मंगलवार, 22 मार्च 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार एवं केजीके महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य स्मृतिशेष दादा प्रो.महेंद्र प्रताप जी द्वारा लिखित ललित मोहन भारद्वाज जी के मुक्तक संग्रह 'प्रतिबिम्ब' की भूमिका का अंश


'प्रतिबिम्ब' मुक्तक काव्य स्फूर्तियों का संकलन है। मुक्तक काव्य रचना का परम स्वाभाविक और प्राचीन रूप है और संसार के सभी साहित्यों में उस की सुदीर्घ और महत्वपूर्ण परम्परा मिलती है। भारतीय वाङ् मय में तो मुक्तक रचनाओं को और भी अधिक मान्यता और प्रतिष्ठा प्रदान की गई है। हमारे बहुसंख्यक वेदमन्त्र अत्यन्त सुन्दर काव्य मुक्तकों के उदाहरण हैं। संस्कृत में अष्टकों, शतकों और सप्तशतियों के रूप में ऐसे गौरवपूर्ण काव्य मुक्तकों के कितने ही संकलन पाये जाते हैं जिनकी महिमा प्रसिद्ध महाकाव्यों के समान ही मानी जाती है। लोक-प्रचलन और लोकप्रियता में तो वे किसी सीमा तक महाकाव्यों और नाटकों से भी आगे थे। 'प्राकृत सतसई', अमरुक का 'अमरु शतक', भर्तृहरि के 'शृंगार शतक', 'नीति शतक' तथा 'वैराग्य शतक तथा गोवर्द्धनाचार्य की 'आर्या सप्तशती' आदि ऐसी मुक्तक-कृतियां है जिन्हें अपने समकालीन काव्य रसिकों से भी मान मिला और जिन्हें आज भी पूरे आदर और निष्ठा के साथ स्मरण किया जाता है। हिन्दी का अधिकांश भक्ति और रीतिकालीन काव्य मुक्तकों के रूप में ही रचा गया है। कबीर, दादू, तुलसी, केशव, रहीम, बिहारी, देव, घनानन्द, आलम, बोधा, वृंद आदि कवियों की रचनाओं में प्रमुखता मुक्तकों की ही है। आधुनिक काल में भी मुक्तक के माध्यम से भारतेन्दु, रत्नाकर और हरिऔध जैसे महाकवियों ने अपार कीर्ति अर्जित की है।

     कुछ लोग कबीर, तुलसी और भारतेन्दु जैसे कवियों की पदशैली वाली काव्य रचनाओं को, प्रसाद, निराला, महादेवी आदि की आधुनिक प्रगीति रचनाओं को अंग्रेजी के शैली, कीट्स जैसे कवियों की ओडों और सानेटों को, तथा उर्दू की ग़ज़लों और गीतों को भी मुक्तकों की कोटि में ही गिनना चाहते हैं, किन्तु मेरे विचार से ऐसा करना ठीक नहीं है। बाहरी रचना की दृष्टि से मुक्तक का एक आवश्यक लक्षण यह है कि वह एक ही छन्द का होता है, चार चरणों वाले एक ही छन्द का। इस लक्षण का उल्लंघन होते ही रचना प्रकृत रूप में मुक्तक नहीं रह जाती। पद, गीत, गजल, सॉनेट आदि बहुछन्दीय रचनायें होती हैं। उन्हें शुद्ध मुक्तकों की कोटि में स्थान देने का आग्रह नहीं होना चाहिए। ऐसा करने से मुक्तक के एकछन्दीय होने का  कालातीत रूप में स्थिर लक्षण खण्डित और धूमिल हो जाता है।

      मशीनी मुद्रण के प्रचलन से पूर्व काव्य का प्रसार और आस्वादन मौखिक पाठ के माध्यम से हुआ करता था। स्मरण कर लेने और अवसर के अनुसार उद्धृत करने में सुविधा की दृष्टि से उस काल में मुक्तकों का महत्व बहुत अधिक था। पर मुक्तकों के इस गुण का महत्व आज भी किसी सीमा तक बना ही हुआ है।

