पूरी गली दुर्गंध से परेशान थी । पर इस दुर्गंध से छुटकारा पाने का उपाय करने की चिंता शायद ही किसी को सता रही थी । असल में गली का गटर भर गया था । बदबूदार पानी बह - बह कर पूरी गली को सुशोभित कर रहा था । म्यूनिसपालिटी में शिकायत कौन लिखवाए , इस के लिए हर कोई आँखें बंद किए था । बदबू सहन करना आसान था पर जो सफाई कर्मचारी आएँगे उनका सत्कार करने के लिए रोकड़ा कौन खर्च करे । और बिना चढ़ावा चढ़ाए सरकारी देवता तो प्रसन्न होने से रहे । तो सार ये रहा कि हर कोई नाक पर रुमाल रखकर काम चलाए जा रहा था ।
अखबार का पहला पन्ना आज बड़ी बूरी खबर लाया था । मिलावटी दूध के कारण प्रांत के आठ सौ बच्चे एक साथ स्वर्ग सिधार गए थे । और जो बचे थे , अस्पतालों में कतार में थे । चिल्लाते बिलखते माँ बापों की तस्वीरें देख गले में कुछ अटक रहा था । "शुक्र है हमारे सही सलामत हैं" या "शुक्र है हमारे बच्चे ही नहीं हैं" , के भाव अखबार पढ़ने वालों के दिल को संताप के साथ-साथ तसल्ली से भी भर रहे थे । "ऐसी खुदगर्ज़ी" "ऐसा छल कपट" , पर कोई कर क्या सकता है । बुरा करने वाले को तो भगवान ही समझे अब । लाचार और पंगु बने हुए सब अफसोस की मिसाल बने हुए थे ।
टेलीविजन पर बहस छिड़ी हुई थी कि न्यायालय की प्रक्रिया इतनी लचर और बेढंगी है कि न्याय की गुहार लगाने वाला इंतज़ार करते - करते भू-लोक से इहलोक पहुँच जाता है । कितने हजार केस हैं ? कितने न्यायालय हैं ? कितने जज हैं ? कौन सा वकील कैसे जनता को मूंड-मूंड कर अमीर बन गया है । फिर भी जनता न्याय की गुहार लगाने वहीं पहुँच जाती है जहाँ उसे न्याय कब मिलेगा इसका कोई जवाब देश के किसी न्यायालय के पास नहीं है । पर टेलीविजन पर चर्चा कर रहे बुद्धिमान व्यक्तियों के "कंठ स्वर" और "अक्रामक तेवर" ऐसे लग रहे थे मानों आज की चर्चा में ही दो - तीन लाख केस रफा-दफा कर दिए जाएँगे । अरे छोड़िए बेवकूफ़ हैं लोग तो "चिल्लाने दीजिए" "निकालने दीजिए कैंडिल मार्च" हम चर्चा पर आमंत्रित हैं तो बस टेलीविजन पर चेहरा दिखाइए और चलते बनिए ।
दफा एक सौ चौआलिस लगी पड़ी थी पूरे शहर में । मरघट का सा सन्नाटा पसरा पड़ा था । पुलिस की गश्ती गाड़ियों की आवाज़ें ही थीं जो यदा-कदा सुनाई पड़ जाती थीं । स्कूल तक नहीं छोड़े थे नासपीटों ने । मासूमों तक को भून डाला । धुआँधार गोलियाँ चलीं चश्मदीदों का कहना था । सैंकड़ों दुकानें आग की भेंट चढ़ गईं । बम विस्फोट में कटी फटी लाशों में कौन सा हिस्सा किसका है ये पता लगाने के लिए तो धर्म के ठेकेदारों की नई कमेटियाँ बनानी पड़ेंगी , वरना तो "जलाए जाने वाले का हाथ दफन हो जाएगा" और "दफन होने वाले की टाँग" आग के सुपुर्द हो जाने का खतरा है ।
नई कमेटियाँ इस लिए क्योंकि पुरानी तो दंगों की रूपरेखा बनाने , उसके लिए चंदा इकट्ठा करने में , असला इकट्ठा करने में और सबसे बढ़कर दंगे को अंजाम देने में पस्त हो गई थीं और कुछ को "स्वर्ग और जन्नत" की सैर भी मिली थी । "खुशनसीब थे सभी" । "आपको क्या ?" "घर में बैठिए चुपचाप ।" "दंगाई किसी के सगे नहीं होते ।"
"हद कर साहब आपने तो ।" "आपके लिए जान दी है ।" "आपके धर्म की रक्षा के लिए ।" "और आप कह रहे हैं हम आपके नहीं ।"
पिछले महीने आठ लड़कियों से बलात्कार हुआ । पाँच नाबालिग थीं । सबसे छोटी तीन बरस की और सबसे बड़ी सत्तर की थी । दोनों ही मौका ए वारदात पर खत्म । करें क्या ??
