शनिवार, 11 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो महेंद्र प्रताप पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख ---- हिन्दी के श्लाका पुरुष - स्व महेंद्र प्रताप। यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।

 


यदि मुरादाबाद के हिन्दी साहित्य जगत की चर्चा की जाए तो यह महेन्द्र प्रताप जी के उल्लेख के बिना अधूरी ही रहेगी। दरअसल, वे अपने जीवनकाल में ही इतने अपरिहार्य बन चुके थे कि उनकी गरिमामयी उपस्थिति के बिना किसी आयोजन की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। यदि कोई व्यक्ति सचमुच इतना अपरिहार्य बन जाए तो उसके व्यक्तित्व की ऊँचाई की सहज कल्पना की जा सकती है।

       गौरवर्ण, प्रशस्त भाल, आँखों पर मोटा चश्मा, होठों पर मंद-मधुर मुस्कान और धवल वस्त्रों में सजे सहज-सरल महेन्द्र प्रताप जी दूर से ही देखने पर एक साहित्यकार नजर आते थे- निराला, प्रसाद या प्रेमचन्द की पीढ़ी के न सही किन्तु नामवर सिंह या काशीनाथ सिंह सरीखे तो वे थे ही। हिन्दी साहित्य जगत के अनेक नक्षत्रों से उनका व्यक्तिगत परिचय था। वे अनेक नामचीन साहित्यकारों के निकट सम्पर्क में रहे। छात्र जीवन में ही उन्हें प्रसाद जैसे महाकवि का आशीर्वाद प्राप्त हो गया था। किन्तु पता नहीं किन परिस्थितियोंवश महाकवि का आशीर्वाद फलीभूत नहीं हो सका।

    इसे मुरादाबाद के साहित्यिक जगत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दशकों तक अध्ययन अध्यापन और साहित्यिक कार्यक्रमों में आजीवन उपस्थिति के बावजूद स्वयं महेन्द्र प्रताप जी का सृजन उनकी प्रतिभा को देखते हुए बहुत कम है। उनके साहित्यिक सृजन के नाम पर बस कुछ गीत-गज़ले ही आज उपलब्ध हैं जो संभवतया उन्होंने अपनी युवावस्था में रची थीं। रोमानी भावनाओं से परिपूर्ण इन गीत-गजलों के आधार पर उनके साहित्यिक प्रतिभा का सही-सही अनुमान लगा पाना संभव नहीं है। महेन्द्र जी के गीत-गज़ल उनकी प्रतिभा के साथ ठीक-ठीक न्याय नहीं करते। 

    ऐसा नहीं है कि महेन्द्र प्रताप जी की साहित्य सृजन में कोई रुचि नहीं थी या उनमें इसकी क्षमता नहीं थी। न ही वे इसे गौण या हेय कार्य समझते थे। दरअसल, साहित्य सृजन विशेषकर काव्य रचना के प्रति उनकी वितृष्णा का मुख्य कारण यह था कि वे भक्तिकालीन कवियों, विशेषकर तुलसीदास से बहुत ज्यादा प्रभावित थे और उनकी श्रेणी का या उससे बेहतर काव्य रचने में स्वयं को असमर्थ पाते थे। अतः उन्होंने स्वेच्छा से साहित्य रचना से संन्यास या यूँ कहे कि अवकाश ले लिया था। हाँ, उनकी गीत-गज़लों की शब्दावली और छन्द विधान को देखकर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि महेन्द्र प्रताप जी ने पूर्ण समर्पण के साथ साहित्य रचना की होती तो उनका साहित्य निश्चित ही एक निधि होता। किन्तु अब जबकि उनका साहित्य सृजन ही पर्याप्त मात्रा में नहीं है अतः उनके कृतित्व के इतर पहलुओं पर ही अधिक चर्चा की जा सकती है।

    महेन्द्र प्रताप जी ने भले ही विपुल मात्रा में साहित्य सृजन न किया हो किन्तु वे अनन्य हिन्दी प्रेमी और हिन्दी सेवी अवश्य थे। हिन्दी से जुड़ा कोई कार्यक्रम हो और महेन्द्र जी को उनमें आमंत्रित किया जाए तो वे आयोजकों के समक्ष बिना कोई शर्त रखे ससमय कार्यक्रम के अंत तक उपस्थित रहते थे। उनकी गरिमामयी उपस्थिति से ही कार्यक्रम प्राणवान हो जाते थे और उनके बिना गोष्ठियों की जीवंतता ही समाप्त हो जाती थी। हिन्दी से जुड़ी नगर की प्रत्येक संस्था उनकी उपस्थिति के जरिये अपनी प्रतिवद्धता सिद्ध करना चाहती थी। उनकी उपस्थिति के बिना हिन्दी सेवी संस्थाओं की प्रामाणिकता ही संदिग्ध हो जाती थी।

