क्लिक कीजिए और पढ़िये पूरी कृति
👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇
:::::::::प्रस्तुति:::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी, 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश , भारत ,मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇
:::::::::प्रस्तुति:::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी, 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश , भारत ,मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
कैलाश जी के साहित्य में प्रिय का अनुपम सौंदर्य देखने को मिलता है, उनके गीतों में प्रेम की अनुभूति के साथ ही ,वियोग की पीड़ा ,दुःख, दर्द ,वेदना की विकलता टीस और छटपटाहट है - मौन प्राणों पर व्यथा / भार पल- पल ढो चुका हूँ/ मैं तुम्हारी वंदना के गीत गा -गा सो चुका हूँ/ मैं तुम्हारा हो चुका हूँ ।
गीत काव्य का प्राण है मानव के सरल हृदय में प्रेम के अतिरेक में भाव गीत बन स्वतः ही फूट पड़ता है, तो वियोग में भी कवि का घायल मन विरह गीत गाता दिखता है, कवि कैलाश चन्द्र जी का हृदय उतना ही पावन है, जितना उनका प्रेम ,इस प्रकार प्रणय का चितेरा कवि अपनी सम्पूर्ण रागात्मकता, और भाव प्रवणता में हृदय की गहन अनुभूति से प्रेममय हो चुका है ,सब कुछ भूल कर प्रेम की धारा में अवगाहन करता रहता है, कैलाश जी के गीतों में प्रेमानुभूति की विशद और विविध रंग देखने को मिलता है - प्राण तुम्हारी ही सुधियों में निस -दिन खोया रहता हूँ। उनके प्रेम में वासना का लेश मात्र भी नहीं है, बल्कि उसमें आत्मनियंत्रण व औदात्य रूप देखने को मिलता है - "सरिता के तट पर आकर भी जिसने जल की ओर न देखा/क्योंकि पपीहे से सीखा है मैंने अब तक आत्म नियंत्रण ।" उनके यहाँ प्रेम सुखद ही नहीं अलौकिक भी है - देख तुम्हारा रूप अछूता पूनम का शशि भी शरमाया ।प्रणय जब जीवन का आस बनता है, तब मानों जीवन को अमूल्य निधि मिल जाता है ,प्रिय के रूप और लावण्य के आगे सब कुछ फीका लगता है -चाँद भी पलकें झुकाये देखता है/आज तो रूपसि करो श्रृंगार ऐसा ।
कैलाश जी कवि हृदय सिर्फ प्रेम का ही चितेरा नहीं है बल्कि उनके साहित्य में जन चेतना व लोक कल्याण की भावना भी देखने को मिलता है - लोक सेवा भावना का मूल्य है अपना /साधना की अग्नि में अनिवार्य है तपना /हर दुःखी का दुःख निवारण हो सके जिससे/चाहिये वह मंत्र ही निशि- दिन हमें अपना ।
वास्तव में कैलाश जी का कवि व्यक्तित्व अपने जीवन की सार्थकता लोक सेवा में मानता है ,कर्म उनके लिये पूजा है।जन मन को सुरभित करने वाले जीवन संघर्ष के प्रति आस्था रखने वाले कवि हैं - प्रीति का पाखण्ड से परिचय नहीं/प्रीति में कोई कहीं शंसय नहीं / वास्तविकता ही इसे स्वीकार है /प्रीति करना जानती अभिनय नहीं / उनका मानना है कि ईश्वर की सत्ता कण -कण में व्याप्त है ,समस्त प्राणी जगत उसी का प्राणाधार है - तुमसे ही मानव जीवन का सम्भव है उद्धार /तुमसा कोई नहीं दूसरा निश्छल और पुनीत /तुम सचमुच अपने भक्तों के सदा रहे हो मीत /
कवि के लिये प्रेम मुक्ति का मार्ग है, भक्ति है, श्रद्धा है ।प्रेम का दीपक ईश तक जाने का मार्ग प्रशस्त करता है, अतएव उनकी कविता में -आँसू की वेदना है ,पीड़ा है , कामायनी का आनन्द है तो पंत जी की ग्रन्थि का अनुनय ग्रन्थिबन्धन है ,निराला जी की तरह शक्ति पाने का मार्ग है। प्रेम जन- जन तक पहुंचाने का कार्य करता है, इसलिये उनका प्रिय अनन्य है -देख कर तुमको प्रथम बार ही /रह गयी दृष्टि मेरी ठगी /......चारुता वह अलौकिक तुम्हारी / अंत तक क्षीण होने न पायी / उस तुम्हारे मधुर राग में ही / बाँसुरी की प्रीति मैं बजाता /
✍️ डॉ मीरा कश्यप, अध्यक्ष ,हिंदी -विभाग ,के .जी. के. महाविद्यालय ,मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश,भारत
आओ कोई गीत लिखें ,
अपनी-अपनी प्रीत लिखें ।
करें कल्पना
हम स्वप्न बुनें ,
कली खिलायें
शूल चुनें ,
एक नई हम रीत लिखें ।
दर्द सहें
कुछ रंग रचें ,
खुशियां बाटें
सजे -धजे ,
आज कही मनमीत लिखें ।
सांझ ढल रही
दीप जले ,
शलभ उड़ रहे
पंख जले ,
हार कहीँ , तो जीत लिखें ।
शब्द जुटायें
गीत गढ़े ,
आराध्यों पर
पुष्प चढ़ें ,
ग्रीष्म नहीं, हम शीत लिखें ।
आओ कोई गीत लिखें ।।
✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद,उत्तर प्रदेश, भारत
---------------------------------------------
✍️ अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद उत्तर प्रदेश, भारत,मोबाइल फोन नम्बर 82 188 25 541
------------------------------------------
कंक्रीट के जंगल में
गुम हो गई हरियाली है
आसमान में भी अब
नहीं छाती बदरी काली है
पवन भी नहीं करती शोर
वन में नहीं नाचता है मोर
नहीं गूंजते हैं घरों में
अब सावन के गीत
खत्म हो गई है अब
झूलों पर पेंग बढ़ाने की रीत
नहीं होता अब हास परिहास
दिखता नहीं कहीं
सावन का उल्लास
सजनी भी भूल गई
करना सोलह श्रृंगार
औपचारिकता बनकर
रह गए सारे त्यौहार
आइये थोड़ा सोचिए
और थोड़ा विचारिये
हम क्या थे और
अब क्या हो गए हैं
जिंदगी की भाग दौड़ में
इतना व्यस्त हो गए हैं
गीत -मल्हारों के राग भूल
डीजे के शोर में मस्त हो गए हैं
यह एक कड़वा सच है
परंपराओं से दूर हम
होते जा रहे हैं
आधुनिकता की भीड़ में
बस खोते जा रहे हैं
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन 9456687822
Sahityikmoradabad.blogspot.com
