सोमवार, 29 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम की कृति "धूप धरती पे जब उतरती है" की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा------- ‘...वो पत्ते मुस्कुराहट फूल की लेकर निकलते हैं’

ग़ज़ल के संदर्भ में मशहूर शायर बशीर ‘बद्र’ ने अपने एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार में कहा है-‘जो शब्द हमारी ज़िन्दगी में घुलमिल गए हैं, ग़ज़ल की भाषा उन्ही शब्दों से बनती है। हिन्दी ग़ज़ल के असर से उर्दू ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल के असर से हिन्दी ग़ज़ल में बड़ी ख़ूबी आती जा रही है। मुझे वो ग़ज़ल ज़्यादा भरपूर लगती है जिसकी भाषा हिन्दी और उर्दू के फ़र्क को ख़त्म करती है।’ यह बात बिल्कुल सही है कि तत्सम मिश्रित शब्दावली वाली हिन्दी की ग़ज़ल हो या फ़ारसी की इज़ाफ़त वाली उर्दू में कही गई ग़ज़ल, आज की आम बोलचाल की भाषा में कही गई ग़ज़ल की तुलना में शायद कहीं पीछे छूट गई है। दरअस्ल ग़ज़ल एक मुश्किल काव्य विधा है जिसमें छंद का अनुशासन भी ज़रूरी है और कहन का सलीक़ा भी। इसे इशारे की आर्ट भी कहा गया है। जिगर की धरती मुरादाबाद से भी अनेक रचनाकार आम बोलचाल की भाषा में बेहद शानदार ग़ज़लें कहते आए हैं और अब भी कह रहे हैं। ग़ज़ल के ऐसे ही महत्वपूर्ण रचनाकारों में अपनी समृद्ध उपस्थिति मज़बूती से दर्ज़ कराने वाले वरिष्ठ साहित्यकार डा. अजय ‘अनुपम’ के ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह ‘धूप धरती पे जब उतरती है’ से गुज़रते हुए उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल के परंपरागत स्वर के साथ-साथ वर्तमान के त्रासद समय में उपजीं कुंठाओं, चिन्ताओं, उपेक्षाओं, विवशताओं और आशंकाओं सभी की उपस्थिति को मैंने महसूस किया जिन्हें उन्होंने ग़ज़लियत की मिठास के साथ सहजभाषा के माध्यम से बहुत ही प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त किया है-
‘वो मुझे जब भी निगाहों से छुआ करता है
मेरे आँसू के न गिरने की दुआ करता है
हर शुरूआत में पहला जो क़दम रखते हैं
जीत में वो ही मददगार हुआ करता है’
हालांकि ग़ज़ल का मूल स्वर ही श्रृंगारिक है, प्रेम है। कोई भी रचनाकार ग़ज़ल कहे और उसमें प्रेम की बात न हो ऐसा संभव नहीं है। किन्तु प्रेम के संदर्भ में हर रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है, अपना कल्पनालोक होता है। वैसे भी प्रेम तो मन की, मन में उठे भावों की महज अनुभूति है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना बहुत ही कठिन है। बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम को केवल दैहिक प्रेम समझने वाले और मानने वाले लोगों के समक्ष प्रेम को बिल्कुल अनूठे रूप में व्याख्यायित किया है सुविख्यात नवगीतकार डॉ.माहेश्वर तिवारी ने अपने गीत में-‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/बेजुबान छत-दीवारों को घर कर देता है।’ वास्तव में ईंट, रेत, सीमेन्ट से बना ढांचा जिसे मकान कहा जाता है और उस मकान में रखीं सारी चीज़ें तब तक घर नहीं बनतीं जब तक प्रेम उसमें अपनी भूमिका नहीं निभाता। अपनी एक बहुत ही प्यारी ग़ज़ल में डॉ. अजय 'अनुपम' भी तक़रीबन ऐसी ही अनुभूति को स्वर देते हैं-
‘हार-जीत के बिन लड़ने को, कोई तत्पर कब होता है
गहरे प्रश्नों का समझाओ, सब पर उत्तर कब होता है
गद्दा, तकिया, ताला-चाभी और अटैची में कुछ कपड़े
सब होते कमरे में लेकिन, तुम बिन घर, घर कब होता है’
आजकल समकालीन कविता को लेकर जगह-जगह अनेक विमर्श आयोजित होते हैं, लम्बे-चौड़े वक्तव्य दिए जाते हैं और अंततः ‘समकालीन कविता में यथार्थवाद’ के संदर्भ में छान्दसिक कविता को नज़रअंदाज़ करते हुए नई कविता के सिर पर सच्ची समकालीन कविता का ताज रख दिया जाता है। मेरा मानना है कि कविता का फार्मेट चाहे जो हो, रचनाधर्मिता जब अपने समकालीन सन्दर्भों पर विमर्श करती है तो वह विमर्श महत्वपूर्ण तो होता ही है दस्तावेज़ी भी होता है। पिछले कुछ समय से बहुत कुछ बदला है। समाज की दृष्टि बदली है, सोच बदली है, पारंपरिक लीकों को तोड़ते हुए या कहें कि छोड़ते हुए घर की, परिवार की, गृहस्थ की परिभाषाएं भी बदली हैं। तभी तो ‘लिव-इन रिलेशन’ महानगरीय संस्कृति में घुलकर बेहिचक स्वीकार्य होने लगा है। समाज की इस बदलती हुई दशा पर डॉ.अनुपम तीखी टिप्पणी करते हैं-
‘हालत सबकी खस्ता भी
झगड़ा भी समरसता भी
चलन ‘रिलेशन लिव-इन’ का
अच्छा भी है सस्ता भी’
कहा जाता है कि बच्चे भगवान की मूरत होते हैं। उनकी निश्छल मुस्कानों में, तुतलाहट भरी बोली में और काग़ज़ के कोरेपन की तरह पवित्र मन में ईश्वर का वास होता है। तभी तो मिठास भरी शायरी करने वाले शायर निदा फाज़ली की कलम से बेहद नाज़ुक-सा लेकिन बड़ा शे’र निकला-‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें/किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।’ दरअस्ल बच्चे के चेहरे पर मुस्कान लाना ईश्वर की इबादत से भी बड़े एक बेहद पाक़ीज़ा काम को अंजाम देना है। डॉ.अनुपम भी अपनी ग़ज़ल में बच्चे के चेहरे पर हँसी लाने की बात करते हैं-
‘नम निगाही दे कभी जब दिल को दावत दोस्तो
इससे बढ़कर इश्क़ की क्या है सआदत दोस्तो
एक बच्चे की हँसी में सैकड़ों ग़म हैं निहाँ
हारती है इसलिए उससे शराफ़त दोस्तो’
पिछले कुछ दशकों से ग़ज़ल कहने का अंदाज़ भी बदला है और मिज़ाज भी है। तभी तो आज के समय में कही जा रही ग़ज़ल सामाजिक अव्यवस्थाओं की बात करती है, आम आदमी की बात करती है, उसकी चिन्ताओं पर चिंतन करती है, समस्याओं के हल सुझाती है। सभी माता-पिता अपने बच्चों का स्वर्णिम भविष्य गढ़ने के लिए उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाते हैं, सुविधाएं मुहैया कराते हैं लेकिन घोर बेरोज़गारी के इस अराजक समय में शिक्षा के बाद भी बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो ही जायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। लिहाजा रोजगार की तलाश में अपने घर से, शहर से, देश से दूर जाना बच्चों की विवशता बन जाती है। डा. अनुपम भी वर्तमान की इन्हीं सामाजिक विसंगतियों़ को बड़ी ही शिद्दत और संवेदनशीलता के साथ उजागर करती हैं-
‘हर आसानी चुरा रही है सुख मेहनत-मज़दूरी का
यह विकास है या समझौता इंसानी मजबूरी का
भीतर से बाहर तक गहरा अँधियारा-सा फैला है
नई पीढ़ियां भुगत रहीं दुख अपने घर से दूरी का’
वहीं दूसरी ओर आज के विषमताओं भरे अंधकूप समय में मानवता के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्य भी कहीं खो गए हैं, रिश्तों से अपनत्व की भावना और संवेदना कहीं अंतर्ध्यान होती जा रही है और संयुक्त परिवार की परंपरा लगभग टूट चुकी है लिहाजा आँगन की सौंधी सुगंध अब कहीं महसूस नहीं होती। बुज़ुर्गों को पुराने ज़माने का आउटडेटेड सामान समझा जा रहा है। इसीलिए शहरों में वृद्धाश्रमों की संख्या और उनमें आकर रहने वाले सदस्यों की संख्या का ग्राफ़ अचानक बड़ी तेज़ी के साथ बढा है। ऐसे असहज समय में एक सच्चा रचनाकार मौन नहीं रह सकता, अनुपमजी भी अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए अपनी ग़ज़ल में बड़ी बेबाक़ी के साथ समाज को आईना दिखाते हैं-
‘माँ-बाबा के पास न आते, बच्चे जो अब बड़े हुए
अँगुली पकड़ कभी जो अपने पाँवों पर थे खड़े हुए
शर्मसार हैं बूढ़े अपने बच्चों की करतूतों पर
लोग पूछते, सर्दी में क्यों घर के बाहर पड़े हुए’
या फिर-
‘भागदौड़ में दिन कटता है, उनको यह समझाए कौन
मिलने जाने वृद्धाश्रम में, समय कहाँ से लाए कौन
बस अपना सुख, अपनी रोटी, अपना ही आराम भला
बच्चे बिगड़ रहे हैं लेकिन शिष्टाचार सिखाए कौन’
अनुपमजी ने वर्तमान के इस संवेदनहीन समाज में चारों ओर उपस्थित खुरदुरे यथार्थ-भरे भयावह वातावरण को देखा है, जिया है शायद इसीलिए उनका अतिसंवेदनशील मन खिन्न होकर कहने पर विवश हो उठता है-
‘बाग़ लगाया जिस माली ने, पाला-पोसा हरा-भरा
दुनिया ने भी कीं तारीफ़ें, थोड़ी-थोड़ी ज़रा-ज़रा
बच्चों के ही साथ हो गई, अब तो रिश्तेदारी भी
भूल गए सब देना-लेना, माँ-बाबा का करा-धरा’
कहते हैं अंधेरे की उम्र ज़्यादा नहीं होती, उसे परास्त होना ही पड़ता है। उजाले की एक छोटी-सी किरण भी बड़े से बड़े अंधकार को क्षणभर में ही नष्ट कर देती है। इस विद्रूप समय के घोर अंधकार को भी आशावाद और सकारात्मक सात्विक सोच के उजाले की किरण ही समाप्त करेगी। अनुपमजी अपनी ग़ज़ल में उजली उम्मीदों से तर क़ीमती मशविरा भी देते हैं-
‘हर मुश्किल में ज़िन्दा रहने की हर कोशिश जारी रखिये
हिम्मत करिये लफ़्ज़े-मुहब्बत हर कोशिश पर भारी रखिये
बेबस बेकस कैद परिन्दा दिल का, अपने पर खोलेगा
आसमान रोशन होते ही उड़ने की तैयारी रखिये’
अनुपमजी़ की शायरी में भिन्न-भिन्न रंगों के भिन्न-भिन्न दृश्य-चित्र दिखते हैं, कभी वह समसामयिक विद्रूपताओं को अपनी शायरी का विषय बनाते हैं तो कभी फलसफ़े उनके शे’रों की अहमियत को ऊँचाईयों तक ले जाते हैं। उनकी ग़ज़ल के शे’र मुलाहिजा हों-
‘समय की शाख पर जब कुछ नये पत्ते निकलते हैं
पुराने शाह पगड़ी थाम सड़कों पर टहलते हैं
जिन्हें मालूम है पहचान अपनी जड़ से शाखों तक
वो पत्ते मुस्कुराहट फूल की लेकर निकलते हैं’
कुछ शे’र और-
‘हर तक़लीफ किसी अच्छाई की गुमनाम सहेली है
सबने सुलझाई पर अब भी उलझी हुई पहेली है
मिलकर तौबा, मिलकर पूजा, सब क़िस्सागोई बेकार
सभी जानते यही हक़ीकत, सबकी रूह अकेली है’
ग़ज़ल के शिखरपुरुष प्रो. वसीम बरेलवी कहते हैं कि ‘ग़ज़ल एक तहज़ीब का नाम है और शायरी बहुत रियाज़त की चीज़ है, साधना की चीज़ है।’ डॉ.अनुपम की ग़ज़लों से उनकी साधना को स्पष्टतः महसूस किया जा सकता है। ‘धूप धरती पे जब उतरती है’ शीर्षक से डॉ.अजय ‘अनुपम’ की यह ग़ज़ल-कृति निश्चित रूप से साहित्य की अमूल्य धरोहर बनेगी, साहित्य- जगत में पर्याप्त चर्चित होगी तथा अपार प्रतिष्ठा पायेगी, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी।




