रविवार, 24 मई 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी---- जो जहाँ है , वहीं रहे


 सड़क पर मजदूर सिर पर सामान लादे हुए चले जा रहे थे । एक न्यूज चैनल के लिए काम करते समय मुझे जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि मैं प्रवासी मजदूरों का इंटरव्यू लूँ और उनसे बातचीत करके उनके हृदय की भावनाओं को श्रोताओं तक पहुँचा दूँ। मेरे साथ एक दूसरे न्यूज चैनल का संवाददाता भी था ।
      एक मजदूर परिवार सहित आ रहा था। कुछ समझदार लगा ।मेरे साथ ही संवाददाता ने उसको रोक लिया और प्रश्न पूछना शुरू किया "आप क्यों आ रहे हैं? सड़क से पैदल चलते हुए ऐसी क्या मजबूरी थी?"
     वह मजदूर बोला "आखिर क्या करते ? न मकान का किराया देने के लिए पैसे थे, न कोई वेतन मिल रहा था और न खाने-पीने का इंतजाम सही था ?"
     मेरे साथी संवाददाता ने इतना सुनते ही उस मजदूर को मेरी तरफ बढ़ा दिया । बोला "यह तुम्हारे लिए है ।"
      मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । लेकिन मैंने मजदूर से प्रश्न किया " तुम्हें खाने पीने की कमी भला कैसे हो सकती है ? सरकारों ने स्थान स्थान पर भोजन की व्यवस्था की है। आटा दाल चावल बाँटने का कार्य घर-घर में चल रहा है ।"
    सुनकर मजदूर ने सहमति में सिर हिलाया "यह बात सही है । लेकिन यह सब काफी नहीं होता । खर्चे और भी दस तरह के होते हैं। घर में पड़े - पड़े क्या जी लगे ? और फिर हमें महीने की तनखा भी तो नहीं मिल रही है?"
     " क्या काम करते हो ?"
              "फैक्ट्री में काम करते थे । अब फैक्ट्री बंद हो गई है। लिहाजा जब मालिक को कोई काम नहीं रहा तो हम भी वहाँ क्या करते । उसने हमसे भी मना कर दिया ।"
       "क्या कहा ? इस प्रश्न पर वह बोला "जब फैक्ट्री चलेगी ,तब आ जाना ।"
       "फिर अब जाने के बाद फिर लौट केआओगे ?"
       मेरे इस प्रश्न पर मजदूर ने कुछ परेशानी अपने चेहरे पर ओढ़ ली । बोला " यह तो कुछ कह नहीं सकते !"
  इतना कहकर मजदूर आगे बढ़ गया । मेरा साथी संवाददाता जो दूसरे न्यूज चैनल का था , वह किसी अन्य मजदूर से इंटरव्यू के लिए उलझा हुआ था । मजदूर बार-बार यह कह रहा था कि उसे घर की याद बहुत आ रही थी । साथ ही खाने-पीने और रहने की भी परेशानी होने लगी थी । लेकिन मेरा साथी संवाददाता बार-बार उससे यही पूछ रहा था "इसका मतलब है तुम्हें घर की याद आ रही थी ?"
          वह मजदूर सहमति के भाव से सिर हिलाता था और तब वह संवाददाता उससे कुरेद कुरेद कर प्रश्न पूछता था "जब घर की याद आती है तो तुम्हें ऐसा नहीं लगा कि तुम्हें घर तक पहुँचने के लिए कुछ इंतजाम होना चाहिए था ?"
     "हाँ ! यह तो हम चाहते ही थे कि कोई इंतजाम हो । जब इंतजाम नहीं था ,तभी तो हम पैदल चले ।"
      "तो इसका मतलब है कि जो इंतजाम होना चाहिए था, वह सरकार ने नहीं किया?"
     " भाई ! हम तो इतनी ज्यादा चीजें नहीं जानते । हम तो बस  यही चाहते थे कि किसी तरह घर पहुँच जाएँ। रहने की भी दिक्कत थी और घर की भी बहुत याद आ रही थी ।"
       "मतलब तुम्हें घर की याद आ रही थी और तुम्हारे पास घर पहुँचने के लिए कोई साधन नहीं था ? तुम कितनी परेशानी के साथ कितने दिनों से चल रहे हो ? कुछ विस्तार से बताओ ?"और तब संवाददाता उसके दुख और परेशानी को जो उसने रास्ते में झेली ,उसका विवरण पूछने में लग गया ।
               मैं इंटरव्यू लेकर दूसरी जगह चला गया था क्योंकि मुझे और भी काम था । फिर उसके बाद रास्ते में कुछ लोग बातचीत करते हुए नजर आए । यह राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता थे । सड़क पर धरने पर बैठे हुए थे । यद्यपि मेरा घर जाने का समय हो गया था लेकिन जब मैंने इस दृश्य को देखा तो मुझे यह एक अच्छी न्यूज़ नजर आई । मैं उन लोगों के पास पहुँचा और पूछने लगा "आपकी माँग क्या है ?"
      "हम मजदूरों के साथ हैं और हम चाहते हैं कि वह मजदूर देश में जहां भी फँसा हुआ है ,उसको उसके घर तक पहुँचाने के लिए सरकार इंतजाम करे। "
       "लेकिन सरकार का कहना है कि जो जहाँ है ,वही रहे। इसके बारे में आपकी क्या राय है ?"
            "हम इससे सहमत नहीं हैं । मजदूर को बंधक बनाकर नहीं रखा जा सकता। उसे उसके घर जाने का अधिकार मिलना ही चाहिए ।"
        "लेकिन क्या ऐसा करने से अव्यवस्था नहीं फैल जाएगी ? जो बीमारी इतने दिनों से रोक कर रखी गई है ,वह देश के हर हिस्से में चली जाएगी ।"
       "देखिए साहब ! हमने भी दुनिया देखी है । जब विदेशों से लोग ला रहे थे ,तब वह बीमारी नहीं फैल रही थी । अमीर लोगों से बीमारी नहीं फैली ।अब गरीब लोगों से फैल जाएगी ? देश में गरीब और अमीर के साथ भेदभाव किया जा रहा है । यह गलत है।"
             " आपने डब्ल्यूएचओ का नाम सुना होगा ? उसने गाइडलाइन देने में बहुत देर लगा दी ,जिसके कारण बाहर से आने वाले यात्रियों पर नियंत्रण करने में काफी देर रही ?"
       "यह सब बेकार की बातें हैं ।"-मेरे प्रश्न को अनसुना करते हुए धरने पर बैठे नेता ने कहा -"हम किसी भी हालत में मजदूरों को मानसिक , शारीरिक तथा आर्थिक प्रताड़ना नहीं देने देंगे । उन्हें अपने घर जाने का अधिकार है। सरकार के पास अगर सुविधा नहीं है ,तो हमसे कहे । हम मदद करने के लिए तैयार हैं।"
        मैं समझ गया कि इनके ऊपर किसी तर्क वितर्क अथवा किसी प्रश्न का कोई असर होने वाला नहीं है। इन्होंने नीति बना ली है कि मजदूरों को उनके कार्यस्थल से उनके गाँव तक पहुँचाने का काम होना चाहिए । वह यह सुनने के लिए तैयार नहीं थे कि  ऐसा करने से लॉकडाउन का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा ।
        लेकिन फिर जब तक मैंने न्यूज बनाई और अपने न्यूज़ चैनल को भेजी तो उन्होंने इस पर मुझसे इतनी ही टिप्पणी  की कि अब इस को प्रसारित करने की आवश्यकता नहीं रही ,क्योंकि सबकी समझ में आ गया है कि पूरे देश की भलाई इसी में है कि जो जहाँ है, वह वहीं रहे ।  रोग इस प्रकार जड़ से समाप्त हो जाए तथा उसे फैलने का अवसर न मिले। मुझे थोड़ा दुख तो हुआ कि मेरी मेहनत बेकार गई लेकिन फिर मैंने सोचा कि मेरी मेहनत सफल रही क्योंकि रोग फैलने से रुक गया है ।

 ✍️ रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के साहित्यकार फरहत अली खान की 10 ग़ज़लें-----