------------------------------------------
हरे पेड़ की जड़ में हर दिन
मतलब का तेज़ाब
ऐश कर रहा उत्तरदायी
देगा कौन जबाब
होने दिया मौन ने सच का
छिन्न-भिन्न हर तंत्र
चाटुकारिता के टीले पर
है उत्पाती झूठ
लगता जैसे उम्मीदों से
गई ज़िन्दगी रूठ
मनमर्ज़ी की जेलों में हैं
नियम सभी परतंत्र
बस उपदेशों तक ही सीमित
अब सच का अस्तित्व
लगातार हावी हैं सब पर
कुछ दुहरे व्यक्तित्व
पढ़े जा रहे मंदिर-मंदिर
मरघट वाले मंत्र
✍️ -योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
-------------------------------------------
(2)
हरे-भरे कलरव से पूरित, प्यारा सा संसार मिला।
घोर अकेलेपन से लड़कर, जीने का आधार मिला।
बरसों से सूनी क्यारी में, ज्यों ही पौधा रोपा तो,
मैंने पाया मुझको मेरा, बिछुड़ा घर-परिवार मिला।
कुछ दोहे
----------
कविताओं के रूप में, अन्तस के उद्गार।
सावन मेरी ओर से, तुझको यह उपहार।।
चलो मिटाएं इस तरह, आपस के सन्ताप।
कुछ उलझन कम हम करें, कुछ सुलझाएं आप।।
ढलने को है गीत में, मेरे मन की बात।
अभी नहीं तू बीतना, ओ पूनम की रात।।
मेघयान पर प्रेम से, होकर पुनः सवार।
भू माता से भेंट को, आये सलिल कुमार।।
सम्मुख मेरे आज भी, संकट खड़े अनेक।
लेकिन दुनिया देख ले, मैं भारत हूँ एक।।
भूख-प्यास में घुल गये, जिस काया के रोग।
उसके मिटने पर लगे, पूरे छप्पन भोग।।
✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
----------------------------------------
वो पराया हो गया ,जो था कभी मेरा सनम
हो गयी हैरान हूँ मैं ये नज़ारा देखकर।
ज़िंदगी नाराज़ है या ,है मुकद्दर की ख़ता
मौत भी खामोश है मुझको तड़पता देखकर
फैसला तकदीर का जो हो गया अब आखिरी
मैं अकेली ही चली,सबको पराया देखकर ।
आँधियों औकात में रहना ज़रा कुछ देर तक,
झुक सका क्या आसमाँ,टूटा सितारा देखकर ।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार,मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
---------------------------------------------
हमे क्या पता था खुशियों की कीमत,
जख्म ले के कीमत चुकानी पड़ेगी।
किसे ये खबर थी के उलझन मिलेगी,
सभी शर्तें हमको निभानी पड़ेगी।
ख़ता कर के वो ही हावी रहेगा,
मुझे अपनी गर्दन झुकानी पड़ेगी।
बोले जुबां सच तो आरी चलेगी,
सजा में जुबां भी कटानी पड़ेगी।
हवाला दे इज्जत का लब चुप करेंगे,
अगर बात जग को सुनानी पड़ेगी।
सभी टूटे अरमान को जोड़ इन्दु,
लगी आग, दिल मे दबानी पड़ेगी।
✍️ इन्दु रानी, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश,भारत
--------------------------------------
✍️ डॉ प्रीति हुंकार, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
----------------------------------------
✍️ प्रशान्त मिश्र, राम गंगा विहार, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
-------------------------------------------
✍️ नकुल त्यागी, मुरादाबाद
-----------------------------------------
✍️ विकास मुरादाबादी, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇
::::::::::प्रस्तुति:::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी, 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश, भारत , मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️
https://acrobat.adobe.com/id/urn:aaid:sc:AP:bc9e3f7e-6eb8-4b0e-9eab-a838c3291026
::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
आपकी 21 कुंडलियाँ हस्तलिखित रूप में मुझे साहित्यिक मुरादाबाद वाट्स एप समूह के एडमिन डॉ मनोज रस्तोगी के प्रयासों के फलस्वरूप पढ़ने को मिलीं। इससे पता चलता है कि कुंडलिया छंद शास्त्र में श्री जोशी की अच्छी पकड़ है ।
कुछ कुंडलियों में "कह मधुकर कविराय" टेक का प्रयोग किया गया है । कुछ बिना टेक के लिखी गई हैं। दोनों में माधुर्य है । इनमें जमाने की जो चाल चल रही है ,उसकी परख है । श्रेष्ठ समाज की रचना की एक बेचैनी है और कतिपय ऊंचे दर्जे के आदर्शों को समाज में प्रतिष्ठित होते देखने की गहरी लालसा है। कुंडलिया लेखन में जोशी जी ने ब्रजभाषा अथवा लोक भाषा के शब्द बहुतायत से प्रयोग में लाए हैं । इनसे छंद-रचना में सरलता और सरसता भी आई है तथा वह जन मन को छूते हैं । फिर भी मूलतः जोशी जी खड़ी बोली के कवि हैं ।
कुंडलियों में कवि का वाक्-चातुर्य भली-भांति प्रकट हो रहा है । वह विचार को एक निर्धारित बिंदु से आरंभ करके उसे अनेक घुमावदार मोड़ों से ले जाते हुए निष्कर्ष पर पहुंचने में सफल हुआ है। सामाजिक चेतना डॉक्टर भूपति शर्मा जोशी की कुंडलियों में भरपूर रूप से देखने को मिलती है ।
"खैनी" के संबंध में आपने एक अत्यंत सुंदर कुंडलिया रची है ,जिसमें इस बुराई का वर्णन किया गया है । सार्वजनिक जीवन में हम लोगों को प्रायः बाएं हाथ की हथेली पर अंगूठे से खैनी रगड़ कर मुंह में रखते हुए देखते हैं और फिर बीच-बीच में स्थान-स्थान पर ऐसे लोग थूकते हुए पाए जाते हैं । गुटखा ,तंबाकू आदि खैनी का ही स्वरूप है । यह बुराई न केवल गंदगी पैदा करती है बल्कि देखने में भी बड़ी भद्दी मालूम पड़ती है । थूकने की आदत के खिलाफ स्वच्छताप्रिय समुदाय द्वारा यद्यपि अनेक आह्वान किए जाते रहे हैं ,आंदोलन चलाए गए हैं ,लोगों को जागरूक किया जाता है । कुछ लोगों ने अपने गली-मोहल्लों में पोस्टर लगाकर इस बुराई के प्रति जनता को सचेत भी किया है । लेकिन यह बुराई दुर्भाग्य से अभी तक समाप्त नहीं हो पाई है। थूकने को *थुक्कम-थुक्का* शब्द का बड़ा ही सुंदर प्रयोग करते हुए डॉक्टर भूपति शर्मा जोशी ने खैनी की बुराई पर एक ऐसी कुंडलिया रच डाली है जो युगों तक स्मरणीय रहेगी । प्रेरक कुंडलिया आपके सामने प्रस्तुत है:-
