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रविवार, 22 जनवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की लघुकथा ...डरी सिमटी व्यथा .


कमरे मे बेटे के आने की आहट होते ही उसके पिता ने अपने बिस्तर पर उघडी़ चादर को अपने शरीर में पूरा ढक लिया और चुपचाप एक तरफ करवट लेकर सिकुड़ कर मुंह ढक कर लेट गया। जब बेटा कमरे से चला गया ,गठरी बने बूढ़े पिता ने चादर हटाई और अपने सिरहाने से अपनी दिवंगत पत्नी की छोटी सी कागज में लिपटी फोटो निकाली, उसे निहारता रहा जैसे अपनी व्यथा कहना चाह रहा हो। उसके आंसू टप-टप गिरने लगे-

   "    तुमने भी खाना कैसै खाया होगा शांति , रात के 11 बज चुके हैं मुझे अभी तक किसी ने यहां खाना नहीं दिया है। मांगूंगा तो ...... (मुंह बंद कर फूट-फूट कर रो पड़ा)" 

✍️ धन सिंह धनेंद्र 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 



शनिवार, 21 जनवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा-- कम्बल



  ....भैया कम्बल कैसे दिए हैं ।

अरे आप तो ले लो, बस दो ही बचे हैं... पैसे तो हो ही जायेंगे ।

      ठीक है, दोनों दे दो ," ग्राहक ने कहा"। 

विक्रेता ने दोनों कम्बलों के चार सौ रुपये लेकर उसे चलता किया।

   गोलू जो उधर से गुज़र रहा था, यह देखकर कह उठा,"अरे.... तुम तो अपने बच्चों के साथ कम्बल वितरण की लाइन में लगे हुए थे... अब समझा...."। 


अशोक विश्नोई

मो०9458149223

गुरुवार, 5 जनवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की लघु कथा - "मस्ती और नशा"

   


वह दूर दूर तक बिखरी अपनी मटर, आलू ,प्याज साग, सब्जियां बटोर रहा था। काफी सब्जियां तो आने जाने वाली कारों गाड़ियों के पहियों से कुचल चुकी थीं। बीच में वह बार-बार अपने आंसू भी पोंछता जा रहा था। एक तरफ उसका ठेला टूटा और उल्टा पडा़ था। उसके हाथ और चेहरे पर आई चोटें भी साफ दिखाई दे रही थी, जिसमें से खून रिस रहा था। कुछ लोग उसकी वीडियो बनाने में लगे थे। घुमंतु यू -ट्यूबलर भी आ पहुंचे जबरदस्ती उसका इंटरव्यू लेने और वीडियो बनाने लगे । एक दो राहगीर उसकी मदद करने को आगे आये,सब्जी बटोरने में मदद करने लगे। 

   धीरे-धीरे खाली सड़क पर तमाशा देखने वालों की भीड़ बढ़ने लगी थी। कहने को कुछ भी नहीं हुआ था। नये साल की मस्ती और नशे में डूबे रईसज़ादों की औलादों की तेज रफ्तार महंगी कार के सामने सब्जी वाला अपना ठेला लेकर आ धमका था।

     लड़के तो नये साल की अपनी मस्ती और नशे में थे, गलती तो गरीब परिवार के इकलौते सब्जी बेचने वाले की थी।

✍️ धनसिंह 'धनेन्द्र'

चन्द्र नगर, मुरादाबाद 

उत्तर प्रदेश, भारत


गुरुवार, 8 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की लघुकथा....भ्रष्टाचार की एक रात


पत्रकारिता मेरा ज़नून था। अपने छात्र जीवन से ही मैं पत्रकारिता की तरफ उन्मुख हो चुका था। एक दिन मध्य रात्रि को मेरे पास फोन आया कि सरकारी जिला अस्पताल में प्रसव पीडा़ से एक नवविवाहिता तड़प रही है। उसका तुरंत आपरेशन होना है। लेडी डाक्टर आपरेशन करने के लिए दस हजार रुपये मांग रही है। मैं स्टोरी कवर करने सीधा अस्पताल पहुंच गया। डाक्टर व अस्पताल के कर्मचारी मुझे पहचानते थे। इसलिए मैने महिला के पति की कमीज की जेब में आवाज रिकार्डिंग की डिवाईस रख कर एक बार फिर उन्हें बात करने भेज दिया। डाक्टर की रिश्वत मांगने और डांटने डपटने की सारी रिकार्डिंग हो चुकी थी। मैने घटना स्थल के दो चार चित्र लिये और फिर डाक्टर के पास पहुंचा। मुझे देख कर वह सन्न रह गई। पत्रकार का इतनी रात्रि में अस्पताल में आना।उन्होंने तुरंत मुझे अपने चेम्बर में बैठाया और बोली- शरद जी आप कैसे इतनी रात में? मैं बोला डाक्टर साहब- "यह जो महिला पेशेन्ट है। इसके बारे में बात करनी है।" बस इतना कहना था कि उसने मुझसे बडी आत्मीयता से बात की और महिला का कल सुबह आपरेशन करने को कहा। मैं बोला - "यह बहुत गरीब है। दर्द से तड़प रही है। आप इनसे दस हजार रुपए की रिश्वत मांग रहीं हैं यह उचित नहीं है। आप इनका आपरेशन करिये आपको जो भी चाहिए मैं दूंगा।" इतना सुनते ही वह भड़क कर कहने लगी - " कौन रिश्वत मांग रहा है? जिसके मन की बात पूरी न करो वह डाक्टरो पर रिश्वत मांगने का आरोप लगा डालता है और आप भी ऐसे लोगों की तरफदारी कर रहें हैं।"

           मैंने उन्हें पूरी रिकार्डिंग सुना डाली और यह कह कर चला आया। आपका जो मन हो वह करें। मुझे कल के लिए समाचार का मसाला मिल गया है। वह मुझे रोकती रही और मैं वापस घर आ गया। मेरे पीछे-पीछे कुछ देर बाद वह मेरे घर आ पहुंची। उनके हाथ में एक लिफाफा था। मेरी मेज पर रख कर बोली - "मैं बहुत तनाव में हूं और अभी जाकर मुझे उस युवती का आपरेशन करना है। मैं आपके हाथ जोड़ती हूं।अब इस बात को आगे मत बढा़ओ।"  वह रुंआंसी हो उठी थी। गलती की माफी चाहती हूं। इतना कह कर बिना मेरी कुछ सुने वह तेजी के साथ वापस चली गई। मैंने लिफाफा देखा तो उसमें पच्चीस हजार रुपये रखे थे। मैं बहुत परेशान हो गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करुं? मैने निर्णय लिया कि यह रुपये डाक्टर को वापस कर दूंगा और मैंने डाक्टर को तुरंत फोन कर इस निर्णय की जानकारी भी दे दी। इस खबर को मैंने अखबार में छपने को नहीं दी और चादर तान कर सो गया।

