उनकी सेवा काल की परीक्षा होती है। अपनी सरकारी सेवा की जिम्मेदारियों को निभाने मैं अपनी दिन-रात की नींद,आराम व चैन को तिलांजली दे देना, यह सब मेंने आज अपनी आंखों से देखा है। भला ऐसे में किसी को नींद कैसे आ सकती है । मैं पहले ही बिस्तर पर पडे पडे  करवटें ले रहा था । अब नींद भी  गायब हो चुकी थी । मैं अब मेज कुर्सी पर आ धमका था । इस घर में मुझे अनायास मिली बैचेनी व मानसिक उथल पुथल के चलते  कागज व पैन लेकर लिखने लगा था। करीब तीन घंटे बाद प्रात: लगभग 3 बजे मौसा जी आ गये। मौसी ने बाहर ही मौसा जी कोअग्नि छूने को दी और उन पर गंगाजल की छींटें डाली  क्यों कि वह मृतकों के शवों के पास से आये थे। उन्हें सीधे बाथरुम में नहाने भेज दिया था। नहा-धोकर वह अपने कमरे में लेट गये। 

      आज अपने एक दिन के प्रवास में अनुशासन और जिम्मेदारियों के बीच पारिवारिक व धार्मिक परम्परा के निर्वाह ने मुझे झकझोर कर रख दिया।

     मैं इस एक रात में टुकडों में जिया। किसी के लिये सो रहा था। अपने लिये जाग रहा था। मैं पूरी रात जाग कर  यहां ' एक रात की कहानी ' पूरी कर चुका था।

     

 ✍️ धनसिंह  'धनेन्द्र'

   चन्द्र नगर 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी-----गुलाब जल!

 


आठ साल के बेटे मोहित ने अपनी माँ को बताया,अम्मा मेरी दोनों आँखों में हल्का-हल्का सा दर्द रहने लगा है।मुझे कोई चीज साफ साफ दिखायी भी नहीं देती।

    माँ ने जब यह सुना तो वह सन्न रह गई। तुरंत मोहित को अपने पास बुलाकर उसकी दोनों आंखों को गौर से देखा और बोली, बेटा वैसे तो तुम्हारी आंखें साफ दिखाई दे रही हैं। कहीं कोई गांठ-गुहेरी या लालामी नज़र नहीं आ रही है। फिर भी नेत्र चिकित्सक को दिखाना ही अच्छा रहेगा।

    चल चलके डॉ0 सुचक्षु विद्यार्थी को दिखा लेते हैं।शहर के बड़े ही फेमस आई सर्जन हैं।

    बिना समय गंवाए माँ मोहित को लेकर नेत्र विशेषज्ञ

के "अमर ज्योति"नेत्र चिकित्सालय पहुँच गयी। वहां पहुंचकर तुरंत 800/- का पर्चा बनवाकर बारी आने की प्रतीक्षा करने लगी और दोनों आंखें बंद करके माँ भगवती से बेटे के निरोगी होने की प्रार्थना करने लगी।

    तभी कंपाउंडर ने मोहित का नाम पुकारते हुए अंदर आने को कहा। माँ शीघ्र ही डॉक्टर साहब के चेम्बर में पहुंच गई।

  डॉक्टर ने बड़ी ही बारीकी से मोहित की आंखों का परीक्षण किया। और माँ को बताया कि बच्चे की आंखों में ऐसी कोई बड़ी समस्या तो दिखाई नहीं दे रही। फिर भी मैं आँखों मे डालने की और खाने की दवा दे रहा हूँ। एक हफ्ता खिलाकर बताएं। बच्चे के खाने-पीने का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है।

    हरी सब्ज़ियां,मौसमी फलों के साथ-साथ दूध,दही, घी,अंकुरित दालों की मात्रा बढ़ा दें तो अच्छा रहेगा। एक महत्वपूर्ण सलाह यह है कि ज्यादा टी.वी,मोबाइल और पढ़ाई का सही तरीके से न करना भी विशेष रूप से हानिकारक होगा।

    माँ बड़ी तल्लीनता से मोहित के इलाज को अंजाम देती।और उसके खाने-पीने में भी कोई कोताही न करती। रोज़ भगवान के मंदिर जाकर प्रसाद चढ़ाना भी न भूलती।

    कुछ ही दिनों में मोहित बिल्कुल भला चंगा हो गया। अथक प्रयास से वह आयकर अधिकारी बनकर देश सेवा करने लगा। माँ ने बड़े ही चाव से उसका विवाह उसी की पसंद से उसकी सहकर्मी वंदना से करा दिया।

     दोनों साथ-साथ ऑफिस जाते और एक साथ ही घर लौटकर अपने शयन कक्ष में चले जाते। दिन ढले उठने पर सैर-सपाटे को निकाल जाते।

 बेचारी माँ दो बातें करने को भी तरसती रह जाती।

     उनकी व्यस्तता को देखते हुए उनसे अपनी कोई इच्छा भी व्यक्त न कर पाती।

      एक दिन हिम्मत करके मोहित को पास बुलाकर कहा बेटा मेरी आँखों में कई दिन से बड़ी खुजली हो रही है। तेज जलन के साथ आंखों में सूजन भी आ रही है। शायद चश्मे का नंबर ही बदल गया हो। बेटा समय निकालकर किसी डॉक्टर को दिखा दे तो अच्छा रहेगा।

    अच्छा माँ कहकर मोहित  कमरे में चला गया।,,,, माँ कई दिन तक इसी इंतज़ार रही कि आज चले,आज चले। हारकर माँ ने अपनी पुत्र वधू वंदना को बुलाकर डॉक्टर को दिखाने की बात कही।

    वंदना ने बड़े ही रूखे स्वर में कहा ऐसी भी क्या जल्दी है करवा देंगे। आपको कौन सा दफ्तार जाना है। गुलाब जल रखा है उसे दिन में दो,तीन बार डाल लिया करो।

उम्र के साथ आंख,कान,दांत तो कमज़ोर हो ही जाते हैं।

    आपके साथ भी तो उम्र का तकाज़ा है। पचासी साल की उम्र में आंखे नयी तो हो ही नहीं जाएंगी।

    माँ खून का सा घूँट पीकर रह गयी और ऐसे जीने से तो मौत भली कहकर चुपचाप बरांडे में पड़ी कुर्सी पर जाकर बैठ गयी।

   तभी मोहित हाथ में गुलाब जल की शीशी लेकर माँ के पास आया और बोला देखो माँ वंदना तुम्हारा कितना खयाल रखती है। उसने तुम्हारे लिए यह गुलाब जल भेजा है। इसकी एक-एक बून्द दोनों आंखों में डालती रहो यही काफी है तम्हारे लिए।

    माँ ने शीशी हाथ लेते हुए कहा जीते रहो बेटा।

✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

  मोबाइल फोन नंबर  9719275453

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गुरुवार, 23 जून 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी -----------बिन बुलाए मेहमान



   .... "कितनी देर से डोर बेल बज रही है देखते क्यों नहीं कौन आया है?"

     "अरे भटनागर साहब आइए" !

'"भाभी जी बिटिया की शादी है यह रहा कार्ड राही गेस्ट हाउस में आप सभी का बहुत-बहुत आशीर्वाद चाहिए कुछ भी हो जाय समय से आ जाना" !!

      " बिल्कुल भाई साहब बिटिया की शादी हो और हम ना पहुंचे ? भला हो सकता है यह?"

 "अंकल जी नमस्ते!,, खाना खाते हुए ही  विकल ने मुझे नमस्ते की ।

,,नमस्ते बेटा,,,! और कौन-कौन आया है? मैंने भी विकल की नमस्ते का जवाब देते हुए पूछा ।,, अंकल सभी आए हैं मम्मी पापा भैया !!

