बुधवार, 24 जून 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा--------प्यारा अहसास


 बहू चाय बन गयी क्या....जी बाबूजी, अभी लायी, नम्रता ने जल्दी से चाय का कप बाबूजी की ओर बढ़ाया ।बाबू जी 5 बजे चाय पीते थे। उसके बाद वह अपनी दवाई लेते थे। नम्रता इस बात का हमेशा ख्याल रखती थी कि बाबू जी की चाय के समय में विलम्ब न हो जाए, वह घर में सबका ध्यान रखती थी। पति रमेश सुबह बैंक चले जाते थे तथा देर शाम तक वापिस आते थे।बड़ी बेटी अनु 12 साल की थी और बेटा अर्पित 6 साल का। कुछ वर्ष पूर्व सासु माँ  का देहांत हो गया था, तब से पूरी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी नम्रता पर आ गयी थी। माँ बाप की लाड़ली नम्रता को ससुराल में भी पूरा प्यार मिला। जब तक सासु माँ थी वह ध्यान रखती थीं कि नम्रता पर घर के काम काज का ज़्यादा बोझ न पड़े इसलिए वह उसके साथ लगी रहती थी। नम्रता ने चाहे मायक़े में काम न किया हो पर वह ससुराल में कभी काम से जी नही चुराती थी। घर का काम वह माँ जी से सीख गयी थी। माँ जी और वह मिलकर घर का सारा काम करते थे परन्तु उनके जाने के बाद सारा काम उस पर आ गया था।बाबूजी की तबियत भी ठीक नही रहती थी, इसलिए उनके खाने पीने का भी नम्रता को विशेष ध्यान रखना पड़ता था। नम्रता का पूरा दिन घर के काम में कैसे निकल जाता ,पता ही नही चलता था। नम्रता की माँ उस को कहती की कुछ दिन यहां आकर रह जा तो वह मना कर देती कि माँ सब परेशान हो जाएंगे।
       एक दिन नम्रता दोपहर का काम करके बर्तन साफ़ कर रही थी कि उसकी कमर में बहुत तेज़ दर्द हुआ जैसे तैसे उसने बर्तन साफ़ किए। फिर वह अपने कमरे में आकर लेट गयी थकान के कारण उसकी आँख कब लग गयी उसे पता ही नही चला।अचानक उसकी आँख खुली तो हड़बड़ाकर उसने घड़ी देखी,5:30 बज गए थे। हे भगवान बाबूजी की चाय.............वह तेज़ी से रसोई की तरफ़ भागी वहाँ भगोने में  चाय बनी रखी थी फिर उसने बाबूजी की कुर्सी के नीचे चाय का कप देखा। बाबूजी ने चाय पी ली............? पर चाय किसने बनायी, यह सोचते सोचते वह आगंन में आयी जहाँ बेटी अनु अपने छोटे भाई को पहाड़े याद करा रही थी। माँ को देखकर उसने कहा माँ आपकी चाय भगोने में रखी है और दादाजी को मैंने चाय बनाकर दे दी है। यह सुनकर नम्रता की आँखो में आँसू आ गए। उसकी बेटी कब उसका सहारा बन गयी पता ही नहीं चला। आज बेटी के प्यार के अहसास की उस चाय से नम्रता का सारा दर्द दूर हो गया।
                   
 ✍️ प्रीति चौधरी
शिक्षिका, राजकीय बालिका इण्टर कॉलेज, हसनपुर, जनपद अमरोहा, उ0 प्र0

मुरादाबाद की साहित्यकार स्वदेश सिंह की लघुकथा---------- मजदूर


रमेश ने घर में घुसते हुए  कहा जानकी....जल्दी से जरूरी चीजें एक थैले में रख लो  ....कल सुबह  को हमें  अपने गाँव  के लिए निकलना है। पड़ोस वाले सभी लोग जा रहे हैं ।
 जानकी ने बड़े अचरज में कहा.......... अरे.. हम कैसे जा सकते हैं.... हमारा तो बेटा बीमार है.... उसे बहुत तेज बुखार है.... और वह तो खड़ा भी नहीं हो पा रहा और आप चलने की बात कर रहे हो...... रमेश ने कहा कोई बात नहीं मैं बेटे को गोद में लेकर चलूंगा। लेकिन  अगर हम नहीं गए तो हम यहीं रह जाएंगे ।जल्दी-जल्दी सामान थैले में रख लो.....जानकी ने जल्दी-जल्दी जरूरी सामान एक थैले में भरा और अपने झोपड़ीनुमा कमरे का ताला  दिया। रमेश  ने बीमार बेटे को चादर मे लपेटकर  गोद  में उठाकर गावँ जाने के लिए निकल पड़े। रास्ते में कोई सवारी ना मिलने के कारण उन्हें भरी दुपहरी में पैदल ही चलना पड़ा । चलते-  चलते दो दिन हो गए थक- हारकर हो एक पेड़ के नीचे बैठ गये। रमेश ने देखा की बेटे की साँस बहुत रुक- रुक कर आ रही है... उसे चिंता होने लगी परंतु उसने अपनी चिंता को जाहिर नहीं होने दिया। और बेटे को गोद में दोबारा लेकर चल पड़े ।अभी कुछ दूर ही चले होंगे ....कि कुछ समाजसेवी लोगों ने खाना देने के लिए उन्हें रोक लिया। खाना लेकर खाने ही बैठे तभी रमेश को लगा कि उसका बेटा  अब इस दुनिया में नहीं है ....उससे  रोटी का एक  भी टुकडा भी नही खाया गया। जानकी ने रमेश से कहा कि बेटे को भी कुछ खिला देते हैं... जानकी ने बेटे को कुछ खिलाने के लिए जैसे ही मुँह से कपड़ा हटाया और रोटी का टुकड़ा खिलानें लगी...बेटा का मुहँ नही खुल रहा था...और उसकी गर्दन एक तरफ लुढ़क गई... ...यह देख कर जोर-जोर से चीखनें लगी ......और बेटे को सीने से लगाकर लिपट -लिपट कर रोनें लगी .....हाय मेरा बच्चा अब इस दुनिया में नहीं रहा ....अब मैं कैसे जिन्दा रहूँगी....... उसकी चीखों ने  बहुत दूर-दूर तक मानवता को दहला दिया।

✍️ स्वदेश सिंह
 मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर रस्तोगी की लघुकथा ------संवेदना


"आह आज क्या शानदार खुशबू आ रही ही जरूर कुछ स्वादिष्ट बना है।" खाने की मेज पर बैठते मुकेश ने पत्नी मीना से पूछा।
मीना ने उत्तर दिया "हाँ जी, आज बटर चिकन बनाया है।"
मुकेश ने कहा "बहुत बढ़िया। अच्छा जरा समाचार खोल दो और प्लेट लगा दो।"
इस दौरान टीवी पर खबर दिखाई जा रही थी कि कैसे एक गर्भवती हथिनी को गांव के कुछ लोगों ने बारूद से भरा अन्नास खिला दिया। जिससे वह हथिनी दर्द से तड़पते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।
थाली मे रखे बटर चिकन को निपटाकर और बटर चिकन मांगते हुए मुकेश ने कहा "कितने निर्दयी एवं स्वार्थी लोग हैं। बेवजह ही एक मासूम जानवर की जान ले ली। मारा भी तो कितने निर्दयी तरीके से। छी है ऐसे लोगों पर ये मनुष्य नहीं दानव हैं दानव।"

✍️ इला सागर रस्तोगी
मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार सीमा रानी की लघुकथा ----- बहू बेटी


            रमा की आंखों में खुशी का ठिकाना न था क्योंकि आज उसके इकलौते बेटे रवि की बहु विवाह बंधन में बंध कर रमा के घर आई थी। दो वर्ष पहले बेटी रिया की शादी के बाद जैसे घर सूना सूना हो गया था, बेटे के ऑफिस जाने के बाद शाम 5: 00 बजे तक तो घर ऐसे सूना हो जाता जैसे घर की आत्मा ही निकल गई हो। रमा कभी छत पर तो कभी खिड़की से सड़क पर निहार निहार कर ही अपना दिन पूरा करती थी।
                     पिछले 2 दिन से घर में काफी चहल-पहल थी क्योंकि रवि के विवाह उत्सव में मित्र व सगे संबंधी सभी एकत्रित थे। आज बहू घर आ गई तो मनोरमा को लग रहा था जैसे वह दिन में सपना देख रही हो पिछले 2 सालों से वह हर पल इसी दिन का इंतजार कर रही थी।
                      मेहमानों को विदा करने के बाद रमा को फुर्सत मिली तो वह अपने मन की बात करने अपनी नई नवेली बहू के पास आए बहू ने सासू मां के चरण स्पर्श किए तो रमा ने ढेर सारा आशीर्वाद दिया। रमा ने अपनी बहू नेहा से बड़े स्नेही भाव से कहा कि,"देखो बेटी तुम ही मेरी बेटी रिया हो एवं तुम ही मेरी बहू नेहा हो क्योंकि मेरी बेटी तो किसी दूसरे घर की लक्ष्मी बन चुकी है अब तुम ही मेरे घर की लक्ष्मी हो..............।" ऐसा कहकर रमा ने नेहा को अपने कलेजे से लगा लिया। रमा की इतनी स्नेह से भरी भावपूर्ण बातों को सुनकर नेहा की आंखें भर आई और वह रमा के गले से लिपट कर बोली मां जी मैं अपनी मां को तो मायके में ही छोड़ आई अब तो आप ही मेरी मां हो। यह सुनकर रमा का कलेजा भी सुखद अनुभूति से गदगद हो गया और उसने नेहा को अपने कलेजे से लगा लिया ।

  ✍🏻सीमा रानी
अमरोहा

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा ---इंसान तो हूँ ?

            पत्नी ने पति से कहा, ''आज रात मैने स्वप्न में देखा कि आप प्रदेश के बहुत बड़े आदमी बन गए हैं ।आपके चारों ओर भीड़ ही भीड़ है ।तभी मैने देखा कि एक मकान में आग लग गई।फिर पता नहीं क्या हुआ की आप उस आग में कूद पड़े और -----------!''
       '' हाँ ! हाँ ! ठीक है बाद में क्या हुआ ?"
       "बस कुछ नहीं ,मेरी आँख खुल गई"
     देखती हूँ तुम वहीं के वहीं हो मुफलिसी के मारे चारपाई पर पड़े निःसहाय नोकरी के लिए जूझते तिल -तिल कर मरने वाले बेसहारा इंसान--।"
     ''ठीक है ! ठीक है!मैं एक इंसान तो हूँ न ।आज के युग में कोई इंसान ही बना रहे यही क्या कम है ?"
       पत्नी ने पति को बहुत ही गर्व से देखा और फिर स्नेहवश उसके सीने से लग गई ।
 ✍️  अशोक विश्नोई
  मुरादाबाद
 मोबाइल--9411809222


मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफा की लघु कथा-----अनुभव

                     
रामलाल ने अपनी तीन बीघा जमीन बेचकर बेटे सोहनलाल को नामी यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने शहर भेजा था कि बेटा इंजीनियर बनकर उसका नाम रोशन करेगा और अपना जीवन अच्छे से बिताएगा । सोहन ने भी पिता की इच्छा पूरी करते हुए पढ़ाई की और इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त कर ली जिसे हासिल किये उसे एक वर्ष से अधिक का समय हो गया था अब वह डिग्री लेकर जॉब की तलाश में सारे सारे दिन इधर से उधर जूते घिस रहा था मंगलवार को भी दिन भर का थका मांदा सोहन रात को अपने छोटे से कमरे में आकर सो गया बुधवार की सुबह उठा तो इस उम्मीद के साथ के शायद आज उसकी मेहनत सफल हो जाये। फ्रेश होकर वह चौराहे की ओर चल दिया गुप्ता न्यूज एजंसी से उसने अखबार खरीदा और तेज कदमो से कमरे पर लौट आया। टूटी हुई कुर्सी पर बैठकर वह अखबार के पन्ने पलटने लगा और अखबार के वर्गीकृत विज्ञापन वाले पेज पर वह एक एक विज्ञापन पढ़ने लगा लेकिन उसके मतलब का कोई विज्ञापन उसे नज़र नही आया अंत में नीचे छपे विज्ञापन पर उसकी निगाह पड़ी 'आवश्यकता है इंजीनियर्स की' उसकी आँखे खुशी से चमक उठी .वह गौर से विज्ञापन पढ़ने लगा विज्ञापन में मांगी गई शैक्षिक व प्रशिक्षण योग्यता पर वह खरा उतरता था लेकिन अगले ही पल उसे झटका सा लगा विज्ञापन में नीचे लिखा था 'अनुभव दो वर्ष ' जिसे पढ़कर उसके होंठ भिंच गये गुस्से से उसने बंद किया मुक्का 'ओफ्फो' कहकर सामने पड़ी मेज पर दे मारा और उसके होंठ बुदबुदाने लगे अब इन नीति नियंताओ को कौन बताये के जब बेरोज़गारों को जॉब ही नही मिलेगी तो वे अनुभव कहाँ से लायेंगे मायूसी के साथ उसने आँखे बंद की और कुर्सी की पीठ से सर लगाकर कुर्सी दीवार से टिका दी.

