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बुधवार, 18 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघुकथा ----बेचारी मां


तीनों भाई आपस में इसी बात का फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि माँ को कौन अपने पास रखेगा।बड़ा भाई दूर नौकरी करने की दलील देकर बच कर साफ निकल जाता है।मंझला भाई पत्नी की  तबियत खराब चलने के कारण मां की सही देख भाल न हो पाने की बात कह कर अपना पीछा छुड़ा लेता है। 

    सबसे छोटा भाई शर्माते हुए अपनी पत्नी से पूछता है शोभा तुम बताओ क्या किया जाए।मेरी तो माँ है,मैं तो तुम्हारे ही ऊपर हूँ। तुम अगर माँ की सही देख-भाल कर सको तो मुझे खुशी होगी।

      तभी शोभा तुनककर बोली देखो जी दो बड़े भाइयों ने तो अपनी अपनी गाथा गा दी और पीछा छुड़ा लिया, क्या हम पर ही कुबेर का खजाना गढ़ा है।छोटी सी नौकरी दो-दो बच्चों की पढ़ाई लिखाई,हारी-बीमारी,इन्हीं के कपड़े-लत्ते बनाना भारी पड़ता है।ऊपर से इनका मुश्तकिल बोझ भी हमीं उठाएं यह तो खूब रही।तुम्हारी तो मति मारी गई है भाइयों के आगे तो भीगी बिल्ली हो जाते हो।जुबान को लकवा सा मार जाता है।मैं कुछ कहना भी चाहूँ तो,,,,,,,

          अब साफ साफ सुन लो जी, या तो ये ही रहेंगी या फिर तुम ही रहना अपने बच्चों के साथ।मेरी बात मानों तो माँ को

वृद्धाआश्रम में भेज दो सारा झंझट ही खत्म।में तो खुद ही बीमार सी रहती हूँ।

      जैसा तुम कहो,,,,,,,,

तभी अचानक भाइयों की इकलौती बहन बीना आ गई ।सारी बातों को सुन कर हैरान रह गई ।तुरत ही मां से बोली माँ,जल्दी चलो अब यह घर तुम्हारे रहने लायक नहीं रह गया है।अब तुम हमारे साथ रहोगी।हमें भी तुम्हारे आशीर्वाद की ज़रूरत है।

      बिटिया माँ को अपने साथ ले जाती है।घर को मुड़-मुड़कर निहारती रहती है "बेचारी माँ"              

✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी , मुरादाबाद, उ,प्र, 

मो0-    9719275453

         

गुरुवार, 5 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी ----ज्योति


सुबह-सुबह घूमने निकले कुछ लोग यकायक बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर ठिठके और कुछ पल रुक कर रोती  हुई आवाज़ का सच जानने के प्रयास में उस ओर दौड़े जहां से आवाज़ आ रही थी।उन्होंने देखा कि एक जालीदार टोकरी में एक नवजात बच्ची रोए जा रही है।अरे कोई लड़की लोक लाज के डर से इस बच्ची को यहाँ छोड़कर चली गई है।सबने बारी-बारी से अपनी प्रतिक्रिया तो व्यक्त की परंतु उस बच्ची को उठाकर उसके जीवन को बचाने की कोशिश नहीं की।

     किसी ने कहा लड़का होता तो हम ही रख लेते, किसी ने कहा क्या पता किस धर्म जाति की है।किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया और अपनी राह हो लिए।वह बच्ची इसी प्रकार भूखी-प्यासी रोती रही ज्यादा भूख लगती तो अपने हाथ की उंगलियों को ही चूसकर शांत हो जाती।

      दिन चढ़ते चढ़ते काफी लोग इकट्ठा हो गए लेकिन उसे किसी ने प्यार से गोदी में नहीं उठाया।बात फैली तो एक बड़े घर की महिला वहां आई और उसने उस बच्ची को गोदी में उठाकर उसके ऊपर लगे कूड़े कचरे को हटाया और एक साफ तौलिया में लपेटकर उसे पहले बाल चिकित्सालय ले गई।वहाँ उसका पूरा स्वास्थ्य परीक्षण कराने के बाद उसे पास के थाने लेजाकर उसे अपने साथ रखने की प्रक्रिया की जानकारी की।अंततः अनाथालय के माद्यम से बच्ची को घर ले जाने में सफलता हासिल की। 

