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मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा के तत्वावधान में साहित्यकार ज़िया ज़मीर के गजल-संग्रह "ये सब फूल तुम्हारे नाम" का लोकार्पण हिमगिरि कालोनी मुरादाबाद स्थित मशहूर शायर ज़मीर दरवेश साहब के निवास पर किया गया।
कार्यक्रम का आरंभ ज़िया ज़मीर द्वारा प्रस्तुत नाते पाक व मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वन्दना से हुआ। इस अवसर पर लोकार्पित कृति "ये सब फूल तुम्हारे नाम" से रचनापाठ करते हुए ज़िया ज़मीर ने ग़ज़लें सुनायीं-
"दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है
किसकी आमद है भला कौन नज़र आ गया है
ज़िंदगी रोक के अक्सर यही कहती है मुझे
तुझको जाना था किधर और किधर आ गया है
लहर ख़ुद पर है पशेमान कि उसकी ज़द में
नन्हें हाथों से बना रेत का घर आ गया है"।
उनकी एक और ग़ज़ल की सबने तारीफ की-
"दरिया में जाते वक़्त इशारा करें तुझे
जब डूबने लगें तो पुकारा करें तुझे
महफ़िल से तू ने उठते हुए देखा ही नहीं
हम सोचते रहे कि इशारा करें तुझे"।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा- "जिया जमीर के पास गहरे पानियों जैसा बहाव है। वे आम फ़हम भी हैं, जिसके लिए लुगत की ज़रूरत नहीं है। उर्दू कविता के सहृदय पाठकों को जिया ज़मीर की शायरी में एक गहरी कलात्मकता और पारदर्शी सोच मिलेगी।"
मुख्य अतिथि के रूप में विख्यात शायर मंसूर उस्मानी ने कहा- "ज़िया ज़मीर मौजूदा वक्त में नई गजल की नई फिक्र और नई नजर के मजबूत हस्ताक्षर हैं, जो सिर्फ आज में ही नहीं जीते, उनके साथ उनका माजी भी है और आने वाले वक्त के रंगीन सपने भी।"
विशिष्ट अतिथि मशहूर शायर ज़मीर दरवेश ने कहा- "ज़िया ज़मीर की शायरी में हकीकत और तख़य्युल का खूबसूरत इस्तेमाल मिलता है। हकीक़त शायरी की जान है और तख़य्युल उसकी खूबसूरती। उनकी शायरी में यादों के बादल हैं, उदासी का परिंदा है, दर्द की शाख़ है, दर्द का सहरा है, तहज़ीब की नाव है।"
विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ शायर अनवर कैफ़ी ने कहा- "नौजवान नस्ल में जिन शायरों ने उर्दू हिन्दी ज़बान और साहित्य में नुमाया कामयाबी हासिल की है और गेसू-ए-सुखन को संवारा है उनमें जिया ज़मीर ऐसा नाम है जिन्हें महफिलों में याद रखा जाता है।"
विशिष्ट अतिथि विख्यात व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने कहा- "ज़िया ज़मीर मुरादाबाद की मिट्टी में उपजे ऐसे युवा शायर हैं जिनकी शायरी की खुशबू देश भर में दूर-दूर तक फैल कर अपना मुकाम हासिल कर रही है।अदबी दुनिया को उनसे बहुत उम्मीदें हैं।"
कार्यक्रम के संचालक नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा- "ज़िया ज़मीर की शायरी में बसने वाली हिन्दुस्तानियत और तहजीब की खुशबू उनकी ग़ज़लों को इतिहास की ज़रूरत बनाती है। इसका सबसे बड़ा कारण उनके अशआर में अरबी-फारसी की इज़ाफत वाले अल्फ़ाज़ और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्द दोनों का ही घुसपैठ नहीं कर पाना है। उनकी शायरी को पढ़ने और समझने के लिए किसी शब्दकोष की ज़रूरत नहीं पड़ती।"
वरिष्ठ शायर डॉ. मुजाहिद फ़राज़ ने कहा- "ज़िया ने अपनी ग़ज़ल के लिए दिल का रास्ता चुना है। वही दिल जिसने मीर से मीरा तक बे शुमार शायरों को अदब के सफ़हात पर सजाया है, इसीलिए तो ज़िया की शायरी में दिल और इश्क़ की कार फ़र्माइयाँ जा-बजा नज़र आती हैं।"
वरिष्ठ ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार नाज़ ने कहा- "जिया जमीर की ग़ज़लें उदाहरण हैं इस बात का कि वहाँ प्रेम भी मिलता है, वहाँ समाज भी मिलता है, वहाँ संस्कृति भी मिलती है, वहाँ अध्यात्म भी मिलता है और वहाँ राजनीतिक चेतना भी दिखाई देती है।"
समीक्षक डॉ. मौ. आसिफ हुसैन ने कहा- "ज़िया ज़मीर की शायरी में इस बात के रोशन इमकानात मौजूद हैं कि आने वाले वक़्त में मुरादाबाद को शायरी के हवाले से एक बड़ा नाम मिलने वाला है।"
कार्यक्रम में डॉ. मनोज रस्तोगी, सय्यद मौ हाशिम, मनोज मनु, राजीव प्रखर, अहमद मुरादाबादी, फरहत अली खान, ग़ुलाम मुहम्मद ग़ाज़ी, मयंक शर्मा, अभिनव चौहान, ज़ाहिद परवेज़, सैयद सलीम रजा नकवी, शाहबाज अनवर, मुशाहिद हुसैन, शकील अहमद, श्रीकांत शर्मा, नूरुज्जमा नूर, शांति भूषण पांडेय, तहसीन मुरादाबादी, दानिश कादरी सहित अनेक गणमान्य लोग उपस्थित रहे। आभार अभिव्यक्ति तसर्रुफ ज़िया ने प्रस्तुत की।
::::::::प्रस्तुति::::::::
योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
संयोजक- अक्षरा, मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल-9412805981
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से मासिक काव्य-गोष्ठी का आयोजन शनिवार 14 मई 2022 को विश्नोई धर्मशाला, लाइनपार में किया गया।
राम सिंह निशंक द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए योगेंद्र पाल विश्नोई ने देश प्रेम की अलख जगाते हुए कहा -
यह भारत का मानचित्र है।
इस पर इस पर गौरव हमें मित्र है।
वीर भोग्या वसुंधरा है,
प्रतिपल पावन परम पवित्र है।
मुख्य अतिथि ओंकार सिंह ओंकार ने कहा --
विश्व का बाज़ार जो बारूद का और तेल का है।
ख़ात्मा जिसने किया संसार में अब मेल का है।
विशिष्ट अतिथि के रुप में इंदु रानी ने मातृ-शक्ति को नमन किया -