खैनी तू बैरिन भई , हमको लागी बान
नरक निसैनी बन गई ,जानत सकल जहान
जानत सकल जहान,सदा ही थुक्कम-थुक्का
याते रहतो नीक ,पियत होते जो हुक्का
छिन-छिन भई छिनाल ,बनी जीवन कहँ छैनी
अस औगुन की खान ,हाय तू बैरिन खैनी
अर्थात कवि कहता है कि हे खैनी ! तू तो बाण के समान हमारी शत्रु हो गई है ,नरक की निशानी बन गई है । तेरे कारण थुक्कम-थुक्का अर्थात चारों तरफ थूक ही थूक बिखरा रहता है । इससे तो ज्यादा अच्छा होता ,अगर हुक्का का प्रयोग कर लिया गया होता । तू सब प्रकार से अवगुण की खान है । 'खैनी' शब्द से कुंडलिया का आरंभ करके कवि ने अद्भुत चातुर्य का परिचय देते हुए कुंडलिया को 'खैनी' शब्द पर ही समाप्त किया है ।
एक अन्य कुंडलिया देखिए । इसमें 'नेतागिरी' का खूब मजाक उड़ाया गया है। 'नेता' शब्द से कुंडलिया का आरंभ हो रहा है तथा नेता शब्द पर ही कुंडलिया समाप्त हो रही है । इसमें कह मधुकर कविराय टेक का प्रयोग हुआ है । दरअसल राजनीति का स्वरूप आजादी के बाद एक बार जो विकृत हुआ तो फिर नहीं सँभला । अशिक्षित, स्वार्थी ,लोभी और दुष्ट लोग राजनीति के अखाड़े में प्रवेश करते गए। दुर्भाग्य से उनको ही सफलता भी मिली । कवि ने कितना सुंदर चित्र नेतागिरी के माहौल का किया है ! आप पढ़ेंगे ,तो वाह- वाह कर उठेंगे । देखिए :-
नेता बनना सरल है ,कोई भी बन जाय
हल्दी लगै न फिटकरी ,चोखा रंग चढ़ाय
चोखा रंग चढ़ाय ,बिना डिग्री के यारो
झूठे वादे करो ,मुफ्त की दावत मारो
कह मधुकर कविराय ,नाव उल्टी ही खेता
लाज शर्म रख ताख ,बना जाता है नेता
सचमुच नेतागिरी के कार्य की कवि ने पोल खोल कर रख दी है । जितनी तारीफ की जाए ,कम है ।
विशुद्ध हास्य रस की एक कुंडलिया पर भी हमारी नजर गई । पढ़ी तो हंसते हंसते पेट में बल पड़ गए । कल्पना में पात्र घूमने लगा और कवि के काव्य-कौशल पर वाह-वाह किए बिना नहीं रहा गया । आप भी कुंडलिया का आनंद लीजिए :-
पेंट सिलाने को गए ,लाला थुल-थुलदास
दो घंटे में चल सके ,केवल कदम पचास
केवल कदम पचास ,हाँफते ढोकर काया
दीर्घ दानवी देह ,देख दर्जी चकराया
बोला होती कमर ,नापता पेंट बनाने
पर कमरे की नाप ,चले क्यों पेंट सिलाने
मोटे थुल-थुल शरीर के लोग समाज में सरलता से हास्य का निशाना बन जाते हैं। काश ! वह अपने शरीर पर थोड़ा ध्यान दें और जीवन को सुखमय बना पाएँ !
डॉ भूपति शर्मा जोशी ने सामयिक विषयों पर भी कुंडलियां लिखी हैं । कश्मीर के संदर्भ में रूबिया सईद को छुड़वाने के लिए जो वायुयान का अपहरण हुआ था और उग्रवादी छोड़े गए थे ,उस पर भी एक कुंडलिया लिखी है । चुनाव में सिर - फुटव्वल पर भी आपकी कुंडलिया-कलम चली है। अंग्रेजी के आधिपत्य को समाप्त करने आदि अनेक विषयों पर आपने सफलतापूर्वक लेखनी चलाई है ।
अनेक स्थानों पर यद्यपि त्रिकल आदि का प्रयोग करने में असावधानी हुई है लेकिन कुंडलियों में विषय के प्रतिपादन और प्रवाह में अद्भुत छटा बिखेरने की सामर्थ्य में कहीं कोई कमी नहीं है ।
डॉक्टर भूपति शर्मा जोशी की कुंडलियाँँ बेहतरीन कुंडलियों की श्रेणी में रखे जाने के योग्य हैं । उनकी संख्या कम है लेकिन , जिनका मैंने ऊपर उल्लेख किया है ,वह खरे सिक्के की तरह हमेशा चमकती रहेंगी। कुंडलियाकारों में डॉ भूपति शर्मा जोशी का नाम बहुत सम्मान के साथ सदैव लिया जाता रहेगा ।
दयानन्द गुप्त जी मुरादाबाद के लब्धप्रतिष्ठ वरिष्ठ अधिवक्ता थे। सन 1943 में प्रकाशित उनके काव्य संकलन "नैवेद्य" को पढ़ कर आश्चर्य होता है कि एक भावी अधिवक्ता की हिन्दी साहित्य में कितनी गहरी पैठ थी। 1943 के आसपास का समय वह समय था, जब हिन्दी साहित्य में छायावाद के तिरोभाव के पश्चात, प्रगतिवाद जन्म ले चुका था। यद्यपि श्री गुप्त जी ने स्वयं "नैवेद्य" के भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि "मुझे आप 'छायावादी' या 'प्रगतिवादी' कवियों की श्रेणी में बिठलाने की अनधिकार चेष्टा न करें " , परंतु फिर भी उक्त काव्य संग्रह में कवि की भाव, अनुभूति, भाषा, अभिव्यक्ति में छायावाद का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। नैवेद्य काव्य संग्रह में 52 गीतों/ कविताओं का संकलन है, जो खड़ी बोली व गेय शैली में लिखे गए हैं।परम्परागत अलंकारों के साथ ही पाश्चात्य अलंकारों, मानवीकरण, विशेषण विपर्यय और ध्वन्यर्थ व्यंजना का भी प्रयोग देखने को मिलता है।भाषा में लाक्षणिकता और कोमलकान्त पदावली का भी सुंदर प्रयोग हुआ है।
गुप्त जी छायावादी कवियोँ की ही तरह व्यक्तिवादी कवि हैं, जिन्होंने भाव, कला और कल्पना के माध्यम से अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इन गीतों में की है। “तुम क्या”, “स्मृति”, “प्रेयसी” जैसी रचनाओं में गुप्त जी के प्रेमी का उसकी प्रियतमा के प्रति प्रेम स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है, इनमें बाह्य सौंदर्य की नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावनाओं की अभिव्यक्ति की गयी है-
तुम क्या जानो प्रिय तुम क्या हो ?
सुषमा की भी प्रिय उपमा हो ।
कितनी भावतिरेकित करने वाली पंक्तियाँ हैं, देखिये-
प्रिय को क्या न दिया, हृदय ओ ।
प्रिय को क्या न दिया ?