       जब काफी समय बीतने पर भी उसे लेने कोई नहीं आया तो महिला ने उसकी अच्छी परवरिश में दिन-रात एक कर दिए।बच्ची का नामकारण भी बड़ी धूम-धाम से किया गया।सभी उसे ज्योति कहकर पुकारते।बच्ची धीरे -धीरे बड़ी होती गई।खूब पढ़ लिखकर योग्य चिकित्सक बनी।

      वह अपनी मां का बहुत ध्यान रखती।एक दिन मां ने उसे सत्य से अवगत कराते हुए कहा बेटी यह संसार बड़ा विचित्र है।यहां लोग सिर्फ अपने फायदे के बारे में ही सोचते हैं।तू अगर लड़का होती तो मुझे कैसे मिलती।लड़के के ऊपर किए गए खर्चे की तो पाई पाई वसूल कर लेते।तेरे ऊपर लगाए पैसे तो उनके लिए व्यर्थ ही जाते।

       तू मेरी आँखों की ज्योति है और मेरी हारी-बीमारी में मेरी चिकित्सक भी। ईश्वर तुझे शतायु करे।यह सुनकर बिटिया मां से लिपट कर बोली तुम तो ईश्वर की साक्षात प्रतिमा हो माँ।

✍️वीरेन्द्र सिंह बृजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र,

   मो 9719275453

       

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह वृजवासी की लघुकथा ---------बिना विचारे जो करे

 


शहर में मुनादी की गई भाइयो पानी की टंकी की सफाई होने के कारण दो दिन तक पानी नहीं आएगा।कृपया घर के खाली बर्तनों को भर कर रख लें,,,,,

      इतना सुनते ही लोगों में पानी भरने की होड़ सी लग गई।जिसे देखो वही अपने साथ खाली बर्तनों ,बाल्टियों,डिब्बों और न जाने क्या-क्या छोटे-मोटे सामान लेकर पानी की चाह लिए चला आ रहा है।

           दूर तक खाली बर्तनों की कतार लगाकर लोग अपनी-अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे।तभी मुहल्ले के एक दबंग की पत्नी ने आकर लाइन की परवाह न करते हुए अपनी बाल्टी को सबसे आगे लगाने का प्रयास किया।लोगों के ऐतराज़ करने पर लड़ने -मरने पर उतारू हो गई।देखूं मुझसे पहले पानी कौन भरेगा।एक महिला जो सबसे पीछे खड़ी हुई थी आगे आई और दबंग स्त्री से बोली बहन जी सभी को पानी चाहिए थोड़ी देर सबेर में क्या हो जाएगा,आप आई भी तो सबके बाद में ही हो।लाइन में ही आ जाओ तो अच्छा रहेगा।जो लोग पहले से खड़े हैं मूर्ख थोड़ी हैं।

       दबंग स्त्री भला यह कैसे बर्दाश्त करती कि उसे कोई सलाह दे। यह तो हो ही नहीं सकता।उसने बर्तन एक तरफ रखा और समझाने आई महिला के बाल पकड़कर उससे ऐसे भिड़ गई जैसे बरसों की दुश्मनी हो।देखते ही देखते बालों के गुच्छों का चारों तरफ बिखरते नज़र आने लगे।लोगों ने लड़ाई शांत कराने का भरसक प्रयास किया,परंतु वे दोनों तो ऐसे चिपकी हुईं थीं जैसे ऐसे ही सर जोड़कर पैदा हुई हों।

        क्रोध तो क्रोध है सदा थोड़े ही रहता है,कभी न कभी स्वतः ही शांत हो जाता है परंतु अपने पीछे एक पछतावा छोड़ जाता है।वही हुआ। जब तक इन नादान स्त्रियों का क्रोध शांत हुआ तब तक सब कुछ खत्म हो चुका था।

     न एक बून्द पानी बचा न एक भी बर्तन वहाँ नज़र आया।सभी अपने-अपने बर्तन भरकर  ले गए इनके हाथ लगी केवल निराशा।

    तभी तो हमारे बुजुर्गों ने कहा है। "बिना विचारे जो  करे

      सो    पीछे   पछताए"     

 ✍️वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद

 मोबाइल फोन नम्बर -   9719275453

    

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघुकथा ----बच्चे में है भगवान

 


मैं बड़ी दुविधा में था कि अपने घर के सामने वाले पार्क में इस नन्हे फलदार वृक्ष के नाज़ुक पौधे को किसके कर कमलों से लगवाया जाए। कभी मन मेंआता

चलो शहर के जिलाधिकारी से लगवाया जाए अगले ही क्षण मन में आता कि वह तो महारिश्वत खोर है।रिश्वत के आगे तो सही ग़लत का भी ध्यान नहीं रखता अपने पद की ऐंठ में ही रहता है।