*1.
बाज़ दिल याद से उन की न ज़रा-भर आया
वो न आए तो ख़्याल उन का बराबर आया

साक़ी-ए-दर्द भरा ही किया पैमाना-ए-चश्म
सो तिरी बात पे छलका जो ज़रा भर आया

आह! वो शिद्दत-ए-ग़म है कि मिरी आँखों से
बूँद दो बूँद नहीं, एक समुंदर आया

जिस से बचने के लिए बंद कीं आँखें हम ने
बंद आँखों पे भी आगे वही मंज़र आया

ये जो सहरा में फिरा करता है दीवाना सा
ख़ुद को दुनिया के झमेलों से छुड़ा कर आया

दिल को शिद्दत से तमन्ना थी तिरे कूचे की
सो बड़े शौक़ से उस को मैं वहाँ धर आया


*2.
ज़िन्दगी दौड़ती है सड़कों पर
और फिर मौत भी है सड़कों पर

दिनदहाड़े पड़ा है इक ज़ख़्मी
क्या अजब तीरगी है सड़कों पर

लोग बस बे-दिली से चलते हैं
यानी बे-चारगी है सड़कों पर

उम्र घर में तो उस की कम गुज़री
और ज़ियादा कटी है सड़कों पर

मुफ़्लिसी कैसी-कैसी शक्लों में
तू भी अक्सर मिली है सड़कों पर

घर तो गोया किसी का है ही नहीं
सब का सब शहर ही है सड़कों पर

चलते हम-तुम भी है मगर 'फ़रहत'
होड़ रफ़्तार की है सड़कों पर


*3.
आप को उजला दिखे, काला दिखे
सच तो सच है चाहे वो जैसा दिखे

ज़ुल्फ़-ए-जानाँ, दीदा-ए-नम, दर्द-ए-दिल
इन से बाहर आएँ तो दुनिया दिखे

आँख के अंधे को फिर भी अक़्ल है
अक़्ल के अंधे को सब उल्टा दिखे

मुझ को अपने आप सा लगता है वो
राह चलते जब कोई रोता दिखे

हूँ पशेमाँ मैं गुनहगार अपना मुँह
फेर लेता हूँ जो आईना दिखे

खूब है दुनिया की ये जादूगरी
वो नहीं होता है जो होता दिखे


*4.
छेड़ दें गर क़िस्सा-ए-ग़म शाम से
कह रहेंगे सुबह तक आराम से

चाहिए हम को कि बेदारी रहे
आशना हों हश्र से अंजाम से

जो बुलाता था वो शख्स़ अब जा चुका
काम अपना देखिए आराम से

पा गए हम बे-गुनाही की सज़ा
बच गए सौ बार के इल्ज़ाम से

कट रही है ज़िन्दगी अब दश्त में
हम को क्या मतलब रहा हुक्काम से

क्या ख़बर तुझको कि कितना रोए हम
छूट कर सय्याद तेरे दाम से

बज़्म में ‘फ़रहत’ बड़े नाशाद थे
मुँह पे रौनक़ आ गयी इक नाम से


*5.
तू जहाँ में चार दिन मेहमान है
इसके आगे और ही सामान है

आदमी इक ख़ाक का पुतला है बस
जिस्म में रंगत है जब तक जान है

काला-गोरा, ऊँचा-नीचा, जो भी हो
आदमी वो है कि जो इंसान है

गर जहन्नुम की हक़ीक़त जान लो
राह जन्नत की बहुत आसान है

कुछ तिरे आमाल ही अच्छे न थे
अपनी बर्बादी पे क्यूँ हैरान है

कुछ नहीं सारे जहाँ की दौलतें
आदमी के दिल में गर ईमान है


*6.
न सारे ऐब हैं ऐब और हुनर हुनर भी नहीं
कुछ एहतियात तो कीजे पर इस क़दर भी नहीं

तुम्हारे हिज्र में बाँधा है वो समाँ हमने
कि आँख हमसे मिलाता है नौहागर भी नहीं

नहीं, ज़रा भी तो उस ने नहीं मिलाया रुख़
मैं उसको देख रहा था, ये जानकर भी नहीं

ये हमने भूल की आ पहुँचे उन की महफ़िल में
पर उन से अर्ज़-ए-तमन्ना तो भूल कर भी नहीं

कोई तो रंग बिखेरेगी ज़िन्दगी की ये धूप
अगर तवील नहीं है तो मुख़्तसर भी नहीं

मैं किस तरह से उसे दोस्त मान लूँ 'फ़रहत'
नहीं जो अहल-ए-सितम और चारागर भी नहीं


*7.
वो इक मोड़ क़िस्से में ऐसा भी आया
वही शख़्स रोया भी, जो मुस्कुराया

हमें याद करने में क्या लुत्फ़ पाया
कलेजा तुम्हारे जो मुँह को न आया

उसूलों की ख़ातिर जिसे हम ने छोड़ा
उसूलों ने फिर मुँह न उस का दिखाया

वफ़ा के तक़ाज़े अजब हमने देखे
जिसे आज़माया, बहुत आज़माया

सताने की हद हम ने देखी है 'फ़रहत'
वही रो पड़ा जिस ने हम को सताया


*8.
चारों जानिब सब्ज़ा-सब्ज़ा लगता है
साथ है वो तो सब कुछ अच्छा लगता है

उसके शहर में आया हूँ मैं पहली बार
फिर भी सब कुछ देखा-देखा लगता है

इश्क़ में इस दर्जा रहती है ख़ुश-फ़हमी
पैहम धोका खाना अच्छा लगता है

आँख से जारी होता है पानी कैसे
तू तो ऐ दिल सूखा सूखा लगता है

अहद-ए-वफ़ा ही कर बैठे थे हम वरना
रुस्वा होना किसको अच्छा लगता है

अब तक 'फ़रहत' हम तो इस धोके में रहे
हर कोई वैसा है जैसा लगता है


*9.
पत्ता पत्ता ख़ार हुआ है
गुलशन आँखों में चुभता है

सर फोड़े जैसा दुखता है
याद का पत्थर आके लगा है

गोया दिल पर बोझ हो कोई
हर लम्हा भारी लगता है
   
मेरा दोस्त नहीं है कोई
हर कोई तेरे जैसा है

उसकी झूठी वफ़ा का क़िस्सा
अक्सर याद आता रहता है

दिल का ज़ख़्म जो भर नहीं पाया
अक्सर आँखों से रिसता है

मुझ पे जो बीत रही है नासेह
तुझ पे न बीते मेरी दुआ है

अब शायद आराम मिले कुछ
हमने जी को मार लिया है


*10.
वो मुस्कुरा दिए तो ज़रा मुस्कुराएँ हम
फिर ख़ुद से चाहे कोई बहाना बनाएँ हम

फिर से है पैरहन को रफ़ूगर की जुस्तजू
दिल चाहता नहीं कि उसे भूल जाएँ हम

रंग उस के पैरहन के जहाँ में बिखर गए
ख़ुशबू फ़ज़ा में ऐसी घुली क्या बताएँ हम

इश्क़ अस्ल में है नाम अना की शिकस्त का
जब भी वो रूठ जाए तो उस को मनाएँ हम

फिरता है इक ख़्याल हमारी तलाश में
हम भी तलाश में हैं कहाँ उस को पाएँ हम

रंग इंतज़ार करते हुए खो गए कहीं
फ़ुर्सत न मिल सकी कि वहाँ हो भी आएँ हम

✍️फ़रहत अली ख़ान
लाजपत नगर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश ,भारत
मोबाइल फोन नंबर 9412244221

शनिवार, 23 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार प्रवीण राही की लघु कथा -- आचरण


    पचास किलोमीटर के क्षेत्रफल में धनिया जैसा बेहतर कोई और मूर्तिकार नहीं था।धनिया की बनाई मूर्ति मां सरस्वती ,गणेश-  लक्ष्मी, मां काली की प्रतिमा साक्षात जीवंत सी जान पड़ती थी...। आसपास का कहना था कि मां सरस्वती ने उसे ही नहीं बल्कि उसके पूरे खानदान को यह वरदान दिया है कि जिस पत्थर या मिट्टी को वो गढ़ दे उसमे साक्षात देवी वास कर जाएगी।उसका पूरा खानदान इसी पेशे में कई दशक से लगा हुआ था, हां यह सत्य है कि जितनी शोहरत, पैसा धनिया ने कमाया उतना उसके पूर्वजों ने नहीं...

पर जाने क्यों उसके अब अभागे दिन आ गए हैं,  दो साल से कोई भी मूर्ति नहीं बिकी। लोगों का कहना है अब धनिया तेरे हाथ में वह बात नहीं रही...
घर में पैसे आने बंद हो गए हैं और घर में  रोज कलह होने लगी ।
धनिया की पत्नी मुनिया ने अंदर से आवाज लगाई-   सुनो जी अंदर आओ.....जल्दी....मां की प्रतिमा कैसे खंडित हुई ,तुमने तो कल ही बनाई थी ...हमने तो छुआ भी नहीं ,यहां तो हवा भी नहीं आती । मुझे तो लगता है कि जरूर कोई अपशगुन है।
 हे.... हे... मां मां .. माफ करो कुछ गलती हुई जाने अनजाने में.
धनिया की बेटी मुन्नी ने कहा-  बाबा आप तो मां लक्ष्मी की मूर्ति बनाते हो, इतनी सुंदर ,फिर भी हमारे पास पैसे की तंगी.. क्यों बाबा, क्यों??
धनिया जोर जोर से रोने लगा.. मां ....मां... मां माफ करो मां .....।
बिना खाना खाएं वह उस रात जल्दी सो गया।
देर रात महालक्ष्मी उसके सपने में आईं औऱ बोलीं  - बेटा धनिया तुमने अपने काम का  अनादर किया है। घमंड में आकर मदिरा का सेवन करते हुए तुम मूर्ति बनाते हो उस समय तुम असलियत में तुम नहीं होते,तुम्हारी नजर में भी वो बात नहीं होती.....
नशे में चूर तुम मुनिया को मारते पीटते हो ,गाली गलौज करते हो,और वह भी बेटी के सामने.....
 अरे मूर्ख ,देवी की प्रतिमाएं बनाता है और नारी का अपमान करता है। कर्तव्य का आचरण से सीधा संबंध है ।यह कहकर मां अंतर्ध्यान हो गई। सुबह उठते ही धनिया अपनी पत्नी का पैर पकड़कर माफी मांगने लगा और कहा - मुनिया तुझ पर जितनी बार हाथ उठाया मुझे उससे ज्यादा मार पर माफ कर दे...माफ कर ...माफ कर,कह कर रोने लगा
 "घर की देवी है तू,उसका अपमान देवी का अपमान ,फिर मूर्ति में कैसे लाऊं जान"

प्रवीण राही
Nc-102, मुरादाबाद
मो.नो.- 8860213526,8800206869

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रामकिशोर वर्मा का संस्मरणात्मक आलेख ----- "मेरे अंदर दबे हुए कविता के अंकुरों को प्रस्फुटित किया था हीरालाल 'किरण' ने"