          अगले दिन किसी अन्य पत्रकार ने अपने अखबार में सुर्खियों में खबर छापी 'अंधेरे में टार्च की रोशनी में लेडी डाक्टर ने दर्द से छटपटाती गरीब महिला का सफल आपरेशन किया। जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ हैं। डाक्टर के इस कार्य की चारों ओर खूब प्रशंसा हो रही है।'

       उस घनी अंधेरी रात में सब सो रहे थे। मगर भ्रष्टाचार का गंदा खेल चल रहा था। इस खेल में दर्द, छटपटाहट, आंसू, रुपया-पैसा, स्वार्थ,शोषण एवं लालच सबकी अपनी-अपनी भूमिका थी। परन्तु सदाचार, मानवता और संवेदना वहां से गायब थी।

✍️धन सिंह 'धनेन्द्र'

श्री कृष्ण कालोनी, चन्द्र नगर

मुरादाबाद  पिन -244001

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा.....टारगेट



 "कल जिले में कितने नए पौधे लगाए गए थे"

" दो हजार"

" पौधे लगाते हुए फोटो खींच लिए थे"

" जी हां"

"अब ऐसा करो, उन सबको उखाड़ लो और किसी नई जगह लगाकर फोटो खींच लो"

"लेकिन ऐसे तो बहुत से पौधे खराब हो जायेंगे"

" हो जाने दो। हमें प्रदेश का टारगेट पूरा करना हैं।"


✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

आदर्श कॉलोनी रोड

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की लघु कथा ....आर या पार

 


सावित्री का चेहरा सूजा हुआ था। जगह-जगह लाल- नीले निशान पड़े हुए थे ,जो बता रहे थे कि कुछ देर पहले क्या हुआ होगा।

    मायके से सावित्री का भाई आया था और अपनी बहन के चेहरे पर यह निशान देखकर भौचक्का रह गया। बहुत गुस्सा आया। पूछा" यह क्या है ? कैसे हुआ ? किसने किया?"

    सावित्री ने कोई जवाब नहीं दिया। पानी का गिलास भाई की तरफ बढ़ाया ।

       कहा" पानी पियो "

भाई बोला "मेरी बात का जवाब दो !"

    सावित्री बोली "बात बढ़ाने से कोई फायदा नहीं । कल तुम्हारे जीजा जी जब खाने बैठे तो उन्हें खाने में नमक कुछ ज्यादा लगा । बस इसी बात पर मार- पिटाई शुरू कर दी ।"

     भाई भड़क गया "आजकल के जमाने में क्या कोई औरतों से ऐसे सलूक करता है?"

      बहन बोली "आजकल के जमाने में ही यह सब हो रहा है। मर्दों का कहना है  कि औरतें पिटाई की भाषा ही समझती हैं। ऐसे ही ठीक रहती हैं ।"

     "तुम विद्रोह क्यों नहीं करती ?"

             "क्या होगा इससे ?-"सावित्री का जवाब था।

    "तुम पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं करती?"

          " परिवार टूट जाएगा ?"

"और अब क्या बिखरा हुआ नहीं है ?अब क्या कम टूटा हुआ है ? अपने चेहरे के निशान देखो ! क्या जिंदगी भर इन्हीं को लिए हुए रोती रहोगी ?"

     सावित्री ने कोई जवाब नहीं दिया। रसोई में चली गई ।भाई गुस्से में तमतमाता रहा। जीजा आए तो सीधा सवाल दाग दिया-" मेरी बहन को अगर हाथ भी लगाया तो ठीक नहीं होगा।"

      सुनते ही जीजा भड़क गए "ओह !अब बहन के भाई के पर निकलने लगे ! क्या कर लोगे मेरा ! जाओ बहन को उठाकर ले जाओ ।"

     "जीजा आपने सही नहीं समझा। मेरी बहन कहीं नहीं जाएंगी। वह इसी घर में रहेंगी, क्योंकि वह घर की मालकिन हैं।  हां ! आपको जरूर जेल जाना पड़ेगा ।सोच लीजिए ! आप तो समझदार हैं । पढ़े लिखे हैं। सरकारी नौकरी करते हैं।"

      " मुझे धमका रहे हो ।"

              "बिल्कुल धमका रहा हूँ। आपकी सरकारी नौकरी चली जाएगी ।"

        जीजा समझदार था ।थोड़ी ही देर में उसने हथियार डाल दिए। बोला "अपनी बहन को समझाओ । घर गृहस्थी में ध्यान दे। मैं जानबूझकर थोड़े ही मारता हूँ।"

            "चाहे जानबूझकर मारो ,चाहे बगैर जानबूझकर  मारो ,लेकिन अब आज से हाथ नहीं उठना चाहिए । वादा करते हो तो मैं जाऊँ, वरना यहीं रह कर आगे की कार्यवाही करूँ।"

       जीजा डर गया ।बोला "अब हाथ नहीं उठाऊँगा ।"

            रसोई के दरवाजे की आड़ में खड़ी सावित्री ने जब यह सुना, तो खुशी से उसकी आँखों में आँसू आ गए ।लेकिन थोड़ी सी धुकर-पुकर भी मन में बढ़ रही थी कि देखो आगे क्या होता है । फिर सोचने लगी, चलो ठीक ही हो रहा है। जो होगा,अच्छा ही रहेगा। या तो आर या फिर पार। इस रोज-रोज की मार- पिटाई वाली जिंदगी से तो बेहतर रहेगा ।

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा,

रामपुर

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा--सभ्यता

   


चौराहे पर गाड़ी और मोटरसाइकिल में टक्कर होते -होते रह गई।तभी मोटरसाइकिल सवार ने गाड़ी चला रहे 75 वर्षीय वृद्ध से कहा