      फिर सोचा कि किसे बड़े नेता को बुला कर उससे यह कार्य कराया जाए।परंतु वह तो डी,एम, महोदय से भी दो हाथ आगे है।अपनी स्वार्थ सिद्धि के आगे वह तो बड़े से बड़े कांड कराने से भी पीछे नहीं हटता।उसकी बला से कोई मरे या जिए। 

     तभीअनायास ही दिमाग में आया कि  एक  जटाधारी  एवं त्रिपुंड धारी सिद्ध पीठ के महा मंडलेश्वर  के  पावन  हाथों  से वृक्षारोपण उचित रहेगा।लेकिन,,मन नहीं माना उसने सोचा कि यह तो भगवान के घर में बैठकर ही मानव को मानव से अलग समझता है।कोई अछूत यदि धोखे से भी मंदिर का द्वार छू भर दे तो उसको नाना प्रकार का दंड देकर उस ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति को भी अपमानित करने से नहीं चूकता।नही--नहीं,,,,

        चलो एक शिक्षक से ही इस पौधे का रोपण करा देता हूँ ।परंतु यह भी नीच जाति के बच्चों को शिक्षा देने में अपनी तौहीन समझ कर उसपर यह उपकार नहीं करता।केवल उन्हीं क्षात्रों को अच्छी तरह पढ़ाता है जो इससे ट्यूशन पढ़ते हैं।यह भी नहीं चलेगा,,,

इस प्रकार माता,पिता,दादा,दादी के अतिरिक्त बहुत से करीबी रिश्तेदारों पर भी विचार किया परंतु वे सब भी अपनी अपनी चहेती संतानों में बंटे हुए दिखाई दिए।

      अंततः मेरी शंका के समाधान की सुई एक नन्हे से बालक पर जाकर रुकी और मैंने सोचा इससे बढ़िया तो कोई हो ही नहीं सकता क्यों कि बच्चा अंतर्मन से शुद्ध और निर्विकार साक्षात ईश्वर का स्वरूप होता है।उसके मन में ऊंच-नींच,छोटा-बड़ा,अपने -पराए का घ्रणित भाव नहीं रहता।उसका जीवन तो केवल प्यार का भूखा होता है।

      अतः एक छूटे बच्चे के कर कमलों से उस वृक्ष को उचित स्थान पर लगवाया गया। तभी तो सभी यही कहते हैं कि,,,,,,,

       बच्चे में है भगवान

       बच्चे ने है  रहमान

       गीता          उसमें 

       बाइबल       उसमें

       उसमें    है   कुरान

       जग  में   बच्चा  है

               महान।

✍️ वीरेंद्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र,

     मो0-  9719275453

      

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघुकथा ------जब आवै संतोष धन

 


धक्का- मुक्की, तू तू-मैं मैं करते लोग एक दूसरे के ऊपर चढ़ने को तैयार तथा किसी भी सूरत से टिकिट पाने की आतुरता ने आदमी का विवेक भी शून्य करके रख दिया था।कभी-कभार तो गाली गलौज के साथ अभद्रता का नग्न प्रफ़र्शन करने से भी नहीं चूक रहे थे।

 तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने पास जाकर इसका कारण जानने का प्रयास किया तो पता चला कि उस पिक्चर हॉल में 'जय संतोषी माँ' पिक्चर कल ही लगी है और हर कोई उसके पहले शो का पहला टिकिट पाने की जुगाड़ में लगा है।

          उन महानुभाव ने अपना माथा पीटते हुए कहा ये लोग कितने अज्ञानी हैं ये इतना भी नहीं समझना चाहते कि जिस पिक्चर को देखने के लिए इन्होंने इंसानियत की सारी हदें पार करके अपने संतोष को ही तिलांजलि दे दी है। 

  कम से कम फ़िल्म के टाइटिल को ही गौर से पढ़ लेते।

मैंने तो पूर्वजों को यहीकहते सुना है कि ''जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान''     

✍️वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी,  मुरादाबाद/उ,प्र,

 मो-  9719275453

   

बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी --


रेलवे लाइन के किनारे अचानक भीड़ जुटी देखकर मन में उठीं अनेकानेक शंकाओं को दूर करने भाई दीनदयाल जी तेज कदमों से वहाँ पहुँचे और भीड़ को चीरते हुए जो दृश्य उन्होंने देखा तो हैरान रह गए।