कैसे मैं भूलूं बता, माॅं तेरा उपकार।
तेरा ही अहसान है, यह मेरा संसार।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए अशोक विद्रोही ने राष्ट्रप्रेम का संदेश कुछ इस प्रकार दिया -
हे भारत माता तुम्हें नमन,
तन मन धन अर्पित कर देंगे।
एक रोज परम वैभव का पद,
माॅं तुझे समर्पित कर देंगे।
वरिष्ठ रचनाकार कवि वीरेंद्र ब्रजवासी ने समाज के सम्मुख प्रश्न रखते हुए कहा -
सच कहना सच सुनना ही तो, भारी लगता है।
सच कहना अब सच से ही गद्दारी लगता है।
राम सिंह निशंक की अभिव्यक्ति इस प्रकार थी -
आते झंझावत मगर, उसने स्थिर रहना सीखा।
हों उजाले अंधेरे उसने है जलना सीखा।
डॉ. मनोज रस्तोगी ने चिंतन-मनन पर बाध्य करते हुए कहा -
स्वाभिमान भी गिरवी रख
नागों के हाथ।
भेड़ियों के सम्मुख
टिका दिया माथ,
इस तरह होता रहा
अपना चीर हरण।
रचना-पाठ करते हुए राजीव प्रखर ने कहा -
जीवन के इस डगमग पथ में,
हर संकट पर भारी पुस्तक।
बंद पड़ी हूॅं अलमारी में,
मैं तुम सबकी प्यारी पुस्तक।
प्रशांत मिश्र का कहना था -
जीवन तेरा तुझको अर्पण माॅं,
मैं और अर्पण क्या करूं।
शुभम कश्यप की अभिव्यक्ति इस प्रकार थी -
उस सी दौलत न कोई मूरत है।
माॅं तो भगवान की नेमत है।
रामेश्वर वशिष्ठ द्वारा आभार अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम विश्राम पर पहुॅंचा
::::::प्रस्तुति::::::
अशोक विद्रोही
उपाध्यक्ष
राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति
मुरादाबाद,उत्तर प्रदेश, भारत
गंभीर रूप से ग़ज़ल-लेखन से जुड़े ग़ज़लकारों ने सामान्यतः अपनी शायरी को 'प्रेम' पर ही केन्द्रित रखा या फिर वह 'इश्क मिज़ाजी' से होते हुए 'इश्क हक़ीक़ी' की तरफ बढ़ी, किंतु बाद के ग़ज़लकारों ने आम ज़िन्दगी की समस्याओं को भी अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया, जिनमें राजनीति, धर्म और संस्कृति, समाज व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और साहित्यिक वातावरण भी मुख्य हैं। दुष्यन्त और उनसे पहले भी हिन्दी-ग़ज़ल में प्रेम की आँच के साथ-साथ उस आग का भी जिक्र हुआ जिसकी लपटें आम आदमी को किसी-न-किसी प्रकार से झुलसा रही हैं। 'ग़मे जानाँ' से 'ग़मे दौरां' तक ग़ज़ल की यात्रा हुई। विभिन्न सोपानों एवं राहों से निकलते हुए ग़ज़ल का अनुभव बढ़ा। उसने अनेक दशाओं एवं दिशाओं को आत्मसात किया। हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़ले भी भारतीय समाज की मनः स्थितियों में प्रवेश करके, उनमें टहलकर, घूम फिरकर और 'फिक्र' से जुड़कर अपनी बात कहती है।
वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र की बड़ी दुर्दशा हुई है। राजनीतिज्ञ राजनीति में से नीति को निकालकर बाहर फेंक चुके हैं। नैतिकता ढूँढे नहीं मिलती। इसी कारण राजनेता जो कभी आदर के पात्र थे, अब व्यंग्य के विषय बन गये हैं। उनकी फ़ितरत में धोखेवाजी और स्वार्थपरता आकर समा गई हैं। हुल्लड़ मुरादाबादी ने यों तो बहुत-से अशआर वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों पर कहे हैं, किंतु जो शे'र यहाँ उद्धृत किया जा रहा है, वह व्यंग्य-विधा की दृष्टि से बड़ा ही पुष्ट और अनूठा है
"दुम हिलाता फिर रहा है चंद वोटरों के लिए
इसको कुर्सी मिलेगी भेड़िया हो जायगा"
उक्त शेर में दो बातें दृष्टव्य है। एक तो 'दुम हिलाने की प्रक्रिया और दूसरी "भेड़िया हो जाने की बात 'दुम हिलाने की प्रक्रिया से जो चित्र उभरता है, वह कुत्ते का है और भेड़िया तो भेड़िया है ही -खुंखार और कपटपूर्ण व्यवहार करने का प्रतीक। जो लोग चित्रकला में 'कार्टून विधा से परिचित हैं, वे लोग जानते होंगे कि 'कार्टूनिस्ट' जब किसी व्यक्ति का कार्टून बनाता है तो उसके भीतरी स्वभाव को पशुओं की आकृति को सांकेतिक छवियों से भी चित्रित करता है। अच्छे व्यंग्यकारों को भी इसकी समझ होती है। हुल्लड़ मुरादाबादी व्यंग्य के इस साधन से भलीभाँति परिचित है। इसी कारण उन्होंने इस शेर में राजनीतिज्ञों का शाब्दिक 'कार्टून बनाने का प्रयास ही नहीं किया, वरन बड़ी ही सफलता से उसे चित्रित भी किया है। राजनीतिज्ञों के चेहरे में भेड़ियों का चेहरा उभर आना, अपने आप में इस बात का प्रमाण भी है। राजनीतिज्ञों और राजनीति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कुछ और भी अच्छे शेर कहे है
"लीडरों के इस नगर में है तेरी औकात क्या
अच्छा खासा आदमी भी सिरफिरा हो जायेगा"
बात करते हो तुम सियासत की
वो तो पक्की छिनाल है दद्दा
राजनीतिज्ञों द्वारा आम जनता के शोषण की बात को जिस ढंग से और जिस शब्दावली में हुल्लड़ जी ने कहा है वह भी अत्यंत रोचक, किंतु गंभीर है। व्यंग्य के साधनों में अच्छे व्यंग्यकार श्लेष से भी काम लेते हैं। हुल्लड़ जी ने इस एक शेर में इसी पद्धति से अच्छा काम लिया है। वे कहते हैं
"यह तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना
फ़िक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होतीं"