* कृति - 'धूप धरती पे जब उतरती है' (ग़ज़ल-संग्रह)
* कवि - डॉ.अजय ‘अनुपम’
* प्रकाशक - अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
* प्रकाशन वर्ष - 2019
* मूल्य - ₹ 250/-(सजिल्द)
* समीक्षक - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
मुरादाबाद
मोबाइल- 94128 05981

रविवार, 28 जून 2020

🙏 वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक रविवार को वाट्सएप हस्त लिखित कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है। 21 जून 2020 को आयोजित 207 वें आयोजन में 24 रचनाकारों ने अपनी हस्तलिपि में रचनाएं प्रस्तुत की । आयोजन में शामिल साहित्यकारों डॉ पुनीत कुमार, सूर्यकांत द्विवेदी, अनुराग रोहिला, अशोक विद्रोही, ओंकार सिंह विवेक, कंचन लता पांडेय, श्री कृष्ण शुक्ल ,डॉ अशोक रस्तोगी, नवल किशोर शर्मा नवल , राजीव प्रखर, मनोरमा शर्मा, मरगूब हुसैन, मोनिका शर्मा मासूम, सन्तोष कुमार शुक्ल संत, स्वदेश सिंह, रवि प्रकाश , डॉ अनिल शर्मा अनिल, डॉ प्रीति हुंकार ,नृपेंद्र शर्मा सागर, प्रीति चौधरी , डॉ श्वेता पूठिया, त्यागी अशोक कृष्णम, सीमा रानी, और डॉ मनोज रस्तोगी की रचनाएं ------























सीमा रानी, अमरोहा


::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन 9456687822





शनिवार, 27 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार शचीन्द्र भटनागर की ग़ज़ल-----यह ली गई है लगभग 37 वर्ष पूर्व वर्ष 1983 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष हुल्लड़ मुरादाबादी की रचना-- गणपति बप्पा मोरिया---यह ली गई है लगभग 33 वर्ष पूर्व वर्ष 19 87 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---



मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद सम्भल) के साहित्यकार स्मृति शेष रामावतार त्यागी का गीत ------यह लिया गया है लगभग 44 वर्ष पूर्व वर्ष 1976 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---



:::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार आनंद कुमार गौरव की रचना ------यह ली गई है लगभग 36 वर्ष पूर्व वर्ष 1984 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---



मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता की कृति ''अर्चना की कुंडलियां ( भाग-दो)" की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा

     कहते हैं कि स्वर्ण जब अग्नि में तप जाए तो कुंदन  बन जाता है।ऐसा ही एक कुंदन का  आभूषण हैं, हिंदी साहित्य जगत मुरादाबाद में डॉ अर्चना गुप्ता जी का चमकता हुआ नाम ।माता पिता की प्रतिभाशाली संतान डा. अर्चना गुप्ता जी के माता पिता ने सोचा भी न होगा कि गणितीय सूत्रों को पल में हल करने वाले हाथ  साहित्यिक मोती  भी बिखेर सकते हैं।एक नीरस  विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त तरुणी के हृदय से भावों का  मीठा झरना फूटना निश्चित ही विस्मित करता है!!
डा. अर्चना गुप्ता जी  की कुंडलियां भाग दो को पढ़कर मैं   हतप्रभ हो यह सोचने लगी कि क्या एक ही छंद में इतने सारे विषयों को समाहित करना संभव है!!