       ......और बताओ कैसे हो? आपस में बातें करते करते सब लोग खाना खाने लगे वैसे तो सभी जगह शादियों में खाना अच्छा ही होता है परंतु यहां और भी ज्यादा उच्च कोटि के व्यंजन दिखाई पड़ रहे थे सभी लोग रुचि अनुसार भोजन का रसास्वादन कर भोजन कर रहे थे ।

       अंत में आइसक्रीम पार्लर से आइसक्रीम ले खाने को संपूर्णता प्रदान कर सभी पड़ोसी लिफाफा देने के लिए भटनागर साहब को खोजने लगे परन्तु भटनागर साहब का कहीं पता नहीं था।अब महिलाएं श्रीमती भटनागर को ढूंढने लगी परन्तु वह  भी कहीं दिखाई नहीं पड़ीं ।

    ....जहां दोनों पक्ष मिलकर एक ही जगह  भोज का आयोजन करते हैं वहां अक्सर इस प्रकार की समस्या आती ही है ... सामने एक टेबल पर सभी के लिफाफे लिए जा रहे थे सभी लोगों ने अपने लिफाफे वहीं दे दिए  .... 

.....लिफाफे गिनने पर बैठा व्यक्ति एक दूसरे संभ्रांत व्यक्ति के कान में फुसफुसा रहा था 

"कार्ड तो एक हजार ही बांटे थे अब तक ढाई हजार लिफाफे आ चुके हैं !" 

.."सचमुच किसी ने सही कहा है शादियों में कन्याओं का भाग काम करता है ..... वरना भला ऐसा कहीं हुआ है की 1000 कार्ड बांटने पर ढाई हजार से ज्यादा लिफाफे आ जाएं "

....तभी वहीं चीफ कैटर( जिसको कैटरिंग का ठेका दिया था) आया और उन्ही दोनों लोगों से धीरे धीरे परन्तु आक्रोश में कह रहा था

      "यह बात बहुत गलत है  ! साहब जी ! मुझे 12 सौ लोगों का भोजन प्रबंध करने के लिए कहा गया था आपके यहां ढाई हजार से ज्यादा लोग अब तक भोजन कर चुके हैं सारा खाना समाप्त हो गया है अब मेरे बस का प्रबंध करना नहीं है मैंने खुद खूब बढ़ाकर इंतजाम किया था परंतु इतना अंतर थोड़ी होता है 100 -50 आदमी बढ़ जाएं चलता है"

" .... मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है अब..... आप स्वयं जानें..."!

....... रात्रि के 11:00 बज चुके थे घर भी जाना था सब ने अपनी अपनी गाड़ियां निकालीं और घर की ओर चलने लगे.......

.... जब बाहर निकल रहे थे तभी अचानक दूल्हे पर नजर पड़ी दूल्हा गोरा चिट्टा शानदार वेशभूषा में तलवार लगाएं घर वाले भी सभी राजसी पोशाकें पहने जम रहे थे जैसे किसी राजघराने की शादी हो.... सभी लोग आपस में बात करते हुए जा रहे थे "कुछ भी हो भटनागर साहब ने घराना  तो बहुत अच्छा ढूंढा."..... "हां भाई साहब बहुत शानदार शादी हो रही है"!!

   ..... निकलते निकलते मन हुआ द्वार पूजा तो देख लें परन्तु गाड़ियां धीरे धीरे बाहर निकल रहीं थीं..... चलते चलते उड़ती नज़र लड़की के पिता के स्थान पर मौजूद व्यक्ति पर पड़ी तो लगा वह भटनागर साहब नहीं थे.........फिर सोचा हमें कहीं धोखा लगा होगा....

...... परंतु राही होटल से निकलने के बाद कुछ आगे चलकर एक और होटल पड़ा उसका नाम भी राही ही लिखा  हुआ था...... यह देखकर माथा कुछ ठनका सोचते सोचते घर पहुंच गए सभी पड़ोसी लोग  आपस में बातें कर रहे थे कि भटनागर साहब क्यों नहीं मिले ?ऐसा कहीं होता है कि मेहमानों से मिलो ही नहीं ! यह बात किसी को भी अच्छी नहीं लग रही थी.....

........अगले दिन भटनागर साहब गुस्से में सबसे शिकायत कर रहे थे कि "आप लोगों में से कोई भी नहीं पहुंचा.!!!.... भला यह भी कोई बात हुई  सारा खाना बर्बाद हुआ..!!!.... सभी पड़ोसी लोग एक दूसरे का मुंह देख कर मामले को समझने का प्रयत्न कर रहे थे...... आखिर सब लोग किसकी  दावत में शामिल हो गए और व्यवहार के लिफाफे किनको।   थमा कर चले आये......

      ‌.... चौंकने का समय तो अब आया जब अखबार में पढ़ा "राही होटल में शादी में खाना कम पड़ जाने के कारण बरातियों ने हंगामा काटा !! प्लेटें फेंकी .....नाराज़ होकर दूल्हे सहित बरात बिना  शादी किए लौटी !!! ...सभी पड़ोसी स्तब्ध थे.......


✍️ अशोक विद्रोही

 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 11 मई 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ----शक


"कलमुँही, चुड़ैल!खून पी के रख लिया है,इसने मेरा। रोज़ एक नया यार बुला कर बैठा लेती है घर में।मेरे बेटे की छाती पर मूंँग दलने को ही ब्याह कर ला गयी मैं इसे।पत्थर पड़ गये थे मेरी मति पर उस समय।सिर्फ सूरत दिखाई दी,सीरत न देखी।हे भगवान! क्या-क्या नीच हरकतें देखनी होंगी इस औरत की मुझे।कीड़े पड़े इसको,सड़ सड़ कर मरे।"

रितु की बूढ़ी दादी आँगन में बैठकर उस की मम्मी को कोस रही थी।लेकिन मम्मी ने तो उसके ट्यूशन की बात करने के लिए प्रभात सर को आज घर पर बुलाया है।घर के ऐसे सारे काम मम्मी को ही करने पड़ते हैं,क्योंकि डैडी तो पुलिस में हैं और दूसरे जिले में तैनात हैं।

     रितु को अपनी दादी पर गुस्सा आ रहा था।'दादी भी न,किसी की परवाह नहीं करती।कभी भी कुछ भी बोलती रहती है।क्या सोचेंगे प्रभात सर?' रितु मन में सोच रही थी।

     'लेकिन मम्मी कितनी कूल हैं।कितने सहज होकर प्रभात सर को कह रही हैं,"असुविधा के लिए माफी चाहते हैं,सर।रितु की दादी की तबियत ठीक नहीं है।इसलिए वह ऊल-जलूल बड़बड़ाती रहती हैं।आप नजरंदाज कीजिएगा।" प्रभात सर ने चेहरे पर मुस्कान के साथ उत्तर दिया,"कोई बात नहीं मैं समझ सकता हूँ।" और मम्मी भी मुस्कुरा दीं।तभी मम्मी ने रितु को प्रभात सर के लिए चाय बना कर लाने को कहा।