यहाँ 'आम जनता' में 'आम' शब्द का प्रयोग दुतरफा है। 'आम' फल भी है जिसे चूसा जाता है और 'आम जनता' भी जिसे चूसा जा रहा है। यहाँ श्लेष प्रयोग की पद्धति से हुल्लड़ जो ने इस शेर को व्यंग्य की दृष्टि से बहुत ऊँचाई दे दी है। शब्दावली ऐसी जो हंसाए और शब्दों के अर्थ में ऐसी करुणा कि आदमी भीतर-ही भीतर रो उठे। यहीं यह बात भी कहना चाहूँगा कि व्यंग्य का वास्तविक आधार करुणा है। वह तो आंसू को हंसी बनाकर पेश करता है, या यों कहें कि हँसी के भीतर आँसू को इस तरह से विठाता है कि हंसी का पर्दा हटते ही आँसू दिखाई दे जाये। आज के समय में देश की अर्थव्यवस्था भी चरमरा रही है। महँगाई फन फैलाए खड़ी है। आम आदमी ठीक से पेट भी नहीं भर पा रहा कवि हुल्लड़ का काम केवल हंसाना ही नहीं है, वरन मर्मस्पर्शी स्थितियों का साक्षात्कार कराना भी है। आज के आम आदमी या निम्न-मध्यवर्गीय परिवार को संबोधित करते हुए वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें कितनी अधिक अनुभव को सच्चाई और विवशतापूर्ण छटपटाहट है
"जा रहा बाज़ार में थैला लिये तू
रोज़ ही क्यों सर मुंडाना चाहता है।"
यहाँ सर मुंडाने के प्रचलित मुहावरे से कवि ने आर्थिक शोषण को समझाने का प्रयास किया है। यह व्यवस्था मांसाहारी है, शाकाहारी नहीं। यह खून पीने में विश्वास रखती है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए हुल्लड़ जी इस प्रकार शेर कहते हैं
"यह व्यवस्था खून चूस लेगी तुम्हारा
शेर को ककड़ी खिलाना चाहता है"
यहाँ भी वही बात। उन्होंने 'व्यवस्था' शब्द में 'मानवीकरण' का प्रयोग किया है और इस प्रकार व्यवस्था को एक इनसान का रूप दिया गया है, और बाद में उस व्यवस्था के चेहरे में 'शेर' के चेहरे का भी रेखांकन किया गया है। यहाँ भी कार्टून शैली में ही अभिव्यक्ति हुई है। इतना ही नहीं, उन्होंने यहाँ एक नये मुहावरे का भी गठन किया है-'शेर को ककड़ी खिलाना'। अच्छे रचनाकार बात-बात में ही नये मुहावरे गढ़ जाते हैं और उन्हें स्वयं पता भी नहीं चलता कि वह नया मुहावरा गढ़ गए। इस शेर के साथ भी यही हुआ है।
हुल्लड़ जी का ध्यान आज की व्यवस्था (Administration) और उसकी विद्रूपताओं पर भी गया है। आजकल समाज व्यवस्था को 'माफिया' व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट कर रही है। अर्थव्यवस्था, राजनीति तथा शासन व्यवस्था भी धीरे-धीरे माफियाओं के हाथों में आती जा रही है। इस सम्बंध में हुल्लड़ जी का एक शे'र देखें
"हर तरफ हिंसा, डकैती, हो रहे हैं अपहरण
रफ्ता-रफ्ता मुल्क सारा माफिया हो जायगा"
पूरे समाज में 'रिश्वतखोरी', 'भाई भतीजावाद' का बोलबाला है। इस सच्चाई की ओर भी कवि का ध्यान गया है और वह साफ शब्दों में कह उठता है
"बिन सिफारिश ढूंढता है नौकरी को
क्यों नदी में घर बनाना चाहता है"
ग़ज़ल के शे'र में शे रियत तब पैदा होती है जब उसे सही मिसाल (उपमा) मिल जाय-ऐसी उपमा जो कथ्य को उभारकर बाहर ले आये। सिफ़ारिश के बिना नौकरी मिलने की नामुमकिन कहानी को नदी में घर बनाने की मिसाल देकर स्पष्ट किया है। साहित्यिक क्षेत्र में होने वाली अवमाननाओं और अवमूल्यनों पर दृष्टिपात करते हुए संकेत से उधर भी इशारे किए गए हैं। आजकल कवि-सम्मेलनों में अधिकतर हास्य कवि घिसे-घिसाए पुराने चुटकुलों के सहारे जमे बैठे हैं, जबकि कविता से उनका दूर-दूर का भी सम्बंध नहीं है। हुल्लड़ जी ऐसे कवियों पर और ऐसे मंचों पर सीधी चोट करने हुए कहते हैं
"गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले
रो रहा है मंच पर ह्यूमर, सेटायर आजकल"
यह तो रही अलग-अलग परिस्थितियों की बात किंतु हुल्लड़ जी ने मानव-मात्र पर भी व्यंग्य किए हैं जो कहने को तो बहुत सभ्य हो गया है, किंतु आज भी उसकी फितरत वही है जब वह बंदर था। क्योंकि आदमी जितना आदमी के खून का प्यासा हुआ है, जानवर भी नहीं है। हुल्लड़ जी कहते हैं—
“आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी
है हँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल"
हुल्लड़ जी ने, वर्तमान समाज में जो मूल्य-विघटन हुआ है, नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है, उसे भी अच्छी प्रकार से देखा और समझा है और इसलिए । और आह के साथ वो कह उठते हैं कराह
"क्या मिलेगा इन उसूलों से तुझे
उम्रभर क्या घास खाना चाहता है"
आज के समय में सिद्धांत किसी का पेट नहीं भरते। उल्टे उसे मूर्ख साबित करते हैं। यदि हुल्लड़ जी चाहते तो उक्त शे'र में कहीं भी 'गधे' शब्द का प्रयोग करके गधे का लाक्षणिक अर्थ 'मूर्ख' व्यक्त करने में सफल हो जाते, किंतु जगह-जगह पर 'गधा', 'उल्लू' आदि कहने से एक बड़ा घिसा-पिटापन आ जाता है। अतः उन्होंने इस शब्द का प्रयोग न करके ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया जिससे 'गधे' का ही अर्थ निकलता है। 'उम्रभर क्या घास खाना चाहता है' में घास खाने की प्रक्रिया विशेष रूप से 'गधे' से जुड़ी है, अतः कवि का अभिप्राय समझ में आ जाता है कि क्या तू हमेशा "गधा' ही बना रहना चाहता है ? साथ ही घास खाने वाली बात के माध्यम से अनजाने ही एक प्रसंग जुड़ जाता है और वह है महाराणा प्रताप का प्रसंग, जिन्होंने अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए घास की रोटी खाना स्वीकार किया था। इस कथा से भी यही व्यंजना निकलती है। जब कवि सिद्ध हो जाता है तब ही इस प्रकार की शब्दावली और व्यंजनाओं का प्रयोग कर पाता है। और यह सत्य है कि कविवर हुल्लड़ में यह सिद्धहस्तता है।
ग़ज़ल के शेर जितने ही अनुभव के करीब होते हैं, उतने ही वे बड़े और महान होते जाते हैं तथा उद्धरण देने योग्य भी। हुल्लड़ की ग़ज़लो में अधिकतर अशआर उन्हें अनुभव की विरासत से ही मिले हैं। कुछ उदाहरण देखें