        उन्होंने देखा एक लड़का जिसकी उम्र लगभग 18 या 20 वर्ष की रही होगी का बायाँ हाथ कोहनी के ऊपर से कटकर अलग हो चुका है।खून है जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा।बच्चा कभी अपनी आंखों को खोलता और तुरन्त ही बेसुध होकर लेट जाता।खून ज्यादा बह जाने के कारण उसका रंग भी पीला पड़ रहा था।

       उन्होंने सोचा कि ऐसे तमाशबीन होकर तो कुछ काम नहीं चल सकता।कुछ तो करना ही होगा,नहीं तो इसकी सांसें भी इसका साथ कब तक दे पाएंगी।

       भाई दीनदयाल जी ने आव देखा न ताव कुछ लोगों की मदद से उसे अपनी गाड़ी तक लाकर बहुत आराम से गाड़ी में पीछे की सीट पर लिटाया और स्वयं गाड़ी चलाते हुए शहर के सर्वमान्य अस्पताल में लाकर दिखाया।उन्होंने डॉक्टरों से कहा कि आप इस बच्चे पर तरस खाएं और इसकी यथा संभव शल्य चिकित्सा करके इसे बचाने की कृपा करें।

     डॉक्टरों ने देखा और बड़ी गंभीर मुद्रा में कहा कि इसका तो ईश्वर ही मालिक है।खून अधिक बह चुका है। शल्य क्रिया भी बहुत जटिल और खर्चीली होगी।

लगभ ढाई तीन लाख अनुमानित खर्चा कौन देगा।इसके अतिरिक्त दवाओं का खर्चा रहा अलग।

         भाई दीनदयाल जी ने सोचा कि हमने सारी उम्र पैसा ही कमाया है तथा उसे अनावश्यक रूप से उड़ाया भी है।अगर इस बच्चे की जान बचाने में कुछ धन खर्च हो भी जाएगा तो निश्चित ही पुण्य कार्य होगा।इसके साथ ही साथ हमारी गलतियों की माफी का सुलभ साधन भी बनेगा।

      उन्होंने डॉक्टरों की हर शर्त को मानते हुए आने वाले पूरे खर्च  की तरफ से आश्वस्त करते हुए इलाज को ही प्राथमिकता  देने पर ज़ोर दिया।

       आनन -फानन में बच्चे को भर्ती कर उसके आवश्यक परीक्षण पूरे करके शल्य क्रिया हेतु ओ,टी(ऑपरेशन थिएटर)में ले गए।करीब बाईस(22) घंटों तक निरंतर चली चिकित्सा के बाद डॉक्टरों ने उसे गहन चिकित्सा कक्ष में बहत्तर(72)घंटों के ऑब्जर्वेशन में रखकर उसपर पूरा ध्यान केंद्रित करते हुए मानवता का परिचय दिया।सभी चिकित्सक एवं सहायक स्टाफ उसके होश में आने की प्रतीक्षा करते हुए खाना -पीना तक भूल गए और अपनी योग्यता की कठिन परीक्षा का परिणाम जा

नने की उत्सुकता को नहीं रोक पाए।

        अचानक बच्चे के कराहने की आवाज़ डॉक्टरों के कानों में पड़ी तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। कुछ समय के इलाज के बाद एक दिन बच्चे ने  जुड़े हुए हाथ की उंगली को बहुत ही हल्के से हिलाकर शल्य क्रिया की तमाम आशंकाओं के निर्मूल होने का संकेत दिया।अब सभी चिकित्सक बच्चे के जीवन और उसके हाथ की सुरक्षा पर  पूरा भरोसा कर चुके थे।

      उन्होंने यह खबर भाई दीन दयाल जी को सुनाते हुए उनकी सभ्यता एवं इंसानियत को धन्यवाद देते हुए उनके चरण स्पर्श किए और कहा कि अब हम केवल द्ववाओं का खर्चा ही लेंगे।अपनी मेहनत,रूम का चार्ज तथा खान पान का कोई चार्ज नहीं लेंगे।           

✍️वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र

9719275453

         

बुधवार, 30 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी ---- मेरा भारत महान

सारे गांव में एक अजीब सन्नाटा सा पसरा है।कोई किसी से बातें करना तो दूर किसी की ओर देखना तक गवारा नहीं कर रहा।

   अपनी चौपाल में पंडत जी,अपनीचौपाल में चौहान साहब,घर के बाहर बनी अपनी छोटी सी बंगलिया में दीवान पर उदास बैठे माथुर साहब तथा पीपल के पेड़ के नींचे खरैरी चारपाई पर बैठे चौधरी साहब हुक्के में बेमन से दम लगाकर अपनी चिंता को नहीं रोक पाते हुए कहते हैं।है ईश्वर सबको सद्बुद्धि देना।

