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रविवार, 19 जुलाई 2020
कविता फिर लौटेगी मंचों पर गीत के रूप में
-माहेश्वर तिवारी
हिन्दी साहित्य में जब-जब नवगीत की संवेदना और युगीन संदर्भों के साथ-साथ भाषागत सहजता व आंचलिक मिठास की चर्चा होती है, हिन्दी नवगीत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के सृजनात्मक उल्लेख के बिना न तो वह पूर्ण होती है और ना ही उस चर्चा का कोई महत्व रहता है । हिन्दी नवगीत के वह महत्वपूर्ण और अद्वितीय हस्ताक्षर श्री माहेश्वर तिवारी हैं । 22 जुलाई 1939 को बस्ती (उ.प्र.) में जन्मे श्री तिवारी की अब तक 4 नवगीत कृतियों - ‘हरसिंगार कोई तो हो’ , ‘नदी का अकेलापन’, ‘सच की कोई शर्त नहीं’ और ‘फूल आए हैं कनेरों में’ के अतिरिक्त नवगीत की कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं । हिन्दी गीत-नवगीत के संदर्भ में श्री तिवारी से महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बातचीत की योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ ने -
व्योम : नवगीत आपकी दृष्टि में क्या है और इसकी क्या-क्या शर्तें व मर्यादायें हैं ?
मा.ति. : नवगीत भारतीयता से जुड़ा और आधुनिकता तथा वैज्ञानिक बोध से जुड़ा वह काव्य-रूप हैै ,जो छायावादोत्तर गीत-धारा से, गेयत्व को छोड़कर शेष सभी रूपों में आधुनिक मनुष्य का
गीत है । इसमें प्रेम के नाम पर न तो मध्यकालीन परकीया भाव है और न कुहासे से भरी
कल्पनाशीलता । इसमें सजग सामाजिक बोध और घर-आँगन का विश्वसनीय चेहरा है ।
आधुनिकता से उपजीं विकृतियों के प्रति भी चौकन्नी जागरुकता, राजनीतिक, आर्थिक
विसंगतियों के प्रति एक प्रतिपक्ष का भाव तो इसमें है ही, सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें
भारतीय संस्कृति और देशी ज़मीन के प्रति गहरे सरोकार भी हैं । यह समकालीन अन्य तमाम रूपों की तरह आयातित काव्य-रूप नहीं है । यह निजत्व से जुड़ा होकर भी उस आत्माभिव्यक्ति से मुक्त है जो कभी-कभी कविता के धरातल से खिसककर डायरी के रूप में सामने आ जाता है ।
व्योम : आप नवगीत का आरम्भ कहाँ से मानते हैं, महाप्राण निराला से या उससे भी पहले ?
मा.ति.: नवगीत की पहली आहट निराला के गीतों में ही मिलती है । गीत की नई भाषा और शिल्प की नई बुनावट सबसे पहले महाप्राण निराला में ही मिलती है । यह ध्यान देने की बात है कि गीत ही नहीं, प्रयोगवादी और कालान्तर में नई कविता के नाम से अभिहित समकालीन कविता के प्रथम प्रयोक्ता भी निराला ही हैं । कुछ लोग नवगीत का आरंभ छठे दशक से मानने के आग्रही हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा को उत्तरकाशी या उससे आगे मानने की अपेक्षा गंगोत्री से ही माना जाना चाहिए क्योंकि गंगोत्री से निकलने के पश्चात गंगा भागीरथी, अलकनंदा आदि नामों से जगह-जगह जानी जाती है लेकिन उत्स तो गंगोत्री ही है, उसी तरह निराला को नवगीत का प्रथम पुरुष माना जाना चाहिए । डॉ. शम्भूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र जैसे नवगीत कवि निराला को ही नवगीत का पुरोधा मानने के आग्रही रहे हैं । नवगीत शब्द का पहली बार प्रयोग राजेन्द्रप्रसाद सिंह ने स्वयं द्वारा संपादित गीत संकलन ‘गीतांगिनी’ की भूमिका में लिखित रूप से किया लेकिन वह भी इसके प्रथमपुरुष नहीं स्वीकारे जा सकते हैं । इस सारे विमर्श के बाद निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नवगीत का आरंभ निराला से ही हुआ । अपनी प्रसिद्ध सरस्वती वंदना में निराला ने ही ‘नवगति, नवलय, ताल, छंद नव’ की बात का सबसे पहले उन्होंने ही उद्घोष किया ।
व्योम : कहा जाता है कि नवगीत यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ा है तथा उसमें व्यवस्था विरोध के साथ-साथ वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के विरुद्ध स्वर भी मुखर हुए हैं लेकिन भविष्य के गर्भ में झाँकने की कोशिशें नवगीत में उतनी नहीं हुईं, क्यों ?
मा.ति. : कोई भी रचना अपनी समकालीनता से जुड़ी होती है । वह अपने समय के यथार्थ को ही अभिव्यक्ति देती है । वह निष्कर्ष नहीं देती, वर्तमान की विसंगतियों, त्रासदियों को अपनी
अंतर्वस्तु में शामिलकर पाठकों को भविष्य के संकेत देती है । सौन्दर्यशास्त्र के नए मानक गढ़ती है । सामाजिक बदलावों की ज़रूरतों की ओर प्रच्छन्न संकेत करती है । इससे आगे सोचना उसके पाठकों और उसके समाज का दायित्व बनता है । यह सभी बड़े रचनाकार और उनका सृजन करता है । गीत महाकाव्य नहीं है कि उससे भविष्य के संकेत ढूँढे जाएँ। वैश्वीकरण और बढ़ते बाज़ारवाद के ख़तरों की ओर वह इंगित करता है । इससे बचाव और विकल्पों की तलाश उसका काम नहीं है । जब भारतेन्दु हरिश्चंद्र ‘आओ सब मिलकर रोबहु भाई/हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई’ या निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ में जो अंतर्वस्तु है वह सिर्फ अपने समय को ही अपनी अभिव्यक्ति में समेटती है, भविष्य की ओर संकेत दूसरी तरह की कविताओं में ढूँढा जा सकता है, गीत में नहीं ।
व्योम ः आपका सबसे प्रथम् नवगीत कौन सा था तथा कब और कहाँ प्रकाशित हुआ ?
मा.ति.: मैंने जिस समय गीत लेखन आरंभ किया उस समय ‘नवगीत’ शब्द चर्चा में नहीं था । तार-सप्तक के कवियों ने तथा उससे बाहर के प्रयोगवादी व नई कविता के कवियों ने जो गीत लिखे उन्हें कुछ समय तक नई कविता के गीत और नया गीत के नाम से जाना-पहचाना जाता रहा । सन् 1960 के बाद नए गीत कवियों की रचनाओं के लिए ‘नवगीत’ शब्द केन्द्र में आया । मेरे जिस गीत को लेकर मुझे नवगीतकारों में शामिल किया गया, वह है - ‘आओ हम धूप-वृक्ष काटें/इधर-उधर हल्कापन बाँटें’ । यह गीत पहली बार वाराणसी से प्रकाशित ‘मराल’ पत्रिका में सन् 1964 में छपा और चर्चित हुआ ।
व्योम ः गीत से नवगीत तक की यात्रा में हिन्दी कविता ने कौन-कौन सी उपलब्धियाँ हासिल कीं ?
मा.ति. ः कई पड़ाव आए गीत से नवगीत तक की यात्रा में, गीत कभी प्रगीत बना, स्वच्छंदावादी गीत
बना और फिर वह सन् साठ के बाद नवगीत बना । गीतों में प्रकृति-मनुष्य से अलग एक
इकाई थी किन्तु नवगीत में वह सहचरी बन गई । भवानी प्रसाद मिश्र के गीत ‘सतपुड़ा के घने जंगल/ऊँघते अनमने मंगल’ और ‘आज पानी गिर रहा है/घर नयन में तिर रहा है’ जिस नए गीत की आहट देते हैं वह गीत से नवगीत के प्रस्थानक बिन्दु के रूप में स्वीकारा जा सकता है । इस अंतर को तत्कालीन ‘नीरज’ और वीरेन्द्र मिश्र के गीतों के माध्यम से भी जाँचा परखा जा सकता है । वीरेन्द्र मिश्र ने अपने पीड़ा वाले गीत में कहा है - ‘पीर मेरी कर रही ग़मगीन मुझको/और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी/और उससे भी अधिक हर पाँव की जंजीर रानी’ जबकि नीरज लिख रहे थे - ‘देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम/प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा’ । गीत वैदिक ऋचाओं के रूप में उपजा और वह लोक जीवन तथा लोकमानस से होकर नवगीत तक आया । कुछ लोगों का मत है कि नवगीत नई कविता की अनुकृति से उपजा, यह मिथ्या भ्रम है । महाप्राण निराला की सरस्वतीवंदना में ‘नव-गति, नव-लय, ताल छंद नव’ ही नवगीत का बीजमंत्र कहा जा सकता है ।
व्योम ः स्व. डॉ.शम्भूनाथ सिंह द्वारा संपादित नवगीत दशक श्रंखला तथा नवगीत अर्द्धशती के संदर्भ
में कहा जाता है कि इन ऐतिहासिक समवेत संकलनों में तत्कालीन कुछ महत्वपूर्ण नाम सम्मलित नहीं हो सके, इसकी क्या वज़ह रही ?
मा.ति.: यह बात बिल्कुल सच है कि नवगीत दशक तथा नवगीत अर्द्धशती में कुछ महत्वपूर्ण रचनाकार छोड़ दिए गए या छूट गए । ऐसा तार सप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक
में भी हुआ था और पिछले दिनों साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘श्रेष्ठ गीत संचयन’ में भी यह कमी पाई गई । ऐसा प्रायः संपादक की निजी रुचि और संकलनों की सीमाओं के कारण भी होता है । नवगीत दशक-एक के प्रकाशन के बाद स्व. ठाकुरप्रसाद सिंह ने सबसे पहले इस बात को लेकर एतराज किया था कि उसमें कुछ ऐसे नाम हैं जो नहीं होने चाहिए और कुछ ऐसे महत्वपूर्ण नाम हैं जो होने चाहिए थे । एक बात यह भी है कि नवगीत दशक के प्रकाशन की प्रक्रिया 1968 में ही आरंभ हो गई थी और उस समय मात्र एक ही संकलन की योजना आर्थिक सहयोग के आधार पर तैयार हुई थी । उसमें कई नाम ऐसे थे जो बाद में दशकत्रयी में शामिल नहीं किए गए । उस संकलन की फ़ाइल संपादक की अपनी व्यस्तताओं और कुछ के आर्थिक सहयोग से इंकार कर देने के कारण फ़ाइलों के ढ़ेर में दबी रह गई । डॉ. सुरेश जब डॉ. शम्भूनाथ सिंह के निर्देशन में शोधकार्य में जुटे तो वह फाइल उनके हाथ लग गई तो डॉ. शम्भूनाथ जी से चर्चा उपरान्त तीन नवगीत दशकों के प्रकाशन की योजना बनी । इस योजना में मेरा नाम पहले दशक के रचनाकारों की सूची में था लेकिन जब आयुक्रम से चयन की बात आई तो मेरा नाम खिसककर दूसरे दशक में आ गया । बहरहाल स्व. राजेन्द्रप्रसाद सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, शलभ श्रीराम सिंह जैसे प्रमुख लोगों का नाम दशक त्रयी में न होना हमारे लिए भी असहज कर देने वाला था । हमने अपने-अपने ढंग से अपनी आपत्तियाँ संपादक तक पहुँचायीं पर कोई सुनवाई नहीं हुई बल्कि स्व. ठाकुरप्रसाद सिंह तथा मुझे अपने एक लेख में डॉ. शंभूनाथजी ने नवगीत का शत्रु तक सिद्ध कर दिया लेकिन अपनी इस ग़लती का एहसास बाद में उन्हें भी हुआ और नवगीत अर्द्धशती में वीरेन्द्र मिश्र तथा शलभ श्रीराम सिंह को शामिल करने को वह तैयार थे किन्तु उन दोनों रचनाकारों की ओर से न तो कोई सकारात्मक उत्तर मिला और न रचनात्मक सहयोग । इससे नवगीत दशकों और नवगीत अर्द्धशती में एक अधूरापन तो रहा लेकिन इससे उनकी ऐतिहासिकता को नकारा नहीं जा सकता ।
व्योम: नवगीत को केन्द्र में रखकर काफी काम हुआ है, नवगीत दशक श्रृंखला के अतिरिक्त नवगीत और उसका युगबोध, शब्दपदी, धार पर हम आदि समवेत पुस्तकें प्रकाशित हुईं किन्तु नवगीत का सर्वमान्य एक पारिभाषिक चित्र प्रस्तुत करने के स्थान पर भ्रामक स्थितियाँ ज़रूर बनीं, आप क्या मानते हैं ?
मा.ति.: नवगीत को केन्द्र में रखकर नवगीत दशकों के बाद में आए कई समवेत संकलनों, जिनका ज़िक्र आपने किया है उससे भी पहले बासंती, रश्मि, कविता-64, वातायन, अंतराल, सांध्य मित्रा, नवगीत जैसी पत्रिकाओं के नवगीत विशेषांकों ने नवगीत को लेकर काफी काम किया। नवगीत की चर्चा करने वाले अक्सर इन महत्वपूर्ण प्रयासों को भूल जाते हैं या उनकी अनदेखी कर देते हैं । कालान्तर में आए पाँच जोड़ बाँसुरी, गीत जैसे समवेत संकलनों की ओर पता नहीं किन कारणों से उनका ध्यान नहीं जाता । विगत वर्षों में इस दिशा में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप दिनेश सिंह के संपादन में आई पत्रिका ‘नए-पुराने’ ने किया । रचना और विमर्श दोनों दृष्टियों से नए-पुराने के अंक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन गए । आप जिस तरह की अपेक्षा करते हैं उसके लिए नवगीत का ‘गोल्डन-ट्रेज़री’ जैसा कोई संकलन आए तभी काम हो सकता है । नवगीत दशक, नवगीत अर्द्धशती, शब्दपदी, धार पर हम, नवगीत सप्तक आदि की सीमाओं और उनके संपादकों की निजी पसंद-नापसंद तथा नवगीत संबंधी संपादक की निजी अवधारणाएँ, रचनाकारों की आपसी टालमटोल आदि कई कारक हैं जो नवगीत को समग्रता के साथ प्रस्तुत करने में बाधक बनते हैं । दूसरी बात यह कि नवगीत गतिशील रचनाकर्म है, नित नए रचनाकार उसकी भूमि में प्रवेश करते हैं फिर उन सबको समेटना एक तटस्थतापूर्ण कठिन श्रम और भारी आर्थिक प्रबंधन की माँग करता है । क्या यह उन लोगों से संभव है जो स्वयँ अपने प्रस्तोता हैं और इस बात के आग्रही कि जो है वह उन्हीं से माना जाना चाहिए तथा उसके आगे-पीछे का सब व्यर्थ है । पिछले दिनों इसी तरह की एक आत्मकेन्द्रित घोषणा देश की राजधानी से भी हुई है । ऐसा कार्य या तो
दुराग्रहपूर्ण होता है या अल्पज्ञान का प्रतीक । दिल्ली का वैसे भी स्वभाव रहा है कि वह सिर्फ अपने को ही देखती है और मानती है कि वही पूरे देश को देख रही है ।
व्योम ः ज़रा पलटकर गुज़रे वक़्त पर नज़र डालें, अपने गीतों के कारण निराला से लेकर बच्चन,
नेपाली, वीरेन्द्र मिश्र, नीरज, भारत भूषण, सोम ठाकुर आदि ने काफी लोकप्रियता अर्जित
की और उनके गीत लोगों के दिलो-दिमाग़ पर छाए ही नहीं, बस गए जबकि नवगीत के
संदर्भ में ऐसा नहीं हो सका, नवगीत पठनीय तो अधिक रहे किन्तु गुनगुनाए कम गए, इसके पीछे आप किन कारणों को ज़िम्मेदार मानते हैं ?
मा.ति.: देखिए, लोकप्रियता एक अलग विषय है । कोई रचना लोकप्रिय होने से ही बढ़िया नहीं हो जाती और उसकी अपेक्षा कम लोकप्रिय रचना को भी सिर्फ इसलिए नहीं नकारा जाना चाहिए कि वह कुछ की अपेक्षा कम लोकप्रिय रही । यह सवाल किसी भी प्रकार के लेखन की पड़ताल करें तो पता चल सकता है । कहानी, उपन्यास आदि की दिशा में प्रेमचंद्र कितने लोगों तक पहुँचे । ‘मैला आँचल’ के बाद फणीश्वरनाथ रेणु की और भी कृतियाँ आईं लेकिन क्या वे उसी तरह व्यापक स्वीकार्य की सीमा में शामिल हो सकीं जैसे ‘मैला आँचल’ । निराला की लोकप्रियता कितनी है जिनकी तुलना में अन्य लोगों के नाम का उल्लेख आपने किया है । डॉ. शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र आदि जैसे कुछ नवगीत कवि रहे हैं जिन्होंने लोकप्रियता की परिधि में सार्थक उपस्थिति दर्ज़ की । आपने जो नाम गिनाए हैं उनमें कितने हैं जो नवगीत से जुड़े हैं । वे क्या लिखते हैं और मंच पर क्या प्रस्तुत करते हैं इसकी भी जाँच परख होनी चाहिए । उनकी लोकप्रियता के पीछे मंच पर उनकी प्रस्तुतिकला भी एक महत्वपूर्ण कारक होती है । रचना की गुणवत्ता का उसमें बहुत बड़ा हाथ नहीं होता । आज मंच पर ऐसे बहुत से कवि हैं जो लोकप्रियता में इनमें से किसी से कम नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाएँ सृजनात्मकता के धरातल पर कहाँ ठहरती हैं ? कविता के ग्रहण के लिए पाठक या श्रोता में कुछ संस्कारों की आवश्यकता होती है । वास्तविकता यह है कि आज समाज में उसी संस्कार की कमी होती जा रही है । नवगीत पढ़े भी गए हैं और गुनगुनाए भी जाते रहे हैं, यह अलग बात है कि वे गाए कम गुनगुनाए अधिक गए ।
व्योम: नवगीत को पूर्व में नया गीत आदि-आदि नामों से पुकारा गया, पचास वर्षों से भी अधिक यात्रा करने के बाबजूद नाम का संकट आज भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा है,
आपको क्या लगता है ?
