बुधवार, 20 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल की काव्य कृति "मैं बैरागी नहीं" की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा --------- ‘दर्शन की पगडंडियों पर...’

       भारतीय काव्य परंपरा में अनेक रचनाकारों द्वारा किसी विषय या व्यक्ति को केन्द्र में रखकर लम्बी कविता अथवा खण्डकाव्य-महाकाव्य रचे जाते रहे हैं जो समय के पृष्ठ पर अपने अमिट हस्ताक्षर करने में सफल रहे हैं, चाहे वह तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ हो, जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ हो, हरिवंशराय बच्चन की ‘मधुशाला’ हो या फिर ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग की ‘चाँदनी’ हो। कालान्तर में भिन्न-भिन्न स्वरूपों में लिखी जाने वाली लम्बी कविता की परंपरा धीरे-धीरे क्षीण होती चली गई और वर्तमान समय में तो आज के रचनाकारों से इस तरह की परंपरागत लम्बी कविता के सृजन की आशा करना संभव ही नहीं है किन्तु हिन्दी व अंग्रेज़ी भाषा के वरिष्ठ और विख्यात सृजक डॉ. राजेश चन्द्र शुक्ल द्वारा हिन्दी में लम्बी कविता की परंपरा को अपनी तरह से समृद्ध करने की दिशा में किया गया सृजन साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ कराता है।
वर्ष 2017 में आई लम्बी कविता की कृति ‘मृगनयनी से मृगछाला’ के पश्चात हाल ही में आई डॉ. आर.सी.शुक्ल की लम्बी कविता कृति ‘मैं बैरागी नहीं’ के माध्यम से उनकी समृद्ध रचनाधर्मिता के साथ-साथ अद्भुत कवि-दृष्टि को भी महसूस किया जा सकता है। पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजीव सक्सेना ने ‘मैं बैरागी नहीं’ को समय से संवाद की कविता मानने के साथ-साथ एक लम्बा प्रणायगीत भी माना है वहीं एक अन्य भूमिका में श्रीमती सुषमा शर्मा ने ‘मैं बैरागी नहीं’ को करुणा से ओतप्रोत हृदयस्पर्शी रचना माना है, किन्तु कृति के रचनाकार शुक्लजी ‘मैं बैरागी नहीं’ को एक प्रगीत रचना जिसे एकार्थकाव्य के अंतर्गत भी रखा जा सकता है, बताते हैं। पुस्तक के 190 छंदों से गुज़रने के पश्चात पृथकरूप से मेरा मानना है कि ‘मैं बैरागी नहीं’ शीर्षक से लम्बी कविता दर्शन की पगडंडियों पर दैहिक प्रेमानुभूतियों और परालौकिक आस्था व अंतश्चेतनाओं के बीच की दिव्ययात्रा है जिसे कवि ने अपने कल्पनालोक में बैराग्य के क्षितिज तक जाकर जिया है। वैसे यात्राएं सदैव सुविधाजनक और सुखकर रहती हों यह आवश्यक तो नहीं, हां अधिकांश यात्राएं कष्टप्रद अवश्य होती हैं। मेरी एक रचना की पंक्तियां हैं-‘कुछ यात्राएं/बाहर हैं/कुछ मन के भीतर हैं/यात्राएं तो/सब अनंत हैं/बस पड़ाव ही हैं/राह सुगम हो/पथरीली हो/बस तनाव ही हैं/किन्तु/नई आशाओं वाले/ताज़े अवसर है’। राग से बैराग्य तक की मन के भीतर की यह आनुभूतिक यात्रा भी शुक्लजी के लिए सहज नहीं रही होगी, यह कृति के छंद बता भी रहे हैं। बहरहाल यह यात्रा प्रारम्भ होती है कृति की इन आरंभिक पंक्तियों से-
‘मैं बैरागी नहीं किन्तु
बैराग्य मुझे भाता है
भूत नहीं होता भविष्य
पर लौट-लौट आता है’
 कबीर ने कहा था- ‘दुख में सुमिरन सब करें/सुख में करे न कोय/जो सुख में सुमिरन करे/दुख काहे को होय’। सुख-सुविधाओं का भोग करना कौन नहीं चाहता, सभी चाहते हैं वहीं दुखों से दूर रहना भी कौन चाहता होगा, कोई नहीं किन्तु बैराग्य को अपने अवचेतन में जीने वाला व्यक्ति निरपेक्ष रहते हुए सुख और दुख में समान रहता है, उसे न तो सुख में अतिशय आनंद की अनुभूति होती है और ना ही दुख में भीषण कष्ट। सभी जानते हैं कि सुखों की अति लालसा ही दुखों का मूल कारण है, किन्तु सबकुछ जानते हुए भी इस व्यामोह को त्याग नहीं पाते। देह का, नेह का मोह जब अपेक्षाओं के निकष पर खरा नहीं उतरता तो अवसाद का गहन अंधकार मन के भीतर चहलकदमी करने लगता है। कवि अपने छंद के माध्यम से इसी भाव को यथार्थ के नये अर्थ प्रदान करता है-
‘दुख से क्यों अवसादित रहते
 दुख तो तुम्हें जगाते
 दुख के कारण उठ जाते हो
 सुख में फिर गिर जाते
 दुख ही सुख का अभिभावक है
 कहां समझ आता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
