सोमवार, 11 जनवरी 2021

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' की ओर से रविवार 10 जनवरी 2021 को वाट्सएप पर ऑन लाइन मुक्तक गोष्ठी का आयोजन किया गया । गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों द्वारा प्रस्तुत मुक्तक ------


वेदना  का  भार  लेकर  जी   रहा  हूँ

गीत  का  सम्भार  लेकर  जी  रहा हूँ
तोड़ दी वीणा ह्रदय की जिस किसी ने
बस  उसी  का  प्यार लेकर जी रहा हूँ ।
       
कौन  हो  कहना  सरल है
भाव  को  पीना  गरल   है
बीच  की  चुप्पी न  अच्छी
अध कहा निभना विरल है ।
        
नियति हर श्वांस को तूफान बना देती है
विवशता  फूल  को पाषाण बना देती है
जन्म  से कोई भी  शैतान नहीं  होता है
भूख  इंसान  को  शैतान  बना  देती  है
         
✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
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1 ओठोंपर तनिक बुदबुदाहट है
फूल पत्तों में सरसराहट है
शर्म से झुक रही हैं ख़ुद पलकें
तेरे आने की सुगबुगाहट है
2
चाह अभ्यास होने लगी है
आस विश्वास होने लगी है
क्या अमृत प्यार का दे गये तुम
तृप्ति फिर प्यास होने लगी है।
3
अकुलाहट गाती रहती हैं
मन को भरमाती रहती हैं
छोटी-छोटी जिज्ञासाएं
जीवन सरसाती रहती हैं

✍️ डॉ. अजय 'अनुपम',मुरादाबाद
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उदित हुआ नव भास्कर, स्वर्णिम हुआ विहान।
विमल हृदय से कीजिये, ईश्वर का गुणगान।
जीवन में यदि चाहते, तुम खुशियों का साथ
सदभावों से हो सजा, अन्तर्मन परिधान।।

शीत पवन की चले कटारी, सूरज है लाचार।
सिमटा सिमटा सा लगता है, देख सकल संसार।
कुहरे में जा धूप छुपी है, पंछी भी बेहाल
माँ की अदरक चाय बनी है, सर्दी का उपचार।।

भूली बिसरी यादों से ही, सजता मन का गाँव।
बड़ी कटीली डगर प्रेम की, बिंधे हुए हैं पाँव।
वही खुशी तो बाँट सकेगा, जिसके अपने पास
पतझर के मौसम में तरुवर, कब देते हैं छाँव।।

✍️ डॉ पूनम बंसल, मुरादाबाद
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1- सच को कहना सच को सुनना सीखना होगा हमें
झूठ के फैलाव को अब रोकना होगा हमें
चाहते हो यदि चतुर्दिक शांति व सद्भाव हो
हर तरह की बेड़ियों को तोड़ना होगा हमें
2- इक नया सूरज उगायें इस गहन अंधियार में
अब नये उत्तर तलाशें प्रश्नो के अंबार में
हो रही नैतिकता खंडित रो रही इंसानियत
इक नये बदलाव की दरकार है  संसार में
3- चेतना के स्वर यहाँ पर मौन कैसे हो गये
लोग औरों को जाते क्यों स्वयं ही सो गये
लुप्त क्योंकर हो रहीं हैं सत्य की परछाईंया
कौन हैं पथ पर हमारे शूल इतने बो गये

✍️ शिशुपाल "मधुकर ",मुरादाबाद
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          (1)
सुन  रहे यह साल  आदमखोर है
हर तरफ  चीख, दहशत, शोर है
मत कहो वायरस जहरीला बहुत
इंसान ही आजकल कमजोर है

(2)
मौतों   का  सिलसिला  जारी है
व्यवस्था की कैसी ये लाचारी है
आप  शोक संदेश  पढ़ते  रहिये
आपकी इतनी ही जिम्मेदारी है

(3)
लेकर फिर हाथ में वो मशालें निकल पड़े हैं
बेकुसूरों  के  घर  वो जलाने निकल पड़े हैं
यह सोच कर उदास हैं चौराहों पर लगे बुत
हमारे शहर में  वो लहू बहाने निकल पड़े हैं

✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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त्यागकर स्वार्थ का छल भरा आवरण
तू दिखा तो  सही प्यार का आचरण
शूल  भी  फिर नहीं दे सकेंगे चुभन
जब छुअन का बदल जाएगा व्याकरण
×-×-×-×-×-×-×-×-×-×-×-×
द्वंद  हर  साँस  का साँस के संग है
हो  रही  हर  समय स्वयँ से जंग है
भूख - बेरोज़गारी  चुभे   दंश - सी
ज़िन्दगी  का  ये  कैसा  नया रंग है
×-×-×-×-×-×-×-×-×-×-×-×
व्यर्थ आपस में क्यों हम हमेशा लड़ें
भेंट षडयंत्र की क्यों सदा हम चढ़ें
छोड़कर नफ़रतें प्यार की राह पर
दो क़दम तुम बढ़ो, दो क़दम हम बढ़ें

✍️  योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, मुरादाबाद
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    जमा  दिया  नदियों का पानी,
    किया  हवा  को  भी  तूफ़ानी,
    पता  नहीं  कब तक सहनी है,
    हमें शिशिर की यह मनमानी।
 
और  न  अपना  कोप  बढ़ाओ  हे सर्दी  रानी,
तेवर   में   कुछ  नरमी  लाओ  हे  सर्दी  रानी।
कुहरा भी फैलाओ लेकिन हफ़्तों-हफ़्तों तक,
सूरज  को  यों  मत  धमकाओ  हे  सर्दी रानी।

