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शनिवार, 14 नवंबर 2020
मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार मुजाहिद चौधरी की रचना --चलो मनों में दिए जलाएं ,चलो घरों में दिए जलाएं ।-
चलो मनों में दिए जलाएं ।
चलो घरों में दिए जलाएं ।।
चलो चांद से मिल के आएं ।
चलो गगन में दिए जलाएं।।
आशा और विश्वास जगाएं ।
चलो अंधेरा दूर भगाएं ।।
चलो मोहब्बत सब में बांटे ।
चलो सभी को गले लगाएं ।।
नफरत का हर शब्द मिटाएं ।
प्रेम-भाव सद्भाव बढ़ाएं ।।
आओ मिलकर दिए जलाएं ।
आओ यूं दिवाली मनाएं ।।
✍️मुजाहिद चौधरी, हसनपुर ,अमरोहा
मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की गीतिका --दूर हो मन के अँधेरे अब सभी के दीप ऐसे मैं जलाना चाहती हूँ ।
प्यार के दीपक जलाना चाहती हूँ
दुश्मनी लौ से जलाना चाहती हूँ ।।1।।
दूर हो मन के अँधेरे अब सभी के
दीप ऐसे मैं जलाना चाहती हूँ ।।2।।
लौट आयें रूठकर जो भी गये हैं
देहरी ऐसे सजाना चाहती हूँ ।।3।।
याद आती है मुझे बचपन परी की
चाँद को आँगन बुलाना चाहती हूँ ।।4।।
बरस बीते जागते ,सोयी नही जो
ख़्वाब से उसको जगाना चाहतीं हूँ।।5।।
✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा
शुक्रवार, 13 नवंबर 2020
गुरुवार, 12 नवंबर 2020
मंगलवार, 10 नवंबर 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पुष्पेंद्र वर्णवाल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एटा की साहित्यिक संस्था "प्रगति मंगला" की ओर से साहित्यिक परिचर्चा
वाट्सएप पर संचालित साहित्यिक समूह "प्रगति मंगला",एटा की ओर से प्रत्येक शनिवार को "साहित्य के आलोक स्तम्भ" कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है । इसके तहत याद किया जाता हैं दिवंगत साहित्यकारों को। इसी श्रृंखला में शनिवार 7 नवंबर 2020 को मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार , इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता पुष्पेंद्र वर्णवाल जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आयोजन किया गया । मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी के संयोजन और जे.एल.एन. कॉलेज के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष आचार्य डॉ प्रेमी राम मिश्र जी की अध्यक्षता में पटल प्रशासक नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा मां सरस्वती को नमन और दीप प्रज्ज्वलन के साथ कार्यक्रम आरम्भ हुआ। यह कार्यक्रम 7 नवंबर पूर्वाह्न 11 बजे से 8 नवंबर पूर्वाह्न 11बजे तक जारी रहा। पटल के संस्थापक बलराम सरस और प्रशासक नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा आभार अभिव्यक्ति से कार्यक्रम का समापन हुआ। कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि प्रख्यात साहित्यकार, इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता पुष्पेंद्र वर्णवाल का जन्म मुरादाबाद नगर के नबावपुरा मोहल्ले में 4 नवंबर 1946 को हुआ था । श्री पुष्पेंद्र वर्णवाल न केवल एक उल्लेखनीय साहित्यकार थे बल्कि एक इतिहासकार और पुरातत्व वेत्ता भी थे। मुरादाबाद जनपद के इतिहास के संबंध में उनके खोजपूर्ण लेख अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए । श्री पुष्पेंद्र वर्णवाल की कृतियों में मुक्तक संग्रह- रिमझिम, लघु काव्य - अभीक, ऋषि, खण्डकाव्य - शब्द मौन , विराधोद्धार, प्रबंध काव्य - उत्पविता, सिंधु विजय, गीत- विगीत संग्रह- प्रणय दीर्घा, प्रणय योग, प्रणय बंध, प्रणय प्रतीति, प्रणय परिधि, प्रणय पर्व, नाट्य वार्तिक- बीज और बंजर जमीन, कविता संग्रह - अबला,इतिहास- ब्रज यान की आधार भूमि, समीक्षा- विजय पताका एक विहंगम दृष्टि ,निबंधकार महामोपाध्याय पंडित रघुवर आचार्य , उपन्यास - रामानन्द बाल विरद उल्लेखनीय हैं। आपकी मुरादाबाद के शिक्षण संस्थान, मुरादाबाद के पूजा स्थान और बलि विज्ञान नामक तीन कृतियों का जापानी भाषा में अनुवाद ओसाका(जापान) निवासी प्रसिद्ध हिंदीविद डॉ कात्सुरा कोगा द्वारा किया जा चुका है ।इसके अतिरिक्त आपकी कृति विरोधोद्धार का डॉ भूपति शर्मा जोशी द्वारा संस्कृत और शब्द मौन का ऋषिकांत शर्मा द्वारा अंग्रेजी में अनुवाद हो चुका है । आपकी कुछ कहानियों व लघुकथाओं का गुजराती व पंजाबी भाषा में भी अनुवाद हुआ है । आपके कृतित्व पर शोध प्रबंध - प्रणय मूल्यों की अभिव्यक्ति :नूतन शिल्प विधान (पुष्पेंद्र वर्णवाल के काव्य लोक में) -जय प्रकाश तिवारी 'जेपेश', पुष्पेंद्र वर्णवाल के विगीत-एक तात्विक विवेचन -डॉ कृष्ण गोपाल मिश्र, कवि पुष्पेंद्र वर्णवाल और उनका साहित्य - डॉ एस पी शर्मा, विगीत और प्रेयस- राजीव सक्सेना प्रकाशित हो चुके हैं । आपका पत्रकारिता के क्षेत्र में भी एक उल्लेखनीय योगदान रहा ।आपने प्रदेश पत्रिका का संपादन, चित्रक साप्ताहिक का समाचार संपादन किया तथा सिने पायल, फिल्मी जागृति , सागर तरंग के प्रबंध संपादक रहे । विश्व हिंदू सम्मेलन काठमांडू नेपाल द्वारा सन 1982 में, साहू शिव शक्ति शरण कोठीवाल स्मारक समिति मुरादाबाद द्वारा सन 1988 में , हैदराबाद हिंदी अकादमी द्वारा वर्ष 1992 में, जगद्गुरु रामानंदाचार्य पीठ अहमदाबाद द्वारा वर्ष 1994 में, उत्तरकाशी की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था सृजन द्वारा वर्ष 2004 में, तथा हिंदी साहित्य संगम मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2005 में उन्हें सम्मानित भी किया गया।
आचार्य डॉ प्रेमी राम मिश्र ने कहा - सुनाम धन्य पुष्पेंद्र वर्णवाल जी का कृतित्व चमत्कृत करता है। आप मात्र कवि के रूप में ही विख्यात नहीं रहे हैं ,अपितु कला, संस्कृति ,इतिहास, पुरातत्व ,लुप्त साहित्य के सुधी अन्वेषक आदि के रूप में भी आपने अप्रतिम प्रशंसा अर्जित की है। विविध क्षेत्रों में इतना चिंतन और अनुशीलन अविश्वसनीय सा प्रतीत होता है ।आपकी तत्वान्वेषी प्रतिभा ने साहित्य की महती सेवा की है। गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण जी का यह कथन आप पर पूर्णतः चरितार्थ होता है -कीर्तिःयस्य सः जीवति अर्थात् जिसका यश जीवित है उसी के जीवन की सार्थकता है । आपने कवि के रूप में अतिशय ख्याति अर्जित की है ।आपका प्रचुर काव्य- साहित्य इसका प्रमाण है । आपके द्वारा विरचित प्रचुर साहित्य मुग्ध करता है ।आप एक श्रेष्ठ कवि के रूप में तो प्रतिष्ठित रहे ही निबंध, नाटक, कहानी, उपन्यास, समीक्षा आदि के द्वारा भी अपनी लेखिनी की सामर्थ्य का बोध कराते रहे। विगीत विधा के ततो वे उद्गाता- जन्मदाता हैं ।