दरअस्ल, बैरागी कहलाना और बैराग्य को अपनी संवेदनाओं में जीना दो अलग-अलग बातें हैं। एक रचनाकार के मन-मस्तिष्क में जब कोई रचना स्वतः स्फूर्त रूप से आकार ले रही होती है तो निश्चित रूप से रचनाकार की वह प्रसव-स्थिति किसी बैराग्य से कम नहीं होती क्योंकि तथ्यों के, कथ्यों के अलग और अभिनव अर्थ तभी जन्म ले पाते हैं। दर्शन के धरातल पर बैराग्य को जीना संभवतः इसी को कहते हैं कि किसी जीव के जन्म लेने के कारकों और कारणों को अलग दृष्टि से भी महसूस किया जा सकता है क्योंकि जन्म के संदर्भ में विज्ञान की व्याख्या और आध्यात्मिक अवधारणा सर्वथा पृथक-पृथक हैं। जन्म की इस चिरस्थायी और अनसुलझी गुत्थी को कवि मथता है-
‘मूल प्रश्न है इस दुनिया में
 कौन हमें लाता है
 जो नन्हा शिशु बनकर आता
 बूढ़ा हो जाता है
 एक अवस्था आने पर
 जीवन भी थक जाता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
यह यथार्थ है कि इस सृष्टि में जिसका आरम्भ है उसका अंत भी है, जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। जीव के जन्म से मृत्यु तक की जीवन-यात्रा में कुछ भी तो सत्य नहीं है, संभवतः इसीलिए मृत्यु को इस सृष्टि का अंतिम सत्य कहा गया है। कवि अपने इस गूढ़ अर्थ वाले छंद के माध्यम से बैराग्य की इस अनुभूति को अपने ढंग से अभिव्यक्त करता है-
‘जीवन से भी बड़ी मृत्यु है
 जिससे सभी अपरिचित
 ईश्वर की सीमा मन्दिर
 चिर निद्रा बहुत अपरिमित
 जीवन तो घर ले आते
 पर मृत्यु कौन लाता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
इसके अतिरिक्त मृत्यु के उस पार का सच और रहस्य भी सृष्टि के आरंभ से ही अनबूझा, अनसुलझा है, स्वभाविक रूप से कवि भी मृत्यु के उस पार का रहस्य जानने का इच्छा रखता है, मथता है स्वयं को और व्याख्यायित करता है अपनी मनःस्थिति अपने इस छंद के माध्यम से-
‘किन्तु मृत्यु के पीछे भी
 पूरा विस्तार छिपा है
 जिसको संबल कहते हैं
 उसका आधार छिपा है
 केवल मृत्यु बताती हमको
 कर्म कहाँ जाता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
ज्ञान ग्रन्थों से भी प्राप्त होता है और अनुभव से भी किन्तु अपने अवचेतन मन-मस्तिष्क को बैराग्य की स्थिति तक पहुँचाकर जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है वह ना तो ग्रन्थों में मिलता है और ना ही अनुभव से। जीव का जन्म लेना और मर जाना अथवा जन्म लेने से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाना क्या है और क्यों है, ऐसे अनेकानेक अनुत्तरित प्रश्न हैं जिन्हें अपने भीतर केवल बैराग्य को जीकर ही मथा जा सकता है। कवि ऐसे अनुत्तरित प्रश्नों के हल खोजने का प्रयास करता है अपने इस छंद के माध्यम से-
‘ग्रन्थों में वह ज्ञान कहां
 जो मोक्षधाम में रहता
 कितने उत्तर दे देता
 जो मुर्दा जल में बहता
 जन्म-मृत्यु कैसा रहस्य
 यह कौन समझ पाता है
 भूत नहीं होता भविष्य
 पर लौट-लौट आता है’
कहते हैं कि गया हुआ समय वापस नहीं आता किन्तु यह भी सच है कि बीते समय में घटित वर्तमान और भविष्य को प्रभावित तो करता ही है, संभवतः इसीलिए ‘मैं बैरागी नहीं’ कृति का प्रत्येक छंद ‘भूत नहीं होता भविष्य/पर लौट-लौट आता है’ पंक्ति रूपी सूत्रवाक्य के साथ पूर्ण होता है। यही सूत्रवाक्य जीवन का भी यथार्थ है और दर्शन की मनोभूमि पर बैराग्य का भी। यहाँ यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि पुस्तक के प्रत्येक छंद में गहन और गूढ़ अर्थ समाहित होने के कारण हर छंद पृथक रूप से विशद व्याख्या और विमर्श की अपेक्षा रखता है। हिन्दी के अप्रतिम गीतकवि स्व. भवानीप्रसाद मिश्र ने कहा है-‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख/और उसके बाद भी उससे बड़ा तू दिख।’ शुक्लजी के सहज-सरल व्यक्तित्व की तरह उनकी पूरी कविता में सहज भाषा के शब्दों का प्रयोग उनके अभीष्ट कथ्य को अर्थ और अहसास के नए क्षितिज प्रदान करता है। निश्चित रूप से शुक्लजी की यह कृति ‘मैं बैरागी नहीं’ साहित्य-जगत में पर्याप्त चर्चित होगी तथा सराहना पायेगी, यह मेरी आशा भी है और विश्वास भी।





कृति - ‘मैं बैरागी नहीं’ (लम्बी कविता)
रचनाकार   - डॉ. आर.सी.शुक्ल
प्रकाशक    - प्रकाश बुक डिपो,बरेली-243003
प्रकाशन वर्ष - 2019
मूल्य       - रु0 400/- (हार्ड बाइंड)
 ✍️  समीक्षक- योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
ए.एल.-49, उमा मेडिकोज़ के पीछे
दीनदयाल नगर-।, काँठ रोड
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
चलभाष- 9412805981  

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