      रितु सीढ़ियों से उतर कर आँगन से होते हुए रसोई की ओर चाय बनाने के लिए जा रही थी कि दादी ने इशारे से उसे रोका।"और कोई भी साथ में हैं क्या उस मुए मास्टर के ?" "नहीं,पर इससे क्या फर्क पड़ता है दादी।मेरे ट्यूशन की बात करने आये हैं सर।आप हमेशा ग़लत ही क्यों सोचती हो,दादी?" "हाँ,हाँ,मैं तो गलत ही लगूँगी तुझे।अपनी मांँ की चमची है तू भी।अरे ये सोच जब भी कोई अकेला जवान मर्द घर में आता है,तेरी मांँ तुझे चाय बनाने नीचे क्यों भेज देती है।फिर उस आदमी का आना जाना घर में इतना क्यों बढ़ जाता है?पिछली बार बल्ली आया था,अपने घर से ज्यादा हमारे घर के काम करता है।न समय देखता है न पैसे।आखिर तेरी माँ के पास ऐसी क्या घुट्टी है कि सारे मर्द गुलाम बन जाते हैं उसके।जिस दिन इस पर गौर करेगी,दादी गलत न लगेगी।" "बस चुप करो,दादी।कुछ भी बोलते हो आप।मेरा दिमाग मत खराब करो।"कहकर रितु रसोई में चली गयी।

     गैस चूल्हे पर चाय खौल रही थी और रितु के दिमाग में दादी की बातें।रितु किशोरावस्था की दहलीज पर थी।दादी की बातों के बीज ने दिमाग में शक की जड़ पकड़ ली थी।वह सोचने लगी।"क्या पता दादी सच कहती हों।जब भी कोई पुरुष मेहमान आता है,मम्मी मुझे चाय बनाने नीचे भेज देती हैं यह बात तो सही है और उसके बाद की बातें भी काफी हद तक सच ही हैं।मुझे सच का पता लगाना ही चाहिए।" रितु ने चूल्हे की आंच मंद की और दबे पाँव पिछले दरवाजे से बैठक की खिड़की के नीचे जाकर दीवार से कान सटाकर कमरे में हो रही बातचीत सुनने की कोशिश करने लगी।उसकी मम्मी प्रभात सर की किसी बात पर खिला-खिला कर हँस रही थी,फिर अचानक उसे दोनों के ही स्वर मद्धम होते लगे।लेकिन इन मद्धम स्वरों ने रितु के दिल की धड़कनें बढ़ा दी थी।उसके दिमाग में चलचित्र की तरह उसकी दादी की गढ़ी हुई कहानियाँ चलने लगी थी।कल्पना उस भयावह चित्र को उसे दिखा रही थी कि जिसे देखकर रितु पसीना पसीना हो चुकी थी।

     तभी मम्मी ने बैठक से उसे चाय की बाबत आवाज दी।रितु घबराहट में तुरन्त वहाँ से लौट कर किचन में आ गयी।थोड़ी देर दीवार के सहारे खड़ी रहकर उसने खुद को इस बड़ी गलती के लिए मन ही मन फटकारा कि दादी की दी हुई शक की ऐनक पहनकर वह क्या-क्या देखने लगी थी।चूल्हे पर चढ़ी चाय सूखकर आधी हो गयी थी,फटाफट उसमें थोड़ा पानी और दूध मिलाकर रितु ने चाय की मात्रा को बढ़ाया।तौलिये से पसीना पोंछकर खुद को संयत करते हुए रितु ने ट्रे में चाय और नाश्ता लगाया और बैठक में ले चली।मेज पर चाय रख कर रितु एक ओर कुर्सी पर बैठ गयी।मम्मी ने ट्रे से चाय का कप उठाकर प्रभात सर को चाय देते हुए पूछा, "तो फिर आप कल से आ रहे रितु को पढ़ाने" प्रभात सर ने कप पकड़ते हुए मुस्कुरा कर जवाब दिया,"जी,बिल्कुल।" "क्यों रितु तैयार हो न क्लास टॉपर बनने के लिए...." रितु ने "जी,सर" कहते हुए प्रभात सर की ओर देखा।प्रभात सर तिरछी नज़र से मम्मी को देख रहे थे और मम्मी मंद मंद मुस्कुरा रही थीं।शक या सच.... रितु के दिमाग में विचार पेण्डुलम की तरह डोल रहे थे।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 6 अप्रैल 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ---छोटी सी आशा.......


"सुनो ! कल कमल को छुट्टी कह दूँ क्या"

"नहीं,बुला लो।"

"अरे छोड़ो न, एक दिन रेस्ट कर लेगा।"

"उसने कौनसा पहाड़ खोदना है?आराम ही तो है,बैठ कर गाड़ी ही तो चलानी है।"

"फिर भी, मुझे ठीक नहीं लग रहा कल बुलाना।कल मुझे कॉलेज जाना नहीं है और हम सब लोग मूवी देखने जा रहै हैं।वहाँ के लिए तो आप ही ड्राइव कर लोगे।"

"जब मैं कह रहा हूँ तो कह रहा हूँ।बस तू कह दे उसे।भले ही कल 2 बजे बुला ले क्योंकि तीन बजे का शो है" 

"ठीक है..." रमा ने बेमन से कहा।उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि वह नये साल के दिन खुद तो परिवार के साथ एंजॉय करे और अपने ड्राइवर को बेवजह थोड़ी दूरी की ड्राइव करने के लिए भी बुला ले।उसने सोचा था कि वह कमल को कल की छुट्टी देकर उसे नये साल का जश्न मनाने को कहेगी तो उस गरीब के चेहरे पर भी एक छोटी सी मुस्कान आ जायेगी।

     'हम बड़ी चीजें न कर सकें पर अपने स्तर की छोटी छोटी खुशियां तो बाँट ही सकते हैं' रमा ने मन में बुदबदाया।उसे राघव पर झुंझलाहट आ रही थी,पर अपने पति की बात भी वह नहीं टाल सकती थी।

     कमल गैराज में गाड़ी पार्क कर चुका था और अंदर लॉबी में की-स्टेंड पर गाड़ी की चाभी टाँगने आया था।उसने रोज की तरह रमा से पूछा,

     "मैंने गाड़ी पार्क कर दी है,मैम।अब मैं जाऊँ....?और वो ...कल की तो छुट्टी रहेगी न मैम।आप कह रहे थे न कि कल कॉलेज नहीं जाना है।"

     "हाँ,कल कॉलेज तो नहीं जाना है पर सर बुला रहे हैं कल किसी काम से।तुम कल दो बजे आ जाना।" रमा ने सेन्टर टेबल पर फैली पड़ी मैग्जीन्स समेटने का उपक्रम करते हुए कहा।वह असहज महसूस कर रही थी क्योंकि उसने जो सोचा था वह हो नहीं पाया था।उसने चोर निगाह से कमल की ओर देखा।

     "ठीक है,मैम" कहकर कमल रोज की तरह गम्भीरता ओढ़े गर्दन झुका कर मेन गेट के पास खड़ी अपनी टीवीएस तरफ बढ़ गया।रमा के सिर पर उस उदास चेहरे का बोझ चढ़ गया था,वह जाकर अपने कमरे में लेट गयी।

        अगले दिन ठीक दो बजे कमल अपनी ड्यूटी पर था।

        "नमस्ते मैम,नमस्ते सर।आपको नये साल की बहुत बहुत मुबारकबाद।"

        "नमस्ते कमल,तुमको भी नया साल मुबारक।" राघव ने गर्मजोशी से कहा।

        रमा ने फीकी मुस्कान फैंकी।उसे राघव का कमल को छुट्टी के दिन भी काम पर बुलाना गलत लग रहा था।हालांकि महीने में चार-पाँच छुट्टियाँ कमल को आराम से मिल जाती थी क्योंकि सन्डे को तो रमा कॉलेज नहीं जाती थी।पर आज नया साल था और यही बात उसे खटक रही थी।

        रमा के दो बेटे थे जो युवा कमल से कुछ ही वर्ष छोटे किशोर वय के थे।वे दोनों भी तैयार होकर बाहर आ गये थे।कमल ने गैराज से गाड़ी बाहर निकाली और उसे साफ किया।राघव ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठा और रमा दोनों बेटों सहित पीछे की सीट पर।