     आपने जीवन,पर्यावरण,हास्य,करूणा, परिवार ,देश,व्यंग्य और व्यक्तित्व कोई भी मूर्त -अमूर्त भाव रूपी सुंदर रत्न  कुंडलियों के आभूषण में सजाने से नहीं छोड़े।
      डा. अर्चना गुप्ता जी  की कुंडलिया यात्रा  मुझे किसी नदी की यात्रा सी प्रतीत  होती है।जो अपने प्रादुर्भाव काल में जब पहाड़ों से नीचे उतरती है तब प्रचंड वेग से बहती हुई  वह नदी, पथ में पड़ने वाले सभी जड़-चेतन को बहा ले जाना चाहती है।
उसी प्रकार डा. अर्चना गुप्ता जी की कुंडलियां जब हम पढ़ना प्रारम्भ करते हैं तभी आभास हो जाता है कि वो समस्त भावों को समेटती हुई आगे बढ़ रहीं हैं।जिस प्रकार  ,मार्ग की दुर्गम यात्रा  पार करने के पश्चात भी नदी के  जल की मिठास कम नहीं होती ,उसी प्रकार  शिल्प के कठोर विधान के पश्चात भी आपने भाव पक्ष की मिठास तनिक भी कम नहीं होने दी है ।हास -परिहास लिखते समय शालीनता  की सीमा रेखा कहीं भी पार होती नहीं दिखती ।व्यंग्य की तीव्रता देखते ही बनती है।फिर चाहे होली की मस्ती हो या बढ़ती आयु में  रूप रंग के खत्म होने का भय,सभी रचनाओं में एक स्वतः हास उत्पन्न होता है।
जब जीवन के विभिन्न पहलुओं को आप अपनी कुंडलियों में दर्शाती हैं तब लगता है मानो गंगा अपने मैदानी पड़ाव में शांत व विस्तृत भाव से बहते हुऐ  विशाल गर्जना करते हुए ,भावों से भरे मैदान  के सभी तटों को अपनी साहित्यिक उर्वरकता से पोषित कर रही है।
        डा. अर्चना गुप्ता जी की एक और विशेषता मुझे आकर्षित करती  है वो यह कि वो जितनी सहज व सरल हैं उतनी ही सरलता से गंभीर बातों को भी पाठकों तक  सहजतापूर्वक पहुँचा भी देती हैं।महान व्यक्तित्व की बात करें तो लगता हैं कि "अर्चना की  कुंडलियां  भाग दो "का अंतिम पड़ाव उतना ही शांत,धीर गंभीर है जितना किसी नदी का अंतिम पड़ाव  सागर तक की यात्रा पूर्ण होने पर  प्रतीत होता है।सम्भवतः यह यात्रा कुंडलियों के सागर में एक नदी के भाव मिलने जैसी है जिससे उसका शीतल जल मेघ बनकर पुनः आकाश में जाकर धरती पर बरस सके ।अर्चना दी जितनी शीघ्रता से कुंडलियां व ग़ज़ल लिखती हैं उसे देखकर यही लगता है ,मानो उनके हृदय रूपी गगन में विचरता  कोई साहित्यिक मेघ पुनः पाठकों के मन मरुस्थल पर बरसने को तैयार है।
        यहाँ कुछ कुंडलियों की पंक्तियां अवश्य उद्धृत करना चाहूँगी जो मुझे अत्यधिक पसंद आयीं।यथा...
 माँ शारदा से अत्यंत विनीत भाव से विनती करती हुई लगभग हर रचनाकार के मन की ही बात कहती हैं...
  चरणों में देना जगह ,मुझे समझकर धूल
माँ मैं तो नादान हूँ ,करती रहती भूल।
करती रहती भूल ,बहुत हूँ मैं अज्ञानी
खुद पर करके गर्व, न बन जाऊँ अभिमानी ।
कहे 'अर्चना' प्राण,भरो ऐसे भावों में,
गाऊँ मैं गुणगान बैठ तेरे चरणों में।

इसके अतिरिक्त पृष्ठ सं.26पर कुंडलिया न. 16
रिश्तों को ही जोड़ती सदा प्रीत की डोर
मगर तोड़ देता इन्हें मन के शक का चोर
मन के शक का चोर,न हल्के में ये लेना
लेगा सबकुछ लूट,जगह मत इसको देना
करके सोच विचार, बनाना सम्बंधो को
रखना खूब सहेज,अर्चना सब रिश्तों को

पर्यावरण पर आधारित पृष्ठ सं. 36पर कुं. संख्या 30,
"गौरैया दिखती नहीं, लगे गई है रूठ
पेड़ काट डाले हरे,बचे रह गये ठूठ
बचे रह गये ठूठ,देख दुखता उसका मन
कहाँ बनाये नीड़,नहीं अब दिखता आँगन
कहीं अर्चना शुद्ध, नहीं पुरवाई मिलती
तभी चहकती आज,नहीं गौरैया दिखती

पृष्ठ सं.38पर कुं. सं. 35,
"भाये कुदरत को नहीं, जब मानव के ढंग
तब उसने हो कर कुपित,दिखलाया निज रंग
दिखलाया निज रंग,तबाही खूब मचाई
बाढ़ कहीं भूकंप,कहीं पर सूखा लाई
आओ करें उपाय,अर्चना ये समझाये
खूब लगायें वृक्ष ,यही कुदरत को भाये


हालाँकि  कुं सं. 35 बहुत पहले लिखी गयी है मगर आज के हालात पर ही लिखी गयी सी प्रतीत होती है।यह एक संवेदनशील कवियत्री के हृदय की  संवेदना को ही दर्शाती है।कवि हृदय तो यों भी त्रिकालदर्शी होता है।
जीवन के विविध रंगों को दर्शाती उनकीपृष्ठ संख्या 45पर कुंडलियां सं.45 भी मुझे बहुत अधिक आकर्षित करती है जब वो कहती हैं..

"रावण का भी कर दिया अहंकार ने नाश
धरती पर रख पाँव ही,छुओ सदा आकाश
छुओ सदा आकाश ,उठो जीवन में इतना
लेकिन नम्र स्वभाव, साथ में सबके रखना
कहे अर्चना बात ,ज़िंदगी भी है इक रण
अपने ही है हाथ,राम बनना या रावण"

इतने बड़े मुकाम पर पहुँचकर भी डा.अर्चना गुप्ता जी को अभिमान तनिक भी नहीं छू गया है।अपितु उनके साहित्यिक व्यक्तित्व रूपी वृक्ष पर साहित्यिक समृद्धि रूपी फल आने पर वह वृक्ष झुक गया है।ऐसी बहुत सी सुंदर कुंडलिया हैं जो हमें अन्दर तक स्पर्श कर जाती हैं।




 * कृति--अर्चना की कुंडलियां ,भाग -2(कुण्डलिया संग्रह)
* रचनाकार : डा अर्चना गुप्ता, मुरादाबाद
* प्रकाशक: साहित्यपीडिया पब्लिकेशन
* प्रथम संस्करण : वर्ष :2019
* पृष्ठ संख्या:105
* मूल्यः ₹150
*समीक्षक : मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
मोबाइल: 8218467932

