उलझ न पाएं 'मैं' या 'तुम' में
सम्बन्धों के तार।।
अपनेपन की चादर ताने,
बैठे कुछ अनजाने।
ऐसे में मुश्किल है कैसे
उनको फिर पहचाने।
बैठ बगल में छुप कर करते,
जो मौके से वार।।
उधड़े रिश्तों की होती है,
कठिन बहुत तुरपाई।
जिसको अब तक समझा अपना
सनम वही हरजाई।
चंदन में लिपटे विषधर से
संभव कैसे प्यार।।
जिस माली ने पाला पोसा
उसने ही है तोड़ा।
साथ सदा देने वालों ने
बीच भंवर में छोड़ा।
ऐसे में निश्चित है अपनी
अपनों से ही हार।।
✍️ प्रो ममता सिंह
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०६-०८ -२०२२ ) को 'उफन रहीं सागर की लहरें, उमड़ रहीं सरितायें'(चर्चा अंक -४५१३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका बहुत बहुत आभार ।
हटाएंआदरणीया प्रोफ ममता सिंह जी. नमस्ते 🙏❗️
जवाब देंहटाएंऐसे में निश्चित है अपनी
अपनों से ही हार।।
सुंदर नवगीत!
कृपया मेरी लिखी कहानी मेरी आवाज़ में इस लिंक पर जाकर सुनें और कमेंट बॉक्स में अपने विचार likhen:
https://youtu.be/igH7WVr3w5g
ब्रजेन्द्र नाथ