    हिन्दी में मुक्तक रचना की शैली अभी कुछ समय पूर्व तक भक्ति और रीतियुगीन भाव-भूमि और शिल्प से जुड़ी हुई थी, जिसके चलते दोहाबलियों और सवैया तथा कवित्त छन्दों में लिखे मुक्तकों का प्रचलन था। पर इधर हाल में हिन्दी मुक्तकों ने उर्दू के 'कतों' का ढर्रा अपनाया है। ग़ज़ल अथवा नज्म सुनाने से पहले उर्दू के शायर 'कतों' के रूप में एकछन्दीय-मुक्तक सुनाया करते हैं। सुनने वालों पर इन 'कतों' का गहरा प्रभाव पड़ता देखा जाता है और अक्सर उर्दू के शायर इन 'कतों' के सहारे श्रोताओं में उस भावात्मकता को जाग्रत कर लेते हैं जो उनकी गजल अथवा नज्म के परिपूर्ण आस्वाद के लिये आवश्यक होती है। इन 'कतों' में अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों का ही निखार चरम रूप में लाने का प्रयत्न किया जाता है और इस कारण ये 'कते' बहुत ही मनोरम होते हैं।

    उर्दू की इस मुक्तक परम्परा का अनुसरण करते हुए हिन्दी में मुक्तक रचना का जो एक नया उल्लास सामने आया है, थोड़ी अवधि में ही उसकी उपलब्धियाँ बहुत विशिष्ट हो गई हैं। काव्य में रसात्मकता और संगीतात्मकता के हामी अधिकांश हिन्दी कवियों ने मुक्तक रचना के इस नये अभियान में अपना-अपना योगदान किया है। स्वीकार करना होगा कि इस नई शैली की मुक्तक रचना के शुभारम्भ और प्रचार में कवि श्री 'नीरज' के प्रयासों का विशेष महत्व है। यह जरूर है कि उर्दू भाषा और उर्दू शायरी के माहौल से बहुत अधिक प्रभावित होने के कारण श्री नीरज अपने मुक्तकों को वह रूप नहीं दे पाये जिसे उर्दू के मुक्तकों से अलग हिन्दी के मुक्तकों का अपना रूप कहा जा सकता। किन्तु हिन्दी में मुक्तक रचना को नई प्रेरणा और आयाम देने की दृष्टि से नीरज का योगदान बहुत विशिष्ट है, इसे स्वीकार करना ही होगा |

      इस नई मुक्तक रचना की कुछ अपनी विशेषताएं हैं। इन मुक्तकों में सौन्दर्य प्रेम और गहन जीवनानुभवों की मार्मिक अभिव्यक्ति होती है और उसे प्रभावशाली बनाने के लिये भाषा को लय, गति तथा छन्द का विशिष्ट सौन्दर्य प्रदान किया जाता है। मुक्तक रचना में अभिव्यंजना-सौन्दर्य पर इतना अधिक बल दिया जाता है कि कभी-कभी अनुभूति सम्बन्धी कोई विशेषता न होने पर भी मात्र अभिव्यञ्जना के सौन्दर्य के कारण ही कुछ मुक्तक सार्थक और सफल माने जाते हैं।

   'प्रतिबिम्ब' में संकलित श्री ललित भारद्वाज के ये मुक्तक हिन्दी की इसी नई मुक्तक परम्परा को आगे बढ़ाते है और उसे चिन्तन, अनुभूति तथा अभिव्यञ्जना को नई समृद्धि से मंडित करते हैं। श्री ललित की काव्य दृष्टि परम्परा प्राप्त काव्य-दृष्टि से जुड़ी हुई है और रसानुभूति तथा संगीतात्मक अभिव्यञ्जना का साथ कभी नहीं छोड़ती। मैं इसे ललित के व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास का परिचायक मानता हूं। आस्तिकता, आध्यात्मिकता, दार्शनिकता तथा जीवन-निष्ठा के जो तत्त्व श्री ललित के इन मुक्तकों की पंक्ति-पंक्ति में अनुस्यूत हैं वे मेरे विचार से आज के विक्षुब्ध मानव की सबसे बड़ी आवश्यकताएँ हैं

