रविवार, 12 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार प्रो महेन्द्र प्रताप के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित यशभारती माहेश्वर तिवारी का संस्मरणात्मक आलेख .... प्रोफेसर महेंद्र प्रताप : मानव मूल्यों के प्रबल पक्षधर साहित्यकार

 


बनारस में जन्में ,पले बढ़े और बाद में मुरादाबाद को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले प्रोफेसर महेंद्र प्रताप का व्यक्तित्व और कृतित्व कुछ ऐसा था कि वह अपने जीवनकाल में और उसके बाद भी लोगों के मन मस्तिष्क में छाये रहे और लोगों की स्मृतियों में वह आज भी जीवित है। उसके पीछे कारण यह है कि वे मुरादाबाद के साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के केंद्र में रहे और उनसे जुड़ी गतिविधियों को सार्थक गतिशीलता देने में प्रमुख भूमिका निभाते रहे।

   पंडित मदन मोहन मालवीय जी के भारतीय सांस्कृतिक सरोकारों से भी दादा प्रभावित रहे और आचार्य नरेंद्र देव तथा भारतीय प्राच्य विद्या और समाजवादी दर्शन के समन्वित व्यक्तित्व संपूर्णानंद के विचारों ने भी उन्हें अपने व्यक्तित्व निर्माण में सहायता की, व्यक्तित्व के जिस रूप का साक्षात्कार मुरादाबाद के लोगो ने किया। वह मानव मूल्यों के प्रबल पक्षधर थे, और उनके पक्ष में खड़े होने में किसी संकोच का सहारा नहीं लेते थे। बहुतों को याद होगा कि अयोध्या में उभरे राम जन्मभूमि विवाद के संदर्भ में उस समय अखबारों में छपे उनके वक्तव्य के बाद कुछ लोगों ने उनकी साहित्यिक संस्था अंतरा की गोष्ठियों में भाग लेना बंद कर दिया लेकिन दादा अपने बयान पर दृढ रहे। दरअसल, उन्होंने वाराणसी के प्रसाद परिषद और इलाहाबाद की परिमल की परिकल्पना और प्रेरणा से यहां मुरादाबाद में साहित्यिक संस्था अंतरा का गठन किया जो धीरे-धीरे कविता का गुरुकुल बनती गयी।

    दादा से मेरा परिचय मुरादाबाद आने के बाद हुआ। वैसे उससे पूर्व 1969 में नैनीताल में आयोजित एक कवि सम्मेलन के कार्यक्रम से लौटते हुए हास्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी के साथ उनके आवास पर गया और अनौपचारिक रूप से कुछ काव्यपाठ भी हुआ लेकिन शायद मेरी कविता से उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और मैं भी अप्रभावित ही रहा किंतु एक  बात से मैं बहुत प्रभावित हुआ कि उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि   एक शिवबहादुर सिंह भदौरिया थे जिनका एक गीत बहुत लोकप्रिय था-पुरवा जो बहुत डोल गई घटाघटा आंगन में जुड़े सा खोल गई। मैंने बताया कि वे रायबरेली जिले के लालगंज में एक स्नातकोत्तर विद्यालय में प्राध्यापक हैं तो वह बहुत खुश हुए और भदौरिया जी की प्रशंसा करते रहे। मुरादाबाद आने के बहुत दिनों बाद तक मैं उनसे नहीं मिल पाया, कुछ निजी व्यस्तताओं और कुछ संकोचवश क्योंकि एक तो उनका प्रभामंडल बहुत दीप्त था और दूसरा यह कि वह मेरे बड़े साले साहब पंडित मदन मोहन व्यास के बन्धुवत अंतरंग थे और मेरी ससुराल का सारा परिवार उन्हें अपने परिवार का ज्येष्ठ सदस्य मानता था। बड़े भाई साहब यद्यपि उम्र में उनसे ज्येष्ठ थे किंतु फिर भी वह उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे और मैं ठहरा उनका सबसे छोटा बहनोई तो उनसे एक संकोच भरी दूरी महसूस होती थी। मेरा यह संकोच दूर किया भाई मक्खन मुरादाबादी और स्मृतिशेष डॉ. सईद आरिफी ने। वे मुझे अंतरा की गोष्ठी में लेकर गये। फिर अंतरा की गोष्ठियों में जाना आरम्भ हो गया। इस सिलसिले को डॉ. शम्भुनाथ सिंह जी ने मुरादाबाद आकर मुझे दादा के और समीप कर दिया। फिर तो अंतरा की गोष्ठियों से अलग अन्य कार्यक्रमों में भी उनका भरपूर सानिध्य मिलता गया। दादा प्रोफेसर महेंद्र प्रताप के व्यक्तित्व की एक खूबी यह भी थी कि वे प्रसिद्ध कथाकार अमृत लाल नागर और कविवर त्रिलोचन शास्त्री की तरह बतरस के धनी थे और उनकी चर्चाओं में इतना रस होता था कि हम जैसे श्रोता घंटों बैठकर उसमें हिस्सा लेते रहते और समय का ध्यान नहीं रह जाता था। यह सिर्फ इस कारण नहीं था कि उनकी चर्चाओं में रस था बल्कि इसलिये भी था कि उसमें सहित्यकारों, तत्कालीन विश्रुत विद्वानों के व्यक्तित्व की ऐसी जानकारियां होती थी जो संस्मरणों में कभी-कभी मिल जाती है, कुछ-कुछ वैसा ही जैसे आचार्य रजनीश और कालान्तर में ओशो के साहित्य का अध्ययन करने पर मिलती है। संदर्भ के रूप में अर्थात यदि आप बगैर उकताए उन्हें सुन रहे है तो आप की जानकारियों का कोश और अधिक सम्पन्न होता महसूस होगा। 

