कविता फिर लौटेगी मंचों पर गीत के रूप में
-माहेश्वर तिवारी
हिन्दी साहित्य में जब-जब नवगीत की संवेदना और युगीन संदर्भों के साथ-साथ भाषागत सहजता व आंचलिक मिठास की चर्चा होती है, हिन्दी नवगीत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के सृजनात्मक उल्लेख के बिना न तो वह पूर्ण होती है और ना ही उस चर्चा का कोई महत्व रहता है । हिन्दी नवगीत के वह महत्वपूर्ण और अद्वितीय हस्ताक्षर श्री माहेश्वर तिवारी हैं । 22 जुलाई 1939 को बस्ती (उ.प्र.) में जन्मे श्री तिवारी की अब तक 4 नवगीत कृतियों - ‘हरसिंगार कोई तो हो’ , ‘नदी का अकेलापन’, ‘सच की कोई शर्त नहीं’ और ‘फूल आए हैं कनेरों में’ के अतिरिक्त नवगीत की कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं । हिन्दी गीत-नवगीत के संदर्भ में श्री तिवारी से महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बातचीत की योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ ने -
व्योम : नवगीत आपकी दृष्टि में क्या है और इसकी क्या-क्या शर्तें व मर्यादायें हैं ?
मा.ति. : नवगीत भारतीयता से जुड़ा और आधुनिकता तथा वैज्ञानिक बोध से जुड़ा वह काव्य-रूप हैै ,जो छायावादोत्तर गीत-धारा से, गेयत्व को छोड़कर शेष सभी रूपों में आधुनिक मनुष्य का
गीत है । इसमें प्रेम के नाम पर न तो मध्यकालीन परकीया भाव है और न कुहासे से भरी
कल्पनाशीलता । इसमें सजग सामाजिक बोध और घर-आँगन का विश्वसनीय चेहरा है ।
आधुनिकता से उपजीं विकृतियों के प्रति भी चौकन्नी जागरुकता, राजनीतिक, आर्थिक
विसंगतियों के प्रति एक प्रतिपक्ष का भाव तो इसमें है ही, सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें
भारतीय संस्कृति और देशी ज़मीन के प्रति गहरे सरोकार भी हैं । यह समकालीन अन्य तमाम रूपों की तरह आयातित काव्य-रूप नहीं है । यह निजत्व से जुड़ा होकर भी उस आत्माभिव्यक्ति से मुक्त है जो कभी-कभी कविता के धरातल से खिसककर डायरी के रूप में सामने आ जाता है ।
व्योम : आप नवगीत का आरम्भ कहाँ से मानते हैं, महाप्राण निराला से या उससे भी पहले ?
मा.ति.: नवगीत की पहली आहट निराला के गीतों में ही मिलती है । गीत की नई भाषा और शिल्प की नई बुनावट सबसे पहले महाप्राण निराला में ही मिलती है । यह ध्यान देने की बात है कि गीत ही नहीं, प्रयोगवादी और कालान्तर में नई कविता के नाम से अभिहित समकालीन कविता के प्रथम प्रयोक्ता भी निराला ही हैं । कुछ लोग नवगीत का आरंभ छठे दशक से मानने के आग्रही हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा को उत्तरकाशी या उससे आगे मानने की अपेक्षा गंगोत्री से ही माना जाना चाहिए क्योंकि गंगोत्री से निकलने के पश्चात गंगा भागीरथी, अलकनंदा आदि नामों से जगह-जगह जानी जाती है लेकिन उत्स तो गंगोत्री ही है, उसी तरह निराला को नवगीत का प्रथम पुरुष माना जाना चाहिए । डॉ. शम्भूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र जैसे नवगीत कवि निराला को ही नवगीत का पुरोधा मानने के आग्रही रहे हैं । नवगीत शब्द का पहली बार प्रयोग राजेन्द्रप्रसाद सिंह ने स्वयं द्वारा संपादित गीत संकलन ‘गीतांगिनी’ की भूमिका में लिखित रूप से किया लेकिन वह भी इसके प्रथमपुरुष नहीं स्वीकारे जा सकते हैं । इस सारे विमर्श के बाद निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नवगीत का आरंभ निराला से ही हुआ । अपनी प्रसिद्ध सरस्वती वंदना में निराला ने ही ‘नवगति, नवलय, ताल, छंद नव’ की बात का सबसे पहले उन्होंने ही उद्घोष किया ।
व्योम : कहा जाता है कि नवगीत यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ा है तथा उसमें व्यवस्था विरोध के साथ-साथ वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के विरुद्ध स्वर भी मुखर हुए हैं लेकिन भविष्य के गर्भ में झाँकने की कोशिशें नवगीत में उतनी नहीं हुईं, क्यों ?
मा.ति. : कोई भी रचना अपनी समकालीनता से जुड़ी होती है । वह अपने समय के यथार्थ को ही अभिव्यक्ति देती है । वह निष्कर्ष नहीं देती, वर्तमान की विसंगतियों, त्रासदियों को अपनी
अंतर्वस्तु में शामिलकर पाठकों को भविष्य के संकेत देती है । सौन्दर्यशास्त्र के नए मानक गढ़ती है । सामाजिक बदलावों की ज़रूरतों की ओर प्रच्छन्न संकेत करती है । इससे आगे सोचना उसके पाठकों और उसके समाज का दायित्व बनता है । यह सभी बड़े रचनाकार और उनका सृजन करता है । गीत महाकाव्य नहीं है कि उससे भविष्य के संकेत ढूँढे जाएँ। वैश्वीकरण और बढ़ते बाज़ारवाद के ख़तरों की ओर वह इंगित करता है । इससे बचाव और विकल्पों की तलाश उसका काम नहीं है । जब भारतेन्दु हरिश्चंद्र ‘आओ सब मिलकर रोबहु भाई/हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई’ या निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ में जो अंतर्वस्तु है वह सिर्फ अपने समय को ही अपनी अभिव्यक्ति में समेटती है, भविष्य की ओर संकेत दूसरी तरह की कविताओं में ढूँढा जा सकता है, गीत में नहीं ।
व्योम ः आपका सबसे प्रथम् नवगीत कौन सा था तथा कब और कहाँ प्रकाशित हुआ ?
मा.ति.: मैंने जिस समय गीत लेखन आरंभ किया उस समय ‘नवगीत’ शब्द चर्चा में नहीं था । तार-सप्तक के कवियों ने तथा उससे बाहर के प्रयोगवादी व नई कविता के कवियों ने जो गीत लिखे उन्हें कुछ समय तक नई कविता के गीत और नया गीत के नाम से जाना-पहचाना जाता रहा । सन् 1960 के बाद नए गीत कवियों की रचनाओं के लिए ‘नवगीत’ शब्द केन्द्र में आया । मेरे जिस गीत को लेकर मुझे नवगीतकारों में शामिल किया गया, वह है - ‘आओ हम धूप-वृक्ष काटें/इधर-उधर हल्कापन बाँटें’ । यह गीत पहली बार वाराणसी से प्रकाशित ‘मराल’ पत्रिका में सन् 1964 में छपा और चर्चित हुआ ।
व्योम ः गीत से नवगीत तक की यात्रा में हिन्दी कविता ने कौन-कौन सी उपलब्धियाँ हासिल कीं ?
मा.ति. ः कई पड़ाव आए गीत से नवगीत तक की यात्रा में, गीत कभी प्रगीत बना, स्वच्छंदावादी गीत
बना और फिर वह सन् साठ के बाद नवगीत बना । गीतों में प्रकृति-मनुष्य से अलग एक
इकाई थी किन्तु नवगीत में वह सहचरी बन गई । भवानी प्रसाद मिश्र के गीत ‘सतपुड़ा के घने जंगल/ऊँघते अनमने मंगल’ और ‘आज पानी गिर रहा है/घर नयन में तिर रहा है’ जिस नए गीत की आहट देते हैं वह गीत से नवगीत के प्रस्थानक बिन्दु के रूप में स्वीकारा जा सकता है । इस अंतर को तत्कालीन ‘नीरज’ और वीरेन्द्र मिश्र के गीतों के माध्यम से भी जाँचा परखा जा सकता है । वीरेन्द्र मिश्र ने अपने पीड़ा वाले गीत में कहा है - ‘पीर मेरी कर रही ग़मगीन मुझको/और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी/और उससे भी अधिक हर पाँव की जंजीर रानी’ जबकि नीरज लिख रहे थे - ‘देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम/प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा’ । गीत वैदिक ऋचाओं के रूप में उपजा और वह लोक जीवन तथा लोकमानस से होकर नवगीत तक आया । कुछ लोगों का मत है कि नवगीत नई कविता की अनुकृति से उपजा, यह मिथ्या भ्रम है । महाप्राण निराला की सरस्वतीवंदना में ‘नव-गति, नव-लय, ताल छंद नव’ ही नवगीत का बीजमंत्र कहा जा सकता है ।
व्योम ः स्व. डॉ.शम्भूनाथ सिंह द्वारा संपादित नवगीत दशक श्रंखला तथा नवगीत अर्द्धशती के संदर्भ
में कहा जाता है कि इन ऐतिहासिक समवेत संकलनों में तत्कालीन कुछ महत्वपूर्ण नाम सम्मलित नहीं हो सके, इसकी क्या वज़ह रही ?
मा.ति.: यह बात बिल्कुल सच है कि नवगीत दशक तथा नवगीत अर्द्धशती में कुछ महत्वपूर्ण रचनाकार छोड़ दिए गए या छूट गए । ऐसा तार सप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक
में भी हुआ था और पिछले दिनों साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘श्रेष्ठ गीत संचयन’ में भी यह कमी पाई गई । ऐसा प्रायः संपादक की निजी रुचि और संकलनों की सीमाओं के कारण भी होता है । नवगीत दशक-एक के प्रकाशन के बाद स्व. ठाकुरप्रसाद सिंह ने सबसे पहले इस बात को लेकर एतराज किया था कि उसमें कुछ ऐसे नाम हैं जो नहीं होने चाहिए और कुछ ऐसे महत्वपूर्ण नाम हैं जो होने चाहिए थे । एक बात यह भी है कि नवगीत दशक के प्रकाशन की प्रक्रिया 1968 में ही आरंभ हो गई थी और उस समय मात्र एक ही संकलन की योजना आर्थिक सहयोग के आधार पर तैयार हुई थी । उसमें कई नाम ऐसे थे जो बाद में दशकत्रयी में शामिल नहीं किए गए । उस संकलन की फ़ाइल संपादक की अपनी व्यस्तताओं और कुछ के आर्थिक सहयोग से इंकार कर देने के कारण फ़ाइलों के ढ़ेर में दबी रह गई । डॉ. सुरेश जब डॉ. शम्भूनाथ सिंह के निर्देशन में शोधकार्य में जुटे तो वह फाइल उनके हाथ लग गई तो डॉ. शम्भूनाथ जी से चर्चा उपरान्त तीन नवगीत दशकों के प्रकाशन की योजना बनी । इस योजना में मेरा नाम पहले दशक के रचनाकारों की सूची में था लेकिन जब आयुक्रम से चयन की बात आई तो मेरा नाम खिसककर दूसरे दशक में आ गया । बहरहाल स्व. राजेन्द्रप्रसाद सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, शलभ श्रीराम सिंह जैसे प्रमुख लोगों का नाम दशक त्रयी में न होना हमारे लिए भी असहज कर देने वाला था । हमने अपने-अपने ढंग से अपनी आपत्तियाँ संपादक तक पहुँचायीं पर कोई सुनवाई नहीं हुई बल्कि स्व. ठाकुरप्रसाद सिंह तथा मुझे अपने एक लेख में डॉ. शंभूनाथजी ने नवगीत का शत्रु तक सिद्ध कर दिया लेकिन अपनी इस ग़लती का एहसास बाद में उन्हें भी हुआ और नवगीत अर्द्धशती में वीरेन्द्र मिश्र तथा शलभ श्रीराम सिंह को शामिल करने को वह तैयार थे किन्तु उन दोनों रचनाकारों की ओर से न तो कोई सकारात्मक उत्तर मिला और न रचनात्मक सहयोग । इससे नवगीत दशकों और नवगीत अर्द्धशती में एक अधूरापन तो रहा लेकिन इससे उनकी ऐतिहासिकता को नकारा नहीं जा सकता ।
व्योम: नवगीत को केन्द्र में रखकर काफी काम हुआ है, नवगीत दशक श्रृंखला के अतिरिक्त नवगीत और उसका युगबोध, शब्दपदी, धार पर हम आदि समवेत पुस्तकें प्रकाशित हुईं किन्तु नवगीत का सर्वमान्य एक पारिभाषिक चित्र प्रस्तुत करने के स्थान पर भ्रामक स्थितियाँ ज़रूर बनीं, आप क्या मानते हैं ?