  तभी एक लंबी -चौड़ी फॉर्च्यूनर गाड़ी आकर गाँव के शुक्ला जी के मकान के बाहर रुकी।उसमें से करीब छह फीट लंबे खद्दर का सफेद कुर्ता और पाजामा पहने एक नेता जी उतरे।उनके साथ उनके कई हाली-मुवाली चमचे भी  हाथों में अलग-अलग तरह के असलहे  लेकर उनकी सुरक्षा में उतरे।

        नेता जी ने चारों ओर ही नज़रें दौड़ाईं तथा प्रधान जी,ओ प्रधान जी कहकर दो-तीन आवाज़ें भी लगाईं,परंतु किसी के कान में जूं तक न रेंगती देख नेता जी ने सोचा कि मेरे आने पर जिस गांव में एक शोर सा मच जाता था।हर कोई व्यक्ति मुझसे मिलने की तत्परता दिखाने में अग्रणी बनने की जुगत में रहता था।

         कोई पानी तो कोई चाय-नाश्ता लेकर आने के साथ-साथ साफ सुथरी बैठक में बैठाने के लिए अपनी साफी से ही कुर्सी मेज साफ करता नजर आता था।परंतु आज तो जिसकी तरफ देखो नज़रें फेर लेने को ही प्राथमिकता देता दिखाई दे रहा है।

    लगभग सभी के पास जाकर नेता जी ने इस बेरुखी का कारण जानने का प्रयास किया परंतु कोई सफलता नहीं मिली।तभी गांव के एक जिम्मेदार बुजुर्ग ने सारे गांव की आंतरिक पीड़ा को कुछ इस तरह बयान किया,,,,,

       'नेता जी' हमारा गांव कोई ऐसा-वैसा गांव नहीं आदर्श गांव है।यहाँ सारी कौमें एक परिवार के समान एक दूसरे की भावनाओं का आदर-सम्मान करते हुए गांव की प्रगति और खुशहाली कायम रखने को ही अपना सबसे बड़ा धर्म मानती हैं।

        यहाँ हरेक त्योहार हम सभी का त्योहार होता है।हर किसी मंगल कार्य में एक दूसरे की उपस्थिति महायज्ञ में आहुति। डालने के समान ही आपसी प्यार और भाईचारे को बल प्रदान करती नज़र आती हैं।हम हिन्दू-मुस्लिम का फर्क अपने दिमाग में नहीं रखते।

      नेता जी कुछ कहते इससे पहले ही सभी ने एक स्वर में नेता जी से कहा तुम्हें आपस में लड़ाकर वोट लेना ही आता है।सुना है हमारे देश से हमारे जिस्म के एक हिस्से से बेवजह ईर्ष्या को पनपने का मौका दिया जा रहा है।

     अनेक समाचार माध्यमों एवं कुछ शरारती तत्वों ने हमारे गांव में ऐसी खबरें फैलाकर हम सभी की चिंता को बढ़ा दिया है।उसी का परिणाम आपको देखने मिल रहा है।क्या ऐसा ही है नेता जी?

      नहीं -नहीं ऐसा कुछ नहीं है।आप लोग बिल्कुल भी चिंता न करें।हम एक थे,हम एक हैं,हम एक रहेंगे।यह कहते हुए नेता जी ने गांव के सम्मानित मुस्लिम परिवारों को आश्वस्त करते हुए गले से लगाया और सभी गांववालों के बीच बैठकर प्रेम पूर्वक जल पान करते हुए कहा में तो डर ही गया था।वैसे भी व्यर्थ आशंकाऐं दुख का कारण तो बनती ही हैं।हमारा संविधान भी हमें ऐसा करने की आज्ञा नहीं देता।

     तभी तो सभी कहते हैं ।,,,,

        मेरा भारत महान

✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र,

     मोबाइल फ़ोन नम्बर 9719275453

      

बुधवार, 23 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघुकथा -----माफ करना भैया

         


तांगा एक आलीशान कोठी के सामने आकर रुक गया।सवारी उतरी और बैग लेकर कोठी के अंदर जाने लगी तभी तांगे वाले ने टोकते हुए कहा भाई साहब मेरे पैसे तो देते जाइये।सवारी ने दो हज़ार का नोट दिखाते हुए कहा भाई छुट्टे नहीं हैं, थोड़ा ठहरो अंदर से लाकर देता हूँ।सवारी बैग लेकर अंदर चली गई।

