आज रंग में भौतिकता के,
डूब रहा संसार ।
सम्बन्धों में गरमाहट अब,
नज़र नहीं है आती
आने वालो की छाया भी
बहुत नहीं है भाती।
चटक रही दीवार प्रेम की,
गिरने को तैयार।
होता खालीपन का सब कुछ,
होकर भी आभास।
लगे एक ही छत के नीचे,
कोई नहीं है पास।
आभासी दुनिया ने बदला,
जीने का ही सार ।
खुले आम सड़कों पर देखो,
मौत कुलाचें भरती।
बटुये की कै़दी मानवता,
कहाँ उफ़्फ भी करती।
खड़ी सियासत सीना ताने,
बनकर पहरेदार।
प्रो ममता सिंह
मुरादाबाद
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