✍️कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'                                         सिरसी (संभल)
9456031926

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा----- परमीशन


"अरे भाई ऐसे कैसे दे दूँ अंतिम संस्कार में पन्द्रह लोगों को जाने की परमिशन?  आपको पता है  ना पूरी दुनिया में महामारी फैली हुई है।
लॉक डाउन में पाँच से ज्यादा लोग अलाउ ही नहीं हैं।
साहब ने तो भीड़ लगाने को बिल्कुल मना किया हुआ है। लेकिन फिर भी मैं आपको पाँच आदमी अलाउड कर रहा हूँ।" पेशकार साहब ने चश्मा थोड़ा नीचे सरकाकर सामने बैठे उन दो उदास चेहरों को देखा।
"और फिर आपको पता नहीं ऐसे सीधे-सीधे किसी को कोई परमिशन नहीं मिलती?"  पेशकार ने कुछ पल रूककर धीरे से कहा।
"क्या हुआ? किस काम से आये थे आप लोग?" बाहर बैठे अर्दली ने इन्हें रोनी सूरत लिए बाहर निकलते देखकर पूछा।
"परमिशन लेने आये थे सर लेकिन..." सामने वाला बस इतना ही कह सका। आगे के शब्द जैसे उसके आँसुओ के साथ उसके लगे में उतर गए।
"ऐसे थोड़े ही मिलती है परमिशन साहब!!"  अर्दली ने धीरे से एक पेपर इनकी मुट्ठी में थमा दिया।
"बात कर लेना", अर्दली मुस्कुराते हुए बोला।
बाहर आकर इन्होंने देखा, उस कागज के टुकड़े पर कोई मोबाइल नम्बर लिखा था।
"हेल्लो.. हेल्लो सर...सर बो हम परमिशन के लिए...क्या??!  हाँ सर हाँ हम यहीं एस. डी. एम. कोर्ट के बाहर... जी ...जी..! हाँ ठीक है पेड़ के नीचे।", उनमें से एक ने फोन पर बात की और दोनों चलकर इस बड़े पेड़ के नीचे जाकर खड़े हो गए।
"हाँ यो बताइये किस काम के लिए परमिशन चाहिए आपको? और कितने लोग सम्मिलित होंगे?" एक वकील ने आकर इनसे पूछा।
"घबराइए मत हमीं सबको परमिशन दिलाते हैं यहाँ से, देखिये :- दाह संस्कार दस आदमी का पाँच सौ, बीस आदमी का पन्द्रह सौ।
शादी दस आदमी का दो हजार, पच्चीस से तीस आदमी का दस हज़ार।
बाकी कोई छोटा पार्टी, बीस आदमी तक पाँच हज़ार।
बॉर्डर पार जॉब या बिज़नेस का डेली अप-डाउन  एक महीने का तीन हज़ार।"
अब आप लोग जल्दी बताइये किस काम की परमीशन दिलानी है, मुझे और भी काम है।
       वकील अपनी रेट लिस्ट बता रहा था लेकिन उस आदमी के कानों में तो बार-बार पेशकार के वही शब्द गूँज रहे थे, "ऐसे सीधे-सीधे किसी को परमिशन नहीं मिलती।"

✍️ नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी -- अन्तर्वेदना


                आज सुबोधजी की आँखें सूख ही नहीं पा रहीं थीं । कभी अश्रु आँखों के किनारे का संबल पा ठहर जाते , कभी झरना निर्बाध रूप से छलाँग लगा स्वयं ही पलकों के घेरे को तोड़ बहने लगता था ।
           बड़ी मुश्किल से दो बार खुद से जबर्दस्ती करके उन्होंने चाय पी और नाश्ता खाया । शाम ढल आई थी , फोन  चार  बार बज चुका था ।  पर आज उन्हें किसी से बात ना करना ही बेहतर लगा था ।   उन्होंने नौकर को हिदायत दे दी थी कि अगर कोई बच्चा आए तो कह देना तबियत खराब है कुछ दिन आराम करेंगे । 
                 किस - किस से छुपाते  , किस - किस को बताते । हृदय के भीतर दर्द की कई परतें थी जिन्हें वो अपनी निजी धरोहर मानते थे । हाँ मधुलिका होती तो बात अलग थी  । अब तो उसे गए भी चार साल हो गए थे । बच्चों के सामने वो हमेशा मुस्कुराहट के साथ ही प्रस्तुत हुए थे और आज भी वैसे ही होते हैं ।
              पचपन की उम्र भी तो इंसान को त्रिशंकु सा लटका देती है । उदास या थके हों तो सब कहते हैं  " अरे अभी उम्र ही क्या है ।"  और अगर कभी थोड़ा सा ज्यादा हँस - बोल लिया तो कहते हैं  " थोड़ा उम्र का तो लिहाज करते ।"  उसपर से विधुर , मानो जीवन जीने का हक ही खो दिया हो । हालाँकि सुबोध जी तो अभी भी किसी भी अच्छे - खासे जवान बंदे को हीन - भावना से भर देते थे ।
            समय के पाबंद , मृदुल व्यवहार के धनी , कार्य कुशल और मितभाषी सुबोध जी घर बाहर सबके प्रिय थे । मधुलिका और उनका जोड़ा तोता - मैना का नामकरण पा ही चुका था । बच्चों ने जैसा चाहा उन्हे वैसा जीवन जीने की आजादी उन्होने सहर्ष दे दी थी । चाहे अब दोनों विदेश में थे पर स्नेह की डोर कहीं से भी ढीली नहीं पड़ी थी ।
            उनका कहना था जो काम आसानी से हल हो सकते हैं उन्हें जबरदस्ती जटिलता का आवरण नहीं पहनाना चाहिए । दफ्तर में बाॅस से लेकर चपरासी तक सभी से एक सा व्यवहार करते थे । सब उनके प्रिय थे और वो सबके प्रिय थे । पर पिछले चार सालों में जिंदगी ने कुछ ऐसी पलटी मारी थी कि सुबोध जी की सारी खूबियाँ ही मानो उनकी दुश्मन बन गईं थीं ।
          मधुलिका को अचानक हुए कैंसर ने पूरे घर की नींव हिला दी थी । बेटे - बहुएँ  पोते - पोतियों से घर भर गया था । जी भर कर सबसे हँस - बोलकर , खुद  को तृप्त कर , पूरे घर को निहारती मधुलिका दो महीने भी नहीं रुकी । उसका जाना मानो उन्हें भी जीवन से बेदखल कर गया ।
            दुनिया भर के लोग , नाते - रिश्तेदार  , दोस्त  , पड़ोसी और उतनी ही बातें , सलाहें ।  वो अवाक से बस सिर हिलाते रहे । अपने साथ लेके जाने की बच्चों की लाख कोशिशों के बावजूद उन्होंने धीरे से बस यही कहा  " अभी तो तुम्हारी मम्मी यहीं पर ही महसूस हो रहीं हैं । " " अभी कुछ दिन मैं यहीं ठीक हूँ । "  " आगे देखते हैं । "
            जीवन की गाड़ी अकेले पहिए से चलाते - चलाते अब चार साल हो गए थे । सारे काम हो ही रहे थे  , रुका क्या था ??   पर जिस समाज में हम रहते हैं ,  जिन लोगों से घिरे रहते हैं ,  जिन लोगों के साथ काम करते हैं  , उनकी सोच एक खास धुरी पर आकर अटक जाती है , रुक जाती है ।  और ये रुकी हुई , अटकी हुई सोच अन्तर्वेदना का चिरस्थाई कारण है ।
              सालों से काम कर रही बाई ने एक दिन धीरे से कहा  " साहेब अब आप कोई चऊबीस घंटे वाला छोरा रख लो । " आपका काम भी करेगा और मन भी लगा रहेगा । "  " पर मुझे चौबीस घंटे कोई क्या करना है । " उनकी आवाज में आश्चर्य था ।  " नही मई तो आपके भले कू ही बोली ।" बाई थोड़ा शर्मिन्दा सी होकर बोली ।  " साफ - साफ बोलो क्या बात है ? " उन्होंने जोर देकर पूछा तो  जवाब आया    "  वो साहेब अब आप अकेले है ना तो मेरा मरद और आस - पास वाले सौ सवाल पूछते हैं  ? "  "  तो मेरे कू डर लगता है साहेब  "  " आप और मेमसाब के पास मई इतने साल काम करी , आप हमेशा मुझे अपनी बेटी जइसा रखे , पन साहेब दुनिया बहुत खराब है  , अगर कल कू मेरे मरद कू कोई भड़का दिया तो मैं तो सह लेगी पन आपका नाम खराब होता मई नही देख पाएगी । "   उसके जुड़े हुए हाथ और रूँघा हुआ गला उसके सच्चे बयान की गवाही दे रहे थे । मन में कुछ अजीब सा महसूस हुआ मानो किसी ने कसकर मसल दिया हो । बाई के सिर पर हाथ रख कर उसे विदा कर दिया ।
             वो तो भला हो उनके दोस्त परिवार का जिन्होंने अपने नौकर का बेटा उनके पास रखवा दिया । गाड़ी फिर से चलने लगी ।
           कुछ दिनों से मन कर रहा था कि कुछ लोग आसपास हों । दिन तो अॉफिस में निकल जाता था पर शाम होते ही दिल को उदासी घेर लेती । पास,पड़ोस के कई घरों में स्कूल कॉलेज जाने वाले बहुत से बच्चे थे  ।  वो बाहर बैठे उन सब को निहारते रहते ।  जाने क्यों एक दिन उनको ऐसा लगा कि उन्हें अपनी परेशानी और अकेलेपन के लिए एक संबल मिल गया है  ।  शाम होते ही बाहर पार्क में खेल रहे दो तीन बच्चों को उन्होंने आवाज दी  ।  सभी परिचित थे वे दौड़कर उनके पास आए और बोले   "नमस्ते अंकल कुछ काम हो तो बताइए  ।"   उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा   " मुझे तो कोई काम नहीं है ,  लेकिन अगर तुम लोगों में से किसी को भी मेरे साथ कैरम खेलना हो या फिर और कोई गेम तो आ जाना मेरे पास बहुत बड़ा कैरम बोर्ड है  ।"   
            बस फिर क्या था अगली कई शामें बच्चों के साथ आराम से गुजरने लगी कभी कोई आ जाता तो कभी कोई ।  एक दिन  पास वाले शर्मा जी का बेटा अपनी मैथ्स की नोटबुक उठा लाया और बोला   " अंकल पापा तो आज ऑफिस से लेट आएंँगे क्या आप मुझे यह सम सॉल्व करने में हेल्प कर सकते हैं ?"   उन्होंने सहर्ष उसे सारे सवाल मिनटों में समझा दिए ।  इसके बाद  तो जैसे एक नया सिलसिला चल पड़ा ।  अब तो जिस भी बच्चे को पढ़ाई में जो भी मुश्किल होती वह उनके पास आ जाता  ।  वो भी खुशी - खुशी उनकी समस्याओं का समाधान कर देते।
        उनकी शामें अब खुशनुमा हो चली थीं । इन बच्चों से घिरे रहने के कारण वह अपने बहू-बेटों और पोते-पोतियों से दूर होने के गम को थोड़ा कम महसूस करने लगे थे । पर एक दिन अचानक दो आँखों ने उन्हें ऐसा डराया कि वह सहम कर रह गए । उनका अंतर्मन गहन पीड़ा से भर गया ।
       हुआ यूँ कि पड़ोस की शालिनी जो शायद छठी कक्षा में पढ़ती थी उस दिन अचानक आई और बोली अंकल मुझे इस पोयम का मीनिंग समझा दीजिए । मतलब समझाते- समझाते कविता में आए किसी हास्य प्रसंग की वजह से वह दोनों जोर जोर से हंँसने लगे  । हंँसते हुए शालिनी के गले में अचानक धस्का लग गया । खांँसी आने की वजह से उसकी आंँखों में आंँसू आ गए  ।  उन्होंने घबराकर शालिनी की पीठ को मलना शुरू कर दिया ।  वह घबरा गए थे  ।  तभी अचानक उनकी निगाह द्वार की तरफ पड़ी जहांँ शालिनी की मांँ खड़ी हुई थी और अजीब सी गुस्से  भरी नजरों से उन्हें देख रही थी  ।   उसकी आंँखों और चेहरे के भावों ने उन्हें असमंजस में डाल दिया ।   वह बोले  "इसे हंँसते हुए अचानक जोर से खाँसी आ गई थी ।"   शालिनी की मांँ ने उनके शब्दों की तरफ ध्यान ना देते हुए जोर से शालिनी से कहा  "घर में नहीं पढ़ सकती हो ,  उठो चलो यहाँ से। "    शालिनी तो बच्चा थी । अवाक रह गई । पर फिर पता नहीं क्यों किताबें उठाकर वहांँ से चल दी ।
           जाते-जाते  शालिनी की मांँ ने पलट कर एक बार फिर उन्हें अजीब सी नजरों से घूरा ।  वह अपनी सफाई में बहुत कुछ कह सकते थे पर जाने क्या सोचकर चुप रह गए ।   पर इस तरह से शालिनी की माँ का उन्हें वितृष्णा से देखना  उनके अंतर्मन को असीमित पीड़ा से भर गया ।       
                 वह जानते थे  और समझते भी थे कि आज के परिपेक्ष में माता-पिता आए दिन होने वाले हादसों की वजह से  बेहद असुरक्षित महसूस करने लगे हैं और किसे अपना समझें और किसे पराया ? कौन उनका भला सोच रहा है और कौन उन्हें नुकसान पहुंँचा रहा है ?   यह असमंजस उन्हें भी पता था  ।  पर जाने क्यों अपने प्रति किसी के मन में उठी इस तरह की भावना को लेकर और सोच को लेकर उनका मन सहम गया । वह जानते थे कि अब शाम के इस सिलसिले को उन्हें यहीं रोकना पड़ेगा ।   व्यर्थ में ही वह किसी दूसरे को और अपने आप को और चोट नहीं पहुँचाना चाहते थे ।  पर इस अंतर्वेदना से मुक्ति पाने का, अन्य क्या उपाय होगा यह वह चाहकर के भी नहीं समझ पा रहे थे   ।।।।
 ✍️सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद ।