मा.ति.: यह संकट नवगीत का नहीं है । नवगीत की परिधि से छूटे या खिसकाए गए कुछ लोग उसे नए-नए नाम देकर जुलूस में शामिल होना चाहते हैं । मैंने भी सहज गीत की चर्चा की है लेकिन वह गीत की संप्रेषणीयता से जुड़ा है । नई कविता के गीत, नए गीत आदि नाम उस
समय गीत में आए बदलाव की ओर संकेत करते हैं । वे संज्ञाएँ नहीं हैं, विशेषण हैं उस समय की रचनाओं को रेखांकित करने वाले । अब नामकरण का एक सिलसिला बन गया है और किसी के विरुद्ध अध्यादेश तो लाया नहीं जा सकता । यह तो रचना और विचार का लोकतंत्र है । हाँ, यह ध्यान देने की बात है कि लोकतंत्र की भी एक मर्यादा होती है, वह भीड़तंत्र नहीं है और ना ही अराजकता या तानाशाही । नवगीत के बाद गीत के अग्रिम चरण का एक ही सार्थक नाम है जन-पक्षधरता या जनबोध की ओर उन्मुख जनवादी गीत । ध्यान देने की बात है कि नवगीत का यह प्रस्थानक वैचारिकता और रचना की समाजोन्मुखता से लैस है । यह किसी की निजी उद्घोषणा नहीं, बरन जन-पक्षधरता की चिंतनशीलता और रचनाकर्म के अभिप्रेय से जुड़ा है ।
व्योम ः एक प्रमुख दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित अपने आलेख में आपने सहज
गीत के संदर्भ में महत्वपूर्ण बातें कही हैं, सहज गीत नवगीत से कैसे और कितना भिन्न
है ?
मा.ति. ः सहज गीत में मैंने ऐसी रचना की बात उठाने का प्रयास किया जो अभिव्यक्ति की सहजता
से जुड़ी हो । देखने में यह आता है कि कुछ लोग अतिशय प्रयोगशीलता के मोह में इस बात को भूल जाते हैं कि सम्प्रेषणीयता भी रचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता है और भाषा, बिंब रचना के कारण दुरूहता के शिकार हो जाते हैं । ऐसी रचनाएँ चौंकाती ज़्यादा, भाती कम हैं और उनका अपने पाठक या श्रोता से सहज-संवाद नहीं बन पाता । वे इस प्रयास में विद्यापति, सूर, तुलसी के कुलगोत्र से हटकर केशवदास के कुलगोत्र में शामिल हो जाते हैं मेरी अवधारणा में सहजगीत में वे सारे गीत-रूप समाहित हैं जो अभिव्यक्ति में सहज और सम्प्रेषणीय हैं । नवगीत और सहजगीत में सिर्फ़ शब्द का अंतर है । नवगीत भी सहजगीत हो सकता है और सहजगीत नवगीत । कुछ लोग नवगीत के नाम पर कार्बन लेखन करते हैं और वे सहज-मौलिकता की परिधि से बाहर चले जाते हैं । एक महत्वपूर्ण बात है कि अपने आरंभिक काल में नवगीत ने लोकजीवन से नई ऊर्जा ग्रहण की लेकिन कुछ लोगों ने उसे नवगीत का प्रतिमान मानकर इतने आंचलिक प्रयोग किए विशेषतः भाषा के स्तर पर कि
वे सम्प्रेषणीय नहीं रह गए । इसी तरह कुछ भाषाविदों ने तत्सम शब्दाबली के प्रति इतनी गहरी रुचि दिखलाई कि उनकी रचनाओं को समझने के लिए कभी-कभी पढे-लिखे लोगों को भी शब्दकोषों का सहारा लेना पड़ा । दरअसल इनसे मुक्त गीत ही नवगीत है, गीत नवांतर है, जनवादी गीत है जिसे मैं सहज गीत मानता हूँ ।
व्योम ः आपके नवगीतों में कथ्य और बिंबों में नयापन तथा भाषा में एक अलग तरह की मिठास
एक साथ गुंथी हुई होती है, ऐसा कैसे कर लेते हैं आप ?
मा.ति. ः मैं अपने कथ्य अपने समकालीन जनजीवन से उठाता हूँ । मुझे बिंब और भाषा के लिए
किसी द्राविड़प्राणायाम की आवश्यकता महसूस नहीं होती । हमारे आसपास होती बतियाहट, जीवन के रस में डूबी शब्द संपदा स्वयँ यह मिठास भर देती है । कविता में मैंने भवानी प्रसाद मिश्र और ठाकुरप्रसाद सिंह से मिठास को पहचानना और अपनाना सीखा है, मैंने कुमार गंधर्व, पं. जसराज, किशोरी अमोनकर से संगीत की मिठास को अपने में महसूस किया है और फिर उसे अपने शब्दों, बिंबों में पिरोने का प्रयास किया है । जिस तरह गन्ने से मिठास पाई जाती है ऊपर का सख़्त छिलका, गांठें हटाकर । उसी तरह मैंने जीवन के खुरदुरेपन में भी मिठास पाने का प्रयत्न किया है । मैंने जीवन में रिश्तों को बहुत महत्व दिया है । सबको प्यार, अपनापन देने और सबसे पाने का आग्रही रहा हूँ । यह मिठास वहाँ से भी मिलती है । मेरे लिए घर मिठास का सबसे बड़ा श्रोत है । वहाँ से भाषा भी मिलती है और विचार भी ।
व्योम ः आप लम्बे समय से कविसम्मेलनीय मंचों से जुड़े रहे हैं, आज भी उसी ऊर्जा के साथ
आपकी उपस्थिति मंचीय गरिमा में बृद्धि कर रही है । कृपया बताएँ कि आज अकविता के
संक्रमण काल में क्या मंचों पर फिर से गीत का वही स्वर्णिम समय वापस लौटने की आशा
की जा सकती है ?
मा.ति. ः आप जिसे अकविता कहते हैं, मैं उसे कवित्वहीनता मानता हूँ । मैंने छठे दशक के उत्तरार्ध
से कविसम्मेलनों में जाना आरंभ किया था । उस समय जो कवि मंचों पर उपस्थित रहते थे वे साहित्य जगत के प्रतिष्ठित लोग थे । पत्र-पत्रिकाओं, पाठ्य-पुस्तकों से लेकर मंचों तक । सन् 1962 के बाद वह सिलसिला क्षीण होता गया । अब तो मंच पर उपस्थित लोगों में एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो मंचों पर अभिनेताओं व जोकर कवियों की ही भीड़ है । सही कविता को अपदस्थ करने का अनवरत प्रयास ज़ारी है लेकिन मैं निराश नहीं हूँ । निराश होना मेरे स्वभाव में नहीं है । कविता लौटेगी फिर मंचों पर गीत के रूप में भी और अन्य रूपों में भी, ऐसा मेरा विश्वास है ।
व्योम ः आपने भोजपुरी में भी रचनाकर्म किया है, नवगीतों को आंचलिक भावभूमि पर उसी भाषा
में पगाकर प्रस्तुत किया जाता रहा है, वर्तमान में रचे जा रहे नवगीतों में आंचलिक भाषा
की क्या भूमिका है तथा नई कोंपलों से आंचलिकता के संदर्भ में क्या-क्या आशाएँ की जा
सकती हैं ?
मा.ति. ः आंचलिकता रचना में नवता लाती है लेकिन वह दाल में छौंक या बघार की सीमा तक ही
होनी चाहिए । किन्तु जब आंचलिकता को ही पूरी दाल बनाने की कोशिश किसी रचना में हो तो वह कविता का दोष बन जाती है और रचना का प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है । अपने आरंभिक काल में नवगीत के कई रचनाकारों ने यह काम किया लेकिन वह लोक- जीवन, लोक-प्रकृति, लोक-स्वर के स्तर पर और कुछ हद तक शब्द प्रयोग के स्तर पर भी । बहुत से लोग उसे शब्द तक ही सीमित कर देते हैं, इससे सम्प्रेषणीयता बाधित होती है । आंचलिकता को ऐसे लोग फै़शन के तौर पर लेते हैं, यह उचित नहीं है । शब्द को उसके परिवेश के साथ उठाना चाहिए ।
व्योम ः क्या आप मानते हैं कि गीत-नवगीत के विरुद्ध एक मोर्चा सुनियोजित रूप से लामबंद है,
यदि हाँ तो कृपया बताएँ कि हिंदी साहित्य पर इसके क्या-क्या प्रभाव पड़ने की संभावना है?
मा.ति.: गीत-नवगीत तो एक बहाना है, पूरे छांदसिक लेखन के बरख़िलाफ़ एक मोर्चा दशकों पहले से लामबंद है । वह कभी धीमा पड़ जाता है और कभी तेज़ हो जाता है । कविता में इस तरह का विभाजन अंततः कविता के ही विरुद्ध जाता है और उसी को क्षतिग्रस्त करता है । नवगीत में ऐसे कई लोग हैं जो सिर्फ कविता और अच्छी कविता के ही प्रशंसक हैं फिर वह किसी भी फॉर्म में हो लेकिन दूसरा वर्ग केवल छांदसिक रचनाओं को गरियाने या धकियाने
में ही रुचि रखता है । अरुण कमल की मैं प्रशंसा करता हूँ जिन्होंने अपने एक साक्षात्कार में पिछले दिनों यह कहा कि हिंदी छंदों का मुझे ज्ञान नहीं है और मैं तो उन्हें ठीक से (लय के साथ) पढ़ भी नहीं सकता । कभी इसी तरह अपने एक साक्षात्कार में शमशेर बहादुर सिंह ने कहा था कि रचना में अगर छंद हो और वह अभिव्यक्ति को किसी तरह वाधित न करे तो वह सोने में सुहागा जैसा होगा । बात साफ है कि रचना महत्वपूर्ण है, फॉर्म उसे और अधिक ग्राह्य और सम्प्रेषणीय बनाता है । छांदसिक कविता को इसी दृष्टि से जाँचा परखा जाना चाहिए । सिर्फ छंद में होने से ही कोई कविता, कविता के संसार से वहिष्कृत नहीं की जानी चाहिए ठीक उसी तरह जैसे मुक्तछंद में होने पर कोई कविता, कविता के लोक की नागरिक नहीं बन सकती । ऐसा होगा तो भवानी प्रसाद मिश्र, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, धर्मवीर भारती आदि जैसे असंख्य कवियों की रचनाओं के प्रति एक अंधदृष्टि ही काम करेगी । क्या राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, वीरेन डंगवाल, नरेन्द्र जैन आदि को मैं इसलिए पढ़ना छोड़ दूँ या उन्हें कवि ही मानना छोड़ दूँ कि वे मुक्तछंद में लिखते हैं । ऐसी दृष्टियाँ संकीर्णता की परिचायक हैं, रचना के संसार में इनके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए ।
व्योम ः जहाँ कुछ गीतकवियों की रचनाओं में अभिनव प्रयोग के नाम पर अपरिचित प्रतीकों के
साथ-साथ दुरूह शब्दावली का प्रयोग मिलता है, वहीं अनेक गीत कवियों द्वारा अपनी
रचनाओं को नवगीत का नाम देकर सपाटबयानी को परोसा जा रहा है, आपको क्या लगता
है ?
मा.ति.: प्रयोगशीलता का स्वागत होना चाहिए । वह रचनाकर्म के निरंतर विकास की परिचायक है लेकिन भाषा और अन्यान्य प्रयोगों से अगर सम्प्रेषणीयता वाधित होती है तो वह उचित नहीं है । रचनाकर्म दो तरह का होता है - स्वतः स्फूर्त और द्राविण प्राणायाम से ग्रसित । अगर रचना स्वतः स्फूर्त नहीं है और आप सृजन की अपेक्षा सृजन को उत्पादन में ढालने की कोशिश करते हैं वह रचनाकर्म से छिटककर अलग हो जाता है । कभी एक मध्यकालीन हिंदी कवि ने लिखा था - ‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत/ मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’ । शायद इस तरह के लोग पहले भी रहे हैं तभी तो कवि को यह लिखना पड़ा । सपाटबयानी अगर कविता में ढलकर आए तो वह कविता ही होगी । सरलता और सपाटबयानी दोनों अलग-अलग हैं । जब शैलेन्द्र लिखते हैं - ‘तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर’ तो यह सपाटबयानी नहीं है, यह एक ऐसी रचना है जो करोड़ों लोगों को प्रेरित करती है । सपाट गद्य तो हो सकता है कविता नहीं ।
व्योम ः आजकल एक नया प्रयोग प्रचलन में है कि हिंदी के रचनाकार ग़ज़लें और उर्दू के रचनाकार
गीत लिख रहे हैं, परिणामतः शिल्पदोष का ख़तरा दोनों ही ओर उत्पन्न हो रहा है, आपका
मत क्या है ?
मा.ति.: हिंदी और उर्दू दोनों भारतीय ज़मीन की उपज हैं, इनमें परस्पर लेन-देन, प्रभाव ग्रहण स्वीकार्य होना चाहिए । उर्दू में जो गीत लिखे जा रहे हैं उनकी अंतर्वस्तु काफी पीछे की है। उनमें समकालीन यथार्थ नहीं है । हिंदी कवियों द्वारा लिखी जा रही ग़ज़लों में छांदसिक त्रुटियाँ ढूँढी जा सकती हैं लेकिन काफी हद तक उनमें सुधार आया है, फिर भी पूर्णतः दोषमुक्त होने में उसे अभी समय लगेगा । उर्दू गीत को समकालीन गीत के बरक्श खड़ा होना पड़ेगा । यह असंभव भी नहीं है, सिर्फ गीत लेखन को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।
व्योम ः हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में आपका विशद अध्ययन है । वर्तमान में कहानी, उपन्यास,
लघुकथा आदि को विमर्श के खांचों में फिट किया जा रहा है, जैसे अमुक कहानी स्त्री-विमर्श पर है या दलित-विमर्श पर केन्द्रित है । विमर्श के नाम पर इस तरह के बँटवारे से आप कितना और क्यों सहमत या असहमत हैं, क्या गीत-नवगीत के संदर्भ में भी ऐसे प्रयोग की आशंकाएँ हैं ?
मा.ति.: विमर्श समकालीन लेखन को समझने की एक नई कोशिश है । फिर वह चाहे दलित लेखन हो या स्त्री विमर्श, होना यह चाहिये कि उन्हें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जाँचा परखा जाये । रचनाशीलता के पैमाने पर वह कितना कलात्मक है, यह जाँचना पहले जरूरी है । फिर उसमें जो विचार उपजते हैं उनकी पैमाइश की जानी चाहिये । आज जब दशकों में बाँटकर साहित्य की पड़ताल की जा रही है तो ये विमर्श भी उसी में आते हैं । अभी इनसे जुड़े रचनाकारों में स्वीकार्यता का संकट है, उससे मुक्त हो जायेंगे तो सब सामान्य लगेगा । गीत-नवगीत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं, वह आम आदमी, शोषित-पीड़ित जन का पक्षधर है जिसमें दलित भी हैं और स्त्री भी । गीत जोड़ता है खानाबंदी में विश्वास नहीं करता । गीत अपनेआप में जनकाव्य है, उसमें सामंत, शोषक, उत्पीड़क आ भी नहीं सकते।
व्योम ः वरिष्ठ रचनाकार श्री ज़हीर कुरैशी, सूर्यभानु गुप्त जैसे अनेक महत्वपूर्ण गीत-नवगीत कवि
बाद में ग़ज़ल, कहानी, समीक्षा के क्षेत्र में चले गए और वापस नहीं लौटे, आपकी दृष्टि में
इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं ?
मा.ति.: मैं इसे सकारात्मक रूप में लेता हूँ । हर रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए फॉर्म की तलाश करता रहता है और जब वह उसे मिल जाता है तो उसी में रम जाता है । यही दुष्यंत कुमार ने ‘साये में धूप’ की रचनाओं तक पहुँचने में किया । शलभ श्रीराम सिंह, नरेश सक्सेना, सूर्यभानु गुप्त आदि सबने यह किया है । अभिव्यक्ति के दबाव के कारण ही तो उपन्यास, कहानी, लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि का जन्म हुआ । जिस फॉर्म में जो
सहज महसूस करता है उसे ही अंततः अपना लेता है । गीत लेखन वैसे भी कठिन साधना और लम्बे धैर्य की माँग करता है । संभव है कि कुछ लोग उससे बचते हुए अपेक्षाकृत कम साधना वाले पथ अपनाते होंगे । वैसे ज़हीर कुरैशी ने अपनी ग़ज़लों और दोहों में और इसी तरह सूर्यभानु गुप्त ने जो दोहे और ग़ज़लें लिखी हैं, उनमें नवगीत झाँकता दिख जाएगा अगर ग़ौर से देखें तो । कैलाश गौतम, यश मालवीय, विनय मिश्र ने भी तो यही किया है, इन सबमें नवगीत उपस्थित है । हाँ, कुछ लोग अवश्य हैं जो गीत से मुक्त होकर पूरी तरह ग़ज़लियत में समा गए ।
व्योम ः नवगीत के क्षेत्र में श्रीमति शांति सुमन, डॉ. यशोधरा राठौर, राजकुमारी ‘रश्मि’, मधु शुक्ला
आदि कुछ ही गिनी-चुनी महिलाओं ने अपना सम्मानजनक स्थान बनाया है, क्या कारण रहे
कि नवगीत सृजन में महिला रचनाकारों की संख्या पुरुषों की तुलना में काफी कम रही ?
मा.ति.: हिंदी साहित्य में, विशेष रूप से कविता के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति पुरुषों की अपेक्षा कम रही है । पुराने साहित्य में भी हमें मीरा, सहजोबाई, आलम जैसे कुछ ही नाम मिलते हैं । आधुनिक काल में भी तारापंत, महादेवी वर्मा, तोरनदेव लली, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, शकुन्तला सिरौठिया, स्नेह लता स्नेह जैसी अल्प संख्या में ही महिलाएं सक्रिय रही हैं । हाँ, गद्य में अवश्य यह संख्या बढ़ी है । इसलिये नवगीत में डॉ0 शांति सुमन, डॉ0 यशोधरा राठौर, राजकुमारी रश्मि, मधु शुक्ला जैसे यदि कुछ नाम ही उभरकर सामने आये तो चिन्ता की बात नहीं है । इनका लेखन अपने समकालीन पुरुष रचनाकारों के समानान्तर किस मज़बूती से खड़ा है, यह विचारणीय है । गीत घर से बाहर निकलकर ही लोगों के जीवन, अपने समकालीन समय को ठीक से जानने बूझने के बाद ही लिखा जा सकता है । गीत लेखन वातानुकूलित कमरों, सजे-धजे ड्राइंग रूमों, प्रभावशाली अध्ययन कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता । अपने गृहस्थ जीवन के दायित्वों को निभाते हुए एक आम भारतीय गृहणी घर से ज़्यादा से ज़्यादा बाज़ार तक ही जा सकती है। इससे उसे अपने लेखन की विषय वस्तु के चयन और उसकी उत्प्रेरक स्थितियों से साक्षात्कार सम्भव है । डॉ0 कीर्ति काले में भी व्यापक सम्भावनायें थी लेकिन बाजार ने उनके साथ भी काफी तोड़-फोड़ की । बाकी तो भीड़ भी है और भाड़ भी । लेकिन जो हैं बे मज़बूत कदम काठी, गहरी वैचारिकता से लैस सृजन में रत हैं, उनका सम्मान किया जाना चाहिये । नवगीत को भीड़ की नहीं समर्थ रचनाकारों की ज़रूरत है ।
व्योम ः गीत को केन्द्र में रखकर संकल्परथ, शिवम, उत्त्तरायण, समान्तर आदि अनेक पत्रिकाएँ
प्रकाशित हो रही हैं, हाल ही में इंटरनेट पर भी ‘गीत-पहल’ नाम से पूर्णतः गीत नवगीत
को समर्पित पत्रिका शुरू हुई है और ‘पूर्वाभास’, ‘सुनहरी क़लम से’, ‘छांदसिक अनुगायन’
आदि अनेक ब्लॉग्स भी है, इन प्रयासों से गीत के भविष्य को आप किस तरह देखते हैं ?
