बुधवार, 24 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी -- अन्तर्वेदना


                आज सुबोधजी की आँखें सूख ही नहीं पा रहीं थीं । कभी अश्रु आँखों के किनारे का संबल पा ठहर जाते , कभी झरना निर्बाध रूप से छलाँग लगा स्वयं ही पलकों के घेरे को तोड़ बहने लगता था ।
           बड़ी मुश्किल से दो बार खुद से जबर्दस्ती करके उन्होंने चाय पी और नाश्ता खाया । शाम ढल आई थी , फोन  चार  बार बज चुका था ।  पर आज उन्हें किसी से बात ना करना ही बेहतर लगा था ।   उन्होंने नौकर को हिदायत दे दी थी कि अगर कोई बच्चा आए तो कह देना तबियत खराब है कुछ दिन आराम करेंगे । 
                 किस - किस से छुपाते  , किस - किस को बताते । हृदय के भीतर दर्द की कई परतें थी जिन्हें वो अपनी निजी धरोहर मानते थे । हाँ मधुलिका होती तो बात अलग थी  । अब तो उसे गए भी चार साल हो गए थे । बच्चों के सामने वो हमेशा मुस्कुराहट के साथ ही प्रस्तुत हुए थे और आज भी वैसे ही होते हैं ।
              पचपन की उम्र भी तो इंसान को त्रिशंकु सा लटका देती है । उदास या थके हों तो सब कहते हैं  " अरे अभी उम्र ही क्या है ।"  और अगर कभी थोड़ा सा ज्यादा हँस - बोल लिया तो कहते हैं  " थोड़ा उम्र का तो लिहाज करते ।"  उसपर से विधुर , मानो जीवन जीने का हक ही खो दिया हो । हालाँकि सुबोध जी तो अभी भी किसी भी अच्छे - खासे जवान बंदे को हीन - भावना से भर देते थे ।
            समय के पाबंद , मृदुल व्यवहार के धनी , कार्य कुशल और मितभाषी सुबोध जी घर बाहर सबके प्रिय थे । मधुलिका और उनका जोड़ा तोता - मैना का नामकरण पा ही चुका था । बच्चों ने जैसा चाहा उन्हे वैसा जीवन जीने की आजादी उन्होने सहर्ष दे दी थी । चाहे अब दोनों विदेश में थे पर स्नेह की डोर कहीं से भी ढीली नहीं पड़ी थी ।
            उनका कहना था जो काम आसानी से हल हो सकते हैं उन्हें जबरदस्ती जटिलता का आवरण नहीं पहनाना चाहिए । दफ्तर में बाॅस से लेकर चपरासी तक सभी से एक सा व्यवहार करते थे । सब उनके प्रिय थे और वो सबके प्रिय थे । पर पिछले चार सालों में जिंदगी ने कुछ ऐसी पलटी मारी थी कि सुबोध जी की सारी खूबियाँ ही मानो उनकी दुश्मन बन गईं थीं ।
          मधुलिका को अचानक हुए कैंसर ने पूरे घर की नींव हिला दी थी । बेटे - बहुएँ  पोते - पोतियों से घर भर गया था । जी भर कर सबसे हँस - बोलकर , खुद  को तृप्त कर , पूरे घर को निहारती मधुलिका दो महीने भी नहीं रुकी । उसका जाना मानो उन्हें भी जीवन से बेदखल कर गया ।
            दुनिया भर के लोग , नाते - रिश्तेदार  , दोस्त  , पड़ोसी और उतनी ही बातें , सलाहें ।  वो अवाक से बस सिर हिलाते रहे । अपने साथ लेके जाने की बच्चों की लाख कोशिशों के बावजूद उन्होंने धीरे से बस यही कहा  " अभी तो तुम्हारी मम्मी यहीं पर ही महसूस हो रहीं हैं । " " अभी कुछ दिन मैं यहीं ठीक हूँ । "  " आगे देखते हैं । "
            जीवन की गाड़ी अकेले पहिए से चलाते - चलाते अब चार साल हो गए थे । सारे काम हो ही रहे थे  , रुका क्या था ??   पर जिस समाज में हम रहते हैं ,  जिन लोगों से घिरे रहते हैं ,  जिन लोगों के साथ काम करते हैं  , उनकी सोच एक खास धुरी पर आकर अटक जाती है , रुक जाती है ।  और ये रुकी हुई , अटकी हुई सोच अन्तर्वेदना का चिरस्थाई कारण है ।
              सालों से काम कर रही बाई ने एक दिन धीरे से कहा  " साहेब अब आप कोई चऊबीस घंटे वाला छोरा रख लो । " आपका काम भी करेगा और मन भी लगा रहेगा । "  " पर मुझे चौबीस घंटे कोई क्या करना है । " उनकी आवाज में आश्चर्य था ।  " नही मई तो आपके भले कू ही बोली ।" बाई थोड़ा शर्मिन्दा सी होकर बोली ।  " साफ - साफ बोलो क्या बात है ? " उन्होंने जोर देकर पूछा तो  जवाब आया    "  वो साहेब अब आप अकेले है ना तो मेरा मरद और आस - पास वाले सौ सवाल पूछते हैं  ? "  "  तो मेरे कू डर लगता है साहेब  "  " आप और मेमसाब के पास मई इतने साल काम करी , आप हमेशा मुझे अपनी बेटी जइसा रखे , पन साहेब दुनिया बहुत खराब है  , अगर कल कू मेरे मरद कू कोई भड़का दिया तो मैं तो सह लेगी पन आपका नाम खराब होता मई नही देख पाएगी । "   उसके जुड़े हुए हाथ और रूँघा हुआ गला उसके सच्चे बयान की गवाही दे रहे थे । मन में कुछ अजीब सा महसूस हुआ मानो किसी ने कसकर मसल दिया हो । बाई के सिर पर हाथ रख कर उसे विदा कर दिया ।