उर सिंहासन पर आसन दे
फिर दृग जल अभिषेक किया ।
ये पंक्तियां अनायास ही राज्याभिषेक का दृश्य मूर्त कर देती हैं। कवि ने अपने हृदय सिंहासन पर अपनी प्रियतमा को आसीन कर दृग जल से उसका अभिषेक किया है, अब वही उसके हृदय की मल्लिका है।
छयावादी कवियों की प्रणय कथा असफलता में पर्यवसित होती है, अतः उनके विरह में सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं का हृदय विदारक चित्रण मिलता है। गुप्त जी की रचनाओं में भी प्रेम का चित्रण मानसिक स्तर पर होने के कारण मिलन की अनुभूतियों की अपेक्षा विरहानुभूति का व्यापक चित्रण मिलता है।
“ विरहगान”, “मिलन”, “प्रेयसी से”, “प्रश्न” जैसी रचनाओं में विरह की इसी प्रकार की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की गई है-
विरह करता झुलस मरु सा
प्राण की निर्जीव निधियाँ,
मिलन भर देती उन्हीं में
स्रोत सुखमय सुरँग सुधियाँ
× × × × × × × × × × ×
प्रीति यहाँ सखि फूस तापना
क्षण में लगी, बुझी क्षण में फिर।
विरह की अग्नि मरु भूमि की तरह झुलसा देती है, तो मिलन जीवन को खुशियों से सतरंगी बना देता है, फूस का स्वभाव ही है क्षण भर में आग पकड़ना और तुरंत ही बुझ जाना ।
कुछ क्षण का संयोग शाप है,
लगता विरह समान खटकने,
किस तरंग ने हमें मिला कर
छोड़ उदधि में दिया भटकने।
क्षणिक संयोग के फलस्वरूप विरह के समुद्र में असहाय भटकना कितना मर्मान्तक होता है । जैसे प्यासे को दिया गया एक घूँट पानी उसकी प्यास और बढ़ा देता है, उसी प्रकार क्षण भर का मिलन विहाग्नि और अधिक उद्दीप्त कर देता है।
हे प्रिय,
यौवन के कितने मर्मों को
छल विनोद में समझाती तू।
तप पर वर देने वाली सी
आती तू, फिर छिप जाती तू ।
प्रेमी का प्रेम एक तपस्या से कमतर नहीं है, जैसे किसी तपस्वी के तप से प्रसन्न हो उसका आराध्य उसे वर दे कर विलुप्त हो जाता है और साधक अपने आराध्य की स्मृति में व्यथित होता है, वैसे ही हे प्रिय तुम भी यौवन की उद्दात भावनाओं को जागृत कर विलुप्त हो जाती हो।
एक और प्रयोग देखिये-
बाँधो , भागा जाता यौवन।
समय, जरा का देख आगमन।
कब तक रुके ऋणी का वैभव
ब्याज सहित होगा चुकता सब
मानो यौवन ऋण है, जिसे ब्याज सहित चुकाते चुकाते व्यक्ति बुढ़ापे के द्वार तक पहुँच जाता है।
इस काव्य संग्रह में प्रकृति की भी अद्भुत छटाएँ देखने को मिलती हैं। गुप्त जी के प्रकृति चित्रण पर भी छायावाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है, चाहे प्रकृति का मानवीकरण हो या कोमलकान्त पदावली का प्रयोग या ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग या सूक्ष्म के लिए स्थूल उपमान या स्थूल के लिए सूक्ष्म उपमान।
छायावादी कवियों की ही भाँति गुप्त जी भी प्रकृति में नारी रूप देखते हैं और उसमें सम्भवतः प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का भी अनुभव करते हैं। प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों में उन्हें किसी नवयौवना की विभिन्न चेष्टायें दृष्टिगत होती हैं। प्रकृति पर नारी चेतना का आरोप करते हुए गुप्त जी ने रात्रि व्यतीत होने व उषा के आगमन इस प्रकार चित्रण किया है-
उन्मुक्त गगन के चरण तले
अर्चन कर पल्लव पुष्प चढ़ा,
लुक छिप तुहीनों की लघुता में
निशि चली, आरती दीप बढ़ा,
घबरा डगमग पग बसन हिले।
बाजे नूपुर रुन रणन कणन,
संकुचित तन स्वेदित शरम शिथिल,
छूटी चंगेरी कुसुमों की
दोलित उरोज, द्रुत श्वास अनिल,
सौरभ के संयत खुले केश।
उपरोक्त छंद में “बाजे नूपुर रुन रणन कणन” अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण विशेष सौंदर्य लिए हुए है।
उन्मुक्त गगन में चारों ओर सूर्य का स्वर्णिम प्रकाश प्रकृति को सराबोर कर रहा है। रात्रि में गिरी ओस की बूँदेँ उगते सूर्य के ललिमा युक्त किरणों का स्पर्श पाकर जैसे हिमकण में परिवर्तित हो चमकने लगती हैं।उषा रूपी नायिका नया सवेरा नई आशायें ले कर आती है।
नभ का कवि कल कण्ठ खुला,
कहती दिशि दिशि गा कोकिला,
उठ, उर उर की प्रिय कमला,
देखी प्राची ने लिया पहन,
तुङ्ग शुभ्र शारद शिखरों पर,
किरणों का कंचन हार निकर।
अम्बर के सीमान्त देश में,
शुभ सुहाग की रेखा सी,
मृदुल कपोलों पर लज्जा के
शत शत चुम्बन लेखा सी
× × × × × × × × × ×
सजनि! सुषुप्त विश्व के मुख ओर
अंकित कर तुहिनिल चुम्बन,
छिटकाती त्रिभुवन-अंचल में
हिमकन सी निज शुचि छविकन।
× × × × × × × × × ×
ऐ प्रभात सन्ध्ये! नव आशे!
उस अनन्त की छाया सी,
मौन सिन्धु के नील अंक में
सांध्य सुनहरी माया सी ।
शिशिर ऋतु की प्रातः में उदित सूर्य की हल्की गर्माहट लिए भीनी भीनी स्वर्णिम किरणें मानों प्रकृति को पीले रेशमी वस्त्र से आवृत कर देती हैं , देखिये--
अयि रस रंगिणि! शिशिर प्रात में
डाल घना मानिक , घूँघट,
रंगरलियाँ करती, निदाघ में
पहन रेशमी पीला पट।
सन्ध्या हो चुकी है, रात्रि का अवतरण हो रहा है, सन्ध्या की ललिमा मानों रात्रि रूपी नायिका की मेहँदी है और धीरे धीरे घिरने वाला अंधकार उसकी नीली साड़ी है, सुन्दर चित्रण--
प्राची में मन्द मन्द चुप चुप
घन नील आवरण रजनी,
लख सन्ध्या तन नूतन मेहँदी
बौरी सी उठी अनमनी।
× × × × × × × × ×
हंसता आया नव वयस इन्दु
मानिनी यामिनी विमना
नमित नयन, अखिली कलिका
निश्छल छवि सी मौन मना ।