इंदौर के सुविख्यात कवि -साहित्यकार चंद्र सेन विराटजी ने आपकी विगीत विधा की भूरि भूर प्रशंसा की है। कविता केवल कोरा शब्द व्यापार नहीं है ,उसमें संवेदनात्मक विचारों का संगुफन होना अनिवार्य होता है। जब कविता में शांत, विनम्र ढंग से हल्का तनाव या कंपन संगठित शिल्प के माध्यम से अभिव्यक्त होता है, तो वह सहृदय पाठक को अभिभूत किए बिना नहीं रहती। आपकी कविता अपनी अंतर्वस्तु और संवेदनात्मक अनुभूति के कारण मार्मिक प्रभाव स्थापित करती है। ऐसे महान् साहित्यकार से परिचय कराने वाले मुरादाबाद के यशस्वी ब्लॉगर, पत्रकार, साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी जी ने प्रगति मंगला पटल को धन्य कर दिया है। वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने कहा -स्मृति शेष पुष्पेन्द्र वर्णवाल एक जीवट व्यक्तित्व के सशक्त साहित्यकार थे ।इनका जन्म 4 नवम्बर 1946 को हुआ था।पुष्पेन्द्र जी को किसी एक विधा में बांधकर नहीं रखा जा सकता। उन्हें पुरातत्ववेत्ता , गीतकार, समीक्षक, अनुवादक,फ़िल्म पत्रकार, कहानीकार, इतिहासकार, लघुकथाकार , ज्योतिष आचार्य आदि के रूप में जाना जाता है । पुष्पेन्द्र जी को हिंदी साहित्य जगत में " विगीत " के जन्म दाता के रूप में भी जाना जाता है। अनेक लेखकों ने उनको विगीत के जनक के रूप में कोड किया है।इसके अतिरिक्त पुष्पेन्द्र जी प्रणय गीतों के रचियता के रूप में भी एक अलग स्थान रखते थे। उन्होंने अपनी काव्यात्मक श्रद्धांजलि कुछ इस तरह व्यक्त की ---
समकालिक लेखक पुष्पेंद्र गीतकार
जनक हैं विगीतों के प्रेयस सुविचार
आजीवन कविता कर नाम यश कमाया
हिंदी के सेवक को फक्कड़पन भाया
महानगर की धरती पर बोया प्यार
अनुजों पर स्नेह भाव अग्रज को आदर
सत्य निष्ठ रहे, नमन सबको ही आदर
जोड़कर जिए मन से हर मन के तार
युवा लेखकों के तो रहे पथ प्रदर्शक
यदि- गति छंदों में भी बनकर संशोधक
प्रेरित कर बना दिया है रचनाकार
पटल के संस्थापक बलराम सरस ने कहा - कवि वर्णवाल जी ने गीत की एक नई विधा को जन्म दिया जिसे विगीत कहा गया। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व थे। छन्द के हर विधान पर उनका सृजन हुआ है। अनेकानेक पुस्तकें प्रकाशित हुई जो हिन्दी साहित्य में अपना योगदान करने की सामर्थ्य रखती हैं। वर्णवाल जी भी फक्कड़ स्वभाव के व्यक्ति थे ।
चर्चित नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा - मुरादाबाद के महत्वपूर्ण साहित्यकार थे कीर्तिशेष उमेशपाल वर्णवाल 'पुष्पेन्द्र' जी जिन्होंने गीत, मुक्तक, दोहे सहित कविता के अन्य अनेक प्रारूपों में तो प्रचुर मात्रा में सृजन किया ही, गद्य की भी अनेक विधाओं में महत्वपूर्ण सृजन किया. वह एक समर्थ रचनाकार तो थे ही, साहित्य के अतिरिक्त अन्य कई विषयों के प्रकांड विद्वान भी थे. इतिहास और ज्योतिष के संदर्भ में उन्हें वृहद ज्ञान था और वह अपने तर्कों के समर्थन में तथ्यात्मक प्रमाणों के साथ बहस करने से भी पीछे नहीं हटते थे. यह कहा जाता है कि जब गीत की विकास यात्रा नवगीत की ओर तेज़ी से बढ़ रही थी और नवगीत नई कविता के बरक्स एक आन्दोलन का रूप ले रहा था, उस समय उन्होंने गीत के परिमार्जित स्वरूप "विगीत" का आविर्भाव किया. "पुष्पेन्द्र वर्णवाल के विगीत" शीर्षक से उनका एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ था. अनेक कार्यक्रमों में उनके सान्निध्य और आशीर्वाद प्राप्त करने का सौभाग्य भी मिला.वरिष्ठ कवियत्री डॉ प्रेमवती उपाध्याय ने कहा कि पुष्पेंद्र वर्णवाल साहित्याकाश में एक विरल नक्षत्र थे । वह एक महान पुरातत्ववेत्ता, विज्ञान सम्मत अध्यात्म के समर्थक, ऐतिहासिक ग्रन्थों व मनीषियों के अपूर्व अद्भुत शोधकर्ता ,यायावर, ग्रह नक्षत्रों की ज्यामिति फलित ज्योतिष पर अनूठी पकड़ रखने वाले, सनातन धर्म के सच्चे साधक समर्थक,ऋषि परम्परा के पथानुरागी थे। वह हिंदीभाषा के प्रकाण्ड विद्वान तो थे ही विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारणअंग्रेजी भाषा पर भी उनकी खासी पकड़ थी परन्तु दैनिक व्यवहार में उन्होंने कभी अंग्रेजी का प्रयोग नही किया । स्वभाव से अद्भुत स्वाभिमानी थे। मिलिट्री की परीक्षा उतीर्ण कर मात्र इसलिए त्याग दी क्योंकि उन्होंने माता ,पिता और हिंदी की सेवा करना प्रथम धर्म समझा। ततपश्चात नगर निगम की जन्म मृत्यु विभाग में लिपिक पद पर कार्य किया । सेवा निवृत्त होने के कुछ माह पूर्व ही अपने स्वाभिमान को सुरक्षित रखते हुए उसे भी त्याग दिया । हिंदी साहित्य में हर छंद विधा पर उनकी लेखनी पारंगत थी अनेकानेक पुस्तकों का सम्पादन ,भूमिकाएं उनके द्वारा लिखी गयी । मेरे भी दो काव्य संग्रह में उनका अमिट आशीर्वाद है । कई शोध भी उन पर हुये हैं । उनके द्वारा रचित गीत, विगीत और महाकाव्य जीवन के पथप्रदर्शक का कार्य भली भांति करने में सक्षम हैं।
बदायूं के वरिष्ठ साहित्यकार उमाशंकर राही ने कहा कि साहित्यक परिचर्चा के अंतर्गत स्मृति शेष विभूतियों को पटल के माध्यम से समाज के सामने लाने का कार्य निरंतर चल रहा है यह देखकर बहुत प्रसन्नता होती है । क्योंकि दिवंगत साहित्यिक विभूतियों को खोजना और खोज करके उनके संबंध में जानकारी हासिल करना उनके परिकर के लोगों को खोजना और उनसे उनके विचार लेना यह अपने आप में बड़ा कार्य है । स्मृति शेष पुष्पेंद्र वर्णवाल जी के साहित्य को पढ़कर के लगा कि वह इस धरातल से जुड़े साहित्यकार थे कविता के साथ साथ प्राकृतिक सम्पदा से उन्हें बहुत लगाव था वह एक अच्छे पुरातत्ववेत्ता भी थे ।
रामपुर के वरिष्ठ साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा साहित्यिक मुरादाबाद वाट्स एप समूह के माध्यम से मेरा संपर्क आदरणीय श्री पुष्पेंद्र वर्णवाल जी से हुआ । डॉक्टर मनोज रस्तोगी जी इस समूह के संचालक है तथा मैं उसमें लेख कविता आदि लिखता रहता था । पुष्पेंद्र वर्णवाल जी मेरे लेख को गंभीरता से पढ़ रहे हैं , इसका पता मुझे तब चला जब उन्होंने एक सुंदर मार्मिक तथा पीठ थपथपाती हुई प्रतिक्रिया के साथ मुझे अवगत कराया । पुष्पेंद्र वर्णवाल जी का पत्र- प्रतिक्रिया पढ़कर मैं आनंदित हो गया। सोचने लगा ,यह व्यक्ति असाध्य रोग से पीड़ित होते हुए भी परमानंद से भरा है। यह जीवन को सौ वर्षों से अधिक समय तक जीने की इच्छा रखता है । इसमें उत्साह ,उमंग और उल्लास कूट - कूट कर भरा है । यह निश्चित रूप से हम सब के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनकी प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त आशीर्वाद को जब भी पढ़ता हूँ,तो मन द्रवित हो जाता है कि हिंदी साहित्य के तथा अध्यात्म के इस महान विद्वान का आशीष मुझे मिला और मैं धन्य हो गया ।