मा.ति.: नवगीत को केन्द्र में रखकर नवगीत दशकों के बाद में आए कई समवेत संकलनों, जिनका ज़िक्र आपने किया है उससे भी पहले बासंती, रश्मि, कविता-64, वातायन, अंतराल, सांध्य मित्रा, नवगीत जैसी पत्रिकाओं के नवगीत विशेषांकों ने नवगीत को लेकर काफी काम किया। नवगीत की चर्चा करने वाले अक्सर इन महत्वपूर्ण प्रयासों को भूल जाते हैं या उनकी अनदेखी कर देते हैं । कालान्तर में आए पाँच जोड़ बाँसुरी, गीत जैसे समवेत संकलनों की ओर पता नहीं किन कारणों से उनका ध्यान नहीं जाता । विगत वर्षों में इस दिशा में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप दिनेश सिंह के संपादन में आई पत्रिका ‘नए-पुराने’ ने किया । रचना और विमर्श दोनों दृष्टियों से नए-पुराने के अंक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन गए । आप जिस तरह की अपेक्षा करते हैं उसके लिए नवगीत का ‘गोल्डन-ट्रेज़री’ जैसा कोई संकलन आए तभी काम हो सकता है । नवगीत दशक, नवगीत अर्द्धशती, शब्दपदी, धार पर हम, नवगीत सप्तक आदि की सीमाओं और उनके संपादकों की निजी पसंद-नापसंद तथा नवगीत संबंधी संपादक की निजी अवधारणाएँ, रचनाकारों की आपसी टालमटोल आदि कई कारक हैं जो नवगीत को समग्रता के साथ प्रस्तुत करने में बाधक बनते हैं । दूसरी बात यह कि नवगीत गतिशील रचनाकर्म है, नित नए रचनाकार उसकी भूमि में प्रवेश करते हैं फिर उन सबको समेटना एक तटस्थतापूर्ण कठिन श्रम और भारी आर्थिक प्रबंधन की माँग करता है । क्या यह उन लोगों से संभव है जो स्वयँ अपने प्रस्तोता हैं और इस बात के आग्रही कि जो है वह उन्हीं से माना जाना चाहिए तथा उसके आगे-पीछे का सब व्यर्थ है । पिछले दिनों इसी तरह की एक आत्मकेन्द्रित घोषणा देश की राजधानी से भी हुई है । ऐसा कार्य या तो
दुराग्रहपूर्ण होता है या अल्पज्ञान का प्रतीक । दिल्ली का वैसे भी स्वभाव रहा है कि वह सिर्फ अपने को ही देखती है और मानती है कि वही पूरे देश को देख रही है ।
व्योम ः ज़रा पलटकर गुज़रे वक़्त पर नज़र डालें, अपने गीतों के कारण निराला से लेकर बच्चन,
नेपाली, वीरेन्द्र मिश्र, नीरज, भारत भूषण, सोम ठाकुर आदि ने काफी लोकप्रियता अर्जित
की और उनके गीत लोगों के दिलो-दिमाग़ पर छाए ही नहीं, बस गए जबकि नवगीत के
संदर्भ में ऐसा नहीं हो सका, नवगीत पठनीय तो अधिक रहे किन्तु गुनगुनाए कम गए, इसके पीछे आप किन कारणों को ज़िम्मेदार मानते हैं ?
मा.ति.: देखिए, लोकप्रियता एक अलग विषय है । कोई रचना लोकप्रिय होने से ही बढ़िया नहीं हो जाती और उसकी अपेक्षा कम लोकप्रिय रचना को भी सिर्फ इसलिए नहीं नकारा जाना चाहिए कि वह कुछ की अपेक्षा कम लोकप्रिय रही । यह सवाल किसी भी प्रकार के लेखन की पड़ताल करें तो पता चल सकता है । कहानी, उपन्यास आदि की दिशा में प्रेमचंद्र कितने लोगों तक पहुँचे । ‘मैला आँचल’ के बाद फणीश्वरनाथ रेणु की और भी कृतियाँ आईं लेकिन क्या वे उसी तरह व्यापक स्वीकार्य की सीमा में शामिल हो सकीं जैसे ‘मैला आँचल’ । निराला की लोकप्रियता कितनी है जिनकी तुलना में अन्य लोगों के नाम का उल्लेख आपने किया है । डॉ. शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र आदि जैसे कुछ नवगीत कवि रहे हैं जिन्होंने लोकप्रियता की परिधि में सार्थक उपस्थिति दर्ज़ की । आपने जो नाम गिनाए हैं उनमें कितने हैं जो नवगीत से जुड़े हैं । वे क्या लिखते हैं और मंच पर क्या प्रस्तुत करते हैं इसकी भी जाँच परख होनी चाहिए । उनकी लोकप्रियता के पीछे मंच पर उनकी प्रस्तुतिकला भी एक महत्वपूर्ण कारक होती है । रचना की गुणवत्ता का उसमें बहुत बड़ा हाथ नहीं होता । आज मंच पर ऐसे बहुत से कवि हैं जो लोकप्रियता में इनमें से किसी से कम नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाएँ सृजनात्मकता के धरातल पर कहाँ ठहरती हैं ? कविता के ग्रहण के लिए पाठक या श्रोता में कुछ संस्कारों की आवश्यकता होती है । वास्तविकता यह है कि आज समाज में उसी संस्कार की कमी होती जा रही है । नवगीत पढ़े भी गए हैं और गुनगुनाए भी जाते रहे हैं, यह अलग बात है कि वे गाए कम गुनगुनाए अधिक गए ।
व्योम: नवगीत को पूर्व में नया गीत आदि-आदि नामों से पुकारा गया, पचास वर्षों से भी अधिक यात्रा करने के बाबजूद नाम का संकट आज भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा है,
आपको क्या लगता है ?
मा.ति.: यह संकट नवगीत का नहीं है । नवगीत की परिधि से छूटे या खिसकाए गए कुछ लोग उसे नए-नए नाम देकर जुलूस में शामिल होना चाहते हैं । मैंने भी सहज गीत की चर्चा की है लेकिन वह गीत की संप्रेषणीयता से जुड़ा है । नई कविता के गीत, नए गीत आदि नाम उस
समय गीत में आए बदलाव की ओर संकेत करते हैं । वे संज्ञाएँ नहीं हैं, विशेषण हैं उस समय की रचनाओं को रेखांकित करने वाले । अब नामकरण का एक सिलसिला बन गया है और किसी के विरुद्ध अध्यादेश तो लाया नहीं जा सकता । यह तो रचना और विचार का लोकतंत्र है । हाँ, यह ध्यान देने की बात है कि लोकतंत्र की भी एक मर्यादा होती है, वह भीड़तंत्र नहीं है और ना ही अराजकता या तानाशाही । नवगीत के बाद गीत के अग्रिम चरण का एक ही सार्थक नाम है जन-पक्षधरता या जनबोध की ओर उन्मुख जनवादी गीत । ध्यान देने की बात है कि नवगीत का यह प्रस्थानक वैचारिकता और रचना की समाजोन्मुखता से लैस है । यह किसी की निजी उद्घोषणा नहीं, बरन जन-पक्षधरता की चिंतनशीलता और रचनाकर्म के अभिप्रेय से जुड़ा है ।
व्योम ः एक प्रमुख दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित अपने आलेख में आपने सहज
गीत के संदर्भ में महत्वपूर्ण बातें कही हैं, सहज गीत नवगीत से कैसे और कितना भिन्न
है ?
मा.ति. ः सहज गीत में मैंने ऐसी रचना की बात उठाने का प्रयास किया जो अभिव्यक्ति की सहजता
से जुड़ी हो । देखने में यह आता है कि कुछ लोग अतिशय प्रयोगशीलता के मोह में इस बात को भूल जाते हैं कि सम्प्रेषणीयता भी रचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता है और भाषा, बिंब रचना के कारण दुरूहता के शिकार हो जाते हैं । ऐसी रचनाएँ चौंकाती ज़्यादा, भाती कम हैं और उनका अपने पाठक या श्रोता से सहज-संवाद नहीं बन पाता । वे इस प्रयास में विद्यापति, सूर, तुलसी के कुलगोत्र से हटकर केशवदास के कुलगोत्र में शामिल हो जाते हैं मेरी अवधारणा में सहजगीत में वे सारे गीत-रूप समाहित हैं जो अभिव्यक्ति में सहज और सम्प्रेषणीय हैं । नवगीत और सहजगीत में सिर्फ़ शब्द का अंतर है । नवगीत भी सहजगीत हो सकता है और सहजगीत नवगीत । कुछ लोग नवगीत के नाम पर कार्बन लेखन करते हैं और वे सहज-मौलिकता की परिधि से बाहर चले जाते हैं । एक महत्वपूर्ण बात है कि अपने आरंभिक काल में नवगीत ने लोकजीवन से नई ऊर्जा ग्रहण की लेकिन कुछ लोगों ने उसे नवगीत का प्रतिमान मानकर इतने आंचलिक प्रयोग किए विशेषतः भाषा के स्तर पर कि
वे सम्प्रेषणीय नहीं रह गए । इसी तरह कुछ भाषाविदों ने तत्सम शब्दाबली के प्रति इतनी गहरी रुचि दिखलाई कि उनकी रचनाओं को समझने के लिए कभी-कभी पढे-लिखे लोगों को भी शब्दकोषों का सहारा लेना पड़ा । दरअसल इनसे मुक्त गीत ही नवगीत है, गीत नवांतर है, जनवादी गीत है जिसे मैं सहज गीत मानता हूँ ।
व्योम ः आपके नवगीतों में कथ्य और बिंबों में नयापन तथा भाषा में एक अलग तरह की मिठास
एक साथ गुंथी हुई होती है, ऐसा कैसे कर लेते हैं आप ?