मा.ति. ः गीत केन्द्रित पत्रिकाएँ और इंटरनेट पर गीत-पहल ही नहीं कविता-कोश, सृजनगाथा,
अनुभूति सहित ब्लॉग्स- पूर्वाभास, सुनहरी क़लम से, आदि मेरे विश्वास के ही तो कारक
हैं ।
व्योम ः आपकी चार नवगीत कृतियाँ प्रकाशित हो चुकीं हैं और कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की बाट
जोह रही हैं, उक्त के अतिरिक्त आप द्वारा गद्य में भी आलेख आदि के रूप में पर्याप्त
मात्रा में महत्वपूर्ण सृजन किया गया है, कृतियों के प्रकाशन की आगामी योजना क्या है ?
मा.ति.: कविता संकलनों के प्रकाशन की स्थिति कभी भी सुखद नहीं रही । दुलारेलाल भार्गव जो निराला जी की कृतियों के एक प्रमुख प्रकाशक भी रहे, वे स्वयँ भी एक कवि थे लेकिन निराला जी का अनुभव उनके साथ भी बहुत सुखद नहीं रहा । प्रकाशन एक लम्बा चौड़ा व्यवसाय बन गया है । कोई अपनी कृति प्रकाशित कराना चाहता है तो उसे अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है । अगर कोई निजी तौर पर अपना संकलन छपवाता है तो उसके सामने व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचाने कोई तंत्र नहीं होता, फलतः अधिकांश पुस्तकें लोकार्पण में और मुफ़्त में बँट जाती हैं और बची हुई पुस्तकें कमरे का एक कोना घेरकर पड़ी निरीह भाव से ताकती रहती हैं । ऐसे में आगामी प्रकाशनों के विषय में क्या आश्वस्ति पाल सकता हूँ । हाँ, यह अवश्य है कि यदि प्रकाशन का सुयोग मिला तो पहले मैं अपने शेष गीत संग्रहों को प्राथमिकता दूँगा । गद्य का प्रकाशन बाद में होगा या नहीं भी होगा तो मुझे कोई चिंता नहीं है । मेरा काम है लेखन, वह बना रहेगा सिर्फ इस संबंध में विश्वासपूर्ण आश्वस्ति सौंप सकता हूँ ।
व्योम ः आपका विपुल सृजन और आपकी अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ किसी को भी आपसे
ईर्ष्याभाव रखने लिए उकसा सकती है, फिरभी ऐसा क्या है जो आपको लगता है कि अभी
करना बाक़ी है ?
मा.ति. ः सृजन का मूल्यांकन संख्या के आधार पर नहीं उसकी गुणात्मकता के आधार पर होना
चाहिए । यह गुणात्मकता निरंतर सृजनशीलता से ही पाई जा सकती है । रचना में ठहराव या जो रच चुके हैं उसी को उपलब्धि मान लेना आत्महत्या है । मुझे महसूस होता है कि अब तक मैंने जो लिखा है उससे कहीं ज़्यादा अभी अनलिखा ही रह गया है । संभवतः माहेश्वर तिवारी को जो और जैसा लिखना था, वह अभी नहीं लिख पाए हैं इसीलिए उसतक पहुँचने और उसे लिखने के क्रम में ही लिखना ज़ारी है । हर रचना एक उपलब्धि है लेकिन उससे आगे जो है उसे पाने तक लिखना है । हो सकता है इस जीवन में संभव न हो तो अगले जीवन में भी उसके लिए प्रयासरत रह सकूँ, यही कामना है । एक बड़ी कविता लिखना चाहता हूँ गीत के रूप में, कुछ प्रबंधात्मक भी और वह जब तक न मिल जाए लिखते रहना है ।
व्योम ः नवगीत के संदर्भ में नई पीढी की दशा और दिशा के विषय में आपका मत क्या है और
नई पीढी से नवगीत के भविष्य के प्रति आपकी अपेक्षाएँ क्या हैं ?
मा.ति. ः गीत-लेखन साधना की अपेक्षा रखता है । नए लोग शार्टकट अपनाना चाहते हैं इसीलिए
आज गीतकवि कम संख्या में सामने आ रहे हैं । एक समय तो यश मालवीय और विनोद श्रीवास्तव तक आकर लगा कि नवगीत लेखन की परंपरा ख़त्म हो गई लेकिन यशोधरा राठौर, योगेन्द्र ‘व्योम’, जयकृष्ण ‘तुषार’, आनंद ‘गौरव’, देवेन्द्र ‘सफल’, शैलेन्द्र शर्मा, आनंद तिवारी, अवनीश सिंह चौहान, मनोज जैन ‘मधुर’ की रचनाशीलता के रूप में फिर नवगीत की डालों में कल्ले फूटते नज़र आने लगे हैं । नई पीढी से अपेक्षा है कि वह चकाचौंध (ग़ज़ल, दोहा आदि) से निकलकर गीत से, नवगीत से जुड़कर अपनी भारतीय कविता की जड़ों की ओर लौटे । यह लौटना पीछे लौटना नहीं, ठहराव से निकलकर आगे बढ़ना होगा । कविता को उसकी अपनी ज़मीन से जोड़ना होगा ।
व्योम ः कृपया अपने जीवन का कोई रोचक संस्मरण सुनाइये ?
मा.ति. ः जीवन तमाम प्रसंगों से भरा है । इस समय एक प्रसंग याद आ रहा है - सुल्तानपुर
(उ.प्र.) के राजकीय इंटर कॉलेज में कविसम्मेलन था । संयोजक कथाकार स्व. गंगाप्रसाद मिश्र थे । उनसे मेरा पारिवारिक रिश्ता था । कविसम्मेलन में देर से पहुँचने के कारण जिन कपड़ों में था उन्हीं में सीधा मंच पर पहुँच गया ।मंच पर पहुँचते ही काव्यपाठ करना पड़ा । कविता पढ़कर मंच से उठकर चाय पीने के लिए आया । मैंनें कविसम्मेलन में अपना याद वाला गीत पढ़ा- ‘याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे/जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे’ । चाय पी रहा था तो एक वयोबृद्ध सज्जन पास आए और ऐसा सवाल कर बैठे कि उनकी आयु और प्रश्न सुनकर मैं चौंक गया । उन सज्जन ने बड़ी गंभीरता से कहा - ‘तिवारीजी, मेरी एक जिज्ञासा है’ मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया तो पूछ बैठे - ‘यह घटना कहाँ की है और यह किरन कौन है? क्या वह आपके साथ नहीं थी उस पहाड़ पर’ मैंने जैसे-तैसे उन्हें टाला, और जब कवि मित्रों से उसकी चर्चा की तो सभी ठहाका मारकर हंस पड़े ।
-माहेश्वर तिवारी
हिन्दी साहित्य में जब-जब नवगीत की संवेदना और युगीन संदर्भों के साथ-साथ भाषागत सहजता व आंचलिक मिठास की चर्चा होती है, हिन्दी नवगीत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के सृजनात्मक उल्लेख के बिना न तो वह पूर्ण होती है और ना ही उस चर्चा का कोई महत्व रहता है । हिन्दी नवगीत के वह महत्वपूर्ण और अद्वितीय हस्ताक्षर श्री माहेश्वर तिवारी हैं । 22 जुलाई 1939 को बस्ती (उ.प्र.) में जन्मे श्री तिवारी की अब तक 4 नवगीत कृतियों - ‘हरसिंगार कोई तो हो’ , ‘नदी का अकेलापन’, ‘सच की कोई शर्त नहीं’ और ‘फूल आए हैं कनेरों में’ के अतिरिक्त नवगीत की कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं । हिन्दी गीत-नवगीत के संदर्भ में श्री तिवारी से महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बातचीत की योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ ने -
व्योम : नवगीत आपकी दृष्टि में क्या है और इसकी क्या-क्या शर्तें व मर्यादायें हैं ?
मा.ति. : नवगीत भारतीयता से जुड़ा और आधुनिकता तथा वैज्ञानिक बोध से जुड़ा वह काव्य-रूप हैै ,जो छायावादोत्तर गीत-धारा से, गेयत्व को छोड़कर शेष सभी रूपों में आधुनिक मनुष्य का
गीत है । इसमें प्रेम के नाम पर न तो मध्यकालीन परकीया भाव है और न कुहासे से भरी
कल्पनाशीलता । इसमें सजग सामाजिक बोध और घर-आँगन का विश्वसनीय चेहरा है ।
आधुनिकता से उपजीं विकृतियों के प्रति भी चौकन्नी जागरुकता, राजनीतिक, आर्थिक
विसंगतियों के प्रति एक प्रतिपक्ष का भाव तो इसमें है ही, सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें
भारतीय संस्कृति और देशी ज़मीन के प्रति गहरे सरोकार भी हैं । यह समकालीन अन्य तमाम रूपों की तरह आयातित काव्य-रूप नहीं है । यह निजत्व से जुड़ा होकर भी उस आत्माभिव्यक्ति से मुक्त है जो कभी-कभी कविता के धरातल से खिसककर डायरी के रूप में सामने आ जाता है ।
व्योम : आप नवगीत का आरम्भ कहाँ से मानते हैं, महाप्राण निराला से या उससे भी पहले ?
मा.ति.: नवगीत की पहली आहट निराला के गीतों में ही मिलती है । गीत की नई भाषा और शिल्प की नई बुनावट सबसे पहले महाप्राण निराला में ही मिलती है । यह ध्यान देने की बात है कि गीत ही नहीं, प्रयोगवादी और कालान्तर में नई कविता के नाम से अभिहित समकालीन कविता के प्रथम प्रयोक्ता भी निराला ही हैं । कुछ लोग नवगीत का आरंभ छठे दशक से मानने के आग्रही हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा को उत्तरकाशी या उससे आगे मानने की अपेक्षा गंगोत्री से ही माना जाना चाहिए क्योंकि गंगोत्री से निकलने के पश्चात गंगा भागीरथी, अलकनंदा आदि नामों से जगह-जगह जानी जाती है लेकिन उत्स तो गंगोत्री ही है, उसी तरह निराला को नवगीत का प्रथम पुरुष माना जाना चाहिए । डॉ. शम्भूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र जैसे नवगीत कवि निराला को ही नवगीत का पुरोधा मानने के आग्रही रहे हैं । नवगीत शब्द का पहली बार प्रयोग राजेन्द्रप्रसाद सिंह ने स्वयं द्वारा संपादित गीत संकलन ‘गीतांगिनी’ की भूमिका में लिखित रूप से किया लेकिन वह भी इसके प्रथमपुरुष नहीं स्वीकारे जा सकते हैं । इस सारे विमर्श के बाद निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नवगीत का आरंभ निराला से ही हुआ । अपनी प्रसिद्ध सरस्वती वंदना में निराला ने ही ‘नवगति, नवलय, ताल, छंद नव’ की बात का सबसे पहले उन्होंने ही उद्घोष किया ।
व्योम : कहा जाता है कि नवगीत यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ा है तथा उसमें व्यवस्था विरोध के साथ-साथ वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के विरुद्ध स्वर भी मुखर हुए हैं लेकिन भविष्य के गर्भ में झाँकने की कोशिशें नवगीत में उतनी नहीं हुईं, क्यों ?
मा.ति. : कोई भी रचना अपनी समकालीनता से जुड़ी होती है । वह अपने समय के यथार्थ को ही अभिव्यक्ति देती है । वह निष्कर्ष नहीं देती, वर्तमान की विसंगतियों, त्रासदियों को अपनी
अंतर्वस्तु में शामिलकर पाठकों को भविष्य के संकेत देती है । सौन्दर्यशास्त्र के नए मानक गढ़ती है । सामाजिक बदलावों की ज़रूरतों की ओर प्रच्छन्न संकेत करती है । इससे आगे सोचना उसके पाठकों और उसके समाज का दायित्व बनता है । यह सभी बड़े रचनाकार और उनका सृजन करता है । गीत महाकाव्य नहीं है कि उससे भविष्य के संकेत ढूँढे जाएँ। वैश्वीकरण और बढ़ते बाज़ारवाद के ख़तरों की ओर वह इंगित करता है । इससे बचाव और विकल्पों की तलाश उसका काम नहीं है । जब भारतेन्दु हरिश्चंद्र ‘आओ सब मिलकर रोबहु भाई/हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई’ या निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ में जो अंतर्वस्तु है वह सिर्फ अपने समय को ही अपनी अभिव्यक्ति में समेटती है, भविष्य की ओर संकेत दूसरी तरह की कविताओं में ढूँढा जा सकता है, गीत में नहीं ।
व्योम ः आपका सबसे प्रथम् नवगीत कौन सा था तथा कब और कहाँ प्रकाशित हुआ ?
मा.ति.: मैंने जिस समय गीत लेखन आरंभ किया उस समय ‘नवगीत’ शब्द चर्चा में नहीं था । तार-सप्तक के कवियों ने तथा उससे बाहर के प्रयोगवादी व नई कविता के कवियों ने जो गीत लिखे उन्हें कुछ समय तक नई कविता के गीत और नया गीत के नाम से जाना-पहचाना जाता रहा । सन् 1960 के बाद नए गीत कवियों की रचनाओं के लिए ‘नवगीत’ शब्द केन्द्र में आया । मेरे जिस गीत को लेकर मुझे नवगीतकारों में शामिल किया गया, वह है - ‘आओ हम धूप-वृक्ष काटें/इधर-उधर हल्कापन बाँटें’ । यह गीत पहली बार वाराणसी से प्रकाशित ‘मराल’ पत्रिका में सन् 1964 में छपा और चर्चित हुआ ।
व्योम ः गीत से नवगीत तक की यात्रा में हिन्दी कविता ने कौन-कौन सी उपलब्धियाँ हासिल कीं ?
मा.ति. ः कई पड़ाव आए गीत से नवगीत तक की यात्रा में, गीत कभी प्रगीत बना, स्वच्छंदावादी गीत
बना और फिर वह सन् साठ के बाद नवगीत बना । गीतों में प्रकृति-मनुष्य से अलग एक
इकाई थी किन्तु नवगीत में वह सहचरी बन गई । भवानी प्रसाद मिश्र के गीत ‘सतपुड़ा के घने जंगल/ऊँघते अनमने मंगल’ और ‘आज पानी गिर रहा है/घर नयन में तिर रहा है’ जिस नए गीत की आहट देते हैं वह गीत से नवगीत के प्रस्थानक बिन्दु के रूप में स्वीकारा जा सकता है । इस अंतर को तत्कालीन ‘नीरज’ और वीरेन्द्र मिश्र के गीतों के माध्यम से भी जाँचा परखा जा सकता है । वीरेन्द्र मिश्र ने अपने पीड़ा वाले गीत में कहा है - ‘पीर मेरी कर रही ग़मगीन मुझको/और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी/और उससे भी अधिक हर पाँव की जंजीर रानी’ जबकि नीरज लिख रहे थे - ‘देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम/प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा’ । गीत वैदिक ऋचाओं के रूप में उपजा और वह लोक जीवन तथा लोकमानस से होकर नवगीत तक आया । कुछ लोगों का मत है कि नवगीत नई कविता की अनुकृति से उपजा, यह मिथ्या भ्रम है । महाप्राण निराला की सरस्वतीवंदना में ‘नव-गति, नव-लय, ताल छंद नव’ ही नवगीत का बीजमंत्र कहा जा सकता है ।
व्योम ः स्व. डॉ.शम्भूनाथ सिंह द्वारा संपादित नवगीत दशक श्रंखला तथा नवगीत अर्द्धशती के संदर्भ
में कहा जाता है कि इन ऐतिहासिक समवेत संकलनों में तत्कालीन कुछ महत्वपूर्ण नाम सम्मलित नहीं हो सके, इसकी क्या वज़ह रही ?
मा.ति.: यह बात बिल्कुल सच है कि नवगीत दशक तथा नवगीत अर्द्धशती में कुछ महत्वपूर्ण रचनाकार छोड़ दिए गए या छूट गए । ऐसा तार सप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक
में भी हुआ था और पिछले दिनों साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘श्रेष्ठ गीत संचयन’ में भी यह कमी पाई गई । ऐसा प्रायः संपादक की निजी रुचि और संकलनों की सीमाओं के कारण भी होता है । नवगीत दशक-एक के प्रकाशन के बाद स्व. ठाकुरप्रसाद सिंह ने सबसे पहले इस बात को लेकर एतराज किया था कि उसमें कुछ ऐसे नाम हैं जो नहीं होने चाहिए और कुछ ऐसे महत्वपूर्ण नाम हैं जो होने चाहिए थे । एक बात यह भी है कि नवगीत दशक के प्रकाशन की प्रक्रिया 1968 में ही आरंभ हो गई थी और उस समय मात्र एक ही संकलन की योजना आर्थिक सहयोग के आधार पर तैयार हुई थी । उसमें कई नाम ऐसे थे जो बाद में दशकत्रयी में शामिल नहीं किए गए । उस संकलन की फ़ाइल संपादक की अपनी व्यस्तताओं और कुछ के आर्थिक सहयोग से इंकार कर देने के कारण फ़ाइलों के ढ़ेर में दबी रह गई । डॉ. सुरेश जब डॉ. शम्भूनाथ सिंह के निर्देशन में शोधकार्य में जुटे तो वह फाइल उनके हाथ लग गई तो डॉ. शम्भूनाथ जी से चर्चा उपरान्त तीन नवगीत दशकों के प्रकाशन की योजना बनी । इस योजना में मेरा नाम पहले दशक के रचनाकारों की सूची में था लेकिन जब आयुक्रम से चयन की बात आई तो मेरा नाम खिसककर दूसरे दशक में आ गया । बहरहाल स्व. राजेन्द्रप्रसाद सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, शलभ श्रीराम सिंह जैसे प्रमुख लोगों का नाम दशक त्रयी में न होना हमारे लिए भी असहज कर देने वाला था । हमने अपने-अपने ढंग से अपनी आपत्तियाँ संपादक तक पहुँचायीं पर कोई सुनवाई नहीं हुई बल्कि स्व. ठाकुरप्रसाद सिंह तथा मुझे अपने एक लेख में डॉ. शंभूनाथजी ने नवगीत का शत्रु तक सिद्ध कर दिया लेकिन अपनी इस ग़लती का एहसास बाद में उन्हें भी हुआ और नवगीत अर्द्धशती में वीरेन्द्र मिश्र तथा शलभ श्रीराम सिंह को शामिल करने को वह तैयार थे किन्तु उन दोनों रचनाकारों की ओर से न तो कोई सकारात्मक उत्तर मिला और न रचनात्मक सहयोग । इससे नवगीत दशकों और नवगीत अर्द्धशती में एक अधूरापन तो रहा लेकिन इससे उनकी ऐतिहासिकता को नकारा नहीं जा सकता ।
व्योम: नवगीत को केन्द्र में रखकर काफी काम हुआ है, नवगीत दशक श्रृंखला के अतिरिक्त नवगीत और उसका युगबोध, शब्दपदी, धार पर हम आदि समवेत पुस्तकें प्रकाशित हुईं किन्तु नवगीत का सर्वमान्य एक पारिभाषिक चित्र प्रस्तुत करने के स्थान पर भ्रामक स्थितियाँ ज़रूर बनीं, आप क्या मानते हैं ?
मा.ति.: नवगीत को केन्द्र में रखकर नवगीत दशकों के बाद में आए कई समवेत संकलनों, जिनका ज़िक्र आपने किया है उससे भी पहले बासंती, रश्मि, कविता-64, वातायन, अंतराल, सांध्य मित्रा, नवगीत जैसी पत्रिकाओं के नवगीत विशेषांकों ने नवगीत को लेकर काफी काम किया। नवगीत की चर्चा करने वाले अक्सर इन महत्वपूर्ण प्रयासों को भूल जाते हैं या उनकी अनदेखी कर देते हैं । कालान्तर में आए पाँच जोड़ बाँसुरी, गीत जैसे समवेत संकलनों की ओर पता नहीं किन कारणों से उनका ध्यान नहीं जाता । विगत वर्षों में इस दिशा में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप दिनेश सिंह के संपादन में आई पत्रिका ‘नए-पुराने’ ने किया । रचना और विमर्श दोनों दृष्टियों से नए-पुराने के अंक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन गए । आप जिस तरह की अपेक्षा करते हैं उसके लिए नवगीत का ‘गोल्डन-ट्रेज़री’ जैसा कोई संकलन आए तभी काम हो सकता है । नवगीत दशक, नवगीत अर्द्धशती, शब्दपदी, धार पर हम, नवगीत सप्तक आदि की सीमाओं और उनके संपादकों की निजी पसंद-नापसंद तथा नवगीत संबंधी संपादक की निजी अवधारणाएँ, रचनाकारों की आपसी टालमटोल आदि कई कारक हैं जो नवगीत को समग्रता के साथ प्रस्तुत करने में बाधक बनते हैं । दूसरी बात यह कि नवगीत गतिशील रचनाकर्म है, नित नए रचनाकार उसकी भूमि में प्रवेश करते हैं फिर उन सबको समेटना एक तटस्थतापूर्ण कठिन श्रम और भारी आर्थिक प्रबंधन की माँग करता है । क्या यह उन लोगों से संभव है जो स्वयँ अपने प्रस्तोता हैं और इस बात के आग्रही कि जो है वह उन्हीं से माना जाना चाहिए तथा उसके आगे-पीछे का सब व्यर्थ है । पिछले दिनों इसी तरह की एक आत्मकेन्द्रित घोषणा देश की राजधानी से भी हुई है । ऐसा कार्य या तो
दुराग्रहपूर्ण होता है या अल्पज्ञान का प्रतीक । दिल्ली का वैसे भी स्वभाव रहा है कि वह सिर्फ अपने को ही देखती है और मानती है कि वही पूरे देश को देख रही है ।
व्योम ः ज़रा पलटकर गुज़रे वक़्त पर नज़र डालें, अपने गीतों के कारण निराला से लेकर बच्चन,
नेपाली, वीरेन्द्र मिश्र, नीरज, भारत भूषण, सोम ठाकुर आदि ने काफी लोकप्रियता अर्जित
की और उनके गीत लोगों के दिलो-दिमाग़ पर छाए ही नहीं, बस गए जबकि नवगीत के
संदर्भ में ऐसा नहीं हो सका, नवगीत पठनीय तो अधिक रहे किन्तु गुनगुनाए कम गए, इसके पीछे आप किन कारणों को ज़िम्मेदार मानते हैं ?
मा.ति.: देखिए, लोकप्रियता एक अलग विषय है । कोई रचना लोकप्रिय होने से ही बढ़िया नहीं हो जाती और उसकी अपेक्षा कम लोकप्रिय रचना को भी सिर्फ इसलिए नहीं नकारा जाना चाहिए कि वह कुछ की अपेक्षा कम लोकप्रिय रही । यह सवाल किसी भी प्रकार के लेखन की पड़ताल करें तो पता चल सकता है । कहानी, उपन्यास आदि की दिशा में प्रेमचंद्र कितने लोगों तक पहुँचे । ‘मैला आँचल’ के बाद फणीश्वरनाथ रेणु की और भी कृतियाँ आईं लेकिन क्या वे उसी तरह व्यापक स्वीकार्य की सीमा में शामिल हो सकीं जैसे ‘मैला आँचल’ । निराला की लोकप्रियता कितनी है जिनकी तुलना में अन्य लोगों के नाम का उल्लेख आपने किया है । डॉ. शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र आदि जैसे कुछ नवगीत कवि रहे हैं जिन्होंने लोकप्रियता की परिधि में सार्थक उपस्थिति दर्ज़ की । आपने जो नाम गिनाए हैं उनमें कितने हैं जो नवगीत से जुड़े हैं । वे क्या लिखते हैं और मंच पर क्या प्रस्तुत करते हैं इसकी भी जाँच परख होनी चाहिए । उनकी लोकप्रियता के पीछे मंच पर उनकी प्रस्तुतिकला भी एक महत्वपूर्ण कारक होती है । रचना की गुणवत्ता का उसमें बहुत बड़ा हाथ नहीं होता । आज मंच पर ऐसे बहुत से कवि हैं जो लोकप्रियता में इनमें से किसी से कम नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाएँ सृजनात्मकता के धरातल पर कहाँ ठहरती हैं ? कविता के ग्रहण के लिए पाठक या श्रोता में कुछ संस्कारों की आवश्यकता होती है । वास्तविकता यह है कि आज समाज में उसी संस्कार की कमी होती जा रही है । नवगीत पढ़े भी गए हैं और गुनगुनाए भी जाते रहे हैं, यह अलग बात है कि वे गाए कम गुनगुनाए अधिक गए ।
व्योम: नवगीत को पूर्व में नया गीत आदि-आदि नामों से पुकारा गया, पचास वर्षों से भी अधिक यात्रा करने के बाबजूद नाम का संकट आज भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा है,
आपको क्या लगता है ?
मा.ति.: यह संकट नवगीत का नहीं है । नवगीत की परिधि से छूटे या खिसकाए गए कुछ लोग उसे नए-नए नाम देकर जुलूस में शामिल होना चाहते हैं । मैंने भी सहज गीत की चर्चा की है लेकिन वह गीत की संप्रेषणीयता से जुड़ा है । नई कविता के गीत, नए गीत आदि नाम उस
समय गीत में आए बदलाव की ओर संकेत करते हैं । वे संज्ञाएँ नहीं हैं, विशेषण हैं उस समय की रचनाओं को रेखांकित करने वाले । अब नामकरण का एक सिलसिला बन गया है और किसी के विरुद्ध अध्यादेश तो लाया नहीं जा सकता । यह तो रचना और विचार का लोकतंत्र है । हाँ, यह ध्यान देने की बात है कि लोकतंत्र की भी एक मर्यादा होती है, वह भीड़तंत्र नहीं है और ना ही अराजकता या तानाशाही । नवगीत के बाद गीत के अग्रिम चरण का एक ही सार्थक नाम है जन-पक्षधरता या जनबोध की ओर उन्मुख जनवादी गीत । ध्यान देने की बात है कि नवगीत का यह प्रस्थानक वैचारिकता और रचना की समाजोन्मुखता से लैस है । यह किसी की निजी उद्घोषणा नहीं, बरन जन-पक्षधरता की चिंतनशीलता और रचनाकर्म के अभिप्रेय से जुड़ा है ।
व्योम ः एक प्रमुख दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित अपने आलेख में आपने सहज
गीत के संदर्भ में महत्वपूर्ण बातें कही हैं, सहज गीत नवगीत से कैसे और कितना भिन्न
है ?
मा.ति. ः सहज गीत में मैंने ऐसी रचना की बात उठाने का प्रयास किया जो अभिव्यक्ति की सहजता
से जुड़ी हो । देखने में यह आता है कि कुछ लोग अतिशय प्रयोगशीलता के मोह में इस बात को भूल जाते हैं कि सम्प्रेषणीयता भी रचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता है और भाषा, बिंब रचना के कारण दुरूहता के शिकार हो जाते हैं । ऐसी रचनाएँ चौंकाती ज़्यादा, भाती कम हैं और उनका अपने पाठक या श्रोता से सहज-संवाद नहीं बन पाता । वे इस प्रयास में विद्यापति, सूर, तुलसी के कुलगोत्र से हटकर केशवदास के कुलगोत्र में शामिल हो जाते हैं मेरी अवधारणा में सहजगीत में वे सारे गीत-रूप समाहित हैं जो अभिव्यक्ति में सहज और सम्प्रेषणीय हैं । नवगीत और सहजगीत में सिर्फ़ शब्द का अंतर है । नवगीत भी सहजगीत हो सकता है और सहजगीत नवगीत । कुछ लोग नवगीत के नाम पर कार्बन लेखन करते हैं और वे सहज-मौलिकता की परिधि से बाहर चले जाते हैं । एक महत्वपूर्ण बात है कि अपने आरंभिक काल में नवगीत ने लोकजीवन से नई ऊर्जा ग्रहण की लेकिन कुछ लोगों ने उसे नवगीत का प्रतिमान मानकर इतने आंचलिक प्रयोग किए विशेषतः भाषा के स्तर पर कि
वे सम्प्रेषणीय नहीं रह गए । इसी तरह कुछ भाषाविदों ने तत्सम शब्दाबली के प्रति इतनी गहरी रुचि दिखलाई कि उनकी रचनाओं को समझने के लिए कभी-कभी पढे-लिखे लोगों को भी शब्दकोषों का सहारा लेना पड़ा । दरअसल इनसे मुक्त गीत ही नवगीत है, गीत नवांतर है, जनवादी गीत है जिसे मैं सहज गीत मानता हूँ ।
व्योम ः आपके नवगीतों में कथ्य और बिंबों में नयापन तथा भाषा में एक अलग तरह की मिठास
एक साथ गुंथी हुई होती है, ऐसा कैसे कर लेते हैं आप ?
मा.ति. ः मैं अपने कथ्य अपने समकालीन जनजीवन से उठाता हूँ । मुझे बिंब और भाषा के लिए
किसी द्राविड़प्राणायाम की आवश्यकता महसूस नहीं होती । हमारे आसपास होती बतियाहट, जीवन के रस में डूबी शब्द संपदा स्वयँ यह मिठास भर देती है । कविता में मैंने भवानी प्रसाद मिश्र और ठाकुरप्रसाद सिंह से मिठास को पहचानना और अपनाना सीखा है, मैंने कुमार गंधर्व, पं. जसराज, किशोरी अमोनकर से संगीत की मिठास को अपने में महसूस किया है और फिर उसे अपने शब्दों, बिंबों में पिरोने का प्रयास किया है । जिस तरह गन्ने से मिठास पाई जाती है ऊपर का सख़्त छिलका, गांठें हटाकर । उसी तरह मैंने जीवन के खुरदुरेपन में भी मिठास पाने का प्रयत्न किया है । मैंने जीवन में रिश्तों को बहुत महत्व दिया है । सबको प्यार, अपनापन देने और सबसे पाने का आग्रही रहा हूँ । यह मिठास वहाँ से भी मिलती है । मेरे लिए घर मिठास का सबसे बड़ा श्रोत है । वहाँ से भाषा भी मिलती है और विचार भी ।
व्योम ः आप लम्बे समय से कविसम्मेलनीय मंचों से जुड़े रहे हैं, आज भी उसी ऊर्जा के साथ
आपकी उपस्थिति मंचीय गरिमा में बृद्धि कर रही है । कृपया बताएँ कि आज अकविता के
संक्रमण काल में क्या मंचों पर फिर से गीत का वही स्वर्णिम समय वापस लौटने की आशा
की जा सकती है ?
मा.ति. ः आप जिसे अकविता कहते हैं, मैं उसे कवित्वहीनता मानता हूँ । मैंने छठे दशक के उत्तरार्ध
से कविसम्मेलनों में जाना आरंभ किया था । उस समय जो कवि मंचों पर उपस्थित रहते थे वे साहित्य जगत के प्रतिष्ठित लोग थे । पत्र-पत्रिकाओं, पाठ्य-पुस्तकों से लेकर मंचों तक । सन् 1962 के बाद वह सिलसिला क्षीण होता गया । अब तो मंच पर उपस्थित लोगों में एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो मंचों पर अभिनेताओं व जोकर कवियों की ही भीड़ है । सही कविता को अपदस्थ करने का अनवरत प्रयास ज़ारी है लेकिन मैं निराश नहीं हूँ । निराश होना मेरे स्वभाव में नहीं है । कविता लौटेगी फिर मंचों पर गीत के रूप में भी और अन्य रूपों में भी, ऐसा मेरा विश्वास है ।
व्योम ः आपने भोजपुरी में भी रचनाकर्म किया है, नवगीतों को आंचलिक भावभूमि पर उसी भाषा
में पगाकर प्रस्तुत किया जाता रहा है, वर्तमान में रचे जा रहे नवगीतों में आंचलिक भाषा
की क्या भूमिका है तथा नई कोंपलों से आंचलिकता के संदर्भ में क्या-क्या आशाएँ की जा
सकती हैं ?
मा.ति. ः आंचलिकता रचना में नवता लाती है लेकिन वह दाल में छौंक या बघार की सीमा तक ही
होनी चाहिए । किन्तु जब आंचलिकता को ही पूरी दाल बनाने की कोशिश किसी रचना में हो तो वह कविता का दोष बन जाती है और रचना का प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है । अपने आरंभिक काल में नवगीत के कई रचनाकारों ने यह काम किया लेकिन वह लोक- जीवन, लोक-प्रकृति, लोक-स्वर के स्तर पर और कुछ हद तक शब्द प्रयोग के स्तर पर भी । बहुत से लोग उसे शब्द तक ही सीमित कर देते हैं, इससे सम्प्रेषणीयता बाधित होती है । आंचलिकता को ऐसे लोग फै़शन के तौर पर लेते हैं, यह उचित नहीं है । शब्द को उसके परिवेश के साथ उठाना चाहिए ।
व्योम ः क्या आप मानते हैं कि गीत-नवगीत के विरुद्ध एक मोर्चा सुनियोजित रूप से लामबंद है,
यदि हाँ तो कृपया बताएँ कि हिंदी साहित्य पर इसके क्या-क्या प्रभाव पड़ने की संभावना है?
मा.ति.: गीत-नवगीत तो एक बहाना है, पूरे छांदसिक लेखन के बरख़िलाफ़ एक मोर्चा दशकों पहले से लामबंद है । वह कभी धीमा पड़ जाता है और कभी तेज़ हो जाता है । कविता में इस तरह का विभाजन अंततः कविता के ही विरुद्ध जाता है और उसी को क्षतिग्रस्त करता है । नवगीत में ऐसे कई लोग हैं जो सिर्फ कविता और अच्छी कविता के ही प्रशंसक हैं फिर वह किसी भी फॉर्म में हो लेकिन दूसरा वर्ग केवल छांदसिक रचनाओं को गरियाने या धकियाने
में ही रुचि रखता है । अरुण कमल की मैं प्रशंसा करता हूँ जिन्होंने अपने एक साक्षात्कार में पिछले दिनों यह कहा कि हिंदी छंदों का मुझे ज्ञान नहीं है और मैं तो उन्हें ठीक से (लय के साथ) पढ़ भी नहीं सकता । कभी इसी तरह अपने एक साक्षात्कार में शमशेर बहादुर सिंह ने कहा था कि रचना में अगर छंद हो और वह अभिव्यक्ति को किसी तरह वाधित न करे तो वह सोने में सुहागा जैसा होगा । बात साफ है कि रचना महत्वपूर्ण है, फॉर्म उसे और अधिक ग्राह्य और सम्प्रेषणीय बनाता है । छांदसिक कविता को इसी दृष्टि से जाँचा परखा जाना चाहिए । सिर्फ छंद में होने से ही कोई कविता, कविता के संसार से वहिष्कृत नहीं की जानी चाहिए ठीक उसी तरह जैसे मुक्तछंद में होने पर कोई कविता, कविता के लोक की नागरिक नहीं बन सकती । ऐसा होगा तो भवानी प्रसाद मिश्र, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, धर्मवीर भारती आदि जैसे असंख्य कवियों की रचनाओं के प्रति एक अंधदृष्टि ही काम करेगी । क्या राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, वीरेन डंगवाल, नरेन्द्र जैन आदि को मैं इसलिए पढ़ना छोड़ दूँ या उन्हें कवि ही मानना छोड़ दूँ कि वे मुक्तछंद में लिखते हैं । ऐसी दृष्टियाँ संकीर्णता की परिचायक हैं, रचना के संसार में इनके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए ।
व्योम ः जहाँ कुछ गीतकवियों की रचनाओं में अभिनव प्रयोग के नाम पर अपरिचित प्रतीकों के
साथ-साथ दुरूह शब्दावली का प्रयोग मिलता है, वहीं अनेक गीत कवियों द्वारा अपनी
रचनाओं को नवगीत का नाम देकर सपाटबयानी को परोसा जा रहा है, आपको क्या लगता
है ?
मा.ति.: प्रयोगशीलता का स्वागत होना चाहिए । वह रचनाकर्म के निरंतर विकास की परिचायक है लेकिन भाषा और अन्यान्य प्रयोगों से अगर सम्प्रेषणीयता वाधित होती है तो वह उचित नहीं है । रचनाकर्म दो तरह का होता है - स्वतः स्फूर्त और द्राविण प्राणायाम से ग्रसित । अगर रचना स्वतः स्फूर्त नहीं है और आप सृजन की अपेक्षा सृजन को उत्पादन में ढालने की कोशिश करते हैं वह रचनाकर्म से छिटककर अलग हो जाता है । कभी एक मध्यकालीन हिंदी कवि ने लिखा था - ‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत/ मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’ । शायद इस तरह के लोग पहले भी रहे हैं तभी तो कवि को यह लिखना पड़ा । सपाटबयानी अगर कविता में ढलकर आए तो वह कविता ही होगी । सरलता और सपाटबयानी दोनों अलग-अलग हैं । जब शैलेन्द्र लिखते हैं - ‘तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर’ तो यह सपाटबयानी नहीं है, यह एक ऐसी रचना है जो करोड़ों लोगों को प्रेरित करती है । सपाट गद्य तो हो सकता है कविता नहीं ।
व्योम ः आजकल एक नया प्रयोग प्रचलन में है कि हिंदी के रचनाकार ग़ज़लें और उर्दू के रचनाकार
गीत लिख रहे हैं, परिणामतः शिल्पदोष का ख़तरा दोनों ही ओर उत्पन्न हो रहा है, आपका
मत क्या है ?