नई दिल्ली की कवियत्री आशा दिनकर आस ने कहा - हम सौभाग्यशाली हैं जो स्मृतिशेष पुष्पेंद्र वर्णवाल जी का लेखन पढ़ पा रहे हैं | इस हेतु आदरणीय डाक्टर मनोज रस्तोगी जी, आदरणीय बलराम सरस जी और नीलम कुलश्रेष्ठ जी का बहुत बहुत आभार कि आप सब के प्रयासों से यह संभव हो सका |
आगरा के साहित्यकार विजय चतुर्वेदी विजय ने कहा कि जिस व्यक्तित्व से अधिकतर सदस्य अपरिचित थे उनके बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए पटल के संयोजक वास्तव में साधुवाद पात्र हैं। इस कार्यक्रम की जितनी प्रसंसा की जाय कम हैगाजियाबाद की कवियत्री सोनम यादव ने कहा कि परिचर्चा में मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति-शेष पुष्पेन्द्र वर्णवाल के बारे में पढा, उनके मुक्तक और गीत पढे । मन मुदित हो गया । अपने उन महान विभूतियों के बारे में सुनकर पढकर लगता है कि कितना शेष है पढना, सुनना, जानना जो हमारे कितने नजदीक है जिनके भाव,शब्द गीत, मुक्तक। एक-एक शब्द अनमोल है।
मुरादाबाद के साहित्यकार अनिलकान्त बंसल ने कहा -----
अंत में पटल की प्रशासक गुना (मध्य प्रदेश) की साहित्यकार नीलम कुलश्रेष्ठ ने कहा - साहित्य के आलोक स्तंभ के अंतर्गत इस साहित्यिक परिचर्चा के केंद्रीय व्यक्तित्व सांस्कृतिक व साहित्यिक संस्कारों से युक्त मुरादाबाद के धरती से जुड़े श्रद्धेय कीर्ति शेष श्री पुष्पेंद्र वर्णवाल जी बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी थे। साहित्यकार, इतिहासकार, ज्योतिष्विद्, पुरातत्ववेत्ता, पत्रकार, फिल्मी पटकथा लेखक और भी न जाने कितने क्षेत्रों में गतिशील रहे और *विगीत* नई काव्य विधा के सृजेता और प्रवर्तक पुष्पेंद्र जी के व्यक्तित्व के वैराट्य से परिचित होने का अवसर सभी पटल- पाठकों को मिला। इसके लिए डॉ मनोज रस्तोगी जी भूरि भूरि प्रशंसा के अनुकरणीय पात्र हैं।
रविवार, 8 नवंबर 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज का आलेख ----- "कृष्णबिहारी ‘नूर’ : संतत्व को प्राप्त व्यक्तित्त्व"
::::::: आज जन्मदिन पर विशेष::::::::
गेहुँआ रंग, उभरा हुआ माथा, काले रँगे हुए बाल, क्लीनशेव चेहरा, होंठों पर निरन्तर तैरती मुस्कान, हर समय कुछ न कुछ खोजती रहने वाली चमकदार आँखें; ये सब बातें यदि किसी अच्छे चित्रकार को बता दी जाएँ तो वह अपनी तूलिका से जो चित्र तैयार करेगा, वह निस्सन्देह श्री कृष्णबिहारी ‘नूर’ का होगा। चूड़ीदार पाजामा, ढीला कुर्ता और उस पर जैकेट पहने नूरसाहब जब मुशायरों और कवि-सम्मेलनों के मंचों पर जाते, तो पहली नज़र में ही ऐसा लगने लगता था कि जैसे लखनवी नज़ाकत और नफ़ासत सिमटकर उनकी आग़ोश में आ गयी हो। कपड़ों पर यदि तनिक भी दाग़-धब्बा लग गया, तो तुरन्त ही पोशाक बदलते थे। रहन-सहन, खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने के मामले में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनके व्यक्तित्व, बोलचाल और रहन-सहन में लखनऊ की वह तहज़ीब बसती थी, जो आज उँगलियों पर गिने जाने वाले लोगों को ही मयस्सर है। नूरसाहब के व्यक्तित्व और सबको साथ लेकर चलने वाली उनकी जीवनशैली से प्रभावित लोगों का एक बड़ा समूह है। हालाँकि आज शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसका कोई विरोधी न हो, लेकिन मैं यह देखता था कि उनके विरोधी उनके सामने आते ही इस प्रकार हो जाते थे, जैसे मैगज़ीन के पन्ने ट्रेन की खिड़की से आती हवा में फड़फड़ाकर अपनी खीझ प्रकट करते हैं।
उनकी दोस्ती हर धर्म और हर वर्ग के लोगों से थी और वह इस बात का ख़याल भी रखते थे कि बातचीत के दौरान कहीं किसी को भावनात्मक ठेस न पहुँचे। एक घटना मुझे याद आ रही है। मैं नूरसाहब के साथ ही उनके ड्राइंगरूम में बैठा हुआ था। तभी उनके एक परिचित आये और अपनी कम्पनी का नववर्ष का कलेण्डर ड्राइंगरूम में टाँग दिया। नूरसाहब ने जब देखा कि कलेण्डर पर देवी-देवताओं के चित्र हैं, तो उनसे बोले-‘‘भई देखो हमारे ड्राइंगरूम में हर मज़हब के लोग आते हैं। इस कलेण्डर को देखकर हो सकता है किसी को ठेस पहुँचे, इसलिए इसे घर के भीतर टाँग दो और ड्राइंगरूम के लिए कोई ख़ूबसूरत सीनरी ले आओ।’’ यह था नूरसाहब का व्यक्तित्व और उनकी भावना।
नूरसाहब समय का बहुत ख़याल रखते थे। अगर मिलने के लिए किसी को समय दिया है, तो निश्चित समय पर उस व्यक्ति की प्रतीक्षा करते थे। यदि अकारण ही वह व्यक्ति विलम्ब से आये तो उसे नूरसाहब की नाराज़गी सहनी पड़ती थी।
नूरसाहब वादे की क़ीमत भी जानते थे और अहमियत भी। यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता ही थी कि बाज़ार में जो चीज़ उन्हें पसन्द आ गयी, उसे ख़रीदते समय कभी उसका मूल्य नहीं पूछा, कभी मोल-भाव नहीं किया। दुकानदार ने क़ीमत बताई और नूरसाहब ने चुकता करदी। नूरसाहब के ही एक मित्र बताते हैं कि वह और नूरसाहब लखनऊ में मीना बाज़ार में घूम रहे थे। तभी एक दुकान पर उन्हें शोकेस में रखा कपड़ा पसन्द आ गया। नूरसाहब दुकान पर गये, कपड़ा लिया और दुकानदार द्वारा बतायी गयी क़ीमत चुका कर चल दिये। थोड़ी दूर जाकर उनके मित्र ने कहा- ‘‘नूरसाहब, अगर आप कुछ मिनट ठहरें तो यही कपड़ा उसी दुकान से मैं कम क़ीमत पर ला सकता हूँ।’’ यह सुनकर नूरसाहब हँसे और बोले- ‘‘यह काम तो हम भी कर सकते थे, लेकिन पसन्द आयी चीज़ का मोलभाव करना पसन्द की तौहीन है।’’ यह थी नूरसाहब की विशेषता और मूल्यों का रखरखाव। क्रोध के क्षणों में भी उनके होंठों पर कभी अमर्यादित शब्द नहीं आये।
नूरसाहब बहुत विनम्र और सरल स्वभाव के सादगीपसन्द व्यक्ति थे। असल में यही सादगी और विनम्रता उनकी शायरी का केन्द्र है। नूरसाहब ने निरन्तर सफलता की ऊँचाइयों को छुआ, लेकिन अपनी ज़मीन को, अपने आधार को कभी पाँवों से नहीं खि़सकने दिया। जहाँ उन्होंने बड़ों को सम्मान दिया, वहीं छोटों को बेपनाह मुहब्बतें दीं, प्यार लुटाया। यह उनके व्यक्तित्त्व का बड़प्पन था। शायद इन्हीं सब बातों ने उन्हें साधारण इंसान से सन्त की श्रेणी में ला खड़ा किया।
