गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा .... प्रायश्चित


एक सप्ताह से डॉ जगदीश प्रजापति घर नहीं लौटे थे। उनकी पत्नी शकुंतला को उनकी बहुत चिंता हो रही थी। 

 "न जाने यह सरकार क्या करके छोड़ेगी, लोग बीमारियों से मर रहे हैं और सरकार ने सारे डॉक्टरों को नसबंदी के काम में लगा रखा है। ऊपर से टार्गेट भी फिक्स कर दिए हैं, अब या तो टारगेट जितनी नसबंदी करो या फिर कार्रवाई के लिए तैयार रहो। न जाने क्या होने वाला है, मेरा मन बहुत घबरा रहा है।" शकुंतला परेशानी में खुद से ही बातें कर रही थी तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।

 "कौन ??" शकुंतला ने दरवाजा खोलते हुए पूछा।

 दरवाजा खोलते ही जैसे उसकी साँस ही अटक गयीं। बाहर अस्पताल के दो कर्मचारी डॉ जगदीश को सहारा देकर खड़े थे। 

 "क्या हुआ उन्हें?? है ईश्वर दया करना।" शकुंतला ने अपने पति को ऐसे देखकर हाथ जोड़ते हुए कहा और उनके आने के लिए जगह छोड़कर खड़ी हो गयी।

 "क्या हुआ जी आपको? आप ऐसे कैसे आये हो, इन लोगों का सहारा लेकर?" जब अस्पताल वाले चले गए तो शकुंतला ने अपने पति के पास बैठते हुए पूछा।

 "शकुंतला! उस दिन नसबंदी के टारगेट में एक की कमी थी तो...", जगदीश जी ने धीरे से कहा।

 "हे भगवान! तो क्या आपने खुद की...? अभी तो हमारे कोई संतान भी नहीं हुई है और आपने अभी से...?" शकुंतला किसी अनहोनी की आशंका से लगभग बेहोश सी हो गयी थी।

 "संभालो खुद को शकुंतला, हमारे जैसे लाखों नौजवान हैं जिनकी संताने नहीं हैं, कितनों के तो विवाह तक भी नहीं हुए हैं और इस नसबंदी की आँधी उन्हें उजाड़ चुकी है। कितने तो मेरे ही हाथों..., बस उसी का प्रायश्चित करने के लिए मैं भी... अब मुझे इसी बहाने कुछ दिन की छुट्टी भी मिल जाएगी शकुंतला, मैं और पाप करने से बच जाऊँगा।" जगदीश जी ने कहा और दोनों की आंखों से आँसू बहने लगे।

✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"

 ठाकुरद्वारा 

उत्तर प्रदेश, भारत

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें