अब तक सबने ठुकराया
आओ!मुझ पर अधिकार करो तुम।
तोड़ो जग-बंधन कह रहा मन,
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
एक सहरा रहा ठहरा मुझमें,
सजल सागर से नैन रहे।
एक दूजे से मिलने की खातिर,
हम नदिया के तट से बेचैन रहे।
एक अमावस है ठहरी मुझमें,
दीपक बन उजियार करो तुम।
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
जीर्ण पांडुलिपि सी पड़ी इधर उधर,
मन का भोजपत्र नही किसी ने बाँचा।
कितने मेह आकर बरसे अब तक,
पर मेरे मन का मयूरा नहीं नाचा।
एक उमस आषाढ़ की रहती मुझमें,
सावन की जलधार भरो तुम।
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
देह की देहरी लीप के मैंने,
मानस हवन आज रचाया है।
विधि विधान से आहुति तुम देना,
बना के पुरोहित तुम्हें बुलाया है।
यज्ञ-धूम सी महक जायें साँसें मेरी,
ऐसा मंत्रोच्चार करो तुम
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
हाँ प्यार करो तुम ....
✍️ रचना शास्त्री, बिजनौर, उत्तर प्रदेश, भारत
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