नूरसाहब के व्यक्तित्त्व के सम्बन्ध में प्रसिद्ध इतिहासकार डा. योगेश प्रवीन कहते हैं- "20वीं सदी के अज़ीम शायर कृष्णबिहारी ‘नूर’ साहब एक बड़े शायर ही नहीं, एक आला दरजे की इंसानियत का मर्तबा रखने वाले इंसान थे। उनके पास अच्छी निगाह थी, रेशमी अहसास थे और सुनहरी क़लम थी, जिससे उन्होंने जो कुछ भी लिखा वो अमर हो गया। उन्होंने फूल की पंखुड़ियों पर भी लिखा है, चाँदनी की सतह पर भी लिखा है और सबसे बड़ी बात है कि हमारे आपके दिल के वरक़ पर भी लिखा है।’’
झाँसी से प्रकाशित ‘मार्गदर्शक’ साप्ताहिक की लेखमाला में श्री ओमशंकर ‘असर’ लिखते हैं- "नूरसाहब ज़िन्दगी में बहुत आम आदमी हैं, मगर शायरी में वे असाधारण ही हैं। साधारण और असाधारण दोनों गुण एक साथ अगर देखने हों, तो नूरसाहब का व्यक्तित्व और फिर उनकी शायरी का मज़ा लें। आम-फ़हम होने के नाते वे बहुत सादा ज़ुबान अपने शेरों में पिरोते हैं और असाधारण होने के नाते उनके विचार बहुत गहरे भी हैं और ऊँचे भी।’’
यक़ीनन नूरसाहब जितने बड़े शायर थे, उतने ही बड़े इंसान भी। उनके व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व में अन्तर तलाश पाना असम्भव है। मैंने स्वयं कविसम्मेलन और मुशायरों के मंचों पर देखा है कि नये से नये शायर ने अगर अच्छी कविता लिखी है, तो उसे भरपूर प्रोत्साहित किया करते थे, जबकि बड़े से बड़े शायर की नीरस और अर्थहीन कविता पर वे ख़ामोशी ओढ़ लिया करते थे। अपने से बड़ों को भरपूर सम्मान देना तथा छोटों से बड़े प्यार के साथ मिलना उनके व्यक्तित्त्व का विशेष गुण था।
नूरसाहब का लेखन चूँकि अध्यात्म और भारतीय दर्शन पर आधारित है, इसलिए उनकी कविता के चाहने वालों में बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों की संख्या अधिक है। इस बात को नूरसाहब बख़ूबी जानते थे और इसकी पुष्टि एक छोटे से संस्मरण से भी हो जाती है-
बात सन् 1990 की है। मैं मुरादाबाद के ही महाराजा हरिश्चन्द्र डिग्री कालेज से उर्दू में एम.ए. कर रहा था। यूँ कहिये कि एम.ए. के द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने के बाद मैं ‘वायवा’ के लिए कालेज गया था। जैसे ही मेरा नम्बर आया और मैं कमरे में दाखि़ल हुआ तो वहाँ उर्दू विभागाध्यक्ष साबिर हसन साहब ने परीक्षक महोदय से मेरा परिचय कराया- सर, ये मिस्टर कृष्णकुमार हैं और हमारे कालेज के अकेले नाॅन मुस्लिम कैंडिडेट हैं।
परीक्षक महोदय ने बड़े प्यार के साथ कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा- तशरीफ़ रखिये। मैं कुर्सी पर बैठ गया, लेकिन दिल धड़क रहा था कि कहीं वह कोई ऐसा सवाल न पूछ बैठें जो मुझे नहीं आता हो। तभी उन्होंने कहा- ‘आप किसी शायर के दो शेर सुनाइये।’ मैंने उनसे निवेदन किया- सर, अगर आप इजाज़त दें, तो मैं अपने ही दो शेर पेश कर दूँ। उन्होंने ख़ुश होते हुए पूछा- क्या आप भी शेर कहते हैं? मैंने कहा- जी सर, थोड़ी-बहुत जोड़-तोड़ कर लेता हूँ। वह बोले- सुनाइये। मैंने धड़कते दिल से दो शेर सुना दिये। सुनकर बोले- वाह-वाह, दो शेर और सुनाइये। मैंने दो शेर और सुना दिये। उन्होंने फिर दाद दी और पूछा- आप इसलाह किनसे लेते हैं? मैंने कहा- जनाब कृष्णबिहारी ‘नूर’ से।
यक़ीन जानिये, नूरसाहब का नाम सुनते ही वे दोनों हत्थे पकड़कर कुर्सी से खड़े हो गये और बोले- "अरे भई! वाह-वाह, आपने उस्ताद के रूप में ऐसे शायर का इन्तख़ाब किया है, जो अपने तरीक़े का हिन्दुस्तान का अकेला शायर है। शुक्रिया, आपका वायवा हो गया।" मेरी सारी मुश्किल आसान हो गयी।
शायर मेराज फ़ैज़ाबादी नूरसाहब को चचा कहते थे और उनका बड़ा सम्मान करते थे। नूरसाहब भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। मेराज साहब का नूरसाहब के व्यक्तित्त्व के प्रति अद्भुत दृष्टिकोण है। वह कहते हैं- ‘‘होठों पर मुस्तकि़ल खेलती हुई हँसी, ज़िन्दगी से भरपूर मुस्कराहट, चेहरे पर ऋषियों जैसा सुकून और पवित्रता, आँखों में लमहाभर चमककर बुझ जाने वाले दुखों के साये, कृष्णबिहारी ‘नूर’ तारीकियों के इस युग में बीती हुई पुरनूर सदियों का सफ़ीर (राजदूत), एक फ़नकार, एक इंसान, एक फ़क़ीर और मुशायरे के माइक पर एक फि़क्रोफ़न का दरिया।’’
प्रसिद्ध कवि एवं पत्रकार कन्हैयालाल नंदन लिखते हैं- ‘‘लखनऊ ऑल इंडिया रेडियो ने एक कवि-सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें हिन्दी-उर्दू दोनों की नुमाइंदगी की गयी। बाईपास सर्जरी के बाद पहला मुशायरा पढ़ने आये थे इसमें नूरसाहब। दिल्ली से मैं भी शरीके-महफि़ल था, सो चश्मदीद वाक़या बयान कर रहा हूँ कि जब नूरसाहब को पढ़ने की दावत दी गई तो रेडियो ने उन्हें सहूलियत से काम-अंजाम देने के लिए जहाँ बैठे थे, वहीं से पढ़ने की सुविधा देनी चाही। नूरसाहब ने अपना बाईपास रखा किनारे और हाज़रीन से मुख़ातिब होते हुए बोले- ‘आप माफ़ी दें, डाक्टरों ने दिल चीर के रख दिया, लेकिन उन्हें क्या पता कि मेरा दिल मेरे पास है ही नहीं, वह तो मेरे चाहने वाले आप जैसे लोगों के पास है, सो शेर मुलाहज़ा हो ...’ और फिर तो साहब नूरसाहब ने ऐसे पढ़ा जैसे पिंजरे से निकल के परिन्दे ने बेख़ौफ़ उड़ानें भरी हों। ग़ज़ल भी वो पढ़ी जो उनकी ग़ज़लों में मेरी सबसे पसन्दीदा ग़ज़ल है। बल्कि उसका एक शेर तो मेरे जीवन के दर्शन का हिस्सा बन चुका है-
मैं एक क़तरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समन्दर, मेरी तलाश में है"
प्रख्यात संगीतकार एवं गीतकार श्री रवीन्द्र जैन कुछ यूं फ़रमाते हैं- "नूरसाहब यूँ तो तहत में पढ़ते थे, लेकिन पढ़ने के अंदाज़ से तरन्नुम में पढ़ने वाले मात खा जाते थे। मुशायरा मुंबई में हो या मुंबई के आसपास, नूरसाहब का क़याम अक्सर और पेशतर मेरे छोटे से आशियाने में हुआ करता था। घर में क़याम तो जिस्मानी तौर पर था, नूरसाहब तो रूह की गहराइयों में उतर चुके थे। न सिर्फ़ अपने, बल्कि हम दोनों अपने पसंदीदा शायरों के शेर एक-दूसरे से बाँटते थे, जब कभी मेरा लखनऊ प्रवास होता, नूरसाहब मेरी सिदारत में अपने दौलतख़ाने पर मेरे एज़ाज़ में नशिस्त रखते। वो शायरी जिसका हम मुंबई में तसव्वुर भी नहीं कर सकते, लखनऊ के शोअरा से सुनने को मिलती, भाभीजान के हाथ के बने मूँगफली के क़बाब मैं आज भी नहीं भूला हूँ। मुंबई-लखनऊ में मिलने का सिलसिला अब भी बरक़रार रहता, अगर दयाहीन मृत्यु उन्हें यूँ अचानक न ले जाती।
अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है
नश्शे में डूबे कोई, कोई जिये, कोई मरे
तीर क्या-क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है
बंद आँखों को नज़र आती है, जाग उठती हैं
रोशनी ऐसी हर आवाज़े-अज़ाँ छोड़ती है