शुक्रवार, 26 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की व्यंग्य कविता -- --- वाह वाह क्या बात है


हमने एक वाट्स एप ग्रुप ज्वाइन किया
उसमे नियमित रूप से
अपनी रचनाएं भेजते रहे
संयम के साथ
बाकी सदस्यों की प्रतिक्रिया देखते रहे
कुछ सदस्यों की रचनाओं पर
जबरदस्त वाह वाह मिलती थी
हमारी रचनाओं पर किसी की
निगाह भी नहीं टिकती थी
ये बात हमको बहुत खलती थी
जब हमको कुछ समझ नहीं आया
हमने अपना दुखड़ा
चर्चित और प्रतिष्ठित,कवि मित्र को सुनाया
मित्र ने बताया
ये मत सोचो
तुम्हारी कविताओं में कुछ जान नहीं है
तुमको सफल होने की तकनीक का ज्ञान
नहीं है।
तुम्हे,अपने जैसे 5-6 कवियों का एक गुट बनाना है
एक दूसरे की रचनाओं पर
जम कर ताली बजाना है
वाह वाह क्या बात है
इस मंत्र को बार बार दोहराना है
समय समय पर
एक दूसरे का सम्मान करना है
नगद धनराशि,प्रशस्ति पत्र
और पुरस्कार का आदान प्रदान करना है
इससे तुम्हारी अलग पहचान बन जाएगी
समर्थकों की संख्या भी एकदम बढ़ जाएगी

हम अपने मित्र के,बताए मार्ग पर चलने लगे
वाह वाह क्या बात है
सुबह शाम जपने लगे
बहुत जल्द इसके सुखद परिणाम आ गए
हम सोशल मीडिया में छा गए
अख़बारों और पत्रिकाओं में छपने लगे
एक दिन तो कमाल हो गया
हमारी रचना
तकनीकी कारणों से लोड नहीं हो पाई
लेकिन वाह वाह क्या बात से
पूरा ग्रुप मालामाल हो गया
हमने मित्रो को टोका
पहले पूरी रचना पढ़ तो लेते
उसके बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देते
मित्र बोले
कविता के बारे में
हम कहां कुछ जानते हैं
हम तो बस तुम्हारा नाम पहचानते है
क्योंकि रचना तुम्हारी है
उसको अच्छा बताना
हमारी नैतिक जिम्मेदारी है
आजकल काम नहीं नाम बिकता है
और यही वास्तविकता है

अपने मित्रों से
निरंतर मिलते सम्मान ने
हमको साहित्यिक जगत का
सम्मानित व्यक्तित्व और चर्चित ब्रांड
बना दिया है
अन्य संस्थाओं ने भी
हमारा बुला बुला कर सम्मान किया है
ये सब, वाह वाह क्या बात है
मंत्र की करामात है
वरना अपनी क्या औकात है
सम्मान में मिली,घमंड की चादरों से
हमारा पूरा अस्तित्व घिर गया है
ये अलग बात है
हमारी रचनाओं का स्तर
नेताओ के चरित्र सा गिर गया है
ये बाई प्रोडक्ट के रूप में
आधुनिकता की सौगात है
अपनी जमीन छोड़ कर
आकाश में उड़ने की शुरुआत है
वाह वाह क्या बात है
वाह वाह क्या बात है।

 ✍️डॉ पुनीत कुमार
T - 2/505
आकाश रेसीडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M- 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी ) ए टी जाकिर की रचना


🎤✍️ ए. टी. ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी
ताजनगरी फेस 2,फतेहाबाद रोड
आगरा-282 001
मोबाइल फोन नंबर. 9760613902,
847 695 4471.
Mail-  atzakir@gmail.com