        गाड़ी शहर के सबसे शानदार मॉल कम मल्टीप्लेक्स के मेन गेट पर पहुँच चुकी थी।

        कार पार्किंग में ले जाने से पहले कमल ने मालिक के परिवार को कार से उतारते हुए मालिक से पूछा," सर,कितनी देर की मूवी है?मैं सोच रहा था कार पार्क कर के मैं भी थोड़ी देर पास में ही अपने रिश्तेदार के घर हो आता।जब मूवी ख़त्म हो आप मुझे कॉल कर देना,मैं तुरन्त आ जाऊँगा।"

        "नहीं,तुम कहीं नहीं जाओगे।कार पार्क कर के सीधे यहाँ आओ।"

        कमल चुपचाप कार पार्किंग की ओर बढ़ गया।अब तो रमा को बहुत ही गुस्सा आया पर सार्वजनिक स्थान पर और वह भी जवान बेटों के सामने वह अपने पति से क्या कहे।उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर राघव ऐसा क्यों कर रहे हैं?राघव ने मुस्कुराकर रमा की ओर देखा लेकिन उसने गुस्से से मुंह फेर लिया।

        थोड़ी देर में कमल कार पार्क कर के लौटा तो राघव ने उसके कन्धे पर हाथ रखा और पूछा, "मूवी वगैरह देख लेते हो या नहीं।आज तुम्हें हमारे साथ मूवी देखना है,ठीक है।" कमल का चेहरा कमल की तरह खिल गया।रमा के दोनों बेटे भी पापा को देखकर मुस्कुराने लगे और रमा.... वह तो हक्की बक्की रह गयी थी।राघव ने प्यार से जब रमा की तरफ देखा तो वह मुस्कुरा उठी।रमा के बेटों ने कमल का हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ आगे बढ़ाया तो राघव ने रमा का हाथ पकड़ा।पाँच टिकट ऑनलाइन बुक कराये गये थे,थ्री डी मूवी थी जो रेटिंग्स में धूम मचाये हुए थी।ढाई घण्टे की मूवी देखकर हंसते खिलखिलाते सब हॉल से बाहर निकले।

        राघव पिज्जा कॉर्नर की तरफ बढ़ा और सबके लिए पिज्जा आर्डर किया।कमल के चेहरे पर संकोच मिश्रित प्रसन्नता के भाव थे।पाँच जगह पिज्जा सर्व  हुए।सबने खाना शुरू किया।लेकिन ये क्या कमल की आँखों में आंसू थे।राघव ने मज़ाक करते हुए पूछा,"क्या बात मूवी अच्छी नहीं लगी, कमल।"

"नहीं,सर नहीं,ऐसी बात नहीं है।बहुत अच्छी मूवी थी।पर.... मैंने अपने जीवन में आज तक कभी मल्टीप्लेक्स में मूवी नहीं देखी और थ्री डी मूवी भी पहली बार देखी।एक बात बताऊं ,सर।दो साल पहले मैंने इस पिज्जा कॉर्नर पर काम किया है।लेकिन मैंने कभी पिज्जा नहीं खाया।मैं बता नहीं सकता कि मैं आज कितना खुश हूँ।आप सचमुच बहुत बड़े दिल वाले हैं।वरना एक ड्राइवर को अपने साथ कौन बैठाता है,एक ड्राइवर के लिए इतना कौन सोचता है?" राघव ने कमल को गले से लगा लिया।

       रमा खुद पर शर्मिन्दा थी कि वह अपने ही पति की भलमनसाहत को आखिर क्यों नहीं पहचान पायी।पर उसे हल्का गुस्सा भी आया कि आखिर राघव ने उसे ये सब पहले क्यों नहीं बताया।? पर अगले ही पल उसने मन ही मन ढेर सारा प्यार राघव पर उड़ेला।दोनों बेटे बहुत खुश थे कि वे अपने व्यस्ततम माता पिता के साथ नये साल पर मूवी देखने आए।लौटते समय गाड़ी में बैठी सवारियों के भाव बिल्कुल बदले हुए थे।इस नये साल पर सबकी छोटी छोटी आशाएं जो पूरी हुई थीं।

 ✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 8 मार्च 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ मीना नकवी की लघु कहानी ---मां । यह उन्होंने वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' की ओर से बुधवार 6 मार्च 2019 को आयोजित लघुकथा/कहानी गोष्ठी में प्रस्तुत की थी ।


 "साहब मुझे दो सौ रूपये दे दीजिये"...

उसने बड़े दबे दबे स्वर मे कहा।

              मैने लैपटाप में काम करते हुये उसको दृष्टि उठा कर देखा। 

              हमारे घर मे काम करते हुये आठ महीने हो चुके थे।.आठ माह पहले जब वह मेरे घर काम माँगने आई थी।दीन हीन सी लगभग  पचास पचपन  की आयु । देखने मे शरीफ़ सी लगने वाली औरत। 

मैं और मेरी पत्नी दोनो नौकरी करते हैं । आठ वर्ष का एक बेटा भी है। 

         "क्यों काम करना चाहती हो ?  तुम्हारे घर कोई नहीं है क्या ? "

           मैने इन्क्वायरी सैट अप की।  मेरे पूछते ही वह उबल पड़ी ....." है एक नालायक बेटा । ईश्वर मुझे बे औलाद ही रखता तो अच्छा था। उसी के कारण तो मेरा ये हाल हुआ है । नासपीटा मर जाये तो अच्छा। "

वह फ़फ़क के रो पड़ी। फ़िर कुछ संभलते हुये बोली.....

......"मेरा एक कमरे और एक बरामदे का  घर है इस बेटे कमबख़्त की शादी की ,तो कमरा छोड़ कर बरामदे मे आ गयी। बेटा बहू मुझे रोज़ प्रताड़ित करते हैं और  वृद्धाश्रम जाने की बात करते हैं। आज तो हद हो गयी जब मेरी बेटे की पत्नी ने मुझे घर से निकल जाने को कहा और मेरी जवान मरा बेटा खड़ा देखता रहा और सुनता रहा। "

            "मैने घर छोड़ दिया और अब मै कभी उस घर नहीं जाऊँगी।" ये कह कर वह अपने बेटे को दामन फैला कर कोसने लगी। 

            .....हमें भी एक काम वाली की तलाश थी । मेरी पत्नी को भी वह ठीक सी लगी सो हमने उसे काम पर रख लिया।घर का छोटा कमरा उसे दे दिया। वह वास्तव मे अच्छी औरत निकली और उसने घर के काम काज के साथ मेरे बेटे मुदित को भी संभाल लिया । मैं और मेरी पत्नी घर की ओर से लगभग चिन्ता मुक्त हो गये । वह बहुत कम बोलती थी परन्तु वह जब भी बोलती अपने बेटे को कोसने से बाज़ न आती।

........एक महीना काम करते हुये बीता तो मैने उसे पगार देनी चाही तो उसने इन्कार कर दिया। 

...."क्या करूँगी पैसे का? आप  मेरा सारा ख़्याल रखते  तो हैं।"

       मैने उसके पैसै अलग जमा कर दिये।सोच लिया जब चाहेगी ..ले लेगी।

.......और  आज वह मुझ से दो सौ रूपये माँग रही थी। मैने सर उठा के पूछा.....राधा...!!! क्या करोगी पैसों का? "

            "साहब एक दरगाह पर मनौती का चढ़ावा चढ़ाना है हर साल  चढ़ाती हूँ "

......अरे...!!!  एेसी क्या मन्नत मान ली राधा जी? "...मैने  पर्स से पैसे निकालते हुये मज़ाक़ में पूछा। 

....अरे साहब जी क्या बताऊँ उसी अभागे बेटे के लिये मन्नत माँगी थी। हर वर्ष उसकी सलामती के लिये मन्नत का चढ़ावा चढ़ाती हूँ। कहते कहते उसकी आवाज़ भर्रा  गयी

              "भगवान न करे,  कहीं सचमुच बुरा हो गया तो........!!!!!"