वर्षा ऋतु की काली मेघमयी रात्रि , मानों वर्षा रूपी नायिका अपने काले मेघ रूपी सर्पों जैसे केशों को खोल कर अभिसार कर रही हो और वे विषधर सर्प इस ऋतु में यदा कदा दिखने वाले सुधामय चन्द्र से सुधा का पान करने हेतु अग्रसर हों ---
व्योम छाए मेघ काले
यामिनी ने खोल कुन्तल
आज विषधर नाग पाले
कर रहे शशि पात्र से पय सुधा का सुख पान ।
शरद ऋतु सबसे सुहानी ऋतु होती है। वर्षा ऋतु के चार मास बीत जाने पर सारी प्रकृति साफ सुथरी दिखती है, धूल कहीं दिखाई नहीं देती, चारों ओर पुष्प खिल उठते हैं। शरद ऋतु की रात्रि भी सुहानी हो उठती है, चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से युक्त हो कर पृथ्वी पर श्वेत चाँदनी बिखेरने लगता है। उस दुग्ध धवल शारदीय रात्रि का चित्रण गुप्त जी ने निम्न प्रकार से किया है --
उग उठे शत श्वेत सरसिज,
हँसी राका शारदीया,
अंग उपजा रजत मनसिज,
दुग्ध की सित सीप से निशि आज धोइ जान ।
उषाकाल व रात्रिकाल के अतिरिक्त कुछ ऋतुओं का वर्णन भी गुप्त जी ने किया है। ग्रीष्म के लम्बे, लू से तपते दिन, धरती पर अंगारे बरसते हैं और पृथ्वी के जीवन - रस जल को सोख लेते है--
तपते धूमिल भू, दीर्घ दिवस,
लेते लपेट लू केश-विवश,
सूखी काया औ जीवन रस
जल उठा वर्ष का विगत विभव
कर जेठ चिता पर हा हा रव,
नभ में अंगार ज्वार धाये।
ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु का आगमन होता है, नभ जो ग्रीष्म में अंगारे बरसा रहा था, पूरी धरती को जलमय कर देता है, चारों ओर हरियाली छा जाती है, ऐसा लगता है, जैसे वर्षा रूपी नायिका हरित पताका ले कर भ्रमण पर निकली हो। ऐसी पावस ऋतु का मनोहारी दृश्य देखिये-
वायु उपद्रव आज रच रहा,
बिछी सजल रपटन मग री
हरित केतु ले चली रूपसी,
फिसल न जाये कहीं पग री,
अनिल प्रकम्पित तन थर थर।
पावस पुलकित गात न कर।
मृत्यु सृष्टि का चिरन्तन सत्य है, इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दिन मृत्यु के आगोश में सोना ही पड़ता है, मृत्यु बिना किसी भेदभाव के सभी को अपने अंतर में समेट ही लेती है, इसी भाव को गुप्त जी ने “मृत्यु के प्रति” कविता में व्यक्त किया है-
इसके सम्मुख सबकी समता,
हो निर्धनता या हो प्रभुता
योगी, भोगी, सबसे ममता।
× × × × × × × × × ×
शत द्वार द्वार पर पा कर भी
भरती न कभी इसकी झोली,
कैसी भिक्षुका हठीली यह
टलती न कभी इसकी टोली।
जीवन के कुछ अन्य चिरंतन सत्यों को भी इस काव्य संग्रह में स्थान मिला है। एक विधवा के एकाकी व शापित जीवन का हृदयविदारक चित्रण “विधवा के प्रति” कविता में मिलता है-
सुख का प्रकरण परित्यक्त हुआ,
दुख परिधि बढ़ी, परलोक बसा,
उजड़ी नगरी उर की सुन्दर,
पतझर चिर घेरा डाल हंसा ।
× × × × × × × × × × ×
एकाकी जीवन, बिन सम्बल,
यात्रा सुदुर, पर घाट नहीं,
पतवार नहीं, रखवार नहीं,
नभ का तारक आधार नहीं।
माँ का स्थान हम सभी के जीवन में सर्वाधिक महत्त्व रखता है, माँ प्रेम का स्रोत है, माँ प्रथम गुरु है, माँ संतान को संस्कारित करती है आदि आदि। इन्हीं सब भावनाओं को गुप्त जी ने भी अपनी रचना “माँ के प्रति” में व्यक्त किया है-
माँ शुभे स्नेह की आदि स्रोत
अविरल अस्वार्थ, निर्मल अजस्त्र,
आदर्श भावना भाव भूति
कल्याण मूर्ति, वरदान हर्ष।
माँ श्रेष्ठ प्रथम गुरु शिशु जग की
नव प्रकृति प्रगतियों की धात्री।
शिशु मन की चेतन रचना के
चित्रों के रंगों की दात्री।
गुप्त जी अपनी मातृभाषा हिन्दी का बहुत सम्मान करते थे। यद्यपि वे अंग्रेजी के भी प्रकांड पण्डित थे, परन्तु हिन्दी का उनके जीवन में विशिष्ट स्थान था, उनकी साहित्यिक रचनाएँ, काव्य व कहानी, इस तथ्य का प्रमाण हैं। गुप्त जी के छयावादी मूर्धन्य कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से गहरे सम्बन्ध थे।गुप्त जी के कहानी-संग्रह “मंजिल” की भूमिका निराला जी ने ही लिखी थी। उन्होंने लिखा-
“दयानन्द जी गुप्त मेरे साहित्यिक सुहृद हैं, आज के सुपरिचित कवि और कहानी लेखक; मुझ से मिले थे, तब कवि और कलाकार के बीज में थे। …….बीज आज लहलहाता हुआ पौधा है। वकालत के पेशे की जटिलता में इनके हृदय की साहित्यिकता नहीं उलझी, यह अंतरंग प्रमाण बहिरंग कहानियों के संग्रह के रूप में मेरे सामने है।”
निराला जी के पत्र व चित्र आज भी गुप्त जी के सुपुत्र श्री उमाकान्त गुप्त जी के पास संरक्षित हैं। उसी माँ भारती के प्रति अपने उद्गार गुप्त जी ने इस प्रकार प्रकट किए हैं-
गीतों के मुक्ता बिखरा कर
माँ अंचल तेरा मैं भर दूँ
जीवन के मंजुल प्रभात में।
कर्ण -विवर में मद निर्झर भर,
माँ ओतप्रोत तुम को कर दूँ,
स्वर लहरी के मधु -प्रपात में
गुप्त जी के समय में संदेशों के आदान-प्रदान के लिए प्रचुर संख्या में टेलीफोन व मोबाइल तो थे नहीं, पत्र व्यवहार ही वन साधन था, जिसके माध्यम से अपनों की कुशल- क्षेम ज्ञात हो पाती थी। प्रेम- संदेश भेजने व प्राप्त करने का भी एकमात्र साधन डाकिया ही था। डाकिये की सभी को प्रतीक्षा रहती थी और डाकिया भी पूरी ईमानदारी से सभी के पत्रों को उन तक पहुंचाता था। गुप्त जी की दृष्टि भी तत्कालीन समाज के ऐसे महत्त्वपूर्ण किरदार पर पड़ी और उन्होंने उस पर भी एक कविता की रचना कर दी। प्रगतिवाद के प्रभाव को रेखांकित करती गुप्त जी की यह रचना है “डाकिया”, जिसमें उन्होंने डाकिये का जैसे शब्द-चित्र ही उकेर दिया है, साथ ही भाव- व्यंजना भी अद्वितीय है-
कितने उर के उद्गार लिए,
कितने रहस्य आभार लिए,
सन्देशों के ऐ नित वाहक!
तुम मेघदूत का कार्य किये!