बुधवार, 24 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी------अभागन

          "मम्मी तुम बहुत ही प्यारी हो ....आज देखो मैने  कॉलेज टॉप किया है ."उमा की बड़ी बेटी ने माँ से लिपटते हुए कहा .
​"देख लो  दीदी हम दोनों भी तुम्हारे पदचिन्हों पर ही चल रहे हैं l"दोनों छोटे भाई बहन भी एक स्वर में बोले .देखकर उमा की आँखों से खुशी के आँसू बह निकले .
​"नहीं मम्मी रोना नहीं ....हमने तुमको बहुत  रोते हुए देख लिया लेकिन अब नहीं ..l"बड़ी बेटी ने उमा के आँसू पौंछते हुए कहा .
​सुनकर उमा आज कई साल बाद जी भरकर रोई ....बेटियों ने खाना बनाया और माँ के साथ मिलकर सबने खाया .जब तीनों बच्चे सो गए तो उमा ने प्रेम से उनके ऊपर हाथ फेरा , और डूब गई अपने अतीत में क्योंकि अतीत कभी पीछा नहीं छोड़ता उसकी खुशियाँ और दुख कभी भी आकर मन क़ो बेचैन कर जाते हैं .
​पति की लाश के पास उमा चुपचाप बैठी थी , बिल्कुल बुत की तरह या यूँ कहिये कि जिंदा लाश की तरह ...तीन छोटे छोटे बच्चे घर में मचे कोहराम क़ो देखकर इधर उधर रोते बिलखते फिर रहे थे ...लड़का छोटा था दो लड़कियां थीं पाँच और तीन साढ़े तीन साल की और लड़का ढेड साल का वह चलकर आता और अपनी मम्मी से लिपटकर उसकी छाती से लिपटकर सिर मारता कभी मूँह टिकाता और रोता बिलखता फिर चला जाता ....बड़ी लड़की क़ो समझ आ चुका था कि उसके पापा भगवान के पास चले गए मगर छोटी ....वह तो छोटी ही थी ....क्या क्या होता रहा उमा क़ो  कोई सुध नहीं थी , उसकी चूड़ी तोड़ दी गयीं और सिंदूर भी पौंछ दिया गया ....कोई पहली बार तो हुआ नहीं था यह इससे पहले भी .....यह सोचकर वह बहुत जोर से चिल्लाई और रोने लगी ..."मैं इतनी बुरी हूँ क्या ?"यह वेदना भरे शब्द सुनकर पत्थर दिल लोग भी रोए बिना न रह सके .."हर कोई चला जाता है मुझसे रूठकर दूर ...बहुत दूर ...क्यों ?"उसका रोना देखा नहीं जा रहा था .
​थोड़ी देर बाद उसके पति की क्रिया कर्म के लिए ले जाया गया वह बहुत रोई मगर कोई फायदा नहीं इधर बच्चों का भी बुरा हाल था .
​रात क़ो जब वह लेटी  थी तो ताई सास और उसकी ननद आपस में बातें कर रही थीं .....
​"इसके भाग्य में सुहाग है ही नहीं ....पहले विधवा हो गई थी और अब यहां भी ....अब क्या करेगी ?"
​उमा सब कुछ सुन रही थी मगर वह कुछ नहीं बोली पास में जमीन पर सो रहे अपने तीनों मासूम बच्चों क़ो देखा जो शायद भूखे ही सो गए थे क्योंकि बच्चे उमा के साथ ही खाना खाते थे .
​उसकी आँखों में बीती सारी घटनाएं घूमने लगीं .
​कितनी बोझ बनी जा रही थी वह माँ और बाबूजी क़ो कि हाईस्कूल में आते ही उसकी पढ़ाई छुड़ाकर पास के ही गाँव के योगेश नाम के युवक के साथ उसका विवाह कर दिया गया था ....सब कुछ था योगेश के पास जो जीने के लिए चाहिए घर ...जमीन थोड़ी सी और बहुत सारा प्यार ...शादी के दो साल बाद उसने जुड़वा बच्चों क़ो जन्म दिया ...बहुत खूबसूरत और प्यारे बच्चे पाकर जैसे योगेश और उमा खुशी से फूले नहीं समा रहे थे ....मगर उनकी खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रही कहा भी जाता हैं कि अति हर चीज की बुरी होती हैं फिर चाहे वह खुशी हो या गम बच्चे छः महीने के ही थे कि एक दिन शाम क़ो जब योगेश खेत से घर लौट रहे थे तब रास्ते में ही अचानक पेट में दर्द उठा और पेट पकड़े हुए घर आए ...डाक्टर के पास ले जाया गया मगर कोई फायदा नहीं हुआ ...शहर ले गए मगर बहुत सारे टेस्ट कराने के बाब्जोड भी कोई फायदा नहीं हुआ तबीयत दिन ब दिन बिगड़ती ही गई और एक दिन उमा पर जैसे वज्रपात हो गया योगेश उसक़ो और उसके बच्चों क़ो छोड़कर रोता बिलखता हमेशा के लिए चले गए .
​घर में फिर ताने दिए जाने लगे कि उसने और उसके बच्चों ने योगेश क़ो खा लिया ...एक दिन बच्चों क़ो बहुत तेज बुखार आया और बे भी ....फिर तो उसका घर में रहना ही दूभर हो गया ससुराल वालों ने उसको इतना परेशान किया कि उसका घर में रहना दूभर कर दिया , पति की अकाल मौत और ऊपर से बच्चों का साया उठना जैसे वह मर ही गई थी अभी उम्र ही क्या थी केवल वाइस साल .
​घर परिवार वालों और रिश्तेदारों ने फिर से जीना मुश्किल कर दिया और एक बार उमा के माँ बाप ने उसको फिर से समाज की दुहाई डे बमुश्किल विवाह के लिए राजी किया .
​इस बार उसका विवाह निमेष के साथ तय हुआ जोकि एक सरकारी स्कूल में चपरासी था ....विधुर था ...यह हमारे समाज की विडम्बना ही तो हैं कि विधवा महिला क़ो तो हँसी खुशी विधुर के साथ विवाह दिया जाता हैं मगर कोई क्वांरा लड़का आज भी विधवा का हाथ थामने से कतराता है.
​निमेश उम्र में उमा से पूरे आठ साल बड़ा था मगर अंधा क्या मांगे दो आँखें ....उसकी नौकरी थी इसलिए घरवालों ने उसको विवाह दिया .
​एक बार फिर से जीने की आस जागी मगर विवाह के आठ साल बाद ही सर्पदंश से निमेश की भी मौत हो गई .
​उमा फिर रह गई बिल्कुल अकेली ....उससे ज्यादा चिंता फिर से उसकी समाज क़ो होगी मगर सिर्फ उसको किसी मर्द का सहारा देने के लिए .
​लेकिन इस बार उसने निश्चय कर लिया कि वह समाज के आदेश पर नहीं अपितु अपने जमीर की सुनेगी .
​उसने उठकर तीनों बच्चों क़ो दुलारा .और जब सारे क्रिया कर्म हो गए तो सभी सहानुभूति जताकर अपने अपने घर चले गए .
​इधर छोटे देवर अजीत की सहानुभूति उसके प्रति बढ़ती ही जा रही थी हालांकि वह शादीशुदा था उसकी पत्नी जोकि पहले उमा क़ो एक आँख नहीं देखती थी कुछ ज्यादा ही हमदर्दी जताने लगीं .
​"हेल्लो भाभी l"बड़ी ननद का फोन आया .
​"नमस्ते जीजी l"
​"नमस्ते ....अब ऐसा करो निमेश की नौकरी के जो कागजात बनेंगे उन पर दस्तखत कर देना l"
​"कैसे दस्तखत ?"
​"अजीत बता देगा l"कहकर ननद ने फोन काट दिया .
​"भाभी जीजी से बात हो गई ?"
​"हाँ l"
​"लो यहां अँगूठा लगा दो l"
​"क्या हैं यह ?"
​"अरे पढ़कर क्या करोगी ...लो स्याही l"अजीत ने हंसते हुए कहा l
​उमा पूरा पेपर पढ़ गई उसमे साफ साफ लिखा था कि नौकरी करने में वह असमर्थ हैं इसलिए राजी से अपनी नौकरी निमेश के भाई अजीत क़ो देना चाहती हैंl
​"भैया ...तुम कहाँ तक पढ़े हो ?"
​"मैं ...मैं हाईस्कूल फेल हूँ l"
​"और मैं पास ....मेरे भी तो बच्चे हैं ...बताओ भैया मैं कैसे पालुंगी इनको ?"सुनकर अजीत पागल हो गया आया हुआ मौका जाता देखकर उसने उमा क़ो परेशान करना शुरू कर दिया .
​पूरे गाँव में अफवाह फैला दी कि उसकी भाभी उमा बहुत ही अभागन और डायन है...एक पति क़ो तो पहले खा आई और निमेश क़ो भी खा गई .
​सबने उसका विरोध किया मगर इस बार वह पीछे नहीं हटी . उसने नौकरी करनी शुरू की और साथ ही उसी स्कूल में अपने बच्चों का एडमीशन भी करा लिया .

✍️राशि सिंह
​मुरादाबाद उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की कहानी-------- 'द सीज ऑफ डेथ '


