रविवार, 18 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा का संस्मरण ...नंगेपन की दौड़

 


मैं छोटा था ,मेरा गांव भी छोटा था ,लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया , वैसे-वैसे कुछ और चीजें भी विस्तार लेती चली गईं, जैसे- गांव का आकार, मतदाताओं की सूची, विभिन्न कृषि यंत्र, रोजगार के लिए पलायन ,लेकिन इसके साथ ही कुछ चीजें घटी भी, जैसे- खेती की जमीन, लोगों के दिलों का प्रेम, चौपालों पर जमा होने वाले लोगों की संख्या। खैर! जोड़-घटा-नफा-नुकसान ,यह सब जिंदगी के हिस्से ही हैं ,लेकिन आज भी वे दिन याद आते जरूर हैं, जिसमें जरूरतें कम थीं, समय खूब था। रिश्तेदारियों में रुकने और मेहमाननवाजी के लिए खूब वक्त था। पढ़ाई का बोझा भी ,ना के बराबर । बिना सिनेमा हॉल के ही भरपूर मनोरंजन और खाने-पीने की शुद्ध चीजों की भरमार ,खेत में उगने वाली सब्जियों का तो, आनंद ही कुछ और था। हमारे खेतों में जामुन, आम, शहतूत ,बेल और अमरूद के पेड़ ,जिसके फल कभी-कभार ,ही हमें मिल पाते थे क्योंकि रखवाली करने वाला कोई था नहीं ।गांव के आवारा किस्म के बच्चे और बंदर ही,उन फलों से हिसाब चुकता करते थे , कच्चे फल तोड़ने से हालांकि उनको कोई लाभ तो नहीं होता था ,मगर हमारा नुकसान जरूर कर देते थे ।

इन्हीं पेड़ों पर,सावन के महीने में झूले पड़ जाते, जो लगभग पूरे महीने चलते, भले ही त्योहार केवल एक दिन का होता ,यानिकि हरियाली तीज के दिन मनाया जाने वाला, महिलाओं का विशेष पर्व।

उधर जब कभी खेतों की जुताई होती और पटेला लगने की बारी आती तो ताऊ जी के पैरों के बीच बैठकर पटेला की सवारी ,हमारी खुशियों को कई गुना बढ़ा देती। ताऊ के लिए खेत पर पहुंची ताई के हाथ की पनपथी रोटी में कभी-कभी हम ताऊ का हिस्सा चट कर जाते, इस तरह ताई की रोटी और ताऊ के प्यार के बीच बीता बचपन, पूरी जिंदगी के लिए किसी प्रशिक्षण से कम नहीं था। मेरी सरलता और कम बोलने का गुण, शायद मुझे सबका प्यार दिलाने में सहायक होता।संयुक्त परिवार में होने के कारण ही, मैं सबका प्यारा था लेकिन फोकट में मिलने वाले उस प्यार का ,मैंने कभी गलत फायदा नहीं उठाया। तीन बड़ी बहनों द्वारा चिढ़ाना,कभी दुलारना, कभी मेरे पीछे उनकी दौड़ या कभी उनके पीछे मेरा दौड़ना,योगा जैसी पूर्ति तो आसानी से कर ही देता था। घर से खेत की दूरी अधिक न होने के कारण ,दिन में कई चक्कर लग जाते,जो कि मॉर्निंग वॉक और ईवनिंग वॉक की सारी कमी दूर कर देता।

खेत के रास्ते में एक मोड़ पर, इकलौता सुनार परिवार रहता, जिसके घर में बड़ा-सा नीम का पेड़ था। जिसका नामकरण, शायद गांव वालों ने ही किया होगा,नाम था- "सुनारों वाला नीम" । लेकिन समय बीतने पर एक दिन वह किसी बेदर्द तूफान का कोपभाजन बन गया, जो बहुत बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन की आपूर्ति जरूर करता रहा होगा, लेकिन यह ज्ञान हमें उस समय तो बिल्कुल था ही नहीं।उसके खत्म होने से हमें केवल इतना दुख था कि गर्मियों में पेड़ के नीचे खड़े होने वाले तरबूज-खरबूज के ठेले, आइसक्रीम-कुल्फी वाला या फिर सांपों और रीछ का खेल दिखाने वाले ,अब वहां नहीं ठहर पाएंगे और हम इन सुविधाओं से वंचित रह जाएंगे ,हालांकि बड़े होकर ऐसी सुख-सुविधाओं से हम स्वतः ही दूर होते चले गए।

 आखिर हम भी पढ़ाई के लिए शहर में बसे तो जरूर, लेकिन मन आज भी गांव में बसता है, क्योंकि आज भी गांव में प्रेम ,सहानुभूति, सम्मान, सहयोग और परस्पर रिश्तों की पवित्रता का कोई तोड़ नहीं है, बल्कि शहर का आदमी, गांववासियों की अपेक्षा अधिक जोड़-तोड़,प्रतिस्पर्धा ,फैशन के नाम पर नंगेपन की होड़ में, दिशाविहीन होकर, अनियंत्रित स्थिति में, निरंतर दौड़ रहा है ,और पैसे की चाहत में भटकते हुए, इन्सान इंसानियत को छोड़ रहा है।


✍️ अतुल कुमार शर्मा

 सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल:8273011742

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