दोस्तों को आजमाना चाहता हैं
घाव पर फिर घाव खाना चाहता है।
जो कि भरता है ज़ख्म दिल के भी
वक्त ही वो 'डिटॉल' है दद्दा
घाव सबको मत दिखाओ तुम नुमाइश की तरह
यह अकेले में सही है गुनगुनाने के लिए।
देखकर तेरी तरक्की, खुश नहीं होगा कोई
लोग मौका ढूंढते हैं काट खाने के लिए
इतनी ऊँची मत छोड़ो गिर पड़ोगे धरती पर
क्योंकि आसमानों में सीढ़ियाँ नहीं होतीं।
हुल्लड़ मुरादाबादी ने ग्रामीण बोध से हटते हुए लोगों और महानगरीय संवेदनाओं में फंसे हुए इनसानों एवं उनकी फितरतों पर भी टिप्पणी की है
“यह तो पानी का असर है तेरी ग़लती कुछ नहीं
बम्बई में जो रहेगा बेवफा हो जायगा "
यहाँ 'बम्बई' महानगर सम्पूर्ण महानगरों की परिस्थितिजन्य विवशताओं की ओर संकेत करता है और उसी में महानगरीय संस्कृति पर भी व्यंग्य करता है। हुल्लड़ जी ने यों तो बहुत से अच्छे शेर कहे हैं, किंतु जो शेर शायद लोगों की जुबान से कभी नहीं हटेगा और लोगों के ज़ेहन में हमेशा रहेगा वह यह दार्शनिक शे'र है
"सबको उस रजिस्टर में हाज़िरी लगानी है।
मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होतीं"
लगता है जैसे कि यह शेर कोई हास्य का कवि नहीं, वरन् कोई ‘फ़िलॉसफर कह रहा है। ऐसे अशआर सुनकर या इसी प्रकार की कविताओं को पढ़ या सुनकर हो शायद कवि के बारे में यह कहा गया है वह फ़िलॉसफ़र भी होता है। हुल्लड़ के व्यक्तित्व में खुद्दारी का गुण अपना एक विशेष गुण है। अतः उनको खुद्दारी से जुड़ा हुआ एक और शे'र भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है
“मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का
मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए"
हुल्लड़ जी मूलतः हास्य-व्यंग्य के कवि हैं। अतः उन्होंने शिल्प की दृष्टि से अपने कथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए ग़ज़ल का चुनाव करने पर भी, ऐसी शब्दावली को नहीं छोड़ा है जो स्वतः हास्य की प्रेरणा देती है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में यों तो स्थान-स्थान पर ऐसे शब्द सहज रूप से आने दिए हैं, जिनमें से हास्य की किरणें फूटती हैं, किंतु मुख्यतः रदीफ़ तथा काफ़िया के स्थान पर ऐसे शब्दों के प्रयोग से यह हास्य की छटा और भी अधिक निखरी है; उस दृष्टि से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं--
"जोकि भरता है जख्म दिल के भी
वक्त ही वो डिटॉल है दद्दा "
“आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी
हँस रहे हैं आदमी पर सारे बंदर आजकल "
मेरे शेरों में आग है हुल्लड़
उनकी लकड़ी की टाल है दद्दा'
इसी प्रकार उपर्युक्त शेरों में रेखांकित( बोल्ड ) शब्दों पर गौर कीजिये। निश्चय ही ये शब्द ऐसे हैं जिन्हें सुनकर और पढ़कर रसिकों को हँसी आ जाएगी। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी ऐसा हुआ है। एक ग़ज़ल में 'भानजे' शब्द का रदीफ़ लेकर महाभारत 'शकुनि' का चित्र और उसकी चालों की ओर संकेत किया है और हँसी हंसी में व्यंग्य की पैनी धार को भी आने दिया है।
इस प्रकार कविवर हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़लें एक ओर ग़ज़लों के व्याकरण उनके क़ायदे-कानूनों पर खरी उतरती हैं तो दूसरी ओर वे व्यंग्य की दृष्टि से बहुत सफल और सार्थक हैं। वे कभी 'कैरिकेचर' द्वारा व्यंग्य की सृष्टि करती हैं, तो कभी 'उपहास-शैली' की सशक्त परम्परा का निर्वाह करके उसे नये आयाम देती हैं, कभी विडम्बन (irony) द्वारा किसी सामाजिक या अन्य विषयक विकृति को उकेरती हैं, कभी 'श्लेष-पद्धति' द्वारा हास्य पैदा करके व्यंग्य के विभिन्न सोपानों पर ऊँचाइयाँ पा रही हैं। व्यंग्य के शिल्प से हुल्लड़ जी भलीभांति परिचित हैं, अतः उन्होंने जहाँ जिस प्रकार की व्यंग्य-शैली और व्यंग्य-भाषा की आवश्यकता है, वहाँ वैसी ही भाषा और शैली प्रयोग किया है और यह प्रयोग बड़ी सफलता से किया है। इन ग़ज़लों द्वारा कवि हुल्लड़ जी ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। एक ओर इन ग़ज़लों के द्वारा वे अच्छे ग़ज़लकारों में अपना नाम लिखवा रहे हैं तो दूसरी ओर इन ग़ज़लों द्वारा एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार की छवि भी बनाने में सफल हुए हैं। उनकी ग़ज़लें आज के समाज व यथार्थ चित्र हैं—ऐसा यथार्थ चित्र जो एक ओर तो हमारे हृदय को भीतर-ही-भीतर उद्वेलित करता है तो दूसरी ओर हमें यह प्रेरणा भी देता है कि हम अपने-आप सुधारें और पूरा समाज से उन विकृतियों को हटाएँ जो हमारी सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को रोग-ग्रस्त कर रही हैं। कविवर हुल्लड़ की ये ग़ज़लें सचमुच ही अंधकार में टहलती हुई चिंगारी की तरह हैं; वे मानवता की पहरेदारी करते हुए उसे जीवित रखने संकल्प हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसी श्रेष्ठ और उद्देश्यपूर्ण ग़ज़लों का पाठक भरपूर स्वागत करेंगे।
2 एफ-51 नेहरूनगर
ग़ाज़ियाबाद
:::::::::::प्रस्तुति:::::::::