 देख कर नहीं चल सकता जब चलानी नहीं आती तो चलते क्यों हो ? वृद्ध ने विनम्रता से कहा ," बेटा गलती हो गई आइंदा ध्यान रखूंगा।" हाँ हाँ----- इतना ही कह पाया था कि उधर से मोटसाइकिल चालक के

पिता श्री ने उसके पास आकर गाड़ी रोक कर पूछा क्या हुआ बेटा ? ," कुछ नहीं पिता जी बस इसे बता रहा था कि गाड़ी देख कर चलाया कर ।" पिता रामसेवक ने गाड़ी में बैठे महाशय को देख गाड़ी से उतर कर उनके पैर छुये और लड़के के चपत लगाते हुए कहा," मालूम है यह कौन हैं?"ये गाड़ी ये मोटसाइकिल सब इनकी कृपा से है ,माफ़ी मांग इनसे।

    कोई बात नहीं राम सेवक," जाने दो बच्चा है कहा सेठ जी ने " और यह कह कर अपनी गाड़ी बढ़ा दी," ईश्वर का दिया तुम पर सब कुछ है  राम सेवक बस थोड़ी सी सभ्यता की कमी है-- सिखाना जरुर -----"।।

✍️ अशोक विश्नोई


मुरादाबाद की साहित्यकार डॉक्टर प्रीति हुंकार की लघु कथा ..... आखिर वह क्या करे....



"ये बच्चे तुम्हारे भी तो हैं अमन,मैं नौकरी न कर रही होती तो भी तो तुम इन बच्चों की जिम्मेदारी उठाते कि नहीं ।"बच्चों की पढ़ाई ,मकान लोन दवाई गोली ,अतिथि सत्कार घर की छोटी से छोटी जरूरत तुम मेरे जिम्मे करके स्वयं चिंता मुक्त हो ,कभी तो सोचो कि मैं अकेले कैसे मैनेज करती हूं कहते कहते अवनि के नेत्रों से अश्रु धारा वह निकली......।"अगर मुझे जिम्मेदारी उठानी होती तो तेरी जैसी काली कल्लो से शादी क्यों कर लेता । खैर कर ,की भगवान ने तुझे नौकरी दी है वरना तेरी जैसी बदसूरत औरत से रिश्ता करने की क्या पड़ी थी मुझे । हर लड़के ने नापसंद किया था तुझे बस मैं ही अभागा था जो तू मेरे ......अमन ने  अवनि की आवाज़ दबाते हुए गुर्राते हुए व्यंग्य किया । 

जीवन के बीस वर्षों में जब भी अवनि ने अपने नौकरीपेशा पति अमन को उसकी जिम्मेदारी बतानी चाही ,कभी वह मोबाइल में शेयर देखने लगता, कभी उससे अलग हो जाने की कहता कभी चरित्र पर ऊंगली उठाता और कभी बदसूरती की दोहाई देता ,पर अपने समस्त कर्त्तव्यों का सम्यक निर्वहन करके भी अवनि स्वयं से प्रश्न करती  रह जाती कि आखिर वह क्या करे ..........? पर उत्तर शायद ही उसे मिल पाता।


✍️ डॉ प्रीति हुंकार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार राम किशोर वर्मा की लघुकथा.....ईमानदार


 "आज पाँच तारीख हो गई शर्मा जी । अभी तक आपके स्टेटमेंट नहीं आये? तीन तक आ जाने चाहिए थे!" -- बड़े बाबू बाबू जी पर बिगड़ रहे थे --"हमें सात को हाई कोर्ट भेजने हैं। हम कब तैयार करेंगे ? आपसे एक अपनी कोर्ट के नक्शे नहीं बन पा रहे?"

   शर्मा जी बोले -- "मैं तीन दिन से छुट्टी पर था । कल ही ऑफिस आया हूँ । मेरे पीछे काम बहुत फैल गया था । उसे समेटा है । रात को घर पर स्टेटमेंट की तैयारी भी कर ली है। कल सुबह ही स्टेटमेंट आपकी टेबिल पर होंगे ।"

   "काम का तो बहाना है । आपको इधर-उधर जुगाड़ भिड़ाने से फुर्सत मिले न!" -- कहते हुए बड़े बाबू कुर्सी से उठे --"मेरी नमाज़ का टाइम हो गया है। मैं मस्जिद में जा रहा हूँ । आज शाम तक हर हाल में स्टेटमेंट मेरे पास आ जाने चाहिए।"

   शर्मा जी ने बड़े बाबू को याद दिलाया --"आप भी बाबू रह चुके हो । अभी तो आपने इधर-उधर झांकना बंद कर दिया है। नौ सौ चूहे खाये बिल्ली हज़ को चली । आज आप ईमानदारी का ढोंग रच रहे हैं तो आपकी नज़र में सब बेईमान हो गये ।"

   बड़े बाबू सब सुनते हुए नमाज पढ़ने के लिए कमरे से तेज कदमों से  बाहर  निकल गये ।

   ✍️ राम किशोर वर्मा 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत


गुरुवार, 27 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की लघु कथा ....खुशियों की दीपावली



           "अरी बहू !  क्या बात है ,तीन बज गए ।अभी तक दोपहर का खाना खाने कुंदन नहीं आया कहां चला गया है"। चिंतित होते हुए अम्मा जी ने अपनी पुत्रवधू विनीता से कहा । 

          विनीता ने शांत भाव से जवाब दिया "अम्मा जी ! आज तो दीपावली है ।रात से बैठकर पटाखे और आतिशबाजी की लिस्ट तैयार कर रहे थे। वही लेने गए होंगे। मैं तो समझा - समझा कर हार गई "।

   अम्मा जी थोड़ा गुस्से में आ गईं। बोलीं" इतनी बार इसे समझाया कि पैसे को आग मत लगा लेकिन हर साल दस बीस हजार की आतिशबाजी लेकर आता है । यह भी तो नहीं देखता कि कमाई कितनी है। बस दो-चार इसके साथ के यार दोस्त हैं जो इसको चढ़ाते रहते हैं और 2 घंटे में सारा रुपया फूंक कर चले जाते हैं"।

       विनीता ने कहा " अम्मा जी! मैं हर साल समझाती हूं लेकिन कोई असर नहीं होता"।

        अब अम्मा जी थोड़ी उदास होने लगीं। खाट पर बैठ गयीं। घुटनों को सहलाने लगीं और बोलीं"-" कई साल पहले की बात है, इसने आंगन में ही सारी आतिशबाजी जला दी थी. नतीजा यह हुआ कि 2 घंटे में जाकर धुआं थोड़ा कम हुआ. मैं तो सांस लेने तक से मुश्किल में आ गई थी. बस यह समझो कि दम घुटने से बची"।