जाली नोटों (करेंसी) के चलते एक फाइनेंस कंपनी के घोटाले की वजह से पाँच परिवारों ने सामूहिक खुदकुशी कर ली । "मियां बीबी बच्चों समेत" । भई पीछे रोने के लिए किस के सहारे छोड़ा जाए ।
कई छात्र संगठन इन दिनों बड़ी बेबाकी से स्वतंत्रता का ढोल पीट रहे हैं । "स्वतंत्रता चाहिए" "धुएँ में डूबने की" "नंगे होकर घूमने की" "गालियों को भौंकने की" "पिशाचों की तरह एक दूसरे को नोचने की" "स्वतंत्रता चाहिए हमें , स्वच्छंदता चाहिए हमें मनमानी करने की" । "दे दीजिए , मानेंगे नहीं ये ।"
"तो साहब वापस चलें" इन सबके पचड़ों के बीच में "गली के गटर" की बात और बदबू तो आप भूल ही गए । नाक से रुमाल तक हट गया । "अरे - रे - रे ये क्या ??" आपने फिर से नाक ढक ली ।
पता है-पता है आप ऐसे ही , इन्हीं हालातों में ही काम चला लेंगे और जी भी लेंगे । "गटर चाहे कोई भी , कहीं भी भर कर बह रहा हो , बदबू मार रहा हो ।"
✍️सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
अखबार का पहला पन्ना आज बड़ी बूरी खबर लाया था । मिलावटी दूध के कारण प्रांत के आठ सौ बच्चे एक साथ स्वर्ग सिधार गए थे । और जो बचे थे , अस्पतालों में कतार में थे । चिल्लाते बिलखते माँ बापों की तस्वीरें देख गले में कुछ अटक रहा था । "शुक्र है हमारे सही सलामत हैं" या "शुक्र है हमारे बच्चे ही नहीं हैं" , के भाव अखबार पढ़ने वालों के दिल को संताप के साथ-साथ तसल्ली से भी भर रहे थे । "ऐसी खुदगर्ज़ी" "ऐसा छल कपट" , पर कोई कर क्या सकता है । बुरा करने वाले को तो भगवान ही समझे अब । लाचार और पंगु बने हुए सब अफसोस की मिसाल बने हुए थे ।
टेलीविजन पर बहस छिड़ी हुई थी कि न्यायालय की प्रक्रिया इतनी लचर और बेढंगी है कि न्याय की गुहार लगाने वाला इंतज़ार करते - करते भू-लोक से इहलोक पहुँच जाता है । कितने हजार केस हैं ? कितने न्यायालय हैं ? कितने जज हैं ? कौन सा वकील कैसे जनता को मूंड-मूंड कर अमीर बन गया है । फिर भी जनता न्याय की गुहार लगाने वहीं पहुँच जाती है जहाँ उसे न्याय कब मिलेगा इसका कोई जवाब देश के किसी न्यायालय के पास नहीं है । पर टेलीविजन पर चर्चा कर रहे बुद्धिमान व्यक्तियों के "कंठ स्वर" और "अक्रामक तेवर" ऐसे लग रहे थे मानों आज की चर्चा में ही दो - तीन लाख केस रफा-दफा कर दिए जाएँगे । अरे छोड़िए बेवकूफ़ हैं लोग तो "चिल्लाने दीजिए" "निकालने दीजिए कैंडिल मार्च" हम चर्चा पर आमंत्रित हैं तो बस टेलीविजन पर चेहरा दिखाइए और चलते बनिए ।
