बुधवार, 5 अगस्त 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी ----------दूसरी

 
      बीस साल हो गए थे कविता को इस घर में आए हुए ।  क्या नहीं किया था उसने । सास ससुर की सेवा , पति को भरपूर प्रेम ,  तीनों बच्चों की  दिल से परवरिश और इन छह प्राणियों की गृहस्थी की कुशल गृहणी की तरह देखभाल । पर जब भी कानों में कुछ सुनने को पड़ता तो यही कि जब से यह दूसरी आई घर की चाल ही बदल गई ।
       कविता की शादी जब नरेश से हुई तब कविता तो कुँवारी थी परंतु नरेश अपनी पहली पत्नी खो चुके थे और पहली पत्नी से उनके तीन बच्चे थे जो बहुत छोटे और मासूम थे ।  माँ बाप बूढ़े थे और बच्चे बहुत नादान ।  ना चाहते हुए भी नरेश को आनन-फानन में दूसरे विवाह का सेहरा सजाना पड़ा था । कौन संभालता उसकी बिखरी हुई गृहस्थी को ।
            कविता नरेश के दूर के रिश्तेदार की भांजी थी ।  माँ बाप गरीब थे अतः जब नरेश का रिश्ता कविता के लिए आया तब कविता की भावनाओं का ध्यान रखें बिना उन्होंने झटपट हाँ कह दी क्योंकि नरेश की दहेज ना लेने की बात ने उन्हें कविता के ब्याह की और दहेज की चिंता से मुक्ति दिला दी थी ।
          कविता नरेश की दूसरी पत्नी बन कर आई थी ।  माँ बाबूजी की दूसरी बहू और बच्चों की दूसरी माँ । "दूसरी" शब्द कविता के नाम का पर्यायवाची बन गया  था । सोते जागते कोई ना कोई बात ऐसी बात हो ही जाती थी जिससे कविता को यह अहसास दिला दिया जाता था कि वह "दूसरी" है ।  कविता कौन सा फूलों की सेज पर जीवन गुजार कर आई थी उसे भी किसी ताने का या ठिठोली का असर ही नहीं होता था ।
           समय पंख लगा कर उड़ रहा था । बच्चे बड़े हो रहे थे । खुद माँ बनने की इच्छा का भी कविता ने यह सोच कर गला घोंट दिया कि दूसरी की औलाद का नामकरण ना जाने क्या हो ? और फिर गृहस्थी भी एक और नया बोझ उठाने में असमर्थ थी ।  वैसे उसने बच्चों को और बच्चों ने उसे दिल से अपनाया था और उनके निश्छल प्रेम में कविता बार-बार दिलाए जाने वाले "दूसरी" के अहसास को  नजरअंदाज कर देती थी ।
           आज बड़े बेटे का तिलक था । घर मेहमानों से अटा पड़ा था । लड़की वाले समय पर आ गए थे । ढोलक की थाप पर बन्ने गाए जा रहे थे कि अचानक तिलक की रस्म करते लड़की के भाई को रोकते हुए पंडित जी ने कहा कि पहली रस्म लड़के की माँ की है ।  सभी एकसाथ बोल पड़े  "हाँ भई पहली रस्म तो माँ की" कोई इधर से बोला कोई उधर से । 
           "पहली"   "पहली"   "पहली" कविता के कान गुंजायमान हो रहे थे । बेटे के सिर पर माँ ने आँचल बिछाया तो बलैया लेती वृद्ध दादी की आँखों में खुशी की नमी आ गई पर ज़ुबान का क्या करें ?
मुँह खोला ही था कि  "आज अगर पहल"  आधे वाक्य को बीच रास्ते में ही रोकते हुए बड़े पोते के हाथ उनके मुँह को बंद कर दिया था ।  "माँ ही अब सब कुछ हैं दादी"
दूल्हा मुस्कुरा कर दादी का हाथ दाब रहा था ।  और कविता आज "पहली" और "दूसरी" के बंधन से मुक्त हो गई थी ।

सीमा वर्मा
मुरादाबाद


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