             वो तो भला हो उनके दोस्त परिवार का जिन्होंने अपने नौकर का बेटा उनके पास रखवा दिया । गाड़ी फिर से चलने लगी ।
           कुछ दिनों से मन कर रहा था कि कुछ लोग आसपास हों । दिन तो अॉफिस में निकल जाता था पर शाम होते ही दिल को उदासी घेर लेती । पास,पड़ोस के कई घरों में स्कूल कॉलेज जाने वाले बहुत से बच्चे थे  ।  वो बाहर बैठे उन सब को निहारते रहते ।  जाने क्यों एक दिन उनको ऐसा लगा कि उन्हें अपनी परेशानी और अकेलेपन के लिए एक संबल मिल गया है  ।  शाम होते ही बाहर पार्क में खेल रहे दो तीन बच्चों को उन्होंने आवाज दी  ।  सभी परिचित थे वे दौड़कर उनके पास आए और बोले   "नमस्ते अंकल कुछ काम हो तो बताइए  ।"   उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा   " मुझे तो कोई काम नहीं है ,  लेकिन अगर तुम लोगों में से किसी को भी मेरे साथ कैरम खेलना हो या फिर और कोई गेम तो आ जाना मेरे पास बहुत बड़ा कैरम बोर्ड है  ।"   
            बस फिर क्या था अगली कई शामें बच्चों के साथ आराम से गुजरने लगी कभी कोई आ जाता तो कभी कोई ।  एक दिन  पास वाले शर्मा जी का बेटा अपनी मैथ्स की नोटबुक उठा लाया और बोला   " अंकल पापा तो आज ऑफिस से लेट आएंँगे क्या आप मुझे यह सम सॉल्व करने में हेल्प कर सकते हैं ?"   उन्होंने सहर्ष उसे सारे सवाल मिनटों में समझा दिए ।  इसके बाद  तो जैसे एक नया सिलसिला चल पड़ा ।  अब तो जिस भी बच्चे को पढ़ाई में जो भी मुश्किल होती वह उनके पास आ जाता  ।  वो भी खुशी - खुशी उनकी समस्याओं का समाधान कर देते।
        उनकी शामें अब खुशनुमा हो चली थीं । इन बच्चों से घिरे रहने के कारण वह अपने बहू-बेटों और पोते-पोतियों से दूर होने के गम को थोड़ा कम महसूस करने लगे थे । पर एक दिन अचानक दो आँखों ने उन्हें ऐसा डराया कि वह सहम कर रह गए । उनका अंतर्मन गहन पीड़ा से भर गया ।
       हुआ यूँ कि पड़ोस की शालिनी जो शायद छठी कक्षा में पढ़ती थी उस दिन अचानक आई और बोली अंकल मुझे इस पोयम का मीनिंग समझा दीजिए । मतलब समझाते- समझाते कविता में आए किसी हास्य प्रसंग की वजह से वह दोनों जोर जोर से हंँसने लगे  । हंँसते हुए शालिनी के गले में अचानक धस्का लग गया । खांँसी आने की वजह से उसकी आंँखों में आंँसू आ गए  ।  उन्होंने घबराकर शालिनी की पीठ को मलना शुरू कर दिया ।  वह घबरा गए थे  ।  तभी अचानक उनकी निगाह द्वार की तरफ पड़ी जहांँ शालिनी की मांँ खड़ी हुई थी और अजीब सी गुस्से  भरी नजरों से उन्हें देख रही थी  ।   उसकी आंँखों और चेहरे के भावों ने उन्हें असमंजस में डाल दिया ।   वह बोले  "इसे हंँसते हुए अचानक जोर से खाँसी आ गई थी ।"   शालिनी की मांँ ने उनके शब्दों की तरफ ध्यान ना देते हुए जोर से शालिनी से कहा  "घर में नहीं पढ़ सकती हो ,  उठो चलो यहाँ से। "    शालिनी तो बच्चा थी । अवाक रह गई । पर फिर पता नहीं क्यों किताबें उठाकर वहांँ से चल दी ।
           जाते-जाते  शालिनी की मांँ ने पलट कर एक बार फिर उन्हें अजीब सी नजरों से घूरा ।  वह अपनी सफाई में बहुत कुछ कह सकते थे पर जाने क्या सोचकर चुप रह गए ।   पर इस तरह से शालिनी की माँ का उन्हें वितृष्णा से देखना  उनके अंतर्मन को असीमित पीड़ा से भर गया ।       
                 वह जानते थे  और समझते भी थे कि आज के परिपेक्ष में माता-पिता आए दिन होने वाले हादसों की वजह से  बेहद असुरक्षित महसूस करने लगे हैं और किसे अपना समझें और किसे पराया ? कौन उनका भला सोच रहा है और कौन उन्हें नुकसान पहुंँचा रहा है ?   यह असमंजस उन्हें भी पता था  ।  पर जाने क्यों अपने प्रति किसी के मन में उठी इस तरह की भावना को लेकर और सोच को लेकर उनका मन सहम गया । वह जानते थे कि अब शाम के इस सिलसिले को उन्हें यहीं रोकना पड़ेगा ।   व्यर्थ में ही वह किसी दूसरे को और अपने आप को और चोट नहीं पहुँचाना चाहते थे ।  पर इस अंतर्वेदना से मुक्ति पाने का, अन्य क्या उपाय होगा यह वह चाहकर के भी नहीं समझ पा रहे थे   ।।।।
 ✍️सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद ।

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