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिन्दी में अवतरित होते हुए ग़ज़ल ने एक ख़ासा सफर तय किया है। कई पड़ाव और कई मंज़िलें हैं इस सफ़र की। यहाँ उस सबकी पड़ताल न करते हुए यह कहना अभीष्ट लग रहा है कि हिन्दी-ग़ज़ल ने उर्दू- ग़ज़ल जैसी कसावट और बुनावट भले ही (कुछ रूपों में) हासिल न की हो, किन्तु हिन्दी - ग़ज़ल का विषय-क्षेत्र उर्दू-ग़ज़ल से कहीं ज्यादा विस्तृत और अपनीत होकर सामने आया है। आज के उर्दू शायर भी विषय विस्तार की इस अपेक्षा को शिद्दत के साथ महसूसने लगे है। साकी, शराब, मयखाना, गुलो-बुलबुल के बासी प्रतीकों से ग़ज़ल को निजात दिलाने में हिन्दी के ग़ज़ल-गो कवियों के प्रदेय को किसी भी तरह अवहेलित और उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हुल्लड़ जी की ग़ज़लें इसी दिशा में एक पहल करती हुई लगती । उनकी ग़ज़लों का कैनवास आज की समयगत सच्चाइयों से रंगायित है। इन ग़ज़लों में आज की राजनीतिक विद्रूपताएँ, धार्मिक कटुताएँ, सामाजिक विषमताएँ, आर्थिक विरूपताएँ, साहित्यिक वंचनाएँ, शैक्षिक-सांस्कृतिक कुटिलताएँ और मानवीय विवशताएँ जहाँ पूरी भास्वरता के साथ अंकित हुई हैं, वहीं हुल्लड़ जी का भावुक और संवेदनशील रचनाकार गम्भीर दार्शनिक मुद्रा में अपनी चिन्तनशील छवि को प्रस्तुत करने में पूरी कामयाबी के साथ उपस्थित है।
आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था सत्तालोलुप नेताओं की कारगुज़ारियों की वजह से कितनी घिनौनी हो गई है, इसे हुल्लड़ जी ने अपनी तंज़िया ग़ज़लों में बखूबी उभारा है। एक सजग लोकतांत्रिक नागरिक के रूप में उनका आक्रोश भी अनेक शे'रों में फूट पड़ा है
जनवरी छब्बीस अब तो तब मनेगी देश में
जब यहाँ हर भ्रष्ट नेता गुमशुदा हो जायगा
दुम हिलाता फिर रहा है चन्द वोटों के लिए
इसको जब कुर्सी मिलेगी भेड़िया हो जायगा
ये तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना
फिक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होतीं।
राजनीतिक व्यवस्था के इसी नंगे नाच के चलते आज का पढ़ा-लिखा नौजवान शोषण के जो कसैले घूँट पीने पर विवश है, उसकी विडम्बना पर हुल्लड़ जी के ये अशआर कितने मार्मिक बन पड़े हैं—
बिन सिफारिश ढूंढता है नौकरी को
क्यों नदी में घर बनाना चाहता है
डिगरियाँ हैं बैग में पर जेब में पैसे नहीं
नौकरी क्या चाँद देगा, क्या करेगी चाँदनी ?
आज की मतलबपरस्त निर्मम राजनीति ने मानवीय सम्वेदना के सूत्र भी तार-तार कर दिए हैं। यथा राजा तथा प्रजा' के अनुसार आज का आदमी कितना स्वार्थी, बेईमन, लम्पट और आत्मकेन्द्रित हो गया है, इसकी व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति के प्रमाणस्वरूप ये अशआर द्रष्टव्य हैं
दोस्तों को आजमाना चाहता है
चोट पर फिर चोट खाना चाहता है
आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी
हँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल
दोस्त तो मिलते रहेंगे हर गली, हर मोड़ पर
सोचते हैं जख्म अपने रोज़ सीकर क्या करें
और तो और, कविता का मंच भी इस राजनीतिक प्रदूषण से अछूता नहीं रहा। हुल्लड़ जी ने मंच पर रहते हुए और इस व्यवस्था में पूरी तरह शामिल होते हुए भी, इसकी खामियों को नज़रअन्दाज नहीं किया है। ऐसे स्थलों पर उनकी वक्रोक्तियाँ कितनी प्रामाणिक हो उठी हैं, केवल तीन शेर देखिए
गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले
रो रहा है मंच पर ह्यमर सटायर आजकल
इन कुएं के मेंढकों ने सारा पानी पी लिया
डूबकर मरने लगे हैं सब समन्दर आजकल
गीत चोरी का छपाया उसने अपने नाम से
रह गया है शायरा का ये करैक्टर आजकल
यों तो हुल्लड़ जो की इन ग़ज़लों में अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज से लेकर राष्ट्रीय सरोकारों को अपनी तरह से सम्प्रेषित करनेवाली ग़ज़लें मिल जायेंगी, किन्त व्यक्ति और समाज के संघर्ष को रेखांकित करनेवाले स्वर इन ग़ज़लों में बहुल के साथ अनुभव किये जा सकते हैं। चूँकि हुल्लड़ जी गाँव से लेकर नगरों महानगरों, यहाँ तक कि अमरीका के कई महानगरों में काव्य-पाठ कर चुके हैं और समाज के हर वर्ग के साथ उठे बैठे हैं, इसलिए पूरी ईमानदारी से उन्होंने जहाँ हर तबके की पोल इन ग़ज़लों में खोली है, वहाँ वह यह बताने में भी नहीं चूके हैं कि आदमी के भीतर और बाहर दिखाई देने वाली दूरियों के लिए दोषी कौन है।
इस संग्रह की वे ग़ज़लें जिनमें दर्शन और अध्यात्म का पुट है, निस्संदेह उन पाठकों को एक सुखद अहसास से भर देंगी जो हुल्लड़ जी को अब तक एक हास्य-व्यंग्य कवि के रूप में ही जानते रहे हैं। ऐसे एक नहीं अनेक शेर इस संग्रह में हैं, जो हुल्लड़ जी की हँसोड़ छवि की तह में छिपे एक गम्भीर, उदास किन्तु जीवन्त दार्शनिक को प्रस्तुत करने में पूर्ण सक्षम हैं। इस सन्दर्भ में कुछ शेर जो मेरी तरह आपको भी अच्छे लगेंगे, यहाँ दे रहा हूँ
दुनिया में दुख ही दुख हैं, रोना है सिर्फ रोना
गम में भी मुस्कराना सबसे बड़ी कला है
सबको उस रजिस्टर पर हाज़िरी लगानी है
मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होतीं
बूँद को समन्दर में जिसने पा लिया 'हुल्लड़'
साहिलों से फिर उसकी दूरियाँ नहीं होतीं
कोई सुख-दुख आपको तब छू नहीं सकता
कभी ज़िन्दगी को एक अभिनय-सा निभाना सीख लो
इस संग्रह की ग़ज़लों का सर्वाधिक सशक्त पक्ष है इन ग़ज़लों की भाषा। कवि-सम्मेलनों से सम्बद्ध रहने के कारण सम्प्रेषणीयता के मुहावरे से हुल्लड़ जी बखूबी परिचित हैं। यही कारण है कि इन गजलों की भाषा अपने समय और जीवन से जुड़ी भाषा है। इनमें समाहित प्रतीक भी ज़िन्दगी से जुड़े हुए हैं। अपने गिर्द फैले परिवेश को चित करने में इन ग्रहों का शैल्पिक सन्दर्भ पूर्ण समर्थ है। मुझे विश्वास है. हुल्लड़ जी के पाठक, श्रोता और दर्शक ही नहीं, ग़ज़ल के सुधी पाठक भी इस संग्रह का जानदार और शानदार स्वागत करेंगे।