मंगलवार, 23 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ------ घड़ी न जाए बीत..


    .... बस तेजी से हल्द्वानी की ओर भागी जा रही थी परंतु राहुल को ऐसा लग रहा था जैसे बस रेंग रही हो......काश !..उसके पंख होते और वह उड़ पाता तो उड़ कर मिनटों में हल्द्वानी पहुंच जाता.....
........."दिलीप को दिल का दौरा पड़ा है,, "बस इतना ही सुना फोन पर और वह कोसों दूर है कोई मदद नहीं कर पा रहा..... वह दोस्त जिसने सुख दुख की हर घड़ी में.. अपनेपन  का सदा ही गहरा एहसास कराया था आज ....कुछ भी उसके लिए करे कम ही  होगा उसके दो छोटे छोटे बच्चे हैं .... सुंदर सजीला बदन स्वस्थ हृष्ट  पुष्ट भला उसे क्या हो सकता है मस्त मौला .....हमेशा दूसरों के काम आना जैसे उसकी आदत बन गई थी .... हे ! प्रभु कुछ ऐसा वैसा मत करना ऐसे लोग दुनिया में मिलते ही कहां हैं...?
........ राहुल की आर्थिक  स्थिति बहुत खराब थी .... जब वह सातवीं क्लास में था  पिता का स्वर्गवास हो गया था ....इंटर में दोनों दोस्त एक साथ पढ़ते थे कड़ाके की ठंड में जब राहुल के पास स्वेटर नहीं देखा तो क्लास में ही दिलीप नै अपना स्वेटर उतारा और जबरदस्ती  पहना दिया , मना करने पर बोला ,,मेरे पास जैकेट है ना इसकी जरूरत तुझे ज़्यादा है,, पापा से इसके लिए उसे डांट भी पड़ी परंतु जब पापा को पता लगा तो  उन्होने कहा ,,बड़ा प्यार है अपने दोस्त से!,,वह दिन जीवन के अंतिम क्षणों तक क्या भुलाया जा सकता है जहां इतनी बड़ी दुनिया में राहुल के इतने अपने होते हुए भी कोई साथ नहीं देता था उसे ऐसा सखा मिला...जो घरवालों की चिंता किए बिना अपना वस्त्र तक उतार कर पहना दे राहुल की आंखें भर आई,, हे प्रभु! तू मेरे प्राण ले ले!... उसे कुछ ना हो,!,....यही सोचते-सोचते पता ही नहीं चला कब वह उसके घर तक पहुंच गया ... पैर मन मन भर के भारी हो रहे थे.... दिल बैठा जा रहा था... दिलीप के आवास पर काफी भीड़ जमा थी देखते ही दिल हाहाकार कर उठा... अंदर जाकर देखा दिलीप का शरीर निश्चेष्ठ, चेतना शून्य ,ठंडा  जमीन पर पड़ा हुआ था जैसे कोई गहरी नींद में सोया हो .... पत्नी दहाड़े मार-मार कर रो रही थी दोनों बच्चे लिपट कर चिल्ला रहे थे ,,पापा उठो! पापा उठो !स्कूल छोड़कर नहीं आना है क्या, टाइम हो गया"..... राहुल के दिल में आया खूब जोर से हिलाए ... लिपट कर खूब रोये परंतु ....प्राण निकले हुए काफी समय हो गया था ....
      हफ्ता भर पहले ही तो राहुल के पास आया था ,,यार मेरे साथ चलो गाड़ी मिली हुई है,, ,,नैनीताल घूमेंगे फिरेंगे बच्चों को साथ ले लो,, मस्ती करेंगे परंतु क्या पता था कि 4 दिन में ही यह घटना घट जाएगी राहुल ने सोचा अब बनारस से यहां आ ही गये हैं तो कभी भी घूम लेंगे ....उसे बस एक ही बात खाए जा रही थी कि देखो मैंने उसका कहा नहीं माना....समय का कोई भरोसा नहीं मृत्यु का कोई पता नहीं.... एक एक पल अनमोल है जो करना है कर लो
     ......थोड़ी देर में उसे लेकर शमशान की ओर जाने लगे सब लोग सच ही कह रहे थे........,, राम नाम सत्य है !!,,,,पूरे जीवन में अब उसे कभी ऐसे व्यक्ति के दर्शन नहीं होंगे न जाने कितनी यादें जुड़ी हुई थीं... हर याद अनमोल !!
        जीवन का हर पल कीमती है इसे प्यार से जियो और सदा याद रखो मृत्यु कहीं आस-पास भी खड़ी हो सकती है ....घड़ी हाथ से निकल न जाए .... राहुल उससे अक्सर कहा करता था यह गीत नारी स्वर में है तुम क्यों गाते हो ....परंतु वह बड़ी ही सुरीली आवाज में कॉलेज के फंक्शन में हर बार यही गीत गाता था .....
.....,ये घड़ी न जाए बीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं,,
          .... दुखी मन से घर लौटते हुए राहुल की आंखें भीगी थी और यही गीत मन में चल रहा था...

✍️ अशोक विद्रोही
412 प्रकाशनगर, मुरादाबाद
82 188 2541 

मुरादाबाद के साहित्यकार प्रवीण राही की कहानी -----मापदंड


स्नेहा - मां देखना, गेट पर किसी ने घंटी बजाई है। मैं नहा कर आ रही हूं। मां - और कौन होगा, महारानी आई होंगी। कल आधे घंटे लेट थी, और आज एक घंटे । मां-  स्नेहा ,बेटा संभल के बाथरूम में जाना।स्नेहा - ठीक है मां। मां गेट खोलते ही,स्नेहा महारानी शशि आई है। शशि - नमस्ते आंटी, पर आंटी ने कोई जवाब नहीं दिया। आने दे  स्नेहा को वही तुझसे बात करेगी....
स्नेहा नहाकर जब बाहर आई। शशि-  दीदी नमस्ते । स्नेहा - नमस्ते शशि, कैसी है? और शशि हर दिन तू आधे घंटे  ज्यादा लेट होते जा रही है । शशि - ओ दीदी, आपको तो पता है ना मेरा पांचवा महीना चल रहा है,पैदल ज्यादा तेज नहीं चल पाती। इसलिए ज्यादा समय लग जाता है,और ऑटो वाले आने आने का 100र लेते है,सारी कमाई आने जाने में ही खर्च हो जाएगी।अच्छा ठीक है... मुझे ऑफिस जाना है, जल्दी खाना बना दे और हां बर्तन बाद में धोना....
स्नेहा - मां  आप शशि को ,राहुल के मेरे और अपने तीनों के कपड़े धोने को  दे दो...
मां- इस सप्ताह तो महारानी शशि ने एक बार भी कपड़े नहीं धोया,जबकि महारानी ने बोला था दो बार तो हर हप्ते कपड़े धो देंगी....। शशि - धो दूंगी दीदी,आंटी दे दो.....सारे कपड़े। दीदी एक बात कहूं....स्नेहा - हां बोल, बस कुछ भी बोल पर छुट्टी मत मांगना। तू तो दूसरी बार मां बन रहीं है पर मेरा पहला है। मुझे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं चाहिए,और हा समय पर आ जाया कर। शशि - दीदी ,बस कल डॉक्टर को दिखाने जाना है ।अकेले ही जाऊंगी ....आपको पता है ना मेरे पति का पैर जब से ऐक्सिडेंट में कटा सारा काम मेरे ही माथे है।  कल 3:00 बजे दोपहर तक आ जाऊंगी ,दीदी । स्नेहा - देख , बार-बार बोलना सही नहीं लगता, तू नहीं आती है तो घर की पूरी व्यवस्था गड़बड़ हो जाती है ।तुझे पता है ना.. मेरा भी दूसरा महीना चल रहा है... ऐसा मत किया कर। और हां ...ज्यादा छुट्टी करेगी तो मैं , सुशीला और रीता  हम तीनों ही तेरी जगह किसी और को रख लेंगे... फिर मत मेरे पास आकर रोना, याद है ना तुझे दो साल पहले , जब तू मेरे पास आ कर रोने लगी थी... मेरे कहने पर ही उन्होंने भी तुझे दोबारा रखा था।
शशि - ना दीदी, ना ना ऐसा मत करना।।
मां - स्नेहा बेटा ,रीता का कॉल आ रहा है।
स्नेहा -  फोन देना मां। स्नेहा- हैलो ,रीता ... हैलो, बोल कैसी है.... काफी दिनों बाद कॉल किया
रीता - ठीक हूं बस व्यस्त थी,शशि को बोल देना तेरे पास से जल्दी आ जाएगी मेरे पास। एक बात बता....
स्नेहा - हां बोल
रीता - सुशीला बोल रही थी ,खुशखबरी है।
स्नेहा - हां यार, मैं आज तुझे जरूर बताती .... दूसरा महीना चल रहा है। छह-सात महीने में तू मौसी बन जाएगी। ऑफिस जा रही हूं, लेट हो रहा है रीता... बाद में बात करूंगी
रीता- अब ऑफिस क्यों जा रही है, पगली....
स्नेहा - बस आज ऑफिस जा रही हूं, ऑफिस वाले तो छह महीने की प्रेग्नेंसी पर छुट्टी दे रहे हैं। सरकार का नियम है, छह महीने की छुट्टी मिल सकती है प्रेग्नेंसी पर । पर बहन रीता मुझसे नहीं हो पाएगा..... और काम। दूसरा महीना है ,अब आराम चाहिए, बहुत मुश्किल है मां बनना। मैं अब कल से काम पर नहीं जाऊंगी।अच्छा बहन चल बाय,रखती हूं काल.....
रीता - बाय,स्नेहा,ध्यान रख अपना...।
शशि, रीता और स्नेहा दीदी बातों को सुनकर यह नहीं समझ पा रही थी की
ये लोग भी उसे औरत समझती हैं या नहीं...???