मा.ति. ः मैं अपने कथ्य अपने समकालीन जनजीवन से उठाता हूँ । मुझे बिंब और भाषा के लिए
किसी द्राविड़प्राणायाम की आवश्यकता महसूस नहीं होती । हमारे आसपास होती बतियाहट, जीवन के रस में डूबी शब्द संपदा स्वयँ यह मिठास भर देती है । कविता में मैंने भवानी प्रसाद मिश्र और ठाकुरप्रसाद सिंह से मिठास को पहचानना और अपनाना सीखा है, मैंने कुमार गंधर्व, पं. जसराज, किशोरी अमोनकर से संगीत की मिठास को अपने में महसूस किया है और फिर उसे अपने शब्दों, बिंबों में पिरोने का प्रयास किया है । जिस तरह गन्ने से मिठास पाई जाती है ऊपर का सख़्त छिलका, गांठें हटाकर । उसी तरह मैंने जीवन के खुरदुरेपन में भी मिठास पाने का प्रयत्न किया है । मैंने जीवन में रिश्तों को बहुत महत्व दिया है । सबको प्यार, अपनापन देने और सबसे पाने का आग्रही रहा हूँ । यह मिठास वहाँ से भी मिलती है । मेरे लिए घर मिठास का सबसे बड़ा श्रोत है । वहाँ से भाषा भी मिलती है और विचार भी ।
व्योम ः आप लम्बे समय से कविसम्मेलनीय मंचों से जुड़े रहे हैं, आज भी उसी ऊर्जा के साथ
आपकी उपस्थिति मंचीय गरिमा में बृद्धि कर रही है । कृपया बताएँ कि आज अकविता के
संक्रमण काल में क्या मंचों पर फिर से गीत का वही स्वर्णिम समय वापस लौटने की आशा
की जा सकती है ?
मा.ति. ः आप जिसे अकविता कहते हैं, मैं उसे कवित्वहीनता मानता हूँ । मैंने छठे दशक के उत्तरार्ध
से कविसम्मेलनों में जाना आरंभ किया था । उस समय जो कवि मंचों पर उपस्थित रहते थे वे साहित्य जगत के प्रतिष्ठित लोग थे । पत्र-पत्रिकाओं, पाठ्य-पुस्तकों से लेकर मंचों तक । सन् 1962 के बाद वह सिलसिला क्षीण होता गया । अब तो मंच पर उपस्थित लोगों में एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो मंचों पर अभिनेताओं व जोकर कवियों की ही भीड़ है । सही कविता को अपदस्थ करने का अनवरत प्रयास ज़ारी है लेकिन मैं निराश नहीं हूँ । निराश होना मेरे स्वभाव में नहीं है । कविता लौटेगी फिर मंचों पर गीत के रूप में भी और अन्य रूपों में भी, ऐसा मेरा विश्वास है ।
व्योम ः आपने भोजपुरी में भी रचनाकर्म किया है, नवगीतों को आंचलिक भावभूमि पर उसी भाषा
में पगाकर प्रस्तुत किया जाता रहा है, वर्तमान में रचे जा रहे नवगीतों में आंचलिक भाषा
की क्या भूमिका है तथा नई कोंपलों से आंचलिकता के संदर्भ में क्या-क्या आशाएँ की जा
सकती हैं ?
मा.ति. ः आंचलिकता रचना में नवता लाती है लेकिन वह दाल में छौंक या बघार की सीमा तक ही
होनी चाहिए । किन्तु जब आंचलिकता को ही पूरी दाल बनाने की कोशिश किसी रचना में हो तो वह कविता का दोष बन जाती है और रचना का प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है । अपने आरंभिक काल में नवगीत के कई रचनाकारों ने यह काम किया लेकिन वह लोक- जीवन, लोक-प्रकृति, लोक-स्वर के स्तर पर और कुछ हद तक शब्द प्रयोग के स्तर पर भी । बहुत से लोग उसे शब्द तक ही सीमित कर देते हैं, इससे सम्प्रेषणीयता बाधित होती है । आंचलिकता को ऐसे लोग फै़शन के तौर पर लेते हैं, यह उचित नहीं है । शब्द को उसके परिवेश के साथ उठाना चाहिए ।
व्योम ः क्या आप मानते हैं कि गीत-नवगीत के विरुद्ध एक मोर्चा सुनियोजित रूप से लामबंद है,
यदि हाँ तो कृपया बताएँ कि हिंदी साहित्य पर इसके क्या-क्या प्रभाव पड़ने की संभावना है?
मा.ति.: गीत-नवगीत तो एक बहाना है, पूरे छांदसिक लेखन के बरख़िलाफ़ एक मोर्चा दशकों पहले से लामबंद है । वह कभी धीमा पड़ जाता है और कभी तेज़ हो जाता है । कविता में इस तरह का विभाजन अंततः कविता के ही विरुद्ध जाता है और उसी को क्षतिग्रस्त करता है । नवगीत में ऐसे कई लोग हैं जो सिर्फ कविता और अच्छी कविता के ही प्रशंसक हैं फिर वह किसी भी फॉर्म में हो लेकिन दूसरा वर्ग केवल छांदसिक रचनाओं को गरियाने या धकियाने
में ही रुचि रखता है । अरुण कमल की मैं प्रशंसा करता हूँ जिन्होंने अपने एक साक्षात्कार में पिछले दिनों यह कहा कि हिंदी छंदों का मुझे ज्ञान नहीं है और मैं तो उन्हें ठीक से (लय के साथ) पढ़ भी नहीं सकता । कभी इसी तरह अपने एक साक्षात्कार में शमशेर बहादुर सिंह ने कहा था कि रचना में अगर छंद हो और वह अभिव्यक्ति को किसी तरह वाधित न करे तो वह सोने में सुहागा जैसा होगा । बात साफ है कि रचना महत्वपूर्ण है, फॉर्म उसे और अधिक ग्राह्य और सम्प्रेषणीय बनाता है । छांदसिक कविता को इसी दृष्टि से जाँचा परखा जाना चाहिए । सिर्फ छंद में होने से ही कोई कविता, कविता के संसार से वहिष्कृत नहीं की जानी चाहिए ठीक उसी तरह जैसे मुक्तछंद में होने पर कोई कविता, कविता के लोक की नागरिक नहीं बन सकती । ऐसा होगा तो भवानी प्रसाद मिश्र, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, धर्मवीर भारती आदि जैसे असंख्य कवियों की रचनाओं के प्रति एक अंधदृष्टि ही काम करेगी । क्या राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, वीरेन डंगवाल, नरेन्द्र जैन आदि को मैं इसलिए पढ़ना छोड़ दूँ या उन्हें कवि ही मानना छोड़ दूँ कि वे मुक्तछंद में लिखते हैं । ऐसी दृष्टियाँ संकीर्णता की परिचायक हैं, रचना के संसार में इनके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए ।
व्योम ः जहाँ कुछ गीतकवियों की रचनाओं में अभिनव प्रयोग के नाम पर अपरिचित प्रतीकों के
साथ-साथ दुरूह शब्दावली का प्रयोग मिलता है, वहीं अनेक गीत कवियों द्वारा अपनी
रचनाओं को नवगीत का नाम देकर सपाटबयानी को परोसा जा रहा है, आपको क्या लगता
है ?
मा.ति.: प्रयोगशीलता का स्वागत होना चाहिए । वह रचनाकर्म के निरंतर विकास की परिचायक है लेकिन भाषा और अन्यान्य प्रयोगों से अगर सम्प्रेषणीयता वाधित होती है तो वह उचित नहीं है । रचनाकर्म दो तरह का होता है - स्वतः स्फूर्त और द्राविण प्राणायाम से ग्रसित । अगर रचना स्वतः स्फूर्त नहीं है और आप सृजन की अपेक्षा सृजन को उत्पादन में ढालने की कोशिश करते हैं वह रचनाकर्म से छिटककर अलग हो जाता है । कभी एक मध्यकालीन हिंदी कवि ने लिखा था - ‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत/ मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’ । शायद इस तरह के लोग पहले भी रहे हैं तभी तो कवि को यह लिखना पड़ा । सपाटबयानी अगर कविता में ढलकर आए तो वह कविता ही होगी । सरलता और सपाटबयानी दोनों अलग-अलग हैं । जब शैलेन्द्र लिखते हैं - ‘तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर’ तो यह सपाटबयानी नहीं है, यह एक ऐसी रचना है जो करोड़ों लोगों को प्रेरित करती है । सपाट गद्य तो हो सकता है कविता नहीं ।
व्योम ः आजकल एक नया प्रयोग प्रचलन में है कि हिंदी के रचनाकार ग़ज़लें और उर्दू के रचनाकार
गीत लिख रहे हैं, परिणामतः शिल्पदोष का ख़तरा दोनों ही ओर उत्पन्न हो रहा है, आपका
मत क्या है ?
मा.ति.: हिंदी और उर्दू दोनों भारतीय ज़मीन की उपज हैं, इनमें परस्पर लेन-देन, प्रभाव ग्रहण स्वीकार्य होना चाहिए । उर्दू में जो गीत लिखे जा रहे हैं उनकी अंतर्वस्तु काफी पीछे की है। उनमें समकालीन यथार्थ नहीं है । हिंदी कवियों द्वारा लिखी जा रही ग़ज़लों में छांदसिक त्रुटियाँ ढूँढी जा सकती हैं लेकिन काफी हद तक उनमें सुधार आया है, फिर भी पूर्णतः दोषमुक्त होने में उसे अभी समय लगेगा । उर्दू गीत को समकालीन गीत के बरक्श खड़ा होना पड़ेगा । यह असंभव भी नहीं है, सिर्फ गीत लेखन को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।
व्योम ः हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में आपका विशद अध्ययन है । वर्तमान में कहानी, उपन्यास,
लघुकथा आदि को विमर्श के खांचों में फिट किया जा रहा है, जैसे अमुक कहानी स्त्री-विमर्श पर है या दलित-विमर्श पर केन्द्रित है । विमर्श के नाम पर इस तरह के बँटवारे से आप कितना और क्यों सहमत या असहमत हैं, क्या गीत-नवगीत के संदर्भ में भी ऐसे प्रयोग की आशंकाएँ हैं ?
मा.ति.: विमर्श समकालीन लेखन को समझने की एक नई कोशिश है । फिर वह चाहे दलित लेखन हो या स्त्री विमर्श, होना यह चाहिये कि उन्हें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जाँचा परखा जाये । रचनाशीलता के पैमाने पर वह कितना कलात्मक है, यह जाँचना पहले जरूरी है । फिर उसमें जो विचार उपजते हैं उनकी पैमाइश की जानी चाहिये । आज जब दशकों में बाँटकर साहित्य की पड़ताल की जा रही है तो ये विमर्श भी उसी में आते हैं । अभी इनसे जुड़े रचनाकारों में स्वीकार्यता का संकट है, उससे मुक्त हो जायेंगे तो सब सामान्य लगेगा । गीत-नवगीत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं, वह आम आदमी, शोषित-पीड़ित जन का पक्षधर है जिसमें दलित भी हैं और स्त्री भी । गीत जोड़ता है खानाबंदी में विश्वास नहीं करता । गीत अपनेआप में जनकाव्य है, उसमें सामंत, शोषक, उत्पीड़क आ भी नहीं सकते।
व्योम ः वरिष्ठ रचनाकार श्री ज़हीर कुरैशी, सूर्यभानु गुप्त जैसे अनेक महत्वपूर्ण गीत-नवगीत कवि
बाद में ग़ज़ल, कहानी, समीक्षा के क्षेत्र में चले गए और वापस नहीं लौटे, आपकी दृष्टि में
इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं ?
