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बुधवार, 13 जनवरी 2021
सोमवार, 11 जनवरी 2021
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' की ओर से रविवार 10 जनवरी 2021 को वाट्सएप पर ऑन लाइन मुक्तक गोष्ठी का आयोजन किया गया । गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों द्वारा प्रस्तुत मुक्तक ------
वेदना का भार लेकर जी रहा हूँ
गीत का सम्भार लेकर जी रहा हूँ
तोड़ दी वीणा ह्रदय की जिस किसी ने
बस उसी का प्यार लेकर जी रहा हूँ ।
कौन हो कहना सरल है
भाव को पीना गरल है
बीच की चुप्पी न अच्छी
अध कहा निभना विरल है ।
नियति हर श्वांस को तूफान बना देती है
विवशता फूल को पाषाण बना देती है
जन्म से कोई भी शैतान नहीं होता है
भूख इंसान को शैतान बना देती है
✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
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1 ओठोंपर तनिक बुदबुदाहट है
फूल पत्तों में सरसराहट है
शर्म से झुक रही हैं ख़ुद पलकें
तेरे आने की सुगबुगाहट है
2
चाह अभ्यास होने लगी है
आस विश्वास होने लगी है
क्या अमृत प्यार का दे गये तुम
तृप्ति फिर प्यास होने लगी है।
3
अकुलाहट गाती रहती हैं
मन को भरमाती रहती हैं
छोटी-छोटी जिज्ञासाएं
जीवन सरसाती रहती हैं
✍️ डॉ. अजय 'अनुपम',मुरादाबाद
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उदित हुआ नव भास्कर, स्वर्णिम हुआ विहान।
विमल हृदय से कीजिये, ईश्वर का गुणगान।
जीवन में यदि चाहते, तुम खुशियों का साथ
सदभावों से हो सजा, अन्तर्मन परिधान।।
शीत पवन की चले कटारी, सूरज है लाचार।
सिमटा सिमटा सा लगता है, देख सकल संसार।
कुहरे में जा धूप छुपी है, पंछी भी बेहाल
माँ की अदरक चाय बनी है, सर्दी का उपचार।।
भूली बिसरी यादों से ही, सजता मन का गाँव।
बड़ी कटीली डगर प्रेम की, बिंधे हुए हैं पाँव।
वही खुशी तो बाँट सकेगा, जिसके अपने पास
पतझर के मौसम में तरुवर, कब देते हैं छाँव।।
✍️ डॉ पूनम बंसल, मुरादाबाद
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1- सच को कहना सच को सुनना सीखना होगा हमें
झूठ के फैलाव को अब रोकना होगा हमें
चाहते हो यदि चतुर्दिक शांति व सद्भाव हो
हर तरह की बेड़ियों को तोड़ना होगा हमें
2- इक नया सूरज उगायें इस गहन अंधियार में
अब नये उत्तर तलाशें प्रश्नो के अंबार में
हो रही नैतिकता खंडित रो रही इंसानियत
इक नये बदलाव की दरकार है संसार में
3- चेतना के स्वर यहाँ पर मौन कैसे हो गये
लोग औरों को जाते क्यों स्वयं ही सो गये
लुप्त क्योंकर हो रहीं हैं सत्य की परछाईंया
कौन हैं पथ पर हमारे शूल इतने बो गये
✍️ शिशुपाल "मधुकर ",मुरादाबाद
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(1)
सुन रहे यह साल आदमखोर है
हर तरफ चीख, दहशत, शोर है
मत कहो वायरस जहरीला बहुत
इंसान ही आजकल कमजोर है
(2)
मौतों का सिलसिला जारी है
व्यवस्था की कैसी ये लाचारी है
आप शोक संदेश पढ़ते रहिये
आपकी इतनी ही जिम्मेदारी है
(3)
लेकर फिर हाथ में वो मशालें निकल पड़े हैं
बेकुसूरों के घर वो जलाने निकल पड़े हैं
यह सोच कर उदास हैं चौराहों पर लगे बुत
हमारे शहर में वो लहू बहाने निकल पड़े हैं
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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त्यागकर स्वार्थ का छल भरा आवरण
तू दिखा तो सही प्यार का आचरण
शूल भी फिर नहीं दे सकेंगे चुभन
जब छुअन का बदल जाएगा व्याकरण
×-×-×-×-×-×-×-×-×-×-×-×
द्वंद हर साँस का साँस के संग है
हो रही हर समय स्वयँ से जंग है
भूख - बेरोज़गारी चुभे दंश - सी
ज़िन्दगी का ये कैसा नया रंग है
×-×-×-×-×-×-×-×-×-×-×-×
व्यर्थ आपस में क्यों हम हमेशा लड़ें
भेंट षडयंत्र की क्यों सदा हम चढ़ें
छोड़कर नफ़रतें प्यार की राह पर
दो क़दम तुम बढ़ो, दो क़दम हम बढ़ें
✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, मुरादाबाद
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जमा दिया नदियों का पानी,
किया हवा को भी तूफ़ानी,
पता नहीं कब तक सहनी है,
हमें शिशिर की यह मनमानी।
और न अपना कोप बढ़ाओ हे सर्दी रानी,
तेवर में कुछ नरमी लाओ हे सर्दी रानी।
कुहरा भी फैलाओ लेकिन हफ़्तों-हफ़्तों तक,
सूरज को यों मत धमकाओ हे सर्दी रानी।
✍️ ओंकार सिंह विवेक, रामपुर
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धूप में गम की दरख्तों का घना साया है मां,
नेअमतें है एक अता दौलत है सरमाया है मां,
मां तेरे सदके मेरी शोहरत की हर शाम ओ सहर,
इस जहां में तेरा रुतवा कौन ले पाया है मां,,
कुछ तो था जिसका ग़म नहीं जाता,
दिल से वो ...दम से कम नहीं जाता,
कोई .... शिद्दत से याद करता है,
मुद्दतों ...यह वहम नहीं जाता,,
कहीं तो जिस्म को बेपैरहन रखे फैशन,
कहीं बे पैरहन बैठे हैं मुँह ज़रा सा लिए,
कहीं नसीब मसर्रत जहां की शाम ओ सहर ,
कहीं गमों का तलातुम है सिलसिला सा लिए,,
नजर से जान लेते हैं जिगर की बात भी साहिब,
कहां सबके पहुंच पाते वहां जज्बात भी साहिब,
तमन्ना आसमां छू कर भी उन तक लौट आती है,
मोहब्बत तो बना देती है यह हालात भी साहिब,,
अदब शनास तबीयत का पास रखते हैं ,
उदास दिल भी मुहब्बत का पास रखते हैं ,
कभी कहीं भी तेरा तस्करा नहीं करते,
'मनोज' हम भी रवायत का पास रखते हैं,,
✍️ मनोज 'मनु', मुरादाबाद
------------------------------
1
पसीने से ये अपने अन्न धरती पर उगाता है।
कृषक ही इस धरा पर हम सभी का अन्नदाता है।
किसानों की बदौलत ही हमारा देश कृषि उन्नत,
सियासत खेलना इन पर नहीं हमको सुहाता है।।
2
आना है इसको आएगा, आने वाला कल।
आकर फिर कल बन जायेगा,आने वाला कल। भरी हुई सुख दुख से रहती, उसकी तो झोली,
किसे पता पर क्या लाएगा,आने वाला कल।।
✍️ डॉ अर्चना गुप्ता , मुरादाबाद
------------------------------------
पीछे सारे रह गये, मज़हब-फ़िरके-ज़ात।
जब लोगों ने प्यार से, की हिन्दी में बात।।
******
मानो मुझको मिल गये, सारे तीरथ-धाम।
जब हिन्दी में लिख दिया, मैंने अपना नाम।।
******
माँ हिन्दी के नाम पर, करके जय-जयकार।
हाय-हलो में व्यस्त क्यों, इसके ठेकेदार।।
अरे चीं-चीं यहाँ आकर, पुनः हमको जगा देना।
निराशा दूर अन्तस से, सभी के फिर भगा देना।
चला है काटने को जो, भवन का मोकला सूना,
उसी में नीड़ अपना तुम, मनोहारी लगा देना
फिर विटप से गीत कोई, अब सुनाओ कोकिला।
आस जीने की जगा कर, कूक जाओ कोकिला।
हों तुम्हारे शब्द कितने, ही भले हमसे अलग,
पर हमारे भी सुरों में, सुर मिलाओ कोकिला।
- ✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
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1-
धरती पर अब तक मानव की प्यास अधूरी है
सुख संग दुख से जीवन की परिभाषा पूरी है
युगों युगों से चक्र तभी ये चलता जाता है,
फूलों संग "काँटों " का होना बहुत जरूरी है
2-
सत्य हम बोल तो लें,यह पर,सुनेगा कौन?