× × × × × × × × × ×
सुरमई आँख, खाकी वर्दी,
आँखों पर लगी एक ऐनक,
हो कलम कान पर रखे हुए,
चमड़े का थैला लटकाये
घुटनों तक तुम पट्टी बाँधे,
पहने रहते देशी जूता,
भय से न तुम्हें छेड़े कोई,
लख उड़ जावे साहस बूता ।
गुप्त जी ने अपने यौवनकाल में जिस प्रकार के जीवन की कामना की थी, ईश्वर ने उनकी “विनय” सुन कर उन्हें उसी प्रकार का जीवन प्रदान किया । आज भी वे यश रूपी शरीर से हम सब के बीच जीवित हैं और उनके आत्मीयजन आज भी उन्हें अश्रुपूरित नेत्रों से स्मरण करते हैं-
प्रभु हो मेरा ऐसा जीवन।
रोता आया मैं इस जग में
हर्षित हँसते थे प्रियवर,
हँसता जाऊँ इस जीवन से
रोवे स्नेह अधीर जगत भर,
रहूँ विश्व की स्मृति में पावन।
कृति : नैवेद्य (काव्य)
प्रकाशक : प्राविंशियल बुक डिपो, चौक, इलाहाबाद
प्रथम संस्करण : वर्ष 1943
समीक्षक : डॉ. स्वीटी तलवाड़, पूर्व प्राचार्या, दयानन्द आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
उनकी कविताओं में से विशेष रूप से कुछ रचनाओं की पंक्तियां यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ जो उनके भीतर के साहित्यकार को परिभाषित करने में सक्षम हैं।
एक यही तो है स्वतंत्र जन नगरी
कौन मनुज काया को कहता कारा
हमें सर्वहितकारी सक्रियता से
लेना है पल पल का लेखा जोखा
विश्व व्यथा से सतत संग रखने को
रखना रोम रोम का खुला झरोखा
होने और न होने से जीवन के
बड़ा तथ्य निश्चित गंतव्य हमारा।
इसी रचना में आगे कहते हैं:
जन बलिदान मूल्य पर जनमत पाना क्षम्य नहीं
इसमें छिपी हुई हिंसा से जनपद मरता है।
इन पंक्तियों में वह सत्ता पाने के लिये हिंसा का सहारा लेने वाली राजनीति को भी चेतावनी देते दिखाई देते हैं।साथ ही सत्ता की दमनकारी नीतियों के कारण उत्पन्न परिस्थितियों का जीवंत चित्रण इन पंक्तियों में भी परिलक्षित होता है:
कहीं भूखों ने लूटा नाज
आग उगली पिस्तौलों ने
कहीं दंगों में जन निर्दोष
भून डाले पिस्तौलों ने
समाज में सफल और समर्थ वर्ग की अर्थपिपासा, संवेदन शून्यता, परिवारों का विघटन, इन सभी परिस्थितियों को अत्यंत मार्मिक तरीके से उन्होंने व्यक्त किया है। देखें ये पंक्तियां:
जाने कब सबलों की विजय पिपासा
बूंद बूंद जल सागर का पी जाये
शेष स्नेह में संवेदना नहीं है
परिवारों की चौखट चटख रही है
प्रेतों की छवियां समाज पर उभरी
आकृति बदल गयी है चित्र वही है
इसके परिणाम भी उन्होंने इन पंक्तियों में दर्शाए हैं:
लोक प्रगति को अवसादों ने घेरा
विश्व शांति का मुँह अशान्ति ने फेरा।
साथ ही साथ अपनी रचनाओं में उन्होंने समाज को शिक्षा भी दी है:
बोलो दो बोल किन्तु मधुर मधुर बोलो
रस में विष तीसरे वचन का मत घोलो।
और आने वाले समय के लिये आगाह भी किया है :
राज्य के महोत्सव सब राजसी होंगे
और जन अभावों की यातना सहेंगे।
साहित्यकार की रचनाधर्मिता कभी अभावों या दबाव के आगे प्रभावित नहीं होती वह किसी त्रासदी से विवश होकर नहीं लिखता, कुछ यही व्यक्त होता है इन पंक्तियों में:
पामर से पामर जन
झेले इतिहासों ने
भूख से हिला डाले
व्यक्ति विवश त्रासों ने
एक झिल न पाया तो मैं
और अंत में कवि की रचनाधर्मिता का स्वआकलन जो कवि को कभी निराश या हताश नहीं होने देता:
जो कुछ उसने लिखा भले मर जाए
किन्तु न मर पायेगी उत्कट ममता
उपरोक्त विवरण उनके विराट व्यक्तित्व के संबंध में अत्यंत सूक्ष्म परिचय देता है, लेकिन उनके भीतर के साहित्यकार से अच्छे से परिचित करवाता है।
✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG 69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारतउसके सच्चे सपूत
प्रेमचंद जी को नमन करती हूं
नमन करती हूंँ उस माँ को
उस धरती को नमन करती हूँ
धन्य हुई भारत भूमि
धन्य हुई वो जननी
जन्म दिया जिसने इस धरा पर
लेखनी के सच्चे सवांहक को
खाका उतार डाला यथार्थ का
लेखनी सत्य पर उकेरी थी
विडम्बनाओं से परे होकर
खुद अपनी आवाज उठाई थी
एक -एक कृतियों में उनके
जीवन जीवन्त हुआ
खुद भले ही मुश्किलें झेली
साहित्य का सागर भर डाला
एक से एक हीरे मोती से
श्रृंगार उसका कर डाला
दे दिया अनमोल खजाना हमको
जिसका कोई सानी न हुआ
इतिहास बन गये मुंशी जी स्वयं
उनसा न दूसरा ज्ञानी हुआ
✍️ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार, मुरादाबाद
उर्दू को लेकर चले, हिंदी मन को भाय ।
दीन-दुखी का दर्द लिख, मुंशी सब पर छाय ।। 1 ।।
कहानी-उपन्यास में, प्रेमचंद का नाम ।
उनके लेखन को सदा, शत-शत करूँ प्रणाम ।। 2 ।।
"गोदान" ज़रा देखिए, "गुल्ली डंडा" खेल ।
"नमक-दरोगा" क्या लिखा, "ईदगाह" बे-मेल ।। 3 ।।
"पूस-रात" की बात हो, कहें "गबन" का दर्द ।
या "दो बैलों की कथा", मुंशीजी हमदर्द ।। 4 ।।
साहित्यिक इतिहास में, लेखन है बेजोड़ ।
प्रेमचंद मुंशी हुए, नहिँ है जिनका तोड़ ।। 5 ।।
✍️ राम किशोर वर्मा, रामपुर (उ०प्र०), भारत
मोबाइल फ़ोन नंबर। 9760613902,
847 695 4471.
मेल- atzakir@gmail.com
गूंथ गीतों में वही लौटा दिया।।
भावनाओं में सदा बहते रहे हैं हम।
दर्द जितना भी मिला सहते रहे हैं हम।
रूढ़ियों का खुल न पाया कोई ताला,
परिधियों में ही सदा रहते रहे हैं हम।
स्वाभिमानी एक जीवन है जिया।
हम न कोई चाँद पाना चाहते हैं।
हम न नभ को ही झुकाना चाहते हैं।
उड़ रहे आकाश में ऊंचे भले हम,
किन्तु धरती पर ठिकाना चाहते हैं।
भ्रांति का मीठा ज़हर हमने पिया।
अक्षरों ने शब्द को अमृत पिलाया।
शब्द के हर रूप ने हमको रुलाया।
भाव भी अनुभूति भी थी कल्पना भी,
किन्तु काग़ज़ लेखनी को मिल न पाया।
गीत को मेरे मिला है हाशिया
ज़िन्दगी के अनुभवों से जो लिया।
गूंथ गीतों में वही लौटा दिया।।
✍️ डॉ कृष्ण कुमार "बेदिल", "साई सुमरन", डी-115,सूर्या पैलेस,दिल्ली रोड, मेरठ-250002 मोब-9410093943, 8477996428 E-MAIL-kkrastogi73@gmail.com
तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहाँ गया ?
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
पहिले। तो तुम्हारे क़दमों से, सारी। धरती थर्राती थी,
सागर का दिल हिल जाता था, पर्वत की धड़कती छाती थी ।
अब चाल में सुस्ती कैसी है, क्यों पांव हैं डगमग डोल रहे ?
कुछ करके नहीं दिखाते हो, केवल अब मुँह से बोल रहे ॥
दुश्मन को मार गिराने का आक्रोश तुम्हारा कहाँ गया ?