    बात उन दिनों की है जब मैं बी ए करने के बाद राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, रामपुर( उ०प्र०) से हिन्दी आशुलिपिक का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद भी खाली हाथ था । हालांकि वर्ष 1974 के समय सरकारी विभागों में भी हिन्दी आशुलिपिकों के पद न के बराबर ही थे पर भविष्य में इन पदों के सृजित होने की प्रबल आशा थी ।
   मैं साक्षात्कार की तैयारी कर रहा था । जेब खर्च निकालने और स्वयं को व्यस्त रखने के लिए मैंने 'अंँग्रेजी माध्यम' के रामपुर में एकमात्र 'सेंटमैरी कान्वेंट' स्कूल के बच्चों को घर पर जाकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया ।
   तभी मेरे घनिष्ठ मित्र स्मृति शेष श्री दिलीप कुमार शर्मा जी ने मुझसे कहा - 'टैगोर शिशु निकेतन में विज्ञान के आचार्य की आवश्यकता है । वहां के प्रधानाचार्य मेरे परिचित हैं। उनका भी काम हो जायेगा और तुम्हें भी सहारा मिल जायेगा।'
  मैंने सोचा - 'खाली से बेगार भली' और वहां विज्ञान पढ़ाना शुरू कर दिया ।
    विद्यालय का वातावरण और युवक-युवती आचार्य सभी बहुत भले थे । वहां पर मेरा परिचय श्री हीरालाल किरण जी से प्रत्यक्ष हुआ । इससे पहले मैं उन्हें केवल समाचार-पत्रों में ही उनकी रचनाओं के साथ पढ़ता रहता था । बहुत साधारण व्यक्तित्तव , मधुर वाणी वाले ज्ञान के भंडार हिन्दी के ध्वज को रामपुर में लहरा रहे थे ।
    बचपन से मुझे कविता पढ़ने का बहुत शौक था । मन करता था कि मैं भी लिखूं । भावों को कलम से कागज पर उकेर दूं ।मन नहीं माना और स्नातक करते समय ही भावों को कागज पर चीतना शुरू कर दिया था।
   मेरे लिए श्री हीरालाल किरण जी का सानिध्य ऐसा था कि जैसे मेरी सभी समस्याओं का हल मिल गया हो । विद्यालय में ही भोजनावकाश में मैं उनसे कविता पर चर्चा करता तो वह बहुत प्रसन्न होते थे । मेरे अंदर दबे हुए कविता के अंकुरों को प्रस्फुटित करने में वह मुझे निस्वार्थभाव से प्रोत्साहित करने लगे ।
   मैं लिखकर लाता और दिखाता तो कहते - 'अभी ऐसे ही लिखो । अच्छे भाव हैं । बस तुकान्त पर ध्यान दो ।'
    मैं अपने लिखे की प्रशंसा पाकर फूला न समाता। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि तुकांत क्या और कैसे प्रयोग करते हैं।बस अतुकान्त लिखता पर मन यही कहता कि जो बात कविता में होती है,वह नहीं आ रही है। मैं अपने मनोभाव श्री हीरालाल किरण जी से कहता तो वह यही कहकर प्रोत्साहित कर देते कि -'करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' । पहले तुकांत मिलाना सीखो । चार-चार की पंक्तियों में रचना रचो । मगर उन्होंने कभी हतोत्साहित नहीं किया ।
   श्री हीरालाल किरण जी मेरी प्रथम पाठशाला थे । तब से मैं अतुकान्त रचनाऐं लिखने लगा ।
   इसी मध्य मेरी नियुक्ति ज़िला एवं सत्र न्यायालय, रामपुर में हो गयी मगर मैं उनसे जुड़ा रहा ।
    आर्य समाज मंदिर, रामपुर में 'विज्ञान कार्यशाला' के आयोजन में श्री हीरालाल किरण जी ने मुझे भी निमंत्रित कर विज्ञान से संबंधित बाल रचाऐं रचने के लिए सभी रचनाकारों को प्रशिक्षण दिया गया।
    न्यायालय की नौकरी में कार्य की अधिकता के कारण समय नहीं मिल पाता था कि मैं काव्य गोष्ठियों में जा पाऊंँ । मगर कलम निरन्तर चलती रही। विभाग में समस्त न्यायिक अधिकारियों और स्टाफ की उपस्थिति में मैं राष्ट्रीय पर्वों पर स्वरचित रचनाऐं प्रस्तुत करता तो वहां भी भूरि-भूरि प्रशंसा पाकर मन गदगद हो जाता । मगर मैं श्री हीरालाल किरण जी को ही मन-ही-मन धन्यवाद देता कि यदि वह मुझे उत्साहित नहीं करते और कविता के व्याकरण व मात्राओं के मकड़जाल में फंँसा कर उलझा देते तो संभवतः कलम आगे नहीं चल सकती थी ।
    श्री हीरालाल किरण जी के व्यवहार और मार्गदर्शन को मैं कभी नहीं भुला सकता ।
 
✍️  राम किशोर वर्मा
       रामपुर

गुरुवार, 21 मई 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार भोलानाथ त्यागी की कविता ---- विरथी राम


राम , हमेशा
विरथी रहें  हैं ,
और रावण -
रथी ,
लंका सोने की
होती है ,
राम , पर्णकुटी में
विराजते रहें है ,
यही , जीवन का
रामराज्य है ,
आज एक बार फिर
अनेक  राम
अपनी अपनी सीता
व  , लाव - लश्कर  के साथ
अपनी खोली छोड़ -
नाप रहें हैं
बीहड़ मार्ग -
अपने साकेत की ओर ,
और वहां -
नव  निर्माण हेतु -
समतलीकरण का कार्य
प्रगति पर है ,
तथा समूचा परिदृश्य -
कालनेमि की भूमिका
निबाहने में
व्यस्त है ......


✍️ भोलानाथ त्यागी
 विनायकम
49 इमलिया परिसर 
सिविल लाइंस
बिजनौर 246701
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 70172 61904  , 94568 73005
           
 


बुधवार, 20 मई 2020

वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद में मंगलवार 19 मई 2020 को आयोजित बाल साहित्य गोष्ठी में शामिल राशि सिंह, प्रीति चौधरी, अशोक विद्रोही ,वीरेंद्र सिंह बृजवासी, नृपेंद्र शर्मा सागर, कंचन लता पांडेय, मीनाक्षी ठाकुर, डॉ प्रीति हुंकार, डॉ पुनीत कुमार, कमाल जैदी 'वफ़ा', डॉ अर्चना गुप्ता, सीमा वर्मा, श्री कृष्ण शुक्ल, जितेंद्र कमल आनन्द,मरगूब हुसैन, राजीव प्रखर और कंचन खन्ना की रचनाएं -----



चलो हो गई सबकी  छुट्टी
​पढ़ाई से हो गई सबकी कट्टी .

​नानी के घर, अब सब जाएंगे
​धमा चौकड़ी , खूब  मचाएंगे .

​मस्ती , बस अब मस्ती होगी
​न किताबों का हो , कोई रोगी .

​सुबह सवेरे , उठकर हम सब
​टहलने जाएं,  नानाजी के संग

​नानी , प्रेम फुहार बरसायेगी
​मम्मी की , अब चल न पाएगी .

​दूध जलेबी मामाजी लाएंगे
​मिलजुलकर हम सब खाएँगे .

​मौसी , मम्मी , नानी नाना
​बुनते रहेंगे बातों का ताना .

​खूब खाएँगे आइसक्रीम कुल्फी
​ठंडी ठंडी , खट्टी और मीठी .

​छुट्टी बाद फिर स्कूल जायेगे
​अगले साल , अच्छे दिन आएंगे .

  ✍️ राशि सिंह
​मुरादाबाद 244001
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 दूरदर्शन पर प्रसारित
 सीरियल महाभारत ने
बच्चों का मन ख़ूब लुभाया
लोकडाउन के समय में
संस्कृति से अपनी
परिचय उनका कराया
सुन उपदेश गीता के
बच्चों के मन में
प्रश्न एक आया
बिन कर्म फल कैसे सम्भव
ऐ माँ ये समझ न आया
माँ ने  सुनकर प्रश्न बच्चों का
उनको पास अपने बैठाया
अपने ज्ञान सागर से फिर
उनकी शंका को यूँ मिटाया
फल की चिंता अगर करोगे
तो कर्म प्रभावित हो जाएगा
तुम्हारा मस्तिष्क फिर कही
एक सीमा तय कर आएगा
जिसको पाना ही मात्र
उद्देश्य तुम्हारा रह जायगा
 कहती गीता अगर बाँधोगे
ख़ुद को किसी सीमा से
फिर शक्ति जो अंदर बसी
उसे कैसे तूँ पहचान पायगा
जब कर्म करोगे चिंतामुक्त
फिर राह हर खुल जायगी
जिस पथ पर तुम पग रखोगे
वो यश की तुम्हें सैर करायगी
बच्चों क्षमता को अपनी
तुम किसी फल में
क़ैद कभी मत करना
कहती गीता इसलिए तुमसे
करते रहना कर्म ही सदा
फल की तुम इच्छा न करना
फल की तुम इच्छा न करना

 ✍️ प्रीति चौधरी
 (शिक्षिका)
राजकीय बालिका इण्टर कालेज
हसनपुर, जनपद-अमरोहा, उ0प्र0
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 पंछी क्या सिखाते हैं?
सुबह सवेरे घर के बाहर ,
              पंछी शोर मचाते हैं !
गा गा कर मीठी बोली में,
          हर दिन मुझे जगाते हैं!!       
  दादी रखती दाना पानी ,
           दाना सब चुग जाते हैं ।
दाना खाते पानी पीते,
          मन को बहुत लुभाते हैं।
शाखों की झुरमुट में देखो,
        गुरगल ने  घर बना दिया।
अंडे दो दे कर उसमें फिर
       अपना आसन जमा लिया।
 बुलबुल की मीठी बोली से ,
       मुझको लगता बहुत भला।
गौरैया की चीं चीं कहती,
          सांझ हुई अब सूर्य ढला!
दीवारों की कोटर में कुछ,
           कतरन और ऊनी धागे।
फुदक फुदक कर जाये,
   गिलहरी इस के हीअंदर भागे।
यह सब भी मानव के-
      जैसा घर संसार बसाते हैं।
 कभी नहीं आपस में लड़ते ,
            सदा प्यार बरसाते हैं।
यह पंछी और जीव जंतु-
   कुछ पाठ पढ़ाते हैं सबको!
हम अपने में खोए रहते,
          देख नहीं पाते इनको।
पापा मम्मी तुम दोनों में,
         जब झगड़ा हो जाता है!
सहम सहम जाता हूं मैं-
     और मन मेरा घबराता है!
 बुरे बुरे सपने आते हैं ,
        मुझको बहुत डराते हैं!!
अब आपस में न लड़ना,
     तुम पंछी यही सिखाते हैं !
सुबह सवेरे घर के बाहर ,
            पंछी शोर मचाते हैं !
गा गाकर मीठी बोली में ,
         हर दिन मुझे जगाते हैं।।

 ✍️ अशोक विद्रोही
 412 प्रकाश नगर
 मुरादाबाद
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आओ  छुक -छुक रेल चलाएं
मीलों   तक   इसको   दौड़ाएं
छुन्नू    चालक    आप    बनेंगे
मुन्नू   आप   गार्ड   बन   जाएं
झंडी और  व्हिसिल  देकर  के
सबको     गाड़ी    में    बैठाएं
आओ छुक -छुक--------------