✍️ प्रवीण राही
मुरादाबाद 

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा ---कर्म ही पूजा


अवनि सात बजे कॉलिज जाने के लिये बाइक स्टार्ट करने लगी ।उसके बगल में रहने वाली मीना उसे पुकारा ,"अरे आज छुट्टी नहीं है ,इतना बड़ा त्योहार है आज "बढ़ मावस"। व्रत रखा है क्या ?
अवनि ने देरी की वजह से संकेत में न कहना चाहा,पर मीना ने व्यंग्य करके कहा ,पति की लंबी आयु के लिये रखा जाता है यह व्रत । पर तुम कहाँ इतना.........कर पाओगी ...पानी भी नही पिया जाता। अवनि चुप न रह सकी ,उसने भी उसी लहजे में कहा 'हाँ जानती हूँ। पर पति की उम्र व्रत करने से नही उसका सहयोग करने से बढ़ती है। मेरे पति निश्चय ही मेरे बिना व्रत किये ही दीर्घायु होंगे क्योंकि उनकी आधी से ज्यादा जिम्मेदारियां मैने अपने कंधों पर ले रखी हैं । कर्म ही मेरी पूजा है जिसको मैं तत्परता से कर रही हूं।"अवनि स्कूटी स्टार्ट करती उससे पहले ही वह ज्ञान बांटने  वाली अपनी राह चलती बनी।

✍️ डॉ प्रीति हुँकार
मुरादाबाद

वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। मंगलवार 16 जून 2020 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों वीरेंद्र सिंह बृजवासी, दीपक गोस्वामी चिराग , प्रीति चौधरी, नवल किशोर शर्मा नवल, डॉ श्वेता पूठिया, कमल जैदी वफा, डॉ पुनीत कुमार, सीमा रानी, जितेंद्र कमल आनंद, इला सागर रस्तोगी, रामकिशोर वर्मा, अशोक विद्रोही, मनोरमा शर्मा, डॉ प्रीति हुंकार और राजीव प्रखर की रचनाएं------


चिड़िया रानी  दावत खाने
मिलकर  दोनों साथ चलेंगे
कालीकोयल का न्योता भी
दिल से ही  स्वीकार  करेंगे।
         ----------------

वहाँ   मिलेंगे  तोता - मैना
बुलबुल बत्तखऔरकबूतर
डैक  बजेगा  डांस   करेंगे
सारे पक्षी उछल उछलकर
मोटी  मुर्गी   के  बतलाओ
कैसे   करके   पैर   हिलेंगे।
चिड़िया रानी-------------

मोर सजीले  पंख खोलकर
सुंदर - सुंदर  डांस   करेगा
पूरे मन  से  दौड़ - दौड़कर
सबके दिल में जोश  भरेगा
चलो हाथ में हाथ डालकर
हम भी तो थोड़ा   मटकेंगे।
चिड़िया रानी-------------

चिड़िया बोली  नहीं जानते
बाहर   कोरोना   फैला   है
दूरी   रखकर  बातें  करना
देखो  नहले  पर  दहला  है
दोनों  हाथों को  साबुन  से
मल-मल कर दोनों  धोएंगे।
चिड़िया रानी-------------

कौए राजा  काँव-काँव कर
खुशी-खुशी  सबसे  बोलेंगे   
दूध, जलेबी  और   मिठाई
का ढक्कन भी खुद खोलेंगे
लेकिन  हमतो  ठंडाई   को
केवल बाय - बाय    बोलेंगे।
चिड़िया रानी-------------

समय कीमती  होता है यह
समझो प्यारी चिड़िया रानी
जो भी करना है कर  डालो
जल्दी ओढ़ो   चूनर   धानी
समय बीतने पर दावत  में
बोलो फिर हम क्या पाएंगे।
चिड़िया रानी-------------

  ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
 मुरादाबाद/उ,प्र,
 9719275453
------------------------------
 
     
होतीं सच्ची मित्र किताबें।
जीवन की हैं चित्र किताबें ।

ये मन में खुशबू भर देतीं ।
भांति-भांति की इत्र किताबें।

 'चंद्रकांता-संतति' जैसी।
होतीं बड़ी विचित्र किताबें।

नीति-रीति जीवन की बाँचें।
'पंचतंत्र'  सी मित्र किताबें।

बच्चों को प्यारी लगती हैं।
'कामिक्स' सी सचित्र किताबें।

यदि 'राघव' हैं विद्यामंदिर ।
तो समझो 'सौमित्र' किताबें ।

"मंगल भवन अमंगल हारी"
'मानस' सरिस पवित्र किताबें ।

✍️ दीपक गोस्वामी 'चिराग'
बहजोई (सम्भल)
9548812618
------------------------------------

एक  बार ये हुआ ग़ज़ब
 बच्चों अंडा चील का
गिरा मुर्ग़ी के अण्डॊ पर
मुर्ग़ियों के साथ पला बढ़ा
वो माँ मुर्ग़ी को कहता था
 ख़ुद को समझ मुर्ग़ी ही
दाने उन संग चुगता था
जितना मुर्ग़ी उड़ती थी
वो भी उतना उड़ता था
देख गगन में एक पक्षी
अचम्भित वो होता था
दूर गगन में उड़ना उसका
मन को बहुत भाता था
काश मैं भी उड़ पाऊँ इतना
ख़्याल उसे आता था
पर अज्ञानता से डरा हुआ
वो हिम्मत जुटा न पाता था
पूछा एक दिन माँ से अपनी
बतलाओ माँ आज मुझे
उस पक्षी का नाम
उड़ता जो दूर गगन में
फैला अपने पंख पसार
बेटा राजा वो आकाश का
चील है उसका नाम
उसके जितना ऊँचा उड़ना
नही है हमारा काम
चींल के उस बच्चे ने
बात मुर्ग़ी की मान ली
न उड़ पायगा वो कभी
ये सच्चाई ही जान ली
पूरा जीवन मुर्ग़ी बन
 उसने व्यतीत कर दिया
जान पाया  कभी न ख़ुद को
सीमाओं से बंध गया
देखो था जो राजा आकाश
मुर्ग़ी जीवन उसे मिल गया
इसलिए बच्चों
बात मान दूसरों की
जो ख़ुद को तुम कम आँकोगे
फिर छिपी  शक्ति अंदर जो
उसे कैसे तुम पहचानोगे
तुम छू सकते हो नभ को भी
बस अपने अंदर तुम झाँको
बंधन तोड़ो सीमाओं के
 आगे बस तुम बढ़ते जाओ
इस जीवन में कुछ नहीं असम्भव
ये बात ख़ुद को समझाओ
छूना है तुम्हें नभ को एक दिन
बस तैयारी में तुम जुट जाओ
बस तैयारी में तुम जुट जाओ

✍️  प्रीति चौधरी(शिक्षिका)
राजकीय बालिका इण्टर कालेज हसनपुर
ज़िला अमरोहा
------------------------------------

बेटा जागो सुबह हो गई।
सूरज ने किरणें बिखराईं।
चहचहा रहीं मुँडेर पर चिडियाँ।
बच्चों की टोली घर आई।

पूछ रहे बेटा सब तुमको।
कहाँ छिपा है पिंटू भाई ?
डांट रहे हैं पापा बाहर,
जल्दी जागो शामत आई।

कितनी सुंदर हवा बह रही,
फूल रही सरसों और राई।
कोयल कूक रही पेड़ों पर,
चारों ओर दिखे तरुणाई।

बेटा उठकर जल्दी नहा लो।
बहिन तुम्हारी नहाकर आई।
लाल जाग जाओ अब जल्दी,
वरना  करनी  पड़े   पिटाई

✍️ नवल किशोर शर्मा 'नवल'
बिलारी, मुरादाबाद
मो0 नं0 - 9758280028
----------------------------- 

हाथी दादा तुम कितने प्यारे,
सूंड हिलाते मन बहलाते,
सुन्दर सुन्दर दांत तुम्हारे,
चमकीले औ कितने प्यारे।
चार पैर पर चलते ऐसे
जैसे खम्भे हिलते घूमे
प्यारी छोटी पूंछ हिलाकर
बच्चों को तुम खूब हो हँसाते।
केला गन्ना भाता तुमको
शान्त मधुर स्वाभाव तुम्हारा,
रंग भलेही काला काला,
 बच्चों के तुम प्यारे राजा
हाथी दादा हाथी दादा।।
 ✍️  डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
------------------ ----------------------

ए फार एप्पल बी फार बॉल,
सर ने बताया दुनिया गोल।

सी फार कैट डी फार डॉग,
फिट रहना  हो करना योग।

ई फार एग एफ फार फैन,
बन जाओ तुम जेंटलमैन।

जी फार गन एच फार हैट,
कसरत से कम कर लो फैट।

आई फार इंक जे फार जग,
दूध पियो तुम भरकर मग।

के फार काइट एल फार लान,
सदा बड़ो का रखना मान।

एम फार मंकी एन फार नेक्स्ट,
पढ़ लिखकर बन जाओ  बैस्ट।

ओ फार आउल पी फार पैरट,
सोना अच्छा चौबिस कैरेट ।

क्यू फार कुईन आर फार राइट,
 टाई न बांधो ज्यादा टाइट।

एस फार सन टी फार टाइगर,
शाम से पहले पहुँचो घर ।

यू फार अंब्रेला वी फार वैन ,
बात बड़ो की माने ज़ैन।

डब्लू फार वाच एक्स से एक्सरे,
सोच समझकर ही निर्णय करें।

वाई फार याक ज़ेड फार ज़ू ,
कभी न   बनना अकड़ फू ।

 ✍️  कमाल ज़ैदी" वफ़ा"
सिरसी (सम्भल)
9456031926
-------------------------

मम्मी की अब गोदी छोड़ो
इधर उधर आंगन में दौड़ो
राह देखते दीदी भैया
खेलों उन संग दिल ना तोड़ो

खा रहे हो बाबा खाना
चुपके चुपके उन तक जाना
जो पसंद हो वहीं उठा कर
कुर्सी के नीचे छुप जाना

सो रही हो बुआ तुम्हारी
चाहते हो यदि उन्हें उठाना
बिस्तर कर देना बस गीला
कौने में छिप के मुस्काना

ध्यान रखो ये बात हमारी
मम्मी जब ना सुने तुम्हारी
व्यर्थ है रोना चिल्लाना
गन्दी कर दो उनकी साड़ी

मम्मी कर दें यदि पिटाई
रोके ना जब रुके रुलाई
पापा से कर दो शिकायत
बिल्कुल भी ना करो ढिलाई

पापा यदि गुस्सा हो जाएं
कहीं नहीं जब हो सुनवाई
खुली दादी दादा की कचहरी
मैं  तैयार देने को गवाही

 ✍️डॉ पुनीत कुमार
T -2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद 244001
------- ---------      ---------
      प्यारे बच्चों सुनो ध्यान से
       गलत काम ना करना तुम |
     चाहे कितनी दौलत आए ,
       अभिमान द्वेष न करना तुम|
      दौलत आती-जाती माया ,
         माेह इसके न पड़ना तुम |

    माता पिता है रूप प्रभु के ,
     मान व सेवा करना तुम |
  बड़े बुजुर्ग हैं जीवित ईश्वर,
     सदा स्नेह प्रेम से रहना तुम |
   मीठी वाणी बोल बोल कर,
        दिल में सबके रहना तुम|

   घर आए जो अतिथि रूप में,
    सम्मान प्रेम पूर्वक करना तुम|
   राष्ट्रप्रेम  है कर्तव्य हमारा ,
      राष्ट्र प्रेमी है बन रहना तुम |
 माँ, माटी और भाई बहन का,
     मित्र ,सखा बन रहना तुम |

 प्यारे बच्चों सुनाें ध्यान से
   गलत काम न करना तुम |

✍🏻सीमा रानी
 अमराेहा
7536800712
--------------------------------------
बच्चे तो बच्चे होते हैं
भोले-भाले दिल के सच्चे
धमा-चौकडी खूब मचाते
जब हँसते हैं लगते अच्छे