  दादा महेंद्र प्रताप जी के व्यक्तित्व के एक अन्य पहलू से परिचय अचानक हुआ। यह तो सभी जानते थे कि दादा के मन में सबके प्रति आत्मीयता तथा स्नेह का भाव था लेकिन वे अपने से बाद की पीढ़ी के योग्य लोगों का भी आदर करते थे, यह आर्य समाज, स्टेशन रोड में आयोजित एक कार्यक्रम में देखने को मिला। हम जैसों की आदत सी हो गई थी किसी भी कार्यक्रम, विशेष रूप से साहित्यिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में निर्विवाद रूप से अध्यक्ष के रूप में दादा को देखना। मैं दादा के साथ कार्यक्रम में पहुंचा तो अध्यक्ष के रूप में डॉ. रामानंद शर्मा जी मंच पर विराजमान थे तब तक मैं उनकी विद्वता से परिचित नहीं था। मुझे जानकारी थी कि नगर की कुछ सम्भ्रान्त हस्तियां दादा की लोकप्रियता से ईर्ष्या करती थीं। मुझे लगा कि यह उनमें से ही किसी की साजिश है, बहरहाल दादा श्रोताओं में नीचे फर्श पर ही बैठ गये और मुझे अपने पास बैठा लिया। उन्हें शायद मेरी मनः स्थिति का आभास हो गया था, फिर बोले सुनकर चलेंगे, विद्वान व्यक्ति हैं। उस समय उनके चेहरे पर ही नहीं मन में भी किसी तरह के अमर्ष का भाव नहीं था। ऐसा था उनका व्यक्तित्व । 

  अब उनके व्यक्तित्व के एक अन्य पक्ष की संक्षिप्त चर्चा भी बहुत आवश्यक है। मेरी अपेक्षा दादा के व्यक्तित्व के इस पक्ष के विषय में भाई डॉ. मक्खन मुरादाबादी अतिरिक्त कुछ अन्य लोग भी ज्यादा जानते होंगे।  यह पक्ष है उनके शोध निदेशक का रूप। डॉ. किरण गर्ग ने उनके निर्देशन में सुकवि सुमित्रानंदन पंत जी पर शोध कार्य किया, उस शोध की एक अतिरिक्त विशेषता यह रही कि साक्ष्य के रूप में अन्य विद्वानों के अभिमत की जगह पंत जी की रचनाओं से ही लिए गए अंशों का उपयोग किया गया, अन्यथा देखा यह जाता है कि शोध में शोधकर्ता के अपने निष्कर्षों की जगह अन्य के उद्धरणों की भरमार होती है। यह शोध प्रबंध दादा की देखरेख में छपा और उसके लोकार्पण कार्यक्रम में अलीगढ़ विश्वविद्यालय के डॉ. कुंवरपाल सिंह और दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. राजेन्द्र गौतम ने भाग लिया।

   दादा महेंद्र प्रताप के रचनाकार के विषय में पहले कुछ विशेष नहीं मालूम था। उसके विषय में कुछ तो अंतरा की गोष्ठियों में, कुछ कटघर-पचपेड़ा में मेरी ससुराल से और कुछ आदरणीय डॉ. शम्भुनाथ सिंह जी से चर्चा के माध्यम से जानकारी मिली। यहां के विद्वानों ने उन्हें प्रेम प्रणय का रचनाकार मान कर छुट्टी पा ली और उनकी रचनाओं में निहित उदात्त चेतना की ओर ध्यान नहीं दिया। उनके भीतर के कवि का जन्म एक गीतकार के रूप में वाराणसी में हुआ और वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जिसे उस समय पूरब के ऑक्सफोर्ड के रूप में पहचाना जाता था के उपकुलपति श्रद्धेय अमरनाथ झा और हिन्दी विभाग के डॉ धीरेंद्र वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा,अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक और उर्दू के मशहूर शायर रघुपति सहाय फ़िराक यदुपति सहाय आदि का सम्पर्क, सान्निध्य, नगर में साहित्य की त्रिवेणी निराला जी, पंत जी और महादेवी वर्मा जी तथा विजय देवनारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केशव कालीघर, धर्मवीर भारती, गिरधर गोपाल आदि की मैत्री में परवान चढ़ा किंतु दादा का गीत सृजन कुछ अलग रहा। दादा के गीतों को हम उनका अन्तः गीत कह सकते हैं। उनके एक गीत- 'मैं तुमको अपना न सकूंगा / तुम मुझको अपना लो' को सुनकर ब्रह्मलीन श्वसुर संत संगीतज्ञ पुरुषोत्तम व्यास गदगद हो उठते थे। यह उनके लिए एक प्रार्थना गीत था। इसी गीत की एक पंक्ति है- 'मेरे गीत किसी के चरणों के अनुचर है किसी नायिका के चरणों का अनुचर होने की गवाही नहीं देते। आवश्यकता है कि श्रम करके दादा महेंद्र प्रताप की रचनाओं को पुस्तक का रूप दिया जाय। एक पुस्तक, हड़बड़ी कहें या लापरवाही में महेंद्र मंजूषा- नाम से छपी लेकिन उसे देखकर खुशी तो नहीं मिली दुख जरूर हुआ क्योंकि उसमें संपादन  की जगह सिर्फ संकलन का रूप था और प्रूफ की बेशुमार गलतियां थी। अभी दादा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर इतना ही । कहने या लिखने के लिए अभी भी बहुत कुछ रह गया है लेकिन वह फिर कभी ...

   


✍️ माहेश्वर तिवारी

मुरादाबाद

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