स्टेशन        स्टेशन          रोकें
लाल   हरे   सिग्नल   को   देखें
चलने  का  सिग्नल  मिलने  पर
करें      इशारा      अंदर     बैठें
फिर    सरपट   गाड़ी    दौड़ाने
चालक   को   झंडी   दिखलाएं।
आओ छुक - छुक--------------

दादी     अम्मा     बूढ़े      बाबा
दौड़  नहीं  सकते   जो   ज्यादा
उनको   डिब्बे  में  बिठला  कर 
पूर्ण    करें       इंसानी      वादा
गोलू,      मोलू,     चिंटू,    भोलू
सबको  बिस्कुट  केक   खिलाएं
आओ छुक-छुक---------------

दिल्ली,  पटना,   अमृतसर   हो
जहाँ  कहीं  भी जिनका  घर हो
उत्तर,   दक्षिण,   पूरव,   पश्चिम
कोई     छोटा-बड़ा    शहर    हो
भटक  रहे  श्रमिक  अंकल   को
अब उनके   घर  तक    पहुंचाएँ
आओ छुक -छुक---------------

देख    सभी   का    मन   हर्षाया
उतरे     जब     स्टेशन      आया
टी टी   ने   जब    पूछा    आकर
सबने  अपना   टिकिट   दिखाया
टाटा     करते       सारे       बच्चे
अपने    अपने   घर   को    जाएँ।
आओ छुक -छुक----------------

हम    बच्चे   कमज़ोर   नहीं    हैं
बातूनी     मुंहजोर      नहीं      हैं
एक   साथ   रहते   हैं   फिर   भी
होते   बिल्कुल     बोर    नहीं   हैं
साथ - साथ  खा-पीकर  हम सब
मतभेदों       को     दूर     भगाएँ।
आओ छुक-छुक-----------------

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
 मुरादाबाद/उ,प्र,
 9719275453
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तोता मुझे बना दो राम,
लंबे पंख लगा दो राम।
नील गगन में मैं उड़ जाऊँ,
तारे सभी बना दो आम।।

तोता मुझे बना दो राम,
सुंदर पँख लगा दो राम।

कभी खत्म ना हो बहार वो,
पतझड़ का क्या वहाँ पे काम।
तोड़-तोड़ कर उनको खाऊँ,
मुफ्त में बन जाये मेरा काम।।

तोता मुझे बना दो राम,
सुंदर पँख लगा दो राम।

इंद्रधनुष के रँग चुरा कर,
कर दूँगा होली के नाम।
सारे रँग मुफ्त में दूँगा,
लूँगा नहीं किसी से दाम।।

तोता मुझे बना दो राम,
सुंदर पँख लगा दो राम।

हरा लाल बंट गया मज़हब में,
सतरँगी हो मेरा चाम।
प्रेम भाव सन्देश सुनाऊँ,
मुझे सौंपना बस ये काम।।

तोता मुझे बना दो राम,
सुंदर पँख लगा दो राम।।

 ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा (मुरादाबाद)
९०४५५४८००८
-------------------------------

चलो इशू ले आओ दाना
खिलाने चलें चिड़ियों को खाना
गिल्लू और मिट्ठू
बड़ी देर के आए
ढूँढो जरा दिक्खे कहीं ना
खिलाने चलें चिड़ियों को खाना
चलो ............................

देखो कच्चे अनार
इन दोनों नें कुतरे
छुपे हैं कि कोई देखे ना
खिलाने चलें चिड़ियों को खाना
चलो ...........................

मोर भी आया है
उसको भी देना
देखो कोई भूखा रहे ना
खिलाने चलें चिड़ियों को खाना
चलो ..........................

पानी के बर्तन में
पानी भी रखना
यहाँ वहाँ कहीं भटके ना
खिलाने चलें चिड़ियों को खाना
चलो ........................

देखो तो मोर
नाचने को आतुर
पानी कहीं बरसे ना
खिलाने चलें चिड़ियों को खाना
चलो ........................

✍️  कंचन लता पाण्डेय “ कंचन “
९४१२८०६८१६
आगरा
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आम रसीला पीला-पीला,
खाओ इसको शालू-शीला ।
गरमी में यह मन को भाये,
रूप इसका रंग रंगीला ।

इसको  कहते फलों का राजा
लंगड़ा,टपका,चौसा भी ला।
एक ही बार में खाऊँ सारे
सबको भावे आम रसीला ।।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद
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अम्मा जी इस बार जून में ,
मुझे गांव को जाना है।
पके आम की झुकी डाल से ,
आम तोड़ कर खाना है।
बूढ़े दादा जी के संग में ,
मैं खेतों पे जाऊँगा।
रोज सवेरे जल्दी उठकर ,
अपना स्वास्थ्य बनाऊंगा ।
बाबा के किस्से सुनसुन कर
अपना ज्ञान बढ़ाना है।

पके आम,,,,,
कुछ दिन के ही लॉक डाउन में ,
जीवन का धन पाया है ।
दादा दादी के संग रहकर ,
अच्छा समय बिताया है।
दादा जी जब गांव को जायें
मुझको भी संग जाना है।
पके,,,,,,,,,
आज जरूरत उनको मेरी
इसीलिये यह कहना है।
बूढ़े दादा लगते प्यारे ,
उनके संग ही रहना है।
अंधे की लकड़ी बनकर के
उनका साथ निभाना है ।
पके,,,,,

✍️ डॉ प्रीति सक्सेना
 मुरादाबाद
--------------------------------

दूल्हा बनने के चक्कर में
करा घोटाला चुनमुन ने
पापाजी की अलमारी का
तोड़ा ताला चुनमुन ने

पापाजी का सबसे बढ़िया
सूट निकाला चुनमुन ने
टाई लगाकर जूता पहना
ढीला ढाला चुनमुन ने

बहुत देर तक इधर उधर
देखा भाला चुनमुन ने
दुल्हन नहीं मिली,गुस्से में
तोड़ दी माला चुनमुन ने

 ✍️ डॉ पुनीत कुमार
T-2/505, आकाश रेसीडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
कांठ रोड,मुरादाबाद -244001
M - 9837189600
------------------------------– -                           
                                                   
मेरी प्यारी प्यारी किताबें,                                                     
मोबाइल से न्यारी किताबें।

लॉक डाउन में दिल बहलाती,
अच्छी  बातें यह सिखलाती।

घर बैठे यह ज्ञान बढ़ातीं,
न ही कोई खर्च कराती।

इन्हें नही करना रिचार्ज,
यह तो खुद रहती है चार्ज।

चाहे कितनी बार पढ़ो,
पलटो पन्ना आगे बढ़ो।

कोई दौर हो कोई ज़माना,
पुस्तक को तुम भूल न जाना।
                                                       
हो कितनी ही भारी किताबें,
कभी नही हैं हारी  किताबें।

इनका नही कोई भी मोल,
पुस्तक होती है अनमोल।

✍️  कमाल ज़ैदी "वफ़ा"                     
सिरसी (सम्भल)
9456031926
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गर्मी के मौसम की आहट आती है
धरती माता फूली नहीं समाती है

आमों की खुशबू आती हैं बागों से
गीत कोकिला कितना मधुर सुनाती है

हरे भरे हो पेड़ झूमने लगते हैं
पवन सुगंधित सारा जग महकाती है

होते मीठे खरबूजे तरबूज बड़े
इनको खाकर गर्मी प्यास बुझाती है

स्कूल किताबों से मिल जाता छुटकारा
गर्मी की छुट्टी बच्चों को भाती है

 ✍️  डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद244001
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मीठा और रसीला आम
मेरे मन को भाया आम
पीला - पीला  पका हुआ आम
हरा - हरा है खट्टा आम
डाल से लटका कच्चा आम
सबके मन को भाए आम
जो आए वो लाए आम
जो खाए , वो खाए आम
फलों का राजा कहलाए आम
खुद पर बहुत इतराए आम
काट के खाएं लंगड़ा आम
चूस के खाएं चोसा आम
बड़ा ही मीठा दशहरी आम
बहुत बड़ा है सफेदा आम
सबसे अच्छा अलफांसों आम
बच्चों का है प्यारा आम
जग में सबसे न्यारा आम ।।

✍️ सीमा वर्मा
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दादाजी का पोता अविरल।
है स्वभाव से अतिशय चंचल।।

इक पल रहता है जमीन पर,
अगले पल ही आसमान पर,
स्वप्न देखता रहता प्रतिपल,
है स्वभाव से अतिशय चंचल।

मन से तो है बिल्कुल बच्चा
खा जाता है सबसे गच्चा
पर न किसी से करता वह छल
है स्वभाव से अतिशय चंचल

कक्षा में अव्वल आता है
उसको गणित नहीं भाता है
प्रश्न पूछता रहता प्रतिपल
है स्वभाव से अतिशय चंचल

मँहगी मँहगी कार चलाना
वायुयान का चालक बनना
देश देश तक घूमे पल पल,
है स्वभाव से अतिशय चंचल।

सभी विषय के प्रश्न पूछता
नये नये फिर तर्क ढूँढता
जब तक प्रश्न न हो जाये हल,
है स्वभाव से अतिशय चंचल।

बहुआयामी उसे ज्ञान है
मेधावी है बुद्धिमान है
हो भविष्य अविरल का उज्ज्वल,
भले अभी है अतिशय चंचल।
दादाजी का पोता अविरल।

 ✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल
MMIG 69, रामगंगा विहार
मुरादाबाद 244001
मोबाइल नं. 9456641400
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::::::::::;प्रस्तुति :::::::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल की काव्य कृति "मैं बैरागी नहीं" की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा --------- ‘दर्शन की पगडंडियों पर...’

