बंद हैं क्यों इन घरों की खिड़कियाँ कल रात से
पूछती हैं राह में परछाइयाँ कल रात से
क्यों हवा के हाथ में विष का खिलौना दे दिया
उठ रही हैं मेरे अंदर आँधियाँ कल रात से
आदमी था, मैं तो आखिर मोम का पुतला न था
किस लपट में जल रही हैं, उँगलियाँ कल रात से
भीड़ का अनजान जंगल और मैं खोया हुआ
हँस रही हैं मुझ पे मिल की चिमनियाँ कल रात से
सामने सूरज है लेकिन डर अँधेरे का भी है
जल रही हैं मेरे घर में बिजलियाँ कल रात से
अंत आखिर यह हुआ, नाख़ून तक जाते रहे
किसलिए सुलझा रहा था गुत्थियाँ कल रात से
एक दस्तक और दो, सोए हुए कमरों के पास
जम रही हैं हर तरफ़ ख़ामोशियाँ कल रात से
रोशनी ख़ुद ही अँधेरा ओढ़कर बैठी रही
बंद आँखों-सा हुआ है आस्माँ कल रात से
खिड़कियों तक आ गया है, अब अँधेरे का बहाव
पेड़-पौधे पी रहे थे, ये धुआँ कल रात से
✍️ डॉ॰ गिरिराज शरण अग्रवाल
7838090732
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