पुष्प 'प्रिय' झूठ का है,काँटें चुनेगा कौन?
लक्ष्य है 'सुख',सभी का,'सच' कब रहा है ध्येय
प्रश्न 'कटु' मेहनत के,मन में गुनेगा कौन?
3-
मीत लौट आ इधर,राह वह निहारती
हाथ चंद्रमा लिए,चेहरा संवारती
चूनरी में स्वप्न की,टाँकने नखत लगी,
दीप जला सांझ का,रूपसी पुकारती
✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद
------------------------------------
आज़ादी का बिगुल बजाया मेरी प्यारी हिन्दी ने
जन जन में है जोश जगाया मेरी प्यारी हिन्दी ने
माँ ने मीठी लोरी गायी जिस भाषा के भावों में
सुंदर सा है स्वप्न दिखाया मेरी प्यारी हिन्दी ने ।
✍️ डॉ रीता सिंह, मुरादाबाद
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कहूँ कैसे दबी जो आज मेरे बात दिल में है ।
बिताये साथ जो लम्हे वही सौगात दिल में है ॥
समय अब आ गया है प्यार का इज़हार करने का ,
मुहब्बत से भरे जज़्बात की बरसात दिल में हैं ॥
दिल के जज़्बात यूँ ही दिल में दबाए रखना।
कोई कुछ भी कहे अश्क़ों को छुपाए रखना।।
जाने किस मोड़ पे मिल जाए मसीहा कोई,
आस का दीप सदा दिल में जलाए रखना।।
✍️ डाॅ ममता सिंह मुरादाबाद
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हाथों की भी यह कैसी मजबूरी है
सब कुछ पाया है, एक चाह अधूरी है।
हाथ मिलाने से पहले सोचा न था
रेखाओं का मिलना बहुत जरूरी है।
मैं जानती हूं कि मुझको तेरी तलाश नहीं
ढूंढती रहती हूं जाने क्या मेरे पास नहीं।।
तड़प है दर्द है खामोशी है तन्हाई है,
फिर भी कहती हूं जमाने से मैं उदास नहीं।।
अभी मुझको जमाने की तरह चलना नहीं आता
रिवाजों में यहां की रीत में ढलना नहीं आता
मुझे आता है बस लोगों के होंठों पर हंसी लाना
मुझे मंदिर में पूजा आरती करना नहीं आता।।
✍️ निवेदिता सक्सेना, मुरादाबाद
रविवार, 3 जनवरी 2021
हिन्दी साहित्य संगम ने आयोजित की नव वर्ष पर काव्य-गोष्ठी
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हिन्दी साहित्य संगम' की ओर से आज गूगल मीट पर नव वर्ष को समर्पित काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें रचनाकारों ने नव वर्ष पर मंगलकामनाएं करते हुए अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की।
कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मनोज रस्तोगी ने की। मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' एवं विशिष्ट अतिथि डॉ. रीता सिंह रहीं। माँ शारदे की वंदना राजीव 'प्रखर' ने प्रस्तुत की तथा कार्यक्रम का संचालन जितेन्द्र 'जौली' द्वारा किया गया।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ. मनोज रस्तोगी ने नववर्ष की शुभकामनाएं देते हुए कहा ----
मंगलमय हो आनंदमय हो,
नूतन वर्ष का शुभ आगमन
हो परिवार में शांति और
सुखों का हो आगमन।
चर्चित साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का कहना था---
सब सुखी हों स्वस्थ हों उत्कर्ष पायें
हैं यही नववर्ष की शुभकामनाएँ
अब न भूखा एक भी जन देश में हो
अब न कोई मन कहीं भी क्लेश में हो
अब न जीवन को हरे बेरोजगारी
अब न कोई फैसला आवेश में हो
हम नयी कोशिश चलो कुछ कर दिखायें
हैं यही नववर्ष की शुभकामनाएँ
कवयित्री डॉ. रीता सिंह का स्वर था -----
मैया तेरा नटखट लाला,
किशन द्वारिकाधीश बना
कल तक जिसने मटकी फोडी
आज वही जगदीश बना ।।
युवा साहित्यकार राजीव 'प्रखर' ने मुक्तक प्रस्तुत किया-----
दिलों से दूरियाँ तज कर, नये पथ पर बढ़ें मित्रों।
नया भारत बनाने को, नयी गाथा गढ़ें मित्रों।
खड़े हैं संकटों के जो, बहुत से आज भी दानव,
बनाकर श्रंखला सुदृढ़, चलो उनसे लड़ें मित्रों।
साहित्यकार अरविंद 'आनन्द' ने गजल प्रस्तुत करते हुए कहा-----
हादसों से सज़ा आज अख़बार है ।
झूठ और सच में हर वक़्त तकरार है ।
ज़ख़्म इतने सियासत ने हमको दिये।
अब लगे है फ़रेबी हर सरकार है।
कवयित्री इन्दु रानी ने कहा-----
हाँ रही हूँ मै समर्पित पर मेरा क्या योग है
वस्तु सम मापी गई औ वस्तु सम ही जोग है
युवा कवि जितेन्द्र 'जौली' ने कहा -----
कुछ ऐसा तुम काम करो जो, न कर पाया जमाना
याद रखेगी दुनिया तुमको, था कोई दीवाना।
ओजस्वी कवि प्रशान्त मिश्र का कहना था -----
गम है ज़िन्दगी तो रोते क्यों हो,
नैनों के नीर से जख्मों का दर्द कम नहीं होता,
अपने हम से रूठ जाते हैं...
