( 1)
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ
एक बार जागे तो जागे
फिर न बुझाने से बुझ पाये,
जिसमें सुख की सत्ता डूबे
जिसमें सब दुख द्वंद्व समाये,
ऐसी जलन जगे शीतलता
जिसके पीछे पीछे डोले,
जिसको गले लगाकर तृष्णा
का मरुथल मधुवन बन जाये।
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ ?
प्यास कि जिससे कंठ जले
तो फूटे स्वर के मधुमय निर्झर,
सूखे जितना अधर हृदय की
धरती उतनी ही हो उर्वर
प्यास कि जिसकी आग जलाये
जितना उतना रस बरसाये
जिसकी लपटों में पड़कर
जलता निदाघ सावन बन जाये।
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ ।
जिससे मानस तपे, क्षुब्ध
होकर जागे उसकी गहराई,
सीमा की लघुता घुल जाये,
पड़े अकूल अलक्ष्य दिखाई
जो आँखों का मृग जल पीकर
चिर विदग्धता का प्रकाश दे
जिसकी ज्वाला का कल्मष भी
विमल नयन अंजन बन जाये।
ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ?
( *2* )
आज मेरा कण्ठ फूटा,
रागिनी तुमने उठाई।
आँसुओ को जोड़ कर भी
हार पूरा कर न पाया
प्राण की व्याकुल-व्यथा
आराधना में भर न पाया,
आज मेरी याचना गूँजी
प्रिये तुम गुनगुनाई।
दो दिशाओं से चले
पथ सींचते हम आ रहे है,
तम- क्षितिज पर रुधीर -
रेखा खींचते हम आ रहे है,
आज ले घन चित्र अपने
तुम नयन नभ बीच आई।
दो व्यथित व्याकुल विदेशी
आज मिल कर रो रहे है,
सुन परस्पर की अकथ आकुल
कथा, सुधि खो रहे है।
विकल-करुणा-धार पर तुम
आज बन बरसात छाई ।
मौन मेरा स्वर तुम्हारा पा
सहारा आज बोला
पा तुम्हे सोये हृदय का
क्रान्ति बेसुध प्यार डोला
शून्य मन में आज तुम
वैभव परी होकर समाई।
( *3* )
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं मैं
आज कलि बन कर सुमन प्रिय
है लुटाती सुरभि अपनी
वायु के लघु मधु झकोरों
में उड़ाती लाज अपनी
वह सुरभि जो रह हृदय में,
थी बनाती रुप सुखमय
आज खुलने पर हृदय के
खो रही है शक्ति अपनी
शुष्क होकर गिर पड़ेगा पुष्प यह बस काल लय में।
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं में।।
चल रही नौका हृदय की
विश्व के इस अतल जल में
खे रहा पतवार नाविक
था भरोसा बाहु बल में
आज तुमसे हीन होकर
हो गया जब क्षीण हूँ मैं
क्या लगेगी पार तरिणी,
नियति की झंझा प्रबल में
"तरी' को निज भाग्य पर ही छोड़ता अब हैं सुमुखि मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं मै
योजनाओं से बनाता
मैं रहा हूँ नीड़ अपना
देखता दृग भींच कर भी
बार बार सुखान्त सपना।
आज कैसे पा न तुमको
रह सकेंगे प्राण मेरे
कर न देगें क्या विरह आघात
अन्तर जीर्ण अपना
पर तुम्हारे मान के हित आज सहता हूँ इन्हें मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं में
स्वप्न में मैंने उषा की
रागिनी के गाल चूमे
और संध्या के सुनहरे
भव्य केश विशाल चूमे।
यामिनी के मधु उरोजों पर
कभी मोहित हुआ था.
और अम्बर में उदित
इन तारकों के भाल चूमे
सान्ध्य रवि की भांति, सखि! अब किन्तु ढलता हूँ स्वयं मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं मैं।।
यह मिलन के स्वप्न सखि
कल आंख के मोती बनेंगे
और मधु ऋतु के सुमन यह
ग्रीष्म को कैसे सहेंगे।
किन्तु आशा पर प्रिये,
अब हो रहा हिमपात दुर्दम्
और स्वर जो गान रचते
शीघ्र अति भीषण बनेगें ।
मम रुदन को सुन न पाओ. दूर जाता हूँ स्वयं मैं
राह का कांटा तुम्हारा, आज हटता हूँ स्वयं मैं।।
सिन्धु से मैंने व्यथित हो
सुधा के दो घूंट मांगे,
किन्तु सन्मुख देखता प्रिय
यह हलाहल पात्र आगे।
सुरों को भी अभिय के पहले
मिला था कटु हलाहल
तो सुखों को प्रथम हो
हम पायेंगे कैसे सुभागे।
आज तप करने इसी से दूर जाता हूँ स्वयं मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूं स्वयं मैं
आज सीमन्तिनि तुम्हे तज
स्वयं सीमा हीन हूँ मैं।
आज बन्धन तज तुम्हारा
मुक्त बन्धन हीन हूँ मैं।
पर मिलेगा सुख कहां से
सुधि बनी है भार संगिनि
अश्रु जल के सूखने पर
लघु तड़पती मीन हूँ मै
मुक्त होकर भी तड़पता आज फिरता हूँ स्वयं मैं
राह का कांटा तुम्हारा आज हटता हूँ स्वयं मैं।।
( *4* )
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ
रात्रि के पिछले पहर में,
और इस गहरे तिमिर में,
मैं निकल नैराश्य नद से..