       तांगे वाले को खड़े-खड़े दस मिनट हो गए परंतु भाई साहब नहीं लौटे।शायद किसी काम में लग गए होंगे थोड़ी देर और देख लेता हूँ।आधा घंटा बीतने पर तांगे वाले ने घंटी का बटन दबाया और कुछ क्षण इंतज़ार किया।तभी दरवाज़ा खुला और वही सज्जन बाहर निकले ।तांगे वाले को देखकर अवाक रह गए और बोले  भाई मुझे माफ़ करना मैं अंदर जाकर कुछ काम में लग गया मुझे यह ध्यान ही नहीं रह कि तुम्हारे पैसे भी देने हैं।

     तुमने इतना इंतज़ार ही क्यों किया पहले ही घंटी बजा दी होती।जल्दी से तांगे वाले को पैसे देकर पुनः क्षमा मांगते हुए बोले भाई इसे दिल पर मत लेना।

         तांगे वाले ने भी सहजता पूर्वक कहा कोई बात नहीं भाई साहब ऐसा हो जाता है।आप बहुत अच्छे हैं सर,,,,कहते हुए 

तांगा लेकर चला गया।

        


                वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी

                  मुरादाबाद/उ,प्र,

                  9719275453

       दिनांक- 02/09/2020

सोमवार, 21 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत -----इंसानियत से गिरती हुई बात न करना प्यारी सी जिंदगी के साथ घात न करना।


इंसानियत   से   गिरती  हुई

बात            न         करना

प्यारी सी  जिंदगी  के  साथ

घात          न          करना।


हम सही  तो  सारा  ज़माना

सही             है           यार

घृणा की राह पर न  बढ़ाओ

कदम          हर          बार

बर्बादियों   की  बातें   कभी

ज्ञात            न        करना।

इंसानियत से---------------

                

हर  बात में  मिठास भरी हो

भरा            हो          प्यार

हो गुल की तरह  रेशमी  हर

शब्द          में         निखार

शापित किसी के सरपे कभी

हाथ            न         धरना।

इंसानियत से--------------


खुशियां सभी की  हैं ज़रा यह

बात           जान            लो

बस  बांटना  है  प्यार  इसको

सही           मान            लो

खुशियों  के  सवेरों  में  सिया

रात           न            भरना।

इंसानियत से----------------


किसके लिए  ईश्वर  का कौन 

रूप                         धरेगा

खुश होके  पीर  सबकी  यहां

कौन                         हरेगा

प्रतिघात कभी  अपनों  से  है

तात           न           करना।

इंसानियत से----------------


जो सबसे  मिलकर धरती पर                             

रह              लेता            हो   

जो सबके  लिए  हर  कष्ट भी 

सह            लेता             हो

शतरंज  की  चालों  सा  कभी

मात             न         करना।

इंसानियत से----------------

      

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र,

मो0- 9719275453

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत ------ सबकी बड़ी बहन है हिंदी, सच्ची सरल कहन है हिंदी।


सबकी बड़ी  बहन है हिंदी,

सच्ची सरल  कहन है हिंदी।

        

सभी कोअक्षर ज्ञान बांटती,

पाखंडों   की  जडें  छांटती,

हर भाषा को गले लगा कर,

खुशी-खुशी सम्मान बांटती,

प्रेम  पगे  पावन  भावों   से,

महका हुआ सहन  है हिंदी।

सबकी बड़ी बहन---------


जो  भी  इससे  दूर  भागता,

कभीन उसका वक्त जागता,

अपने घर  का द्वार बंद कर,

अंग्रेज़ी  से   शरण   माँगता,

अंतर्मन   से   देती   सबको,

ही  आशीष  गहन  है  हिंदी।

सबकी बड़ी बहन----------


बच्चे को 'माँ 'शब्द सिखाती,

हर भटके को  राह  दिखाती,

जननी सम सब भाषाओंकी,

हिंदी   है,  सबको  बतलाती,

कोटिक  देवों  की  वाणी  से,

होता  हुआ   हवन  है  हिंदी।

सबकी बड़ी बहन----------


हिंदी   से  नफरत  करते  हो,

माँ  से तनिक नहीं  डरते  हो,

अन्य  विदेशी  भाषाओं   की,

गागर क्यों सिर पर  रखते हो?