रीडर एवं शोध-निर्देशक
हिन्दी-विभाग
नेहरू मेमोरियल शि० ना० दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बदायूँ (उ० प्र०)
:::::::::प्रस्तुति::::::::::
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
रितु की बूढ़ी दादी आँगन में बैठकर उस की मम्मी को कोस रही थी।लेकिन मम्मी ने तो उसके ट्यूशन की बात करने के लिए प्रभात सर को आज घर पर बुलाया है।घर के ऐसे सारे काम मम्मी को ही करने पड़ते हैं,क्योंकि डैडी तो पुलिस में हैं और दूसरे जिले में तैनात हैं।
रितु को अपनी दादी पर गुस्सा आ रहा था।'दादी भी न,किसी की परवाह नहीं करती।कभी भी कुछ भी बोलती रहती है।क्या सोचेंगे प्रभात सर?' रितु मन में सोच रही थी।
'लेकिन मम्मी कितनी कूल हैं।कितने सहज होकर प्रभात सर को कह रही हैं,"असुविधा के लिए माफी चाहते हैं,सर।रितु की दादी की तबियत ठीक नहीं है।इसलिए वह ऊल-जलूल बड़बड़ाती रहती हैं।आप नजरंदाज कीजिएगा।" प्रभात सर ने चेहरे पर मुस्कान के साथ उत्तर दिया,"कोई बात नहीं मैं समझ सकता हूँ।" और मम्मी भी मुस्कुरा दीं।तभी मम्मी ने रितु को प्रभात सर के लिए चाय बना कर लाने को कहा।
रितु सीढ़ियों से उतर कर आँगन से होते हुए रसोई की ओर चाय बनाने के लिए जा रही थी कि दादी ने इशारे से उसे रोका।"और कोई भी साथ में हैं क्या उस मुए मास्टर के ?" "नहीं,पर इससे क्या फर्क पड़ता है दादी।मेरे ट्यूशन की बात करने आये हैं सर।आप हमेशा ग़लत ही क्यों सोचती हो,दादी?" "हाँ,हाँ,मैं तो गलत ही लगूँगी तुझे।अपनी मांँ की चमची है तू भी।अरे ये सोच जब भी कोई अकेला जवान मर्द घर में आता है,तेरी मांँ तुझे चाय बनाने नीचे क्यों भेज देती है।फिर उस आदमी का आना जाना घर में इतना क्यों बढ़ जाता है?पिछली बार बल्ली आया था,अपने घर से ज्यादा हमारे घर के काम करता है।न समय देखता है न पैसे।आखिर तेरी माँ के पास ऐसी क्या घुट्टी है कि सारे मर्द गुलाम बन जाते हैं उसके।जिस दिन इस पर गौर करेगी,दादी गलत न लगेगी।" "बस चुप करो,दादी।कुछ भी बोलते हो आप।मेरा दिमाग मत खराब करो।"कहकर रितु रसोई में चली गयी।
गैस चूल्हे पर चाय खौल रही थी और रितु के दिमाग में दादी की बातें।रितु किशोरावस्था की दहलीज पर थी।दादी की बातों के बीज ने दिमाग में शक की जड़ पकड़ ली थी।वह सोचने लगी।"क्या पता दादी सच कहती हों।जब भी कोई पुरुष मेहमान आता है,मम्मी मुझे चाय बनाने नीचे भेज देती हैं यह बात तो सही है और उसके बाद की बातें भी काफी हद तक सच ही हैं।मुझे सच का पता लगाना ही चाहिए।" रितु ने चूल्हे की आंच मंद की और दबे पाँव पिछले दरवाजे से बैठक की खिड़की के नीचे जाकर दीवार से कान सटाकर कमरे में हो रही बातचीत सुनने की कोशिश करने लगी।उसकी मम्मी प्रभात सर की किसी बात पर खिला-खिला कर हँस रही थी,फिर अचानक उसे दोनों के ही स्वर मद्धम होते लगे।लेकिन इन मद्धम स्वरों ने रितु के दिल की धड़कनें बढ़ा दी थी।उसके दिमाग में चलचित्र की तरह उसकी दादी की गढ़ी हुई कहानियाँ चलने लगी थी।कल्पना उस भयावह चित्र को उसे दिखा रही थी कि जिसे देखकर रितु पसीना पसीना हो चुकी थी।
तभी मम्मी ने बैठक से उसे चाय की बाबत आवाज दी।रितु घबराहट में तुरन्त वहाँ से लौट कर किचन में आ गयी।थोड़ी देर दीवार के सहारे खड़ी रहकर उसने खुद को इस बड़ी गलती के लिए मन ही मन फटकारा कि दादी की दी हुई शक की ऐनक पहनकर वह क्या-क्या देखने लगी थी।चूल्हे पर चढ़ी चाय सूखकर आधी हो गयी थी,फटाफट उसमें थोड़ा पानी और दूध मिलाकर रितु ने चाय की मात्रा को बढ़ाया।तौलिये से पसीना पोंछकर खुद को संयत करते हुए रितु ने ट्रे में चाय और नाश्ता लगाया और बैठक में ले चली।मेज पर चाय रख कर रितु एक ओर कुर्सी पर बैठ गयी।मम्मी ने ट्रे से चाय का कप उठाकर प्रभात सर को चाय देते हुए पूछा, "तो फिर आप कल से आ रहे रितु को पढ़ाने" प्रभात सर ने कप पकड़ते हुए मुस्कुरा कर जवाब दिया,"जी,बिल्कुल।" "क्यों रितु तैयार हो न क्लास टॉपर बनने के लिए...." रितु ने "जी,सर" कहते हुए प्रभात सर की ओर देखा।प्रभात सर तिरछी नज़र से मम्मी को देख रहे थे और मम्मी मंद मंद मुस्कुरा रही थीं।शक या सच.... रितु के दिमाग में विचार पेण्डुलम की तरह डोल रहे थे।
✍️ हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
नयन के मृदुलेप सा झर-झर झरना लगता है
अन्यत्र कोई और हितैषी जो मेरा हित चाहे
ईश्वर का आशीष लिए मां करुणा लगती है
मेरे कड़वों बोलों का भी एक पुलिंदा है
दिन भर क्यों माँ उसे उठाये घूमा करती है
संघर्षों की घनी धूप में मां छाया बनती
रोम-रोम ममता से सिंचित विजया लगती है
नयन के मृदुलेप सा झर-झर झरना लगता है
मां का मुखड़ा कैसा भी हो सुन्दर लगता है
✍️ मनोरमा शर्मा
अमरोहा
उ.प्र. भारत
बिना बीज होती नहीं, कभी फसल तैयार।
माँ क़ुदरत का नूर है, धरती पर अवतार।।
2
हर पल चिंता वो करे, सांसें करे उधार।
कागज, कलम दवात से, माँ है मीलों पार।।
3
हर दिन साँसों में चढ़े, जिसका क़र्ज़ अपार।
खिली खिली वह धूप है, ममता की बौछार।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ
अविरल अस्वार्थ, निर्मल अजस्त्र
आदर्श भावना भाव भूति
कल्याण मूर्ति, वरदान हर्ष।
***
जीवन पयस्विनी जगज्जननी,
मुद मोद मंगले मनननीय!