आश की अरुणाभ उजली।
एक लय भर चाहता हूँ।
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ।।
रात्रि कब की हो चुकी है,
प्रकृति आधी सो चुकी है
किन्तु मैं लघु दीप सन्मुख
तुम्हारे मधु स्मरण में,
जागरण ही चाहता हूँ।
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ।
दौड़ कर सरिता चली है
रात्रि आधी जा ढली है
मूक इस वनस्थली में,
निज विगत स्नेह का, सखि
एक स्वर गा चाहता हूँ।
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ।।
हो गयी तुम दूर मुझ से
पर तुम्हारा प्रेम अब तक
है बना भरपूर मुझ से
खो चुका तन किन्तु उसकी
याद में मन चाहता हूँ
पी सके जोश का विष
दीप्तिमय वर चाहता हूँ।
मैं मधुर स्वर चाहता हूँ।।
( *5* )
मैं कहता हूँ कुछ मान करो,
तुम आगे बढ़ती आती हो।
मेरे सम्मुख हे देवि किन्तु
क्यों इतनी झुकती जाती हो।
है कहा बहुत मैने तुमसे
यह विश्व नहीं इतना उदार,
सुख देख दूसरे का मानव
है पाता उसको हृदय भार ।
है दुखी देख निज प्रिय जन को
होता है आज सुखी मानव,
मुर्झाकर गिरते देख सुमन
अब नहीं दुखी होता मानव
बालपन से साथ तुमको
देखता अनुपल रहा हूँ,
छिप गयी कुछ समय को
पर क्या कभी है साथ छोड़ा।
सहचरी विपदा कुमारी
से न छूटा साथ मेरा,
सहन की भी शक्ति प्रियतम
विरह सह पायी न तेरा।
रुष्ट होने पर सभी के
साथ तुमको सदा पाता,
जो न सुख में साथ देवे
विश्व में बस यही नाता।
विरह बनकर प्रेम में प्रिय
साथ तुम मेरे रही हो,
और प्रिय एकान्त में
संगीत लहरी बन बही हो।
आज यौवन भार लेकर
सामने प्रस्तुत तुम्हारे,
छोड कर जाना न संगिनि
जी रहा तेरे सहारे ।
( *6* )
सत्य की अवहेलना कर चल रहा संसार साथी
आज लख प्रत्यक्ष तुमको
लोग हँस स्वागत करेंगे।
और पद, सम्मान लख कर
विहँस अभ्यागत करेगें।
सब प्रिये प्रत्यक्ष में
सम वेदना अवगत करेंगे।
मित्र उपकारी सदा सब
स्वयं ही प्रस्तुत करेंगे।
किन्तु हटते ही तुम्हारे
हास बन उपहास जाता।
और प्रिय आदर तुम्हारा
जलन का बन ग्रास जाता।
नियम सा ही बन गया अब असत यह व्यवहार साथी
सत्य की अवहेलना कर चल रहा संसार साथी ।।
आज गिरि ने तृषित रह कर
नीर अन्तर में समेटा।
झील को निज गर्भ में रख
शिखर ने निज रुप मेटा।
किन्तु प्यासी अवनि को लख
सौम्य निर्झर बना भेंटा।
तोड़ कर गिर अंग निर्झर
वक्र गति से चला ऐंठा
किन्तु पीकर अश्रु गिरि के
अवनि मन में मोद करती।
और कर उपहास गिरि का
हरितिमा से गोद भरती
किन्तु लख उपहास गिरि ने मान ली है हार साथी
सत्य की अवहेलना कर चल रहा संसार साथी
सिन्धु ने प्रिय स्वयं तप कर
जन्म नीरद को दिया है।
और दे निज हृदय का रस
सरस घन स्यामल किया है।
कर हृदय मंथन स्वयं, घन
शक्ति से प्लावित किया है।
प्रिये कडुवाहट स्वयं रख
मधुर जलधर को किया है।
किन्तु घन ने छोड़ सागर
गगन से सम्बन्ध जोड़ा
और कर घनघोर गर्जन
उपल से हिय सिन्धु तोड़ा।
भूल सब करना गये है आज प्रत्युपकार साथी ।
सत्य की अवेहलना कर चल रहा संसार साथी ।
मधुर कलि बन कर सुमन
निज सरस अन्तर खोलती है।
रुप ले अधखिला अपना
मधु पवन लख डोलती है।
देख रस पीते मधुप को
कुछ न उससे बोलती है।
रुप रस कर मधुर अर्पण
प्रेम उसका तोलती है।
किन्तु कर रस पान कलि का
दूर उड़ जाता मधुप है।
मूक आवाहन सुमन का
बन चुका अब व्यर्थ तप है।
अब न लौटेगा मधुप फिर व्यर्थ सब मनुहार साथी ।
सत्य की अवहेलना कर चल रहा संसार साथी ।
( *7* )
कितने दृग पंथ रहे निहार
स्वागत है अभ्यागत उदार ।
तुम आये बन वसंत वन में,
भावों के सुमन खिले मन में,
प्राणों का कलरव गूँज रहा,
उल्लास भर गया जीवन में,
है सुरभि लुटाती डोल रही
पुलकित सॉसों की मधु बयार !