✍️ ओंकार सिंह विवेक, रामपुर
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धूप में गम की दरख्तों का घना साया है मां,
नेअमतें है एक अता दौलत है सरमाया है मां,
मां तेरे सदके मेरी शोहरत की हर शाम ओ सहर,
इस  जहां  में तेरा रुतवा कौन ले पाया है मां,,

कुछ तो था जिसका ग़म नहीं जाता,
दिल से वो ...दम से कम नहीं जाता,
कोई .... शिद्दत  से   याद   करता  है,
मुद्दतों ...यह    वहम    नहीं   जाता,,

कहीं तो जिस्म को बेपैरहन रखे फैशन,
कहीं बे पैरहन बैठे हैं मुँह ज़रा सा लिए,
कहीं नसीब मसर्रत जहां की शाम ओ सहर ,
कहीं गमों का तलातुम है सिलसिला सा लिए,,

नजर से जान लेते हैं जिगर की बात भी साहिब,
कहां सबके पहुंच पाते वहां जज्बात भी साहिब,
तमन्ना आसमां छू कर भी उन तक लौट आती है,
मोहब्बत तो बना देती है यह हालात भी साहिब,,

अदब शनास  तबीयत का पास रखते हैं ,
उदास दिल भी  मुहब्बत का पास रखते हैं ,
कभी कहीं भी तेरा तस्करा नहीं करते,
'मनोज' हम भी रवायत का पास रखते हैं,,
          
✍️ मनोज 'मनु', मुरादाबाद
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1
पसीने से ये अपने अन्न धरती पर उगाता है। 
कृषक ही इस धरा पर हम सभी का अन्नदाता है।
किसानों की बदौलत ही हमारा देश कृषि उन्नत,
सियासत खेलना इन पर नहीं हमको सुहाता है।।

2
आना है इसको आएगा, आने वाला कल।
आकर फिर कल बन जायेगा,आने वाला कल। भरी हुई सुख दुख से रहती, उसकी तो झोली,
किसे पता पर क्या लाएगा,आने वाला कल।।

✍️ डॉ अर्चना गुप्ता , मुरादाबाद
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पीछे सारे रह गये, मज़हब-फ़िरके-ज़ात।
जब लोगों ने प्यार से, की हिन्दी में बात।।
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मानो मुझको मिल गये, सारे तीरथ-धाम।
जब हिन्दी में लिख दिया, मैंने अपना नाम।।
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माँ हिन्दी के नाम पर, करके जय-जयकार।
हाय-हलो में व्यस्त क्यों, इसके ठेकेदार।।

अरे चीं-चीं यहाँ आकर, पुनः हमको जगा देना।
निराशा दूर अन्तस से, सभी के फिर भगा देना।
चला है काटने को जो, भवन का मोकला सूना,
उसी में नीड़ अपना तुम, मनोहारी लगा देना

फिर विटप से गीत कोई, अब सुनाओ कोकिला।
आस जीने की जगा कर, कूक जाओ कोकिला।
हों तुम्हारे शब्द कितने, ही भले हमसे अलग,
पर हमारे भी सुरों में, सुर मिलाओ कोकिला।

- ✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
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1-
धरती पर अब तक मानव की प्यास अधूरी है
सुख संग दुख से जीवन की परिभाषा पूरी है
युगों युगों से चक्र तभी ये चलता जाता है,
फूलों संग "काँटों " का होना बहुत जरूरी है
2-
सत्य हम बोल तो लें,यह पर,सुनेगा कौन?
पुष्प 'प्रिय' झूठ का है,काँटें चुनेगा कौन?
लक्ष्य है 'सुख',सभी का,'सच' कब रहा है ध्येय
प्रश्न 'कटु' मेहनत के,मन में गुनेगा कौन?
3-
मीत लौट आ इधर,राह वह निहारती
हाथ चंद्रमा लिए,चेहरा संवारती
चूनरी में स्वप्न की,टाँकने नखत लगी,
दीप जला सांझ का,रूपसी पुकारती

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद
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आज़ादी का बिगुल बजाया मेरी प्यारी हिन्दी ने
जन जन में है जोश जगाया मेरी प्यारी हिन्दी ने
माँ ने मीठी लोरी गायी जिस भाषा के भावों में
सुंदर सा है स्वप्न दिखाया मेरी प्यारी हिन्दी ने ।

✍️ डॉ रीता सिंह, मुरादाबाद
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कहूँ कैसे दबी जो आज मेरे बात दिल में है ।
बिताये साथ जो लम्हे वही  सौगात दिल में है ॥
समय अब आ गया है प्यार का इज़हार करने का ,
मुहब्बत से भरे जज़्बात की बरसात दिल में हैं ॥

दिल के जज़्बात यूँ ही दिल में दबाए रखना।
कोई कुछ भी कहे अश्क़ों को छुपाए रखना।।
जाने किस मोड़ पे मिल जाए मसीहा कोई,
आस का दीप सदा दिल में जलाए रखना।।

✍️ डाॅ ममता सिंह मुरादाबाद
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हाथों की भी यह कैसी मजबूरी है  
सब कुछ पाया है, एक चाह अधूरी है।
हाथ मिलाने से पहले सोचा न था
रेखाओं का मिलना बहुत जरूरी है।

मैं जानती हूं कि मुझको तेरी तलाश नहीं
ढूंढती रहती हूं जाने क्या मेरे पास नहीं।।
तड़प है दर्द है खामोशी है तन्हाई है,
फिर भी कहती हूं जमाने से मैं उदास नहीं।।

अभी मुझको जमाने की तरह चलना नहीं आता
रिवाजों में यहां की रीत में ढलना नहीं आता
  मुझे आता है बस लोगों के होंठों पर हंसी लाना
मुझे मंदिर में पूजा आरती करना नहीं आता।।

✍️ निवेदिता सक्सेना, मुरादाबाद

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