खेल-खिलौने, छीना-झपटी
हो बेकार कार है रपटी ।
इसका हँसना, उसका रोना
रोज चिढ़ाये कहकर चपटी

गुड़िया बहुत अभी है छोटी
नहीं चिढ़ाओ कहकर मोटी
बंद सभी को घर में रहना ।
बंद करो अब नल की टोटी ।

✍जितेन्द्र कमल आनंद रामपुर उ प्र भारत
---------------------------------- --
प्यारे सोनू सुनो तुम
संतुष्ट होना सीखो तुम।
तभी सफल हो सकोगे
संतुष्टि जब सीख सकोगे।
संतुष्ट माने प्रसन्न रहना
जो है उसमें सुखी रहना।
न देखो मोनू के खिलौने दस
तुम पे भी तो छः है न ।
सोचो उस रिंकू का जिसपर
नहीं खिलौना एक भी ।
फिर भी देखो खेलता कैसे
वह टूटे बर्तनों से ही ।
दे सको तो दे दो उसको
एक खिलौना अपना ही ।
तुम पर तब भी होंगे पाँच
खेलेगा वह भी खुशी खुशी।

 ✍️ इला सागर रस्तोगी
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश
---------------------
छोटे बच्चों की मजबूरी
मोबाइल है बहुत जरूरी ।

मोबाइल वह देखत जाती
तभी दूध है वह पी पाती ।

इसे देख तब खाना-पीना
जीवन ही बस इससे जीना ।

पढ़ना-लिखना यही सिखाता
खेल-कूद भी यह बतलाता ।

पर्दे पर अंँगुली चलती है
ढ़ूंढ़ यू-ट्यूब तब खुलती हैं ।

ट्विंकल -ट्विंकल जब सुनती है
एक्शन भी वह तब बुनती है ।

कलर की पहिचान भी सीखी
मोबाइल है सखी-सरीखी ।

मोबाइल है दुनिया सारी
सेहत पर पड़ता है भारी ।

✍️राम किशोर वर्मा
   रामपुर
-------------------------------------
***बच्चों की प्रार्थना***
हिंद देश के बच्चे हम
मन के सारे सच्चे हम
हाथ जोड़ कर गाते हैं
तुम से टेर लगाते हैं
         हे प्रभु! विनती सुन लो ना
         एक वरदान हमें दो ना!!
         खत्म करो अब कोरोना !
         खत्म करो अब कोरोना!!
सर्दी खांसी जुकाम लिये
मृत्यु का पैगाम लिये
दिन दिन बढ़ता जाता है
खत्म न होने पाता है
       करो कोई जादू टोना।
       पड़े न अपनो को खोना
       खत्म करो अब कोरोना!
       खत्म करो अब कोरोना!!
द्वारे द्वारे मौत खड़ी
विपदा है ये बहुत बड़ी
घर घर में कोहराम मचा
इस संकट से राम बचा
        भूले सब जगना- सोना
        दुखी विश्व का हर कोना
        खत्म करो अब कोरोना
        खत्म करो अब कोरोना

 ✍️ अशोक विद्रोही
      82 188 25 541
412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
----------------------------------
आओ सुबह की सैर करें
गुटर-गुटर गूँ ,गूँ गूँ   गूँ  ,
बड़े शान्त और सन्तोषी
वार्ड मैम्बर बने हुए  ,
ओंकार का नाद सुनाते
प्राणायाम में लगे हुए ,
ध्यानमग्न हो खुशी जताते
देखो कैसे नाच रहे हैं ,
थोड़े में ही खुश हो जाते
साधु विचार हैं मुखिया जी ,
कब्बू जी आज सैर पर  ।।

✍️ मनोरमा शर्मा
अमरोहा
-----------------------------
झाड़ू रानी सुबह को उठकर,
घर को स्वच्छ बनाती है ।
खोज खोजकर सारा कूड़ा,
बाहर को ले जाती है ।
यों तो यह निर्जीव वस्तु है ,
पर सीख बड़ी दे जाती है ।
आस पास हम रखें सफाई ,
सबको पाठ पढ़ाती है ।
 नित्य मलिनता रोग की जड़ है ,
 हमको यह समझाती है ।
 एक और सुन्दर सा पाठ ,
झाड़ू से हम सीखें मित्र ।
ताकतवर वो ही कहलाते ,
जो रहते हरदम एकत्र ।

✍️ डॉ प्रीति हुँकार
मुरादाबाद
------------------------------

कठिन घड़ी है प्यारे बच्चो,
होना नहीं उदास।

माना बन्धन बीमारी ने,
सब पर बहुत लगाये।
बीत गया है अरसा तुमको,
मिलकर शोर मचाये।
तन से रहकर दूर-दूर भी,
मन से रहना पास।
कठिन घड़ी है प्यारे बच्चो,
होना नहीं उदास।

तोड़ निराशा का यह घेरा,
खुद को और तराशो।
एक सुहाना कल लाने को,
सपने नये तलाशो।
अपने घर-परिवार-देश की,
तुम हो उजली आस।
कठिन घड़ी है प्यारे बच्चो,
होना नहीं उदास।

✍️ राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद

:::::::प्रस्तुति::::::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

सोमवार, 22 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की 10 कविताओं पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा----


         वाट्सएप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' की ओर से 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 20-21-22 जून 2020 को मुरादाबाद की युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट की दस काव्य रचनाओं पर  ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई ।  सबसे पहले हेमा तिवारी भट्ट द्वारा निम्न दस कविताएँ पटल पर प्रस्तुत की गईं -----
(1)

*एलबम*

नदी समय की जाये बहती।
ठहर किसी पल कभी न रहती।
न देखे कभी पीछे मुड़कर,
हर क्षण नयी कहानी कहती।

   चित्र मगर वह शिलाखण्ड है।
   समय ने जिस पर लिखा छंद है।
   दीर्घकाल तक लिखा रहेगा,
   परिवर्तन से यह स्वछन्द है।

भला वक्त यदि नहीं टिका है,
बुरा वक्त भी नहीं रहेगा।
चित्र बना ये स्मृति के पट बस,
अग्नि शिखा सा सदा जलेगा।

      यह आँकेगा व्यर्थ अहम था,
     सुख तो जल में छाया जैसा।
     दु:ख भी कहाँ रहा बलशाली,
     बदला,बदली काया जैसा।

इसीलिए हैं गये सहेजे,
सुख दुख के हर चित्र सजाकर।
यह पूंजी है जीवन भर की,
अनुभव लाया पथिक कमाकर।

(2)

*तेरे मेरे बीच*

अपरिभाषित है,
अव्यक्त है,
शब्दों के मीटर से
नापा न जायेगा,
वह बन्ध,
जो तेरे मेरे बीच है।
जितना भी रहे हम,
ख्यालों में एक दूजे के,
अपर्याप्त है,
कालातीत है,
वह वक्त,
जो तेरे मेरे बीच है।
लगता है सदियों से,
चले आ रहे हैं साथ साथ,
फिर भी चलते रहने की,
साथ साथ सदियों तक,
एक प्यास अनबुझी-सी,
तेरे मेरे बीच है|
बेरंग आंखों की चिट्ठी हो,
या थिरकती सांसों की रिंग टोन,
पढ़,सुन लेते हैं दो दिल,
ये संचार बेतार का,
आविष्कार पुराना,
अब भी....
तेरे मेरे बीच है।

(3)

*उनींदा है सूरज*

उनींदा है सूरज,
थके रास्ते हैं।
मतिभ्रम नजारे
नज़र आ रहे हैं।
घोटी हवाओं ने
भंग हर दिशा में।
नहीं फर्क दिखता,
दिवस में,निशा में।
पहरुए तमस के,
सुनो आ गये हैं।
ये बादल न बरसेंगे,
बस छा गये हैं।
भले लड़खड़ा तू,
इशारों में बतिया।
टोहते अंधेरा,
घिसटता चला जा।
समय हंसते रोते,
सभी का रहा है।
हुआ चुप जो उसको,
मिटाता रहा है।
लिखा रेत में शब्द,
कब तक रहेगा?
शिलालेख बन जा,
युगों युग पढ़ेगा।

(4)

*अन्त:करण का शव*

थक गया ढोते ढोते
मृतप्राय बोझ,
बैठ गया बीच राह
जाने क्या सोच,
वह देखने लगा है
हमराही अपने।
जो हैं थके
और भीतर से
अवसादग्रस्त।
बोझिल कदमों से घिसटते
एक बोझ लादे काँधों पर।

बोझ जो चिपटा हुआ है,
हटाये नहीं हटता।
पर वह देख रहा है,
एक आध नहीं,
पूरी भीड़ की भीड़,
उन्माद से भरी,
मुस्कुराते मुखौटे पहनकर,
लग पड़ती है दौड़ने......
अव्वल आने की होड़ में,
एक दूसरे को देखकर।

वह सोच रहा है खिन्नमना
ऐसा कैसे हो सकता है?
आखिर उन कंधों पर भी
तो लटका है
मृत अन्त:करण का शव।

(5)

*रंग के रंग*

हम देख कर यह दंग हैं।
रंग के भी कई रंग हैं।
रंग गहरा चढ़ जाता है।
रंग फीका पड़ जाता है।
रंगीन यार कोई,
रंगा सियार कोई,
कोई है उजले मन का,
पर चमड़ी का रंग काला।
कालिख किसी के मन में,
पर चेहरे पे उजाला।
मगर कुछ ऐसे भी,
जो एक ही रंग के हैं।
और कुछ बेढ़ंगे,
कई कई रंग के हैं।
कहीं महल सुनहरे हैं,
कहीं छत है आसमानी।
छप्पन रंगी कोई थाली,
बेरंग किसी को पानी।
लाल लालिमा का,
बहुतों को लहू भाया।
चूसा कहीं किसी ने,
कोई देश पे बहा आया।
धरती की चूनर धानी,
करने को कोई खपता।
सावन में हरे कंगन,
पहने कोई सँवरता।
श्वेत वस्त्र जँचते,
पर बाल भी जँचते क्या?
काजल सजे आँखों में,
पर माँग में भरते क्या?
हर रंग की यहाँ पर,
रंगीन कहानी है।
जिस रंग से मिल जाए,
उस रंग का पानी है।
रंग में विलीन होना,
कहते,नहीं गुनाह है।
पर रंग बदल लो तो,
निकलेगी दिल से आह है।

(6)

*नये साल में*

नाच रही ता थैय्या काल की करताल में।
जश्न मनाते हुए मैं,घिर गयी सवाल में।
सोचने लगी हूँ,क्या होगा नये साल में?

धरती के सीने से क्या रवि फूटेगा
या किसी निर्धन का दिल नहीं टूटेगा
खुश रह पायेगा मानव क्या फटेहाल में?
सोचने लगी हूँ क्या होगा नये साल में?

क्या प्राणी चौपाया गगन में उड़ेगा
या दिल निशंक होकर,दिलों से जुड़ेगा
क्या ये मन भोला न फँसेगा किसी जाल में
सोचने लगी हूँ क्या होगा नये साल में?

बादल का टुकड़ा क्या भू पर छायेगा
सम्भवतः नर कोई धोखा न खायेगा
जो छिपा दिल में,पढ़ेंगें क्या कपाल में
सोचने लगी हूँ क्या होगा नये साल में?

क्या वृक्ष बड़े बड़े,धावक हो जायेंगे
या पिल्ले ही सिंहशावक हो जायेंगे
जाने क्या लिख रखा है,आगत के भाल में?
सोचने लगी हूँ क्या होगा नये साल में?