     फिर कहने लगीं कि आतिशबाजी नीचे छोड़ो, ऊपर छोड़ो ,बाहर छोड़ो !  क्या फर्क पड़ता है! धुँआ तो सब जगह हवा में फैला रहता है । आज दिवाली है लेकिन मैं तो कई दिन पहले से सांस लेने में मुश्किल महसूस कर रही हूं ।जब सारे लोग ही पटाखे छोड़ते रहेंगे और माहौल को जहरीला करते रहेंगे तो हम बूढ़े सांस लेने कहां जाएंगे "।

      यह बातें हो ही रही थीं कि दरवाजे पर कुछ आहट हुई । अम्मा जी ने विनीता के साथ जाकर बाहर देखा तो पता चला कि कुंदन खड़ा हुआ है और ठेले पर से कुछ उतरवा रहा है। विनीता ने देखा तो उसकी आंखों में चमक आ गई । मुंह से अचानक निकाला -"अरे वाह ! वाशिंग मशीन ! क्या बात है ! आज वाशिंग मशीन ले आए । मैं तो पिछले छह-सात साल से बराबर इसी  के लिए कह रही थी"।

    कुन्दन ने कहा-" आज देखो ! दीपावली के शुभ अवसर पर मैं घर में वाशिंग मशीन लेकर आया हूं । अब इसका उपयोग पूरे घर को मिलेगा , फायदा सबको मिलेगा।"

      वाशिंग मशीन घर में क्या आई, खुशी की लहर दौड़ पड़ी। अम्मा जी ने  कुंदन को सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया। थोड़ी देर बाद जब मशीन रखकर ठेलेवाला चला गया। मशीन फिट हो गई । शाम होने लगी तो कुंदन के पास फोन आया।

     " क्यों भाई सुना है, इस साल आतिशबाजी नहीं होगी"

   कुंदन ने जवाब दिया "हां यार ! इस बार वाशिंग मशीन खरीद ली "।

   उधर से जवाब आया "अब तेरी जिंदगी में उत्साह नहीं रहा ।"

   कुंदन ने फोन बंद कर दिया लेकिन दोस्तों की संख्या 1 से ज्यादा थी .थोड़ी देर बाद फिर फोन की घंटी बजी। कुंदन ने फोन उठाया"- अरे भाई क्या बात है ? आज उदासी में दीपावली मनाओगे ? कोई आतिशबाजी नहीं, पटाखे नहीं!"

    कुंदन ने फोन रख दिया । फिर एक फोन आया "अरे यार! दीवाली तो साल में एक ही बार आती है । घर गृहस्थी  तो रोजाना चलाते रहोगे । यह क्या! वॉशिंग मशीन ले आए। पटाखे सुना है, एक भी नहीं लाये "।

    कुंदन बोला "हां सही सुना है "

    और फोन उसने काट दिया ।

               फिर जब शाम ढ़ली तो कुंदन ने विनीता से कहा-" इस बार मैंने आज सुबह ही सोच लिया था कि पटाखे और आतिशबाजी में पैसा बर्बाद नहीं करूंगा। कितनी मुश्किल से हम कमाते हैं और सचमुच हमारी हैसियत दस बीस हजार खर्च की नहीं है। पटाखों में खर्च करके वातावरण भी प्रदूषित होता है । अम्मा जी को सांस लेने में कितनी तकलीफ होती है। इसके अलावा पिछले साल सड़क पर जो हम जा रहे थे तो तुम्हें याद होगा किसी ने पैर के पास पटाखा  फोड़ दिया था और तुम्हारी साड़ी में आग लगते लगते बची । फिर भी पैर में जख्म हो गया था , जो तीन-चार दिन में जाकर भरा।... आज हम सचमुच खुशियों की दीपावली मना रहे हैं"।


✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघु कथा....छटाँक भर जीरा!

 


लाला शुद्धबुद्धि अपनी किराने की दुकान पर बैठे-बैठे ग्राहकों के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। सोच रहे थे कि आधा दिन निकल गया परंतु किसी ग्राहक का अता-पता ही नहीं।

   तभी उन्हें एक ग्राहक दुकान की ओर आता दिखाई दिया। लाला शुद्धबुद्धि ने बढ़कर ग्राहक की इच्छा जानने हेतु पूछा,क्या चाहिए श्रीमान जी।

 ग्राहक कुछ बोलता इससे पहले तराजू के पास पड़े पाँच किलो,दस किलो,बीस किलो,तथा पचास किलो वज़्न के बाटों में यह बहस ज़ोर पकड़ गई कि दुकान पर पधारे ग्राहक महोदय कितने वज़्न का सौदा खरीदने का मन बना रहे हैं।

    सबसे पहले पांच किलो का बाट आगे आया और बोला आजकल महंगाई इतनी हो गई है कि ग्राहक को पांच किलो सौदा खरीदने के लिए भी सौ बार सोचना पड़ जाता है। ऐसे समय में केवल मैं ही तो ग्राहक की इच्छा पर खरा उतरता हूँ।

  तभी उसकी बात बीच में ही काटते हुए दस किलो का बाट अकड़ कर बोला। तू छोटा मुँह बड़ी बात मत किया कर। औकात में रहकर बोलना सीख ले समझा नहीं तो,,,,,आजकल कोई भी अपनी हैसियत को गिराकर खरीदारी करना उचित नहीं समझता। कम से कम ग्राहक का पहनावा देखकर ही अनुमान लगा लिया कर। घर के खर्चे के हिसाब से ही तो चीज़ ली जाती है। अब तू देखता रह भाई साहब मुझ पर ही अपना हाथ रखने वाले हैं।

  इतना सुनते ही दोनों बाटों को पीछे धकेलते हुए बीस किलो का बाट बोला हमारे ग्राहक महोदय, दुकान तक कोई पैदल या फटीचर साइकिल पर चढ़कर थोड़े आए हैं।कार से आए हैं कार से। कोई पांच या दस किलो सामान तुलवाकर घर ले जाएंगे क्या।,,,,,