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
जाकर देखो सीमाओं पर, जो आज कुठाराघात हुआ,
जाकर देखो भारत माँ के माथे पर जो आघात हुआ ।
गर अब भी खून नहीं खौला, गर अब तक जाग न पाये हो,
मुझको विश्वास नहीं आता, तुम भारत माँ के जाये हो ।
दुनियाँ को दिव्य दृष्टि देते, वह होश तुम्हारा कहाँ गया
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
आँखों की मस्ती दूर करो, यह संकट में कैसी हाला ?
टक्कर से तोड़ो प्याले को, अब बन्द करो यह मधुशाला।
गर तुम को कुछ पीना ही है, तो फिर दुश्मन का खून पियो,
या तो स्वदेश पर मिट जाओ, या भारत माँ के लिये जियो ।
दुश्मन की फौजें दहल उठें, वह रोष तुम्हारा कहाँ गया ?
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
हे वीरों तुम हो महाकाल, फिर काल जो आये डरना क्या ?
जब चला सिपाही लड़ने को, तो जीना क्या या मरना क्या ?
यदि मिटे तो फिर इतिहासों में, बलिदान अमर हो जायेगा,
यदि जीवित रहे तो हर मानव, आदर से शीश झुकायेगा ।
माटी का हर कण पूछेगा, वह घोष तुम्हारा कहाँ गया ?
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
::::::;प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी, 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत,मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
जिम्मेदारी
जिस दिन से गांव में टीकाकरण करने वाली टीम पंचायत भवन पर आने लगी।राघव ने तो मजदूरी करने जाना भी बंद कर दिया। घर घर जाता, आवाज लगाता, बुलाकर लाता।बड़े बूढ़ों को गोदी में ही उठा लाता या पीठ पर टांग लाता। बिना किसी लालच के सेवाभाव से यह सब करता राघव।
आज मुखिया जी ने बताया , शहर में मजदूरी करता था यह। वहां पूरा परिवार कोरोना की चपेट में आया और उसकी भेंट चढ़ गया।एक भाई,भाभी,पत्नी और तीन बच्चे।बस यह ही बचा।अब गांव में किसी को ऐसा दुख न उठाना पड़े, इसीलिए राघव जिम्मेदारी के साथ सबका टीकाकरण कराने में पूरा सहयोग कर रहा है।
दो-
जगा दिया
बारात तो जाने की पूरी तैयारी थी।पच्चीस लोगों की लिस्ट थामें दीनानाथ ने एक एक चेहरा देख लिस्ट पर निशान लगाना शुरू कर दिया। अब उसने पूछना शुरू किया,"वैक्सीनेशन किस किसने नहीं कराया अभी?"
ये क्या सात बारातियों के साथ साथ एक उनके जीजा जी भी निकल आए बिना वैक्सीनेशन वाले।
दीनानाथ ने हाथ जोड़कर कहा," आपसे निवेदन है कि अपनी और अन्य लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए आपका बारात में न जाना और अपने घर को वापस चले जाना बहुत ही आवश्यक है। मैं क्षमा चाहता हूं।"
दीनानाथ के जीजा जी सबसे पहले उठ खड़े हो गये, "तुमने सही कहा दीनानाथ, हम बहुत बड़ा खतरा मोल लेने और खुद खतरा बनने से बच गये भाई।आज तेरी बात ने हमें गहरी नींद से जगा दिया।"
तीन-
टीकाकरण
कविता,लेख, कहानी लिखकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर टीकाकरण अभियान का खूब प्रचार किया राजेश जी ने।
आज खबर मिली, अस्पताल में भर्ती है।
क्या हुआ? जानकारी ली तो पता चला,भाई साहब कोरोना की चपेट में आ गये।
उनको फोन लगाया तो बेटे ने उठाया,बोला " अंकल पापा ने बार बार कहने पर भी टीका नहीं लगवाया। हमारे समझाने पर हमें ही डॉट देते।अब सब परेशान हैं हम।"
"चिंता मत करो,सब ठीक होगा।"बस इतना ही कह सका मैं।
चार-
नियम से
लालाजी ने लाकडाउन के नियमों का पालन तो किया ही। सरकारी निर्देश और गाइडलाइन को मानते रहे।
आज अस्पताल में लाइन में खड़े देखा। वैक्सीनेशन कराने आए थे। डॉ.गुप्ता ने भीतर से ही आवाज लगायी,"अंदर आ जाइए लालाजी।बाहर मत खड़े रहिए।"
लालाजी ने हवा में हाथ लहरा दिया," ठीक हूं डॉ.साहब यहीं पर हम कोई अलग थोड़े ही है।
हम भी तो अपनी दुकान पर लाइन लगवा देते हैं।"
पांच-
गाइडलाइन
"कभी अट्ठाइस दिन कभी पैंतालीस,कभी चौरासी दिन बाद आखिर माजरा क्या है सर।"
पत्रकार ने डॉ.शुक्ला से वैक्सीन की दूसरी डोज के अंतर की बाबत सवाल किया।
"पत्रकार जी, गाइडलाइन हम तो बनाते नहीं।हम केवल उसको इंप्लीमेंट करते हैं। यह दिनों का अंतर भी मिली गाइडलाइन अनुसार बताया गया है।" डॉ.शुक्ला ने उत्तर दिया।
"सर,फिर भी आपकी निजी राय क्या है?"पत्रकार ने फिर प्रश्न कर दिया।
डॉ.शुक्ला मुस्कुराएं, बोले," आप देख रहे हैं, सरकार के स्तर से कितना बड़ा वैक्सीनेशन अभियान चल रहा है। इसमें सहयोग कीजिए और प्रयास कीजिए कि कोई भी पात्र व्यक्ति इससे वंचित न रहे। बाकी गाइडलाइन के मुताबिक हम काम कर ही रहे हैं। इसमें हमारे स्तर से कुछ कमी हो तो बताना।"
✍️ डॉ.अनिल शर्मा अनिल, धामपुर,जनपद बिजनौर,उत्तर प्रदेश, भारत
एक-----
ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
==================
ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
साल, साल में घर आती हैं।
नहीं एक का, साझे का है
छह बहनों का पुस्तैनी घर।
जो भी इसमें रहती आई
वह, देखी गई अकेली पर।।
रहन-सहन इस ढब का हो तो
शंकाएँ घर कर जाती हैं।
बतलाए जाते हैं, इनके
और कहीं भी ठौर-ठिकाने।
चली वहीं जाती हैं क्रम से
अपना-अपना अर्थ कमाने।।
कमा-कमाकर गर्मी, ठिठुरन
और कमा जलधर लाती हैं।
जाती एक दूसरी लौटे
निज मान सुरक्षित रखने को।
घर की बात बना रक्खी है
आते जिसको सब लखने को।।
जोड़-जमाकर जी की ठंडक
हँसने को,पतझर लाती हैं।
दो-----
खेत जोत कर जब आते थे
================
खेत जोत कर जब आते थे
थककर पिता हमारे।
कहते! बैलों को लेजाकर
पानी जरा दिखाना।
हरा मिलाकर न्यार डालना
रातब खूब मिलाना।।
बलिहारी थे, उस जोड़ी पर
हलधर पिता हमारे।
स्वर से लेकर वर्णों तक के
जो भी पाठ पढ़ाए।
इस जीवन में उत्कर्षों तक
ले, जो हमको आए।।