(7)

*जब तक बाती है*

इस ओर से
उस ओर तक
चलना ही होगा।
जीवन को मृत्यु में
ढलना ही होगा।
उगना,अस्त होना,
फिर उग आना।
सुबह,दोपहर,
संध्या बन जाना।
कर में नहीं कुछ
रखा हुआ है,
आभिनेय वही
लिखा हुआ है।
मैं हूँ कलाकार विधि के प्रपंच का।
मैं नर्तक,मैं दर्शक रंगमंच का।
एक निष्ठुर सत्य बस मेरी थाती है,
जलना है दिये को जब तक बाती है।

(8)

*सूर्य सी ऊर्जा लिए*

   करता है रात दिन,
   वह सुपोषित मुझे,
   सूर्य सी ऊर्जा लिए।

उगता है नित्य वह,
और पार करता है,
अग्नि पथ मेरे लिए।

   ठहर कर रात भर
   क्षितिज की गोद में
   जला रहा है जो
   चाँदनी के दिए।

अंक में उसके मैं,
आँखों में उसकी मैं,
सपने सुनहरे हैं,
उसने जो बुन लिए।

   शब्दों में अवर्णित,
   बंधन सहजता का,
   प्रेम पिता का है
   शाश्वत मेरे लिए।

(9)

*रोटी और कविता*

वह देखती है
मेरी तरफ,
उम्मीदों से।
क्योंकि मैं....
लिख सकती हूँ,
रोटी।
उसने सुनी थी,
भूख पर....
मेरी शानदार रचना।
उसे कुछ समझ नहीं आया,
सिवाय रोटी के।
तब से उसकी निगाह,
पीछा करती है,
हर वक़्त मेरा।
पता नहीं क्यों,
उसे लगने लगा है,
रोटी पर लिखने वाले,
रोटी ला भी सकते हैं।
पर उसे नहीं पता
मैं खुद भी ढूँढ रही हूँ
रोटी....
इस तरह
अपने भूखे मन के लिए।
उसे देखकर मेरा मन
भर आया है।
अब नहीं करता मन,
रोटी पर लिखने का।
मैं असहाय हो गयी हूँ,
सोचती हूँ,शब्दों की पोटली से,
कविता तो निकल आयेगी,
पर रोटी......

(10)

*मुझे आरक्षण चाहिए*

रसोई के काज से,
मुझे संरक्षण चाहिए|
मैं महिला कवि हूँ,
मुझे आरक्षण चाहिए
अथवा मेरी एक पंक्ति को
सौ के सम अधिभार मिले
और मेरी तुकबन्दी को भी
ढ़ेर सारा प्यार मिले|
हर मंच पर आरक्षित मुझे
गौरव का क्षण चाहिए|
मैं महिला कवि हूँ,
मुझे आरक्षण चाहिए|
गीत लिखने से पहले,
मुझे रोटी लिखनी होती है
और चतुष्पदी मेरी
सब्जी संग भुनती रहती है|
दोहे,मुक्तक रहते बिखरे
बुहरा आँगन चाहिए|
मैं महिला कवि हूँ,
मुझे आरक्षण चाहिए|
भाव सयाने बच्चे मेरे,
रखते ख्याल हैं मेरा
निबटूँ जब चूल्हे चौके से,
सर सहलाते मेरा
वक्त पर मेरे भावों को
अनावरण चाहिए|
मैं महिला कवि हूँ,
मुझे आरक्षण चाहिए|
         
        इन कविताओं पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि "हेमा जी की रचनाएं भाव पक्ष की दृष्टि से निरंतर नयी ऊंचाइयों की ओर जा रही हैं।"
     वरिष्ठ व्यंग कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "इसमें कोई संदेह नहीं है कि हेमा तिवारी भट्ट में कविता के बीज पर्याप्त मात्रा में निवास कर रहे हैं और वह भीतर से फूट फूट कर बाहर आकर सब को ही अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं"।
      मशहूर शायरा डाॅ मीना नक़वी ने कहा कि "मुझे लगता है कि हेमा छंदबद्ध रचनाओं की अपेक्षा छंदमुक्त कविताओं में अधिक प्रभावशाली हैं"।                       मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि  “उनकी छंदमुक्त रचनाओं पर दृष्टि डाली जाती है, तो वहां एक प्रवाह दृष्टिगोचर होता है। एक लयात्मकता मिलती है, जो कविताओं को और भी रोचक बना देती है"।
      वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि "छंद मुक्त कविताओं के जरिए वे तेजी के साथ अपनी पहचान बना रही हैं। अद्भुत प्रतीकों के जरिए वह जीवन के भोगे हुए यथार्थ को उजागर करती हैं"।             मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज़ ने कहा कि "मैंने उन की रचनाओं को पढ़ा और यह जाना कि वह बारीक नज़र से संसार को पढ़ने और उसे कविता बनाने या गीत की शक्ल में गुनगुनाने का गुण जानती हैं"।
       समीक्षक डॉ मौहम्मद आसिफ़ हुसैन ने कहा कि "हेमा जी अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के चयन और उनके बरतने का भरपूर सलीका रखती हैं।"
        युवा शायर मनोज मनु ने कहा कि "हेमा तिवारी भट्ट के कविता लेखन में सकारात्मक शब्द शैली एवं भावनात्मकता का सटीक  सामंजस्य मिलता है"।
        युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि "प्रत्येक रचना किसी न किसी सामाजिक समस्या से जुड़ी हुई है, चाहे वह समस्या स्वयं के भीतर चल रहा द्वंद्व हो अथवा स्वयं से ऊपर उठकर शेष समाज में व्याप्त विषमताएं"।
        युवा शायर फ़रहत अली खान ने कहा कि "सभी कविताओं में शब्द रूपी धागे अपने-अपने केन्द्रीय भाव रूपी पेड़ के तनों के इर्द-गिर्द क़रीने से बाँधे गए हैं"।
        डॉ अज़ीम-उल-हसन ने कहा कि "हेमा जी 'मुझे आरक्षण चाहिए' के द्वारा वर्तमान समाज पर कटाक्ष भी करती है वहीं 'नए साल में' भविषय की चिंता भी करती हैं"।
        युवा गीतकार मयंक शर्मा ने कहा कि "छंदमुक्त रचनाएं लिखना और उनमें अपने पाठकों को बांधे रखना दुष्कर कार्य है लेकिन हेमा जी इसमें सफल हैं"।
       युवा शायरा मोनिका मासूम ने कहा कि "प्रिय हेमा न केवल अपने शब्दों के माध्यम से समाज को दिशा देती हैं अपितु अपने व्यक्तिगत रूप से भी जहां तक संभव हो सके लोगों का मार्ग प्रशस्त करती हैं"।           युवा कवियत्री मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि "हेमा जी पाठकों को निरंतर कर्मशील, सकारात्मक, प्रगतिशील कालातीत होने का संदेश देती हैं"।
        ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि "इन कविताओं को पढ़कर मुझे पूरा यक़ीन है कि हेमा तिवारी भट्ट का साहित्यिक भविष्य उज्जवल है। एक अलग रंग की कवियत्री मुरादाबाद को मिल गई है।"

 ✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
 मुरादाबाद 244001
मो० 7017612289

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की काव्य कृति "कड़वाहट मीठी सी" की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा ------ कड़वे यथार्थ की चित्रकारी......

      भारतीय साहित्य में व्यंग्य लेखन की परंपरा बहुत समृद्ध रही है। ऐसा माना जाता है कि यह कबीरदास, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, प्रतापनारायण मिश्र से आरंभ हुई, कालान्तर में शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, हरिशंकर परसाई, रवीन्द्रनाथ त्यागी, लतीफ घोंघी, बेढब बनारसी के धारदार व्यंग्य-लेखन से संपन्न होती हुई यह परंपरा वर्तमान समय में ज्ञान चतुर्वेदी, सूर्यकुमार पांडेय, सुभाष चंदर, ब्रजेश कानूनगो आदि के सृजन के रूप में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करा रही है, किन्तु व्यंग्य-कविता लेखन में माणिक वर्मा, प्रदीप चौबे, कैलाश गौतम, मक्खन मुरादाबादी सहित कुछ ही नाम हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में विशुद्ध व्यंग्य लिखा है। कवि सम्मेलनीय मंचों पर मक्खन मुरादाबादी के नाम से पर्याप्त ख्याति अर्जित करने वाले डॉ. कारेन्द्रदेव त्यागी की लगभग 5 दशकीय कविता-यात्रा में प्रचुर सृजन उपरान्त सद्यः प्रकाशित प्रथम व्यंग्यकाव्य-कृति ‘कड़वाहट मीठी सी’ की 51 कविताओं से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उन्होंने समाज के, देश के, परिवेश के लगभग हर संदर्भ में अपनी तीखी व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया कविता के माध्यम से अभिव्यक्त की है।
गीतों के अनूठे रचनाकार रामअवतार त्यागी की धरती पर जन्मे, पले, बढ़े मक्खनजी की सभी कविताएं स्वतः स्फूर्तरूप से सृजित मुक्तछंद कविताएं हैं छंदमुक्त नहीं हैं संभवतः इसीलिए उनकी कविताओं में एक विशेष प्रकार की छांदस खुशबू के यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरते रहने के कारण सपाटबयानी या गद्य भूले से भी घुसपैठ नहीं कर सका है। पुस्तक में अपने 15 पृष्ठीय बृहद आत्मकथ्य में अपने अनेक संस्मरणों के साथ-साथ अपनी कविता-यात्रा के संदर्भ में उन्होंने कहा भी है कि ‘कविता टेबल वर्क नहीं है। कविता हो या शायरी, वह गढ़ी-मढ़ी नहीं जाती क्योंकि गढ़ना-मढ़ना इनके धर्म नहीं हैं। ये होती तो हैं की नहीं जातीं। होने और किए जाने के अंतर को समझकर ही इन्हें बेहतरी से समझा जा सकता है। आधुनिक कविता छंद, मुक्तछंद और छंदमुक्त तीनों ही स्वरूपों में समृद्ध हुई है।’ दरअस्ल यह सत्य भी है कि कविता में व्यंग्य-लेखन आसान नहीं है क्योंकि संदर्भों और विषयों पर सृजन करने हेतु व्यंग्य-दृष्टि हर किसी रचनाकार के पास नहीं होती। कविता में व्यंग्य को जीना मतलब एक अलग तरह की बेचैनी को जीना, सामान्य में से विशेष को खोजना और साधारण को असाधारण तरीक़े से अभिव्यक्त करना होता है। हम सबने बचपन से नारा सुना है-‘हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई/आपस में सब भाई-भाई’, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है ? हर किसी को लगता है कि यह भाव अब सिर्फ़ नारे में ही सिमटकर रह गया है, व्यवहारिकता में अधिकांश जगह स्थिति उलट ही है। कृति के कवि मक्खनजी द्वारा अपनी कविता ‘मुझे अंधा हो जाना चाहिए’ में इस नारे का पोस्टमार्टम करते हुए नारे को बिल्कुल अनूठे ढंग से व्याख्यायित करना उनकी विशुद्ध व्यंग्यात्मक -दृष्टि का वैशिष्ट्य नहीं तो और क्या है-
‘तुम सवर्ण हो, अवर्ण हो तुम
तुम अर्जुन हो, कर्ण हो तुम
तुम ऊँच हो, नीच हो तुम
तुम आँगन हो, दहलीज़ हो तुम
तुम बहु, अल्पसंख्यक हो तुम
तुम धर्म हो, मज़हब हो तुम
कहने को तो नारों में भाई-भाई हो तुम
पर असलियत में
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई हो तुम’

      मक्खनजी की कविताएं पाठक और श्रोता के साथ जुड़कर सीधा संवाद करती हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से आज तक भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति भयावहता के चरम पर है। यह उस असाध्य बीमारी की तरह हो चुका है जिसका उपचार संभव प्रतीत नहीं हो रहा है, मतलब ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’। ‘मैं हूँ तब ही तो’ शीर्षक से कविता के माध्यम से अपनी अनूठी व्यंग्यात्मक शैली में मक्खनजी भ्रष्टाचार का बयान दिलवाते हैं-
‘भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार
चिल्लाते रहते हो बरखुरदार
सोचो तो, मेरी अगर बात न होती
तुम्हारी भी आज के जैसी
हरगिज औकात न होती
मेरे कारण नेताओं के
अपने-अपने रजवाड़े हैं
अधिकरियों ने राजमहल बनवाने को
जाने कितने नक्शे फाड़े हैं
कर्मचारियों के भी मंसूबे
अधिकारियों को छूते हैं
सबके बढ़े हौंसले मेरे ही बलबूते हैं
मेरे प्रति जनमानस में
इसीलिए पैदा विश्वास हुआ है
मैं हूँ तब ही तो
इतना सारा विकास हुआ है’

