बीती सदी का नवां दशक , जब मैंने शुरू की थी अपनी साहित्यिक यात्रा। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि 'अंतरा' की गोष्ठियां ही मेरे साहित्यिक जीवन की प्रथम पाठशाला बनीं। इन गोष्ठियों में 'दादा', श्री अंबालाल नागर जी, श्री कैलाश चंद अग्रवाल जी, पंडित मदन मोहन व्यास जी, श्री ललित मोहन भारद्वाज जी, श्री माहेश्वर तिवारी जी ने मेरी अंगुली पकड़कर मुझे चलना सिखाया और उनके संरक्षण एवं दिशा निर्देशन में मैंने साहित्य- पत्रकारिता के मार्ग पर कदम बढ़ाए । दादा और आदरणीय श्री माहेश्वर तिवारी जी के सान्निध्य से न केवल आत्मविश्वास बढ़ा बल्कि सदैव ऐसा महसूस हुआ जैसा किसी पथिक को तेज धूप में वृक्ष की शीतल छांव में बैठकर होता है।
इसी दौरान मैंने दादा के संरक्षण में एक सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्था ''तरुण शिखा'' का गठन भी कर लिया था। लगभग छह साल तक निरंतर 'तरुण-शिखा के माध्यम से मैं देश के प्रख्यात साहित्यकारों के जन्म दिवसों एवं पुण्य तिथियों पर विचार गोष्ठियां आयोजित करता रहा। इसकी लगभग सभी गोष्ठियों में दादा उपस्थित होते थे और मुझे प्रोत्साहित करते थे।
मुझे याद है 26 दिसम्बर 1985 का दिन, प्रख्यात कथाकार यशपाल के साहित्य पर मैंने तरुण शिखा की ओर से अपने निवास पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। दादा प्रो० महेन्द्र प्रताप, निर्धारित समय दोपहर दो बजे से पहले ही आ गए। धीरे धीरे केजीके महाविद्यालय के हिन्दी प्रवक्ता अवधेश कुमार गुप्ता, रणवीर दिनेश, राजीव बंसल राज भी आ गए। अन्य आमंत्रितों की प्रतीक्षा होती रही। समय व्यतीत होता गया. घड़ी की बड़ी सुई सरकते सरकते छह पर आ गयी और छोटी सुई तीन से आगे निकल चुकी थी। डेढ़ घंटा हो चुका था लेकिन आमंत्रित साहित्यकारों में से और कोई उपस्थित नहीं हुआ। यह स्थिति देख कर मैं पूरी तरह हतोत्साहित हो चुका था। आयोजन की शुरुआत किस तरह की जाये, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरी मनोदशा को भाँपते हुये अचानक 'दादा' ने कहा- "मनोज, इस तरह हतोत्साहित होने की कोई बात नहीं है। ऐसी गोष्ठियों से जहाँ नये चिंतन, विचारधाराओं से साक्षात्कार होता है वहीं आत्म निर्माण भी होता है। तुम्हारा यह प्रयास शहर में एक नई शुरुआत है जो धीर-धीरे ही सफल होगा।" बीस साल पहले दादा के यह शब्द एम०ए० अर्थशास्त्र के विद्यार्थी के लिये एक प्रेरणा बन चुके थे।
दादा के एक और संस्मरण का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा । 5 दिसंबर 1988 को मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार, संगीतज्ञ, कलाप्रेमी पंडित मदन मोहन व्यास जी की जयंती पर मैंने तरुण शिखा, चेतना केंद्र और प्रयास नाट्य संस्था के संयुक्त तत्वावधान में संगीत, विचार व काव्य गोष्ठी का आयोजन हिंदू महाविद्यालय के अर्थशास्त्र व्याख्यान कक्ष में किया। आयोजन में स्मृतिशेष व्यास जी के लगभग सभी परिजन, अनेक मित्र, साहित्यकार, संगीतज्ञ और रंगकर्मी उपस्थित थे। दादा प्रो महेंद्र प्रताप जी कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे और विशिष्ट अतिथि आदरणीय माहेश्वर तिवारी थे। संचालन का दायित्व मेरे कंधों पर था । कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष दादा प्रो महेंद्र प्रताप जी का नाम उद्बोधन के लिए पुकारा गया । बोलने के लिए खड़े होते ही वह फफक फफक कर रोने लगे , आंखों से अश्रुधारा बहने लगी । यह देख कर उपस्थित सभी लोग भाव विह्वल हो गए और उनकी भी आंखे नम हो गई। काफी देर बाद स्थिति सामान्य हुई। भर्राए कण्ठ से दादा अधिक नहीं बोल सके। ऐसी थी उनकी सम्वेदनशीलता।
उनका कहना था कि कविता लिखने से ज्यादा जरुरी है अपने अंदर कविता की समझ पैदा करना। यह जानना भी जरूरी है कि हमारे समकालीन रचनाकार क्या लिख रहे है और पूर्ववर्ती रचनाकारों ने हमें क्या दिया? उनके यह प्रेरणाप्रद वाक्य सचमुच मेरे लिये एक दिशा बन चुके थे और मैं अपना लक्ष्य निर्धारित कर चुका था मुरादाबाद जनपद के साहित्य पर शोध कार्य करने का। इसी लक्ष्य पूर्ति के लिये मैंने हिन्दी विषय से एमए किया और फिर पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की।
यह मेरा सौभाग्य है कि लगभग 21- 22 साल तक मुझे दादा का आशीष प्राप्त होता रहा। बहुत कुछ है लिखने को ....
'दादा' आज हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनकी स्मृतियां उनका दुलार, उनका आशीष सदैव मुझे आगे.... और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहेगा।
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
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