मां का मुखड़ा कैसा भी हो सुन्दर लगता है
नयन के मृदुलेप सा झर-झर झरना लगता है
अन्यत्र कोई और हितैषी जो मेरा हित चाहे
ईश्वर का आशीष लिए मां करुणा लगती है
मेरे कड़वों बोलों का भी एक पुलिंदा है
दिन भर क्यों माँ उसे उठाये घूमा करती है
संघर्षों की घनी धूप में मां छाया बनती
रोम-रोम ममता से सिंचित विजया लगती है
नयन के मृदुलेप सा झर-झर झरना लगता है
मां का मुखड़ा कैसा भी हो सुन्दर लगता है
✍️ मनोरमा शर्मा
अमरोहा
उ.प्र. भारत
वाह वाह वाह
जवाब देंहटाएंह्रदयतल से आपका आभार 🙏🏼
हटाएंसच माँ से सुन्दर भला और कौन हो सकता है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
आपका हार्दिक आभार 🙏🏼🙏🏼
जवाब देंहटाएंआपका अशेष आभार🙏🏼
हटाएंआपका बहुत बहुत आभार 🙏🏼🙏🏼
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