रोम रोम परस करें तुझको अभिराम, 

प्राण पुलक बरस पड़े नित्य पूर्ण काम, 

मैं खड़ा रहूँ तमाम उम्र, एक पाँव, 

जो तेरे दरस मिले रोज सुबह शाम । 


साधना हूं, सिद्धि हूं, साधक स्वयं ही साध्य भी, 

नित्य आराधक रहा हूं, साथ ही आराध्य भी, 

स्वयं कृति हूं, अलंकृति हूं, विकृति भी, संस्कार भी,

 निरा बन्धनहीन हूं, लेकिन कहीं पर बाध्य भी।


नव गीतों की नव स्वर लहरी पर संचार करें, 

आगत के स्वागत द्वारा सपने साकार करें, 

हुआ अतीत व्यतीत, विसंगतियों को विजय करें, 

छोड़ो कथ्य अकथ्य पुराने, आओ प्यार करें ।


माना कि आज के जीवन में अनेक प्रकार की विषमताएँ, असंगतियाँ तथा विक्षोभकारी दबाव है किन्तु इनसे प्रभावित होकर दिव्य मानव-चेतना के वाहक और प्रकाशक कवि और कलाकार भी संत्रस्त, विक्षुब्ध और दिग्भ्रांत हो जायें इसे न मैं आवश्यक ही मानता है और न उचित ही। मुझे इस बात की गहरी खुशी है कि वर्तमान युग के अवसाद ने श्री ललित को जहां-तहां छुआ तो ज़रूर है लेकिन जीवन की मंगलमयता में उनके विश्वास को उसने कहीं भी धूमिल अथवा दुर्बल नहीं बनाया है-----

जुल्म जमाने भर के हम तुम साथ सहे तो कैसा हो ? 

अपनी अपनी राम कहानी साथ कहें तो कैसा हो ? 

लाख असंगतियाँ जीवन में एक साथ जब रह लेती

 हम यायावर तुम यायावर, साथ रहें तो कैसा हो ?


वे कभी-कभी ऐसा अनुभव जरूर करते हैं कि---


दरवाजों पर अपशकुनों के भटक रहे हैं साये 

 मुस्काने पर मजबूरी ने पहरे लाख लगाये

 जकड़ा है संत्रासित सांसों में सारा सम्वेदन, 

 भटक रहे हैं प्रतिबिंबों में बिम्ब बहुत बौराये।

किन्तु इस तरह को मानसिकता उनकी स्थिर मानसिकता नहीं  है । उनका विश्वास है कि----

जीवन अरमान मधुर, जीवन मुस्कान है,

जीवन तो जीवन का  सुमधुर सहगान है, 

जीवट से जीना ही जीवन को काम्य है, 

जीवन परमेश्वर का प्यारा वरदान है।

श्री ललित अपनी संवेदनाओं में अपने तक ही सीमित नहीं हैं, सम्भोग की तुलना में सहभोग में उनकी आस्था अधिक है। वे कहते हैं------

उपवन  का मधुसार न केवल मेरा है, 

सौरभ पर अधिकार न  केवल मेरा है,

 आओ मिलजुल कर रस पान करें हम सब,

 धरती का श्रृंगार न केवल मेरा है। 

और

अपने ही द्वार तक न फेंको उजियारा, 

दूर दूर तक देखो ढूंढो अंधियारा,

 जिस तिस की चौखट रह जाये न अंधेरी, 

 क्या जाने कोई भटका हो बनजारा ।


'प्रतिबिम्ब' में जीवन की दृष्टि से जन-जन के सहयोग और पारस्परिक सहभोग की यह स्वस्थ भावना बार-बार सामने आती है और मैं इसे ही इस रचना की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानता हूँ। अन्य कारणों के अतिरिक्त एक स्वस्थ जीवन-निष्ठा के सम्पर्क में आने की दृष्टि से 'प्रतिबिम्ब' के मुक्तक बारम्बार पठनीय हैं। दुरूह और दुर्गम अभिव्यञ्जना काव्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है और श्री ललित का काव्य इस दुर्गुण से सर्वथा मुक्त है, यह मेरे लिये बड़े सन्तोष की बात है -