ख़ुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है
आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई
वो तो मरती भी नहीं, सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है
एक दिन सबको चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िंदगी छोड़ भी दे, मौत कहाँ छोड़ती है
मरने वालों को भी मिलते नहीं मरने वाले
मौत ले जाके ख़ुदा जाने कहाँ छोड़ती है
ज़ब्ते-ग़म खेल नहीं है अभी कैसे समझाऊँ,
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है
और अंत में श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूं…
वो जिसने ज़िंदगीभर छांव बांटी
मैं पत्ता हूं उसी बूढ़े शजर का
✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'
सी-130, हिमगिरि कालोनी
कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.मोबाइल नंबर 99273 76877
शनिवार, 7 नवंबर 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष पुष्पेंद्र वर्णवाल के 52 मुक्तक । ये मुक्तक उनकी कृति "रिमझिम"से लिये गए हैं । इस कृति का प्रकाशन बीसवीं सदी के आठवें दशक के आरंभ में दुर्गा पब्लिकेशन्स मुरादाबाद द्वारा हुआ था।
:::::::::प्रस्तुति :::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
शुक्रवार, 6 नवंबर 2020
मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा ----बराबरी
"ये कंडक्टर की सीट है बहन जी,यहाँ मत बैठिए।"
"अरे भाई जरा तुम खड़े हो जाओ और बहन जी को बैठने दो।"
ड्राइवर ने सामने सीट पर बैठे अखबार पढ़ रहे युवक से कहा।पहले तो उसने अनसुना किया पर ड्राइवर के दोबारा कहने पर वह जैसे झल्ला गया।
"वाह भई वाह। वैसे तो लड़कियाँ लड़कों से कम नहीं,लड़कियों को लड़कों के बराबर समझो,लैंगिक समानता,अलाना फलाना और बसों में महिला आरक्षित सीट भरने के बाद अनारक्षित सीट पर बैठे आदमी को भी महिला के लिए उसकी सीट से उठा रहे हो।क्या कहने इस इंसाफ के?धन्य हो नारीवाद!"कहकर भुनभुनाता हुआ वह फिर अखबार देखने लगा।ड्राइवर चुप हो गया।
पूरी बस खचाखच भरी थी।पीछे बैठे एक बुजुर्ग से रहा नहीं गया,जोर से बोले,"बेटा अगर किसी तरह पीछे आ सको तो मैं अपनी सीट तुम्हें देता हूँ।" रमोला ने कृतज्ञता भरी मुस्कान भेंट की और भीड़ की ओर देखा।
तभी एक दूसरा युवक जो कि बस में ही खड़ा था,उस युवक से बोला,"भाई अपनी क्रांतिकारी बातें फिर कभी कर लेना,पेपर छोड़ कर जरा मैडम की हालत तो देखो।शर्म आनी चाहिए तुम्हें।"
अब उस युवक ने रमोला को ध्यान से देखा तो हिचकिचा गया।गलती सुधार करते हुए उसने अपनी सीट से उठते हुए कहा,"माफ कीजिए मैंने पहले ध्यान नहीं दिया,आप बैठ जाइये।"
रमोला ने अब तक रॉड के सहारे अपने को मजबूती से टिका लिया था और सीटों के बीच के स्थान पर वह सावधानीपूर्वक खड़ी हो गयी थी।दृढ़ स्वर में उसने कहा,
"कोई बात नहीं आप बैठे रहिये।मुझे तो रोज ही सफर' करना है।............
वैसे आप सही कह रहे थे बराबरी का मतलब हर बात में बराबरी होना चाहिए।............
आपका धन्यवाद कि आपने मुझे सीट ऑफर की।मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँगी कि कभी कोई गर्भवान पुरूष इस तरह खचाखच भरी बस में असहज हो रहा हो तो आप की तरह मुझे भी उसकी सहायता करने का समान अवसर मिले।"
✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद
मुरादाबाद मंडल के सिरसी (जनपद सम्भल) के साहित्यकार कमाल जैदी वफ़ा की लघुकथा----- ठांय- ठांय
ठांय, की आवाज़ के साथ तमंचे से गोली बाहर निकली और एक बुजुर्ग की छाती में उतर गई। गोली चलाने वाले ने अपने साथी की ओर देखा और विजयी मुस्कान के साथ विक्ट्री का चिन्ह बनाकर खुशी का इजहार किया। दूसरी गोली साथी की पिस्तौल से निकली और उसने एक नवयुवक को ढेर कर दिया. अब खुश होने की बारी साथी की थी उसने भी विक्ट्री का चिन्ह बनाकर अपने विजयी होने का एलान करते हुए खुशी प्रकट की शहर में दंगा फैला हुआ था. दोनों साथी मोर्चा सम्भाले हुए दूसरे धर्म के लोगो को निशाना बना रहे थे अब तक वह दर्जन भर लोगो को मौत के घाट उतार चुके थे। अचानक नारे बाज़ी करती भीड़ उनके सामने आई. दोनों ने अपने अपने पिस्तौल लोड किये और भीड़ की ओर निशाना लगाया. 'अरे! नहीं वह बच्चा है।'साथी ने बच्चे को मारने से मना करते हुए उसे रोकना चाहा ।'अरे बच्चा है तो क्या हुआ? है तो विधर्मियो की ही औलाद।' कहते- कहते उसने पिस्तौल का ट्राइगर दबा दिया. ठांय की आवाज के साथ गोली मासूम की पीठ में जा लगी. बच्चा वही गिर गया गिरते हुए बच्चे के मुख से निकली आवाज़ ने गोली चलाने वाले को हिलाकर रख दिया। गोली चलाने वाला बच्चे के शव पर बिलख- बिलख कर रो रहा था क्योंकि वह उसका अपना ही बच्चा था. जो दंगे में उसे खोजता हुआ यहाँ तक आ पहुंचा था।
✍️कमाल ज़ैदी' वफ़ा', सिरसी (सम्भल)
मोबाइल फोन नम्बर 9456031926
मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा -----डोनेशन
कथा की समाप्ति के बाद भोजन प्रसाद की व्यवस्था थी। दो सब्जी,रायता,पुलाव,पूरी के साथ देशी घी का मेवायुक्त हलवा और गुलाबजामुन भी बनवाए गए थे। आयोजकों ने भरपूर मात्रा में सामान बनवाया था,लेकिन उम्मीद से अधिक श्रद्धालुओं के आ जाने के कारण बाद में व्यवस्था गड़बड़ा गई।किसी को एक सब्जी मिली,किसी को रायता,किसी को पुलाव। भीड़ इतनी असंयमित हो गई कि लोग कथा की बातेंं भूलकर ,एक दूसरे पर दोषारोपण करने लगे। हद तो तब हो गई जब एक सज्जन चिल्लाने लगे "हमने दस हजार रुपए डोनेशन दिया था, हमें न हलवा मिला, ना गुलाब जामुन।जिन्होंने एक धेला नहीं दिया, वे सारा माल उड़ा गए।"
✍️डाॅ पुनीत कुमार
T -2/505, आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद -244001
M - 9837189600
मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा -- लिटरेरी इनविटेशन
"नील जी क्यों न साहित्यिक संध्या का आयोजन करा लिया जाए ...शाम भी रंगीन हो जाएगी और नाम भी हो जाएगा ....रही बात लेखकों की तो वे तो दौड़े चले आएंगे ।" श्रीप्रकाश जी ने नील जी से कहा।
"अजी हाँ ...नेकी और पूछ पूछ ...आज ही इंतजाम कराते हैं जनाब ...बताइए लिस्ट में कौन कौन से साहित्यकारों को बुलाया जाए ?"नील जी ने पान चबाते हुए कहा ।
"हाँ ...पिछले मुशायरे में गए थे न ...वहाँ जितनी भी महिला साहित्यकार आईं थीं सभी के नाम नोट कर लीजिए जनाब ...और हाँ वो नीली साड़ी पहने जो मोहतरमा थीं उनका ज़रूर ...क्या गजब ढा रहींथींl"श्रीप्रकाश जी ने चटकारे लेते हुए कहा l
"कौन सी कविता बोली थी उन्होने ?"
"अजी छोड़िए कविता बबिता ...हमें क्या करना । "श्रीप्रकाश जी ने बेशर्मी से कहा और दोनोंं ठहाका मारकर जोर से हंसते हुए एक और शाम की रंगीनियत के ख्वाबों में खो गए l
✍️ राशि सिंह , मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा ----मानवता
फकीर ने सेठ जी से कहा सेठ जी प्यास लगी है पानी पिला दीजिये ।सेठ जी बोले , अभी कोई आदमी नहीं है, यह कहकर मोबाइल पर बात करने लगे ।जब बात कर चुके तो फकीर ने फिर कहा सेठ जी बहुत प्यास लगी है, पानी पिला दीजिये ।" अरे कहा ना अभी कोई आदमी नहीं है।"
" इस पर फकीर बोला सेठ जी कुछ देर के लिए आप ही आदमी बन जाइये ।
✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा -----आँखों का सफ़र
अचरज से तकती है नन्ही आँखे रंग बिरंगे संसार को, बचपन की नटखट गलियों में असीमित सवालों से भरी
आंखें जवाब ढूंंढने को मचलती रहती हैं ,सामने खड़ा खटखटाता है यौवन दरवाजा,जिसके प्रेम में डूब जाती हैं आँखे, फिर याद आया अभी करने है पूरे स्वप्न भी तब दिखती आँखो में सपने पूरे करने की ललक ,पर मिलते ही मंजिल आंखों में दिखने लगती भविष्य की चिंताए ,इतनी चिंता कि धुंधली होती आंखों पर किसी का ध्यान ही नही गया,जीवन भर चलती आंखें आज ठहर गयी एक जगह, बहुत कोशिश की मैने देखने की, पर उन आंखों में आज कुछ नही दिखता, बैरंग सी दीवारों के बीच अपने शरीर में सुइयोंं के चुभने पर भी वे विचलित नही होती है ........
✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा
मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल)के साहित्यकारधर्मेंद्र सिंह राजौरा की लघुकथा -----गंदगी
वो चौराहे पर अक्सर पायी जाती/ठेले वाले , खोमचे वाले , दुकानदार उसकी विक्षिप्तता पर तरस खाकर उसे कुछ न कुछ खाने को अवश्य दे देते/उसके बाल उलझे हुए थे न जाने वो कितने दिनों से नहीं नहाई थी/कुछ लोग कहते हैं कि वो किसी अच्छे परिवार की बहु थी जिसका परित्याग कर दिया गया था और उसका कुसूर ये था कि शादी के कई साल बाद भी उसे कोई सन्तान न हुई थी/
कुछ संभ्रांत लोग वहां खड़े हुए थे और शाम के समय एक ठेले पर खड़े केले खा रहे थे उनमें से एक ने उसे खाने को तीन चार केले दे दिए/उसने केले खाये और अपने व उन लोगो के छिलके लेकर जाने लगी / एक तेल टेंकर वहाँ से गुजर रहा था/ क्लीनर ने दरवाजा खोला और एक जोर की पीक सड़क पे मारी शायद उसने गुटखा खाकर पीका था/ उस विक्षिप्त अवस्था में भी उसे यह बात नागवार गुजरी /वो पलट कर टेंकर के पीछे दौडने लगी / टेंकर की रफ़्तार तेज़ थी लेकिन सौभाग्य से सड़क पर थोड़ा जाम था सो उसकी गति धीमी हो गई/
औरत ने सारे छिलके टेंकर की छत पर दे मारे/ छिलके फैंकने के बाद उसके चेहरे पर परम संतोष के भाव उभरे/ कितना सटीक था उसका निशाना / वो खिलखिला कर हंसी और चौराहे की और मुड़ गयी किसी भाला फेंक विजेता की मानिन्द/
शायद वो गंदगी करने वाले क्लीनर को सबक सिखाने में सफल हुई थी/
✍️ धर्मेंद्र सिंह राजोरा, बहजोई,जिला सम्भल
गुरुवार, 5 नवंबर 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी ----ज्योति
सुबह-सुबह घूमने निकले कुछ लोग यकायक बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर ठिठके और कुछ पल रुक कर रोती हुई आवाज़ का सच जानने के प्रयास में उस ओर दौड़े जहां से आवाज़ आ रही थी।उन्होंने देखा कि एक जालीदार टोकरी में एक नवजात बच्ची रोए जा रही है।अरे कोई लड़की लोक लाज के डर से इस बच्ची को यहाँ छोड़कर चली गई है।सबने बारी-बारी से अपनी प्रतिक्रिया तो व्यक्त की परंतु उस बच्ची को उठाकर उसके जीवन को बचाने की कोशिश नहीं की।
किसी ने कहा लड़का होता तो हम ही रख लेते, किसी ने कहा क्या पता किस धर्म जाति की है।किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया और अपनी राह हो लिए।वह बच्ची इसी प्रकार भूखी-प्यासी रोती रही ज्यादा भूख लगती तो अपने हाथ की उंगलियों को ही चूसकर शांत हो जाती।
दिन चढ़ते चढ़ते काफी लोग इकट्ठा हो गए लेकिन उसे किसी ने प्यार से गोदी में नहीं उठाया।बात फैली तो एक बड़े घर की महिला वहां आई और उसने उस बच्ची को गोदी में उठाकर उसके ऊपर लगे कूड़े कचरे को हटाया और एक साफ तौलिया में लपेटकर उसे पहले बाल चिकित्सालय ले गई।वहाँ उसका पूरा स्वास्थ्य परीक्षण कराने के बाद उसे पास के थाने लेजाकर उसे अपने साथ रखने की प्रक्रिया की जानकारी की।अंततः अनाथालय के माद्यम से बच्ची को घर ले जाने में सफलता हासिल की।
जब काफी समय बीतने पर भी उसे लेने कोई नहीं आया तो महिला ने उसकी अच्छी परवरिश में दिन-रात एक कर दिए।बच्ची का नामकारण भी बड़ी धूम-धाम से किया गया।सभी उसे ज्योति कहकर पुकारते।बच्ची धीरे -धीरे बड़ी होती गई।खूब पढ़ लिखकर योग्य चिकित्सक बनी।
वह अपनी मां का बहुत ध्यान रखती।एक दिन मां ने उसे सत्य से अवगत कराते हुए कहा बेटी यह संसार बड़ा विचित्र है।यहां लोग सिर्फ अपने फायदे के बारे में ही सोचते हैं।तू अगर लड़का होती तो मुझे कैसे मिलती।लड़के के ऊपर किए गए खर्चे की तो पाई पाई वसूल कर लेते।तेरे ऊपर लगाए पैसे तो उनके लिए व्यर्थ ही जाते।
तू मेरी आँखों की ज्योति है और मेरी हारी-बीमारी में मेरी चिकित्सक भी। ईश्वर तुझे शतायु करे।यह सुनकर बिटिया मां से लिपट कर बोली तुम तो ईश्वर की साक्षात प्रतिमा हो माँ।
✍️वीरेन्द्र सिंह बृजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र,
मो 9719275453
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघुकथा -- ----- प्रयास
कल्पना एम ए की कक्षा मेंं थी।अपनी सखियों के साथ बैठी हँसी ठिठोली कर रही थी।फ्री पीरियड था तो मस्ती करनी थी ताकि अगली कक्षा के लिए रिचार्ज हो जाये।इतने मे एक आंटी जैसी महिला ने आकर पूछा ,"एम ए हिन्दी की कक्षा किस कक्ष में लगती है?