मा.ति.: मैं इसे सकारात्मक रूप में लेता हूँ । हर रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए फॉर्म की तलाश करता रहता है और जब वह उसे मिल जाता है तो उसी में रम जाता है । यही दुष्यंत कुमार ने ‘साये में धूप’ की रचनाओं तक पहुँचने में किया । शलभ श्रीराम सिंह, नरेश सक्सेना, सूर्यभानु गुप्त आदि सबने यह किया है । अभिव्यक्ति के दबाव के कारण ही तो उपन्यास, कहानी, लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि का जन्म हुआ । जिस फॉर्म में जो
सहज महसूस करता है उसे ही अंततः अपना लेता है । गीत लेखन वैसे भी कठिन साधना और लम्बे धैर्य की माँग करता है । संभव है कि कुछ लोग उससे बचते हुए अपेक्षाकृत कम साधना वाले पथ अपनाते होंगे । वैसे ज़हीर कुरैशी ने अपनी ग़ज़लों और दोहों में और इसी तरह सूर्यभानु गुप्त ने जो दोहे और ग़ज़लें लिखी हैं, उनमें नवगीत झाँकता दिख जाएगा अगर ग़ौर से देखें तो । कैलाश गौतम, यश मालवीय, विनय मिश्र ने भी तो यही किया है, इन सबमें नवगीत उपस्थित है । हाँ, कुछ लोग अवश्य हैं जो गीत से मुक्त होकर पूरी तरह ग़ज़लियत में समा गए ।
व्योम ः नवगीत के क्षेत्र में श्रीमति शांति सुमन, डॉ. यशोधरा राठौर, राजकुमारी ‘रश्मि’, मधु शुक्ला
आदि कुछ ही गिनी-चुनी महिलाओं ने अपना सम्मानजनक स्थान बनाया है, क्या कारण रहे
कि नवगीत सृजन में महिला रचनाकारों की संख्या पुरुषों की तुलना में काफी कम रही ?
मा.ति.: हिंदी साहित्य में, विशेष रूप से कविता के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति पुरुषों की अपेक्षा कम रही है । पुराने साहित्य में भी हमें मीरा, सहजोबाई, आलम जैसे कुछ ही नाम मिलते हैं । आधुनिक काल में भी तारापंत, महादेवी वर्मा, तोरनदेव लली, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, शकुन्तला सिरौठिया, स्नेह लता स्नेह जैसी अल्प संख्या में ही महिलाएं सक्रिय रही हैं । हाँ, गद्य में अवश्य यह संख्या बढ़ी है । इसलिये नवगीत में डॉ0 शांति सुमन, डॉ0 यशोधरा राठौर, राजकुमारी रश्मि, मधु शुक्ला जैसे यदि कुछ नाम ही उभरकर सामने आये तो चिन्ता की बात नहीं है । इनका लेखन अपने समकालीन पुरुष रचनाकारों के समानान्तर किस मज़बूती से खड़ा है, यह विचारणीय है । गीत घर से बाहर निकलकर ही लोगों के जीवन, अपने समकालीन समय को ठीक से जानने बूझने के बाद ही लिखा जा सकता है । गीत लेखन वातानुकूलित कमरों, सजे-धजे ड्राइंग रूमों, प्रभावशाली अध्ययन कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता । अपने गृहस्थ जीवन के दायित्वों को निभाते हुए एक आम भारतीय गृहणी घर से ज़्यादा से ज़्यादा बाज़ार तक ही जा सकती है। इससे उसे अपने लेखन की विषय वस्तु के चयन और उसकी उत्प्रेरक स्थितियों से साक्षात्कार सम्भव है । डॉ0 कीर्ति काले में भी व्यापक सम्भावनायें थी लेकिन बाजार ने उनके साथ भी काफी तोड़-फोड़ की । बाकी तो भीड़ भी है और भाड़ भी । लेकिन जो हैं बे मज़बूत कदम काठी, गहरी वैचारिकता से लैस सृजन में रत हैं, उनका सम्मान किया जाना चाहिये । नवगीत को भीड़ की नहीं समर्थ रचनाकारों की ज़रूरत है ।
व्योम ः गीत को केन्द्र में रखकर संकल्परथ, शिवम, उत्त्तरायण, समान्तर आदि अनेक पत्रिकाएँ
प्रकाशित हो रही हैं, हाल ही में इंटरनेट पर भी ‘गीत-पहल’ नाम से पूर्णतः गीत नवगीत
को समर्पित पत्रिका शुरू हुई है और ‘पूर्वाभास’, ‘सुनहरी क़लम से’, ‘छांदसिक अनुगायन’
आदि अनेक ब्लॉग्स भी है, इन प्रयासों से गीत के भविष्य को आप किस तरह देखते हैं ?
मा.ति. ः गीत केन्द्रित पत्रिकाएँ और इंटरनेट पर गीत-पहल ही नहीं कविता-कोश, सृजनगाथा,
अनुभूति सहित ब्लॉग्स- पूर्वाभास, सुनहरी क़लम से, आदि मेरे विश्वास के ही तो कारक
हैं ।
व्योम ः आपकी चार नवगीत कृतियाँ प्रकाशित हो चुकीं हैं और कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की बाट
जोह रही हैं, उक्त के अतिरिक्त आप द्वारा गद्य में भी आलेख आदि के रूप में पर्याप्त
मात्रा में महत्वपूर्ण सृजन किया गया है, कृतियों के प्रकाशन की आगामी योजना क्या है ?
मा.ति.: कविता संकलनों के प्रकाशन की स्थिति कभी भी सुखद नहीं रही । दुलारेलाल भार्गव जो निराला जी की कृतियों के एक प्रमुख प्रकाशक भी रहे, वे स्वयँ भी एक कवि थे लेकिन निराला जी का अनुभव उनके साथ भी बहुत सुखद नहीं रहा । प्रकाशन एक लम्बा चौड़ा व्यवसाय बन गया है । कोई अपनी कृति प्रकाशित कराना चाहता है तो उसे अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है । अगर कोई निजी तौर पर अपना संकलन छपवाता है तो उसके सामने व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचाने कोई तंत्र नहीं होता, फलतः अधिकांश पुस्तकें लोकार्पण में और मुफ़्त में बँट जाती हैं और बची हुई पुस्तकें कमरे का एक कोना घेरकर पड़ी निरीह भाव से ताकती रहती हैं । ऐसे में आगामी प्रकाशनों के विषय में क्या आश्वस्ति पाल सकता हूँ । हाँ, यह अवश्य है कि यदि प्रकाशन का सुयोग मिला तो पहले मैं अपने शेष गीत संग्रहों को प्राथमिकता दूँगा । गद्य का प्रकाशन बाद में होगा या नहीं भी होगा तो मुझे कोई चिंता नहीं है । मेरा काम है लेखन, वह बना रहेगा सिर्फ इस संबंध में विश्वासपूर्ण आश्वस्ति सौंप सकता हूँ ।
व्योम ः आपका विपुल सृजन और आपकी अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ किसी को भी आपसे
ईर्ष्याभाव रखने लिए उकसा सकती है, फिरभी ऐसा क्या है जो आपको लगता है कि अभी
करना बाक़ी है ?
मा.ति. ः सृजन का मूल्यांकन संख्या के आधार पर नहीं उसकी गुणात्मकता के आधार पर होना
चाहिए । यह गुणात्मकता निरंतर सृजनशीलता से ही पाई जा सकती है । रचना में ठहराव या जो रच चुके हैं उसी को उपलब्धि मान लेना आत्महत्या है । मुझे महसूस होता है कि अब तक मैंने जो लिखा है उससे कहीं ज़्यादा अभी अनलिखा ही रह गया है । संभवतः माहेश्वर तिवारी को जो और जैसा लिखना था, वह अभी नहीं लिख पाए हैं इसीलिए उसतक पहुँचने और उसे लिखने के क्रम में ही लिखना ज़ारी है । हर रचना एक उपलब्धि है लेकिन उससे आगे जो है उसे पाने तक लिखना है । हो सकता है इस जीवन में संभव न हो तो अगले जीवन में भी उसके लिए प्रयासरत रह सकूँ, यही कामना है । एक बड़ी कविता लिखना चाहता हूँ गीत के रूप में, कुछ प्रबंधात्मक भी और वह जब तक न मिल जाए लिखते रहना है ।
व्योम ः नवगीत के संदर्भ में नई पीढी की दशा और दिशा के विषय में आपका मत क्या है और
नई पीढी से नवगीत के भविष्य के प्रति आपकी अपेक्षाएँ क्या हैं ?
मा.ति. ः गीत-लेखन साधना की अपेक्षा रखता है । नए लोग शार्टकट अपनाना चाहते हैं इसीलिए
आज गीतकवि कम संख्या में सामने आ रहे हैं । एक समय तो यश मालवीय और विनोद श्रीवास्तव तक आकर लगा कि नवगीत लेखन की परंपरा ख़त्म हो गई लेकिन यशोधरा राठौर, योगेन्द्र ‘व्योम’, जयकृष्ण ‘तुषार’, आनंद ‘गौरव’, देवेन्द्र ‘सफल’, शैलेन्द्र शर्मा, आनंद तिवारी, अवनीश सिंह चौहान, मनोज जैन ‘मधुर’ की रचनाशीलता के रूप में फिर नवगीत की डालों में कल्ले फूटते नज़र आने लगे हैं । नई पीढी से अपेक्षा है कि वह चकाचौंध (ग़ज़ल, दोहा आदि) से निकलकर गीत से, नवगीत से जुड़कर अपनी भारतीय कविता की जड़ों की ओर लौटे । यह लौटना पीछे लौटना नहीं, ठहराव से निकलकर आगे बढ़ना होगा । कविता को उसकी अपनी ज़मीन से जोड़ना होगा ।
व्योम ः कृपया अपने जीवन का कोई रोचक संस्मरण सुनाइये ?
मा.ति. ः जीवन तमाम प्रसंगों से भरा है । इस समय एक प्रसंग याद आ रहा है - सुल्तानपुर
(उ.प्र.) के राजकीय इंटर कॉलेज में कविसम्मेलन था । संयोजक कथाकार स्व. गंगाप्रसाद मिश्र थे । उनसे मेरा पारिवारिक रिश्ता था । कविसम्मेलन में देर से पहुँचने के कारण जिन कपड़ों में था उन्हीं में सीधा मंच पर पहुँच गया ।मंच पर पहुँचते ही काव्यपाठ करना पड़ा । कविता पढ़कर मंच से उठकर चाय पीने के लिए आया । मैंनें कविसम्मेलन में अपना याद वाला गीत पढ़ा- ‘याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे/जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे’ । चाय पी रहा था तो एक वयोबृद्ध सज्जन पास आए और ऐसा सवाल कर बैठे कि उनकी आयु और प्रश्न सुनकर मैं चौंक गया । उन सज्जन ने बड़ी गंभीरता से कहा - ‘तिवारीजी, मेरी एक जिज्ञासा है’ मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया तो पूछ बैठे - ‘यह घटना कहाँ की है और यह किरन कौन है? क्या वह आपके साथ नहीं थी उस पहाड़ पर’ मैंने जैसे-तैसे उन्हें टाला, और जब कवि मित्रों से उसकी चर्चा की तो सभी ठहाका मारकर हंस पड़े ।
-माहेश्वर तिवारी
हिन्दी साहित्य में जब-जब नवगीत की संवेदना और युगीन संदर्भों के साथ-साथ भाषागत सहजता व आंचलिक मिठास की चर्चा होती है, हिन्दी नवगीत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के सृजनात्मक उल्लेख के बिना न तो वह पूर्ण होती है और ना ही उस चर्चा का कोई महत्व रहता है । हिन्दी नवगीत के वह महत्वपूर्ण और अद्वितीय हस्ताक्षर श्री माहेश्वर तिवारी हैं । 22 जुलाई 1939 को बस्ती (उ.प्र.) में जन्मे श्री तिवारी की अब तक 4 नवगीत कृतियों - ‘हरसिंगार कोई तो हो’ , ‘नदी का अकेलापन’, ‘सच की कोई शर्त नहीं’ और ‘फूल आए हैं कनेरों में’ के अतिरिक्त नवगीत की कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं । हिन्दी गीत-नवगीत के संदर्भ में श्री तिवारी से महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बातचीत की योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ ने -
व्योम : नवगीत आपकी दृष्टि में क्या है और इसकी क्या-क्या शर्तें व मर्यादायें हैं ?