ये समय था 1944 की सर्दियों का और इस वक़्त जर्मनी और रुसी सेनाओं के बीच लेनिनग्राड शहर के लिए एक अहम और भयानक युद्ध चल रहा था। जर्मनी की सेना ने लेनिनग्राड शहर के इर्द गिर्द घेरा डाल रखा था। शहर को रूस के अन्य शहरों से जोड़ने वाले मुख्य मार्गों को जर्मनों ने कब्ज़ा रखा था और बाल्टिक सागर में उसकी नौसेना ने घेरा डाल रखा था। आसमान में जर्मनी के लड़ाकू विमान गरजते रहते थे। ये इस मोर्चे की सबसे भयंकर जंग थी। दो साल हो चुके थे और लेनिनगार्ड का घेरा अभी भी कायम था। जर्मनों की सफलता ये थी की शहर की आपूर्ति और उसके आस पास उनका कब्ज़ा था, तो वहीँ रूसियों ने जर्मनों को शहर पर कब्ज़ा करने से रोके रखा था। जब जर्मन सेना आगे बढ़ने में असफल रही तो उसने शहर की आपूर्ति ठप्प कर दी। रसद , अनाज और असलहा ढ़ोने वाले वाहनों को वो रस्ते में ही तबाह कर देता था और भेजी गयी रसद का बहुत छोटा सा हिस्सा ही शहर तक पहुँच पाता था। बाल्टिक सागर से आने वाले रसद के जहाजों को जर्मन पनडुब्बियां पानी में ही जलसमाधि दे देती थीं। शहर के हालात बेहद खराब हो चुके थे। रसद और राशन की कमी के कारण आधा शहर कब्रिस्तान बन चुका था। शहर में रुसी सेना के हालात भी ज्यादा अच्छे न थे। न हो ढंग से असलहा मिल रहा था न ही मदद। पूरे शहर में मौत , बेबसी और भूतिया सन्नाटा पसरा हुआ था। 2 साल में लेनिनग्राड में मात्र भुखमरी से 6 लाख से भी ज्यादा नागरिक मारे जा चुके थे। कब्रिस्तान बन चुके लेनिनग्राड में हालात बद से बदतर हो चले थे। अब लोग चलते चलते ही गिर पड़ते और उन्हें उठाने वाला भी वहां कोई न होता। रुसी सैनिक दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे, एक तो सामने के दुश्मन से दूसरा इस तबाही से। रोज न जाने कितने ही नागरिकों को दफनाते , जिनमे काई छोटे छोटे बच्चे कुछ तो नौनिहाल भी होते और तो और कई बार अपने ही किसी साथी को भी दफनाना पड़ता। जिन्दा लाश बन कर रह गए थे । जो ये सब नहीं देख पाता था, अपनी राइफल से खुद को गोली मार लेता था। जर्मन भी इस स्थिति से वाकिफ थे और उनका मानना था कि इस तरह वो बिना लड़े ही जीत जायेंगे। शहर खंडहर हो चुका था, जिस शहर में कल तक ऊँची ऊँची इमारतें हुआ करती थी, आज सड़कों पर उनका मलबा बिखरा पड़ा था। दिन में दो बार सेना के वाहन रसद बाँटा करते थे। हाँ, जिसको जितना मिल जाये वो अपनी किस्मत समझ ले लेता था। जिसे दिन में मिल जाता उसे शाम को मिले भी या नहीं इस बात कि भी कोई गारंटी नहीं थी। ऐसे ही शहर में घूमते सेना के एक ट्रक में सवार सैनिक इवानोस्की गुजरते रस्ते को देख रहा था। शहर कि दुर्दशा को देख उसके मन में अब कोई भाव नहीं आता था क्यूंकि आँखों के आंसू सूख चुके थे और दिल तो न जाने कब का पत्थर का हो चुका था। ट्रक रुकने पर इवानोस्की ट्रक से उतरा और बैरक की ओर चल दिया। बैरक क्या थी , एक टूटे फूटे भवन की ईमारत थी जिसमे वो और उसकी कंपनी के लोग रात गुजारते थे। अब आँखों में नींद नहीं होती थी। इवानोस्की 2 साल से लेनिनग्राड में था, अब इसे उसकी किस्मत कहें कि वो इतने साल तक जिन्दा रहा या बदकिस्मती कि उसने अपने साथ के न जाने कितने साथियों को अपने ही हाथों से दफनाया था। उसकी आँखों के कोर गीले तो होते थे लेकिन न ही आंसू निकलते थे और न ही मन में कोई भाव ही आता था। तभी एक गोली चलने की आवाज से वो उठ खड़ा हुआ, लेकिन थोड़ी देर में ही असलियत जान वापस पत्थर के टुकड़े पर लेट गया। साथ के एक और सिपाही ने खुद को गोली मार ली थी ,उसने आज दो लाशें दफ़नायीं थीं जिनमे एक मां और दूसरा 5 साल का बच्चा था। अपने ही लोगों को अपने सामने भूख से मरते देखना और फिर उनकी लाशों को दफनाना, नए रंगरूट कई बार इससे उबर नहीं पाते थे। इवानोस्की अतीत में देखने लगा कि जब वो पहली बार 2 साल पहले लेनिनग्राड आया था तो उसने भूख से मरे पूरे 11 लोगों के परिवार को दफनाया था। उसके बाद वो एक महीने तक सो नहीं पाया था। इवानोस्की जैसे न जाने कितने थे जो अब पत्थर के बन चुके थे। अगली सुबह इवानोस्की उठकर वापस अपनी ड्यूटी पर गया तो उसे पता चला कि रात को रसद लाने वाला ट्रक जर्मन बमबारी में तबाह हो गया, अब आज दिन का राशन नहीं बंटेगा। इवानोस्की को 4 रंगरूटों के साथ शहर का एक चक्कर लगाने को कहा गया। वो बैरक में वापस आ जाने की तैयारी करने लगा । वो रंगरूट भी वहीँ बैठे अपनी राइफल में गोलियां भर रहे थे और असलहा ले जाने की तैयारी कर रहे थे। इवानोस्की ने ये देख उनसे कहा -
'गोलियों से भी जरुरी एक चीज रख लेना, उसकी जरुरत आजकल ज्यादा पड़ती है'
'वो क्या सार्जेंट?' एक रंगरूट ने पूछा।
'कुदाल (फावड़ा)', इवानोस्की ने कहा।
वो रंगरूट चौंककर उसकी ओर देखने लगे।
'क्या हम दुश्मन को कुदाल से मारेंगे सार्जेंट', एक ने पूछा। 
'नहीं, दुश्मन के लिए नहीं' अपनी कुदाल रखते हुए इवानोस्की ने कहा
'तो कुदाल क्यों सार्जेंट?' दूसरे रंगरूट ने पूछा।
'कब्र खोदने और लाशें दफ़नाने के लिए’, ये कह इवानोस्की निकल गया।
उन चारों के मुख की चंचलता एक अजीब से तनाव और गंभीर भाव में बदल गयी। वो बिना कुछ कहे उठे और इवानोस्की के पीछे हो लिए।
इवानोस्की अपनी पत्थर निगाहों को शहर के प्रमुख स्थानों की ओर दौड़ता और उन स्थानों के युद्ध के पहले जैसे होने की कल्पना करता। इस युद्ध की विभीषिका ने इस शहर का क्या हाल बना दिया है। जहां पहले ये शहर खुशहाल , सुंदर और लोगों से भरा हुआ होता था, वहीँ आज खंडहर, कब्रिस्तान और भूतिया हो गया है। गश्त लगाते लगाते इवानोस्की शहर के मुख्य चौराहे पर पहुंचा तो उसने देखा एक 80 साल की बुढ़िया अपनी गोद में एक दुधमुंहा बच्चा लेकर दो कब्रों के पास बैठी थी। इवानोस्की उसके पास गया, और धीरे से उसके कंधे पर हाथ रख वहीँ बैठ गया। आगे की बात उस बुढ़िया की आँखों के आंसुओ ने इवानोस्की को बता दी। इवानोस्की ने अपने रंगरूट को इशारा किया तो वो पानी लेकर उसके पास गया। इवानोस्की ने उस बुढ़िया की ओर पानी बढ़ा कहा -
‘अम्मा, लो पानी ले लो'
आँखों में आंसू लेकिन पत्थर जैसी भाव से उसे बुढ़िया ने कहा -
'मेरी प्यास 5 दिन पहले मेरे बहु और बेटे के साथ मर गयी थी'
इवानोस्की के लिए ये कुछ नया नहीं था, फिर भी अपनी ड्यूटी निभाते हुए वो आगे बोला  'अम्मा , मैं तेरी क्या मदद कर सकता हूँ?'
'मेरा पोता 2 साल का है। इसकी मां 5 दिन पहले ही चल बसी', उस बुढ़िया ने उन कब्रों को निहारते हुए कहा।
इवानोस्की ने अपनी सप्लाई में टटोल के देखा तो उसे कुछ खाने का सामान मिल गया। उसने उसे उस बुढ़िया के हाथ में रखने की कोशिश की। इवानोस्की यही करता था, वो अपना सप्लाई राशन रोज किसी किसी न जरूरतमंद को दे देता था। लेकिन उस दिन उस बुढ़िया ने उससे राशन लेने से मना कर दिया। इवानोस्की ने थोड़ा जोर देकर कहा -
'आमा अपने पोते के लिए ले ले’
'वो, वो तो कल रात ही चल बसा', ये कहते हुए उस बुढ़िया की आँखों से आंसू ढुलक पड़ा।
इवानोस्की दंग रह गया। मन ही मन शायद वो भगवान से ये भी का रहा था की अभी और क्या देखना बाकी  है। उस बुढ़िया ने इवानोस्की से कहा -
'अगर तू मेरी मदद करना चाहता है तो मेरे पोते को उसके मां बाप की कब्रों के बीच दफना दे'
इवानोस्की पत्थर हो चुका था। उसकी आँखों में भावरहित बेबसी और दुःख के आंसू थे। वो बिना कुछ कहे खड़ा हुआ और उसने वहां उन दोनों कब्रों के बीच एक छोटा सा गड्ढा खोदा और उस बच्चे को वहां दफना दिया। वो चारों रंगरूट ये दृश्य देख रहे थे। उन्हें ये समझ ही नहीं आया कि किस से क्या कहें। उन्हें इवानोस्की के शब्द याद आ रहे थे -'कुदाल, लाशें दफ़नाने के लिए'। खैर, ये सब निपटा कर जैसे ही वो जाने को हुए, उस बुढ़िया ने इवानोस्की से कहा -
‘बेटा, मेरा एक काम और करता जा'
इवानोस्की के कदम रुक गए। उसने उस बुढ़िया के हाथ अपने हाथ में लिए और बोला -
'बोलो अम्मा, क्या करना है'
‘मेरे मरने के बाद मुझे भी यहीं मेरे परिवार के पास दफना देना', उस बुढ़िया ने अपने पोते की कब्र की ओर देखते हुए कहा।
इवानोस्की के हाथ से उस बुढ़िया के हाथ छूट गए। उसकी समझ ही नहीं आ रह था की वो क्या कहे। थोड़ी देर उस बुढ़िया की आँखों में देख इवानोस्की खड़ा हुआ और वापस अपनी बैरक आ गया। आज की घटना के बाद जैसे उसका मन अब भर चुका था इस सबसे। वो रंगरूट तो सबसे ज्यादा विचलित थे। अभी आये हुए 3 माह भी नहीं हुए थे और ये वीभत्स दृश्य देख वो तो जैसे पूरी तरह ही डोल गए थे। उस रात बैरक में 4  सिपाहियों ने खुद को गोली मार ली। इवानोस्की को जब ये पता चला तो वो एक बार फिर अपनी कुदाल उठा चल दिया। बेबसी के इस माहौल में न जाने उसे अभी और कितनों को दफनाना था। इसा मोर्चे पर रूसियों को जर्मन सेना से इतनी क्षति नहीं पहुंची थी जितनी इस भुखमरी और बेबसी ने दी थी। लेनिनग्राड का ये घेराव पूरे 2 साल 4 महीने चला (तकरीबन 870 दिनों तक )। ये इतिहास का सबसे विभीषक  मोर्चा था जहां एक ही बार में इतने नागरिक  मारे गए थे (तकरीबन 8 लाख से भी ज्यादा) । 872 दिन के बाद रुसी सेना से जर्मन सेना को पीछे धकेलते हुए नगर का घेराव तोड़ा और युद्ध में वापसी की।