निखर गया आतप लो बिखर गया सोना, 

फैल गया धीरे से हर ठिठुरा कोना, 

मिट चली सवेरे की सिहरती कंपकंपी, 

जाड़े की धूप है कि गुनगुना बिछौना ।


तन खुल जाता है सो लेने के बाद, 

कुछ मिल जाता है खो देने के बाद, 

जैसे धरती का  दर्पन सावन में चमके,

मन धुल जाता है रो लेने के बाद ।


बात तो तब है कि इंगित मात्र हो सन्देश, 

बात तो तब है न मन में हो अहम् का लेश, 

बदल जाता आदमी परिवेश के अनुरूप, 

बात तो तब है बदल दे आदमी परिवेश ।


श्री ललित की सौन्दर्यानुभूति की अभिव्यक्ति में भावावेग, कल्पना और पदलालित्य का समन्वित विन्यास दर्शनीय है


तुम चितवन से नहला दो, मैं धुल जाऊँ, 

प्रिय रोम रोम, रग रग में मैं घुल जाऊँ 

अभिव्यक्ति अनुरुक्ति, भक्ति सब तुम से है, 

तुम मुझे बाँध लो प्राण ! कि मैं खुल जाऊँ ।


श्वेत श्याम अरुणिम छवि दृग में भर लाई होगी, 

अलस गात मधु स्नात, कष्ट में मुस्काई होगी, 

बद्धाञ्जलि पूजन करती तुमको देखा होगा, 

तभी कमल की रचना विधि के मन आई होगी।


धुल धुल कर  निखरा है खेतों का रूप,

बरखा में गदराए गाँवों  के कूप, 

पनघट से चिपक गई भीगी चुनरी, 

अभी अभी चुपके से नहा गई धूप


कविता के विवाद-रहित निर्मल और शाश्वत रूप में श्री ललित की अडिग निष्ठा है। वे अपने बारे में स्वयं घोषित करते हैं---

मैं न घिरा हूं कविता और अकविता के परिवेश में, 

मैं न फिरा हूँ वाद और प्रतिवादों के आवेश में

 भूखे अपने राम सहज रस-गति-सुर-गुंजित भाव के,

  शब्द-शब्द अक्षर अक्षर पावन गीतों के वेश में।


श्री ललित के काव्य में जो बात मुझे सबसे ज्यादा रुचती है वह है उन की स्वस्थ जीवन-निष्ठा और अभिव्यंजना के क्षेत्र में प्रसाद गुण-युक्त शैली को निर्मल संगीतात्मकता---


पीड़ा से परिणय स्वीकार करो तो जानें, 

अंजलियाँ भर भर विषपान करो तो जानें. 

फूलों को देख देख  हाथ सब बढ़ाते हैं,

कांटों पर पाँव रखो मुस्काओ तो जानें ।


आँखों ही आँखों में सबकुछ पी लूं

खुशियों की गोट लगा कथरी सी लूं

 एक यही अभिलाषा मन में बाकी

 मरने से पहले जी  भर  कर जी लूं ।


तुमको अर्पित सारे बसन्त मनुहारों के, 

तुम मुस्का दो फिर देखो रंग बहारों के,

 यह लो मैं आसमान को और झुकाता हूं, 

 दोनों हाथों से फूल चुनो तुम तारों के ।


दर्द भुला कर मुस्कानों से होठ सिये कोई, 

रह कर नित अनाम अमृत के घूंट,

 प्रतिभा यदि साधना पगी है तो सब सम्भव है, 

 यश मिलता है तब जब यश के हित न जिये कोई।





✍️ महेंद्र प्रताप 




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