       भारतीय काव्य परंपरा में अनेक रचनाकारों द्वारा किसी विषय या व्यक्ति को केन्द्र में रखकर लम्बी कविता अथवा खण्डकाव्य-महाकाव्य रचे जाते रहे हैं जो समय के पृष्ठ पर अपने अमिट हस्ताक्षर करने में सफल रहे हैं, चाहे वह तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ हो, जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ हो, हरिवंशराय बच्चन की ‘मधुशाला’ हो या फिर ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग की ‘चाँदनी’ हो। कालान्तर में भिन्न-भिन्न स्वरूपों में लिखी जाने वाली लम्बी कविता की परंपरा धीरे-धीरे क्षीण होती चली गई और वर्तमान समय में तो आज के रचनाकारों से इस तरह की परंपरागत लम्बी कविता के सृजन की आशा करना संभव ही नहीं है किन्तु हिन्दी व अंग्रेज़ी भाषा के वरिष्ठ और विख्यात सृजक डॉ. राजेश चन्द्र शुक्ल द्वारा हिन्दी में लम्बी कविता की परंपरा को अपनी तरह से समृद्ध करने की दिशा में किया गया सृजन साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ कराता है।
वर्ष 2017 में आई लम्बी कविता की कृति ‘मृगनयनी से मृगछाला’ के पश्चात हाल ही में आई डॉ. आर.सी.शुक्ल की लम्बी कविता कृति ‘मैं बैरागी नहीं’ के माध्यम से उनकी समृद्ध रचनाधर्मिता के साथ-साथ अद्भुत कवि-दृष्टि को भी महसूस किया जा सकता है। पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजीव सक्सेना ने ‘मैं बैरागी नहीं’ को समय से संवाद की कविता मानने के साथ-साथ एक लम्बा प्रणायगीत भी माना है वहीं एक अन्य भूमिका में श्रीमती सुषमा शर्मा ने ‘मैं बैरागी नहीं’ को करुणा से ओतप्रोत हृदयस्पर्शी रचना माना है, किन्तु कृति के रचनाकार शुक्लजी ‘मैं बैरागी नहीं’ को एक प्रगीत रचना जिसे एकार्थकाव्य के अंतर्गत भी रखा जा सकता है, बताते हैं। पुस्तक के 190 छंदों से गुज़रने के पश्चात पृथकरूप से मेरा मानना है कि ‘मैं बैरागी नहीं’ शीर्षक से लम्बी कविता दर्शन की पगडंडियों पर दैहिक प्रेमानुभूतियों और परालौकिक आस्था व अंतश्चेतनाओं के बीच की दिव्ययात्रा है जिसे कवि ने अपने कल्पनालोक में बैराग्य के क्षितिज तक जाकर जिया है। वैसे यात्राएं सदैव सुविधाजनक और सुखकर रहती हों यह आवश्यक तो नहीं, हां अधिकांश यात्राएं कष्टप्रद अवश्य होती हैं। मेरी एक रचना की पंक्तियां हैं-‘कुछ यात्राएं/बाहर हैं/कुछ मन के भीतर हैं/यात्राएं तो/सब अनंत हैं/बस पड़ाव ही हैं/राह सुगम हो/पथरीली हो/बस तनाव ही हैं/किन्तु/नई आशाओं वाले/ताज़े अवसर है’। राग से बैराग्य तक की मन के भीतर की यह आनुभूतिक यात्रा भी शुक्लजी के लिए सहज नहीं रही होगी, यह कृति के छंद बता भी रहे हैं। बहरहाल यह यात्रा प्रारम्भ होती है कृति की इन आरंभिक पंक्तियों से-
‘मैं बैरागी नहीं किन्तु
बैराग्य मुझे भाता है
भूत नहीं होता भविष्य
पर लौट-लौट आता है’
 कबीर ने कहा था- ‘दुख में सुमिरन सब करें/सुख में करे न कोय/जो सुख में सुमिरन करे/दुख काहे को होय’। सुख-सुविधाओं का भोग करना कौन नहीं चाहता, सभी चाहते हैं वहीं दुखों से दूर रहना भी कौन चाहता होगा, कोई नहीं किन्तु बैराग्य को अपने अवचेतन में जीने वाला व्यक्ति निरपेक्ष रहते हुए सुख और दुख में समान रहता है, उसे न तो सुख में अतिशय आनंद की अनुभूति होती है और ना ही दुख में भीषण कष्ट। सभी जानते हैं कि सुखों की अति लालसा ही दुखों का मूल कारण है, किन्तु सबकुछ जानते हुए भी इस व्यामोह को त्याग नहीं पाते। देह का, नेह का मोह जब अपेक्षाओं के निकष पर खरा नहीं उतरता तो अवसाद का गहन अंधकार मन के भीतर चहलकदमी करने लगता है। कवि अपने छंद के माध्यम से इसी भाव को यथार्थ के नये अर्थ प्रदान करता है-
‘दुख से क्यों अवसादित रहते
 दुख तो तुम्हें जगाते
 दुख के कारण उठ जाते हो
 सुख में फिर गिर जाते
 दुख ही सुख का अभिभावक है
 कहां समझ आता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
दरअस्ल, बैरागी कहलाना और बैराग्य को अपनी संवेदनाओं में जीना दो अलग-अलग बातें हैं। एक रचनाकार के मन-मस्तिष्क में जब कोई रचना स्वतः स्फूर्त रूप से आकार ले रही होती है तो निश्चित रूप से रचनाकार की वह प्रसव-स्थिति किसी बैराग्य से कम नहीं होती क्योंकि तथ्यों के, कथ्यों के अलग और अभिनव अर्थ तभी जन्म ले पाते हैं। दर्शन के धरातल पर बैराग्य को जीना संभवतः इसी को कहते हैं कि किसी जीव के जन्म लेने के कारकों और कारणों को अलग दृष्टि से भी महसूस किया जा सकता है क्योंकि जन्म के संदर्भ में विज्ञान की व्याख्या और आध्यात्मिक अवधारणा सर्वथा पृथक-पृथक हैं। जन्म की इस चिरस्थायी और अनसुलझी गुत्थी को कवि मथता है-
‘मूल प्रश्न है इस दुनिया में
 कौन हमें लाता है
 जो नन्हा शिशु बनकर आता
 बूढ़ा हो जाता है
 एक अवस्था आने पर
 जीवन भी थक जाता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
यह यथार्थ है कि इस सृष्टि में जिसका आरम्भ है उसका अंत भी है, जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। जीव के जन्म से मृत्यु तक की जीवन-यात्रा में कुछ भी तो सत्य नहीं है, संभवतः इसीलिए मृत्यु को इस सृष्टि का अंतिम सत्य कहा गया है। कवि अपने इस गूढ़ अर्थ वाले छंद के माध्यम से बैराग्य की इस अनुभूति को अपने ढंग से अभिव्यक्त करता है-
‘जीवन से भी बड़ी मृत्यु है
 जिससे सभी अपरिचित
 ईश्वर की सीमा मन्दिर
 चिर निद्रा बहुत अपरिमित
 जीवन तो घर ले आते
 पर मृत्यु कौन लाता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
इसके अतिरिक्त मृत्यु के उस पार का सच और रहस्य भी सृष्टि के आरंभ से ही अनबूझा, अनसुलझा है, स्वभाविक रूप से कवि भी मृत्यु के उस पार का रहस्य जानने का इच्छा रखता है, मथता है स्वयं को और व्याख्यायित करता है अपनी मनःस्थिति अपने इस छंद के माध्यम से-
‘किन्तु मृत्यु के पीछे भी
 पूरा विस्तार छिपा है
 जिसको संबल कहते हैं
 उसका आधार छिपा है
 केवल मृत्यु बताती हमको
 कर्म कहाँ जाता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
ज्ञान ग्रन्थों से भी प्राप्त होता है और अनुभव से भी किन्तु अपने अवचेतन मन-मस्तिष्क को बैराग्य की स्थिति तक पहुँचाकर जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है वह ना तो ग्रन्थों में मिलता है और ना ही अनुभव से। जीव का जन्म लेना और मर जाना अथवा जन्म लेने से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाना क्या है और क्यों है, ऐसे अनेकानेक अनुत्तरित प्रश्न हैं जिन्हें अपने भीतर केवल बैराग्य को जीकर ही मथा जा सकता है। कवि ऐसे अनुत्तरित प्रश्नों के हल खोजने का प्रयास करता है अपने इस छंद के माध्यम से-
‘ग्रन्थों में वह ज्ञान कहां
 जो मोक्षधाम में रहता
 कितने उत्तर दे देता
 जो मुर्दा जल में बहता
 जन्म-मृत्यु कैसा रहस्य
 यह कौन समझ पाता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
कहते हैं कि गया हुआ समय वापस नहीं आता किन्तु यह भी सच है कि बीते समय में घटित वर्तमान और भविष्य को प्रभावित तो करता ही है, संभवतः इसीलिए ‘मैं बैरागी नहीं’ कृति का प्रत्येक छंद ‘भूत नहीं होता भविष्य/पर लौट-लौट आता है’ पंक्ति रूपी सूत्रवाक्य के साथ पूर्ण होता है। यही सूत्रवाक्य जीवन का भी यथार्थ है और दर्शन की मनोभूमि पर बैराग्य का भी। यहाँ यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि पुस्तक के प्रत्येक छंद में गहन और गूढ़ अर्थ समाहित होने के कारण हर छंद पृथक रूप से विशद व्याख्या और विमर्श की अपेक्षा रखता है। हिन्दी के अप्रतिम गीतकवि स्व. भवानीप्रसाद मिश्र ने कहा है-‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख/और उसके बाद भी उससे बड़ा तू दिख।’ शुक्लजी के सहज-सरल व्यक्तित्व की तरह उनकी पूरी कविता में सहज भाषा के शब्दों का प्रयोग उनके अभीष्ट कथ्य को अर्थ और अहसास के नए क्षितिज प्रदान करता है। निश्चित रूप से शुक्लजी की यह कृति ‘मैं बैरागी नहीं’ साहित्य-जगत में पर्याप्त चर्चित होगी तथा सराहना पायेगी, यह मेरी आशा भी है और विश्वास भी।





कृति - ‘मैं बैरागी नहीं’ (लम्बी कविता)
रचनाकार   - डॉ. आर.सी.शुक्ल
प्रकाशक    - प्रकाश बुक डिपो,बरेली-243003
प्रकाशन वर्ष - 2019
मूल्य       - रु0 400/- (हार्ड बाइंड)
 ✍️  समीक्षक- योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
ए.एल.-49, उमा मेडिकोज़ के पीछे
दीनदयाल नगर-।, काँठ रोड
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
चलभाष- 9412805981  

मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर रस्तोगी की कविता------ मैं मजदूर ...... भारत का ही परिवार हूं ....