........और मैं नि:शब्द .. माँ की ममता के आगे नतमस्तक हो गया

     ✍️ डॉ मीना नक़वी

शनिवार, 27 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघु कहानी----- चाय वाली अम्मा!


भीड़-भाड़ वाली सड़क के किनारे छोटे से खोखे में बूढ़ी अम्मा चाय बनाने में इतनी व्यस्त रहती की उसे नहाने खाने का समय भी मुश्किल से मिलता।

   चाय के साथ-साथ मीठे-नमकीन बिस्कुट,फैन, रस्क,और दालमोठ इत्यादि को सुंदर शीशों के जार में बड़े करीने से सजाकर रखती।

   सभी ग्राहकों से बड़े प्यार से बातें करती और खुशी -खुशी चाय बनाकर पिलाती,तथा उनकी पसंद के बिस्कुट आदि देना नहीं भी भूलती। सभी लोग उसे चाय वाली अम्मा कहकर बुलाते। और बड़ी ईमानदारी से उसके पैसे भी चुकता करते।

    एक दिन एक छोटा बच्चा, जिसके जिस्म पर सही से कपड़े भी नहीं थे। उसने पैरों में भी चप्पल नहीं पहन रखे थे। उसने अम्मा के पास आकर जार में रखे बिस्कुट का दाम पूछा। तो माँ में बताया एक रुपए में दो मिलेंगे  बोल कितने दूँ। बच्चा कुछ नहीं बोला और उदास होकर  वापस चला गया।

     दूसरे दिन वही बच्चा फिर आया और दूर खड़ा होकर चाय पीने वालों को चाय में डुबो-डुबोकर बिस्कुट खाते देखकर बड़े ललचाए भाव से  उनके बिस्कुट खाने की गति को निहारते हुए, मन ही मन बिस्कुट की मिठास का वास्तविक आनंद अनुभव  करता रहा। और सोचता रहा किसी का कोई बिस्कुट टूटकर ज़मीन पर गिर जाए तो अच्छा हो। मैं बाद में उसे उठाकर खा लूँगा।

     भाग्यवश एक ग्राहक का आधा बिस्कुट टूटकर नीचे गिर गया। बच्चा यह देखकर बड़ा खुश हुआ। परंतु अगले ही पल उसकी खुशी का अंत एक देसी कुत्ते ने उसे खाकर कर दिया। बच्चे का मन अंदर तक टूट गया। 

    तभी चाय वाली अम्मा ने चाय बनाते-बनाते, उस बच्चे को दूर खड़ा देखकर अपने पास बुलाया। उसे देखते ही समझ गई कि, यह तो वही बच्चा है जो कल आकर बिस्कुट के पैसे पूछ रहा था।

     अम्मा बोली बेटा तू बड़ी देर से इस तरह चुपचाप क्यों खड़ा है। क्या चाहिए तुझे बता।,,,,,बच्चे ने डरते-डरते बिस्कुट से भरे जार की तरफ उंगली उठाते हुए बिस्कुट पाने की इच्छा मौन संकेतों में बता दी।

    माँ तो माँ ही होती है वह चाहे मेरी हो या किसी और की।,, उसने उसका नाम पूछा, तो बच्चे ने बताया मोहन है मेरा नाम। अम्मा ने पुनः प्रश्न किया तुम्हारे माता-पिता कहाँ हैं। तब बच्चे ने सुबुकते हुए बताया मेरे माता-पिता अब नहीं हैं। उन्हें सड़क पर चलते समय तेज़ गति से आते एक ट्रक ने कुचलकर मार दिया। अब तो मैं और मेरी छोटी बहन छुटकी सामने वाली उस पुलिया के नींचे रहते हैं।

    यह सुनते ही अम्मा का दिल भर आया। वह बोली ईश्वर ऐसा किसी के साथ मत करना। अम्मा ने बच्चे को पुचकारते हुए चाय बिस्कुट खिलाए। और उसकी छोटी बहन को बुलाकर लाने के लिए कहा।

      मोहन थोड़ी देर बाद अपनी छोटी बहन  को बुलाकर माँ के सामने ले आया। अम्मा ने छुटकी को देखा और बोली अरे,,,, यह तो बड़ी सुंदर है। भूखी-प्यासी फटे कपड़ीं में भी कितनी खुश लग रही है। क्या करे हालात की सताई है बेचारी।

     अम्मा ने चुटकी से पूछा बिस्कुट खाओगी बिटिया, उसने झट से हाँ कर दी। अम्मा ने बड़े प्यार से उसे बिस्कुट,नमकीन खाने को दिए। फिर उसको अपने हाथों से नहला-धुलाकर साफ कपड़े पहनने को दिए और कहा। तुम दोनों बहन-भाई आज से मेरे साथ रहकर, मेरे काम में हाथ बंटाया करो। पास में ही एक स्कूल है वहां जाकर पढ़ाई भी किया करो।

    दोनों बच्चे हंसी-खुशी अम्मा के काम में हाथ बंटाते। और समय से स्कूल भी जाते।

    अम्मा बड़ी व्याकुलता से उनके स्कूल से लौटने की राह देखती। बच्चे भी आकर अम्मा को प्रणाम करते और सबसे कहते देखा,, कितनी अच्छी है हमारी चाय वाली अम्मा।

✍️  वीरेन्द्र सिंह "बृजवासी", मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453

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सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

सड़क : चार दृश्य । मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा ---- बगुलाभगत, श्रीकृष्ण शुक्ल की कहानी--ईमानदार का तोड़, राजीव प्रखर की लघुकथा-- दर्द और अखिलेश वर्मा की लघुकथा---वो तो सब बेईमान हैं

 


बगुलाभगत

      इंजीनियर ने ठेकेदार से क्रोध जताते हुए कहा ," क्या ऐसी सड़क बनती है जो एक बरसात में उधड़ गई, तुम्हारा कोई भी बिल पास नहीं होगा।" बड़े साहब मुझ पर गरम हो रहे थे उन्हें क्या जवाब दूंगा ? ठेकेदार बोला ," सर आप मेरी भी सुनेंगे या अपनी ही कहे जाएंगे।" बोलो क्या कहना है।" इंजीनियर ने कहा।

      " सर 40%में ,मैं रबड़  की सड़क तो बना नहीं सकता,ठेकेदार ने कहा ,फिर आपकी भी तो उसमें ---------? अब क्या था इंजीनियर का चेहरा देखने लायक था -------। 

✍️ अशोक विश्नोई

मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

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ईमानदार का तोड़

क्या मैं अंदर आ सकता हूँ, आवाज सुनते ही सुरेश कुमार ने गरदन उठाकर देखा, दरवाजे पर एक अधेड़ किंतु आकर्षक व्यक्ति खड़े थे,  हाँ हाँ आइए, वह बोले!

सर मेरा नाम श्याम बाबू है, मेरा सड़क के निर्माण की लागत का चैक आपके पास रुका हुआ है!

अच्छा तो वो सड़क आपने बनाई है, लेकिन उसमें तो आपने बहुत घटिया सामग्री लगाई है, मानक के अनुसार काम नहीं किया है, सुरेश कुमार बोले!