कार्यक्रम में विकास 'मुरादाबादी' एवं नकुल त्यागी भी उपस्थित रहे।
:::::: प्रस्तुति::::::
राजीव 'प्रखर'
कार्यकारी महासचिव
8941912642
मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर की दोहा यात्रा के संदर्भ में योगेंद्र वर्मा व्योम का आलेख ---. कितने धोखेबाज़ हैं, दो रोटी के ख़्वाब
‘दोहा’ हिन्दी कविता का ऐसा छंद है जो आज भी आमजन के हृदय में बसता है, ज़ुबान पर हर वक़्त विराजता है और दो पंक्तियों की अपनी छोटी-सी देह में ही कथ्य की सम्पूर्णता को समाहित कर बहुरंगी खुशबुएँ बिखराने की क्षमता रखता है। भक्तिकाल से लेकर आज तक अपनी सात्विक यात्रा में दोहा छंद ने कई महत्वपूर्ण कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इस परंपरागत छंद ने कविता के विभिन्न युगों और कालों में कथ्य के अनूठेपन के साथ हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपनी दस्तावेज़ी उपस्थिति दर्ज़ कराते हुए अपने समय के खुरदुरे यथार्थ को भी पूरी संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त किया है। इंदौर के कीर्तिशेष कवि चन्द्रसेन ‘विराट’ ने दोहे की विशेषता को ही केन्द्रित करते हुए दोहा कहा है-‘बात ठोस संक्षिप्ततम, और दोष से मुक्त/कहने की यदि हो कला, तो दोहा उपयुक्त।’ यह दोहा छंद की लोकप्रियता और हिन्दी साहित्य में उसकी कालजयी भूमिका ही है कि वर्तमान समय में हिन्दी कवियों के साथ-साथ उर्दू के भी अनेक रचनाकार दोहे लिख रहे हैं, अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने ‘दोहा विशेषांक’ प्रकाशित कर रही हैं और समवेत रूप में व मौलिक दोहा-संग्रह भी प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हो रहे हैं। वर्तमान में दोहा छंद पर किया जा रहा कार्य, चाहे वह सृजनात्मक हो अथवा शोधपरक निश्चित रूप से हिन्दी कविता को समृद्ध करने वाला दस्तावेज़ी कार्य है।मुरादाबाद में भी अनेक रचनाकार हैं जिन्होंने दोहा विधा में महत्वपूर्ण सृजन किया है किन्तु विशुद्ध दोहाकार के रूप में संभवतः किसी की पहचान नहीं बन सकी। यह सुखद है कि यहाँ के नवोदित रचनाकारों में अत्यंत संवेदनशील और संभावनाशील श्री राजीव ‘प्रखर’ द्वारा लिखे जा रहे धारदार दोहे उनकी पहचान धीरे-धीरे एक महत्वपूर्ण दोहाकार के रूप में बना रहे हैं। उनके दोहों की यह विशेषता है कि वह समसामयिक संदर्भों में साधारण सी लगने वाली बात को भी असाधारण तरीके से सहज रूप में अभिव्यक्त कर देते हैं। प्रखरजी ने अपने दोहों में भोगे हुए यथार्थ को भी केन्द्र में रखा है और जीवन-जगत के इन्द्रधनुषी रंगों को भी शब्द दिए हैं। कविता का मतलब सपाटबयानी नहीं होता, प्रतीकों के माध्यम से संवेदनशीलता के साथ कही हुई बात पाठक के मन पर अपना प्रभाव छोड़ती ही है, यह बात उनके दोहों में हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराती हुई दिखाई देती है। एक दोहा देखिए-
भूख-प्यास में घुल गए, जिस काया के रोग
उसके मिटने पर लगे, पूरे छप्पन भोग
भूख की भयावह त्रासदी के संदर्भ में सुपरिचित ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’ का एक शे’र है-‘मैं अपनी भूख को ज़िन्दा नहीं रखता तो क्या करता/थकन जब हद से बढ़ती है तो हिम्मत को चबाती है।’ यह भूख ही है जिसे शान्त करने के लिए व्यक्ति सुबह से शाम तक हाड़तोड़ मेहनत करता है, फिर भी उसे पेटभर रोटी मयस्सर नहीं हो पाती। देश में आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जो भूखे ही सो जाते हैं, वहीं कुछ लोग छप्पनभोग जीमते हैं और अपनी थाली में जूठन छोड़कर रोटियां बर्बाद करते हैं। यह पूँजीवाद का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव है कि अमीर और ज़्यादा अमीर होता जा रहा है तथा ग़रीब और ज़्यादा ग़रीब। भूख से हो रही इस आत्मघाती जंग से जूझते/पिसते आम आदमी की व्यथा को एक दोहे के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं प्रखरजी-
फिर नैनों में बस गए, कर दी नींद खराब
कितने धोखेबाज़ हैं, दो रोटी के ख़्वाब
वहीं दूसरी ओर, ‘अनेकता मे एकता’ भारत की संस्कृति रही है, भारत की पहचान रही है और सही मायने में भारत की शक्ति भी यही है तभी तो आज भी गाँव के किसी परिवार की बेटी पूरे गाँव की बेटी होती है और ग्रामीण क्षेत्रों में तो आज भी सभी धर्मों के लोग एक दूसरे के त्योहार प्रेम और उल्लास के साथ मनाते हैं। राजनीतिक रूप से प्रायोजित धार्मिक तथा जातीय उन्माद के इस विद्रूप समय में साम्प्रदायिक सौहार्द को मज़बूती से पुनर्स्थापित करने और राष्ट्र को सर्वोपरि रखने की ज़रूरत को प्रखरजी अपने दोहे में बड़ी शिद्दत के साथ महसूस करते हैं-
चाहे गूँजे आरती, चाहे लगे अज़ान
मिलकर बोलो प्यार से, हम हैं हिन्दुस्तान
वर्तमान समय ही नहीं सदियों से नारी-उत्पीड़न मानव-सभ्यता को शर्मसार करने वाली सामाजिक विद्रूपता और सबसे बड़ा संकट बना हुआ है। मानसिक और सामाजिक रूप से आधुनिकता सम्पन्न इस पुरुष प्रधान समाज में आज भी स्त्री को दोयम दर्ज़ा ही प्राप्त है। वह घर की चाहरदीवारी के भीतर और बाहर समान रूप से प्रताड़ना का भाजन बनती ही रही है चाहे कन्याभ्रूण हत्या हो, घरेलू-हिंसा हो, दहेज उत्पीड़न हो या फिर शारीरिक शोषण हो। छोटी-छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की क्रूरतम घटनाओं के संबंध में अख़बारों में लगभग प्रतिदिन आने वाले समाचार पढ़कर बच्चियां तो भयाक्रांत होती ही हैं, मानवता भी लज्जित होती है। प्रखरजी इसी पीड़ा को अपने एक दोहे में समाज पर व्यंग्य करते हुए बेहद संवेदनशीलता के साथ उजागर करते हैं-