मंगलवार, 19 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष सुरेंद्र मोहन मिश्र की रचना ------यह ली गई है लगभग 38 वर्ष पूर्व वर्ष 1982 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---


:::::::::प्रस्तुति :::::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश ,भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास का गीत ------ - यह गीत लिया गया है लगभग 38 वर्ष पूर्व वर्ष 1982 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---




::::::::प्रस्तुति::::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
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मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता की तीन ग़ज़लें -----



(1)

वक़्त के साथ बदलते हैं ज़माने वाले 
फेर लेते हैं नज़र नाज़ उठाने वाले

कल तलक सर पे बिठाया था जिन्होंने हमको 
अब हमारे हैं वही ऐब गिनाने वाले 

मरने के बाद कहाँ याद कोई करता है 
रहते पर मर के अमर नाम कमाने वाले

जख्म भी मिलते हमें रहते यहाँ अपनों से 
होते हैं गैर नहीं दिल को दुखाने वाले

पढ़ते पढ़ते ही इन्हें गुनगुना उठते हैं लब 
गीत  होते हैं मधुर गा के सुनाने वाले

लोगों के कहने की परवाह नहीं करना तुम 
कुछ तो होते ही हैं बस बातें बनाने वाले 

है ये विश्वास कि डूबेंगे यहाँ हम भी नहीं 
आयेंगे 'अर्चना' हमको भी बचाने वाले


(2)

 मीलों की ये दूरियाँ, करते पैदल पार 
ये गरीब मजदूर भी, कितने हैं लाचार 

ऊँची बड़ी इमारतें, जो गढ़ते मजदूर 
वे ही बेघर हो गये,हैं कितने मजबूर 

बच्चा ट्रॉली पर लदा, बना हुआ भी बैल
कैसे कैसे दृश्य से, भरा हुआ है गैल

आती ही है आपदा, लेकर कष्ट अपार 
वक़्त बीत ये जाएगा, थोड़ा धीरज धार 


(3)

 सारा अनुमान गलत मेरा सरासर निकला 
हीरा अनमोल जिसे समझा वो पत्थर निकला 

मुस्कुराहट पे फिदा जिसकी ज़माना भर था 
आँखों में उसके भी लहराता समंदर निकला 

चीर कर रख दिया दिल उसकी जफ़ाओं ने ही 
प्यार समझे थे जिसे तेज़ वो खंजर निकला

मुझको रहने न दिया तन्हा कभी जीवन में 
रोज तन्हाइयों में यादों का लश्कर निकला 

कर्म की दौड़ में आगे रही फिर भी हारी 
और दुश्मन भी मेरा अपना मुकद्दर निकला

बाग फूलों का लगाया बड़े दिल से मैंने 
ऐसा उजड़ा कि न आँखों से वो मंजर निकला

'अर्चना' आपदा आई थी चली भी वो गई 
अब तलक भी न मेरे दिल से मगर डर निकला 


✍️  डॉ अर्चना गुप्ता 
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश

सोमवार, 18 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी जी की गीतिका ------ यह गीतिका ली गई है लगभग 38 वर्ष पूर्व वर्ष 1982 में प्रकाशित वार्षिक स्मारिका "विनायक" से । यह स्मारिका मेला गणेश चौथ चंदौसी के अवसर पर प्रकाशित की जाती है ---




मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष हुल्लड़ मुरादाबादी की कविता ---- सैंपल । यह कविता ली गई है बदायूं की साहित्यिक संस्था "मंच" की ओर से वर्ष 1986 में आयोजित काव्योत्सव के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका से ।इस स्मारिका का संपादन डॉ उर्मिलेश और डॉ मोह दत्त साथी ने किया था ।



:::::::::::::प्रस्तुति:::::::::;;;
 
     डॉ मनोज रस्तोगी
     8, जीलाल स्ट्रीट
     मुरादाबाद 244001
     उत्तर प्रदेश, भारत
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मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर रस्तोगी की कविता -------- मैं मां की नन्ही गुड़िया



 🎤 ✍️  इला सागर रस्तोगी
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 16 मई 2020

मुरादाबाद के हिंदीसेवी स्मृतिशेष दयाशंकर पांडेय पर केंद्रित डॉ कृष्ण कुमार नाज द्वारा लिखा गया संस्मरणात्मक आलेख ----- ‘...... हो सके तो लौट के आना'


       कई साल पहले की बात है। शाम के क़रीब सात और आठ के बीच का समय होगा, मेरे घर की कालबेल बजी। मैंने दरवाज़ा खोला तो महानगर के हास्य-व्यंग्य कवि श्री कृष्ण बिहारी दुबे के साथ एक सज्जन खड़े थे। ठिगनी क़द-काठी, दुबला-पतला शरीर, क्लीनशेव चेहरा, खिचड़ी बाल, सर पर गांधी टोपी, खादी की सफे़द पैंट-शर्ट पहने, कंधे पर थैला लटकाए थे। मैंने उन्हें अभिवादन किया और आदर-सत्कार के साथ बैठक में बैठाया। थोड़ी ही देर में चाय आ गई। चाय की चुस्कियों के बीच दुबे जी ने उनसे परिचय कराया- श्री दयाशंकर पांडेय, रेल विभाग से सेवानिवृत्त, महानगर की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ‘राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति’ के संस्थापक व अध्यक्ष। मैं बहुत ख़ुश हुआ। पांडेय जी ने बग़ैर किसी लाग-लपेट के अपनी बात शुरू की- ‘'नाज़ साहब मैं आपको हिंदी प्रचार समिति का सचिव बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं, समिति की जो गतिविधियां मद्धमगति से चल रही हैं, उनमें तेज़ी आए।’' उनकी आंखों में विश्वास की चमक, लहजे में दृढ़ता, व्यवहार में अपनत्व व निश्छलता और मातृभाषा के प्रति उनका समर्पण देखकर मैंने बग़ैर किसी हील-हुज्जत के जवाब दिया- ‘'मैं हाज़िर हूं, आप जो भी आदेश देंगे सर-आंखों पर।’' शायद मुझसे उन्हें इसी उत्तर की अपेक्षा थी, इसलिए उनकी प्रसन्नता उनके चेहरे पर स्पष्ट झलकने लगी। उन्होंने मुझे तत्काल समिति की पंजिकाएं सौंप दीं। पांडेय जी ने बताया कि समिति की गोष्ठियाँ प्रतिमाह 14 तारीख़ को शाम पांच बजे दूरभाष केंद्र स्थित शिवमंदिर प्रांगण में होती हैं।

    पांडेय जी से इस ख़ूबसूरत मुलाक़ात के बाद आने वाली 14 तारीख़ के दृष्टिगत मैंने समिति सचिव की हैसियत से महानगर के अपने सभी कवि साथियों को निमंत्रण पत्र भेजे। इस गोष्ठी में कुछ शायरों को भी आमंत्रित किया गया। चूंकि यह मेरी ख़ुशकि़स्मती है कि महानगर के सभी रचनाकारों का मुझे हमेशा प्यार मिला है, इसलिए मेरा अनुरोध सभी ने स्वीकार किया और सभी काव्यगोष्ठी में उपस्थित हुए। रचनाकारों की संख्या को देख पांडेय जी भी ख़ुश हुए। गोष्ठी के दौरान ही निकट स्थित होटल से चाय मंगा ली गई। इसी बीच पाँडेय जी ने अपने थैले से बिस्कुट के दो पैकेट निकाले और खोलकर रचनाकारों के सामने रख दिए। वह समिति के हर कार्यक्रम में अपने थैले में बिस्कुट के दो पैकेट ज़रूर डालकर लाते थे। इसी परिवारिक माहौल में समय बीतता गया, हर माह 14 तारीख़ आती रही और समिति के कार्यक्रम होते रहे। उसके पश्चात अपनी कुछ अत्यधिक व्यस्तता के चलते मैं समिति को पूरा समय नहीं दे सका और पांडेय जी से क्षमायाचना करते हुए सचिव पद छोड़ दिया।

    यहां मैं बड़ी विनम्रता के साथ एक बात और कहना चाहूंगा कि जीवन की साठ से अधिक सीढ़ियां चढ़ने के बाद भी पाँडेय जी को थकन नाम के किसी शब्द ने छुआ तक नहीं था। उनमें ग़ज़ब की लगन और इच्छाशक्ति थी। उनके प्रति मन इसलिए भी नतमस्तक हो उठता है कि वह न तो कवि थे, न कहानीकार और न ही हिंदी की किसी अन्य लेखन विधा से संबद्ध, इसके बावजूद हिंदी के प्रति उन्हें हृदय की गहराइयों के साथ लगाव था। हिंदी उनके लिए ‘मातृभाषा’ थी, ‘मात्र भाषा’ नहीं। पांडेय जी का हिंदी प्रेम उन ‘फ़ैशनेबुल’ और ‘दिखावापसंद’ लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो रोटी तो हिंदी की खाते हैं और गुणगान दूसरी भाषाओं का करते हैं।

    काश, पांडेय जी की तरह देश का हर व्यक्ति मातृभाषा से प्यार करे, तो किसी भी भाषा की हिम्मत नहीं कि हिंदी को उसके सिंहासन से उतारने का प्रयास कर सके।

  यद्यपि पांडेय जी ने 06 नवंबर, 2002 को हमारा साथ छोड़कर उस दुनिया में अपना आशियाना बना लिया, जहां देर-सबेर सभी को पहुंचना है। हालांकि उनकी याद किसे विह्नल नहीं कर देती। आज भी मन कह उठता है- ‘...... ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना।’ पांडेय जी की प्रेरणा आज भी हमें ऊर्जावान बनाए हुए है।

✍️ डॉ. कृष्णकुमार 'नाज़'
 सी-130, हिमगिरि कालोनी
कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.
मोबाइल नंबर  99273 76877

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नकवी के रचना कर्म पर अंकित गुप्ता अंक का आलेख -----"दर्द से त्रस्त लोगों के ज़ख़्मों पर रुई के फाहे की तरह हैं डॉ मीना नकवी की ग़ज़लें " यह आलेख उन्होंने वाट्स एप समूह मुरादाबाद लिट्रेरी क्लब की ओर से 10 मई 2020 को आयोजित कार्यक्रम एक दिन एक साहित्यकार के तहत प्रस्तुत किया था ।