✍️ विभांशु दुबे विदीप्त
 मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा--------प्यारा अहसास


 बहू चाय बन गयी क्या....जी बाबूजी, अभी लायी, नम्रता ने जल्दी से चाय का कप बाबूजी की ओर बढ़ाया ।बाबू जी 5 बजे चाय पीते थे। उसके बाद वह अपनी दवाई लेते थे। नम्रता इस बात का हमेशा ख्याल रखती थी कि बाबू जी की चाय के समय में विलम्ब न हो जाए, वह घर में सबका ध्यान रखती थी। पति रमेश सुबह बैंक चले जाते थे तथा देर शाम तक वापिस आते थे।बड़ी बेटी अनु 12 साल की थी और बेटा अर्पित 6 साल का। कुछ वर्ष पूर्व सासु माँ  का देहांत हो गया था, तब से पूरी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी नम्रता पर आ गयी थी। माँ बाप की लाड़ली नम्रता को ससुराल में भी पूरा प्यार मिला। जब तक सासु माँ थी वह ध्यान रखती थीं कि नम्रता पर घर के काम काज का ज़्यादा बोझ न पड़े इसलिए वह उसके साथ लगी रहती थी। नम्रता ने चाहे मायक़े में काम न किया हो पर वह ससुराल में कभी काम से जी नही चुराती थी। घर का काम वह माँ जी से सीख गयी थी। माँ जी और वह मिलकर घर का सारा काम करते थे परन्तु उनके जाने के बाद सारा काम उस पर आ गया था।बाबूजी की तबियत भी ठीक नही रहती थी, इसलिए उनके खाने पीने का भी नम्रता को विशेष ध्यान रखना पड़ता था। नम्रता का पूरा दिन घर के काम में कैसे निकल जाता ,पता ही नही चलता था। नम्रता की माँ उस को कहती की कुछ दिन यहां आकर रह जा तो वह मना कर देती कि माँ सब परेशान हो जाएंगे।
       एक दिन नम्रता दोपहर का काम करके बर्तन साफ़ कर रही थी कि उसकी कमर में बहुत तेज़ दर्द हुआ जैसे तैसे उसने बर्तन साफ़ किए। फिर वह अपने कमरे में आकर लेट गयी थकान के कारण उसकी आँख कब लग गयी उसे पता ही नही चला।अचानक उसकी आँख खुली तो हड़बड़ाकर उसने घड़ी देखी,5:30 बज गए थे। हे भगवान बाबूजी की चाय.............वह तेज़ी से रसोई की तरफ़ भागी वहाँ भगोने में  चाय बनी रखी थी फिर उसने बाबूजी की कुर्सी के नीचे चाय का कप देखा। बाबूजी ने चाय पी ली............? पर चाय किसने बनायी, यह सोचते सोचते वह आगंन में आयी जहाँ बेटी अनु अपने छोटे भाई को पहाड़े याद करा रही थी। माँ को देखकर उसने कहा माँ आपकी चाय भगोने में रखी है और दादाजी को मैंने चाय बनाकर दे दी है। यह सुनकर नम्रता की आँखो में आँसू आ गए। उसकी बेटी कब उसका सहारा बन गयी पता ही नहीं चला। आज बेटी के प्यार के अहसास की उस चाय से नम्रता का सारा दर्द दूर हो गया।
                   
 ✍️ प्रीति चौधरी
शिक्षिका, राजकीय बालिका इण्टर कॉलेज, हसनपुर, जनपद अमरोहा, उ0 प्र0

मुरादाबाद की साहित्यकार स्वदेश सिंह की लघुकथा---------- मजदूर


रमेश ने घर में घुसते हुए  कहा जानकी....जल्दी से जरूरी चीजें एक थैले में रख लो  ....कल सुबह  को हमें  अपने गाँव  के लिए निकलना है। पड़ोस वाले सभी लोग जा रहे हैं ।
 जानकी ने बड़े अचरज में कहा.......... अरे.. हम कैसे जा सकते हैं.... हमारा तो बेटा बीमार है.... उसे बहुत तेज बुखार है.... और वह तो खड़ा भी नहीं हो पा रहा और आप चलने की बात कर रहे हो...... रमेश ने कहा कोई बात नहीं मैं बेटे को गोद में लेकर चलूंगा। लेकिन  अगर हम नहीं गए तो हम यहीं रह जाएंगे ।जल्दी-जल्दी सामान थैले में रख लो.....जानकी ने जल्दी-जल्दी जरूरी सामान एक थैले में भरा और अपने झोपड़ीनुमा कमरे का ताला  दिया। रमेश  ने बीमार बेटे को चादर मे लपेटकर  गोद  में उठाकर गावँ जाने के लिए निकल पड़े। रास्ते में कोई सवारी ना मिलने के कारण उन्हें भरी दुपहरी में पैदल ही चलना पड़ा । चलते-  चलते दो दिन हो गए थक- हारकर हो एक पेड़ के नीचे बैठ गये। रमेश ने देखा की बेटे की साँस बहुत रुक- रुक कर आ रही है... उसे चिंता होने लगी परंतु उसने अपनी चिंता को जाहिर नहीं होने दिया। और बेटे को गोद में दोबारा लेकर चल पड़े ।अभी कुछ दूर ही चले होंगे ....कि कुछ समाजसेवी लोगों ने खाना देने के लिए उन्हें रोक लिया। खाना लेकर खाने ही बैठे तभी रमेश को लगा कि उसका बेटा  अब इस दुनिया में नहीं है ....उससे  रोटी का एक  भी टुकडा भी नही खाया गया। जानकी ने रमेश से कहा कि बेटे को भी कुछ खिला देते हैं... जानकी ने बेटे को कुछ खिलाने के लिए जैसे ही मुँह से कपड़ा हटाया और रोटी का टुकड़ा खिलानें लगी...बेटा का मुहँ नही खुल रहा था...और उसकी गर्दन एक तरफ लुढ़क गई... ...यह देख कर जोर-जोर से चीखनें लगी ......और बेटे को सीने से लगाकर लिपट -लिपट कर रोनें लगी .....हाय मेरा बच्चा अब इस दुनिया में नहीं रहा ....अब मैं कैसे जिन्दा रहूँगी....... उसकी चीखों ने  बहुत दूर-दूर तक मानवता को दहला दिया।