मा.ति.: हिंदी और उर्दू दोनों भारतीय ज़मीन की उपज हैं, इनमें परस्पर लेन-देन, प्रभाव ग्रहण स्वीकार्य होना चाहिए । उर्दू में जो गीत लिखे जा रहे हैं उनकी अंतर्वस्तु काफी पीछे की है। उनमें समकालीन यथार्थ नहीं है । हिंदी कवियों द्वारा लिखी जा रही ग़ज़लों में छांदसिक त्रुटियाँ ढूँढी जा सकती हैं लेकिन काफी हद तक उनमें सुधार आया है, फिर भी पूर्णतः दोषमुक्त होने में उसे अभी समय लगेगा । उर्दू गीत को समकालीन गीत के बरक्श खड़ा होना पड़ेगा । यह असंभव भी नहीं है, सिर्फ गीत लेखन को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।
व्योम ः हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में आपका विशद अध्ययन है । वर्तमान में कहानी, उपन्यास,
लघुकथा आदि को विमर्श के खांचों में फिट किया जा रहा है, जैसे अमुक कहानी स्त्री-विमर्श पर है या दलित-विमर्श पर केन्द्रित है । विमर्श के नाम पर इस तरह के बँटवारे से आप कितना और क्यों सहमत या असहमत हैं, क्या गीत-नवगीत के संदर्भ में भी ऐसे प्रयोग की आशंकाएँ हैं ?
मा.ति.: विमर्श समकालीन लेखन को समझने की एक नई कोशिश है । फिर वह चाहे दलित लेखन हो या स्त्री विमर्श, होना यह चाहिये कि उन्हें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जाँचा परखा जाये । रचनाशीलता के पैमाने पर वह कितना कलात्मक है, यह जाँचना पहले जरूरी है । फिर उसमें जो विचार उपजते हैं उनकी पैमाइश की जानी चाहिये । आज जब दशकों में बाँटकर साहित्य की पड़ताल की जा रही है तो ये विमर्श भी उसी में आते हैं । अभी इनसे जुड़े रचनाकारों में स्वीकार्यता का संकट है, उससे मुक्त हो जायेंगे तो सब सामान्य लगेगा । गीत-नवगीत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं, वह आम आदमी, शोषित-पीड़ित जन का पक्षधर है जिसमें दलित भी हैं और स्त्री भी । गीत जोड़ता है खानाबंदी में विश्वास नहीं करता । गीत अपनेआप में जनकाव्य है, उसमें सामंत, शोषक, उत्पीड़क आ भी नहीं सकते।
व्योम ः वरिष्ठ रचनाकार श्री ज़हीर कुरैशी, सूर्यभानु गुप्त जैसे अनेक महत्वपूर्ण गीत-नवगीत कवि
बाद में ग़ज़ल, कहानी, समीक्षा के क्षेत्र में चले गए और वापस नहीं लौटे, आपकी दृष्टि में
इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं ?
मा.ति.: मैं इसे सकारात्मक रूप में लेता हूँ । हर रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए फॉर्म की तलाश करता रहता है और जब वह उसे मिल जाता है तो उसी में रम जाता है । यही दुष्यंत कुमार ने ‘साये में धूप’ की रचनाओं तक पहुँचने में किया । शलभ श्रीराम सिंह, नरेश सक्सेना, सूर्यभानु गुप्त आदि सबने यह किया है । अभिव्यक्ति के दबाव के कारण ही तो उपन्यास, कहानी, लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि का जन्म हुआ । जिस फॉर्म में जो
सहज महसूस करता है उसे ही अंततः अपना लेता है । गीत लेखन वैसे भी कठिन साधना और लम्बे धैर्य की माँग करता है । संभव है कि कुछ लोग उससे बचते हुए अपेक्षाकृत कम साधना वाले पथ अपनाते होंगे । वैसे ज़हीर कुरैशी ने अपनी ग़ज़लों और दोहों में और इसी तरह सूर्यभानु गुप्त ने जो दोहे और ग़ज़लें लिखी हैं, उनमें नवगीत झाँकता दिख जाएगा अगर ग़ौर से देखें तो । कैलाश गौतम, यश मालवीय, विनय मिश्र ने भी तो यही किया है, इन सबमें नवगीत उपस्थित है । हाँ, कुछ लोग अवश्य हैं जो गीत से मुक्त होकर पूरी तरह ग़ज़लियत में समा गए ।
व्योम ः नवगीत के क्षेत्र में श्रीमति शांति सुमन, डॉ. यशोधरा राठौर, राजकुमारी ‘रश्मि’, मधु शुक्ला
आदि कुछ ही गिनी-चुनी महिलाओं ने अपना सम्मानजनक स्थान बनाया है, क्या कारण रहे
कि नवगीत सृजन में महिला रचनाकारों की संख्या पुरुषों की तुलना में काफी कम रही ?
मा.ति.: हिंदी साहित्य में, विशेष रूप से कविता के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति पुरुषों की अपेक्षा कम रही है । पुराने साहित्य में भी हमें मीरा, सहजोबाई, आलम जैसे कुछ ही नाम मिलते हैं । आधुनिक काल में भी तारापंत, महादेवी वर्मा, तोरनदेव लली, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, शकुन्तला सिरौठिया, स्नेह लता स्नेह जैसी अल्प संख्या में ही महिलाएं सक्रिय रही हैं । हाँ, गद्य में अवश्य यह संख्या बढ़ी है । इसलिये नवगीत में डॉ0 शांति सुमन, डॉ0 यशोधरा राठौर, राजकुमारी रश्मि, मधु शुक्ला जैसे यदि कुछ नाम ही उभरकर सामने आये तो चिन्ता की बात नहीं है । इनका लेखन अपने समकालीन पुरुष रचनाकारों के समानान्तर किस मज़बूती से खड़ा है, यह विचारणीय है । गीत घर से बाहर निकलकर ही लोगों के जीवन, अपने समकालीन समय को ठीक से जानने बूझने के बाद ही लिखा जा सकता है । गीत लेखन वातानुकूलित कमरों, सजे-धजे ड्राइंग रूमों, प्रभावशाली अध्ययन कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता । अपने गृहस्थ जीवन के दायित्वों को निभाते हुए एक आम भारतीय गृहणी घर से ज़्यादा से ज़्यादा बाज़ार तक ही जा सकती है। इससे उसे अपने लेखन की विषय वस्तु के चयन और उसकी उत्प्रेरक स्थितियों से साक्षात्कार सम्भव है । डॉ0 कीर्ति काले में भी व्यापक सम्भावनायें थी लेकिन बाजार ने उनके साथ भी काफी तोड़-फोड़ की । बाकी तो भीड़ भी है और भाड़ भी । लेकिन जो हैं बे मज़बूत कदम काठी, गहरी वैचारिकता से लैस सृजन में रत हैं, उनका सम्मान किया जाना चाहिये । नवगीत को भीड़ की नहीं समर्थ रचनाकारों की ज़रूरत है ।
व्योम ः गीत को केन्द्र में रखकर संकल्परथ, शिवम, उत्त्तरायण, समान्तर आदि अनेक पत्रिकाएँ
प्रकाशित हो रही हैं, हाल ही में इंटरनेट पर भी ‘गीत-पहल’ नाम से पूर्णतः गीत नवगीत
को समर्पित पत्रिका शुरू हुई है और ‘पूर्वाभास’, ‘सुनहरी क़लम से’, ‘छांदसिक अनुगायन’
आदि अनेक ब्लॉग्स भी है, इन प्रयासों से गीत के भविष्य को आप किस तरह देखते हैं ?
मा.ति. ः गीत केन्द्रित पत्रिकाएँ और इंटरनेट पर गीत-पहल ही नहीं कविता-कोश, सृजनगाथा,
अनुभूति सहित ब्लॉग्स- पूर्वाभास, सुनहरी क़लम से, आदि मेरे विश्वास के ही तो कारक
हैं ।
व्योम ः आपकी चार नवगीत कृतियाँ प्रकाशित हो चुकीं हैं और कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की बाट
जोह रही हैं, उक्त के अतिरिक्त आप द्वारा गद्य में भी आलेख आदि के रूप में पर्याप्त
मात्रा में महत्वपूर्ण सृजन किया गया है, कृतियों के प्रकाशन की आगामी योजना क्या है ?
मा.ति.: कविता संकलनों के प्रकाशन की स्थिति कभी भी सुखद नहीं रही । दुलारेलाल भार्गव जो निराला जी की कृतियों के एक प्रमुख प्रकाशक भी रहे, वे स्वयँ भी एक कवि थे लेकिन निराला जी का अनुभव उनके साथ भी बहुत सुखद नहीं रहा । प्रकाशन एक लम्बा चौड़ा व्यवसाय बन गया है । कोई अपनी कृति प्रकाशित कराना चाहता है तो उसे अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है । अगर कोई निजी तौर पर अपना संकलन छपवाता है तो उसके सामने व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचाने कोई तंत्र नहीं होता, फलतः अधिकांश पुस्तकें लोकार्पण में और मुफ़्त में बँट जाती हैं और बची हुई पुस्तकें कमरे का एक कोना घेरकर पड़ी निरीह भाव से ताकती रहती हैं । ऐसे में आगामी प्रकाशनों के विषय में क्या आश्वस्ति पाल सकता हूँ । हाँ, यह अवश्य है कि यदि प्रकाशन का सुयोग मिला तो पहले मैं अपने शेष गीत संग्रहों को प्राथमिकता दूँगा । गद्य का प्रकाशन बाद में होगा या नहीं भी होगा तो मुझे कोई चिंता नहीं है । मेरा काम है लेखन, वह बना रहेगा सिर्फ इस संबंध में विश्वासपूर्ण आश्वस्ति सौंप सकता हूँ ।
व्योम ः आपका विपुल सृजन और आपकी अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ किसी को भी आपसे
ईर्ष्याभाव रखने लिए उकसा सकती है, फिरभी ऐसा क्या है जो आपको लगता है कि अभी
करना बाक़ी है ?
मा.ति. ः सृजन का मूल्यांकन संख्या के आधार पर नहीं उसकी गुणात्मकता के आधार पर होना
चाहिए । यह गुणात्मकता निरंतर सृजनशीलता से ही पाई जा सकती है । रचना में ठहराव या जो रच चुके हैं उसी को उपलब्धि मान लेना आत्महत्या है । मुझे महसूस होता है कि अब तक मैंने जो लिखा है उससे कहीं ज़्यादा अभी अनलिखा ही रह गया है । संभवतः माहेश्वर तिवारी को जो और जैसा लिखना था, वह अभी नहीं लिख पाए हैं इसीलिए उसतक पहुँचने और उसे लिखने के क्रम में ही लिखना ज़ारी है । हर रचना एक उपलब्धि है लेकिन उससे आगे जो है उसे पाने तक लिखना है । हो सकता है इस जीवन में संभव न हो तो अगले जीवन में भी उसके लिए प्रयासरत रह सकूँ, यही कामना है । एक बड़ी कविता लिखना चाहता हूँ गीत के रूप में, कुछ प्रबंधात्मक भी और वह जब तक न मिल जाए लिखते रहना है ।
व्योम ः नवगीत के संदर्भ में नई पीढी की दशा और दिशा के विषय में आपका मत क्या है और
नई पीढी से नवगीत के भविष्य के प्रति आपकी अपेक्षाएँ क्या हैं ?
मा.ति. ः गीत-लेखन साधना की अपेक्षा रखता है । नए लोग शार्टकट अपनाना चाहते हैं इसीलिए
आज गीतकवि कम संख्या में सामने आ रहे हैं । एक समय तो यश मालवीय और विनोद श्रीवास्तव तक आकर लगा कि नवगीत लेखन की परंपरा ख़त्म हो गई लेकिन यशोधरा राठौर, योगेन्द्र ‘व्योम’, जयकृष्ण ‘तुषार’, आनंद ‘गौरव’, देवेन्द्र ‘सफल’, शैलेन्द्र शर्मा, आनंद तिवारी, अवनीश सिंह चौहान, मनोज जैन ‘मधुर’ की रचनाशीलता के रूप में फिर नवगीत की डालों में कल्ले फूटते नज़र आने लगे हैं । नई पीढी से अपेक्षा है कि वह चकाचौंध (ग़ज़ल, दोहा आदि) से निकलकर गीत से, नवगीत से जुड़कर अपनी भारतीय कविता की जड़ों की ओर लौटे । यह लौटना पीछे लौटना नहीं, ठहराव से निकलकर आगे बढ़ना होगा । कविता को उसकी अपनी ज़मीन से जोड़ना होगा ।
व्योम ः कृपया अपने जीवन का कोई रोचक संस्मरण सुनाइये ?
मा.ति. ः जीवन तमाम प्रसंगों से भरा है । इस समय एक प्रसंग याद आ रहा है - सुल्तानपुर
(उ.प्र.) के राजकीय इंटर कॉलेज में कविसम्मेलन था । संयोजक कथाकार स्व. गंगाप्रसाद मिश्र थे । उनसे मेरा पारिवारिक रिश्ता था । कविसम्मेलन में देर से पहुँचने के कारण जिन कपड़ों में था उन्हीं में सीधा मंच पर पहुँच गया ।मंच पर पहुँचते ही काव्यपाठ करना पड़ा । कविता पढ़कर मंच से उठकर चाय पीने के लिए आया । मैंनें कविसम्मेलन में अपना याद वाला गीत पढ़ा- ‘याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे/जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे’ । चाय पी रहा था तो एक वयोबृद्ध सज्जन पास आए और ऐसा सवाल कर बैठे कि उनकी आयु और प्रश्न सुनकर मैं चौंक गया । उन सज्जन ने बड़ी गंभीरता से कहा - ‘तिवारीजी, मेरी एक जिज्ञासा है’ मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया तो पूछ बैठे - ‘यह घटना कहाँ की है और यह किरन कौन है? क्या वह आपके साथ नहीं थी उस पहाड़ पर’ मैंने जैसे-तैसे उन्हें टाला, और जब कवि मित्रों से उसकी चर्चा की तो सभी ठहाका मारकर हंस पड़े ।
शनिवार, 18 जुलाई 2020
मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी-------दाग
" छोड़ दो मुझे , छोड़ दो , छोड़ो , छोड़ो " मधुरिमा की चीखें छत फाड़ रहीं थीं । दो - दो डाॅक्टर चार नर्सें माता - पिता ,भाई - भाभी सब मिलकर भी उसे संभाल नहीं पा रहे थे । उसके शरीर में दर्जनों घाव थे पर वो खुद पर काबू नहीं पाने दे रही थी । बार - बार उठकर बाहर की तरफ भागती थी । डाॅक्टर्स उसे नींद के इंजैक्शन्स दे - देकर थक गए थे । चारों नर्सों को सख्त हिदायत थी कि हर वक्त चौकन्ना रहें वरना जरा सा भी होश आते ही मधुरिमा फिर वहीं दोहराती थी । उसका बेहोश रहना ही फिलहाल सबको सही लग रहा था । पुलिस के दो कांस्टेबल पहरे पर थे । खुद कमिश्नर साहब चक्कर काट गए थे । अन्य पुलिसकर्मियों को सख्त हिदायत थी कि जब तक डाॅक्टर ना कहें बयान लेने की हड़बड़ी ना की जाए । मामला संगीन था और लड़की की हालत सुधर नहीं पा रही थी । माता - पिता , भाई - भाभी सब दो दिन से निराहार सूजी हुई आँखें लेकर अस्पताल में बैठे हुए थे ।
मैडिकल काॅलेज के फाइनल इयर की होनहार छात्रा थी मधुरिमा । जितना प्यारा नाम उतनी ही प्यारी शक्ल । विधाता ने रूप भी भरपूर दिया था । चुलबुली इतनी कि आते - जातों को हँसाती थी । कोमल ऐसी के हर किसी के दुख - दर्द को अपना कर उसे दिलासा देने लगती । पूरे घर की लाडली थी मधुरिमा । पर आज जिस हाल में थी आईना भी पहचानने से मना कर रहा था ।
शाम के लैक्चर के बाद थोड़ा सा धुंधलका हो गया था । बादल घिरते देख मधुरिमा ने बस की जगह आज आॅटो ले लिया । पाँच मिनट के अन्दर ही बारिश ने विकराल रूप ले लिया था । सड़कों की रौशनी गुल थी । मधुरिमा मोबाइल से लगातार घर पर बात कर रही थी । बताती जा रही थी कि वो जल्दी ही घर पहुँच जाएगी कि अचानक बात करते - करते उसे लगा कि आॅटो ड्राइवर भी फोन पर किसी से बात कर रहा था । कुछ दूर चलने के बाद आॅटो एक झटके से सड़क के किनारे रुका और दो आगे , दो पीछे एकसाथ चार पाँच लोग उसमें चढ़े । मधुरिमा के विरोध की आवाज बारिश के शोर में दब गई । जब तक वो संभलती आॅटो रफ्तार पकड़ चुका था और उसके दोनों तरफ बैठे आदमियों में से एक ने उसके मुँह पर अचानक रुमाल रख दिया था ।
अगली सुबह सड़क के किनारे पर औंधे मुँह बेहोश पड़ी मधुरिमा को कैसे किसी ने उठाया , अस्पताल पहुँचाया कुछ नहीं पता । कैसे रात भर अचानक उसके मोबाइल के डिस्कनैक्ट होते ही बेचैन माँ , पापा , भइया भाभी ने रात बिताई बयां करना बड़ा मुशकिल है । भइया दो चक्कर पुलिस चौकी के भी काट चुके थे पर कोई सुनवाई हो तब ना । और अब दो दिन से पुलिस पीछा ही नहीं छोड़ रही थी । जिसने बयान देना था वो तो बेहोश पड़ी थी तो उन्होंने परिवार की जान खा रखी थी । वो तो भला हो डाॅक्टर्स का जिन्होंने वार्ड के पास किसी के भी आने पर रोक लगा रखी थी ।
शरीर के घाव गहरे और पीड़ादायी थे पर अब मन पर जो घाव लगा था वो शायद नासूर बन जाने की हद तक भयानक और खतरनाक था ।
पर पाँचवें दिन मधुरिमा ने अपने डाॅक्टर से मिलने की इच्छा जाहिर की । वो और डाॅक्टर कमरे में करीब एक घंटे तक अकेले कुछ बातें करते रहे । बाहर आकर डाॅक्टर साहब ने सिर्फ इतना कहा " कोई डर नहीं , वो बहुत हिम्मती है ।" " बस आप लोग कोशिश करके थोड़ा नार्मल बिहेव ( बर्ताव ) करें । " और मधुरिमा को डिस्चार्ज मिल गया । घर आए अब उसे एक महीना हो गया था ।
मधुरिमा के परिवार वाले समझ ही नहीं पा रहे थे कि वो खुद का बर्ताव नार्मल कैसे रखें । जिनके घर की बेटी के साथ एक - दो नहीं कई दानवों ने दरिंदगी की हो वो सिर उठा कर बाहर कैसे निकलें ? समाज की नुकीली नजरों का सामना कैसे करें ? भइया आॅफिस नहीं जा पा रहा था । कोशिश करता पर तैयार होकर फिर घर बैठ जाता । पापा भी अब शाम को दूध लेने नहीं जाते थे । माँ ने मन्दिर जाना बन्द कर दिया था ।
पर एक दिन सुबह मधुरिमा तैयार होकर कमरे से बाहर आई और बोली " माँ - पापा मैं काँलेज जा रही हूँ । " तो सारा परिवार सन्न रह गया । किसी को भी ये उम्मीद नहीं थी कि इतने बड़े हादसे के बाद मधुरिमा काॅलेज जाएगी । उसकी माँ सुबक उठी " बच्चे अब जीवन भर का दाग लग गया तुझ पर , क्या मुँह लेकर बाहर निकलेगी । " " कैसे सामना करेगी दुनिया का ।" " तेरी इज्जत की तो धज्जियाँ उड़ा दीं हैं उन दरिंदों ने ।"
" नहीं माँ , कुछ नहीं हुआ है ऐसा ।" मधुरिमा ने बड़े शांत भाव से जवाब दिया " माँ मुझपर कोई दाग नहीं लगा है । " " मैं अब भी वैसी ही हूँ जैसी पहले थी ।" " मेरे साथ जो हुआ वो एक दुर्घटना थी बस ।" " जैसे बाकियों के साथ ऐक्सिडैंट होता है मेरे साथ भी हुआ " " जैसे सबका शरीर जख्मी होता है वैसे ही मेरा भी हुआ " " फर्क क्या है माँ ? " " जैसे सबके घाव भरते हैं मेरे भी भर गए । " " रही बात उन दरिंदों की तो पुलिस अपना काम कर रही है ।"
" किसी इन्सान की इज्जत उसकी शख्सियत से होती है माँ, उसके संस्कारों और परवरिश में छुपी होतीं है ।" " किसी भी दुर्घटना में हुए अंग-भंग से इज्जत का कोई लेना- देना नहीं है ।"
" मेरा फाइनल इयर है माँ , बचपन से लेकर आज तक मैंने जो मेहनत करी है , एक सफल डाॅक्टर बनने का जो सपना देखा है उसे मैं एक हादसे की वजह से मिट्टी में नहीं मिला सकती । " " चन्द पाशविक पुरुषों का शारीरिक अत्याचार मेरे अन्तर्मन की प्रेरणा को हरा नहीं सकता , मुझे अपने सपने को हर हाल में पूरा करना है ।" " दाग तो समाज की मानसिकता पर लगा हुआ है माँ , मुझपर नहीं ।" " और समाज की मानसिकता पर लगे दाग तभी मिटेंगे जब हम खुद को दोषी ना मान कर आगे बढ़ेंगे ।"
मधुरिता का चेहरा उत्तेजना से लाल हो गया था । तभी उसके पिता ने उठकर उसका कंधा थपथपा दिया और बोले " जाओ बेटा वरना क्लास के लिए लेट हो जाओगे ।"
मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की लघु कथा----------- भूमिका
काफ़ी देर से आवाज आ रही थी ....तभी कॉलोनी के गेट से भागता हुआ बांच मेन आया ... समझ नहीं आ रहा था आवाज कहां से आ रही है... सहसा दो मंजिले की छत से लटकता हुआ एक बच्चा दिखाई दिया... उसके ऊपर उसकी वांह पकड़े हुए एक बच्ची दिखाई दी ..... जो लगातार चीख रही थी बच्चे को पकड़े हुए बच्ची खुद लटक चुकी थी उसका हाथ पकड़े- पकड़े बच्ची का हाथ थक गया था हाथ से बच्चा अब छूटने ही वाला था... बस कुछ ही पलों में दोनों बच्चे नीचे गिर पड़ेंगे....