अंग्रेज़ी के एक बहुत बड़े कवि पी. बी. शैली ने भावों की अभिव्यक्ति के संदर्भ में एक जुमला दिया था कि "हमारे मधुरतम गीत वे होते हैं जो विचारों की अथाह गहराइयों से उपजते हैं ।"
एहसास की मिट्टी में जब शब्दों का बीजारोपण किया जाता है तभी डॉ. मीना नक़वी जैसा 'सायबान' 'दर्द पतझड़ का' झेलकर भी उफ़ुक़ पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है । उनकी शाइरी 'किरचियाँ दर्द की' हैं; जिनका फैलाव इन्द्रधनुषी है । यह शाइरी विरोधी तेवरों को भी उस शिद्दत से ओढ़ती है कि शाइरी की रूह भी ज़ख़्मी नहीं होती, शब्द अपनी लक्ष्मण-रेखा भी नहीं लाँघते; किंतु फिर भी लक्षितों को असहनीय तपिश भी महसूस होती है ।
भाषा को विशुद्ध संयमित रखते हुए भी वे जितने प्रभाव से अपनी बात कहती हैं; इससे सहज ही उनके मे'यार का पता चलता है । डॉ. मीना नक़वी बदलते हुए मानवीय संबंधों के प्रतिमानों के बारे में कह उठती हैं —

"इसलिये तेरे तअल्लुक़ से हैं हम सहमे हुये
इब्तेदा से पहले हम को फ़िक्र है अंजाम की"

कोई भी तख़्लीक़ तब तक मुकम्मल नहीं कही जा सकती जब तक उसमें फ़िलैन्थ्रॉपी (मानवप्रेम) का समावेश न हो । मीना नक़वी समाज में व्याप्त वैमनस्यता को यकजह्ती से 'रिप्लेस' करना चाहती हैं । वे आपसी सौहार्द्र की हिमायती हैं—


"है अज़ां अल्लाह की और आरती है राम की
गूँज है दोनों में लेकिन प्यार के पैग़ाम की“

'लव इज़ दि इटर्नल एंड अल्टिमेट ट्रूथ' अर्थात्  प्रेम को शाश्वत मानते हुए वे क्या ख़ूब रक़म करती हैं—

"प्रेम की मदिरा से भर दो, मन के आँगन का कलश
सच ये है क़ीमत नहीं होती है ख़ाली जाम की"

शिल्प के मुआमले में भी डॉ. मीना नक़वी एक बेहतरीन शाइरा हैं । ग़ज़ल तो  उनकी मूल विधा है ही, इसके अलावा गीत, दोहे, मुक्तकों के सृजन में भी वे परिणत हैं । ग़ज़लों के प्रवाह व प्रभाव की कसौटी पर वे किस क़दर खरी उतरती हैं इसकी बानगी उनकी रदीफ़ और क़ाफ़ियों की बेहतरीन जुगलबंदी से मिलती है । रवानी के हवाले से एक उदाहरण द्रष्टव्य है—

"पता है हम को कि उसकी आँखों,  में भावनाओं का जल नहीं है
इसीलिये प्रेम की दिशा में ,  हमारी कोशिश सफल नहीं है“

लगभग सभी प्रचलित बह्रों में उन्होंने अपना क़लम आज़माया है । बड़ी बह्रें सामान्य व स्वाभाविक रूप से प्रयोग में लाने में कम दुष्कर मानी जाती हैं जबकि छोटी बह्रों में यदि बात को प्रभावी ढंग से पहुँचाना हो तो यह हाथी का पाँव है । डॉ. मीना नक़वी इस इम्तिहान में भी अव्वल आती हैं—

"दिल का रिश्ता ख़त्म हुआ
दर्द पुराना ख़त्म हुआ

उसने नाता तोड़ लिया
एक सहारा ख़त्म हुआ

लम्हे भर की तल्खी़ से
रब्त पुराना ख़त्म हुआ"

और

"रुत में है कैसी सरगम
आँखें हैं पुरनम पुरनम

आँधी ने क्या ज़ुल्म किया
शाख़ें करती हैं मातम

उसके आने की आशा।
शम्अ की लौ मद्धम मद्धम

दस्तक आहट कुछ भी नहीं
फ़िर भी एक गुमाँ पैहम"

डॉ. नक़वी की शायरी फ़लसफ़ियाना सोच से मुज़य्यन है । वे तसव्वुफ़ की भी बात करती हैं और ऐस्थेटिक सेंस भी लिए रखती हैं । वे तशबीह(दृष्टांत) भी देती हैं और ज़िंदगी के 'यूनिवर्सल ट्रुथ' के प्रति सचेत भी करती हैं—


"आएगी एक दिन ज़ईफ़ी भी
सोचता कौन है जवानी में"

"उस से मिलते ही बात जान गये
हम नमक रख चुके है पानी में"

इश्क़े-मजाज़ी के साथ-साथ वे 'चरैवेति-चरैवेति' का कॉन्गलोमरेशन(सघन मिश्रण) भी बनाती हैं—

"मंज़िल नहीं मिल सकती कि तू साथ नहीं है
हो बाद-ए-मुखा़लिफ़*(विपरीत हवा), तो दिया कैसे जलेगा"


 'पाषाण',  'तरल', 'पटल', 'विटप', 'वेग', 'अधर' जैसे तत्सम शब्दों का स्थानानुरूप और लयबद्ध इस्तेमाल वे जिस तरह करती हैं; उससे देवनागरी के उनके विपुल भण्डार की भी सहज जानकारी मिलती है । जैसा पहले ही उल्लेख किया गया है कि डॉ. मीना नक़वी हिन्दी और उर्दू दोनों की मुख़्तलिफ़ तसानीफ़ में बराबर अधिकार रखती हैं । वे गीतों में भी वही असरपज़ीरी ला पाने में सक्षम हैं जो कि उनकी ग़ज़लों में झलकती है । उनके गीत श्रृंगार के रस में तो पगे हुए लगते ही हैं, साथ ही; उम्मीदों के वन में कलोल करते हुए हिरणों की तरह मासूम भी हैं ।
पी. बी. शैली अपने एक ओड में  कहते हैं, "ओ विंड!  व्हेन विंटर कम्स, कैन स्प्रिंग बि फ़ार बिहाइंड?" डॉ. मीना नक़वी ने भी अपने गीतों में इसी प्रकार की सकारात्मकता के बंदनवार लटकाए हैं  और आशा का स्वागत किया है—

"संध्या ने उजियार बुना है, दीप जले , तो सुन लेना।
मैने , प्रिय..!  इक गीत लिखा है समय मिले तो सुन लेना"

प्रस्तुत गीत भाव, छन्द और शिल्प की दृष्टि से एक श्रेष्ठ गीत है और डॉ. मीना नक़वी के गीतों के ज़ख़ीरे  में जमा'  सुंदर  रत्नों की नुमाइंदगी करता है । इस गीत की ही  "अंगनाई में यादों की जब बर्फ़ गले तो सुन लेना" पंक्ति में 'यादों की बर्फ़' का सुंदर प्रयोग हुआ है; जोकि गीत में विशिष्टता पैदा करता है ।  मैस्कुलिज़्म, पैट्रिआर्कल सोच से ग्रस्त तथाकथित एमसीपी समाज को ताक़ीद करते हुए वे अपनी दोहानुमा ग़ज़ल में क्या ख़ूब कटाक्ष करती हैं—

"मनसा वाचा कर्मणा मानव है वह दीन
महिला के किरदार पर जिसकी भाषा हीन"

इस प्रकार, डॉ. मीना नक़वी हिंदी-उर्दू अदब का वह नाम है; जिसके बिना दोनों ही भाषाओं में किसी भी तहरीर की कल्पना नहीं की जा सकती । उनकी ग़ज़लें दर्द से त्रस्त लोगों के ज़ख़्मों पर रूई के फाहे की तरह हैं तो वहीं उनके गीत आशा का उजास बिखेरते 'हारबिंजर' हैं । अपने निजी जीवन में वे जिन विकट स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही हैं; उसके बावजूद उनका सतत्, विराट एवं उत्कृष्ट लेखन नई पीढ़ी के लिए निश्चित ही प्रेरणादायी है ।

✍️ अंकित गुप्ता 'अंक'
सूर्य नगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज लाइनपार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9759526650

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में गुरुग्राम निवासी) के साहित्यकार डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल की ग़ज़ल ----क्यों हवा के हाथ में विष का खिलौना दे दिया उठ रही हैं मेरे अंदर आँधियाँ कल रात से


बंद हैं क्यों इन घरों की खिड़कियाँ कल रात से
पूछती हैं राह में परछाइयाँ कल रात से

क्यों हवा के हाथ में विष का खिलौना दे दिया
उठ रही हैं मेरे अंदर आँधियाँ कल रात से

आदमी था, मैं तो आखिर मोम का पुतला न था
 किस लपट में जल रही हैं, उँगलियाँ कल रात से

भीड़ का अनजान जंगल और मैं खोया हुआ
हँस रही हैं मुझ पे मिल की चिमनियाँ कल रात से

सामने सूरज है लेकिन डर अँधेरे का भी है
जल रही हैं मेरे घर में बिजलियाँ कल रात से

अंत आखिर यह हुआ, नाख़ून तक जाते रहे
किसलिए सुलझा रहा था गुत्थियाँ कल रात से

एक दस्तक और दो, सोए हुए कमरों के पास
जम रही हैं हर तरफ़ ख़ामोशियाँ कल रात से

रोशनी ख़ुद ही अँधेरा ओढ़कर बैठी रही
बंद आँखों-सा हुआ है आस्माँ कल रात से

खिड़कियों तक आ गया है, अब अँधेरे का बहाव
पेड़-पौधे पी रहे थे, ये धुआँ कल रात से

✍️  डॉ॰ गिरिराज शरण अग्रवाल
7838090732

मुरादाबाद की साहित्यकार रश्मि प्रभाकर की गजल-----नजरें झुकाना आपका, दीवाना कर गया। यूँ मुस्कराना आपका, दीवाना कर गया।।


🎤✍️ रश्मि प्रभाकर
10/184 फेज़ 2, बुद्धि विहार, आवास विकास, मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
फोन नं. 9897548736

दुर्लभ चित्र : प्रख्यात साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन के साथ मुरादाबाद के साहित्यकार ।

बाएं से वीरेंद्र मिश्र, डॉ ज्ञान प्रकाश सोती, डॉ  हरिवंश राय बच्चन,........., डॉ शिवनाथ अरोड़ा, पंडित मदन मोहन व्यास औऱ गिरधर दास पोरवाल