महिमावलीय प्रति चरण-चरण
लुंठित गुण गण ,ओ वंदनीय।
**
उज्ज्वल उदार उर से तेरे
वात्सल्य धवल सुरसरि फूटी
छूटी सन्तति से जग डाली
तेरी न कभी डाली छूटी।
रे जगत जननी जग अर्चनीय हे!
बार बार नित वर्णनीय हे !
संसृति शून्य असार स्नेह में
अतुल सर्व शुभ गणननीय है।
*********
रचयिता: स्व.दयानन्द गुप्त
ममता की कोई दूसरी मूरत नहीं देखी ll
देखी है जमाने में हसीनाएं बहुत सी l
दुनिया में तेरी सी कोई सूरत नहीं देखी ll.......
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" वह जिंदगी से मेरी कुछ ऐसे चले गए l
सारे जहां ने रोका मगर वह चले गए l l
कैसे सफर पर निकले कोई साथ ही नहीं l
सामान कुछ लिया नहीं तनहा चले गए l l
बादल को इंतकाल की जैसे खबर हुई l
तुम जिस जगह से गुजरे वह रो कर चले गए l l
पहले तो आंख में कभी आने न दी नमी l
आखिर में सबकी आंखें भिगो कर चले गए l l
जाना ही था तो इतना हमें प्यार क्यों दिया l
फिर क्यों हमें ही गम में डुबो कर चले गए l l
अब उनकी मगफिरत को दुआगो हैं हम सभी l
ताउम्र जो दुआएं हमें दे कर चले गए l l
कैसे मनाएं खुशियां तुम्हारे बगैर हम l
खुशियां हमारी साथ में लेकर चले गए l l
मुजाहिद ने जब यह दर्द सरे बज्म कह दिया l
आंखों में सारे अश्कों को लेकर चले गए l l
✍️ मुजाहिद चौधरी
हसनपुर, अमरोहा
राम-राम, सत श्री अकाल या,दिल से उसे सलाम लिखूँ।
उसके उदर पला तो उसको, मिलते कितने कष्ट रहे,
प्रसव पीर सहने से पहले, अनगिन थे आघात सहे।।
जो रातें थीं टहल गुजारी ,उन रातों के नाम लिखूँ।
कभी-कभी मन करता मेरा ...........................
घुटमन-घुटमन मैं चलता था,ताली बजा बुलाती थी।
फिर-फिर कर लेती थी बलैयाँ,गोद ले चाँद दिखाती थी।
जो माँ मुझसे बातें करती, रोज सुबह और शाम लिखूँ।
कभी-कभी मन करता मेरा ..............................
मुझको नींद न जब आती थी, थपकी दे दुलराती थी।
जाग-जाग कर रात-रात भर ,लोरी सुना सुलाती थी।
राजा-रानी के अफसाने, परी-कथाएं तमाम लिखूँ।
कभी-कभी मन करता मेरा .........................
लिख दूँ सब बचपन की बातें,वर्षा की काली रातें।
बिजली कौंधी हृदय लगाती,चुम्बन की दे सौगातें।
माँ की महिमा लिखी न जाए,चाहे आठों याम लिखूँ।
कभी-कभी मन करता मेरा ...........................
✍️ दीपक गोस्वामी 'चिराग'
शिव बाबा सदन
(निकट एस.बी. कान्वेंट स्कूल)
कृष्णा कुंज, बहजोई
(सम्भल ) 244410 उ.प्र.
चलभाष 9548812618
ईमेल -deepakchirag.goswami@gmail.com
बिन स्वारथ जो सुख देती वह माता होती है।
कौन लगा सकता है इसकी अटकल सही-सही,
अपने बच्चों की ख़ातिर माँ क्या-क्या खोती है।
इतना सच्चा रिश्ता दूजा नहीं जगत् में है,
दर्द अगर बच्चों को हो, माँ आँख भिगोती है।
सबसे पहले उठती, चुकती चौके में दिन भर,
घर के सब सो जाते हैं तब माता सोती है।
सबसे अव्वल है दुनिया में माता का दर्ज़ा,
जीवन जिससे जीवन पाता माँ वह ज्योती है।
✍️ रमेश 'अधीर'
चन्दौसी, जनपद सम्भल
उत्तर प्रदेश, भारत
बच्चे दुखी हो तो ,उनसे पहले रोती है "माँ"
धनवान है वो, जिसके नसीब में होती है "माँ"
पूरी कायनात को हिला देती है, जब रोती है "माँ"
पूरी दुनिया ने माना है , जमीं पर जन्नत होती हैं "माँ"
उनसे पूछो कीमत इसकी , जिनके नहीं होती हैं "माँ"
✍️ विवेक आहूजा
बिलारी
जिला मुरादाबाद
@9410416986
vivekahuja288@gmail.com
होता उसका गान बड़ा कविताओं में
शब्दों से व्याख्यान बड़ा कविताओं में
जितनी उसकी महिमा गाई जाती है
घर में उतना मान कहाँ वो पाती है
माँ से महके घर का कोना कोना है
होता उसका प्यार खरा ज्यूँ सोना है
जितनी वो अपनी ममता बरसाती है
घर में उतना मान कहाँ वो पाती है
बचपन में जो माँ से अलग न होते थे
उसके आँचल में ही छुपकर सोते थे
आज उन्हें वो माँ ही नहीं सुहाती है
घर में उतना मान कहाँ वो पाती है
कहने को तो उत्सव खूब मनाते हैं
मातृदिवस पर आसन पर बैठाते हैं
दुनिया इस दिन जितना प्यार लुटाती है
घर में उतना मान कहाँ वो पाती है
✍️ डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
वह अपनी मां को मां मानता है
और इस बात को,सबके सामने
पूरी हिम्मत के साथ स्वीकारता है
वह आज की दुनिया का
एक सफल इंसान है
बड़े बड़े लोगों से
उसकी जान पहचान है
उसकी जिंदगी मशीन हो गई है
आसमां छूने के प्रयास में
पैरों तले की जमीन खो गई है
ये उसका
मां के प्रति प्यार है
मां को भूल नहीं पाता है
चाहें कहीं हो,
कितना भी व्यस्त हो
मातृ दिवस हर साल मनाता है
मां के लिए कुछ ना कुछ
उपहार भी भिजवाता है
महंगे से महंगा उपहार
खरीदने में नही सकुचाता है
इस बार उसने
मातृ दिवस पर एक रजाई भिजवाई