मा.ति. : नवगीत भारतीयता से जुड़ा और आधुनिकता तथा वैज्ञानिक बोध से जुड़ा वह काव्य-रूप हैै ,जो छायावादोत्तर गीत-धारा से, गेयत्व को छोड़कर शेष सभी रूपों में आधुनिक मनुष्य का
गीत है । इसमें प्रेम के नाम पर न तो मध्यकालीन परकीया भाव है और न कुहासे से भरी
कल्पनाशीलता । इसमें सजग सामाजिक बोध और घर-आँगन का विश्वसनीय चेहरा है ।
आधुनिकता से उपजीं विकृतियों के प्रति भी चौकन्नी जागरुकता, राजनीतिक, आर्थिक
विसंगतियों के प्रति एक प्रतिपक्ष का भाव तो इसमें है ही, सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें
भारतीय संस्कृति और देशी ज़मीन के प्रति गहरे सरोकार भी हैं । यह समकालीन अन्य तमाम रूपों की तरह आयातित काव्य-रूप नहीं है । यह निजत्व से जुड़ा होकर भी उस आत्माभिव्यक्ति से मुक्त है जो कभी-कभी कविता के धरातल से खिसककर डायरी के रूप में सामने आ जाता है ।
व्योम : आप नवगीत का आरम्भ कहाँ से मानते हैं, महाप्राण निराला से या उससे भी पहले ?
मा.ति.: नवगीत की पहली आहट निराला के गीतों में ही मिलती है । गीत की नई भाषा और शिल्प की नई बुनावट सबसे पहले महाप्राण निराला में ही मिलती है । यह ध्यान देने की बात है कि गीत ही नहीं, प्रयोगवादी और कालान्तर में नई कविता के नाम से अभिहित समकालीन कविता के प्रथम प्रयोक्ता भी निराला ही हैं । कुछ लोग नवगीत का आरंभ छठे दशक से मानने के आग्रही हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा को उत्तरकाशी या उससे आगे मानने की अपेक्षा गंगोत्री से ही माना जाना चाहिए क्योंकि गंगोत्री से निकलने के पश्चात गंगा भागीरथी, अलकनंदा आदि नामों से जगह-जगह जानी जाती है लेकिन उत्स तो गंगोत्री ही है, उसी तरह निराला को नवगीत का प्रथम पुरुष माना जाना चाहिए । डॉ. शम्भूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र जैसे नवगीत कवि निराला को ही नवगीत का पुरोधा मानने के आग्रही रहे हैं । नवगीत शब्द का पहली बार प्रयोग राजेन्द्रप्रसाद सिंह ने स्वयं द्वारा संपादित गीत संकलन ‘गीतांगिनी’ की भूमिका में लिखित रूप से किया लेकिन वह भी इसके प्रथमपुरुष नहीं स्वीकारे जा सकते हैं । इस सारे विमर्श के बाद निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नवगीत का आरंभ निराला से ही हुआ । अपनी प्रसिद्ध सरस्वती वंदना में निराला ने ही ‘नवगति, नवलय, ताल, छंद नव’ की बात का सबसे पहले उन्होंने ही उद्घोष किया ।
व्योम : कहा जाता है कि नवगीत यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ा है तथा उसमें व्यवस्था विरोध के साथ-साथ वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के विरुद्ध स्वर भी मुखर हुए हैं लेकिन भविष्य के गर्भ में झाँकने की कोशिशें नवगीत में उतनी नहीं हुईं, क्यों ?
मा.ति. : कोई भी रचना अपनी समकालीनता से जुड़ी होती है । वह अपने समय के यथार्थ को ही अभिव्यक्ति देती है । वह निष्कर्ष नहीं देती, वर्तमान की विसंगतियों, त्रासदियों को अपनी
अंतर्वस्तु में शामिलकर पाठकों को भविष्य के संकेत देती है । सौन्दर्यशास्त्र के नए मानक गढ़ती है । सामाजिक बदलावों की ज़रूरतों की ओर प्रच्छन्न संकेत करती है । इससे आगे सोचना उसके पाठकों और उसके समाज का दायित्व बनता है । यह सभी बड़े रचनाकार और उनका सृजन करता है । गीत महाकाव्य नहीं है कि उससे भविष्य के संकेत ढूँढे जाएँ। वैश्वीकरण और बढ़ते बाज़ारवाद के ख़तरों की ओर वह इंगित करता है । इससे बचाव और विकल्पों की तलाश उसका काम नहीं है । जब भारतेन्दु हरिश्चंद्र ‘आओ सब मिलकर रोबहु भाई/हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई’ या निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ में जो अंतर्वस्तु है वह सिर्फ अपने समय को ही अपनी अभिव्यक्ति में समेटती है, भविष्य की ओर संकेत दूसरी तरह की कविताओं में ढूँढा जा सकता है, गीत में नहीं ।
व्योम ः आपका सबसे प्रथम् नवगीत कौन सा था तथा कब और कहाँ प्रकाशित हुआ ?
मा.ति.: मैंने जिस समय गीत लेखन आरंभ किया उस समय ‘नवगीत’ शब्द चर्चा में नहीं था । तार-सप्तक के कवियों ने तथा उससे बाहर के प्रयोगवादी व नई कविता के कवियों ने जो गीत लिखे उन्हें कुछ समय तक नई कविता के गीत और नया गीत के नाम से जाना-पहचाना जाता रहा । सन् 1960 के बाद नए गीत कवियों की रचनाओं के लिए ‘नवगीत’ शब्द केन्द्र में आया । मेरे जिस गीत को लेकर मुझे नवगीतकारों में शामिल किया गया, वह है - ‘आओ हम धूप-वृक्ष काटें/इधर-उधर हल्कापन बाँटें’ । यह गीत पहली बार वाराणसी से प्रकाशित ‘मराल’ पत्रिका में सन् 1964 में छपा और चर्चित हुआ ।
व्योम ः गीत से नवगीत तक की यात्रा में हिन्दी कविता ने कौन-कौन सी उपलब्धियाँ हासिल कीं ?
मा.ति. ः कई पड़ाव आए गीत से नवगीत तक की यात्रा में, गीत कभी प्रगीत बना, स्वच्छंदावादी गीत
बना और फिर वह सन् साठ के बाद नवगीत बना । गीतों में प्रकृति-मनुष्य से अलग एक
इकाई थी किन्तु नवगीत में वह सहचरी बन गई । भवानी प्रसाद मिश्र के गीत ‘सतपुड़ा के घने जंगल/ऊँघते अनमने मंगल’ और ‘आज पानी गिर रहा है/घर नयन में तिर रहा है’ जिस नए गीत की आहट देते हैं वह गीत से नवगीत के प्रस्थानक बिन्दु के रूप में स्वीकारा जा सकता है । इस अंतर को तत्कालीन ‘नीरज’ और वीरेन्द्र मिश्र के गीतों के माध्यम से भी जाँचा परखा जा सकता है । वीरेन्द्र मिश्र ने अपने पीड़ा वाले गीत में कहा है - ‘पीर मेरी कर रही ग़मगीन मुझको/और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी/और उससे भी अधिक हर पाँव की जंजीर रानी’ जबकि नीरज लिख रहे थे - ‘देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम/प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा’ । गीत वैदिक ऋचाओं के रूप में उपजा और वह लोक जीवन तथा लोकमानस से होकर नवगीत तक आया । कुछ लोगों का मत है कि नवगीत नई कविता की अनुकृति से उपजा, यह मिथ्या भ्रम है । महाप्राण निराला की सरस्वतीवंदना में ‘नव-गति, नव-लय, ताल छंद नव’ ही नवगीत का बीजमंत्र कहा जा सकता है ।
व्योम ः स्व. डॉ.शम्भूनाथ सिंह द्वारा संपादित नवगीत दशक श्रंखला तथा नवगीत अर्द्धशती के संदर्भ
में कहा जाता है कि इन ऐतिहासिक समवेत संकलनों में तत्कालीन कुछ महत्वपूर्ण नाम सम्मलित नहीं हो सके, इसकी क्या वज़ह रही ?
मा.ति.: यह बात बिल्कुल सच है कि नवगीत दशक तथा नवगीत अर्द्धशती में कुछ महत्वपूर्ण रचनाकार छोड़ दिए गए या छूट गए । ऐसा तार सप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक
में भी हुआ था और पिछले दिनों साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘श्रेष्ठ गीत संचयन’ में भी यह कमी पाई गई । ऐसा प्रायः संपादक की निजी रुचि और संकलनों की सीमाओं के कारण भी होता है । नवगीत दशक-एक के प्रकाशन के बाद स्व. ठाकुरप्रसाद सिंह ने सबसे पहले इस बात को लेकर एतराज किया था कि उसमें कुछ ऐसे नाम हैं जो नहीं होने चाहिए और कुछ ऐसे महत्वपूर्ण नाम हैं जो होने चाहिए थे । एक बात यह भी है कि नवगीत दशक के प्रकाशन की प्रक्रिया 1968 में ही आरंभ हो गई थी और उस समय मात्र एक ही संकलन की योजना आर्थिक सहयोग के आधार पर तैयार हुई थी । उसमें कई नाम ऐसे थे जो बाद में दशकत्रयी में शामिल नहीं किए गए । उस संकलन की फ़ाइल संपादक की अपनी व्यस्तताओं और कुछ के आर्थिक सहयोग से इंकार कर देने के कारण फ़ाइलों के ढ़ेर में दबी रह गई । डॉ. सुरेश जब डॉ. शम्भूनाथ सिंह के निर्देशन में शोधकार्य में जुटे तो वह फाइल उनके हाथ लग गई तो डॉ. शम्भूनाथ जी से चर्चा उपरान्त तीन नवगीत दशकों के प्रकाशन की योजना बनी । इस योजना में मेरा नाम पहले दशक के रचनाकारों की सूची में था लेकिन जब आयुक्रम से चयन की बात आई तो मेरा नाम खिसककर दूसरे दशक में आ गया । बहरहाल स्व. राजेन्द्रप्रसाद सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, शलभ श्रीराम सिंह जैसे प्रमुख लोगों का नाम दशक त्रयी में न होना हमारे लिए भी असहज कर देने वाला था । हमने अपने-अपने ढंग से अपनी आपत्तियाँ संपादक तक पहुँचायीं पर कोई सुनवाई नहीं हुई बल्कि स्व. ठाकुरप्रसाद सिंह तथा मुझे अपने एक लेख में डॉ. शंभूनाथजी ने नवगीत का शत्रु तक सिद्ध कर दिया लेकिन अपनी इस ग़लती का एहसास बाद में उन्हें भी हुआ और नवगीत अर्द्धशती में वीरेन्द्र मिश्र तथा शलभ श्रीराम सिंह को शामिल करने को वह तैयार थे किन्तु उन दोनों रचनाकारों की ओर से न तो कोई सकारात्मक उत्तर मिला और न रचनात्मक सहयोग । इससे नवगीत दशकों और नवगीत अर्द्धशती में एक अधूरापन तो रहा लेकिन इससे उनकी ऐतिहासिकता को नकारा नहीं जा सकता ।
व्योम: नवगीत को केन्द्र में रखकर काफी काम हुआ है, नवगीत दशक श्रृंखला के अतिरिक्त नवगीत और उसका युगबोध, शब्दपदी, धार पर हम आदि समवेत पुस्तकें प्रकाशित हुईं किन्तु नवगीत का सर्वमान्य एक पारिभाषिक चित्र प्रस्तुत करने के स्थान पर भ्रामक स्थितियाँ ज़रूर बनीं, आप क्या मानते हैं ?