   लेकिन ग्राहक महोदय शांत खड़े रहकर कुछ सोचने लगे तभी पचास किलो वज़्न का बाट सामने आया और सम्माननीय ग्राहक से बड़े ही विनम्र भाव से बोला, श्रीमान जी यह सारे के सारे बाट एकदम मूर्ख हैं मूर्ख। यह इतना भी नहीं समझ पा रहे हैं कि आप इतनी बड़ी गाड़ी में बैठकर इस दुकान पर आए हैं तो क्या दस या बीस किलो सौदे में लिए  ही इतना पेट्रोल  फूंकेंगे। मैंन इन्हें इतनी बार समझाया है कि ग्राहक देखकर ही अपना मुंह खोला करो। मगर ये हैं,कि समझने को तैयार ही नहीं।इनको तो बिना सोचे समझे बोलना सिद्ध,,,,,

    तभी ग्राहक ने दुकानदार शुद्धबुद्धि को मात्र एक छटाँक जीरा तौलने का आदेश दिया।

    इतना सुनते ही सभी बाटों के मुँह लटक गए। मन ही मन ग्राहक को भला-बुरा कहते हुए अपने स्थान पर निर्जीव पड़े रहकर अगले ग्राहक की प्रतीक्षा करने लगे।

    तभी छटाँक भर के बाट ने गर्व से सीना चौड़ा करते हुए कहा। कि छोटों की अहमियत  को कभी कम नहीं समझना चाहिए। सबने यह कहावत तो सुनी ही होगी।

     रहिमन देखि बड़ेन कौं

     लघु  न   दीजिए  डारि।।

  दुकानदार शुद्धबुद्धि ने ग्राहक को एक छटाँक जीरा तोलकर दे दिया।और कीमत लेकर बोरी के नीचे रखते हुए कहा। कृपया आते रहिएगा आप ही की दुकान है।

   दोनों एक दूसरे का  धन्यवाद करते हुए मुस्कुराने लगे।

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी 

मुरादाबाद 244001 

उत्तर प्रदेश, भारत



      

                  

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा ...जख्म


घर के बाहर ढोल नगाड़े बज रहे थे ।सभी घर परिवार के सदस्य और नाते रिश्तेदार थिरक थिरक कर नाच रहे थे ।पूरा घर नए रंग बिरंगे गुब्बारों से सजाया गया था ।

गाड़ी से बाहर पैर रखने से पहले ही सासू मां ने फूल बिछा दिए मुक्ता के।

वह आश्चर्य चकित हो सबको देख रही थी ।निहाल ,उसके पति भी तो कैसे उसको सहारा देने में लगे हुए थे ।

"परिस्थितियों का गुलाम होता है इंसान भी ।"मुक्ता ने मन ही मन सोचा।

"न ईमान न धर्म और न ही गैरत ।"

उसकी दोनों फूल सी आठ और दस साल की बेटियां भी नाच रहीं थीं ।अचानक सभी की लाडली हो गईं वो ।

"अब इनके उपर का ढक्कन आ गया तो , ये भी प्यारी लगने लगेगी ।"दादी सास ने दांत निपोरते हुए कहा तो सभी हां में हां मिलाने लगे ।ऐसा नहीं था कि वो सब अशिक्षित थे लेकिन सिर्फ कहने भर के कागजी शिक्षित थे शायद ।

मुक्ता की गोद से झट से सासू मां ने पोते को ले लिया और उसकी बलैया लेने लगीं। 

"ये सभी वही लोग हैं जो मेरी दोनों बेटियों के होने पर मेरे पास तक नहीं फटके थे ।"सोचकर मुक्ता का मन घृणा से भर आया उसके जख्म फिर से हरे हो गए ।

दरवाजे पर पहुंचने से पहले ही उसने अपनी दोनों बेटियों को गले से लगा लिया और सुबकने लगी ।

वह यादों के आगोश में चली गई ।

जब दोनों बेटियों के जन्म के बाद वह घर आई थी तब घर में मानो सन्नाटा सा पसर जाता था ।

दूधमुही बेटियों को कोई छूता तक नहीं था । सभी घर में मुक्ता की तरफ मुंह बनाकर बात करते ।निहाल तो बहुत दिनों तक कमरे तक में नहीं आए और आज ......

"अरे बहु चलो तुम्हारी आरती होगी ।"सासू मां चिल्लाई ।

मुक्ता ने दोनों बेटियों को आगे कर कहा ।

"इनकी कर दोगी तो मेरी ही हो जायेगी ।"

सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे ।निरुत्तर ।

✍️ राशि सिंह

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ....संवेदनशीलता


सुबह के आठ बजे थे।कबूतरों ने आना शुरू कर दिया था।लेकिन आज छत पर दाना पानी नहीं था।कबूतरों ने उत्सुकतावश इधर उधर देखा।

नीचे आंगन में ,कपड़े में लिपटा हुआ,किसी का मृत शरीर रखा था।कबूतरों ने उसे फौरन पहचान लिया।अरे !यह तो वही इंसान है,जो उनको रोज दाना खिलाता था। उनमें आपस में कुछ खुसर पुसर हुई और धीरे धीरे छत पर कबूतरों की भारी भीड़ इकट्ठा हो गई।सब शांत बैठे थे और उनकी आंखों में आसूं स्पष्ट देखे जा सकते थे।

आंगन में भी दो चार लोग आ चुके थे, लेकिन शोर शराबा बढ़ता जा रहा था।

✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

आदर्श कॉलोनी रोड

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा--सन्मति


 एक शराबी ने इतनी पी रखी थी कि उसे यह भी होश नहीं था कि वह कौन है बस सड़क पर खड़ा होकर अपनी ही धुन में बड़बड़ा रहा था ,मैं यहां का राजा हूँ तुम सब मेरी प्रजा हो । साली कहती है पैसे नहीं हैं तुम्हें दूँ या बच्चों को पढ़ाऊँ ,साली बच्चे गये भाड़ में।आज बताता हूँ उसे---।

       वह इतनी ज़ोर- ज़ोर से बड़बड़ा रहा था कि कहीं दूर से आती भजन की आवाज़ भी दब रही थी बस हल्की हल्की आवाज सुनाई पड़ रही थी

       ईश्वर अल्लाह तेरे नाम

       सबको सन्मति दे भगवान 

       ईश्वर अल्लाह तेरे नाम----।।

✍️ अशोक विश्नोई 

          



शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की लघुकथा ...श्रद्धा

       