वाचमेन ने लपक कर सीढ़ी लगाई और दोनों बच्चों जो कि भाई बहन थे .... चढ़ कर संभाल लिया...हे भगवान तूने अनर्थ होने से बचा लिया तभी बच्चों की मम्मी अनीता जो कि बाथ रूम में थी भी दौड़ कर पहुंच गई....!!
,, भूमिका!,, बेटी तूने आज बचा लिया !!हे प्रभू ! तेरी माया वरना चार साल की बच्ची की औकात ही क्या ? इतनी ताकत कहां !"
सब उसी का प्रताप है ।
भूमिका ने अपने भाई अंकुर को बचा लिया था !!
आज उस घटना को 35 साल हो गए दोनों बच्चे बड़े होकर डॉक्टर बन चुके हैं दोनों के बच्चे हैं..... परंतु जीवन में कुछ घटनाएं पत्थर की लकीर की तरह छप जाती हैं
आज भी उस घटना को सोच कर ही अनीता का मन कांप जाता है ... ज़रा सी बच्ची ने कितना साहस दिखाया इसलिए अनीता आज भी उसकी हिम्मत को दाद देती है .....
अशोक विद्रोही
82 18825 541
412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा -------काश कि तुम माँ बन पातीं !
"मम्मी जी आज सिर में बहुत दर्द हो रहा है ,रात निमित ने सोने नहीं दिया ,उसको बहुत सर्दी हो रही है न !"अदिति ने कमरे से निकलते ही सास का फूला हुआ मुँह देखते ही सफाई दी l
"अब जल्दी जल्दी काम निपटा लो ....इनको ऑफिस और संजू को कॉलिज भी जाना है l"सास ने फरमान सुनाया l
"और मुझे स्कूल जाना है और निमित को स्कूल छोड़कर आना है ...सारा काम निपटाने के बाद ...यह तो बस मै ही जानती हूँ l"अदिति ने मन ही मन कहा और लग गयी फ़टाफ़ट काम करने में l एक सवाल मन में आया कि अगर मेरी मायके वाली मम्मी होतीं तो क्या ऐसे ही कहतीं ?
इतने में निमित जाग गया l
"सुनिए ....ज़रा इसको दूध बना देना मैं नहाने जा रही हूँ l"अदिति ने पति अभिषेक को जगाते हुए कहा और कहकर जैसे ही बाहर आई सास ने रोक लिया l
"बहु अभिषेक को सोने दिया करो देर तक, थक जाता है ऑफिस में l"
अदिति ने कुछ नहीं कहा बस नहाने चली गई l
सुनकर दिल भर आया l
"अभी तक नाश्ता नहीं बना मम्मी ...मैं कॉलिज के लिए लेट हो रहा हूँ ,?"देवर संजू ने गुस्से से कहा , ससुर जी भी आकर डाइनिंग टेबल पर बैठ गए l
इधर निमित चिड़चिड़ा रहा था तबीयत ठीक नहीं थी l
अदिति ने जल्दी जल्दी नाश्ता कराया सबको और खुद भी तैयार होने लगी l
"सुनिए आप तो लेट जाएंगे ,ज़रा निमित को डॉक्टर को दिखा देना l इसकी तबीयत ठीक नहीं है l"अदिति ने पति से कहा l
"निमित की तवीयत ठीक नहीं है तो मत जाओ स्कूल ,तुम ही दिखा लाना l"अभिषेक ने हाथ पौंछते हुए कहा l
"लेकिन क्या बहु ....एक दिन नहीं जाओगी तो स्कूल बंद थोड़े ही हो जाएगा ...इसको तो ऑफिस में बहुत सुननी पड़ती है एक दिन की भी छुट्टी होने पर l"सास ने सफाई दी l
"मेरी स्कूल में आरती उतारी जाती है क्या ?"अदिति ने खुद से प्रश्न किया l
राशि सिंह
मुरादाबाद उत्तर प्रदेश
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी रवि प्रकाश की कहानी ------खुशी के आँसू
युवावस्था के प्रारंभ में ही इस प्रकार की अनहोनी जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है। राधिका के साथ भी यही हुआ । नौकरी लगी ही थी कि एक शाम कालेज से लौटते समय उसके साथ कुछ गुंडों ने जो बलात्कार किया, उसने उसके जीवन को ही मानो पत्थर बना कर रख दिया।
राधिका अस्पताल में गुमसुम बैठी रहती है । न कुछ बोलती, न सुनती है। शरीर की हलचल ही मानों समाप्त हो गई हो। राधिका की माँ यह देख कर बहुत दुखी थी । दुख इसलिए भी था कि घटना के तुरंत बाद जिस लड़के से राधिका की शादी तय हुई थी, उसकी माँ का दो टूक जवाब आ गया -"ऐसी बदनाम लड़की से हम अपने लड़के की शादी करके क्या करेंगे ? हम यह रिश्ता तोड़ते हैं ।"
बस इसी बात की कमी रह गई थी । राधिका की माँ मुँह से अपनी बेटी को यह बात बताती , लेकिन कमरे में जैसे ही पीछे मुड़ीं, उन्होंने देखा कि राधिका रो रही थी। उसने सारी बात सुन ली थी । यह राधिका की अंतिम सुगबुगाहट थी । फिर उसके बाद वह कभी नहीं रोई।
घटना को धीरे धीरे चार दिन बीत गए। डॉक्टरों ने स्पष्ट कह दिया कि या तो इस लड़की को रुलाओ या फिर इसे परिस्थितियों को झेलने के लायक बनाओ। वरना यह मर जाएगी ।
अनहोनी एक के बाद दूसरी भी हो जाती हैं ।कुछ ऐसा ही इस बार भी हुआ । जिस लड़के से राधिका की शादी तय हुई थी और जिसकी माँ ने रिश्ता तोड़ दिया था, इस बार खुल उस लड़के का फोन राधिका की माँ के पास आया । कहने लगा -"मैं बहुत शर्मिंदा हूँ। रिश्ता टूटना नहीं चाहिए था। किसी के अपराध की सजा किसी दूसरे निरपराध को क्यों मिलनी चाहिए ? अपराधियों ने किया ,सजा उन्हें मिलनी चाहिए । राधिका तो मासूम है । उसे तो यह भी नहीं पता कि यह संसार कितना क्रूर और पाशविक हो चुका है।"
फोन पर बात करते करते ही राधिका की माँ ने फोन बेटी के हाथ में पकड़ा दिया और आश्चर्य देखिए , वह राधिका जो पिछले चार दिन से पत्थर बनी बैठी थी ,न जाने कैसे अब उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी । माँ ने महसूस किया कि यह खुशी के आँसू हैं। उसे लगने लगा कि अब सब ठीक हो जाएगा ,क्योंकि जहाँ नासमझ लोगों की कमी नहीं है, वहीं समझदार लोग अभी भी दुनिया में जीवित हैं।
रवि प्रकाश
बाजार सर्राफ़ा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
_मोबाइल 99976 15451_
राधिका अस्पताल में गुमसुम बैठी रहती है । न कुछ बोलती, न सुनती है। शरीर की हलचल ही मानों समाप्त हो गई हो। राधिका की माँ यह देख कर बहुत दुखी थी । दुख इसलिए भी था कि घटना के तुरंत बाद जिस लड़के से राधिका की शादी तय हुई थी, उसकी माँ का दो टूक जवाब आ गया -"ऐसी बदनाम लड़की से हम अपने लड़के की शादी करके क्या करेंगे ? हम यह रिश्ता तोड़ते हैं ।"
बस इसी बात की कमी रह गई थी । राधिका की माँ मुँह से अपनी बेटी को यह बात बताती , लेकिन कमरे में जैसे ही पीछे मुड़ीं, उन्होंने देखा कि राधिका रो रही थी। उसने सारी बात सुन ली थी । यह राधिका की अंतिम सुगबुगाहट थी । फिर उसके बाद वह कभी नहीं रोई।
घटना को धीरे धीरे चार दिन बीत गए। डॉक्टरों ने स्पष्ट कह दिया कि या तो इस लड़की को रुलाओ या फिर इसे परिस्थितियों को झेलने के लायक बनाओ। वरना यह मर जाएगी ।
अनहोनी एक के बाद दूसरी भी हो जाती हैं ।कुछ ऐसा ही इस बार भी हुआ । जिस लड़के से राधिका की शादी तय हुई थी और जिसकी माँ ने रिश्ता तोड़ दिया था, इस बार खुल उस लड़के का फोन राधिका की माँ के पास आया । कहने लगा -"मैं बहुत शर्मिंदा हूँ। रिश्ता टूटना नहीं चाहिए था। किसी के अपराध की सजा किसी दूसरे निरपराध को क्यों मिलनी चाहिए ? अपराधियों ने किया ,सजा उन्हें मिलनी चाहिए । राधिका तो मासूम है । उसे तो यह भी नहीं पता कि यह संसार कितना क्रूर और पाशविक हो चुका है।"
फोन पर बात करते करते ही राधिका की माँ ने फोन बेटी के हाथ में पकड़ा दिया और आश्चर्य देखिए , वह राधिका जो पिछले चार दिन से पत्थर बनी बैठी थी ,न जाने कैसे अब उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी । माँ ने महसूस किया कि यह खुशी के आँसू हैं। उसे लगने लगा कि अब सब ठीक हो जाएगा ,क्योंकि जहाँ नासमझ लोगों की कमी नहीं है, वहीं समझदार लोग अभी भी दुनिया में जीवित हैं।
रवि प्रकाश
बाजार सर्राफ़ा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
_मोबाइल 99976 15451_
मुरादाबाद की साहित्यकार निवेदिता सक्सेना की कहानी-------- सीख
नीरजा रसोई के काम में व्यस्त थी , मां मौसी का फोन है ,,बेटे ने आवाज दी,,
फोन लेते ही जल्दबाजी में नीरा बोली " हां बता क्या हाल है,,, उधर से भर्राई हुई आवाज में वसुधा थी , ,"हाल ठीक नहीं है,, कल से दिमाग खराब है .!
अरे क्या हुआ नीरजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा!
कुछ नहीं गौरव कल रात जब से आए हैं तब से कमरे में बंद है उन्हें करोना होने का शक है और मैं भी अलग । फिर भी मुझे बहुत घबराहट हो रही है, शायद हम दोनों को करोना हुआ लग रहा है। मुझे तो बहुत घबराहट हो हो रही है कहते कहते वसुधा सबुकने लगी ।
ओह माय गॉड ,!!!घबराते हुए नीरजा ने कहा ,,गौरव कैसे हैं! बस ठीक ही है गले में काफी तकलीफ है।
गौरव वसुधा के पति एक प्रतिष्ठित डॉक्टर और बहुत ही सज्जन और अच्छे इंसान ।
वसु छोटी बहन जरूर है पर नीरजा से कम ही बनती है स्वभाव से नकचडी और सनकी,,,, पर बड़े होने के नाते नीरा थोड़ा-थोड़ा बरदाश्त कर लेती है ।
वसुधा के इसी स्वभाव के कारण सास के साथ उसकी पटरी नहीं बैठी, और तीन-चार साल के बाद गौरव को लेकर अलग घर में रहने लगी। नीरा ने समझाया कि यह ठीक नहीं है गौरव अपने माता-पिता के अकेले बेटे हैं , तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए ।अगर थोड़ा बर्दाश्त करो दोनों लोग तो स्थिति संभल सकती है ,,,,पर नहीं सास में कुछ ज्यादा ही तेजी थी। तो अलग रहना ही वसुधा ने ज्यादा उचित समझा ।
इस वजह से पापा भी 2 महीने से उससे नाराज थे और बात नहीं कर रहे थे वसु से ।
जय कहां है ,,,,नीरा ने पूछा ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,उसे तो रात ही गौरव के पापा आ कर ले गए थे ।
चलो यह अच्छा रहा ,,पता किया ठीक वो,
वो तो ठीक है, पर मुझे रात भर नींद नहीं आई तो मैं सोच सोच के पागल हुई जा रही हूं ,,कि कुछ खा पी रहा होगा या नहीं ,,,
कहते कहते वसु सिसकी भर रोने लगी ।
जब से कल से वह गया है तब से मुझे नींद नहीं आई है। समझ नहीं आ रहा कैसे रहूं मै उसके विना और ये भी नहीं पता कि कितने दिन लगेंगे हमे ठीक होने में ?
अरे इतना परेशान क्यों हो रही हो ,अपने दादी दादा जी के पास है वो तो तुझसे भी ज्यादा अच्छे से रखेंगे उसे ।सब कुछ ठीक हो जाएगा ।चिंता न कर पागल चुप जा ऐसे ही न मर जाएगी तू ।नीरा ने उसे हसाने की कोशश की ।
चेकअप करवा लिया , बिना उसके सोच रही हो सिर्फ सर्दी जुकाम और बुखार से करोना थोड़ी ना हो जाता है। इत्मीनान रखो सब कुछ ठीक निकलेगा । नीरा समझा रही थी ।
वह तो सब ठीक है पर मुझे बहुत चिंता हो रही है मैंने दो-तीन बार वीडियो कॉल कि मुझसे बात ही नहीं कर रहा है खेल में लगा हुआ है वह तो वहां पर बहुत खुश है । मुझसे बात भी नहीं कर रहा अपनी दादी के साथ कितना खुश है।
वसु की बात से नीरा का मन दुखी बहुत हो रहा था पर एकदम जाने क्यों गुस्सा भी आया। और उसने अपना गुस्सा बहन पर निकाल ही दिया ,,
एक रात में अपने बेटे को उसके दादा दादी के पास छोड़कर तुम्हें रात भर नींद नहीं आई ,वो वहां खुश है तो भी तुम्हे दुख है की वो कहीं उन्हीं का ना हो जाए, हैं ना,,।
क्या तुमने कभी गौरव मम्मी पापा के लिए सोचा वह अपने बेटे के बगैर कैसे रह रहे होंगे, एक बार सोच कर देखो जैसे तुम्हारा बेटा अकेला है। उनका भी एक बेटा गौरव ही हैं ।
कितना प्यार करती हो अपने 2 साल के बच्चे को उसके एक दिन दूर होने पर पागल हुई का रही हो अपने 30 साल के बेटे को पाल पोस कर जिसने बड़ा किया वो आज उनसे दूर है ।
नीरा विना रुके बोले जा रही थी । हर रिश्ते को अपने आप से जोड़ कर देखो तब उस रिश्ते का महत्व पता चलेगा अगर तुमने एक बार भी सोचा कि उनके मां बाप अपने बेटे के बगैर कैसे रहते होंगे । तो तुमने अलग रहने की यह बात अपने मन में लाई ही नहीं होती,, कि मैं अलग रहूं। बदलना तो तुम्हें था क्योंकि तुम उनके परिवार में आई हो वह तीन लोग तुम्हारे वजह से थोड़ी ना बदलेंगे तुम उन 3 लोगों की वजह से अपने आप को बदलो अपना बेटा सबको प्यारा होता है सोच कर देखो ,,,
बच्चे के प्यार का उम्र से कोई नाता नहीं होता। मां बाप अपने बच्चे को हर उम्र में इतना ही प्यार करते हैं। मेरी बात पर विचार करना । कह कर नीरा ने फोन काट दिया।
निवेदिता सक्सेना
मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार विभांशु दुबे विदीप्त की कहानी -----दलील
जस्टिस भंडारी को सुबह सुबह ही एक महत्वपूर्ण मामले में सुनवाई हेतु नियुक्त किये जाने का आदेश मिला। उनका अर्दली रामभरोसे बाहर नियुक्ति के आदेश और मामले से जुड़े दस्तावेजों के साथ खड़ा था। महामारी के चलते जस्टिस भंडारी यदा कदा ही न्यायालय जाते हैं। घर से ही ऑनलाइन मामलों की सुनवाई करते हैं, बहुत अधिक गंभीर मामलों के लिए ही वो न्यायालय जाते हैं। जस्टिस भंडारी, जी हाँ जस्टिस निर्मल चंद्र भंडारी जो कि भारत की उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ के विशेष न्यायाधीशों में से एक हैं। वरिष्ठता और कार्य कुशलता के कारण सभी उनका सम्मान करते हैं। चाय की मेज पर मामले की फाइल पढ़ते हुए जस्टिस भंडारी के मुख पर एक तिरछी मुस्कान खिंच गयी थी। उनके स्टेनो विकास ने उनसे पूछा,'सर, क्या इस केस को भी ऑनलाइन सुनवाई के लिए चिन्हित कर दूँ?'