दफा एक सौ चौआलिस लगी पड़ी थी पूरे शहर में । मरघट का सा सन्नाटा पसरा पड़ा था । पुलिस की गश्ती गाड़ियों की आवाज़ें ही थीं जो यदा-कदा सुनाई पड़ जाती थीं । स्कूल तक नहीं छोड़े थे नासपीटों ने । मासूमों तक को भून डाला । धुआँधार गोलियाँ चलीं चश्मदीदों का कहना था । सैंकड़ों दुकानें आग की भेंट चढ़ गईं । बम विस्फोट में कटी फटी लाशों में कौन सा हिस्सा किसका है ये पता लगाने के लिए तो धर्म के ठेकेदारों की नई कमेटियाँ बनानी पड़ेंगी , वरना तो "जलाए जाने वाले का हाथ दफन हो जाएगा" और "दफन होने वाले की टाँग" आग के सुपुर्द हो जाने का खतरा है ।
नई कमेटियाँ इस लिए क्योंकि पुरानी तो दंगों की रूपरेखा बनाने , उसके लिए चंदा इकट्ठा करने में , असला इकट्ठा करने में और सबसे बढ़कर दंगे को अंजाम देने में पस्त हो गई थीं और कुछ को "स्वर्ग और जन्नत" की सैर भी मिली थी । "खुशनसीब थे सभी" । "आपको क्या ?" "घर में बैठिए चुपचाप ।" "दंगाई किसी के सगे नहीं होते ।"
"हद कर साहब आपने तो ।" "आपके लिए जान दी है ।" "आपके धर्म की रक्षा के लिए ।" "और आप कह रहे हैं हम आपके नहीं ।"
पिछले महीने आठ लड़कियों से बलात्कार हुआ । पाँच नाबालिग थीं । सबसे छोटी तीन बरस की और सबसे बड़ी सत्तर की थी । दोनों ही मौका ए वारदात पर खत्म । करें क्या ??
जाली नोटों (करेंसी) के चलते एक फाइनेंस कंपनी के घोटाले की वजह से पाँच परिवारों ने सामूहिक खुदकुशी कर ली । "मियां बीबी बच्चों समेत" । भई पीछे रोने के लिए किस के सहारे छोड़ा जाए ।
कई छात्र संगठन इन दिनों बड़ी बेबाकी से स्वतंत्रता का ढोल पीट रहे हैं । "स्वतंत्रता चाहिए" "धुएँ में डूबने की" "नंगे होकर घूमने की" "गालियों को भौंकने की" "पिशाचों की तरह एक दूसरे को नोचने की" "स्वतंत्रता चाहिए हमें , स्वच्छंदता चाहिए हमें मनमानी करने की" । "दे दीजिए , मानेंगे नहीं ये ।"
"तो साहब वापस चलें" इन सबके पचड़ों के बीच में "गली के गटर" की बात और बदबू तो आप भूल ही गए । नाक से रुमाल तक हट गया । "अरे - रे - रे ये क्या ??" आपने फिर से नाक ढक ली ।
पता है-पता है आप ऐसे ही , इन्हीं हालातों में ही काम चला लेंगे और जी भी लेंगे । "गटर चाहे कोई भी , कहीं भी भर कर बह रहा हो , बदबू मार रहा हो ।"
✍️सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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