गीतों, भजनों ,कविताओं का,

सबका  श्रेष्ठ  चयन  है  हिंदी।

सबकी बड़ी बहन-----------


आओ नमन  करें  हिंदी  को,

पूजें  इस  माँ  की  बिंदी  को,

प्रतिदिन हिंदीदिवस मनाकर,

दें  सम्मान  सतत  हिंदी  को,

सबमें    संस्कार   भरने   का,

करती  भार  वहन   है  हिंदी।

        

 ✍️  वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी

मुरादाबाद/उ,प्र,

फोन-   9719275453

      

बुधवार, 16 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी ----इंसानियत


घंटों इंतजार के बाद एक प्राइवेट बस आकर रुकी।कंडक्टर ने बस की खिड़की खोलकर आवाज़ लगाई अजमेर शरीफ,अजमेर शरीफ,जुम्मन और उसकी पत्नी आसमा की जान में जान आई और दौड़ पड़े बस में सवार होने के लिए।परंतु पास जाकर देखा कि बस तो खचाखच भारी हुई है।तिल रखने की भी जगह नहीं।उसमें घुसकर जगह पाना तो किसी युद्ध को जीतने से कम नहीं होगा।
      उन्होंने कंडक्टर से कहा भैया इसमें तो सांस लेना भी दुश्वार है।हम तो शारीरिक दुर्बलता के शिकार हैं।मेरी पत्नी के दोनो घुटनों में दर्द रहता है।इसी लिए तो हम अल्लाह की बारगाह में सर झुकाने जाना चाह रहे हैं।यूँ खड़े-खड़े सफर कर पाना हमारे लिए मुनासिब नहीं होगा।मैं खुद भी हार्ट पेशेंट हूँ।भैया कहीं बिठा सको तो बताओ।
       लालची बस कंडक्टर ने कहा बाबू जी थोड़ी दूर की बात है आगे बस रुकेगी वहां कुछ सवारियां उतरेंगी तभी आप बैठ जाना।किसी तरह मरते-गिरते बस में चढ़ तो गए ।कंडक्टर ने उन्हें एक तरफ करके जल्दी से उनके टिकिट भी काट दिए।अब उनके सामने खड़े-खड़े यात्रा करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं रह गया।
        आगे कई जगह बस रुकी परंतु सवारी के उतरने से पहले ही दूसरी खड़ी सवारी जल्दी से जगह घेरने की तत्परता दिखाती और जगह पा लेती।बेचारे जुम्मन और आसमा कभी कंडक्टर को कभी खुद को देखकर चुप रह जाते।शायद आगे कोई उतरे यही सोचकर धीरज रख लेते।
      दर्द से बेहाल दंपत्ति बस यात्रियों पर बेबस नज़र दौड़ाते कि कोई दाता का सखी थोड़ी सी जगह उन्हें भी देदे।परंतु बैठे हुए सारे यात्री उनसे ऐसे नज़रें चुरा कर अपनी सीटो को जकड़े हुए थे कि कहीं वह उन्हीं से सीट न मांग बैठें।कभी ज़ोर का झटका लगता तो गिरने से बाल-बाल बच जाते और अल्लाह-अल्लाह करके ऊपर लगे रॉड को और कसकर पकड़कर खुद को सुरक्षित कर लेते
       उनकी परेशानी को देखकर एक बुजुर्ग यात्री अपनी सीट से उठे और जुम्मन की पत्नी आसमा से बोले बहन आप मेरी सीट पर बैठ जाओ मैं भाई साहब के साथ खड़े होकर थोड़ी कमर सीधी कर लूंगा।आसमा ने कहा भाई साहब आप क्यों तकलीफ उठा रहे हैं।कृपया आप बैठे रहिए आपकी मेहरबानी का शुक्रिया।फिर भी बुजुर्ग सज्जन नहीं माने और आसमा को ससम्मान सीट पर बैठा दिया।
        यह देखकर दो नौजवान यात्री उठे और दोनों खड़े हुए बुजुर्गों को अपने स्थान पर आराम से बैठ जाने का आग्रह करने लगे।बोले दादा हम तो शारीरिक तौर पर काफी तंदरुस्त हैं,हम खड़े होकर भी यात्रा कर सकते हैं।और यह कहते हुए उन्हें हाथ पकड़कर सीट पर बैठाया।
          दोनों बुजुर्गों ने सीट पर बैठकर राहत की सांस ली और उन दोनों नौजवानों पर दिल से दुआओं का खजाना लुटाने लगे।जुम्मन ने पूछा बेटे आप दोनों के नाम क्या हैं।दोनों ने विनम्रता पूर्वक अपने नाम बद्री एवं दीनानाथ बताया।
      थोड़ी देर बाद अजमेर बस अड्डा आ गया।नौजवानों ने उन्हें सहारा देकर बस से उतारा और उनका सामान लेकर चाय की दुकान पर ले जाकर चाय-पानी पिलवाया और दरगाह शरीफ तक  जाने के लिए सवारी भी कराई।फिर सादर प्रणाम करके चले गए।
        जुम्मन और आसमा ने उन्हें दिल से दुआएं दीं और उनकी इंसानियत की दुहाई देते हुए दरगाह शरीफ पहुंचकर अल्लाह मियाँ से अपने लिए कुछ भी माँगने से पहले उन दोंनों बच्चों बद्री और दीनानाथ एवं दयालु बुजुर्ग यात्री की सलामती की दुआ की।
         अर्थात निःस्वार्थ सेवा भाव रखने वाला व्यक्ति ही ईश्वर की कृपा का असली भागीदार होता है।
                         