      सुपरिचित ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’ का एक शे’र है-‘मैं अपनी भूख को ज़िन्दा नहीं रखता तो क्या करता/थकन जब हद से बढ़ती है तो हिम्मत को चबाती है।’ यह भूख ही है जिसे शान्त करने के लिए व्यक्ति सुबह से शाम तक हाड़तोड़ मेहनत करता है, फिर भी उसे पेटभर रोटी मयस्सर नहीं हो पाती। देश में आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जो भूखे ही सो जाते हैं, वहीं कुछ लोग छप्पनभोग जीमते हैं और अपनी थाली में जूठन छोड़कर रोटियां बर्बाद करते हैं। आज का सबसे बड़ा संकट रोटी का है और चिंताजनक यह है कि व्यवस्था के ज़िम्मेदार लोगों के हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने के कारण इस समस्या का निदान दिखाई नहीं दे रहा है। ‘नेताओं का भावी प्लान’ कविता में मक्खनजी अपनी चिरपरिचित शैली में भूख की मुश्किलों और व्यवस्था की बिद्रूपताओं पर व्यंग्य कसते हैं-
‘भूख, अभी तो एक समस्या है
भविष्य में, भयंकर बीमारी बनेगी
भूख से लड़ते इंसान की लाचारी बनेगी
क्या कहा, आप रोज़ खाना खाते हो
तभी तो आए दिन बीमार पड़ जाते हो
अपनी औकात पहचान लो
चादर जितनी है उतनी तान लो
मंथली पाते हो न, मंथली खाने की आदत डाल लो’

      आज की युवा पीढी के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या बेरोज़गारी है। महँगाई आसमान पर है और जीवन-यापन के श्रोत प्रतिस्पर्धा के शिकार हैं। व्यापार करना आसान नहीं रह गया है और नौकरी पाना दूभर। सरकारी नौकरी के लिए एक पद हेतु लाखों आवेदन पहुँचते हैं और सिफारिशें भी, ऐसे में ‘चैक-बैक-जैक’ की त्रासदी झेलते ईमानदारी के मूल्यों को जीने वाले एक आम शिक्षित युवा की पीड़ा को उकेरते हुए मक्खनजी आईना दिखाते हैं समाज को अपनी कविता ‘आज़ादी के बाद की कहानी’ में-
‘मेरे देश के नगर-नगर में
एक मंजिल वाले सब
दुमंजिले, तीमंजिले, चौमंजिले और
कई-कई मंजिल ऊँचे मकान हो गए हैं
लेकिन इसमें रहने वाले
अपने अतीत को पीकर, वर्तमान को जीकर
भविष्य के प्रति निराश हो गए हैं
क्योंकि इन्हीं में एक मंजिल में बैठा
पढ़ा-लिखा नवयुवक अपनी खुली कमीज पर
बेरोज़गारी के बटन टाँक रहा है’

       एक अन्य कविता ‘बेईमानी भी ईमानदारी से’ में वह इस विभीषिका को और भी अधिक प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करते हैं-
‘मैंने ईमानदारी से तंग आकर
ज़िन्दगी को बेईमानी की ओर मोड़ा था
बिकलांगों के लिए नौकरी में प्राथमिता विज्ञापन
समाचारपत्र में पढ़कर
यह हाथ जानबूझ कर तोड़ा था
लेकिन दोस्त, वहाँ
विकलांगों की बहुत लम्बी लाइन थी
जाने कितने मेरी तरह भटके
जाने किसने नौकरी ज्वाइन की
अब आप पूछेंगे कि उसे
सचमुच हाथ तोड़ लेने पर भी
नौकरी क्यों नहीं मिली थी
क्योंकि उसने बेईमानी भी
ईमानदारी से की थी’

       मक्खनजी की कविताओं में समाज और देश में व्याप्त अव्यवस्थाओं, विद्रूपताओं, विषमताओं के विरुद्ध एक तिलमिलाहट, एक कटाक्ष, एक चेतावनी दिखाई देती है, यही कारण है कि उनकी कविताओं में विषयों, संदर्भों का वैविध्य पाठक को पुस्तक के आरंभ से अंत तक जोड़े रखता है।  संग्रह की कई कविताओं में मक्खनजी अनायास ही दार्शनिक होते हुए कुछ सूत्र-वाक्य देते हैं समाज को मथने के लिए-‘लोकतंत्र में/ज़मीन का दरकना ठीक नहीं है‘, ‘व्यवहार नहीं होते/ तो भाषा गूंगी हो जाती’, ‘कर्ज की भाँति बढ़ते हुए बच्चे’, ‘धर्मनिरपेक्षता ग़लत परिभाषित अंधा कुँआ है’, ‘सांसें हैं पर इनमें ज़िन्दगी नहीं है’, ‘हँसी का पूरा संसार बसाइए’, ‘बेईमानी भी ईमानदारी से की थी’। अपने समय के कैनवास पर कड़वे यथार्थ की चित्रकारी करतीं संग्रह की कविताएं ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ को सही अर्थों में चरितार्थ करती हैं। यहाँ यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि संग्रह की अनेक कविताएं विस्तृत चर्चा और विमर्श की अपेक्षा रखती हैं। निश्चित रूप से मक्खनजी की यह कृति ‘कड़वाहट मीठी सी’ साहित्य-जगत में पर्याप्त चर्चित होगी तथा सराहना पायेगी, यह मेरी आशा भी है और विश्वास भी।




*कृति -‘कड़वाहट मीठी सी’ (व्यंग्य कविता-संग्रह)
*रचनाकार   - डॉ. मक्खन मुरादाबादी
प्रकाशक    - अनुभव प्रकाशन, साहिबाबाद, ग़ाज़ियाबाद।
प्रकाशन वर्ष - दिसम्बर, 2019
मूल्य       - ₹ 250/-(हार्ड बाईन्ड)
समीक्षक - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
ए.एल.-49, उमा मेडिकोज़ के पीछे,
दीनदयाल नगर-।, काँठ रोड,
मुरादाबाद- 244001 (उ0प्र0)
मोबाइल-9412805981

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की काव्य कृति "आस्था के फूल" की जितेंद्र कमल आनंद द्वारा की गई समीक्षा

    "आस्था के फूल" मातृभूमि के प्रति आस्थावान पूर्वजों के प्रति श्रद्धावान देश-प्रेमी और निरन्तर सृजनधर्मी डा महेश दिवाकर द्वारा रचित  53 उत्कृष्ट रचनाओं का पठनीय संग्रह है , जिसमें कवि के ही शब्दों में देखें-
 "शब्द-अर्थ के साथ पगे हैं
यहाँ-वहाँ जो पड़े मिले हैं--
मैंने उनको अपनाया है
डुबा आस्था गंगा-जल में
भाव सुवासित फूल बने हैं"(पृष्ठ-2)

     काव्याचार्यों ने काव्य के दो पक्ष माने हैं--भाव पक्ष और कला पक्ष अर्थात् अनुभूति और अभिव्यक्ति। अनुभूति काव्य का आन्तरिक स्वरूप है, जिसे हम काव्य की आत्मा कह सकते हैं , जब कि अभिव्यक्ति उसका  वाह्य स्वरूप,  जिसे उसका कलेवर कहा जा सकता है । कवि हंस अपने दोनों पंखों पर संतुलित होकर उड़ान भरता हुआ "आस्था के फूल" काव्य-संग्रह का मनोहर प्रणयन करता है,  फलस्वरूप पाठकों के लिये प्रशंसनीय बन गया है।
      जाति -वर्गवाद-आधार  पर आरक्षण नीति के विरोध में कवि का ओजस्वी स्वर---
     जाति-पाँति के खेल खिलाकर
नेता मन में फूल रहा ।
उसे न चिंता आज देश की,
घोटालों में झूल रहा ।
आरक्षण का गरल पिलाकर,
रोज उड़े नभयान में ।
देश-धर्म सब इसने बाँटे,
फूँको इसे मकान में  ।
चुभो रहे हैं आज कील जो,
प्यार भरे जलयान में ;
उठो ! लगा दो आग , देश के--
आरक्षण अभियान में।।पृष्ठ 12।।

     मानवीय संवेदना शून्य सत्ता, कुर्सी लौलुप राजनेताओं पर करारा व्यंग्यात्मक प्रहार--
      "बाघ-भेड़िये ,अजगर- नेता
भेड़ सरीखी जनता है ।
जिंदा माँस चबाया करते
कुर्सी लोक-- नियंता हैं ।।पृष्ठ वही-12।।

     प्रेम रूपी दीपक प्रज्वलित करने की कवि-अभिलाषा---
     " दीपक प्यार के प्रतीक
      देते विश्व को संगीत ।
      प्यार तप कर सदा पले
      दीपक सबके लिये जले।।पृष्ठ-19।।

     दर्शनाभिलाषी कवि की प्रभु के प्रति सहज अनुराग की कामना--
     "चंदन- वंदन, भक्ति न जानूँ
     मीत ! सहज अनुरक्ति मानूँ
     प्रीति अनूठी तुमसे मोहन ।
     तेरी आदि शक्ति पहचानूँ।।
     हर पल तेरी राह देखते   ,
     नैन तुझे खोजा करता हैं।।पृष्ठ-20।।

     देश-प्रेमी और देश-भक्त कवि के लिए कश्मीर ही ताज, साज,श्रंगार और भारत का स्वर्ग है जिसकी आन-बान, मान- शान में कमी न आने देने के लिये उसका संकल्प दृष्टव्य है --
     " भारत माँ की शान है यह
पूर्वजों का मान है यह
गौरव गाथा है वीरों की
शोणित की पहचान है यह
कैसे हम पहिचान मिटा दें?
कैसे अपना मान लुटा दे  ?
काश्मीर है साज हमारा,
इसे नहीं हम लुटने देंगे ।
काश्मीर श्रंगार  हमारा ,
उसे नहीं हम मिटने देंगे ।।पृष्ठ-23
     देश के दुश्मनों से भारत की अखण्डता,  सम्प्रभुता और उसके स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए कवि वीर जवानों का आह्वान करता है--
     " मातृभूमि के स्वाभिमान ने
      आज हमें ललकारा है ।
      उठो ! देश के वीर बाँकुरों!
माँ ने हमें पुकारा है ।
      आज देश की सीमाओं पर
       भीषण संकट छाया है ।
       शांति लूटने इधर लुटेरा
दूर देश से आया है ।।" पृ 54।।

      देश और मानवता की व्यथा का यथार्थ चित्रण --
     " आज देश को लूट रहे हैं , रक्षक बन हत्यारे।
       त्राहि- त्राहि करती मानवता, सत्य-अंहिसा हारे।
      रोम-रोम रो रहा देश का, कैसा कलियुग आया ।
        आज तिरंगा आसमान में, सिसक-सिसक लहराया।।पृष्ठ-44।।

        "देश को अपने बचा लो" शीर्षक कविता से कवि का देश के प्रति प्रेम व्यक्त होता है---
        " देश कहीं है श्रेष्ठ धरा पर तो मेरा भारत है ।
         देश कहीं है स्वर्ग धरा पर, तो मेरा भारत है।।पृष्ठ-56।।

     इसका कारण भारत के मुनियों, तपस्वियों की तपोभूमि होना और मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम द्वारा सत्य, अहिंसा, न्याय,  मर्यादा जैसे शाश्वत मूल्यों की स्थापना कर युग --आदर्श प्रदान करना बताते हुए कवि कहता है---
       भारत के कण-कण में बसता, सत्य-अहिंसा दान ।
       यह मुनियों की तपोभूमि है, रही धर्म की खान ।।
        हुआ राम का जन्म यहाँ पर, दुनिया सारी जाने ।
         धर्म,  न्याय औ' सदाचार का ईश्वर उनको माने।
        कितने कष्ट सहे जीवन में, लेकिन व्रत क्या तोड़ा?
       युग की मानवता को जैसे मर्यादा से जोड़ा ।।" पृष्ठ-56

     इसी प्रकार से यदि "यह वतन की  धूल है" , ' वतन को तोड़ने वालों,' ' हम पुजारी शांति के हैं,' इत्यादि रचनाओं में  नवीनता की महक है, तो ' देश को अपने बचा लो,' नामक 8 पृष्ठीय कविता में देश को बचाने के लिये कवि की वेदना उर- स्पर्शी बन पड़ी है ।