लेकिन वो महंगी रजाई
मां को कोई गर्माहट नहीं दे पाई
रिश्तों का ठंडापन
भौतिकता पर भारी पड़ गया
बेटे की राह देखते
मां की आंखे पथरा गईं
और उसका पूरा वजूद
हमेशा के लिए
एक फ्रेम में जड़ गया।
✍️ डॉ पुनीत कुमार
T2/505 आकाश रेजीडेंसी
आदर्श कॉलोनी रोड
मुरादाबाद 244001
M 9837189600
कहाँ साँस लेने की फुर्सत ,दिनभर दौड़ लगाती माँ
सुबह हुई तो जैसे-तैसे ,बिटिया रानी जग पाई
जब जागी तो रोती-हँसती ,बस्ते को लेकर आई
छूट गई पानी की बोतल ,लेकर भागी जाती माँ
खुद दफ्तर जाने से पहले ,खाना और खिलाना है
दफ्तर जाकर देर शाम तक ,अपना मगज खपाना है
थक कर जब भी घर आती है ,दो कप चाय बनाती माँ
होमवर्क की कॉपी पकड़े ,कुकर ध्यान में रहता है
दिनभर भूख लगी है ,कोई चिल्लाकर ही कहता है
एक सीरियल मनपसंद पर ,वह भी देख न पाती माँ
कहाँ साँस लेने की फुर्सत दिनभर दौड़ लगाती माँ
----------------------------------
(1)
बेटे-बहुओं को दिया , अपने था जो पास
फिर जाने क्या सोचकर ,अम्मा हुई उदास
(2)
बेटे-बहुएँ चल दिए , पकड़े अपने हाथ
बूढ़ा तन माँ का रहे ,बोलो किसके साथ
(3)
जिनके पोछे मूत्र-मल , जागी भर-भर रात
उनको फुर्सत अब कहाँ ,सुन लें माँ की बात
(4)
पोते - पोती देखते , भरते मन में राज
कल माँ का भी आएगा ,दादी का जो आज
(5)
फोटो पर माला चढ़ी ,हुआ मरण का भोज
माँ को अब देना नहीं , होगा रोटी रोज
(6)
कर्कश स्वर घर में बसे ,पैसों की तकरार
माँ बेचारी सुन रही ,जिंदा क्यों भू-भार
(7)
अंत समय जब चाहिए , मन के मीठे बोल
बेटे - बहुएँ आँकते , चूड़ी की बस तोल
(8)
किससे अपना दुख कहे ,किसको दे-दे शाप
आँसू पीती माँ पड़ी , खटिया पर चुपचाप
(9)
बूढ़ी माँ को कौन अब ,रखता अपने साथ
ईश्वर से है प्रार्थना , जाए चलते हाथ
(10)
पुनरावृत्ति वही हुई ,फिर से वह परिणाम
"बूढ़ी काकी" हो गया , वृद्धा माँ का नाम
✍️ रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर ,उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल 99976 15451
कितनी प्यारी होती माँ ।
ख़ुद से पहले हमें खिलाती
सबसे न्यारी होती माँ ।
अपने नन्हे बच्चों का माँ
तन-मन से पोषण करती,
जिन्हें सींचकर बड़ा करे वह
घर को ख़ुशियों से भरती ,
हरे-भरे पौधे हों जिसमें
ऐसी क्यारी होती माँ !
चंदा जैसी मधुर चाँदनी
मन में उजियारा करती,
उपवन है फूलों का सुंदर
खुशबू से आँगन भरती,
रंग-विरंगे फूलों वाली
इक फुलवारी होती माँ ।
किसी बुराई से बच्चों को
माँ रखती है दूर सदा,
और विपत्ति में होती है
सहयोगी भरपूर सदा ,
कठिन समय के आ जाने पर
दुख पर भारी होती माँ!!
✍️ ओंकार सिंह ' ओंकार'
1-बी-241बुद्धि विहार, मझोला,
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244001
तुम मन मस्तक में समाई हो!
जीवन में जब जब धूप पड़ी,
तुम छाता बनकर छाई हो !
विद्वान कवि सब मान रहे,
मां तो ईश्वर ही होती है !
मां किसे तुम्हारी उपमा दूं ,
मां तो बस मां ही होती है!
प्यार कसक और टीस लिए,
फिर भी खुश ही दिखती है!
तिरस्कार मिले,फिर भी दे दुआएं,
ऐसी मां ही होती है !
श्रद्धा है , पर अद्धा है,
और पति का मान बढ़ाती है!
मां को जो भी स्वरूप मिला,
उन सब में पूजी जाती है !
प्रथम गुरु मां ही होती ,
जग से परिचय करवाती है!
जगजननी जीजाबाई बनकर,
बच्चे को शिवा बनाती है !
धीर वीर गंभीर कोई हो ,
हो निष्कामभाव या भोगी हो!
प्रभु से पहले मां का दर्जा,
चाहे मोदी हो या योगी हो!
✍️ नकुल त्यागी
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
मां वन्दन तेरा करता तू धन्य जगत की माली।।
चेहरे पर देख व्यथा को सब काम छोड़ आ जाना।
ममता से गले लगाकर आंचल से फिर दुलराना।।
प्रत्यक्ष स्वर्ग दिखता था तेरे सम्मुख होने पर।
आंखों को पढ़ लेती थी मेरे भूखा होने पर।।
है याद मुझे अब भी तो मेरे बचपन की ओ मां।
तेरी ममता सी मूरत अब भी आंखों में है मां।।
भटका जब भी जीवन में तो ऊंच नीच समझाया।
मेरे उन्नति के पथ पर तू अब भी है हम साया।।
जिसको देखो कहता है मां आज दिवस है तेरा।
हर दिन ही मातृ दिवस मां मुख तेरा नित्य सवेरा।।
मां तो बस केवल मां है मां की हर बात निराली।
है निहित एक अक्षर में जीवन की हर खुशहाली।।
मैं और लिखूं क्या तुझपर तूने तो मुझे लिखा है।
तेरे चरणों में अपना मुझको तो स्वर्ग दिखा है।।
घर के मंदिर में मित्रों तुम मां का चित्र लगाना।
कोई पूछे यदि तुम से मां क्या है यह समझाना।।
मां के ममत्व की बातें मैं कितनी और बताऊं।।
मां के चरणों में अपने भावों के सुमन चढा़ऊं।।
✍️ सन्तोष कुमार शुक्ल (सन्त)
ग्राम-झुनैया, तहसील - मिलक,
जनपद - रामपुर (उ. प्र.)
मोबाइल : 9560697045