शुक्रवार, 15 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा ------ असहाय


    जिला अस्पताल में पहुंच कर बीमार मोहन ने पर्ची कटवाई और डॉक्टर के कमरे में पहुँचा, डॉक्टर ने उसकी जांच कर कुछ दवाइयां लिख कर उसे दे दी और कहा जाकर काउंटर से ले लो ।काउंटर पर भीड़ थी कुछ देर बाद उसका नम्बर भी आ गया, उसने पर्ची कम्पाउंडर को थमा दी कम्पाउंडर ने पर्ची पर कुछ गोलियां रख कर और यह कह कर की इंजैक्शन बाहर मैडिकल स्टोर से ले लो उसे दे दी।वह  गिड़गिड़ा कर बोला ,मैं बहुत ही गरीब आदमी हूँ।मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं।कम्पाउंडर ने उससे कहा ''क्या तेरे लिए कहीं से खोद कर लाऊं, चले आते हैं ?''वह बोला आप ही कुछ प्रबंध कर दो ,मेरे पास तो घर जाने लायक ही पैसे हैं ।कम्पाउंडर ने कहा '' ला निकाल कितने पैसे हैं ।'' मोहन ने जेब से पैसे निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिये, उसने इंजैक्शन उसके हाथ पर रख दिया '' अब गरीब मोहन हाथ में लिये इंजैक्शन की ओर देखता तो कभी अपनी जेब की ओर उसके पास इंजैक्शन लगवाने के लिए भी पैसे नहीं बचे  थे, इस वेदना में उसकी आँखों से  आँसू टपककर  इंजैक्शन पर गिरने लगे, औऱ--------वह प्रश्न चिन्ह बना  खड़ा रहा??????
       
            ✍️ अशोक विश्नोई
               मुरादाबाद
               941180922

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफ़ा की लघुकथा ---पड़ौसी

                                                          अशर्फीलाल और चिरंजीलाल में सुबह -सुबह तू तू मै मै होना कोई नई बात नहीं  थी । अशर्फीलाल का कहना था कि चिरंजी  अपने घर का कूड़ा उसके घर के सामने डाल देता है जबकि चिरंजीलाल का कहना था - वह तो सरकारी सड़क पर कूड़ा डालता है। आये दिन की दोनों की तू तू मै मैं से दोनों परिवार में मन मुटाव चला आ रहा था । 
     अचानक पांच मई को  65 वर्षीय अशर्फीलाल की तबियत खराब होने पर उन्हें पहले मुरादाबाद ले जाया गया और वहाँ से उन्हें मेरठ अस्पताल में रैफर कर दिया गया जहाँ 6 मई को उनकी कोरोना के लिये सैम्पलिंग हुई और 8 मई को उनकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई तो उनके सभी परिजनों को स्वास्थ्य विभाग की तरफ से क्वारन्टीन कर दिया गया। 10 मई को उपचार के दौरान उनकी मौत हो गई । मेरठ में अशर्फीलाल की ससुराल के कई रिश्तेदार थे, जिन्हें मौत की सूचना दी गई लेकिन कोरोना के खौफ के चलते कोई अस्पताल नहीं आया। कल तक जो लोग उनके आगे पीछे रहते थे उन्होंने नये नये बहाने बनाकर अस्पताल आने में अपनी असमर्थता जता दी थी। पड़ौस के गांव से मुंह बोले भतीजे विनोद को जब ताऊ की मौत की खबर मिली तो वह सारी बाधाएं पार करते हुए मेरठ पहुँच गया। उसने ताई सविता से फोन पर वार्ता की तो उन्होंने मेरठ में ही अंतिम संस्कार करने की बात कह दी लेकिन दो जिलों के बीच में अशर्फीलाल का अंतिम संस्कार भी उलझ गया। वह सोच रहा था कोरोना ने रिश्ते नाते तो क्या  संवेदनहीनता का वायरस भी समाज में फैला दिया है । ताऊ के परिजनों से कहकर  बड़ी मिन्नतों के बाद आखिरकार वह ताऊ का शव गांव ले आया। कोरोना व प्रशासन के खौफ़ के कारण गांव में भी लोग सांत्वना तक व्यक्त करने उसके ताऊ के घर नहीं आये । वहीं पड़ोस में चिरंजी लाल की पत्नी रजनी अपने पति व बच्चों को समझा रही थी कि पड़ोस में छोटी मोटी बात होती रहती है लेकिन कोई दुश्मनी थोड़ी हो जाती है। सविता की पूरी फैमिली क्वारन्टीन है ऐसे में पड़ोसी होने के नाते हमारा फर्ज है कि हम अशर्फीलाल का विधि विधान से अंतिम संस्कार कराएं।  अगले ही पल चिरंजीलाल अपने चारों बेटों के साथ पूरी सावधानी बरतते हुए अशर्फीलाल की अर्थी को कान्धा देने पहुँच गये । शमशान की दीवार से सिर टिकाए विनोद अपने ताऊ की चिता को जलते देख रहा था। अचानक उसके मुंह से निकल पड़ा - किसी  ने सच ही कहा है सौ गोती एक पड़ौसी बराबर होता है।

✍️कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
प्रधानाचार्य, अम्बेडकर हाई स्कूल बरखेड़ा (मुरादाबाद)
सिरसी (सम्भल)
9456031926

कंचनलता पांडेय की लघुकथा ----बुद्धू बक्सा






हे हेलो !  सो उठकर मुझे अकेले चीखते हुए छोड़कर जो तुम बाथरूम में घुस जाते हो, कोई सुनता भी है मुझे ? आज मेरा टीवी थोड़े शिकायती लहजे में बोला ।
क्या हुआ बुद्धू बक्से ? मैंने भी टूथपेस्ट का पैकेट खोलते हुए ही उसे चिढ़ाने के अंदाज़ में कहा ।
इतना सुनते ही वो तो भड़क गया !
क्या बोला ? बुद्धू बक्सा ! मैं बुद्धू बक्सा हूँ, और तुम ? तुम बहुत समझदार हो ? तो क्यों नहीं मेरे बिना रह लेते हो ? मैं तो नहीं आया था अपने आप तुम्हारे पास, तुम लेकर आए थे मुझे बड़े एहतियात से, याद  है ना और हाँ सुबह उठने से रात के सोने तक कोई न कोई चलाए रखता है मुझे । तुम्हें भी तो हर खबर मुझसे ही जाननी होती है चाहे कहीं और से सुनी हो तो भी और मैं बुद्धू बक्सा हुँह । मेरे बिना तुम्हारा ही नहीं तुम्हारे घर में किसी का काम नहीं चलता । तुम्हारी माता जी का भजन कीर्तन कथा योगा हो या बच्चों का कार्टून । और तो और आजकल तुम्हारा पूरा परिवार रामायण, महाभारत देखने और कितनी शिद्दत से बच्चों को भी दिखाने में लगा रहता है, बच्चों को संस्कार जो सिखाना है !
टीवी अब तक रौब में आ गया था और मुझे उससे बहस करने का न मूड था न समय, सो मै वहाँ से जाने के मुड़ गया । पर वो अभी चुप होने मूड में नहीं था, अब भी उसकी आवाज़ मेरे कानों में धीमी धीमी पड़ रही थी ।
घर का हर समान मुझे देखकर ही लाते हो, सुन रहे हो ? ये जो टूथपेस्ट लिए खड़े थे, वो भी मैंने ही बताया था तुम्हें । बड़े आए होशियार ।
साबुन सैपू ...
वो बोलता जा रहा था, पर अब तक मैंने नहाने के लिए पानी खोल दिया था और उसकी आवाज़ सुनाई देनी बंद हो गई, लेकिन उसकी कही हुई बातें सही ही तो थीं ! बल्कि मुझे तो वो सब (जो उसने कहा नहीं या मैंने सुना नहीं ) नज़र आने लगा । नास्ते की मेज़ पर रखा जैम अचार जूस सब जगह उसकी मौजूदगी दिखने लगी । मैं ऑफ़िस के लिए लेट हो रहा था और उसकी कही अनकही बातों को दिमाग़ से निकाल जल्दी ऑफ़िस जाने के लिए निकाल गया ।                                           
~कंचन
आगरा
9412806816

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ---------अमीर गरीब


पिछले दिनों,संतुलन नामक संस्था का दो दिवसीय ध्यान शिविर लगा था।ये आयोजन,केवल संस्था से जुड़े लोगो के लिए था।इसके लिए 300 रुपए सहयोग राशि निर्धारित की गई थी।
जो लोग उस समय सहयोग राशि नहीं दे पाए थे,उनके लिए आज एक स्पेशल काउंटर लगाया गया था।रमेश सबके रुपए जमा कर रहा। सबसे आगे सावित्री खड़ी थी।वो लोगो के यहां बर्तन मांजने का काम कर, बड़ी मुश्किल से गृहस्थी चला पाती थी।
      लेकिन तुम तो शिविर में आई ही नहीं थीं,फिर ये रुपए क्यों जमा कर रही हो,---रमेश ने सावित्री से कहा
      हां,बेटे को बुखार हो गया था,इसलिए आ नहीं सकी लेकिन ये रुपए तो मैंने पहले ही अलग निकाल कर रख लिए थे,इनको तो आप जमा कर लो,किसी और काम आ जाएंगे -- सावित्री ने जबरदस्ती रुपए रमेश के हाथ में पकड़ाए और अलग हट गई
           उसके पीछे कपड़े के बहुत बड़े थोक व्यापारी प्रेम प्रकाश गुप्ता जी खड़े थे। उन्हें देख रमेश बोला --- अरे गुप्ता जी आप,आपके रुपए तो जमा है
----- वो तो ठीक है,लेकिन हम एक दिन ही आ पाए थे,और हमने लंच भी नहीं किया था।हमें तो कुछ रुपए वापस मिलने चाहिए --- गुप्ता जी ने रमेश से बड़े अधिकार से कहा।
         रमेश विस्मय से गुप्ता जी और सावित्री को देखने लगा।उसकी समझ नहीं आ रहा था --- अमीर कौन है और गरीब कौन।

✍️ डॉ पुनीत कुमार
T-2/505, आकाश रेसीडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
कांठ रोड
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600