     स्वयं महेन्द्र प्रताप जी भी अपने स्तर से आजीवन हिन्दी की सेवा करते रहे। साहित्यिक संस्था 'अंतरा' और 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' के जरिये उन्होंने हिन्दी जगत की अविस्मरणीय सेवा की। 'अंतरा' की गोष्ठियों के जरिये न केवल हिन्दी जगत को अनेक समर्थ रचनाकार प्राप्त हुए बल्कि अनेक महत्वपूर्ण कृतियां भी प्रकाश में आयी। माह के प्रत्येक पक्ष में आयोजित होने वाली 'अंतरा' की गोष्ठियां इस मायने में सचमुच अनूठी कही जायेंगी कि उनमें साहित्यिक कृतियों पर न केवल विस्तार से चर्चा होती थी बल्कि सदस्य रचनाकारों की कृतियों की विस्तृत चीर-फाड़ भी होती थी ताकि रचनाएँ अपने परिष्कृत रूप में पाठकों के सामने आएं। महेन्द्र प्रताप जी मूलतः समालोचक थे अतः साहित्यालोचना में विशेष आस्वाद मिलने के कारण ही वे इस कर्म की ओर प्रवृत्त हुए थे। 'अंतरा' के जरिये साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व के परिष्कार को ही उन्होंने अपना ध्येय बनाया था। ज्ञान का तो जीता-जागता भण्डार थे वे। बस एक बार कोई साहित्यिक चर्चा उनके सामने शुरु हो जाए फिर तो उनके ज्ञान का पिटारा खुलता ही चला जाता था और उसका कोई अंत ही नजर नहीं आता था। ज्ञान चर्चा उन्हें सदैव प्रिय थी, प्राध्यापक होने के नाते वे श्रोता समुदाय को छात्रवत् समझते थे और अपना समस्त ज्ञान उंडेलने को आतुर रहते थे। अपनी बात को सन्दर्भों-अवांतर प्रसंगों के जरिये विस्तार पूर्वक समझाने का यल करते थे और कभी-कभी तो बात में से इतनी बात निकलती जाती थी कि मुख्य सूत्र ही कहीं छूटते नजर आते थे। जीवन की सांध्य बेला में हृदयाघातों के कारण चिकित्सकों ने यद्यपि उन्हें अधिक बोलने से परहेज करने को कहा था तथापि उनका प्राध्यापक मन और उनके अन्दर बैठा साहित्यकार व्यक्तित्व उन्हें सतत् संवाद के लिए प्रेरित करता रहता था। दरअसल वे 'संवाद' में विश्वास रखते थे और जीवन भर वे संवाद ही करते रहे- कभी अपने छात्रों से तो कभी व्यक्तियों और समाज से, तो कभी व्यापक स्तर पर अपने समय से ।

 महेन्द्र जी केवल अपने समय और समाज से ही संवाद नहीं करते थे बल्कि स्वयं से भी संलाप करते थे। किन्तु स्वयं से संलाप कभी एकालाप नहीं रहा। वह सभी के लिए एक संदेश रहा है। जैसा कि उनके प्रसिद्ध गीत 'ऐसी प्यास से कहाँ से लाऊँ' की निम्न पंक्तियों में स्पष्ट है -

“ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ 

जिससे मानस तपे, क्षुब्ध

होकर जागे उसकी गहराई, 

सीमा की लघुता घुल जाये, 

पड़े अकूल अलक्ष्य दिखाई 

 जो आँखों का मृग जल पीकर 

 फिर विदग्धता का प्रकाश दे

जिसकी ज्वाला का कल्मष भी 

विमल नयन अंजन बन जाये 

ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ ।"

तुलसी साहित्य महेन्द्र जी का प्रिय विषय था। उनका प्रयास होता था कि कोई भी चर्चा घूम-फिरकर तुलसी साहित्य पर अवश्य आ जाए। तुलसी साहित्य पर उनका अध्ययन व्यापक था और वे फादर कामिल बुल्के की तरह ही तुलसी साहित्य अनुरागी थे। तुलसी साहित्य पर वे बुरी तरह मुग्ध थे और युवा पीढ़ी में इसके प्रति घटती रूचि पर किंचित रूष्ट भी।

  हाँ, समकालीन साहित्य और रचनाकारों के प्रति उनकी जानकारी कोई विशेष नहीं थी। इसके पीछे शायद यही कारण था कि समकालीन साहित्य को वे स्तरहीन समझते थे और इसमें उनकी रूचि भी नहीं थी।

   महेन्द्र प्रताप जी के व्यक्तित्व के कुछ दूसरे पहलू भी है जिन पर शायद ही कभी चर्चा होती है। बहुत कम लोग जानते हैं कि जितनी उच्च कोटि के वे साहित्य मनीषी थे उतने ही बड़े संगीत विशारद भी। संगीत, नाटक या रंगमंच की कोई भी गतिविधि महेन्द्र प्रताप जी के बिना अधूरी रहती थी। समाज सेवी तो वे थे ही। सही बात तो यह है कि महेन्द्र प्रताप जी एक श्लाका पुरुष थे और उनका नाम करीब-करीब एक किंवदंती बन चुका है।



✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

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