        उक्त उत्तम रचनाओं के अतिरिक्त उत्तरार्द्ध में भारतीय पर्वों से सम्बंधित ' होली' और "बसंत" शीर्षक रचनाएँ हैं । " मामा जी की पाती ", , ' बहाना,' 'गुड़िया रानी,' ' बंदर की कथा,' ' किस्मत की कथा,' जैसे आठ बाल गीत बालकों के लिए शिक्षाप्रद बन पड़े हैं । यदि कवि उन्हें आत्मीयता के साथ अपने परिजनों के लिए सुंदर- सुंदर  पातियाँ लिखने की प्रेरणा देता है तो 'अति सर्वत्र वर्जयेत,' की सीख भी बच्चों को दी गई  है, यथा--
      ' बच्चों, वर्षा ही जोवन है
        जल बसुधा पर संजीवन है
        किंतु अधिकता किसी चीज की
        देखो! बन जाती दुखदायी ।'(पृष्ठ 84)

      इसी प्रकार ' दादी माँ के नाम,' और 'आस्था के फूल,' पूर्वजों का स्मरण करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि है, सादर प्रणाम है। अंत में अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा,  निष्ठा और प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति ' यह वतन की धूल है' , सच्ची सुमनांजलि है--
       ' यह वतन की धूल है
        आस्था का फूल है
        प्राण देकर भी इसे हम
        भाल पर धारण करेंगे।।पृष्ठ-64।।
     कला पक्ष : साहित्यिक-सांस्कृतिक  संचेतना  के रचनाकार  डा दिवाकर द्वारा सम्पूर्ण काव्य- संग्रह खड़ी बोली हिंदी में रचा गया है । सर्वत्र ही सरल, सुबोध और सम्बंधित विषयानुकूल भाषा होने के कारण भाषाभिव्यक्ति सहज है, जो प्रसाद , ओज एवं माधुर्य गुणों से परिपूर्ण है, तो भावों की सम्प्रेषणीयता   भी इसकी विशेषता है --
   " यदि एक आदमी ने बढ़कर
     यदि एक आदमी बचा लिया
     तो समझो ,सारा राष्टृ बचा ,
     दीपक से  दीपक जला दिया।"पृष्ठ-40।।

    यद्यपि डा दिवाकर जी की काव्य-भाषा में उर्दू के शब्द-- औकात, कीमत, इंसान, क़फ़न, आज़ादी, कूच, वासिन्दों, दुश्मन, कुर्बानी,  ख़ाक,  आगाज जैसे शब्द हैं, परन्तु सामान्य बोलचाल की भाषा में सम्मिलित हो चुके ये शब्द अखरती नहीं हैं। वास्तव में भाषा सहज , सुबोध और सरस है, कहीं- कहीं यथोचित मुहावरों से युक्त है , तो कहावतों से समृद्ध और उपालम्भ -   उक्तियों से सुसज्जित भी , यथा--
    ' पर उपदेश कुशल बहुतेरे '
    'अपने- अपने भाग्य को ही कोसते हैं लोग ' ( पृष्ठ-26)
    ' चूड़ियाँ पहनों करों में ' ( पृष्ठ 33)
    ' आँचलों में मुछ छिपाओं '( पृष्ठ 33)
    ' जम गया लोहू रगों में ' ( पृष्ठ-32)
     ' प्राण पर तुम आज खेलो ' ( पृष्ठ 34)
     ' दीपक से दीपक जला दिया'( पृष्ठ 40) इत्यादि

     यद्यपि डा महेश दिवाकर जी का ध्यान सहज भावाभिव्यक्ति पर रहा है, तथापि स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त अलंकार आदि कवि के काव्य- शिल्प के  परिचायक और उनके भावों को निकालने में सहायक ही बन पड़े हैं, यथा---
ध्वन्यात्मक अलंकार:
     " छनन-छनन चूड़ी बजती थी"( पृष्ठ:15)
      "खुल्ल-खुल्ल करती है गुड़िया"( पृष्ठ-86)
अन्त्यानुप्रास---
        " बाल-मराल नहीं अब रोते"( पृष्ठ: 18)
       " भय से तन-मन रूँध रहा है"(पृ  18)
        " चंदन-वंदन भक्ति जानूं "( पृष्ठ  20)
पुनरुक्ति प्रकाश:
        " नर्म-नर्म दादी की बाँहें"( पृष्ठ:17)
       " बड़ी-बड़ी बातें करते हैं"( पृष्ठ-24)
       " बहकी-बहकी चलती धारा "( पृष्ठ-35)
       " उसकी तुतली-तुतली बातें"( पृष्ठ- 87)
      इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि कवि ने अलंकारों ,उपमानों और प्रतीकों, को महत्त्व नहीं दिया है , जो कुछ भी है, वह उनकी सहज ही भावाभिव्यक्ति बन पड़ी है।
      यदि " होली," "बसंत" जैसी रचनाएं श्रंगार रस की अनुभूति- सी कराती हैं, तो "कुँअर साहब का कुत्ता", हास्य-रस से भरपूर है, ओज और करुण रस प्रधान रचनायें अधिक हैं तो कहीं -कहीं शांत रस की रचनाएं भी देखने को मिलतीं हैं । "दादी माँ के नाम", " मामा जी की पाती",  "बहिना गुड़िया रानी" जैसी रचनाएँ कहीं-कहीं  वात्सल्य रस की अनुभूतियाँ कराती हुयी सद् मूल्यों का संचार करतीं हैं । कुछ रचनाओं को छोड़कर सभी गेय हैं ।
      डा महेश दिवाकर जी द्वारा रचित  98 पृष्ठीय काव्य-संग्रह -"आस्था के फूल" एक श्रेष्ठ काव्य-,कृति है, जिसका हिंदी संसार में समुचित सम्मान होगा । इस सृजनात्मक सत्कर्म के लिए डा दिवाकर जी को हृदय से बधाई।




*कृति  : " आस्था के फूल" ( काव्य)
*रचयिता : डॉ महेश दिवाकर
*प्रकाशन :  चंद्रा प्रकाशन, मुरादाबाद
* प्रथम संस्करण : 1999
*मूल्य : ₹100
* समीक्षक : जितेन्द्र कमल आनंद
राष्ट्रीय महासचिव
आध्यात्मिक ,साहित्यिक संस्था काव्यधारा
रामपुर
उ प्र , भारत
मोबाइल फोन नंबर 7300635812

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता के गजल संग्रह "ये अश्क होते मोती" की जितेंद्र कमल आनन्द द्वारा की गई समीक्षा

 डॉ अर्चना गुप्ता जी का ग़ज़ल-संग्रह "ये अश्क होते मोती' मेरे हाथों में है, पृष्ठ संख्या: 99 खुलता है --
    "नज़र के पार पढ़ लेना
      हमारा प्यार पढ़  लेना
      नहीं होता सुनो काफ़ी
      कथा का सार पढ़ लेना"

    पढ़ने का प्रयास कर रहा हूँ । अपनी बात को अश्आर ( शेरों) में पिरोने का यह हुनर , उनकी शायरी में सफलता है । भाव और शब्द संयोजन के धरातल पर मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने में भी आप कामयाब हैं ; जैसा कि उनको और भी पढ़ा और पाया कि आपका यह सम्पूर्ण सृजन ही काव्य- शिल्प एवं भाव संबंधी दोनों पक्षों का सामंजस्य पूर्ण है । आपकी लेखनी कह रही है कि डा अर्चना जी एक परिपक्व सृजनकार हैं, एक अच्छी शायरा भी। यही कारण है कि आप बहुत ही सरलता से अपने जज़्बातों को व्यक्त करने में पीछे नहीं रहीं हैं ----
        " शब्द आयात निर्यात करते रहे
         यूं बयां अपने जज़्बात करते रहे

          जब मिले वो हमें, हाल पूछा नहीं
          बस सवालों की बरसात करते रहे "( पृष्ठ: 75 )

        जहाँ नि:स्वार्थ सच्चा प्रेम है,  वहाँ जंगल में भी मंगल का अनुभव होने लगता है। अभावों से उत्पन्न होने वाली दु:अनुभूतियों का स्पर्श भी नहीं हो पाता ---
       " प्यार जब से मिला, खिल कमल हो गये
          नैन तुमसे मिले फिर सजल हो गये  "
         "साथ रहकर तुम्हारे सजन आज तो
           फूस के घर भी हमको महल हो गये "( पृष्ठ संख्या: 51)

          अब न पहले वाला वह प्यार की सुगंध से सुवासित परिवेश रहा और न ही संयुक्त परिवार रहे । विघटित होकर संयुक्त परिवार एकल परिवार के रूप में आ पहुंचे हैं । इस बदलते समाज और आत्मीयता से परे परिवेश के दर्द को अनुभव किया है डा अर्चना गुप्ता जी ने और जिया है इस वेदना को ---
   " कहानी है न नानी की,नसीहत भी न दादी की
    हुए हैं आजकल एकल यहाँ परिवार जाने क्यों"(पृष्ठ  )

     यही कारण है कि लाडली बेटी को अपने पापा बहुत याद आते हैं । खो जाना चाहती है वह  उन यादों में जहाँ उसे आत्मीयता,  स्नेह, परवरिश, संस्कार मिले थे और मिली थी आत्मनिर्भर स्वाभिमानी ज़िंदगी जीने के लिए----
      "तुम्हें ही ढ़ूढ़ती रहती तुम्हारी लाडली पापा
      तुम्हारे बिन हुई सुनी बहुत ये ज़िंदगी पापा
      सिखाया था जहाँ चलना पकड़ कर उँगलियाँ मेरी
     गुजरती हूँ वहाँ से जब बुलाती वो गली पापा "( पृष्ठ:3 )

        आशावादी दृष्टिकोण लिये--
   " देखिये नफ़रतें भी मिटेंगी यहाँ
     प्यार का एक दीपक जला  लीजिये ( पृष्ठ:36)
   
      मनचाहा प्यार पाने का अहसास किसी खज़ाने से कम नहीं---
     " अर्चना" उनकी मुहब्बत क्या मिली
      हाथ में जैसे खज़ाना आ गया "( पृष्ठ:39)

      यथार्थ के धरातल का स्पर्श करती यह ग़ज़ल भी प्रशंसनीय है---
     " लाख ख़ामोश लब रहें लेकिन
       आँसुओं से वो भीग जाते हैं "( पृष्ठ 45)

     जो दूसरे के दिल में हुए गहरे जख़्म अहसास कर उसे शब्दों में पिरो दे , वह सच्चा फ़नकार है --
     " झाँक कर दिल में जो देखा जख़्म इक गहरा मिला
       आँख में पर आँसुओं का सूखता दरिया मिला "( पृष्ठ: 52 )

    डा अर्चना गुप्ता जी  एक शायरा के रूप में कहीं अकथ कथा के दर्द को जीतीं हैं तो कहीं दूसरे में वो व्यथा- सरिता को चरम पीड़ा से सूखती देखतीं हैं ; कहीं आप ग़ज़लों में श्रंगार के संयोग- वियोग भावों को शब्दायित करतीं हैं तो कहीं आपकी कलम अपने अहसासों को तल्ख़ी के साथ उकेरती भी है। आपकी सभी ग़ज़लें सरल, सहज, बोध-गम्य, और साफ- सुथरीं हैं ।ऐसे ग़ज़ल संग्रह:" ये अश्क होते मोती " का हृदय से स्वागत है । डा अर्चना गुप्ता जी को हार्दिक शुभकामनाएं और लिखें, कृतियाँ प्रकाशित हों और उनका स्वागत हो । आप स्वस्थ और दीर्घायु हों । वह फिर  प्यार के सागर में डूब कर यूं कहें ---
   " हम जो डूबे प्यार में तो शायरी तक आ गये "
   शुक्रिया


*कृति: ये अश्क होते मोती (ग़ज़ल संग्रह )
*रचनाकार:  डा अर्चना गुप्ता
*प्रकाशक: साहित्यपीडिया पब्लिकेशन
*प्रथम संस्करण : वर्ष 2017
*मूल्य: 199₹
**समीक्षक : जितेन्द्र कमल आनंद
राष्ट्रीय महासचिव एवं संस्थापक
आध्यात्मिक साहित्यिक संस्था काव्यधारा,  रामपुर
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल: 7300635812