तुम आये हमको ध्येय मिला,
श्रद्धा को अपना श्रेय मिला,
चिर मौन प्रतीक्षा में डूबी,
ममता को अपना प्रेय मिला,
बन गयी साधना आज सिद्धि
है बरस रही निधियों अपार
तुम आये हे जल मन रंजन,
हो गये तृप्त प्यासे लोचन
बजती है मंगल शहनाई
हो गया धन्य यह गृह आंगन
आओ सुमनों का आसन लो,
पलकें लें पावन पद पखार ।
( *8* )
कवि करो स्वीकार मेरी अर्चना के फूल।
प्राण वीणा से तुम्हारी
जो उठे कल्याण के स्वर
आज भी है गूंजता
उनसे अवनितल और अम्बर,
आज भी मानस तुम्हारा
भर रहा है विश्व मन को
कर रहा नत है दिशाओ
को तुम्हारी विनय का वर
सींचती करुणा तुम्हारी आज भी जग कूल ।
कवि करो स्वीकार मेरी अर्चना के फूल।
दूर जाकर भी रहे तुम
पास हे मानव चिरन्तन,
छोड़ जड़ आवास तुमने
है किया स्वीकार जन-मन,
झर रही प्रतिभा तुम्हारी
चेतना स्रोतस्विनी बन,
भीग जिससे है बना रसमय
धरा का विकल कण-कण
है हुआ पावन धरनितल पा चरण की धूल।
कवि करो स्वीकार मेरी अर्चना के फूल।
( *9* )
उतर पड़े मेरे आँगन में
तिमिर मिटा, किरणें फूटी हैं,
बन्द द्वार खुल गये चेतना
की दृढ काराएं टूटी हैं ,
राह मिली, है मिला तुम्हारे करुण दृगों का मौन इशारा।
घर यह मन्दिर बना देवता
स्वयं यहाँ चलकर आया है
पूजा फूल बरसने आँखों
मे भावों का घन छाया है,
पूजा पूरी हुई मिला वरदान परन्तु पुजारी हारा
मुग्ध पथिक मैने पथ पाकर
भी चलने की सुधि बिसराई
आज स्वयं मंजिल ही मेरे
आगे मेरे पथ में आई
आवर्तो के बीच तुम्हारे चरण मिल गये, मिला किनारा ।
चूम रहे मेरे मधु लोभी अधर
सुमन मय-चरण तुम्हारे
गूँज रही प्राणों की वाणी
अपना स्वरमय वसन पसारे
बरसो किरण पराग, करो अनुरंजित मेरा तन-मन सारा
( *10* )
दे रहे तुमको विदाई
आज आकुल चेतना है व्यथा की बाढ आई।
था कभी अनजान प्राणों को मिला परिचय सहारा
बह चली थी जोड़ती जीवन तटों को स्नेह - धारा
पुलक-कण्ठों के मधुर संगीत से जीवन सरस था
पर नियति ने आज इस मरुभूमि में लाकर उतारा,
प्यास बुझने के प्रथम ही कंठ में ज्वाला समाई
दे रहे तुमको विदाई !
गूँजता मधुमास का स्वर था जहाँ, पतकार आया
स्वर्ग का साकार सुख है बन गया सुधि स्वप्न छाया
छा गया है आज संध्या का तिमिर अवसाद, जिसमें
था वही अरुणा उषा ने रागमय कुंकुम लुटाया,
आज मिटती जा रही सुख सृष्टि जो हमने बसाई !
दे रहे तुमको विदाई !
आज जलते नेत्र हैं पथ में सजल मोती बिछाते,
विकल कम्पन मय स्वरों से हम तुम्हे मंगल मनाते,
सुखद आशा है मधुर स्मृति का हमें प्रश्रय मिलेगा
सोचकर हम आज गीतों से विदा का क्षण सजाते,
लो करो स्वीकार, आँखे आँसुओं का हार लाई ।
दे रहे तुमको विदाई।
:::::::: प्रस्तुति ::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
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