शिवालय में माता का भव्य जागरण हो रहा था। भांति-भांति की पुष्प श्रंखलाओं से देवोपम भव्य दरबार सज्जित किया गया था।लब्ध प्रतिष्ठ गायक और कलाकार आये हुए थे।

     अर्पित और उसकी पत्नी शैला भी जागरण में जाने की तैयारी कर रहे थे…ऐसे ख्याति प्राप्त गायक सुनने को कहां मिल पाते हैं…और विभिन्न प्रकार की झांकियां…कभी मयूर नृत्य,कभी राधा कृष्ण का नृत्य,कभी काली माई की झांकी,कभी शिव स्तोत्र पर तांडव नर्तन…भरपूर मनोरंजन के साथ-साथ अध्यात्म की अनुभूति भी…माता की पूजा में तो अगाध श्रद्धा उनकी थी ही।

     एक कोठरी में चारपाई पर पड़ी बीमार वृद्ध वयस मां को तो उन्होंने भनक भी नहीं लगने दी थी…वह भी साथ चलने की अभिलाषा व्यक्त कर सकती थी।

     लेकिन बहू को सजते-संवरते श्रंगार करते देखकर मां ने स्वयं ही अनुमान लगा लिया कि पति को साथ लेकर वह कहीं जा रही है…कहां जा रही होगी?...शिव मंदिर में इतना सुन्दर इतना भव्य मां का दरबार सजाया गया है तो फिर वहीं जा रही होगी…

     मां भगवती में तो उसकी भी अगाध श्रद्धा थी।वह भी जीवन भर नवदुर्गे और नवरात्रों के पूरे व्रत निष्ठा और नियम पूर्वक रखती आयी थी। और जब तक देह की सामर्थ्य रही कहीं भी मां का जागरण अथवा भजन कीर्तन उसने छोड़ा नहीं था। श्रद्धा होती भी क्यों नहीं,भगवती मां ने उसकी मनोकामना भी तो पूर्ण की थी…अर्पित को उसके अंक में डालकर…अर्पित को पाने के लिए उसने कितने जप तप, कितने व्रत अनुष्ठान किये थे , उम्र के इस अन्तिम पड़ाव पर कुछ भी तो स्मरण नहीं।

     मां के दरबार में अपनी श्रद्धा की देवी की एक झलक पाने के लिए उसका भी मन ललचा उठा। उसने साहस कर बहू को आवाज लगा दी– "बहू!जरा मेरे पास तो आ!... तुम लोग आज जा कहां रहे हो?"

     बहू ने सुनकर भी अनसुना कर दिया तो उसने बेटे को पुकारा।बेटा वहीं से चीखा– "क्या है मां?यह कितनी गन्दी आदत है तुम्हारी कि हम जब भी कहीं जाने को तैयार होते हैं तुम हमें परेशान करने लगती हो!... चुपचाप नहीं लेटी रह सकतीं क्या?"

     मां सहम गयी…जब अपनी कोख से जना बेटा ही कोई बात सुनने को तैयार नहीं तो फिर बहू पर ही क्या अधिकार?...उसका भी क्या विश्वास कि वह कोई बात मान ही लेगी?

     लेकिन देवी मां के चरणों में शीश नवाने की अदम्य लालसा ने उसमें साहस भर दिया । लाठी के सहारे वह उठी और बहू के सामने पहुंचकर धीरे से ससंकोच बोली – "बहू क्या मां के जागरण में जा रही हो? मेरा भी बहुत मन था मां के चरणों में मत्था टेकने का।सोच रही थी कि आज हूं कल का क्या पता रहूं न रहूं? अन्तिम बार मां के दिव्य दर्शन कर लेती तो हृदय को बड़ी शांति मिल जाती…"

     बहू की भृकुटी वक्र हो गयी– "मां जी! आपसे कितनी बार कहा है कि हमारे काम में अड़ंगा मत लगाया करो! न कहीं आते जाते समय हमें रोका-टोका करो! पर सठिया गयी हो न, मान कैसे सकती हो?... अच्छा खासा मूड खराब कर दिया…दो कदम तो तुमसे चला नहीं जाता, जागरण में जाओगी?... भीड़ की रेलमपेल में कहीं कुचल कुचला गयीं तो और हमारी जान को मुसीबत खड़ी हो जाएगी। वैसे भी हम कौन सा मंदिर जा रहे हैं, इनके दोस्त की मां बीमार है उसे देखने जा रहे हैं आधे घण्टे में लौट आएंगे।"

     बहू से निराश होकर बूढ़े नेत्रों में याचना भाव लिये वह बेटे की ओर मुड़ गयी– "बेटा! मैं तुम दोनों के काम में बिल्कुल भी अड़ंगा नहीं लगाऊंगी।बस तू मुझे मंदिर तक पहुंचा आ! उसके बाद तुम दोनों को जहां जाना हो वहां चले जाना और उधर से लौटते समय मुझे भी लेते आना। अंतिम समय में एक बार मां के दर्शन हो जाएं तो समझ लूंगी कि मैंने सारे तीरथ कर लिये।"

     पुत्र ने क्षणार्ध भर को पत्नी की ओर देखा…पत्नी ने आंखों ही आंखों में उसे कोई संकेत किया तो वह आवेश में आ आ गया – "अम्मा! तुम पागल हो गयी हो। बीसियों बीमारियां तुम्हारे शरीर में घुसी पड़ी हैं।पता है तुम्हें कुछ,कितना खर्च आ रहा है तुम्हारी दवाइयों पर? मंदिर की भीड़ में तुम्हें चोट वगैरह लग गयी तो कैसे करा पाएंगे तुम्हारा इलाज? इतना धन आएगा कहां से? …दो कदम चलने में तुम्हारी सांस फूलने लगती है मंदिर तक कैसे चल पाओगी? या तुम्हें कन्धे पर बैठाकर ले जाऊं?"

     वृद्धा मां उपहास की हंसी हंस पड़ी – "ना बेटा ना! तू क्यों ले जाएगा मुझे अपने कंधों पर बैठाकर? वह तो मैं ही थी कि जब तू छोटा था तब बीमार होने पर भी तुझे अपने कंधों पर बैठाकर माता के दरबार में ले जाती थी और तेरा मत्था टिकवाती थी। क्योंकि मैं मां हूं न। तू क्या जाने मां की ममता का मूल्य?बेटा तू अब भी कहे तो मैं अब भी तुझे अपनी पीठ पर लादकर घिसटती-घिसटती मां के दरबार तक ले ही जाऊंगी। और बेटा तुझे याद है न कि तेरे कालेज की फीस भरने के लिए मैंने अपना सारा जेवर बेच दिया था…और तू कहता है कि इलाज का खर्च कहां से आएगा?... वाह बेटा वाह!..."