प्यारी मुनिया को मिला, उसी जगत से त्रास
जिसमें लोगों ने रखा, नौ दिन का उपवास
आज के विसंगतियों और विषमताओं भरे अंधकूप समय में मानवता के साथ-साथ हमारे सांस्कृतिक मूल्य भी कहीं खो गए हैं, रिश्तों से अपनत्व की भावना और संवेदना कहीं अंतर्धान होती जा रही है और संयुक्त परिवारों की परंपरा लगभग टूट चुकी है लिहाजा आपस की बतियाहट अब कहीं महसूस नहीं होती। बुज़ुर्गों को पुराने ज़माने का आउटडेटेड सामान समझा जा रहा है। इसीलिए शहरों में वृद्धाश्रमों की संख्या और उनमें आकर रहने वाले सदस्यों की संख्या का ग्राफ़ अचानक बड़ी तेज़ी के साथ बढा है। समाज में व्याप्त विद्रूपताओं से आहत कविमन ने रिश्तों में मूल्यों की पुनर्स्थापना के उद्देश्य से ही माँ के महत्व को अपने दोहों में गढ़ा है। माँ के प्रति श्रद्धा और आस्था को बढाने के साथ-साथ समाज को जाग्रत करने का भी पवित्र कार्य करता प्रखरजी का यह दोहा मन को छूने और मन पर छाने का काम करता है-
क्या तीरथ की कामना, कैसी धन की आस
जब बैठी हो प्रेम से, अम्मा मेरे पास
अपनी कृति ‘समर करते हुए’ में कीर्तिशेष गीतकवि दिनेश सिंह ने कहा है कि ‘जो रचना अपने समय का साक्ष्य बनने की शक्ति नहीं रखती, जिनमें जीवन की बुनियादी सच्चाईयाँ केन्द्रस्थ नहीं होतीं तथा जिनका विजन स्पष्ट और जनधर्मी नहीं होता वह कलात्मकता के बाबजूद अप्रासंगिक रह जाती हैं।’ केवल दोहे ही नहीं साहित्य की अन्य कई विधाओं-गीत, लघुकथा, बाल कविता आदि के सृजन में भी रत राजीव प्रखर के दोहों को पढ़कर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जीवन की बुनियादी सच्चाइयों को केन्द्रस्थ रखकर रचे गए उनके दोहे अपने समय का साक्ष्य बनने की शक्ति रखने के साथ-साथ हिन्दी कविता को महत्वपूर्ण रूप से समृद्ध कर रहे हैं। ✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
ए.एल.-49, दीनदयाल नगर-।,काँठ रोड, मुरादाबाद-244001 उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर - 9412805981
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था "हिन्दी साहित्य संगम" की ओर से सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी को राजेन्द्र मोहन शर्मा श्रृंग स्मृति साहित्य साधक सम्मान से किया गया सम्मानित
गुरुवार, 17 दिसंबर 2020
रविवार, 1 नवंबर 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर की कविता ----- बंदरबांट
सरकारी लट्टू ने
पुनः चक्कर लगाया,
और विद्यार्थियों के लिए,
दोपहर का भोजन,
आखिरकार विद्यालय में आया।
भोजन की सुलभता और पौष्टिकता,
अपना कमाल दिखाने लगी।
तभी तो गुरु जी की उपस्थिति,
विद्यालय में प्रतिदिन,
शत-प्रतिशत नजर आने लगी।
अजी! अब तो बड़े साहब भी,
अपना दायित्व बखूबी निभाते हैं।
तभी तो उनके घरेलू बर्तन,
विद्यालय की शोभा बढ़ाते हैं।
नौनिहालों का पेट,
आकाओं की नीयत,
वाह क्या मेल है।
अजी! इसके आगे तो
बंदरबांट भी फ़ेल है।
✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
सोमवार, 26 अक्तूबर 2020
सोमवार, 19 अक्तूबर 2020
बुधवार, 7 अक्तूबर 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर की लघुकथा -- माला
"मेरी प्यारी, सुंदर सी माला....", कृष्णा, मरियम, जुम्मन और हरमीत द्वारा इकट्ठे किए गये मनकों से सुंदर सी माला बनाती हुई बूढ़ी ननिया प्रसन्नता से बुदबुदाई।
✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
बुधवार, 30 सितंबर 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर की लघुकथा -----चेहरा
"अब देखना है कि कितने लोग मुझे फ़्रेन्ड रिक्वेस्ट भेजते हैं", तेजाबी हमले में झुलस चुके अपने चेहरे को शीशे में निहारते हुए वह बुदबुदाई और मुस्कुराते हुए अपनी ताज़ी फोटो अपनी फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर लगा दी।
-✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
मो० 8941912642
शनिवार, 26 सितंबर 2020
बुधवार, 23 सितंबर 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर की लघुकथा ---- गहरी नींद
"सटाकsssss ........." की आवाज़ के साथ उस रईसजादे की ठोकर से, फुटपाथ पर गहरी नींद में डूबा पड़ा मल्लू सकपका कर उठ गया।
"फिर किसी ससुरे ने सोते से उठा दिया, कम से कम मुझे भरपेट खाने तो देता ..........", गहरी नींद से उठ बैठा मल्लू बड़बड़ाये जा रहा था।
-✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
मुरादाबाद
गुरुवार, 17 सितंबर 2020
मंगलवार, 8 सितंबर 2020
शनिवार, 15 अगस्त 2020
मंगलवार, 11 अगस्त 2020
बुधवार, 5 अगस्त 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर की लघुकथा ------- रंग
"अजी सुनते हो, हमारे गाँव से शन्नो दीदी आ रही हैं, आप उनसे कभी नहीं मिले हैं, बिल्कुल अकेली हैं। उनकी आँख का तारा उनका एक इकलौता छोटा भाई था, वह भी पिछले महीने चल बसा। सभी छोटों को अपना छोटा भाई ही समझती हैं......", सोनाली देवी खुशी से चहकती हुई अपने पति निरंजन बाबू से बोलीं।
"शन्नो दीदी..... छोटा भाई......", सुनते ही शन्नो दीदी से दो साल बड़े निरंजन बाबू खुशी से मन ही मन बुदबुदाते हुए, पूरी तरह सफ़ेद हो चुके अपने बालों को काला करने में जुट गए थे।
- राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
बुधवार, 29 जुलाई 2020
मंगलवार, 28 जुलाई 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार जिया जमीर की दस ग़ज़लों पर ''मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा ------
वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' श्रृंखला के अन्तर्गत मुरादाबाद के मशहूर नौजवान शायर ज़िया ज़मीर की दस ग़ज़लों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सबसे पहले ज़िया ज़मीर द्वारा निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत की गयीं-
*(1)*
होंठों पे रक्खा था तबस्सुम आंखों में नमनाकी थी
अपना पागल कर देने कि यह उसकी चालाकी थी
मैंने हंसकर डांट दिया था प्यार के पहले शब्दों पर
उसने फिर कोशिश ही नहीं की, वो ख़ुद्दार बला की थी
उसके जैसे, उससे अच्छे और भी आए जीवन में
हमको जिसने दास बनाया वो उसकी बेबाकी थी
पत्थर मार के चौराहे पर इक औरत को मार दिया
सब ने मिलकर फिर यह सोचा उसने ग़लती क्या की थी
उसकी नम आंखों में हमने सैर जो की थी सारी रात
सुब्ह हुई तो ख़ुद से बोले क्या अच्छी तैराकी थी
इक बच्ची ने उस बच्चे पर अपना मफलर डाल दिया
बड़े मगर यह सोच रहे थे किसकी यह नापाकी थी
रोज़े-महशर पूछेंगे तो उसका क्या मा'बूद हुआ
सारी उम्र तड़प कर हमने तुझसे एक दुआ की थी
*(2)*
दिल दुखने से आंखों में जो गहराई बनेगी
यारों के लिए वज्हे - मसीहाई बनेगी
पहले तिरे चेहरे को किया जाएगा रोशन
हैरत के लिए फिर मिरी बीनाई बनेगी
देखेगा ता'ज्जुब से बहुत देर उसे दिल
जब ज़ेहन के ख़ुश रखने को दानाई बनेगी
उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम
बैठेंगे कभी साथ तो तन्हाई बनेगी
मैं इश्क़ के हासिल की बनाऊंगा जो तस्वीर
तस्वीर बनेगी नहीं, रुसवाई बनेगी
दुनिया ही लगाएगी तमाशा यहां हर रोज़
दुनिया ही तमाशे की तमाशाई बनेगी
चौंकाने की ख़ातिर ही अगर शेर कहूंगा
तख़लीक़ फ़क़त क़ाफ़िया-पैमाई बनेगी
*(3)*
वो लड़की जो होगी नहीं तक़दीर हमारी
हाथों में लिए बैठी है तस्वीर हमारी
आँखों से पढ़ा करते हैं सब, और वो लड़की
होंठों से छुआ करती है तहरीर हमारी
जो ज़ख़्म थे सूखे हुए रिसने लगे फिर से
यह किसने हिलायी भला ज़ंजीर हमारी
वो शख़्स कि बुनियाद का पत्थर था हमारा
वो ऐसा गया हिल गयी तामीर हमारी
ये ख़्वाब हमारे हैं यही दुख हैं हमारे
ले जाए कोई हम से ये जागीर हमारी
ये शेर जो सुनते हो, ये जज़्बे हैं हमारे
तुम तक भी पहुंच जाएगी तासीर हमारी
वो ख़्वाब 'ज़िया' देखा कि कहते नहीं बनता
सुनने को ग़ज़ल आऐ थे ख़ुद 'मीर' हमारी
*(4)*
पास मिरे ले आए उसको
कोई ज़रा समझाए उसको
बाग़ की ख़ुन्क हवा से कहियो
और ज़रा महकाए उसको
जब वो किनारे आकर बैठे
दरिया गीत सुनाए उसको
जाने क्या कहना था उससे
जाने क्या कह आए उसको
जिस शय की भी दुआ करे वो
हर वो शय मिल जाए उसको
सर्दी में वो कांप रही है
कोई पिला दे चाय उसको
है यह बस उसका ही जादू
जो खोए वो पाए उसको
*(5)*
दुशमने-जाँ है मगर जान से प्यारा भी है
ऐसा इस एहद में इक शख़्स हमारा भी है
जागती आँखों ने देखे हैं तिरे ख़्वाब ऐ जाँ!
और नींदों में तिरा नाम पुकारा भी है
वो बुरा वक़्त कि जब साथ न हो साया भी
बारहा हमने उसे हँस के गुज़ारा भी है
जिसने मँझधार में छोड़ा उसे मालूम नहीं
डूबने वाले को तिनके का सहारा भी है
हमने हर जब्र तिरा हँस के सर-आँखों पे लिया
ज़िन्दगी तुझ पे ये एहसान हमारा भी है
मत लुटा देना ज़माने पे ही सारी खै़रात
मुंतज़िर हाथ में कशकोल हमारा भी है
नाम सुनकर मिरा उस लब पे तबस्सुम है 'ज़िया'
और पलकों पे उतर आया सितारा भी है
*(6)*
जाने वाला कब बेज़ार रहा होगा
रोकने वाला ही लाचार रहा होगा
आंखों की हैरानी देख के लगता है
मंज़र कितना पुर-असरार रहा होगा
हम जो इतनी नफ़रत पाले बैठे हैं
हम में यक़ीनन बेहद प्यार रहा होगा
एक ज़रा सी बात पे पेड़ पे झूल गया
मरने वाला इज़्ज़त-दार रहा होगा
यह जो बूढ़ा चौखट पर आ बैठा है
घर के लिए शायद बेकार रहा होगा
पेड़ की लाश पे पंछी आकर बैठ गए
यह शायद इनका घर-बार रहा होगा
इसकी मौत पे कोई भी ग़मगीन नहीं
लम्बे अरसे से बीमार रहा होगा
*(7)*
इक बीमारी सोच रखी है एक मसीहा सोच रखा है
उम्र गुज़ारी की ख़्वाहिश में देखो क्या क्या सोच रखा है
वस्ल की रात में सबसे पहले क्या उससे मांगा जाएगा
उस चश्मे वाली लड़की का हमने चश्मा सोच रखा है
इश्क़ का जो अंजाम है मुमकिन उसके रद्दे-अमल में हमने
एक उदासी सोच रखी है एक ठहाका सोच रखा है
आंखों के नीचे के घेरे और भी गहरे लगने लगे हैं
सोचने वाली बात को हमने कितना ज़ियादा सोच रखा है
देखें पार उतर जाने की ख़्वाहिश किसकी पूरी होगी
तुमने सोच रखी है कश्ती हमने दरिया सोच रखा है
वो जो हंसने-हंसाने वाला उठ कर जाने ही वाला है
नम आँखों ने उसके लिए बस एक इशारा सोच रखा है
इस रिश्ते में कितना सुख है और छुपा है दुख भी कितना
उसको सोच रखा है दरिया ख़ुद को प्यासा सोच रखा है
*(8)*
रोज़ जैसी नहीं उजलत हो तो हम तुझसे कहें
तुझको दुनिया से फ़राग़त हो तो हम तुझसे कहें
तुझसे इक बात कई रोज़ से कहनी थी हमें
हां अगर तेरी इजाज़त हो तो हम तुझसे कहें
क्या कहें तुझसे कि दिखता नहीं तुझ सा कोई
तेरे जैसी कोई सूरत हो तो हम तुझसे कहें
दूसरे इश्क़ की ख़्वाहिश है अगर तू चाहे
यानी तेरी भी ज़रूरत हो तो हम तुझसे कहें