मा.ति.: नवगीत को केन्द्र में रखकर नवगीत दशकों के बाद में आए कई समवेत संकलनों, जिनका ज़िक्र आपने किया है उससे भी पहले बासंती, रश्मि, कविता-64, वातायन, अंतराल, सांध्य मित्रा, नवगीत जैसी पत्रिकाओं के नवगीत विशेषांकों ने नवगीत को लेकर काफी काम किया। नवगीत की चर्चा करने वाले अक्सर इन महत्वपूर्ण प्रयासों को भूल जाते हैं या उनकी अनदेखी कर देते हैं । कालान्तर में आए पाँच जोड़ बाँसुरी, गीत जैसे समवेत संकलनों की ओर पता नहीं किन कारणों से उनका ध्यान नहीं जाता । विगत वर्षों में इस दिशा में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप दिनेश सिंह के संपादन में आई पत्रिका ‘नए-पुराने’ ने किया । रचना और विमर्श दोनों दृष्टियों से नए-पुराने के अंक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन गए । आप जिस तरह की अपेक्षा करते हैं उसके लिए नवगीत का ‘गोल्डन-ट्रेज़री’ जैसा कोई संकलन आए तभी काम हो सकता है । नवगीत दशक, नवगीत अर्द्धशती, शब्दपदी, धार पर हम, नवगीत सप्तक आदि की सीमाओं और उनके संपादकों की निजी पसंद-नापसंद तथा नवगीत संबंधी संपादक की निजी अवधारणाएँ, रचनाकारों की आपसी टालमटोल आदि कई कारक हैं जो नवगीत को समग्रता के साथ प्रस्तुत करने में बाधक बनते हैं । दूसरी बात यह कि नवगीत गतिशील रचनाकर्म है, नित नए रचनाकार उसकी भूमि में प्रवेश करते हैं फिर उन सबको समेटना एक तटस्थतापूर्ण कठिन श्रम और भारी आर्थिक प्रबंधन की माँग करता है । क्या यह उन लोगों से संभव है जो स्वयँ अपने प्रस्तोता हैं और इस बात के आग्रही कि जो है वह उन्हीं से माना जाना चाहिए तथा उसके आगे-पीछे का सब व्यर्थ है । पिछले दिनों इसी तरह की एक आत्मकेन्द्रित घोषणा देश की राजधानी से भी हुई है । ऐसा कार्य या तो
दुराग्रहपूर्ण होता है या अल्पज्ञान का प्रतीक । दिल्ली का वैसे भी स्वभाव रहा है कि वह सिर्फ अपने को ही देखती है और मानती है कि वही पूरे देश को देख रही है ।
व्योम ः ज़रा पलटकर गुज़रे वक़्त पर नज़र डालें, अपने गीतों के कारण निराला से लेकर बच्चन,
नेपाली, वीरेन्द्र मिश्र, नीरज, भारत भूषण, सोम ठाकुर आदि ने काफी लोकप्रियता अर्जित
की और उनके गीत लोगों के दिलो-दिमाग़ पर छाए ही नहीं, बस गए जबकि नवगीत के
संदर्भ में ऐसा नहीं हो सका, नवगीत पठनीय तो अधिक रहे किन्तु गुनगुनाए कम गए, इसके पीछे आप किन कारणों को ज़िम्मेदार मानते हैं ?
मा.ति.: देखिए, लोकप्रियता एक अलग विषय है । कोई रचना लोकप्रिय होने से ही बढ़िया नहीं हो जाती और उसकी अपेक्षा कम लोकप्रिय रचना को भी सिर्फ इसलिए नहीं नकारा जाना चाहिए कि वह कुछ की अपेक्षा कम लोकप्रिय रही । यह सवाल किसी भी प्रकार के लेखन की पड़ताल करें तो पता चल सकता है । कहानी, उपन्यास आदि की दिशा में प्रेमचंद्र कितने लोगों तक पहुँचे । ‘मैला आँचल’ के बाद फणीश्वरनाथ रेणु की और भी कृतियाँ आईं लेकिन क्या वे उसी तरह व्यापक स्वीकार्य की सीमा में शामिल हो सकीं जैसे ‘मैला आँचल’ । निराला की लोकप्रियता कितनी है जिनकी तुलना में अन्य लोगों के नाम का उल्लेख आपने किया है । डॉ. शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र आदि जैसे कुछ नवगीत कवि रहे हैं जिन्होंने लोकप्रियता की परिधि में सार्थक उपस्थिति दर्ज़ की । आपने जो नाम गिनाए हैं उनमें कितने हैं जो नवगीत से जुड़े हैं । वे क्या लिखते हैं और मंच पर क्या प्रस्तुत करते हैं इसकी भी जाँच परख होनी चाहिए । उनकी लोकप्रियता के पीछे मंच पर उनकी प्रस्तुतिकला भी एक महत्वपूर्ण कारक होती है । रचना की गुणवत्ता का उसमें बहुत बड़ा हाथ नहीं होता । आज मंच पर ऐसे बहुत से कवि हैं जो लोकप्रियता में इनमें से किसी से कम नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाएँ सृजनात्मकता के धरातल पर कहाँ ठहरती हैं ? कविता के ग्रहण के लिए पाठक या श्रोता में कुछ संस्कारों की आवश्यकता होती है । वास्तविकता यह है कि आज समाज में उसी संस्कार की कमी होती जा रही है । नवगीत पढ़े भी गए हैं और गुनगुनाए भी जाते रहे हैं, यह अलग बात है कि वे गाए कम गुनगुनाए अधिक गए ।
व्योम: नवगीत को पूर्व में नया गीत आदि-आदि नामों से पुकारा गया, पचास वर्षों से भी अधिक यात्रा करने के बाबजूद नाम का संकट आज भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा है,
आपको क्या लगता है ?
मा.ति.: यह संकट नवगीत का नहीं है । नवगीत की परिधि से छूटे या खिसकाए गए कुछ लोग उसे नए-नए नाम देकर जुलूस में शामिल होना चाहते हैं । मैंने भी सहज गीत की चर्चा की है लेकिन वह गीत की संप्रेषणीयता से जुड़ा है । नई कविता के गीत, नए गीत आदि नाम उस
समय गीत में आए बदलाव की ओर संकेत करते हैं । वे संज्ञाएँ नहीं हैं, विशेषण हैं उस समय की रचनाओं को रेखांकित करने वाले । अब नामकरण का एक सिलसिला बन गया है और किसी के विरुद्ध अध्यादेश तो लाया नहीं जा सकता । यह तो रचना और विचार का लोकतंत्र है । हाँ, यह ध्यान देने की बात है कि लोकतंत्र की भी एक मर्यादा होती है, वह भीड़तंत्र नहीं है और ना ही अराजकता या तानाशाही । नवगीत के बाद गीत के अग्रिम चरण का एक ही सार्थक नाम है जन-पक्षधरता या जनबोध की ओर उन्मुख जनवादी गीत । ध्यान देने की बात है कि नवगीत का यह प्रस्थानक वैचारिकता और रचना की समाजोन्मुखता से लैस है । यह किसी की निजी उद्घोषणा नहीं, बरन जन-पक्षधरता की चिंतनशीलता और रचनाकर्म के अभिप्रेय से जुड़ा है ।
व्योम ः एक प्रमुख दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित अपने आलेख में आपने सहज
गीत के संदर्भ में महत्वपूर्ण बातें कही हैं, सहज गीत नवगीत से कैसे और कितना भिन्न
है ?
मा.ति. ः सहज गीत में मैंने ऐसी रचना की बात उठाने का प्रयास किया जो अभिव्यक्ति की सहजता
से जुड़ी हो । देखने में यह आता है कि कुछ लोग अतिशय प्रयोगशीलता के मोह में इस बात को भूल जाते हैं कि सम्प्रेषणीयता भी रचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता है और भाषा, बिंब रचना के कारण दुरूहता के शिकार हो जाते हैं । ऐसी रचनाएँ चौंकाती ज़्यादा, भाती कम हैं और उनका अपने पाठक या श्रोता से सहज-संवाद नहीं बन पाता । वे इस प्रयास में विद्यापति, सूर, तुलसी के कुलगोत्र से हटकर केशवदास के कुलगोत्र में शामिल हो जाते हैं मेरी अवधारणा में सहजगीत में वे सारे गीत-रूप समाहित हैं जो अभिव्यक्ति में सहज और सम्प्रेषणीय हैं । नवगीत और सहजगीत में सिर्फ़ शब्द का अंतर है । नवगीत भी सहजगीत हो सकता है और सहजगीत नवगीत । कुछ लोग नवगीत के नाम पर कार्बन लेखन करते हैं और वे सहज-मौलिकता की परिधि से बाहर चले जाते हैं । एक महत्वपूर्ण बात है कि अपने आरंभिक काल में नवगीत ने लोकजीवन से नई ऊर्जा ग्रहण की लेकिन कुछ लोगों ने उसे नवगीत का प्रतिमान मानकर इतने आंचलिक प्रयोग किए विशेषतः भाषा के स्तर पर कि
वे सम्प्रेषणीय नहीं रह गए । इसी तरह कुछ भाषाविदों ने तत्सम शब्दाबली के प्रति इतनी गहरी रुचि दिखलाई कि उनकी रचनाओं को समझने के लिए कभी-कभी पढे-लिखे लोगों को भी शब्दकोषों का सहारा लेना पड़ा । दरअसल इनसे मुक्त गीत ही नवगीत है, गीत नवांतर है, जनवादी गीत है जिसे मैं सहज गीत मानता हूँ ।
व्योम ः आपके नवगीतों में कथ्य और बिंबों में नयापन तथा भाषा में एक अलग तरह की मिठास
एक साथ गुंथी हुई होती है, ऐसा कैसे कर लेते हैं आप ?