कोई बात नहीं साहब, हम कहीं भागे थोड़े ही जा रहे हैं, पच्चीस साल से आपके विभाग की ठेकेदारी कर रहे हैं, जो कमी आयेगी दूर कर देंगे, आप हमारा भुगतान पास कर दो, हम सेवा में कोई कमी नहीं रखेंगे!

आप गलत समझ रहे हो श्याम बाबू, पहले काम गुणवत्ता के अनुसार पूरा करो,तभी भुगतान होगा, कहते हुए सुरेश उठ गये और विभाग का चक्कर लगाने निकल गये!

श्याम बाबू चुपचाप वापस आ गये!

पत्नी ने पानी का ग्लास देते हुए पूछा: बड़े सुस्त हो, क्या हो गया तो बोल पड़े एक ईमानदार आदमी ने सारा सिस्टम बिगाड़ दिया है, कोई भी काम हो ही नहीं पा रहा है, सबके भुगतान रुके पड़े हैं, बड़ा अजीब आदमी है!

खैर इसकी भी कोई तोड़ तो निकलेगी!

कुछ ही दिनों बाद लेडीज क्लब का उत्सव था, श्याम बाबू की पत्नी उसकी अध्यक्ष थीं, श्याम बाबू के मन में तुरंत विचार कौंधा और बोले: सुनो इस बार नये अधिकारी सुरेश बाबू की पत्नी सुरेखा को मुख्य अतिथि बना दो और सम्मानित कर दो!

कार्यक्रम के दिन पूर्व योजनानुसार सुरेखा को मुख्य अतिथि बनाया गया, सम्मानित किया गया, उन्हें अत्यंत कीमती शाल ओढ़ाया गया और एक बड़ा सा गिफ्ट पैक भी दिया गया!

कार्यक्रम के बाद श्याम बाबू की पत्नी पूछ बैठी: आप तो बहुत बड़ा गिफ्ट पैक ले आये, क्या था उसमें!

कुछ ज्यादा नहीं, बस एक चार तोले की सोने की चेन,शानदार बनारसी साड़ी और कन्नौज के इत्र की शीशी थी, श्याम बाबू बोले!

इतना सब कुछ क्यों, 

कुछ नहीं, ये ईमानदार लोगों को हैंडिल करने का तरीका है!

कहना न होगा, अगले ही दिन श्यामबाबू का भुगतान हो गया!

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,

MMIG - 69, रामगंगा विहार,

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

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दर्द

"साहब ! हमारे इलाके की सड़कें बहुत खराब हैं। रोज़ कोई न कोई चोट खाता रहता है। ठीक करा दो साहब, बड़ी मेहरबानी होगी.......",  पास की झोपड़पट्टी में रहने वाला भीखू नेताजी के सामने गिड़गिड़ाया।

"अरे हटो यहाँ से। आ जाते हैं रोज़ उल्टी-सीधी शिकायतें लेकर। सड़कें ठीक ही होंगी। उनमें अच्छा मेटेरियल लगाया है......."। भीखू को बुरी तरह  डपटने के बाद सड़क पर आगे बढ़ चुके नेताजी को पता ही न चला कब उनका पाँव एक गड्डे में फँसकर उन्हें बुरी तरह चोटिल कर गया।

"उफ़ ! ये कमबख्त सड़कें बहुत जान लेवा हैं......", दर्द से बिलबिलाते हुए नेताजी अब सम्बंधित विभाग को फ़ोन मिलाते हुए हड़का रहे थे।

✍️ राजीव 'प्रखर'

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

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वो तो सब बेईमान हैं 

" अरे वाह चौधरी ! मुबारक हो आज तो तुम्हारे गाँव की सड़क बन गई है .. अब सरपट गाड़ी दौड़ेगी । " भीखन ने  खूँटा गाड़ते चौधरी को देखते हुए कहा ।

" पर यह क्या कर रहे हो , खूँटा सड़क से सटा कर क्यों लगा रहे हो । " वो फिर बोला ।

" सड़क किनारे की पटरी चौड़ी हो गई है ना .. तो कल से भैंसे यही बाँधूँगा .. अंदर नहलाता हूँ तो बहुत कीच हो जाती है घर में .. I " चौधरी बेफिक्र होकर बोला ।

" पर पानी तो सड़क खराब कर देगा चौधरी " भीखू बोला ।

" मुझे क्या । ठीक कराएँगे विभाग वाले , सब डकार जाते हैं वरना । " हँसकर चौधरी बोला ।

भीखू आगे बढ़ा ही था कि देखा रामदीन ट्रेक्टर से खेत जोत रहा था .. वो असमंजस से बोला , " अरे रामदीन भाई ! यह क्या कर रहे हो . तुमने तो अपने खेत के साथ साथ सड़क के किनारे की पटरी तक जोत डाली .. बिना पटरी के तो सड़क कट जाएगी । "

रामदीन जोर से हँसा और बोला , " अरे बाबा , यह फसल अच्छी हो जाए फिर से मिट्टी लगा दूँगा । और रही बात सड़क कटने की तो फिर से ठीक करेगा ठेकेदार .. उसकी दो साल की गारंटी होती है ... और विभाग वाले .. हा हा हा ! वो तो सब बेईमान हैं ।"

✍️ अखिलेश वर्मा

   मुरादाबाद

   उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 6 अक्तूबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष राजेन्द्र मोहन शर्मा श्रृंग की चार अप्रकाशित कहानियां । ये कहानियां हमें हिन्दी साहित्य संगम के अध्यक्ष रामदत्त द्विवेदी द्वारा उपलब्ध कराई गई स्मृतिशेष श्रृंग जी की डायरी से मिली हैं ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िये चारों कहानियां

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::::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 15 सितंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ----धरती का स्वर्ग


        डल झील में शिकारे की सैर सचमुच एक आलौकिक आनंद का अनुभव कराती है दूर-दूर तक फैली हुई झील ...पानी में तैरते हुए अनेकों शिकारे ...झील में ही तैरती हुई अनेक दुकानें, कुछ फूलों से लगी हुई नावें और दूर-दूर बड़े ही भव्य दिखाई देने वाले पानी की सतह पर तैरते हुए हाउसबोट जैसे वास्तव में धरती पर स्वर्ग उतर आया हो... राहुल का परिवार दो शिकारों में

सैर कर रहा था एक में राहुल उसकी पत्नी  अनीताऔर पौत्र यश, दूसरे में भूमिका पीयूष उसके बेटी , दामाद और... उनके बच्चे ऋषि,अपाला ! यह पल बड़े अनमोल और अविस्मरणीय थे ।

झील के बीच में टापू पर पार्क की भी सैर की  ... नियत समय पर वापस आकर शिकारे फिर से पकड़ लिये ..... जब ड्राई फ्रूट्स की दुकान वाली नाव पास से गुजरी उससे अखरोट बादाम पिस्ता की खरीदारी की गई ।

..... अब निश्चय किया गया कि रात किसी हाउसवोट में गुजारी जाए ....!  हाउसवोट में नहीं ठहरे तो   कश्मीर घूमने का क्या आनंद...? शानदार हाउसबोट किराए पर लिया और अलग-अलग कमरों में चले गए हाउसबोट पर सभी कुछ था 3 बैडरूम ,एक ड्राइंग रूम, किचन, बालकनी , लेट्रिन बाथरूम अटैच, थोड़ी देर में सभी के लिए कॉफी आई फिर खाना खाया फिर सब मिलकर बातें करने लगे......