✍️ स्वदेश सिंह
 मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर रस्तोगी की लघुकथा ------संवेदना


"आह आज क्या शानदार खुशबू आ रही ही जरूर कुछ स्वादिष्ट बना है।" खाने की मेज पर बैठते मुकेश ने पत्नी मीना से पूछा।
मीना ने उत्तर दिया "हाँ जी, आज बटर चिकन बनाया है।"
मुकेश ने कहा "बहुत बढ़िया। अच्छा जरा समाचार खोल दो और प्लेट लगा दो।"
इस दौरान टीवी पर खबर दिखाई जा रही थी कि कैसे एक गर्भवती हथिनी को गांव के कुछ लोगों ने बारूद से भरा अन्नास खिला दिया। जिससे वह हथिनी दर्द से तड़पते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।
थाली मे रखे बटर चिकन को निपटाकर और बटर चिकन मांगते हुए मुकेश ने कहा "कितने निर्दयी एवं स्वार्थी लोग हैं। बेवजह ही एक मासूम जानवर की जान ले ली। मारा भी तो कितने निर्दयी तरीके से। छी है ऐसे लोगों पर ये मनुष्य नहीं दानव हैं दानव।"

✍️ इला सागर रस्तोगी
मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार सीमा रानी की लघुकथा ----- बहू बेटी


            रमा की आंखों में खुशी का ठिकाना न था क्योंकि आज उसके इकलौते बेटे रवि की बहु विवाह बंधन में बंध कर रमा के घर आई थी। दो वर्ष पहले बेटी रिया की शादी के बाद जैसे घर सूना सूना हो गया था, बेटे के ऑफिस जाने के बाद शाम 5: 00 बजे तक तो घर ऐसे सूना हो जाता जैसे घर की आत्मा ही निकल गई हो। रमा कभी छत पर तो कभी खिड़की से सड़क पर निहार निहार कर ही अपना दिन पूरा करती थी।
                     पिछले 2 दिन से घर में काफी चहल-पहल थी क्योंकि रवि के विवाह उत्सव में मित्र व सगे संबंधी सभी एकत्रित थे। आज बहू घर आ गई तो मनोरमा को लग रहा था जैसे वह दिन में सपना देख रही हो पिछले 2 सालों से वह हर पल इसी दिन का इंतजार कर रही थी।
                      मेहमानों को विदा करने के बाद रमा को फुर्सत मिली तो वह अपने मन की बात करने अपनी नई नवेली बहू के पास आए बहू ने सासू मां के चरण स्पर्श किए तो रमा ने ढेर सारा आशीर्वाद दिया। रमा ने अपनी बहू नेहा से बड़े स्नेही भाव से कहा कि,"देखो बेटी तुम ही मेरी बेटी रिया हो एवं तुम ही मेरी बहू नेहा हो क्योंकि मेरी बेटी तो किसी दूसरे घर की लक्ष्मी बन चुकी है अब तुम ही मेरे घर की लक्ष्मी हो..............।" ऐसा कहकर रमा ने नेहा को अपने कलेजे से लगा लिया। रमा की इतनी स्नेह से भरी भावपूर्ण बातों को सुनकर नेहा की आंखें भर आई और वह रमा के गले से लिपट कर बोली मां जी मैं अपनी मां को तो मायके में ही छोड़ आई अब तो आप ही मेरी मां हो। यह सुनकर रमा का कलेजा भी सुखद अनुभूति से गदगद हो गया और उसने नेहा को अपने कलेजे से लगा लिया ।

  ✍🏻सीमा रानी
अमरोहा

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा ---इंसान तो हूँ ?

            पत्नी ने पति से कहा, ''आज रात मैने स्वप्न में देखा कि आप प्रदेश के बहुत बड़े आदमी बन गए हैं ।आपके चारों ओर भीड़ ही भीड़ है ।तभी मैने देखा कि एक मकान में आग लग गई।फिर पता नहीं क्या हुआ की आप उस आग में कूद पड़े और -----------!''
       '' हाँ ! हाँ ! ठीक है बाद में क्या हुआ ?"
       "बस कुछ नहीं ,मेरी आँख खुल गई"
     देखती हूँ तुम वहीं के वहीं हो मुफलिसी के मारे चारपाई पर पड़े निःसहाय नोकरी के लिए जूझते तिल -तिल कर मरने वाले बेसहारा इंसान--।"
     ''ठीक है ! ठीक है!मैं एक इंसान तो हूँ न ।आज के युग में कोई इंसान ही बना रहे यही क्या कम है ?"
       पत्नी ने पति को बहुत ही गर्व से देखा और फिर स्नेहवश उसके सीने से लग गई ।
 ✍️  अशोक विश्नोई
  मुरादाबाद
 मोबाइल--9411809222


मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफा की लघु कथा-----अनुभव

                     
रामलाल ने अपनी तीन बीघा जमीन बेचकर बेटे सोहनलाल को नामी यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने शहर भेजा था कि बेटा इंजीनियर बनकर उसका नाम रोशन करेगा और अपना जीवन अच्छे से बिताएगा । सोहन ने भी पिता की इच्छा पूरी करते हुए पढ़ाई की और इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त कर ली जिसे हासिल किये उसे एक वर्ष से अधिक का समय हो गया था अब वह डिग्री लेकर जॉब की तलाश में सारे सारे दिन इधर से उधर जूते घिस रहा था मंगलवार को भी दिन भर का थका मांदा सोहन रात को अपने छोटे से कमरे में आकर सो गया बुधवार की सुबह उठा तो इस उम्मीद के साथ के शायद आज उसकी मेहनत सफल हो जाये। फ्रेश होकर वह चौराहे की ओर चल दिया गुप्ता न्यूज एजंसी से उसने अखबार खरीदा और तेज कदमो से कमरे पर लौट आया। टूटी हुई कुर्सी पर बैठकर वह अखबार के पन्ने पलटने लगा और अखबार के वर्गीकृत विज्ञापन वाले पेज पर वह एक एक विज्ञापन पढ़ने लगा लेकिन उसके मतलब का कोई विज्ञापन उसे नज़र नही आया अंत में नीचे छपे विज्ञापन पर उसकी निगाह पड़ी 'आवश्यकता है इंजीनियर्स की' उसकी आँखे खुशी से चमक उठी .वह गौर से विज्ञापन पढ़ने लगा विज्ञापन में मांगी गई शैक्षिक व प्रशिक्षण योग्यता पर वह खरा उतरता था लेकिन अगले ही पल उसे झटका सा लगा विज्ञापन में नीचे लिखा था 'अनुभव दो वर्ष ' जिसे पढ़कर उसके होंठ भिंच गये गुस्से से उसने बंद किया मुक्का 'ओफ्फो' कहकर सामने पड़ी मेज पर दे मारा और उसके होंठ बुदबुदाने लगे अब इन नीति नियंताओ को कौन बताये के जब बेरोज़गारों को जॉब ही नही मिलेगी तो वे अनुभव कहाँ से लायेंगे मायूसी के साथ उसने आँखे बंद की और कुर्सी की पीठ से सर लगाकर कुर्सी दीवार से टिका दी.

✍️कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'                                         सिरसी (संभल)
9456031926