"पायल बोली ,"आपको किस से मिलना है।हम यहींं बता देंंगे,आप जाकर क्या करेगी।"वह महिला बोली,"मुझे किसी से नहीं मिलना,आज की क्लास अटेंड करनी है।मेरा कल ही एडमिशन हुआ है आज क्लास मेंं पढना है"।यह बात सुनकर सभी चौक गयीं।"आंटी आप हमारी क्लास मेंं पढेगी, आपके बच्चे?"कहकर वे सब चुप हो गयीं।लड़कियों के आश्चर्य मिश्रित भाव देखकर वह बोली,"मेरा बेटा एम एससी कर रहा हैऔर बेटी बी ए फायनल मेंं है।""फिर आप इस उम्र में क्यों पढ़ाई कर रही हैंं"।सबने एक साथ पूछा।
"तुम सब हिन्दी एम ए की ही स्टूडेंट्स हो "वह बोली,"तो चलो क्लास मे चलकर ही बात करते है"।वह सभी के पीछे पीछे कक्ष की ओर चल दी।कक्ष मे पहुंच कर सब उसे घेर कर खड़ी हो गयींं।आंटी बताओ न।
वह बोली,'मेरी शादी कक्षा आठ के बाद ही कर दी गयी।गांव मे कक्षा8के बाद स्कूल नहीं था।गांव से बाहर लडकी पढ़ने जाये ये तो कभी हुआ नहीं।सो 14साल की उम्र से गृहस्थी शुरू हो गयी।मगर मन जो पढ़ने की ललक थी वो नहीं गयी।ससुराल मे बहू का पढ़ना असम्भव था।बेटा जब कक्षा दस के लिए पढ़ने शहर आया तो खाना व देखभाल के लिए हमे भेजा गया।बस यही अवसर मिला।मन की बात बेटे को बताई तो उसने प्राइवेट फार्म भर दिया।दोनोंं ने साथ परीक्षा दी।अच्छे नम्बर आये।इसी तरह इंटर होगया ।फिर सब से लड़कर बेटी को भी शहर लाई।अब हम सब पढ़ते ।आनंद आता।बीए मे मेरे अंक मेरे बेटे से ज्यादा थे।जब ये बात पति को पता चली।वो खूब नाराज हुए मगर बेटे के आगे ज्यादा न बोल सके ।आज मैंं यहां आपके साथ पढूंगी"।
..तभी कल्पना बोली,"आंटी अब इस उम्र मे नौकरी तो मिलने से रही फायदा क्या होगा आपकी पढाई का"?। वह बोली,"बेटा नौकरी के लिए पढ़ाई जरूरी होती हैं मगर पढ़लिखकर नौकरी की जाये जरूरी नहीं।मेरी पढ़ाई मुझे संतुष्ट करती है खुशी मिलती है। तुम सब खुशनसीब हो जो तुम्हारे माता पिता पढ़ा रहे है जिस दिन बच्चों की पढ़ाई पूरी होगी मुझे फिर गांव जाना होगा मगर अब मेंं घर के काम के बाद गांव की उन लड़कियों को पढा़उंंगी जो पढ़ना चाहती हैं।"
सभी लड़कियां खड़ी हो गयींं और तालियां बजाते हुए बोलींं,"आंटी इस कक्षा मे आपका स्वागत है" वह मुस्कुरा रही थी।
✍️ डा.श्वेता पूठिया, मुरादाबाद
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रामकिशोर वर्मा की लघुकथा ----- चरित्र
"आज का युवा वर्ग वालीबुड के नायक/नायिकाओं को अपना आदर्श मानता है ।" -- मीता ने रीता से कहा --"अपनी मूवी के द्वारा लिखे हुए संवाद बोलकर अभिनय के द्वारा जनता पर छा जाते हैं और युवा वर्ग उन पर गर्व करने लगता है ।"
तभी रीता बीच में ही उसकी बात काटकर बोली --"मगर उनका वास्तविक चरित्र देखा है । पर्दे पर कुछ और है तथा वास्तविक जीवन में कुछ और ही हैं । पैसे और शौहरत के कारण बुरे व्यसन भी इनमें मिलेंगे । पर सभी एक से नहीं है । पता भी है ?"
"हांँ, यह बात तो रीता तेरी सही है ।"--कहते हुए मीता ने अपना कथन जारी रखा --"हमारे वास्तविक नायक/नायिकायें तो हमारे देश के रक्षक हैं, वैज्ञानिक हैं । उनका चरित्र देखिए।"
रीता ने कहा -- "सही बात है मीता । युवा वर्ग के वास्तविक आदर्श अपने उत्तम चरित्र के कारण हमारे देश के रक्षक और वैज्ञानिक-डॉक्टर हैं ।"
✍️राम किशोर वर्मा, रामपुर
मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी -----जेवरों की चोरी
..........रात का तीसरा पहर आदित्य की आंखों में नींद नहीं थी.......... उसकी व्याकुलता इस कारण नहीं थी कि उसने कुछ खाया नहीं था........उसे इस बात का भी कतई मलाल नहीं था कि उसे इतनी छोटी उम्र में गुलामों की तरह अनिच्छा से इतना कठोर परिश्रम करना पड़ता था कि रात भर उसका शरीर दुखता रहता था बल्कि इससे उसका पढ़ने लिखने का इरादा और अधिक मजबूत होता था............वह पूर्ण निष्ठा लगन और मेहनत से लगातार सौंपा गया काम निरंतर करता रहता था। भूख उसे तोड़ नहीं पाई ,मेहनत उसे डिगा नहीं पाई! परन्तु चोरी का झूठा इल्जाम वह सह नहीं पा रहा था.... उसका आत्मबल उसका संयम सब जवाब दे गया था। उसका हर समय मुस्कुराता हुआ चेहरा मुरझा कर पीला पड़ गया था........ अपने चरित्र पर लगा यह दाग वह सह नहीं पा रहा था....... और अपनी ही रिश्तेदारी में इस तरह ज़लील होकर वह जाना नहीं चाहता था.... इस तरह कलंकित होकर चले जाना उसे परेशान किए हुए था..... सुबह तो होगी परंतु उसके जीवन में तो हमेशा के लिए अंधेरा छाने वाला था ...... उसके अंदर का सब कुछ टूट रहा था उसके मन में आ रहा था कि वह आत्महत्या कर ले..... परंतु दूसरी ओर उसके अंदर की कोई शक्ति उससे कह रही थी "हार कर मत जा ! ''चला गया तो यह दाग जीवन भर नहीं धुलने वाला !"....." हार कर भाग जाना कायरता है ."!....."जब तूने कुछ किया ही नहीं है तो फिर तू क्यों इस तरह बदनाम होकर दुनिया से जाये!" इसलिए उसने उन गहनों को फिर से ढूंढने का निश्चय किया .....
घर की दीवारें मिट्टी की थीं। ऊपर से चूहों के बड़े-बड़े बिल। जेवरों पर लिपटा हुआ गुलाबी कागज़ वहीं उसी के कमरे में पड़ा हुआ मिला था यही उसके खिलाफ सबसे बड़ा सबूत था उसने दिमाग दौड़ाया.... कुछ भी था झूठा इल्जाम भी वे लगाने वाले नहीं थे। नुकसान तो हुआ था.....पर किसने??
यही यक्ष प्रश्न बार-बार मन में उठ रहा था। सहसा कुछ सोच कर आदित्य ने छैनी हथौड़ी उठाई और चूहों के बिल को तोड़ता चला गया तोड़ने की आवाज से कृष्ण कुमार और मुन्नी जाग गये आवाज लगाई"आदित्य! आदित्य!! क्या कर रहे हो खोलो दरवाजा!!"
दरवाजा खुल गया, वे बोले"दीवार क्यों तोड़ रहे हो?"
आदित्य बिना उत्तर दिये ,बिना रुके दीवार तोड़ता रहा.......
मुन्नी चिल्लाई "अरे आदित्य क्या पागल हो गया सुनता क्यों नहीं है?.."
....... तभी अचानक जो हुआ उसे देखकर सब चकित थे कंगन और जेवर सामने थे....!!!
हुआ यूं कि चूहे जेवरों की पुड़िया को दिल में घसीट कर ले गए..... सभी चीजें (जे़वर) सही सलामत मिल गए!
आदित्य की आंखों में खुशी के आंसू थे!
कृष्ण कुमार और मुन्नी ने आदित्य को गले लगा लिया और माफी मांगी......!!
........ परन्तु ये क्या आदित्य सुबह पांच बजे वाली गाड़ी से अपना बैग लेकर जा चुका था !!.....