    ....सोने के लिए जाने ही वाले थे कि अचानक गोली चलने की आवाज आई...!! सभी लोग डर गए .....यह तो ध्यान ही नहीं रहा था!! यहां आए दिन आतंकवादी गतिविधियां होती रहती हैं...! "अब रात के 12:00 बजे भागकर भी कहां जा सकते हैं.."....हाउसबोट जहां पर खड़ा था वहां 80 फीट गहरा पानी था और चारों ओर पानी ही पानी.... पर्यटकों की यह टोली बुरी तरह आतंकित और घबराई हुई थी ....हाउसवोट में जो सर्विस स्टाफ था उन्होंने आश्वस्त किया "डरने की कोई बात नहीं....! यहां पर यह सब होता रहता है!! परंतु पर्यटकों को कोई कुछ नहीं कहता.... क्योंकि उन्हीं से यहां वालों की  रोजी-रोटी चलती है....!!!!"" यह सुनकर भी राहुल और पीयूष का मन नहीं माना.... भूमिका और अनीता दोनों ही बहुत ज्यादा डर गई थी तीनों बच्चे सहम गए थे.....!!इसलिए सोने के लिए कमरों में जाने के बाद भी किसी को नींद नहीं आई ....!! हर आहट पर डरावने ख्याल डरा रहे थे ...... बाहर झील पर चांदनी तो बिखरी ही थी...... बिल्डिंग और हाउस फोटो की लाइटिंग भी जल में प्रतिबिंबित होकर अद्भुत दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं....... निश्चय ही यह यात्रा इन लोगों के लिए रहस्य ,रोमांच और आतंक कि भावों को समेटे हुए थी !! जहां आने वाले हर पल मैं अनहोनी आशंकाओं का भय व्याप्त था ...!!   

        सुबह होते ही इन लोगों ने हाउसबोट छोड़ दिया  आज पहाड़ी पर शंकराचार्य के मंदिर जाना था  बिना समय गंवाए यह लोग एक गाड़ी बुक कर शंकराचार्य मठ शिवजी के मंदिर पहुंचेऔर फिर शुरू हुई 85 सीढ़ियों की दुर्गम चढ़ाई ....अच्छी खासी भीड़ थी वहां पर शिव जी के भक्तों की ...इन्होंने भी दर्शन किए परंतु दिल को चैन नहीं था ....बहुत प्रयास करने के बाद बहुत घूम-घूम कर ढूंढने पर एक सरदार जी का ढाबा मिला जिसमें खाना खाया .... अब और रुकने का मन नहीं था परंतु तत्काल लौट पाना भी संभव नहीं था आज सारे रास्ते बंद थे.... नेहरू टनल पर आतंकवादियों ने मिलिट्री के कुछ ऑफिसर की हत्या कर दी थी ....पूरे शहर में कर्फ्यू जैसी स्थिति हो गई थी !!

कहने को श्रीनगर बहुत सुंदर है ... परंतु आतंकवादियों ने इस स्वर्ग को नर्क में बदल दिया था ....इन लोगों ने तब गुलमर्ग की राह पकड़ी पहले टैक्सी फिर काफी रास्ता घुड़सवारी से तय किया वहां स्नोफॉल होने लगा नजारे बहुत खूबसूरत थे....

परंतु दिल तो श्रीनगर की घटना से दहल रहा था ..... सड़क मार्ग बिल्कुल बंद कर दिया गया था..... अब एक ही रास्ता बचा था कि दिल्ली के लिए फ्लाइट  पकड़ें कड़ी मशक्कत और कोशिशों के बाद अगले दिन की फ्लाइट मिली बीच में एक रात अभी बाकी थी.... ! इन्हे चिंता हो रही थी किस होटल में रात गुजारी जाए क्योंकि श्रीनगर में  एक भी हिंदू होटल नहीं.. ... जहां सुकून मिल सके !! 

.....कश्मीरी पंडितों के साथ जो कुछ हुआ वह दिल दहला देने वाला था ही  दहशत के मारे इन लोगों का बुरा हाल था फिर भी रात तो  गुजारनी ही थी एक अच्छा सा होटल देखकर दो कमरे लिए गए और यह लोग एक मुस्लिम होटल में स्टे को विवश हो गए

रात में फिर से गोलियां चलने की आवाज आती रही वैसे भी श्रीनगर में सड़कों पर जगह-जगह मिलिट्री की पोस्टें बनी हुईं थीं जैसे कि युद्ध का मोर्चा लेने के लिए बनाई गईं हों.... शहर में कर्फ्यू जैसी स्थिति थी राहुल और पीयूष एक टैक्सी लेकर परिवार के साथ समय से पहले ही हवाई अड्डे निकल गए और काफी समय उनको एयरपोर्ट पर फ्लाइट की प्रतीक्षा  करनी पड़ी!!

    अंततः हवाई जहाज ने इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर लैंड किया ...... सभी को लगा जैसे अपने स्वर्ग में लौट आयें हों ..!!

   राहुल ने चैन की सांस लेते हुए कहा  हमारा असली स्वर्ग तो वास्तव में कश्मीर नहीं ......यही है !!!

✍️ अशोक विद्रोही

412, प्रकाश नगर, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेन्द्र सिंह बृजवासी की लघु कहानी---- घर का न घाट का!


 लाला रामगुलाम मोहल्ले के संभ्रांत नागरिक होने के साथ-साथ जाने-माने आभूषण विक्रेता भी थे। पूरे शहर में उनके मधुर व्यवहार एवं ईमानदारी की खूब चर्चाएं सुनने को मिलती।

    उनके पूरे खानदान में इनके पास ही एक बेटा था।बाकी और भाइयों पर दो-दो बेटियां ही थीं।सभी लोग लाला रामगुलाम जी के बेटे बबलू पर ही अपनी जान छिड़कते थे।उसके लिए मुंह मांगा तोहफा हाजिर करने में देर करने का तो मतलब ही नहीं था।

     सभी चाचा-ताऊ बबलू को खूब पढ़ा -लिखा कर बड़ा अधिकारी बनते देखना चाहते।बबलू जब बारहवीं क्लास में था तभी अचानक उसके मन में मुम्बई जाकर फ़िल्म कलाकार बनने की सनक सवार हो गई। हर समय फिल्मी एक्टरों की नकल करता,उनके फिल्मी संवाद बोल बोलकर एवं फिल्मी गानों पर डांस करके अपने दोस्तों और अपनी चचेरी बहनों को दिखाता रहता।

     एक दिन बबलू अपने किसी दोस्त के घर जाने की बात कहकर घर से निकल गया,और रेलवे स्टेशन पहुंचकर मुम्बई जानेवाली गाड़ी में सवार हो गया।काफी रात तक भी जब बबलू घर नहीं आया तो घर वाले गहरी चिंता में पड़ गए।सब जगह टेलीफोन घुमा दिए गए।हर संभव ढूंढने के प्रयासों की होड़ लग गई।मगर उसके फ़िल्म नगरी मुम्बई जाने का अंदाज़ा किसी को नहीं लगा।

     उसकी तलाश करते -करते महीनों बीत गए।उधर बबलू मुम्बई पहुंच तो गया लेकिन उसे वहां कौन जानता,उसके पास जो भी रुपए -पैसे थे वह धीरे-धीरे खत्म होने लगे।एक समय वह आया जब वह एक प्याली चाय तक को तरसने लगा।कई दिन से बिना नहाए धोए रहने के कारण कपड़ों में से भी दुर्गंध आने लगी।ऊपर से भूख भी दम निकालने पर आमादा,,

     किसी को खाता देखकर मुंह में आए पानी को चुचाप निगलने के सिवाय कोई चारा नही था।बिखरे बाल,सूखे होंठ,भूखा पेट कुछ भी करने के लिए मजबूर करने की मजबूरी बनते जा रहे थे।आखिरकार उसने अपनी कमीज़ उतार कर आती जाती गाड़ियों को साफ करके पेट भरने का साधन तलाश ही लिया।