ये जो दुनिया है इसे हम से शिकायत है बहुत
इसमें पोशीदा सियासत हो तो हम तुझसे कहें
जो नहीं तू ने दिया उसका बदल चाहते हैं
ऐ ख़ुदा रोज़े-क़यामत हो तो हम तुझसे कहें
*(9)*
तक रहा है तू आसमान में क्या
है अभी तक किसी उड़ान में क्या
वो जो एक तुझ को जां से प्यारा था
अब भी आता है तेरे ध्यान में क्या
हो ही जाते हैं जब जुदा दोनों
फिर ताल्लुक है जिस्मो-जान में क्या
हम क़फस में हैं उड़ने वाले बता
है वही लुत्फ आसमान में क्या
हम तो तेरी कहानी लिख आए
तूने लिक्खा है इम्तहान में क्या
क्या नहीं होगी फिर मेरी तकमील
कोई तुझ सा नहीं जहान में क्या
*(10)*
अभी से इश्क़ कब अगला हमारा चल रहा है
अभी तो पहले वाले का ख़सारा चल रहा है
मुहब्बत में कहें क्या सुस्त रफ़्तारी का आलम
कि इक बोसे में इक हफ्ता हमारा चल रहा है
गली में धीरे-धीरे चल रहे हैं रात में हम
हमारी चाल में छत पर सितारा चल रहा है
ये ख़्वाहिश है कि घर में हो अलग क़ुरआन अपना
है तब यह बात जब पहला सिपारा चल रहा है
कोई इक बात है जिसके सबब झगड़ा है ख़ुद से
सहारा है मगर दिल बेसहारा चल रहा है
गयीं लेहरों के पैरों के निशां उभरे हुए हैं
नदी ख़ामोश है लेकिन किनारा चल रहा है
हमें महफ़िल से लौटे हो चुका है वक़्त काफ़ी
मगर आखों में अब भी इक इशारा चल रहा है
इन ग़ज़लों पर चर्चा करते हुए विख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने चर्चा शुरू करते हुए कहा कि 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' के पटल पर मेरे प्रिय युवा शायर ज़िया ज़मीर की ग़ज़लें चर्चा के लिए प्रस्तुत हैं। इतना कह सकता हूँ कि ग़ज़ल की बहुत बड़ी विरासत की वे बेहद संभावना भरी सुबह की ताज़गी भारी किरन हैं, जिससे आँगन उजालों से भर जायेगा। जिसकी शायरी पर यहाँ के तमाम हिंदी और उर्दू के कवियों तथा शायरों को नाज़ होगा।
आलमी शोहरत याफ्ता शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि मुझे खुशी है कि ज़िया की ग़ज़ल में बहुत निखार आया है। उनकी फिक्र खूब रौशन हुई है। उनका लहजा मजबूत हुआ है। उनके ख़्वाबों की विश्वसनीयता मुखर हुई है और ज़िया के प्रशंसकों में बहुत इज़ाफा हुआ है। उनके इस बौद्धिक उन्नयन के दो कारण मेरे नज़दीक बहुत उजले हैं। एक तो यह कि उनकी प्रतिभा सिर्फ़ शायरी तक महदूद नहीं है। उनके अंदर एक शायर के साथ एक समझदार आलोचक, एक कल्पनाशील कहानीकार और एक ज़बरदस्त मानवतावादी विचारक भी छुपा हुआ है। जो समय-समय पर जब बाहर आता है तो समाज और साहित्य में उनकी इज़्ज़त और मान्यता का गवाह बन जाता है। ज़िया ने ग़ज़ल की सदियों पुरानी परम्परा से अपनी ग़ज़ल, अपनी शब्दावली और अपनी शैली को बचाकर अपना नया रास्ता बनाने की कोशिश की है। वो अपने ही बनाये हुए रास्ते पर बहुत हौसले के साथ चल रहे हैं।
प्रख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि ज़िया ने कम समय में अदब के क्षेत्र में जो कमाया है, वो बड़ा ही सराहनीय है। ज़िया सौभाग्यशाली हैं कि उनके पास पिता रूप में ज़मीर दरवेश साहब जैसी अदबी व्यक्तित्व की पूंजी मौजूद है। पूंजी खरी और पर्याप्त हो तो निवेश के परिणाम भी अच्छे ही होते हैं। ज़मीर दरवेश साहब के साहित्यिक निवेश का उनके पास ज़िया रूप में सुखद परिणाम मौजूद है। ज़िया की भाषा बतियाने की भाषा है। यही भाषा सर्वाधिक हृदयग्राही रही है। यद्यपि कुछ शब्द कठिन भी प्रयोग में आए हैं। यह व्यक्ति-व्यक्ति के शब्द भंडार को भी दर्शाता है और इसका भी मोह बना ही रहता है। बात का पहुंचना ज़रूरी है, वह पहुंच रही है। मुरादाबाद की शायरी का बेहतरीन भविष्य ज़िया की खुशबू में झलकता है। नामी शायर होने की संभावनाएं उनमें दीख रही हैं।
वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि ज़िया की ग़ज़लें दिल को छू गई हैं। ज़िया को पढ़ना और सुनना दोनों ही अनुभव अपने में बेमिसाल हैं। ज़िया के कलाम पर क़लम चलाना आसान नहीं है। दस ग़ज़लें दस पेज मांगती है। हर ग़ज़ल बहुत सादगी से बड़ी बात कह देती है।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों पर कुछ लिखने के लिये मुझे स्वास्थ्य और समय के साथ-साथ ग़ज़ल के बारे में पी.एच.डी. दरकार है। ज़िया ज़मीर माशाअल्लाह अपनी उम्र से बड़े शायर हैं। ग़जल महबूब से बात करने का नाम है और ज़िया ने ख़ूब ग़ज़ले कहीं हैं यानि महबूब से ख़ूब गुफ़्तुगू की है। उनकी गज़लों में सादगी के साथ बला की पुख़्तगी है। उनकी ग़जलों मे सादा अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल पाठक का मन मोह लेता है। शब्दों को नये साँचें में ढालने का हुनर ज़िया बख़ूबी जानते हैं और उन्होनें अपनी ग़ज़लों में ये प्रयोग ख़ूब किये हैं। आने वाला समय निश्चित रूप से इस मनभावन शायर का है।
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि ज़िया ज़मीर मोहब्बतों के शायर हैं। उनके यहां आसपास हो रही घटनाओं के शब्द चित्र मिलते हैं। वो जैसा देखते हैं वैसा ही अपने शेरों में बयान कर देते हैं, बग़ैर किसी लाग-लपेट के। समाज के प्रति एक रचनाकार की प्रबल ज़िम्मेदारी होती है और उस ज़िम्मेदारी का निर्वहन ज़िया ज़मीर साहब बख़ूबी कर रहे हैं। एक-दो नहीं, ऐसे बहुत से शेर हैं जो उन्हें शायरी की रिवायत से एक अलग क़तार में खड़ा करते हैं, जहां सामाजिक चिंतन की वास्तविक ऊंचाइयां मिलती हैं, जहां प्रेम मिलता है, जहां आपसी भाईचारा मिलता है। उनकी ग़ज़लें ज़िंदगी की आड़ी-तिरछी गलियों से गुज़रते हुए बहुत-से मौसमों का सामना करती हैं। कामना करता हूं कि उनकी ग़ज़लों में सामाजिक ऊंचाइयों का चिंतन इसी प्रकार बना रहे।
मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज ने कहा कि ज़िया ज़मीर एक बा-सलाहियत, होनहार और जवाँ-साल शायर हैं। शायरी का ज़ौक़ विरासत में उन्हें मिला। उन के वालिदे गिरामी जनाब ज़मीर दरवेश जदीद लबो लहजे के बा-वक़ार शायर हैं। ज़िया की शायरी वही इश्क़, वही मुहब्बत, वही प्यार वही अटखेलियों और वही नाज़ो-नियाज़ वाली शायरी है जिससे उर्दू ग़ज़ल इबारत है। जहाँ महबूब से गुफ़्तुगू होती है या महबूब की गुफ़्तुगू होती है। उन्होंने अपनी ग़ज़ल के लिए जो रास्ता चुना है वो बहुत खूबसूरत, बहुत पुरकशिश है।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि अपने शेरों के जरिए ज़िया ज़मीर सूखे हुए जख्मों को जहां हरा कर देते हैं। वहीं ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों की ओर भी बड़ी मासूमियत के साथ इशारा करते हुए सोए हुए 'ज़मीर' को जगाने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं। कई शेर तो वाक़ई आंखों के नीचे के घेरे और भी गहरे कर देते हैं ।आपकी शायरी पर विद्वतजनों ने इतना कुछ लिख दिया है कि अब कुछ लिखने को बाकी ही नहीं रह गया।
प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि ज़िया ज़मीर जी के साहित्यिक ख़ज़ाने में से दस ख़ूबसूरत ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं। सभी एक से बढ़कर एक हैं। ज़िया जी जैसे अपने आप सहज, सरल हैं वैसे ही उनकी ग़ज़लें भी गहरी से गहरी बात को भी एकदम सहजता से कहने का सलीक़ा रखती हैं और ज़हन में उतरती चली जाती हैं। बहुत सारी गोष्ठियों में उनके साथ मंच पर सहभागिता की। उनकी प्रस्तुति, सुनाने का अंदाज़ भी एकदम अलग है और प्रभावित करता है।
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों से गुज़रते हुए कुछ-कुछ ऐसा आभास होता है कि जैसे ये ग़ज़लें रूह के रू-ब-रू होने की स्थिति में ही कही गईं हैं। उनकी ग़ज़लों की यह विशेषता है कि उनकी ग़ज़लें पढ़ने में भी उतनी ही प्रभावशाली होती हैं जितनी सुनने में। उनकी ग़ज़लों में भाषाई सहजता के कारण मन को छू लेने वाले शेर देर तक मन-मस्तिष्क पर छाये रहते हैं। मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के पटल पर प्रस्तुत उनकी सभी दस ग़ज़लें पाठकों को मंत्रमुग्ध तो करती ही हैं, मुरादाबाद की ग़ज़ल परंपरा के सुनहरे भविष्य का प्रमाण भी देती हैं।
समीक्षक डॉ आसिफ हुसैन ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब बहुमुखी प्रतिभा के धनी और बड़ी रचनात्मक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। शायरी इन्हें घुट्टी में मिली है। इनके पिता श्री ज़मीर दरवेश साहब की गिनती उस्ताद शायरों में होती है। एक बड़ी खू़बी उनकी ज़ुबान की सादगी और सरलता है। वो आम भाषा का इस्तेमाल करते हैं और लकीर का फकी़र नहीं बना रहना चाहते, बल्कि ज़रूरत के मुताबिक़ रदीफ़ और क़ाफ़िया बना लेने की भी सलाहियत रखते हैं। दूसरी मिसाल उनकी शायरी में रोज़मर्रा का इस्तेमाल भी है जैसे- होठों पर तबस्सुम रखना, पागल कर देना, बला की खुद्दार, दास बनाना, तड़पकर दुआ करना, होठों से छूना, बुनियाद का पत्थर आदि। तीसरी खूबी यह कि वो अक्सर शब्दों की तकरार से अपने शेरों में हुस्न पैदा करते हैं। चौथी खूबी यह है कि वो अक्सर शेर के दोनों मिसरों की शुरुआत एक ही लफ़्ज़ से करते हैं। यह बात बिना झिझक कही जा सकती है की ज़िया ज़मीर साहब का अपना रंग-ओ-आहंग, अपना लहजा और अपनी फिक्र है, जो उन्हें अलग पहचान दिलाती है। इनका मुस्तक़बिल रोशन और ताबनाक है।
समीक्षक डॉ रबाब अंजुम ने कहा कि उर्दू की चाशनी में डूबी उर्दू की ख़ुशबू और तहज़ीब से संवरी हिन्दी की सुन्दरता के साथ पेश की गईं ज़िया ज़मीर साहब की ग़ज़लें हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की अलम-बरदार ग़ज़लें हैं, जो दिल को छू गयीं। बहुत सादगी के साथ आम मज़ामीन को ग़ज़ल के पैराए में बड़ी महारत के साथ पेश किया है ज़िया साहब ने। बहुत बहुत मुबारकबाद।
युवा शायर राहुल शर्मा ने कहा कि ज़िया ज़मीर की ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि जैसे कोई बंजारा सूने जंगल में रबाब के तारों पर एक बेहद मीठी धुन छेड़ता हुआ चला जा रहा है। ऐसा लगता है कि पर्वत के इस पार बैठा हुआ कोई फरहाद उस तरफ बैठी हुई शीरीं को पुरज़ोर मोहब्बत से भरे लहजे में पुकार रहा हो। असली ग़ज़ल-गोई मेरी नज़र में यहीं से शुरू होती है। नाज़ुकी और बात कहने का सलीक़ा उर्दू शायरी की एक ख़ास विशेषता है जो कि ज़िया ज़मीर के यहां पूरी खूबसूरती से पाई जाती है। ज़िया ज़मीर एक अनंत संभावनाओं वाले साहित्यकार हैं। इनकी शायरी में जितना पैनापन है, गद्य के क्षेत्र में भी उनकी कलम का तेवर अलग ही नज़र आता है।
युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि ज़िया ज़मीर ने ग़ज़लों की रिवायत की आत्मा से छेड़छाड़ किए बिना उन्हें अपने हुनर का जामा पहनाया है। इश्क़ उनकी ग़ज़लों का सबसे महबूब मज़्मून रहा है। लेकिन उनके यहाँ का इश्क़ अलैहदा है, संजीदा है, यह 'क्लासिकल मॉडर्न' है। ज़िया ज़मीर ने लगभग प्रत्येक छोटी-बड़ी प्रचलित बह्रों में ज़ोर-आज़माइश की है और वे इसमें सफल भी हुए हैं। छोटी बह्र में भी वे उतनी ही प्रभावशीलता से अपनी बात रखते हैं जितनी कि बड़ी बह्रों में। फ़लसफ़ा, तसव्वुफ़, और तरक़्क़ीपसंद सोच के वे हामी हैं, यह बात उनकी ग़ज़लों से बख़ूबी ज़ाहिर होती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ज़िया ज़मीर की शाइरी के अलग-अलग रंग हैं, जिनसे शराबोर होकर क़ारी यक़ीनन ही सोच के नए उफ़ुक़ पर ख़ुद को खड़ा पाएगा।
युवा शायर मनोज वर्मा मनु ने कहा कि ज़िया भाई के मुख़्तलिफ़ कलाम से उनका लहजा, उनकी फ़िक़्र, उनके जज़्बात, उनका अख़लाक़, उनकी साफ़गोई, उनके संजीदगी भरे चुटीले तड़के, और उनका हक़ीक़त पसन्द "ज़मीर", सब अपनी चमक के साथ परिलक्षित होते हैं। गोया कि शेर खुद बताते हैं कि वो ज़िया ज़मीर के शेर हैं। मोहतरम जनाब ज़मीर दरवेश साहब की ज़ेरे-नज़र, उस आंगन में पले-बढ़े इस तरबीयत के ज़िया की शायरी में अदबी नुख़्स भूसे के ढेर से सूईं तलाशने जैसा है। अपने-अपने तरीके से उनके एक-एक शेर के कई मफ़हूम बताए जा सकते हैं।
युवा शायर फ़रहत अली फरहत अली खान ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब को जदीद दौर के नयी पीढ़ी के बेहतरीन शायरों में शुमार किया जाता है। इनके हम-अस्र, हम-उम्र और कई बड़े शायर इन की सीनियोरिटी को तस्लीम करते हैं और इन का एहतेराम करते हैं। शेर कहने का इन्होंने अपना एक अलग अंदाज़ डेवेलप किया है जो दूसरों से जुदा है। तग़ज़्ज़ुल का दामन पकड़े-पकड़े ख़्यालों के समुंदर में ग़ोते लगाते हैं। कहीं-कहीं गहरा फ़लसफ़ा भी पिरोते हैं, मगर अक्सर अशआर दुनिया को जैसा इन्होंने देखा उसकी गहरे जज़्बात के साथ तर्जुमानी करते हैं। इस के अलावा एक अच्छे नाक़िद भी हैं, जो अपने शायर की तरह इस दौर के दूसरे नक़्क़ाद से अलग नुक़्ता-ए-नज़र रखते हैं। साथ ही अब तक मैं इन के दो अफ़साने भी पढ़ चुका हूँ। इनको दो सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देख चुका हूँ। इस सिन्फ़ में भी ये बहुत उम्मीदें जगाते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि आज स्वयं इस ऐतिहासिक साहित्यिक चर्चा के सूत्रधार एवं लोकप्रिय शायर भाई ज़िया ज़मीर जी की रचनाएं पटल पर प्रस्तुत की गयी हैं। भाई ज़िया ज़मीर जी ऐसे लोकप्रिय शायरों में से एक हैं जिनकी लेखनी से निकली रचनाओं ने मुझ जैसे अल्प ज्ञानी के अन्तस को भी सदैव स्पर्श किया है। अपनी दिल जीत लेने वाली शायरी से मुरादाबाद की कीर्ति में चार चाँद लगाने वाले, शायरी के इस सशक्त हस्ताक्षर को मेरा बारम्बार प्रणाम।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि ज़िया भाई ने दस ग़ज़लों में अपनी भी बात की और समाज की भी। ग़ज़लों की ख़ास बात है बह्र का बदलाव। अलग-अलग बह्र की ग़ज़लों में शब्दों का बहाव। किसी एक ग़ज़ल से कोई एक या दो शेर चुनना मुश्किल काम है। कुल मिला कर ज़िया भाई ने दस ग़ज़लों में ज़िंदगी की सच्चाईयों का सफर करा दिया है। दुआ है कि क़लम की रोशनाई की रंगत बढ़ती रहे और फिर इसी तरह के कलाम पढ़ने को मिलें।
युवा समीक्षक डॉ अज़ीम उल हसन ने कहा कि ज़िया ज़मीर साहब की ग़ज़लें पढ़ीं और पढ़कर यक़ीन भी हो गया कि मुरादाबाद में ग़ज़ल का मुस्तक़बिल काफ़ी रोशन है। आप ग़ज़लों में सादा ज़बान का इस्तेमाल करते हैं, जिस से शेर आसानी से ज़बान पर रवां हो जाते हैं। कहीं कहीं शेरो में तसव्वुफ़ की झलक भी नुमायां है। ग़रज़ यह कि ज़िया साहब की ग़ज़लों में इश्क़ की चाशनी के साथ-साथ ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाइयां भी हैं जो कहीं न कहीं आज के इंसान के ज़मीर पर तंज़ की करारी चोट करती हुई नज़र आती हैं।
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट नेे कहा कि एक व्यक्ति के रूप में शालीन, खुशमिजाज़, मिलनसार और उदार सोच वाले ज़िया ज़मीर जी की ग़ज़लें जब भी पढ़ीं, ऐसा लगा है कि ग़ज़ल हमसे बतिया रही है। सहज, सरल, दैनिक बोलचाल की भाषा में, दैनिक सन्दर्भों का प्रयोग करते हुए भी ग़ज़ल की गरिमा और क्वालिटी दोनों को बनाये रखते हुए वे न केवल पाठक के दिल में जगह बनाते हैं, बल्कि अपनी विशिष्ट कहन से चौंका भी देते हैं। अपने विशिष्ट अंदाज़े-बयां के कारण उन्हें सुनना भी सुखद होता है।
युवा कवियत्री मीनाक्षी ठाकुर नेे कहा कि वाक़ई कई कई बार आपकी ग़ज़लें पढ़ी हैं कल से अब तक। वक़्त बीता पर आँखों में आपके लिखे शेर तैर रहे हैं। उर्दू के बेहतरीन अल्फा़ज से सजी ज़िया ज़मीर जी की ग़ज़लें बेसाख़्ता दिल में उतरती चली जाती हैं। आपने जिस बेबाकी से ग़ज़लें कही हैं, लगता है कि आमने-सामने बैठकर गुफ्तगू हो रही है। कहीं रुमानियत तो कहीं महबूब को हँसकर धमकाने का अंदाज़ नायाब लगा। आपकी ग़ज़लों के अंदाज़ से लगता है कि आप शायरी को ओढ़ते हैं ,बिछाते हैं, शायरी ही जीते हैं। शायरी आपके खून में है जो क़लम की स्याही बनकर कागज़ के पन्नो पर ग़ज़ल बनकर जब उतरी तो ग़ज़ब हो गयी। अलग ही भाषाई मिठास लिये हुए सादगी भरा आपका अंदाज़ श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। साफगोई की इंतिहा भीतर तक पाठकों को कुछ सोचने पर मजबूर करती है। आपकी ग़ज़लों के हर शेर पर एक पन्ना लिखा जा सकता है।
::::::::::प्रस्तुति::::::::::
राजीव प्रखर
मुरादाबाद
मो० 9368011960