     लेकिन पुत्र मां की बात सुनने के लिए रुका नहीं। पत्नी का हाथ पकड़ कर तत्काल बाहर की ओर निकल गया…मां के जागरण में शीश नवाने के लिए…ताकि मां सारी मनोकामनाएं पूर्ण कर सके।

     इधर श्रद्धा की यह विडंबना देखकर बूढ़े नेत्रों से जलधार बह चली…बेटा और बहू घर में विद्यमान जीवन्त देवी मां का तिरस्कार कर जागरण में कृत्रिम देवी मां को शीश झुकाने गये थे।

  ✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

गुरुवार, 15 सितंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ----जंगल राज


लगभग सभी जानवर इकठ्ठे हो चुके थे। जंगल के राजा शेर ने एक आपातकालीन आम सभा बुलाई थी।सभा में सबसे पहले,अखबार में छपी एक खबर पढ़कर सुनाई गई।शीर्षक था *"नई सरकार के बनते ही प्रदेश में जंगलराज शुरू।हत्या,बलात्कार और लूटपाट की घटनाएं बढ़ीं"

     "ये हमारी जंगल की व्यवस्था को बदनाम करने की साजिश है।हम इसका पुरजोर विरोध करते हैं।" शेर ने दहाड़ते हुए कहा। 

    बाद में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर, ऐसी बात कहने वाले व्यक्ति को,एक साल के जंगलावास की सजा सुना दी गई। 


✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

आदर्श कॉलोनी रोड

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

गुरुवार, 1 सितंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की लघुकथा...... विवशता

     


रेलवे स्टेशन से बाहर कदम रखते ही कई रिक्शा चालक मेरी ओर ऐसे झपट पड़े जैसे मुझ अकेली सवारी को कई टुकड़ों में बांटकर अपनी-अपनी रिक्शाओं में ले जाएंगे।किसी ने मेरी अटैची कब्जा ली तो कोई मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा – 'हां बोलो बाबू! कहां जाना है?... घंटाघर, हज़रत गंज,बस अड्डे…?'

     'निशातगंज…जल्दी से पैसे बताओ?'

     'तीस रुपए…चलो पच्चीस दे देना!...बीस से कम तो बिल्कुल नहीं!'

     'दस रुपए दूंगा, तैयार हो तो चलो जल्दी! बहुत बार आता जाता रहता हूं, इससे ज्यादा कभी नहीं देता।'

     'तो फिर पैदल चला जा!' मेरी अटैची फेंक वे अभद्रता पर उतर आए। और दूसरी सवारियों की ओर बढ़ गये।

     तभी काली पैंट पहने और काला चश्मा लगाए एक युवक मेरी ओर बढ़ आया – 'आइए सरजी! मेरी रिक्शा में बैठिए! मैं ले चलूंगा आपको निशातगंज!'

     'तू भी खोल अपना मुंह,बोल कितने लेगा?' मेरे स्वर में किंचित आवेश का पुट मिश्रित हो आया।

     'जो चाहे वह दीजिएगा पर बैठ तो जाइएगा!' विनम्र स्वर के साथ अनुरोध भी।

     'तुम जाहिल गंवारों में यही तो खास बात होती है कि पहले तो बताएंगे नहीं, और फिर जेब खाली करने पर उतारू हो जाएंगे…या फिर झगड़ा करने लगेंगे। तुम रिक्शा वालों की फितरत से मैं बहुत अच्छी तरह परिचित हूं।' पहले वाले रिक्शा चालकों के अभद्राचरण से मेरे स्वर में स्वत: ही उत्तेजना मुखर होने लगी थी।

     युवक तब भी सहिष्णु बना रहा – 'सर!आप मुझे भी अन्य रिक्शा चालकों जैसा ही समझ रहे हैं। मैं उन जैसा नहीं हूं।आप निश्चिंत होकर बैठिएगा और जो उचित लगे दीजिएगा!न मन करे तो मत दीजिएगा! बिल्कुल नहीं झगड़ूंगा।'

     'चल फिर ! आठ से ज्यादा बिल्कुल नहीं दूंगा! तुम जैसे जाहिल गंवारों से निपटना मैं भी अच्छी तरह जानता हूं।'

     मैं बैठ गया। रिक्शा हवा से बातें करने लगा।साथ ही वह मुझसे निकटता बढ़ाने का प्रयास करने लगा – 'सर आप आए किस ट्रेन से हैं?...ट्रेन्स आजकल बहुत लेट चलने लगी हैं, बहुत टाइम बरबाद होता है यात्रियों का। पर कोई कहने सुनने वाला नहीं। कोई जिए या मरे, किसी का काम बने या बिगड़े, कोई है आवाज़ उठाने वाला? सर!इस देश में व्यवस्था नाम की कोई चीज है भला?सब कुछ राम भरोसे चल रहा है। अमेरिका और जापान में देखिए!सब कुछ निर्धारित रूप से संचालित होता है।समय का सम्मान करना जानते हैं वहां के लोग।तभी तो उन्नति कर रहे हैं वे देश।'

     वह देश की व्यवस्था पर प्रहार कर रहा था जबकि मुझे लग रहा था कि वह मुझ पर मक्खन लगाने का प्रयास कर रहा है। ताकि मैं उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर ज्यादा पैसे दे सकूं। मैं मन ही मन हंस पड़ा…बेटा चाहे तू कितनी भी बातें बना लें, पर मैं एक भी पैसा ज्यादा देने वाला नहीं…आठ रुपए कह दिए हैं तो आठ ही दूंगा। ज्यादा करेगा तो दो झापड़ रसीद करूंगा और चिल्लाकर भीड़ इकट्ठी कर लूंगा…स्साले बेइमान कहीं के…

     'वैसे सर आप निशातगंज में जाएंगे कहां?' पैडिल पर पैर मारते-मारते उसने पूछा तो मैं अपनी सोच से बाहर निकल झुंझला सा पड़ा– 'जहन्नुम में जाऊंगा,बोल पंहुचा देगा? अकारण चख-चखकर मेरा दिमाग खाए जा रहा है? क्या मतलब है फालतू बातें करने का?'