मा.ति. ः मैं अपने कथ्य अपने समकालीन जनजीवन से उठाता हूँ । मुझे बिंब और भाषा के लिए
किसी द्राविड़प्राणायाम की आवश्यकता महसूस नहीं होती । हमारे आसपास होती बतियाहट, जीवन के रस में डूबी शब्द संपदा स्वयँ यह मिठास भर देती है । कविता में मैंने भवानी प्रसाद मिश्र और ठाकुरप्रसाद सिंह से मिठास को पहचानना और अपनाना सीखा है, मैंने कुमार गंधर्व, पं. जसराज, किशोरी अमोनकर से संगीत की मिठास को अपने में महसूस किया है और फिर उसे अपने शब्दों, बिंबों में पिरोने का प्रयास किया है । जिस तरह गन्ने से मिठास पाई जाती है ऊपर का सख़्त छिलका, गांठें हटाकर । उसी तरह मैंने जीवन के खुरदुरेपन में भी मिठास पाने का प्रयत्न किया है । मैंने जीवन में रिश्तों को बहुत महत्व दिया है । सबको प्यार, अपनापन देने और सबसे पाने का आग्रही रहा हूँ । यह मिठास वहाँ से भी मिलती है । मेरे लिए घर मिठास का सबसे बड़ा श्रोत है । वहाँ से भाषा भी मिलती है और विचार भी ।
व्योम ः आप लम्बे समय से कविसम्मेलनीय मंचों से जुड़े रहे हैं, आज भी उसी ऊर्जा के साथ
आपकी उपस्थिति मंचीय गरिमा में बृद्धि कर रही है । कृपया बताएँ कि आज अकविता के
संक्रमण काल में क्या मंचों पर फिर से गीत का वही स्वर्णिम समय वापस लौटने की आशा
की जा सकती है ?
मा.ति. ः आप जिसे अकविता कहते हैं, मैं उसे कवित्वहीनता मानता हूँ । मैंने छठे दशक के उत्तरार्ध
से कविसम्मेलनों में जाना आरंभ किया था । उस समय जो कवि मंचों पर उपस्थित रहते थे वे साहित्य जगत के प्रतिष्ठित लोग थे । पत्र-पत्रिकाओं, पाठ्य-पुस्तकों से लेकर मंचों तक । सन् 1962 के बाद वह सिलसिला क्षीण होता गया । अब तो मंच पर उपस्थित लोगों में एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो मंचों पर अभिनेताओं व जोकर कवियों की ही भीड़ है । सही कविता को अपदस्थ करने का अनवरत प्रयास ज़ारी है लेकिन मैं निराश नहीं हूँ । निराश होना मेरे स्वभाव में नहीं है । कविता लौटेगी फिर मंचों पर गीत के रूप में भी और अन्य रूपों में भी, ऐसा मेरा विश्वास है ।
व्योम ः आपने भोजपुरी में भी रचनाकर्म किया है, नवगीतों को आंचलिक भावभूमि पर उसी भाषा
में पगाकर प्रस्तुत किया जाता रहा है, वर्तमान में रचे जा रहे नवगीतों में आंचलिक भाषा
की क्या भूमिका है तथा नई कोंपलों से आंचलिकता के संदर्भ में क्या-क्या आशाएँ की जा
सकती हैं ?
मा.ति. ः आंचलिकता रचना में नवता लाती है लेकिन वह दाल में छौंक या बघार की सीमा तक ही
होनी चाहिए । किन्तु जब आंचलिकता को ही पूरी दाल बनाने की कोशिश किसी रचना में हो तो वह कविता का दोष बन जाती है और रचना का प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है । अपने आरंभिक काल में नवगीत के कई रचनाकारों ने यह काम किया लेकिन वह लोक- जीवन, लोक-प्रकृति, लोक-स्वर के स्तर पर और कुछ हद तक शब्द प्रयोग के स्तर पर भी । बहुत से लोग उसे शब्द तक ही सीमित कर देते हैं, इससे सम्प्रेषणीयता बाधित होती है । आंचलिकता को ऐसे लोग फै़शन के तौर पर लेते हैं, यह उचित नहीं है । शब्द को उसके परिवेश के साथ उठाना चाहिए ।
व्योम ः क्या आप मानते हैं कि गीत-नवगीत के विरुद्ध एक मोर्चा सुनियोजित रूप से लामबंद है,
यदि हाँ तो कृपया बताएँ कि हिंदी साहित्य पर इसके क्या-क्या प्रभाव पड़ने की संभावना है?
मा.ति.: गीत-नवगीत तो एक बहाना है, पूरे छांदसिक लेखन के बरख़िलाफ़ एक मोर्चा दशकों पहले से लामबंद है । वह कभी धीमा पड़ जाता है और कभी तेज़ हो जाता है । कविता में इस तरह का विभाजन अंततः कविता के ही विरुद्ध जाता है और उसी को क्षतिग्रस्त करता है । नवगीत में ऐसे कई लोग हैं जो सिर्फ कविता और अच्छी कविता के ही प्रशंसक हैं फिर वह किसी भी फॉर्म में हो लेकिन दूसरा वर्ग केवल छांदसिक रचनाओं को गरियाने या धकियाने
में ही रुचि रखता है । अरुण कमल की मैं प्रशंसा करता हूँ जिन्होंने अपने एक साक्षात्कार में पिछले दिनों यह कहा कि हिंदी छंदों का मुझे ज्ञान नहीं है और मैं तो उन्हें ठीक से (लय के साथ) पढ़ भी नहीं सकता । कभी इसी तरह अपने एक साक्षात्कार में शमशेर बहादुर सिंह ने कहा था कि रचना में अगर छंद हो और वह अभिव्यक्ति को किसी तरह वाधित न करे तो वह सोने में सुहागा जैसा होगा । बात साफ है कि रचना महत्वपूर्ण है, फॉर्म उसे और अधिक ग्राह्य और सम्प्रेषणीय बनाता है । छांदसिक कविता को इसी दृष्टि से जाँचा परखा जाना चाहिए । सिर्फ छंद में होने से ही कोई कविता, कविता के संसार से वहिष्कृत नहीं की जानी चाहिए ठीक उसी तरह जैसे मुक्तछंद में होने पर कोई कविता, कविता के लोक की नागरिक नहीं बन सकती । ऐसा होगा तो भवानी प्रसाद मिश्र, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, धर्मवीर भारती आदि जैसे असंख्य कवियों की रचनाओं के प्रति एक अंधदृष्टि ही काम करेगी । क्या राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, वीरेन डंगवाल, नरेन्द्र जैन आदि को मैं इसलिए पढ़ना छोड़ दूँ या उन्हें कवि ही मानना छोड़ दूँ कि वे मुक्तछंद में लिखते हैं । ऐसी दृष्टियाँ संकीर्णता की परिचायक हैं, रचना के संसार में इनके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए ।
व्योम ः जहाँ कुछ गीतकवियों की रचनाओं में अभिनव प्रयोग के नाम पर अपरिचित प्रतीकों के
साथ-साथ दुरूह शब्दावली का प्रयोग मिलता है, वहीं अनेक गीत कवियों द्वारा अपनी
रचनाओं को नवगीत का नाम देकर सपाटबयानी को परोसा जा रहा है, आपको क्या लगता
है ?
मा.ति.: प्रयोगशीलता का स्वागत होना चाहिए । वह रचनाकर्म के निरंतर विकास की परिचायक है लेकिन भाषा और अन्यान्य प्रयोगों से अगर सम्प्रेषणीयता वाधित होती है तो वह उचित नहीं है । रचनाकर्म दो तरह का होता है - स्वतः स्फूर्त और द्राविण प्राणायाम से ग्रसित । अगर रचना स्वतः स्फूर्त नहीं है और आप सृजन की अपेक्षा सृजन को उत्पादन में ढालने की कोशिश करते हैं वह रचनाकर्म से छिटककर अलग हो जाता है । कभी एक मध्यकालीन हिंदी कवि ने लिखा था - ‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत/ मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’ । शायद इस तरह के लोग पहले भी रहे हैं तभी तो कवि को यह लिखना पड़ा । सपाटबयानी अगर कविता में ढलकर आए तो वह कविता ही होगी । सरलता और सपाटबयानी दोनों अलग-अलग हैं । जब शैलेन्द्र लिखते हैं - ‘तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर’ तो यह सपाटबयानी नहीं है, यह एक ऐसी रचना है जो करोड़ों लोगों को प्रेरित करती है । सपाट गद्य तो हो सकता है कविता नहीं ।
व्योम ः आजकल एक नया प्रयोग प्रचलन में है कि हिंदी के रचनाकार ग़ज़लें और उर्दू के रचनाकार
गीत लिख रहे हैं, परिणामतः शिल्पदोष का ख़तरा दोनों ही ओर उत्पन्न हो रहा है, आपका
मत क्या है ?
मा.ति.: हिंदी और उर्दू दोनों भारतीय ज़मीन की उपज हैं, इनमें परस्पर लेन-देन, प्रभाव ग्रहण स्वीकार्य होना चाहिए । उर्दू में जो गीत लिखे जा रहे हैं उनकी अंतर्वस्तु काफी पीछे की है। उनमें समकालीन यथार्थ नहीं है । हिंदी कवियों द्वारा लिखी जा रही ग़ज़लों में छांदसिक त्रुटियाँ ढूँढी जा सकती हैं लेकिन काफी हद तक उनमें सुधार आया है, फिर भी पूर्णतः दोषमुक्त होने में उसे अभी समय लगेगा । उर्दू गीत को समकालीन गीत के बरक्श खड़ा होना पड़ेगा । यह असंभव भी नहीं है, सिर्फ गीत लेखन को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।
व्योम ः हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में आपका विशद अध्ययन है । वर्तमान में कहानी, उपन्यास,
लघुकथा आदि को विमर्श के खांचों में फिट किया जा रहा है, जैसे अमुक कहानी स्त्री-विमर्श पर है या दलित-विमर्श पर केन्द्रित है । विमर्श के नाम पर इस तरह के बँटवारे से आप कितना और क्यों सहमत या असहमत हैं, क्या गीत-नवगीत के संदर्भ में भी ऐसे प्रयोग की आशंकाएँ हैं ?
मा.ति.: विमर्श समकालीन लेखन को समझने की एक नई कोशिश है । फिर वह चाहे दलित लेखन हो या स्त्री विमर्श, होना यह चाहिये कि उन्हें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जाँचा परखा जाये । रचनाशीलता के पैमाने पर वह कितना कलात्मक है, यह जाँचना पहले जरूरी है । फिर उसमें जो विचार उपजते हैं उनकी पैमाइश की जानी चाहिये । आज जब दशकों में बाँटकर साहित्य की पड़ताल की जा रही है तो ये विमर्श भी उसी में आते हैं । अभी इनसे जुड़े रचनाकारों में स्वीकार्यता का संकट है, उससे मुक्त हो जायेंगे तो सब सामान्य लगेगा । गीत-नवगीत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं, वह आम आदमी, शोषित-पीड़ित जन का पक्षधर है जिसमें दलित भी हैं और स्त्री भी । गीत जोड़ता है खानाबंदी में विश्वास नहीं करता । गीत अपनेआप में जनकाव्य है, उसमें सामंत, शोषक, उत्पीड़क आ भी नहीं सकते।
व्योम ः वरिष्ठ रचनाकार श्री ज़हीर कुरैशी, सूर्यभानु गुप्त जैसे अनेक महत्वपूर्ण गीत-नवगीत कवि
बाद में ग़ज़ल, कहानी, समीक्षा के क्षेत्र में चले गए और वापस नहीं लौटे, आपकी दृष्टि में
इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं ?