✍️अशोक विद्रोही
412, प्रकाश नगर, मुरादाबाद यूपी
82 188 25 541
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा -----दीमक
रुपाली एक कामकाजी महिला थी।जल्दी जल्दी सुबह का काम निबटा कर बैंक चली जाती। शाम को आते आते 6 बज जाते।आते ही फिर उसके आगे काम का पिटारा खुल जाता।इसी समयाभाव के कारण वह घर की साफ सफाई पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाती।काम वाली अपनी मर्जी से काम पूरा कर चली जाती।बचता रविवार का दिन यही दिन था, जो रुपाली को घर की पूरी सफाई के लिये मिलता।
ऐसे ही एक रविवार रुपाली अपने घर की सफाई कर रही थी।देखती क्या है, उसकी मौडयूलर किचन की वार्डरोब को दीमक लग गया है और उसने अंदर ही अंदर उसे खोखला भी कर दिया है। आनन फानन रुपाली ने गूगल पर सर्च कर दीमक के उपचार ढूंढने शुरू किये और उन्हें अपनाना शुरू किया।कुछ दिनों में दीमक तो चली गयी लेकिन उसके निशान रह गये। रुपाली जब भी उस वार्डरोब को देखती सोचती क्या आज भी हमारे समाज में फैली कुरीतियां , अंधविश्वास इस दीमक की तरह नहींं है,जो अंदर ही अंदर उसे खोखला कर रहे हैं। ऐसा खोखला जिसकी क्षतिपूर्ति करना मुश्किल ही नहींं नामुमकिन है।
✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेन्द्र शर्मा सागर की लघुकथा --बेकार नोट
आज एक पुरानी डायरी पढ़ते समय अचानक पाँच सौ का पुराना नोट सुमित की गोद में आ गिरा।
ये वही नोट था जो उसे उसकी प्रेमिका ने एक हज़ार रुपये लेकर उसके लाख मना करने पर भी यह कहकर वापस कर दिया था कि उसे बस पाँच सौ की ही जरूरत है।
और उसने शरारत से उस नोट पर "आई लव यू सुमित" लिखकर नीचे अपना नाम भी लिखा था।
सुमित ने अपनी प्रेम की कविताओं की डायरी में इसे बहुत सहेज कर रख दिया था जिसमें हर कविता के नीचे उसने अपनी प्रेमिका का नाम लिखा था।
नोट बन्दी से ठीक चार घण्टे पहले ही तो उनका ब्रेकअप हुआ था किसी छोटी सी बात को लेकर।
"अब ना ये नोट किसी काम का है और ना ही इसपर लिखा नोट", सुमित ने धीरे से कहा और उस नोट के टुकड़े कर दिए।
✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर", ठाकुरद्वारा
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा-----वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्
कितना सुन्दर होगा तुम्हारा साथ प्रियतम !हम बहुत दूर चले जायेंगे ।
कहीं भी,जहाँ हमारे प्रेम को किसी की नजर न लगे ।विवाह के एक दिन पूर्व मेहंदी से रंगी हथेलियों वाली उर्मि अपने मनभावन लड़के के साथ घर से भागने की योजना बना रही थी । घर वाले उसके पसंद के लड़के से विवाह के विरुद्ध थे ।यौवनावस्था और धनसम्पन्नता ,उस पर अप्रतिम सौन्दर्य !तीनों एक साथ ।बुद्धि का नाश तो स्वाभाविक था । प्रेमी की योजना के अनुसार कुछ रुपये पैसे के साथ उसको चुपचाप निकलना था । विवाह के घर में व्यस्तताओं में उलझे ,उसका मोबाइल अचानक कहाँ गया ?किससे पूछे ?अब वह उसे कैसे सूचना देगी ? अरे !डायरी में भी लिखा है उसका मोबाइल नंबर कहीं।पहला पन्ना पलटा ,फिर दूसरा ,और फिर क्रम से.......कई.....।अरे ....मिल गया ..लेकिन.... ऊपर ... सबसे ऊपर..लिखा था.." वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्।....अक्षीणो वित्ततः,क्षीणो वृतस्तु हतो हतः ।
कक्षाओं में शिक्षकों ने यही तो कहा था,फिर क्यों ?उर्मि काँप उठी। मानो कोई दुस्वप्न देखा हो ।उस आदर्श वाक्य को बार-बार पढा़ और पढा़ ....फिर उसके मन से वह कुत्सित योजना ओझल होती गई सदा के लिए।एक आदर्श वाक्य की शक्ति थी यह ....कि एक चरित्र की रक्षा हुई।
✍️डॉ प्रीति हुँकार, मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार ज़मीर दरवेश की बाल कविता --- प्यासी चिड़िया
मरी पड़ी थी चिड़िया एक,
देखके बोला बच्चा एक..
किसने इसे मारा है मम्मी,
पता चले वो कौन है पापी?
मम्मी बोलीं - हम भी तुम भी,
इसको मारने के हैं दोषी।
कितनी पड़ी हुई है गर्मी,
यह चिड़ाया बेहद प्यासी थी।
तरस न इस पर किसी को आया,
किसी ने पानी नहीं पिलाया।
छतों मुंडेरों पर भी आई,
पानी की इक बूंद न पाई।
बच्चे की आंखें भर आईं,
मम्मी भी उसकी पछताईं।
झट पट रक्खा छत पर पानी,
साथ में रक्खा कुछ दाना भी।
✍️ ज़मीर दरवेश, मुरादाबाद
پیاسی چڑیا....
مری پڑی تھی چڑیا ایک،
دیکھکے بولا بچہ ایک.
کس نے اسے مارا ہے ممّی،
پتا چلے وہ کون ہے پاپی؟
ممّی بولیں - ہم بھی تُم بھی،
اسکو مارنے کے ہیں دوشی.
کتنی پڑی ہوئی ہے گرمی،
یہ چڑیا بےحد پیاسی تھی.
ترس نہ اس پر کسی کو آیا،
کسی نے پانی نہیں پلایا.
چھتوں مُنڈیروں تک بھی آئی،
پانی کی اک بوند نہ پائے!
بچّے کی آنکھیں بھر آئیِں،
ممّی بھی اسکی پچھتائیں.
جھٹ پٹ رکھّا چھت پر پانی،
ساتھ میں رکھّا کچھ دانہ بھی.
(ضمیر درویش)
बुधवार, 4 नवंबर 2020
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की बाल कथा -----पिंजरे में कैद हो गया बबलू
मेले से जिद करके बबलू एक तोता खरीद लाया था । छोटा - सा पिंजरा था और उसमें तोता थोड़ा - बहुत हिल-डुल रहा था । घर पर लाकर बबलू ने तोते को हरी मिर्च खिलाई । हरी मिर्च घर पर ही रखी थी। तोते ने प्रारंभ में तो मिर्च की तरफ ध्यान ही नहीं दिया लेकिन फिर बबलू के हाथ से एक मिर्च अपनी चोंच में पकड़ ली । यह देख कर बबलू की खुशी का ठिकाना न रहा । फिर तो घर पर खाने की जितनी भी चीजें थीं, बिस्कुट ,टॉफी ,काजू ,मठरी ,रोटी सभी कुछ लेकर बबलू तोते के पास जाने लगा । तोता इतना सामान कहाँ से खाता ! कुछ चोंच में पकड़ा ,कुछ खाया ,बाकी सब गिरा दिया। लेकिन बबलू को यह सब देख कर ही बहुत अच्छा लग रहा था । उसे तो यही बात आनंदित कर रही थी कि तोता असली में हमारे जैसे साँस लेता है, हिलता - डुलता है और अपनी चोंच को इधर-उधर करता रहता है । ...और हाँ तोता खाता भी है ,यह बात भी बबलू को असर कर रही थी । तोता अब उसकी साँसों में बस गया था ।
रात को सोया तो जैसे ही नींद आई ,नींद में ही तोते के पास चला गया । सपना देखने लगा । वह तोते को हरी मिर्च खिला रहा है और तोता अपनी चोंच से हरी मिर्च को पकड़ रहा है । लेकिन यह क्या ! सपना देखते देखते बबलू ने देखा कि तोते ने हरी मिर्च को खाते-खाते उसकी उंगली भी पकड़ ली । अब तो बबलू सपने में चीखने लगा । उसने उँगली छुड़ाने की बहुत कोशिश की मगर तोते ने नहीं छोड़ी । तोता उसकी उँगली को अपने पिंजरे में खींचने लगा । धीरे- धीरे बबलू का पूरा हाथ पिंजरे के अंदर चला गया और फिर बबलू का शरीर पतला होते हुए धीरे-धीरे पूरा शरीर पिंजरे के अंदर आ गया । अब पिंजरे के अंदर बबलू भी कैद था और तोता भी कैद था।
बबलू को पिंजरे के अंदर घुटन महसूस होने लगी। उसने जोर से अपनी मम्मी को आवाज लगाई "मम्मी ! मुझे पिंजरे से निकालो । मेरा दम घुट रहा है । मैं आजाद होना चाहता हूँ।"
बबलू की आवाज उसकी मम्मी ने नहीं सुनी तथा वह नहीं आईं। इस पर बबलू और भी परेशान होने लगा । उसने अपने हाथ पैरों को पटकना शुरू किया । उसे साँस लेने में मुश्किल आ रही थी । वह पिंजरे से बाहर निकल कर अपने कमरे में जाना चाहता था तथा पूरे घर में और घर के बाहर कॉलोनी में भी बच्चों के साथ खेलना चाहता था । उसने जोर से फिर मम्मी को आवाज लगाई "मुझे पिंजरे में क्यों कैद कर रखा है ? मुझे जल्दी से आजाद कराओ । मैं बच्चों के साथ खेलूँगा ।"
इस बार बबलू ने देखा कि वह अपने हाथ - पैरों को छटपटा रहा है । उसकी आँख खुल गई और वह समझ गया कि मैं एक डरावना सपना देख रहा हूँ। दिन निकलने ही वाला था । बबलू दौड़कर पिंजरे के पास गया उसने फौरन पिंजरे का दरवाजा खोलाऔर तोते को बाहर निकाल कर उससे कहा "उड़ जा तोते ! तू भी तो घुटन महसूस कर रहा होगा ।"
तोता बबलू को कृतज्ञता के भाव से देखता हुआ आसमान में उड़ गया। बबलू को लगा कि यह तोता नहीं बल्कि वह खुद किसी भयानक कैद से आजाद हुआ है।
✍️ रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451