    उसके हाथ देने पर एक गाड़ी वाले बुजुर्ग ने गाड़ी रोककर बबलू से पूछा बेटे तुम कहाँ के रहने वाले हो और यहां किस उद्देश्य को लेकर आए हो।तब बबलू ने रोते हुए अपने संभ्रांत परिवार के बारे में सब कुछ बता दिया।

     दयावान बुजुर्ग ने पहले तो उसे अपने थैले से निकालकर बड़ा पाव खाने को दिया, बिसलरी का पानी पिलाकर उसको खड़ा होने लायक किया और उसके माता-पिता को मोबाइल पर अपना पता देते हुए बेटे को अपने पास सरक्षित होने की सूचना दी।

      तब उन्होंने बबलू को भी बहुत समझाते हुए कहा बेटा घर से भागने वाले बच्चों की हालत कैसी हो जाती है, क्या तुम्हें इसका अंदाज़ा है।कभी भी ऐसा कदम न उठाना। यह कहावत बिल्कुल सही है कि--- घर छोड़ने वाला न घर का रहता है न घाट का।बबलू ने कान पकड़कर अपनी ग़लती को मानते हुए बुजुर्ग सज्जन की दयालुता पर उनको साष्टांग प्रणाम किया।

✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद, उप्र, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453

               

                   

गुरुवार, 2 सितंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की कहानी --- तपस्विनी । यह कहानी उनके वर्ष 1959 में प्रकाशित कहानी संग्रह पुजारिन से ली गई है । इस कृति का द्बितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ था ।


         पंडित अनूप शर्मा ! तुम और इस वेष में ?" “क्यों, इसमें आश्चर्य का क्या कारण, जब देश और जाति को आवश्यकता हो तब क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्री और क्या वैश्य सभी को शस्त्र धारण करना चाहिये । पद्मा, अब मैं अनूप शर्मा नहीं अनूपसिंह हूँ ।”

"ओह, तो अब ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी है जो आपको शर्मा से सिंह बनना पड़ा । "
“पद्मा, तुम तो जानती ही हो सारा हिन्दू राष्ट्र छिन्न भिन्न हो छोटे छोटे राज्यों में विभक्त हो चुका था । पूज्य राणा संग्राम सिंह ने उनको एक सूत्र में बांधा और फिर समय आया जब उनकी आज्ञा मेवाड़ के एक कोने से दूसरे कोने तक मानी जाने लगी । चारों दिशाओं में उनका यश फैल गया । बाबर शाह को राणा से भय हुआ और साथ ही द्वेष भी सुना है बाबर ने मेवाड़ हमारी मातृभूमि पर आक्रमण किया है.. " “तब, तब... उसी में तुम भी जा रहे हो अनूप ?”
"हां पद्मा, देश को वीरों की और पूर्वजों के मान को बलि की आवश्यकता जो है ।"
"परन्तु... "
"उदास न हो पद्मा, भगवान ने चाहा तो विजयी होकर शीघ्र आऊँगा और तभी शुभ कार्य भी होगा।”

“अच्छा, अनूप, यदि जाना ही है तो जाओ पर पीठ पर घाव न खाना, नहीं मुझे दुख होगा।"
सन् १५२८ में कार्तिक मास के पांचवे दिन खनुआ नामक स्थान में मुगल और राजपूत सेनाओं का सामना हुआ। राजपूत बड़ी वीरता से लड़े, मुग़लों के पैर उखड़ गये। पास खड़ी हुई मुग़ल सेना ने जब यह देखा तो भागते हुये व्यक्तियों के चारों ओर खाई खोदना आरम्भ कर दिया। बाबर ने भी.. उत्साह दिलाने के अनेक प्रयत्न किये। यहां तक कि अपनी प्रिय मदिरा के प्याले तोड़ फोड़कर फिर कभी पान न करने की शपथ खाई ।
फिर युद्ध प्रारम्भ हुआ। राणा शत्रु संहार करते आगे बढ़ते गये और थोड़े ही समय में वह शत्रुओं के मध्य जा पहुंचे। एक बार और, फिर राणा का अन्त था कि त्वरित गति से अनूप सहायता को जा पहुँचा। घमासान युद्ध हुआ, अनूप राणा की रक्षा करता हुआ घायल होकर गिर पड़ा और मूर्छित होगया ।
    दूसरे दिन सारे नगर में उदासी छाई हुई थी। घायलों की पालकियाँ शान्त भाव से लाकर उनके घर पहुंचाई जा रही थीं। पद्मा भी भीड़ में सशंकित नेत्रों से इधर उधर कुछ खोज रही थी। सहसा उसकी दृष्टि एक पालकी पर गई। उसमें अनूप था। प्रातः कालीन चन्द्रमा की भांति उसका मुख पांडु था। बिखरी हुई अलकों और मुख मंडल पर रक्त बिन्दु काले पड़ चुके थे। पद्मा के आदेश से पालकी रुक गई। पास जाकर पद्मा ने स्नेह का मृदु स्पर्श किया और धीमे स्वर में कहा, “अनूप ।
अनूप ने अर्द्ध मूर्छित अवस्था में आंखें खोलीं और फिर धीरे से कहा- “पद्... मा. देखो मेरे वक्ष पर ही घाव लगे हैं, मैंने पीठ नहीं दिखाई । पर कलंकित मुख लेकर देश को दासता की श्रृंखला में जकड़े देखने से तो मृत्यु अच्छी...”
अत्यन्त दुर्बलता और पीड़ा के कारण अनूप ने आंखें मींच लीं। पद्मा ने व्यग्रता से पुकारा, "अनूप | "
"प.. द्.. मा देखो मेरे वक्ष पर ही घाव लगे हैं। मैंने पीठ नहीं दिखाई" कहते कहते अपने हिचकी ली और संसार से ही मुँह मोड़ लिया ।
नगर से बाहर शमशान भूमि में अनेक चितायें जल रही हैं। पति परायण अनेक स्त्रियां सती हो रही हैं। अनूप को चिता पर रखा गया, पद्मा ने आगे बढ़कर उसका सिर उठा ज्यों ही गोद में रखना चाहा, उसी समय ब्राह्मण गुरु की कर्कश वाणी से वह ठिठक गई: “पद्मा का विवाह नहीं हुआ था अतः इसे सती होने का कोई अधिकार नहीं ।” फिर आदेशानुसार धर्म के रक्षकों में से कुछ ने जाकर पद्मा को घसीट कर अलग कर दिया। चिता में अग्नि दी गई पद्मा ने शीश झुका चिता को प्रणाम किया और अपने सारे आभूषण उतार कर प्रज्ज्वलित चिता में फेंक दिये।
    दूसरे दिन मनुष्यों ने देखा, पद्मा गेरुआ वस्त्र पहन शमशान की ओर गई ..  और फिर वहां से सघन वन मेंजाकर कहीं विलीन हो गई। सबने सोचा उसने आत्महत्या कर ली होगी परन्तु वह देश में अलख जगाती फिरी, यहां तक कि लोग उसके नाम को भी भूल गये और सारे मेवाड़ में वह तपस्विनी के ही नाम से विख्यात होगई । आज भी मेवाड़ के आस पास कथा प्रचलित है - वह तपस्विनी थी। उसने सब कुछ खोकर भी देश में स्वतन्त्रता का अलख जगाया। देश को जागृत किया जिसके फलस्वरूप माताओं को वीर पुत्र और राणा प्रताप को देशभक्त सैनिक मिले ।
✍️ वीरेन्द्र कुमार मिश्र

::::::: प्रस्तुति :::::::
डा. मनोज रस्तोगी , 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत  मो. 9456687822