मा.ति.: मैं इसे सकारात्मक रूप में लेता हूँ । हर रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए फॉर्म की तलाश करता रहता है और जब वह उसे मिल जाता है तो उसी में रम जाता है । यही दुष्यंत कुमार ने ‘साये में धूप’ की रचनाओं तक पहुँचने में किया । शलभ श्रीराम सिंह, नरेश सक्सेना, सूर्यभानु गुप्त आदि सबने यह किया है । अभिव्यक्ति के दबाव के कारण ही तो उपन्यास, कहानी, लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि का जन्म हुआ । जिस फॉर्म में जो
सहज महसूस करता है उसे ही अंततः अपना लेता है । गीत लेखन वैसे भी कठिन साधना और लम्बे धैर्य की माँग करता है । संभव है कि कुछ लोग उससे बचते हुए अपेक्षाकृत कम साधना वाले पथ अपनाते होंगे । वैसे ज़हीर कुरैशी ने अपनी ग़ज़लों और दोहों में और इसी तरह सूर्यभानु गुप्त ने जो दोहे और ग़ज़लें लिखी हैं, उनमें नवगीत झाँकता दिख जाएगा अगर ग़ौर से देखें तो । कैलाश गौतम, यश मालवीय, विनय मिश्र ने भी तो यही किया है, इन सबमें नवगीत उपस्थित है । हाँ, कुछ लोग अवश्य हैं जो गीत से मुक्त होकर पूरी तरह ग़ज़लियत में समा गए ।
व्योम ः नवगीत के क्षेत्र में श्रीमति शांति सुमन, डॉ. यशोधरा राठौर, राजकुमारी ‘रश्मि’, मधु शुक्ला
आदि कुछ ही गिनी-चुनी महिलाओं ने अपना सम्मानजनक स्थान बनाया है, क्या कारण रहे
कि नवगीत सृजन में महिला रचनाकारों की संख्या पुरुषों की तुलना में काफी कम रही ?
मा.ति.: हिंदी साहित्य में, विशेष रूप से कविता के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति पुरुषों की अपेक्षा कम रही है । पुराने साहित्य में भी हमें मीरा, सहजोबाई, आलम जैसे कुछ ही नाम मिलते हैं । आधुनिक काल में भी तारापंत, महादेवी वर्मा, तोरनदेव लली, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, शकुन्तला सिरौठिया, स्नेह लता स्नेह जैसी अल्प संख्या में ही महिलाएं सक्रिय रही हैं । हाँ, गद्य में अवश्य यह संख्या बढ़ी है । इसलिये नवगीत में डॉ0 शांति सुमन, डॉ0 यशोधरा राठौर, राजकुमारी रश्मि, मधु शुक्ला जैसे यदि कुछ नाम ही उभरकर सामने आये तो चिन्ता की बात नहीं है । इनका लेखन अपने समकालीन पुरुष रचनाकारों के समानान्तर किस मज़बूती से खड़ा है, यह विचारणीय है । गीत घर से बाहर निकलकर ही लोगों के जीवन, अपने समकालीन समय को ठीक से जानने बूझने के बाद ही लिखा जा सकता है । गीत लेखन वातानुकूलित कमरों, सजे-धजे ड्राइंग रूमों, प्रभावशाली अध्ययन कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता । अपने गृहस्थ जीवन के दायित्वों को निभाते हुए एक आम भारतीय गृहणी घर से ज़्यादा से ज़्यादा बाज़ार तक ही जा सकती है। इससे उसे अपने लेखन की विषय वस्तु के चयन और उसकी उत्प्रेरक स्थितियों से साक्षात्कार सम्भव है । डॉ0 कीर्ति काले में भी व्यापक सम्भावनायें थी लेकिन बाजार ने उनके साथ भी काफी तोड़-फोड़ की । बाकी तो भीड़ भी है और भाड़ भी । लेकिन जो हैं बे मज़बूत कदम काठी, गहरी वैचारिकता से लैस सृजन में रत हैं, उनका सम्मान किया जाना चाहिये । नवगीत को भीड़ की नहीं समर्थ रचनाकारों की ज़रूरत है ।
व्योम ः गीत को केन्द्र में रखकर संकल्परथ, शिवम, उत्त्तरायण, समान्तर आदि अनेक पत्रिकाएँ
प्रकाशित हो रही हैं, हाल ही में इंटरनेट पर भी ‘गीत-पहल’ नाम से पूर्णतः गीत नवगीत
को समर्पित पत्रिका शुरू हुई है और ‘पूर्वाभास’, ‘सुनहरी क़लम से’, ‘छांदसिक अनुगायन’
आदि अनेक ब्लॉग्स भी है, इन प्रयासों से गीत के भविष्य को आप किस तरह देखते हैं ?
मा.ति. ः गीत केन्द्रित पत्रिकाएँ और इंटरनेट पर गीत-पहल ही नहीं कविता-कोश, सृजनगाथा,
अनुभूति सहित ब्लॉग्स- पूर्वाभास, सुनहरी क़लम से, आदि मेरे विश्वास के ही तो कारक
हैं ।
व्योम ः आपकी चार नवगीत कृतियाँ प्रकाशित हो चुकीं हैं और कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की बाट
जोह रही हैं, उक्त के अतिरिक्त आप द्वारा गद्य में भी आलेख आदि के रूप में पर्याप्त
मात्रा में महत्वपूर्ण सृजन किया गया है, कृतियों के प्रकाशन की आगामी योजना क्या है ?
मा.ति.: कविता संकलनों के प्रकाशन की स्थिति कभी भी सुखद नहीं रही । दुलारेलाल भार्गव जो निराला जी की कृतियों के एक प्रमुख प्रकाशक भी रहे, वे स्वयँ भी एक कवि थे लेकिन निराला जी का अनुभव उनके साथ भी बहुत सुखद नहीं रहा । प्रकाशन एक लम्बा चौड़ा व्यवसाय बन गया है । कोई अपनी कृति प्रकाशित कराना चाहता है तो उसे अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है । अगर कोई निजी तौर पर अपना संकलन छपवाता है तो उसके सामने व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचाने कोई तंत्र नहीं होता, फलतः अधिकांश पुस्तकें लोकार्पण में और मुफ़्त में बँट जाती हैं और बची हुई पुस्तकें कमरे का एक कोना घेरकर पड़ी निरीह भाव से ताकती रहती हैं । ऐसे में आगामी प्रकाशनों के विषय में क्या आश्वस्ति पाल सकता हूँ । हाँ, यह अवश्य है कि यदि प्रकाशन का सुयोग मिला तो पहले मैं अपने शेष गीत संग्रहों को प्राथमिकता दूँगा । गद्य का प्रकाशन बाद में होगा या नहीं भी होगा तो मुझे कोई चिंता नहीं है । मेरा काम है लेखन, वह बना रहेगा सिर्फ इस संबंध में विश्वासपूर्ण आश्वस्ति सौंप सकता हूँ ।
व्योम ः आपका विपुल सृजन और आपकी अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ किसी को भी आपसे
ईर्ष्याभाव रखने लिए उकसा सकती है, फिरभी ऐसा क्या है जो आपको लगता है कि अभी
करना बाक़ी है ?
मा.ति. ः सृजन का मूल्यांकन संख्या के आधार पर नहीं उसकी गुणात्मकता के आधार पर होना
चाहिए । यह गुणात्मकता निरंतर सृजनशीलता से ही पाई जा सकती है । रचना में ठहराव या जो रच चुके हैं उसी को उपलब्धि मान लेना आत्महत्या है । मुझे महसूस होता है कि अब तक मैंने जो लिखा है उससे कहीं ज़्यादा अभी अनलिखा ही रह गया है । संभवतः माहेश्वर तिवारी को जो और जैसा लिखना था, वह अभी नहीं लिख पाए हैं इसीलिए उसतक पहुँचने और उसे लिखने के क्रम में ही लिखना ज़ारी है । हर रचना एक उपलब्धि है लेकिन उससे आगे जो है उसे पाने तक लिखना है । हो सकता है इस जीवन में संभव न हो तो अगले जीवन में भी उसके लिए प्रयासरत रह सकूँ, यही कामना है । एक बड़ी कविता लिखना चाहता हूँ गीत के रूप में, कुछ प्रबंधात्मक भी और वह जब तक न मिल जाए लिखते रहना है ।
व्योम ः नवगीत के संदर्भ में नई पीढी की दशा और दिशा के विषय में आपका मत क्या है और
नई पीढी से नवगीत के भविष्य के प्रति आपकी अपेक्षाएँ क्या हैं ?
मा.ति. ः गीत-लेखन साधना की अपेक्षा रखता है । नए लोग शार्टकट अपनाना चाहते हैं इसीलिए
आज गीतकवि कम संख्या में सामने आ रहे हैं । एक समय तो यश मालवीय और विनोद श्रीवास्तव तक आकर लगा कि नवगीत लेखन की परंपरा ख़त्म हो गई लेकिन यशोधरा राठौर, योगेन्द्र ‘व्योम’, जयकृष्ण ‘तुषार’, आनंद ‘गौरव’, देवेन्द्र ‘सफल’, शैलेन्द्र शर्मा, आनंद तिवारी, अवनीश सिंह चौहान, मनोज जैन ‘मधुर’ की रचनाशीलता के रूप में फिर नवगीत की डालों में कल्ले फूटते नज़र आने लगे हैं । नई पीढी से अपेक्षा है कि वह चकाचौंध (ग़ज़ल, दोहा आदि) से निकलकर गीत से, नवगीत से जुड़कर अपनी भारतीय कविता की जड़ों की ओर लौटे । यह लौटना पीछे लौटना नहीं, ठहराव से निकलकर आगे बढ़ना होगा । कविता को उसकी अपनी ज़मीन से जोड़ना होगा ।
व्योम ः कृपया अपने जीवन का कोई रोचक संस्मरण सुनाइये ?
मा.ति. ः जीवन तमाम प्रसंगों से भरा है । इस समय एक प्रसंग याद आ रहा है - सुल्तानपुर
(उ.प्र.) के राजकीय इंटर कॉलेज में कविसम्मेलन था । संयोजक कथाकार स्व. गंगाप्रसाद मिश्र थे । उनसे मेरा पारिवारिक रिश्ता था । कविसम्मेलन में देर से पहुँचने के कारण जिन कपड़ों में था उन्हीं में सीधा मंच पर पहुँच गया ।मंच पर पहुँचते ही काव्यपाठ करना पड़ा । कविता पढ़कर मंच से उठकर चाय पीने के लिए आया । मैंनें कविसम्मेलन में अपना याद वाला गीत पढ़ा- ‘याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे/जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे’ । चाय पी रहा था तो एक वयोबृद्ध सज्जन पास आए और ऐसा सवाल कर बैठे कि उनकी आयु और प्रश्न सुनकर मैं चौंक गया । उन सज्जन ने बड़ी गंभीरता से कहा - ‘तिवारीजी, मेरी एक जिज्ञासा है’ मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया तो पूछ बैठे - ‘यह घटना कहाँ की है और यह किरन कौन है? क्या वह आपके साथ नहीं थी उस पहाड़ पर’ मैंने जैसे-तैसे उन्हें टाला, और जब कवि मित्रों से उसकी चर्चा की तो सभी ठहाका मारकर हंस पड़े ।
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