सत्ता में जब तक रहे,लगा सभी कुछ ठीक।
अब सत्ता को कोसते,स्वयं भटककर लीक।। 1।।
सत्ता जब-जब पास थी,जिनके भी थे ठाठ।
खिसकी तो भाए उन्हें, मन्दिर पूजा पाठ।। 2।।
लंका जैसे जो हुए,कवि चिंतक विद्वान।
लंका होता दीखता,उनको हिन्दुस्तान।। 3।।
खेलों और चुनाव में,जीत मिले या हार।
नहीं हारना चाहिए,खेल भाव संसार।। 4।।
रह सत्ता में यदि किया,लूटपाट का भोग।
मन में उठता देखिए,रोज़ नया फिर सोग।। 5।।
पान फूल जो भी चढ़े,जब थे सत्ताधीश।
बच्चों को भी थे मिले,कहाँ गए आशीष।। 6।।
कुर्सी जब थी पास में,बने बहुत तब फैंस।
चश्में का पर आपके,धुंधल गया था लैंस।। 7।।
पहले तो लगता रहा,पानी है सब रेत।
मन मसोसना व्यर्थ है,बचा नहीं जब खेत।। 8।।
✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
काँठ रोड, मुरादाबाद -244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल:9319086769
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-07-2022) को "काव्य का आधारभूत नियम छन्द" (चर्चा अंक--4506) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका बहुत बहुत आभार ।
हटाएंएक से बढ़कर एक दोहा। आपका हार्दिक अभिनंदन।
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏🙏
हटाएंबहुत अच्छे, समसामयिक और सटीक दोहे! साधुवाद!
जवाब देंहटाएंकृपया इस लिन्क पर जाकर मेरी रचना मेरी आवाज़ में सुने और चैनल को सब्सक्राइब करें, कमेंट बॉक्स में अपने विचार भी लिखें. सादर! -- ब्रजेन्द्र नाथ
https://youtu.be/PkgIw7YRzyw
🙏🙏🙏🙏🙏
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जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक दोहे।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका ।
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