'नहीं विकास, ये मामला तो न्यायालय में ही सुनने योग्य है। इस विषय के दोनों पक्षों को प्रत्यक्ष रूप से सुने बिना इस मामले की वास्तविक गंभीरता समझ नहीं आएगी। इसके दोनों पक्षकारों को तारीख दे दो और प्रत्यक्ष सुनवाई के लिए प्रेषित कर दो', जस्टिस भंडारी विकास को यह कहकर तैयार होने चले गए।
दोपहर के भोजन के बाद जस्टिस भंडारी पुनः उस मामले को विस्तार से पढ़ने के लिए बैठे। यह एक स्वतंत्र याचिका थी जो कि एक अधिवक्ता ने दाखिल की थी। इसका शीर्षक था, 'महामारी के कारण देशभर के स्कूल और शैक्षणिक संस्थान आगामी एक सत्र के लिए बंद किये जाने के सम्बन्ध में'। यूँ तो देश का संविधान हर किसी को अपनी किसी भी समस्या के लिए न्यायालय जाने के लिए स्वतंत्रता देता है, परन्तु इस सुविधा के चक्कर में कई बार बेफिजूल की याचिकाएं अदालतों का समय बर्बाद करती हैं। कई बार झूठी प्रशंसा और समाचारों का पर्याय बनने के उद्देश्य से अनूठी और बेकार की याचिकाएं बेवजह न्यायालयों पर भार बढ़ाती रहती हैं। इनका कोई मूल उद्देश्य तो होता नहीं और इनके चक्कर में अन्य उपयोगी मामले लंबित हो जाते हैं। खैर, केस की फाइल पढ़ते पढ़ते कब रात हो गयी, पता ही नहीं चला। मिसेज भंडारी ने जब रात के भोजन के लिए जस्टिस भंडारी को आवाज दी तब जाकर उनकी चेतना टूटी। भोजन करते करते मिसेज भंडारी ने पूछ ही लिया, 'क्या कोई नया अनूठा केस है? बड़ी तल्लीनता के साथ पढ़ रहे हो'। 'स्वतंत्र याचिकाएं तो अक्सर अनूठी ही होती हैं। यह मामला अनूठा तो है लेकिन साथ ही साथ थोड़ा गंभीर भी है', जस्टिस भंडारी ने जवाब दिया।
'ऐसा क्या हैं इसमें?' मिसेज भंडारी ने उत्सुकता वश पूछा। 'कोरोना की वजह से एक साल तक स्कूल बंद करने की याचिका है', जस्टिस भंडारी ने जवाब दिया जिसे सुनकर पहले तो मिसेज भंडारी थोड़ा चौंक गयीं, फिर थोड़े समय बाद उन्होंने एक तिरछी मुस्कान देते हुए पूछा 'ओह, तो मतलब अब स्कूल एक साल के लिए बंद किये जायेंगे?' 'ये तो आप फैसला सुना रही हैं, मैंने भी अभी तक निर्णय नहीं किया है', जस्टिस भंडारी ने कहा।
'अब ये तो आप ही जाने जज साहब, आपको क्या करना है क्या नहीं, लेकिन मुझे इस विषय में रुचि अधिक है। मुझे प्रतिदिन इस केस की सुनवाई के बारे में बताइयेगा जरूर'। यह बोलकर मिसेज भंडारी काम निपटाने रसोईघर में चली गयीं।
अगले दिन प्रातः तैयार होकर जस्टिस भंडारी कोर्ट पहुंचे। महामारी के चलते सिर्फ मामले से जुड़े पक्षकार, अधिवक्ता और कर्मचारी ही उपस्थित थे। याचिकाकर्ता खुद एक अधिवक्ता, सुरेन्द्रनाथ तिवारी थे। अधेड़ उम्र के एक अधिवक्ता, जिनकी ख्याति कुछ खास नहीं थी। वे अपने अतरंगी अंदाज और अनोखी याचिकाओं के लिए जाने जाते थे। हालाँकि उनको कई बार उनकी इन्ही अनोखी याचिकाओं के लिए कोर्ट से फटकार लग चुकी थी। लेकिन उनका यही अंदाज उनकी ख्याति का कारण था। इस पक्ष में दूसरी तरफ अधिवक्ता थे सुधांशु चतुर्वेदी, एक युवा लेकिन तेज तर्रार अधिवक्ता जो हाल ही में विधि में परास्नातक की शिक्षा पूरी कर सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता सत्येंद्र नाथ चौबे के निर्देशन में कार्य कर रहे थे। खैर, अदालत की कार्यवाही शुरू हुई, जस्टिस भंडारी ने कोर्ट रूम में पहुँच अपना स्थान ग्रहण किया। औपचारिकताएं जांचने के बाद बहस और दलीलों का दौर शुरू हुआ। सबसे पहले जस्टिस भंडारी ने मुख्य याचिकाकर्ता तिवारी को अपना पक्ष रखने के लिए कहा। तिवारी जी बड़े ही जोश और उमंग के साथ खड़े हुए जैसे मानो वो एक ही दलील में केस जीत लेंगे। रौबदार तरीके से चलते हुए वो अपनी जगह तक पहुंचे और फिर उन्होंने शुरू किया, 'योर ऑनर, हम इस समय इस वक़्त की सबसे बड़ी भयंकर समस्या से दो चार हो रहे हैं। इस महामारी ने अपनी चपेट में पूरे विश्व को ले लिया है और हमारा सामान्य जीवन इससे प्रभावित हुआ है। इस महामारी के प्रकोप से बचने के लिए पिछले कई महीने से देश भर में लॉकडाउन किया गया था, जो कि अब समय के साथ धीरे धीरे खोला जा रहा है। बंद उद्योग खोले जा रहे हैं ,बाजार खोले जा रहे हैं, कार्यालय खोले जा रहे हैं लेकिन हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि खतरा अभी भी कम नहीं हुआ है। संक्रमण का खतरा अभी भी बना हुआ है, और विशेषतौर पर बच्चों के लिए ये खतरा बना हुआ है, और इसी के मद्देनजर मैं जनहित में देश के सभी शिक्षण संस्थानों को आगामी पूरे सत्र के लिये बंद किये जाने की मांग करता हूँ ' इसी के साथ एडवोकेट तिवारी ने अपनी याचिका की प्रस्तावना को अदालत के सामने व्यक्त किया।
याचिकाकर्ता का पक्ष सुनने के बाद जस्टिस भंडारी ने बचाव पक्ष के अधिवक्ता को अपना पक्ष रखने को बोला।
सुधांशु बड़े ही अदब और सलीके के साथ खड़ा हुआ , उसने आँखों से जस्टिस भंडारी को अभिवादन किया और फिर उसने शुरू किया, ' योर ऑनर , मेरे काबिल दोस्त ने महामारी के प्रभावों का बड़ी ही कुशलता से वर्णन किया है। ये बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि इस महामारी ने हमारे जनजीवन को बहुत प्रभावित किया है। संक्रमण का खतरा निश्चित ही बना हुआ है और बच्चों के प्रति उनकी इस सुरक्षा भावना का मैं निश्चित ही सम्मान करता हूँ। वाकई ये समस्या जटिल है कि ऐसे वक्त में जबकि हम अस्त व्यस्त जीवन को पुनः पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं ऐसे वक्त में संक्रमण के खतरे के साथ परिस्थितियों को सामान्य कैसे किया जाये? उसमें भी याचिकाकर्ता पक्ष की तरफ से ऐसी याचिका जो सबकुछ सामान्य होने की राह में रोड़ा अटकाने जैसा है। हमने पिछले तीन महीनों में काफी कुछ सीखा है मीलॉर्ड, और उसमें से एक चीज ये भी कि हमें हार नहीं माननी है। हमें एक दूसरे का साथ देते हुए फिर से एक बार खड़े होना है। लेकिन मुझे अफ़सोस है कि मेरे काबिल दोस्त शिक्षा जैसी मूल आवश्यकता पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कर रहे हैं। वे स्कूलों को आगामी सत्र के लिए बंद करने की बात कर रहे हैं जबकि ऐसे वक़्त में हमें शिक्षा और ज्ञान ही इस बुरे वक्त से निकाल सकता है। इससे न केवल छात्रों का भविष्य संकट में पड़ जायेगा बल्कि अनेक लोगों की जीविका पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा , लिहाजा शिक्षण संस्थानों को सत्र भर के लिए बंद करना कतई उचित नहीं होगा'।
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद जस्टिस भंडारी ने मामले की बहस जारी रखने के लिए अगली तारीख दे दी। केस स्वीकार कर लिया गया था। शाम को खाने के वक़्त मिसेज भंडारी ने जस्टिस भंडारी से उत्सुकतावश पूछा, 'कैसा रहा पहला दिन? क्या केस स्वीकार किया गया?' ' हाँ , कल से इस पर बहस होगी', जस्टिस भंडारी ने जवाब दिया। 'क्या लगता है आपको, फैसला किस ओर जायेगा?' मिसेज भंडारी ने पूछा। 'ये अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन हाँ इसकी दलीलें जरूर दिलचस्प होंगी, क्यूंकि इस मामले में ज्यादा कानूनी दांवपेंच नहीं हैं। ठोस दलील के बलबूते ही इसका निर्णय किया जायेगा', जस्टिस भंडारी ने कहा।
अगले दिन की कार्यवाही के लिए सभी पक्षकार उपस्थित हुए। याचिकाकर्ता अधिवक्ता तिवारी ने अपनी याचिका के समर्थन में कई शोध आख्याएँ प्रस्तुत कीं। वहीँ बचाव पक्ष के अधिवक्ता सुधांशु ने भी कई साक्ष्य अपने तर्क के समर्थन में दिए। अब समय था मुख्य बहस का, जो कि मध्यावकाश के बाद होनी थी। भोजनावकाश के बाद तिवारी जी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा ,' योर ऑनर, इन शोध आख्याओं से स्पष्ट है कि स्कूलों के खोले जाने के बाद बच्चों में संक्रमण और तेजी से फैलेगा, लिहाजा बच्चों की सुरक्षा की दृष्टि से स्कूलों को आगामी सत्र के लिए बंद किया जाए'।
अब बचाव पक्ष ने अपना कथन दिया,'मीलॉर्ड,बेशक बच्चों के लिए संक्रमण का खतरा है, लेकिन मैं याचिकाकर्ता से पूछना चाहता हूँ कि क्या स्कूलों को बंद किया जाना इसका विकल्प है? क्या इससे बच्चों के भविष्य का खतरा नहीं हो जायेगा?' बीच में ही तिवारी जी कूद पड़े 'योर ऑनर शायद बचाव पक्ष के अधिवक्ता ये भूल रहे हैं कि ऑनलाइन पटल पर पढाई जारी है और ये पूरे सत्र के लिए भी जारी रह सकती है। आखिर ये तकनीकी युग है और ऑनलाइन पढ़ने से बच्चों के मानसिक विकास में भी वृद्धि हो रही है'। सुधांशु ने बेबाकी से इसका कटाक्ष किया, 'बेशक ऑनलाइन पटल पर पढ़ाई हो रही है लेकिन ये कितना प्रभावी है क्या मेरे काबिल दोस्त इस बात पर गौर फरमाना चाहेंगे? योर ऑनर हर वर्ग, हर व्यक्ति की अपनी तार्किक क्षमता व अपना बौद्धिक विकास होता है। ऑनलाइन पटल वर्तमान के लिए एक अस्थायी विकल्प है लेकिन ये परम्परागत स्कूली पढाई का स्थान नहीं ले सकता। ऑनलाइन पढाई से पाठ्यक्रम पूरा किया जा सकता है इसमें कोई दोराय नहीं है, लेकिन महोदय ऑनलाइन पढ़ाई से शिक्षा के वास्तविक अर्थ की पूर्ति किसी तरह से भी संभव नहीं है। मेरे काबिल दोस्त शायद भूल रहे हैं इसीलिए मैं उनके साथ साथ आप सबको ये बताना चाहता हूँ की स्कूल सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा करने का स्थान नहीं है, बल्कि ये एक बच्चे के सर्वांगीण विकास का द्वितीय चरण है मीलॉर्ड। एक बच्चा जब स्कूल में प्रवेश लेता है तो उसे सबसे पहले पाठ्यक्रम नहीं बल्कि नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। स्कूल एक परिवेश देता है, एक स्वस्थ वातावरण प्रदान करता है जहाँ शिक्षक उसके अभिभावक की तरह उसके विकास का उत्तरदायित्व सम्हालता है। स्कूल में सिर्फ किताबें नहीं पढ़ाई जातीं, बल्कि वहां बच्चे को अपने सहपाठियों से लेकर अपने बड़ों तक के साथ किस तरह का व्यव्हार करना है, शिष्टाचार और मुख्यतः अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता है। जब किसी छोटे बच्चे को कोई पाठ समझ नहीं आता तब शिक्षक उसे विभिन्न प्रकार के अन्य कलापों द्वारा समझाता है। मेरे काबिल दोस्त यदि ये बता पाएं कि इनमें से एक भी कार्य ऑनलाइन पटल के माध्यम से पूर्ण हो सकता है तो बेशक स्कूलों पर ताला लगा दिया जाये'।
सुधांशु की इस दलील के आगे तिवारी जी के पास कोई उत्तर न था, किन्तु अपने तर्क के समर्थन में कुछ तो कहना ही था तो वो बोले, 'यानि आपका तर्क है कि बच्चों के जीवन का कोई मोल नहीं?' सुधांशु ने इस बार समाधान की दलील पेश की, 'बेशक बच्चों का जीवन कीमती है, बल्कि अभी कुछ समय तक शायद स्कूलों को बंद ही रखा जाये, किन्तु उन्हें पूरी तैयारी और सावधानी के साथ निश्चित समय पर खोला जा सकता है। सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम के साथ। बजाय इसके कि हम अपने बच्चों को डर के घर में छुपना सिखाएं, हमें उन्हें जागरूक करना चाहिए, कैसे वो सामाजिक दूरी बनाये रख सकते हैं वो सिखाना चाहिए। साथ ही सरकार को चाहिए कि वे दिशा निर्देश निर्धारित करें और स्कूलों को सलीके से खोलने के इंतजाम करे लेकिन एक सत्र के लिए स्थगन कोई तर्क सम्मत विचार नहीं। मैं आपसे ही पूछता हूँ कि यदि आपके शरीर के किसी एक अंग में कोई रोग हो जाये तो आप उस रोग का इलाज करेंगे या उस अंग को काटकर कुछ दिनों के लिए रख देंगे? शिक्षा हमारे समाज का अभिन्न अंग है और हमें ऐसे कठिन समय में इसके सुधार पर चर्चा करनी चाहिए'। तिवारी जी ने फिर चाल चली, 'अधिवक्ता महोदय, दलील तो बहुत दे दी, लेकिन अदालत ठोस सबूत मांगती है '।
सुधांशु ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ' बिलकुल, सुबूत है, मीलॉर्ड मैंने जो साक्ष्य अदालत में दाखिल किये हैं उनमें सबसे पहले है बेसिक शिक्षा विभाग की आख्या, जो ये स्पष्ट कहती है कि उनके लिए ऑनलाइन पटल कारगर नहीं क्यूंकि प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के पास ऑनलाइन शिक्षा के साधन उपलब्ध नहीं हैं। साथ ही एक अन्य शोध आख्या है जिसके अनुसार छोटे बच्चों को ऑनलाइन पटल से पढ़ने में सबसे अधिक दिक्क्तों का सामना करना पड़ रहा है । निजी स्कूल के कई शिक्षकों को आधा वेतन और उनके कर्मचारियों को वेतन विहीन रहना पड़ रहा है। मीलॉर्ड आख्या ये भी बताती हैं कि ऑनलाइन पटल की शिक्षा छोटी कक्षाओं के लिए प्रभावी नहीं है। यहाँ तक की सुरक्षा उपकरणों के साथ स्कूलों का खोला जाना अन्य कई देशों में भी संभव हुआ है। और ये सब उन आख्याओं में वर्णित है जो कि अदालत में दाखिल की गयीं हैं'। इसके बाद तिवारी जी के पास बोलने को न ही कोई दलील बची थी और न ही पेश करने को कोई सुबूत। अब गेंद जस्टिस भंडारी के पास थी, लेकिन शाम हो चली थी और फैसला कल सुनाया जाना निश्चित किया गया। दिन की कार्यवाही समाप्त हुई। घर पहुँचते ही मिसेज भंडारी कुछ पूछतीं उससे पहले ही जस्टिस भंडारी ने उन्हें अगले दिन न्यायालय में आने का न्योता दे दिया। रात भर जस्टिस भंडारी ने अपने सहायक विकास के साथ बैठकर इस मामले का निर्णय लिखा जो कि अगले दिन सुनाया जाना था।