परम शास्त्र के मंदिर जैसे
गुरुवर पिता हमारे।
इसी लोक से अपर लोक को
जाने वाला रस्ता।
इसपर पड़कर चलने वाला
बाँधे बैठा बस्ता।।
इसी मार्ग से मिल जाते हैं
ईश्वर! पिता हमारे।
तीन-----
काम बोलता है
=========
शोर मचा है! सबका
काम बोलता है।
सच का पता न पाया
पूछ-पूछ कर हारे।
किस मुँह से बतलाएँ
जो, उसके हत्यारे।।
पर, मदिरालय में कुछ
जाम बोलता है।
चुप रहती है कुर्सी
उस पर बैठा भी चुप।
रेंग रही है फाइल
खेल-खेलकर लुकछुप।।
आगे आकर केवल
दाम बोलता है।
सुस्ती में दिन सारे
ताल ठोकती रातें।
छंद विफल हो बैठे
पास हो गईं बातें।।
जिस पर होवे, उसका
राम बोलता है।
रुष्ट देवता इतने
सुनती नहीं देवियाँ।
घाटे पर घाटा है
उस पर नई लेवियाँ।।
लिखा मुकद्दर ऐसा
धाम बोलता है।
चार----
पीले पत्ते रड़क लिए
============
नव का स्वागत करते-करते
पीले पत्ते रड़क लिए।
खींच हमें ले जाता बरबस
मधुशाला का अपनापन।
वहाँ बैठकर कलुषित में भी
दिख जाता है उजलापन।।
झूठे सच्च बोलने लगते
घूँट तनिक जो कड़क लिए।
जितना सोचो, उतना दुष्कर
हवा महल के घर जाना।
गुनी-धुनी भी सीख न पाए
खूब तैरकर तिर पाना।।
बटिया-रस्ते थक हारें तो
चल पड़ती है सड़क लिए।
अच्छे-अच्छे सपने देखे
और दिखाए औरौं को।
पके फलों का सदा टपकना
भाग्य मिला है बौरों को।।
जितनी साँसें थीं, दिल उतने
रह सीने में धड़क लिए।
पांच--------------------------
फुदक रही हैं खीलें
===========
गिद्ध और सब चीलें
लगी हुई हैं, लाशें
गिर जायें तो छीलें।
प्रोपेगैंडा के सब
अक्षर लगे चीखने।
पास हमारे आओ
हमसे कला सीखने।।
लूट घरों को,उनपर
लगा रहे खुद सीलें।
गाँव-गाँव अब भुरजी
भाड़ झोंक हर्षाए।
आये जो भुनवाने
सबने उधम मचाए।।
जली-भुनी जितनी भी
फुदक रही हैं खीलें।
चढ़ मंचों पर गरजें
भटिये इधर-उधर के।
मूषक मक़सद पूरे
गन्ने कुतर-कुतर के।।
भेड़ भेड़िए खाएँ
हुई पड़ी हैं डीलें।
अगुआ हलधर सारे
लगे देखने धन्धे।
चौपट फसल करा दी
यूज़ हो गए कंधे।।
लुटिया भरी डुबाकर
अब गंगाजल पीलें।
छह------------------------
चलो! एक हम भी होलें
==============
रोग-व्याधियों के कुनबे
एक हो गए मिलकर।
चलो! एक हम भी होलें
फटा-पुराना सिलकर।।
पाँचों उंगली अलग-अलग
सिर्फ विवशता जीतीं।
मिल बैठैं तो मिली जुली
सार शक्तियाँ पीतीं।।
सीख ग़लतियों से मिलती
दर्द दुखों में बिल कर।
दुरुपयोग शक्तियाँ जियें
तो चिंता हो पुर को।
भस्मासुर की अतियाँ ही
डहतीं भस्मासुर को।।
एक हुआ था, लेकिन सच
देवलोक भी हिलकर।
विविध धर्म भाषाएँ मिल
मानव मर्म बचाएँ।
महल, मड़ैया, घेर सभी
संजीवन हो जाएँ।।
राम हुए ज्यों पुरुषोत्तम
मर्यादा में खिलकर।
सात-----
डर बैठाते हैं
=======
गरज-गरज कर काले बादल
डर बैठाते हैं।
ज़िद पर उतर हवा आए तो
दौड़ लगाते हैं।।
ख़बर बुरी है! पर, जीने को
हरगिज़ जीना है।
सुख-दुख जीवन के साजिंदे
समय हसीना है।।
दिवस-रात ही विषम चक्र में
शुभ ले आते हैं।
भाग्य बुरा है तो मिल-जुलकर
उसे सँवारेंगे।
पास-दूर के सब ही अपने
उन्हें पुकारेंगे।।
निष्ठाओं के दम पर ही, घर
भगवन् आते हैं।
विपदाओं का गुण ही सबको
दुख पहुँचाना है।
हमने सीखा खुद को, कैसे
पार लगाना है।।
पंख खुलें तो उड़ धरती का
अम्बर छाते हैं।
✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
कांठ रोड, मुरादाबाद
पिनकोड: 244001
मोबाइल: 9319086769
ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com
👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇
::::::प्रस्तुति:::::
डॉ मनोज रस्तोगी, 8,जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत , मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
आओ!मुझ पर अधिकार करो तुम।
तोड़ो जग-बंधन कह रहा मन,
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
एक सहरा रहा ठहरा मुझमें,
सजल सागर से नैन रहे।
एक दूजे से मिलने की खातिर,
हम नदिया के तट से बेचैन रहे।
एक अमावस है ठहरी मुझमें,
दीपक बन उजियार करो तुम।
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
जीर्ण पांडुलिपि सी पड़ी इधर उधर,
मन का भोजपत्र नही किसी ने बाँचा।
कितने मेह आकर बरसे अब तक,
पर मेरे मन का मयूरा नहीं नाचा।
एक उमस आषाढ़ की रहती मुझमें,
सावन की जलधार भरो तुम।
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
देह की देहरी लीप के मैंने,
मानस हवन आज रचाया है।
विधि विधान से आहुति तुम देना,
बना के पुरोहित तुम्हें बुलाया है।
यज्ञ-धूम सी महक जायें साँसें मेरी,
ऐसा मंत्रोच्चार करो तुम
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
हाँ प्यार करो तुम ....
✍️ रचना शास्त्री, बिजनौर, उत्तर प्रदेश, भारत
मौत का खौफ महामारी दिखाने लगती है
मन में विश्वास कि उम्मीद भरी आंखो से
ये ज़ुबां टेर तेरे दर की सुनाने लगती है
दिल को जब भी जरा सी देर सुकूं मिलता है
जी जलाने को तेरी याद ही आने लगती है
भूखों मरने के पुराने हुए किस्से साहिब
खाते पीते हुए अब जान ये जाने लगती है
अपने अपराध तिजोरी में छिपाकर दुनिया
आंसू घड़ियाली सरेआम बहाने लगती है
✍️ मोनिका मासूम, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
छोड़कर वो चल दिये डूबा किनारा देखकर।।
वो पराया हो गया ,जो था कभी मेरा सनम
हो गयी हैरान हूँ मैं ये नज़ारा देखकर।
ज़िंदगी नाराज़ है या ,है मुकद्दर की ख़ता
मौत भी खामोश है मुझको तड़पता देखकर
फैसला तकदीर का जो हो गया अब आखिरी
मैं अकेली ही चली,सबको पराया देखकर ।
आँधियों औकात में रहना ज़रा कुछ देर तक,
झुक सका क्या आसमाँ,टूटा सितारा देखकर ।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद ,उत्तर प्रदेश, भारत