     वह कुछ बुझ सा गया – 'सर मैं इसलिए पूछ रहा था कि निशातगंज तो आ गया है, आपको जहां जाना हो वहां तक पंहुचा देता और आपका सामान भी उतार देता। सवारी पैसे देती है तो हमारा भी कर्तव्य बनता है कि उसे कोई कष्ट न होने दें,न कोई परेशानी होने दें। सारे रिक्शा वाले एक जैसे नहीं होते सर!'

     गन्तव्य पर पंहुच मैंने उसे दस का नोट दिया तो दो रुपए वापस करते हुए उसने सिर को हल्का सा झुकाते हुए कहा – 'मेरी रिक्शा में बैठने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर!'

     आश्चर्य से जड़ रह गया मैं…आजतक किसी रिक्शा चालक में ऐसी विनम्रता, ऐसी शालीनता, ऐसी शिष्टता कहीं देखने को न मिल सकी थी मुझे। मेरी हैरतभरी निगाहें उसकी मुरझायी सी आंखों से टकरायीं तो उन आंखों में जलकण झिलमिला उठे – 'इस देश की भ्रष्ट व्यवस्था ने मुझे रिक्शा चलाने को मजबूर कर दिया सर! वरना कैमिस्ट्री से एम एस सी में फर्स्ट क्लास हूं मैं।दो बार चयन आयोग की परीक्षा में चुना गया पर नियुक्ति पाने के लिए न तो पैसा था जेब में और न ही सिफारिश थी।अतएव साक्षात्कार में असफल घोषित कर दिया गया।सिर पर बूढ़ी मां और दो बहनों का भार…आजीविका तो चलानी ही थी। रात्रि को ट्यूशन पढ़ाता हूं और दिन में रिक्शा चलाता हूं। और इसी में से समय निकालकर एम फिल की तैयारी भी कर रहा हूं।'

     आत्म ग्लानि की ज्वाला में झुलस उठा मैं…मुझे उसके साथ ऐसा अशिष्ट और आक्रोशित आचरण नहीं करना चाहिए था। मैंने जेब से सौ का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा – 'अपनी मां व बहनों के लिए मिठाई फल वगैरह लेते जाना!'

     उसने हाथ जोड़ दिए– 'सर! गरीब जरूर हूं पर भिक्षुक नहीं। परिवार के जीविकोपार्जन योग्य कमा ही लेता हूं…नमस्कार!!'

    मेरी दंभ भरी मानसिकता को दर्पण दिखा रिक्शा मोड़ बड़ी तीव्रता से वह वापस चला गया। किंतु मैं न जाने कब तक इस देश की भ्रष्ट व्यवस्था के शिकार उस स्नातकोत्तर रिक्शा चालक की विवशता के मकड़जाल में उलझा रहा।

✍️डॉ अशोक रस्तोगी 

अफजलगढ़ 

बिजनौर 

उत्तर प्रदेश, भारत





मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर की लघुकथा ....शाबाशी


चौराहे पर भीड़ जमा थी। सरकारी डस्ट-बिन में मैले और फटे हुए कपड़े में लिपटी नन्ही सी जान को वो भीड़ देख रही थी। तभी एक भिखारिन ने लपक कर उसे उठा लिया और अपने बोरे पर जाकर बैठ गई। कुछ देर ख़ामोशी रही। फिर उस भीड़ में खुश होकर तालियां बजा दीं।

 ✍️ ज़िया ज़मीर 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा- वक़्त की बात

     


रामप्रसाद ने अपने बहू- बेटे को बुलाकर कहा ,"ले बेटा यह मेरी जमा पूंजी के पेपर हैं जो मेरे पास था तेरे नाम कर दिया है सम्भाल कर रखना मुझे क्या चाहिए सब दो वक़्त की रोटी ?" ठीक है पिता जी, कहकर मोहन ने कागजात अपने पास रख लिए। एक दिन ऐसा आ गया कि न तो बहू सुनती और न ही बेटा, रोटी भी वक़्त बे वक़्त मिलती और वह भी बहुत तानों के बाद।अब रामप्रसाद क्या करे अपना दुख किससे कहे आखिर परेशान होकर वह वृद्धाश्रम में जाकर रहने लगा और बिना किसी को बताये अपनी वसीयत बदलवा दी।

       जब मोहन को पता चला तो बहुत देर हो चुकी थी वह पिता जी को लेने आश्रम पहुंचा वहां टीवी पर चित्रहार में गाना आ रहा था -----।

      तू हिंदू बनेगा,न मुसलमान बनेगा

       इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा।

✍️ अशोक विश्नोई 

 मुरादाबाद

गुरुवार, 28 जुलाई 2022

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा) की साहित्यकार रेखा रानी की लघुकथा ...हर घर तिरंगा


सावन का महीना था आसमान में चांद बेचारा बार - बार कोशिश कर रहा था कि काश मैं अपना चेहरा धरती को दिखा सकूं लेकिन ज़िद बादलों को भी थी कि चांद को किसी भी हाल में जीतने नहीं देना है यह सब बेचारी नंदिनी देख रही थी और खोज रही थी अपने चांद को जो अभी दो महीने पहले ही देश की सरहद से तिरंगे में लिपटकर घर पहुंचा था ऐसा लिपटा तिरंगे में कि बस फिर दिखाई न दिया ...........तभी स्कूल के ग्रुप पर मैसेज आया कि .........आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में इस बार सरकार द्वारा हर घर तिरंगा घर- घर तिरंगा कार्यक्रम बड़े ही हर्षोल्लास एवं वृहद स्तर पर मनाया जाना है, सुबह प्रभात फेरी निकाली जाएगी, उसके लिए....  " विजयी विश्व तिरंगा प्यारा* गीत याद कर लेना क्योंकि आपकी आवाज़ में वो जोश है जो देखते ही बनता है ।" 

हो भी क्यों न आख़िर शहीद की पत्नी जो हूं ।....यादों में आए आंसुओं को गर्व से सहेजते हुए नंदिनी सुबह के कार्यक्रम की तैयारी में जुट गई।

✍ रेखा रानी

विजय नगर गजरौला ,

जनपद अमरोहा, उत्तर प्रदेश, भारत