अगले दिन सुबह सभी कोर्ट में समय से पहले पहुंचे। सभी उत्सुक थे फैसला जानने के लिए। सीमित तौर पर एक दो पत्रकार भी उपस्थित थे। जस्टिस भंडारी अपने स्थान पर पहुंचे। जस्टिस भंडारी ने गंभीर भाव और ठहराव के साथ कहना प्रारम्भ किया, 'ये मामला बेशक देखने में एक छोटी सी याचिका थी, लेकिन वास्तविक रूप में इसके पक्षों की दलील ने कई अहम् सवाल खड़े किये। याचिकाकर्ता का प्रश्न अपनी जगह जायज था कि बच्चों की सुरक्षा को किसी भी रूपसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, किन्तु उनकी मांग बड़ी ही विचित्र थी। अदालत ने इस मुद्दे पर दोनों ही पक्षों की दलील को गंभीरता से सुना और सभी सुबूतों को गहनता से जांचा। इससे पहले कि अदालत का फैसला मैं सुनाऊँ मैं इस मुद्दे पर अदालत की टिप्पणी सुनना चाहूंगा। यह बात निर्विवाद रूप से सच है कि बच्चों की सुरक्षा से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता। वे आने वाले कल के भविष्य हैं और उनका स्वस्थ भविष्य हमारी जिम्मेदारी बनता है। किन्तु ये इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि शिक्षा की गुणवत्ता में भी कोई लचरता बर्दाश्त नहीं की जा सकती। याचिकाकर्ता का कहना है कि ऑनलाइन पटल पर शिक्षण कार्य चल रहा है और इसे आगामी पूरे साल के लिए ऑनलाइन ही रखा जाये और स्कूलों को बंद रखा जाये। वहीं बचाव पक्ष की ये दलील रही कि ऑनलाइन पटल उतना अधिक प्रभावी नहीं जितनी कि परम्परागत स्कूली शिक्षा। साथ ही ये बात भी विचारणीय है कि एक साल तक स्कूल बंद रखने से उससे जुड़े कई लोगों की जीविका का संकट भी उभर कर सामने आएगा। अदालत बचाव पक्ष की इस दलील के साथ सहमत होती है कि स्कूल सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा करने का स्थान मात्र नहीं बल्कि वास्तविक शिक्षा को छात्र के जीवन में आत्मसात करने का स्थान है। बेशक एक बच्चा स्कूल में जो सीखता है वो उसे ऑनलाइन पटल पर उपलब्ध नहीं हो सकता। स्कूल के माध्यम से एक बच्चे की दिनचर्या बनती है, उसे स्कूल के परिवेश में पाठ्यक्रम के साथ साथ उसे संस्कारों का ज्ञान भी प्राप्त होता है जो कि ऑनलाइन पटल पर संभव नहीं। शिक्षा विभाग की आख्या का अवलोकन करते हुए अदालत सहमत है कि ग्रामीण क्षेत्र के कई विद्यार्थी अभी भी ऑनलाइन शिक्षा के साधन से वंचित हैं। सिर्फ ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहर में रहने वाले निम्न वर्ग के वे बच्चे जिनके अभिभावक मजदूरी और अन्य जीविकोपार्जन के साधन से जहाँ स्कूलों की फीस ही नहीं भर सकते वो भला ऑनलाइन शिक्षा कैसे ग्रहण करेंगे। ऐसे बच्चों के लिए ही स्कूलों में मुफ्त शिक्षा का प्रावधान है जो कि ऑनलइन पटल पर संभव नहीं। लिहाजा, बचाव पक्ष की तमाम दलीलों व पेश किये गए सुबूतों से सहमत होते हुए ये अदालत स्कूलों को आगामी सत्र के लिए बंद किये जाने की ये याचिका ख़ारिज करती है। इसके साथ ही ये अदालत सरकार को ये आदेश भी देती है कि वरिष्ठ शिक्षाविदों और वरिष्ठ अधिकारियों की एक समिति गठित करे जो कि स्कूलों के लिए सुरक्षा हेतु दिशा निर्देशों का निर्माण करेगी। इसी के साथ ये अदालत बर्खास्त की जाती है'। जस्टिस भंडारी के फैसला सुनाते ही सुधांशु के चहेरे पर एक सुकून भरी मुस्कान खिंच गयी। अधिवक्ता तिवारी ने उसके पास आकर उसकी पीठ थपथपाई। वहीँ मिसेज भंडारी भी दूसरी ओर बैठी मंद मंद मुस्कुरा रहीं थीं। लौटते वक़्त मिसेज भंडारी ने जस्टिस भंडारी से कुछ पूछना चाहा, लेकिन उन्होंने उसे भांपते हुए कहा, 'मैं जानता हूँ तुम क्या जानना चाहती हो। यही न कि सुबूत कुछ खास नहीं थे फिर भी इस केस का फैसला किस आधार पर किया? तो सुनो, सुधांशु की दलील ठोस थी। सच कहूं तो उसने स्कूलों का वो दृष्टिकोण सामने रख दिया जो शायद मैंने भी नहीं सोचा था कि मुझे ऐसी दलील भी कभी मिलेगी। कभी कभी कुछ दलीलें सुबूतों के ढेर पर भी भारी पड़ जाती हैं'।
✍️विभांशु दुबे विदीप्त
गोविंद नगर
मुरादाबाद 244001
मुरादाबाद की साहित्यकार स्वदेश सिंह की लघुकथा ------भूख
शोर मचाने पर आसपास के लोगों ने उस लड़के को पकड़ लिया और पिटाई करने लगें.... स्नेहा जल्दी-जल्दी वहाँ पर पहुँची ...और चीखतें हुए तेजी से बोली तुझे शर्म नहीं आती ....इतनी छोटी उम्र में चोरी करते हुए... वह लड़का कुछ नहीं बोला ....वह दर्द से कराह रहा था। उसका दर्द देखकर स्नेहा का दिल पसीज गया ।उसने सब लोगों को पीटने से रोका और अपना मोबाइल ले लिया... .. लड़के का हाथ पकड़ कहने लगी चल तुझे पुलिस के हवाले करती हूँ । यह सुनकर लड़का घबरा गया ...पैरों में गिर कर माफी मांगने लगा। ....मुझे माफ कर दो ...आइंदा मैं कभी ऐसा नही करूँगा ...पर अब तूने ऐसा क्यों किया..स्नेहा ने गुस्से से चीखते हुए कहा।.. ....मैं दो दिन से भू ...भूखा हूँ ...कुछ नहीं खाया है ...इसे बेचकर रोटी खरीदता... वह लड़का रोते हुए और दर्द से कराहते हुए बोला..... उसके चेहरे पर दर्द साफ दिखाई दे रहा था..... स्नेहा ने जब यह सुना उसे बहुत दुख हुआ ... उसने सभी लोगों से जाने का अनुरोध किया है।.....और उस लड़के को पास ही एक भोजनालय में भरपेट खाना खिलाया।.... बातों -बातों में उस लड़के ने बताया कि उसके तीन छोटे भाई- बहन और है....उसकी माँ को पन्द्रह दिन से बुखार आ रहा है.. जिसके कारण वह काम पर नहीं जा पा रही हैं... घर में खाने के लिए कुछ भी नही है। ...उसके पिता की मौत हो चुकी है । उसकी माँ चौका बर्तन करके घर का खर्च चलाती है।..... स्नेहा ने उसकी बात सुनकर दो टाइम का खाना पैक कराकर उस लड़के को दिया और अपने घर को चली गयी।
अगले दिन स्कूल से आते समय चौराहे पर वह लड़का खड़ा दिखाई दिया ....स्नेहा ने रिक्शा रुकवाया और लड़के को पास बुलाया और बोली क्या है यहाँ क्यों खड़ा है। .... वो हकलाते हुए बोला.....आप मुझे माफ कर दो ....स्नेहा बोली चल ठीक है......और हाँ कुछ खाया या नहीं.. लड़के ने धीरे से सिर हिला कर कहा..... नही... स्नेहा ने अपने पर्स से कुछ पैसे निकाल कर उसे पकड़ाते हुए कहा ...यह लो पैसे इससे खाना और माँ के लिए दवाई ले जाना। कुछ दिन बाद वह अपनी माँ के साथ स्नेहा को ढूंढते हुए उसके स्कूल में पहुँचा ।.... वहां पहुँचकर उस लड़के की माँ ने रोते हुए स्नेहा के पैर पकड़ लिये और गिड़गिड़ाने लगी मैडम.... मेरे बेटे को माफ कर दो..... मेरे बेटे की वजह से आपको बहुत परेशानी हुई है।... स्नेहा बोली एक शर्त पर माफ करूंगी ...बोलो ........ मैडम ...हमें आपकी सारी शर्तें मंजूर है । बताओ क्या करना है? ..... स्नेहा ने कहा तुम्हें अपने बच्चों का एडमिशन मेरे स्कूल में कराना होगा। मैडम... हम गरीब लोग अपने बच्चों को कैसे पढ़ा सकते हैं ?....हमारे पास पढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं ....लड़के की माँ हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहने लगी।..... उसकी चिंता तुम मत करो वो हम पर छोड़ दो और हमारे स्कूल में एक आया की जगह भी खाली है ....कल से स्कूल में बच्चों को लेकर प्रवेश कराने और तुम अपने काम पर आ जाना.... यह कहते हुए स्नेहा किताब लेकर कक्षा में बच्चों को पढ़ाने चली गयी।....
स्वदेश सिंह
सिविल लाइन्स
मुरादाबाद
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघुकथा----शर्त
खिडकी पर सुगंध बारिश के बाद की ठंडी हवाओं को अनुभव कर प्रसन्न हो रही थी।अचानक उसकी नजर सडक पर जाते विकास पर पडी।उसका मन कडवाहट से भर गया क्योंकि उसके दिये घाव आज भी नासूर की तरह रिस रहे थे।उसकी आँखों के सामने पूरी घटना चलचित्र की तरह घूम गयीं।
नियुक्ति के बाद से ही वह कार्यालय मे अपने काम से काम रखती थी।सभी उसे घमण्डी समझते थे।पर इसीबीच विकास स्थानांतरित होकर आया।अक्सर लंच मे वह उसके पास आजाता था।कई दिनों तक वह उसकी उपेक्षा करती रही।मगर धीरे धीरे उसे उसकी बाते अच्छी लगने लगी।कार्यालय के बाद बाजार भी साथ जाने लगे।अब सुगंध को उसपर भरोसा सा होने लगा।एकदिन उसने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया।सुगंध तो तैयार थी।वह बोली, भईया से बात कर लो"।विकास बोल,"अब तुम्हारे बिना रहा नहीं जाता।भईया से पहले माँ को मनाना होगा।मगर हम अभी मंदिर मे शादी कर लेते है।फिर धीरे धीरे सब को मना लेगे।" मन्त्रमुग्ध सी वह उसकी हर बात मानती गयीं।पासके शहर मे जाकर मंदिर मे विवाह हो गया।तीन दिन की ट्रेनिग कहकर वह घर से आयी थी।तीन दिन पंख लगाकर उड गये।वापसी मे भी विकास ने हिदायत दी थीं अभी किसी से कुछ न कहे।वह यह भी मान गयीं।
वापसी के बाद दो दिन विकास आफिस नहीं आया।वह परेशान रही फोन भी बंद आ रहा था।आफिस ज्वाईन करने के बाद उसका पटल बदल गया।अब वह उसके पास कम आता,बात भी कम हो गयीं।एक हफ्ता गुजर गया।उससे रहा नहीं गया।लंच टाईम मे वह उठकर विकास केकमरे की ओर चल दी।दरवाजे पर पहुंच कर वह रूक गयी।अंदर से विकास कीअपने दोस्तों के साथ हँसने की आवाज आ रही थी।एक आवाज"और क्या अब उसके साथ लंच नहीं करते"।विकास की आवाज आयी,""क्यो पका रहे हो,यार,तुम सबने तो हार मान ली थी।गुप्ता जी बताओ न यार तुमने ही शर्त लगायी थी न,देखो उसको पटाया भी घुमाया भीऔर.....।मै शर्त जीत गया"। इससे अधिक वह सुन न सकी।वह केवल एक शर्त थी।
डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा------अपना अपना दुख
घर में धीरे धीरे भीड़ होने लगी थी।आस पास के लोग,परिचित,संबंधी,सब बराबर आ रहे थे।लगभग सात घंटे पहले प्रेमप्रकाश जी का निधन हो गया था।
प्रेमप्रकाश जी चार साल पहले ही सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे।पत्नी के निधन के बाद से ,अपने पुत्र
अजय के साथ ही रहा करते थे।घर में उनके और उनके पुत्र के अलावा,पुत्रवधू रश्मि,दस साल का पोता ऋषभ और एक प्यारा सा कुत्ता शेरू भी था।
सब अपने अपने तरीके से शोक जता रहे थे।
अजय बहुत उदास था।उसके दिमाग में एक ही बात घूम रही थी **पिताजी की पेंशन से घर के ऋण की किश्त आसानी से जमा हो जाती थी।अब किसी ना किसी खर्चे में कटौती करनी पड़ेगी**।उसकी पत्नी रश्मि लगातार रोए जा रही थी **अब घर की सब्जी और फल कौन लेकर आया करेगा *।पोता ऋषभ सोच रहा था -- अब मेरे साथ लूडो कौन खेला करेगा।
उनका पालतू कुत्ता शेरू सुबह से एक कोने में गुमसुम सा बैठा था उसने सुबह से कुछ खाया भी नहीं था।उसकी सूनी आंखो में आंसू अलग ही दिख रहे थे।
डॉ पुनीत कुमार
T -2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600
मुरादाबाद की साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की लघु कथा-------टीटीई की धौंस
टिकट प्लीज: टीटीई अमर के सामने खड़ा था।
ओह, हाँ, ये लीजिए,
ये तो जनरल टिकट है, आप इसमें कैसे चढ़ गये, टीटीई गुर्राया।
अरे सर जी क्या करें, रिजर्वेशन कंफर्म नहीं हुआ था, जनरल डिब्बों में घुसने की भी जगह नहीं थी। जाना जरूरी था इसलिए इसमें चढ़ गये। आप हमारा टिकट बना दीजिए।
हूँ, यहाँ कोई सीट खाली नहीं है, पैनल्टी सहित सात सौ रुपये की रसीद कटेगी और सीट भी नहीं मिलेगी। आप ऐसा करना अगले स्टेशन पर उतर जाना।
अरे बाबूजी, जाना तो जरुरी है, आप हमारी रसीद ही काट दीजिए।
ठीक है, कहते हुए वह बोला, अच्छा ऐसा करो आप पाँच सौ रुपये दे दो और आराम से जाओ।
नहीं नहीं बाबूजी, आप रसीद ही काट दो।
और टीटीई ने रसीद काट दी जो साढ़े चार सौ रुपये की थी।
आश्चर्य की बात तो ये थी कि अगले स्टेशन पर ही टीटीई ने उसे बर्थ भी दे दी।
अमर बर्थ पर जाकर लेट गया।
उधर टीटीई रात भर प्रत्येक स्टेशन पर यात्रियों को रसीद काटने की धौंस देता हुआ वसूली करता रहा।
श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG - 69, रामगंगा विहार,
मुरादाबाद
मोबाइल नं. 9456641400
शुक्रवार, 17 जुलाई 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर की लघुकथा -----तोता
"अरे वाह, यह तो बहुत सुंदर तोता पकड़ में आ गया। विनोद छुट्टी में घर लौट रहा है, उसके लिए यह एक अच्छा गिफ़्ट होगा....", छुट्टियों में घर आ रहे अपने इकलौते बेटे विनोद के स्वागत की तैयारी में लगे राजेश्वर, अचानक हाथ आ गए तोते को पिंजरे में क़ैद करते हुए खुशी से चहके। तभी मोबाइल की रिंग ने उनका ध्यान भंग किया -
"हलो, राजेश्वर जी बोल रहे हैं ?", उधर से आवाज गूंजी।
"जी हाँ, कहिये", सुंदर तोता पकड़ने की खुशी में राजेश्वर चहकते हुए बोले।
"देखिये, मैं विनोद के कॉलेज का प्रिंसिपल बोल रहा हूँ। दरअसल, आज कुछ आतंकवादी हमारे कॉलेज में घुस आए थे। वह कुछ छात्रों को कैद करके अपने साथ ले गए हैं। दुर्भाग्य से आपका बेटा विनोद भी उनकी कैद में है। परन्तु, चिंता न करें रिपोर्ट कर दी गई है......", प्रिंसिपल साहब ने घबराते हुए एक ही साँस में पूरी घटना बता दी।
सुनते ही राजेश्वर के चेहरे पर छाई खुशी गायब हो चुकी थी। उनकी आँखों के आगे घबराहट भरा अँधेरा अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका था, और उधर, पिंजरे में कैद तोता छूटने का असफल प्रयास करता हुआ लगातार फड़फड़ा रहा था।
अब राजेश्वर के काँपते हाथ पिंजरे का दरवाजा खोलने के लिए बढ़ चुके थे।
राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार प्रवीण राही की लघुकथा ----- अंतर
मेरी आंखों के सामने ही,रेंज रोवर गाड़ी चला रहे , किसी बड़ी शख्सियत ने शराब के नशे में सड़क पर लेटे हुए कुत्ते को कुचल दिया। और तो और गाड़ी से उतर कर मानवता के नाते उस कुत्ते को बचाने की कोशिश भी नहीं की। कुछ दिनों बाद इन्हीं के बारे में पेपर में पढ़ने को मिला, सड़क के किनारे किसी गरीब को इनकी गाड़ी ने कुचल दिया, थोड़े दिन बाद इस मामले से उनको बरी कर दिया गया... क्योंकि उस गरीब के घर वालों ने मुआवजा ले कर अपना केस वापस कर लिया था। शायद इंसानों और जानवरों के बीच यही अंतर है.....
प्रवीण राही
मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा ----- एडजस्ट
‘’अरे वाह गीता तुमने इस टू रूम के फ़्लैट में सब सामान कितने अच्छे से एडजस्ट किया है।कम जगह में सामान एडजस्ट करने की कला तो बस तुम्हें ही आती है।बड़ा फ्रिज,दो बेड,वॉशिंग मशीन,डाइनिंग टेबल,ड्रेसिंग टेबल सब व्यवस्थित है ।कमाल है..........अरे तुमने अपनी शादी में मिली अलमारी को यहाँ एडजस्ट किया ।बहुत ख़ूब...........पर इन फ़्लैट में तो अपने आप ही अलमारी बनी हुई मिलती है।इसे सेल कर सकती थी तुम !‘’रुचि ,गीता के नए फ़्लैट को देखकर लगातार उसकी तारीफ़ करती जा रही थी ।’’अरे ये अलमारी मेरी शादी की है।बहुत मज़बूत है ।मुझे इससे एक अजीब सा लगाव है मैं इसे सेल नही कर पायी और देखो इस कोरनर में ये कितने अच्छे से एडजस्ट हो गयी है। अगर हम चाहें ,तो सब एडजस्ट हो जाता है।’’गीता ,रुचि से बात ही कर रही थी कि गीता का पति विवेक ओवन लेकर आ गए ।’’इसे किचन में लेफ़्ट में रख दीजिए ।’’गीता ने विवेक को ओवन की जगह बता दी।’’अरे सुनो गीता ...मम्मी पापा कल आयेंगे ।बड़े भैया और भाभी अमेरिका जा रहे है इसलिए अब वो हमारे साथ ही रहेंगे।’’विवेक ने ओवन रखते हुए गीता से कहा।’’तुम भी कैसी बात करते हो विवेक इस टू रूम के फ़्लैट में वो कैसे रह पायेंगे।यहाँ एडजस्ट नहीं हो पाएगा, तुम उनका कुछ और इंतज़ाम कर दो ।’’गीता ने विवेक से बिना देर किए कह दिया।रुचि वहाँ खड़ी सब सुन रही थी पर गीता की कही बातों को समझ नही पा रही थी कि कमी जगह की है या ............उसके कानो में गीता के कहे शब्द गूँज रहे थे, अगर हम चाहें, तो सब एडजस्ट हो जाता है।
प्रीति चौधरी
गजरौला
ज़िला -अमरोहा
मुरादाबाद मंडल के सिरसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफ़ा की लघु कथा ------- मनचले
उन मनचलों का रोज़ का दस्तूर था कि शाम को सैर पर निकलते, तो आती जाती लड़कियों व महिलाओं पर फब्तियां कसते और खुश होते। जुमेरात को भी वो रोजाना की तरह सिगरेट के कश लगाते हुए फब्तियां कस रहे थे। तभी सामने से कुछ लड़कियां काले बुर्के पहने आती दिखाई दी। अपनी आदत के मुताबिक तीनो मनचलों ने उन पर फब्तियां कसनी शुरू कर दी। कोई उन्हें पास आने की दावत दे रहा था। तो कोई चेहरा दिखाने की गुज़ारिश कर रहा था। तो कोई आहें भर रहा था। लेकिन यह क्या! वह बुर्कापोश लड़कियां तो उन्हीं की तरफ आने लगी। तीनो मनचले खुश होने लगे । लड़कियों ने जब उनके पास आकर नक़ाबे उल्टी तो मनचलों के चेहरे फ़क़ पड़ गये । यह तो उनकी ही बहनें थीं जो दरगाह पर मन्नत मांगकर वापस घर जा रही थीं।
कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
सिरसी (सम्भल)
9456031926
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