✍️वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
मो0-  9719275453
           

शनिवार, 12 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत --- तुम मेरे साथ चलो


तुम  मेरे साथ  चलो
दुनियां दिखलाता हूँ
जीवन का जीवन से
परिचय करवाता  हूँ!
तुम मेरे साथ,,,,,,,,,,,,

              मुश्किल से मिलता है
              कुछ  प्यार ज़माने  से
              सबकुछ  खोजाता  है
              इक  नज़र  चुराने   से
              मत खुदपर बोझ बनो
              तुमको   समझाता  हूँ!

चढ़ते  को  मत रोको
गिरते  को थामो  तुम
झूठी धन  दौलत  को
अपना मत मानो तुम
सच्चाई  जीवन   की
तुमको  बतलाता  हूँ!

 
              मानो  तो  देव  सभी
              वरना  सब  पत्थर है
              अभिमानी धरती पर
               काँटों का गठठर  है
               मैं  नर-नारायण  से
               तुमको मिलवाता हूँ!

मन  की गागरिया  में
जीभर के प्यार  भरो
कोयल सी  वाणी  से
सबका सत्कार  करो
अमृत  के  झरनो  में
तुमको  नहलाता  हूँ!

             दुनियां  क्या  करती  है?
             इस पर मत् जाओ  तुम
             अपनी मन  बगिया  का
              हर पुष्प खिलाओ  तुम
              खुशियों  की  माला  मैं
               तुमको   पहनाता   हूँ !

       
 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद 244001
 9719275453

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी ---- मां

   
राजू की पत्नी रमा चीख-चीख कर अम्मा-अम्मा की आवाज़ लगा रही थी और सोच रही थी कि बुढ़िया कहाँ मर गई।घर का सारा काम पड़ा है,बच्चे भी स्कूल से लौट रहे होंगे उनके लिए भी नाश्ता-पानी कुछ तैयार नहीं है।मैं भी अभी अभी स्कूल से लौटी हूँ।मैं क्या-क्या काम करूं।बर्तन माँजूं ,रसोई साफ करूं या इस कामचोर बुढ़िया को बैठकर कोसूं।
        आवाज़ सुनकर अम्मा जो तेज़ बुखार/सरदर्द के कारण पैरासिटामोल की गोली लेकर लेट गई थी उससे कुछ आराम मिला तो नींद आ गई हड़बड़ाकर उठी और डरते-डरते बहू के पास पहुंची और बोली बहू क्यों परेशान हो रही हो।मैं  जब कपड़े धोकर सुखाने डाल रही थी तभी अचानक तेज सरदर्द के कारण दवा लेकर लेट गई बुखार होने के कारण कुछ करने का मन नहीं हुआ।
       बहू इतना सुन आग बबूला होकर बोली बुढ़िया तू बहाने मत बना हल्का बुखार ही तो था,मर तो नहीं रही थी।सारे घर का काम कौन करेगा।मैं भी हारी-थकी आई हूँ। मेरी एक प्याली चाय और बच्चों के लिए शाम के नाश्ते की जरूरत तुझे दिखाई नहीं देती क्या,,
     अम्मा हिम्मत करके बोली बहू इसमें इतना नाराज़ होने की क्या जरूरत धीरे से भी तो कह सकती हो।चल-चल ज्यादा ज़ुबान मत लड़ा रसोई में जाकर चाय -नाश्ता बना।सब कुछ दस मिनट में हो जाना चाहिए।
        इतने में रमा का पति राजू भी ऑफिस से लौटआया। रमा की तरफ देखकर बोला डार्लिंग तुम्हारा मूड आज कुछ उखड़ा-उखड़ा लग रहा है क्या कोई बात हो गई।रमा ने राजू को अपनी ओर झुकते हुए देख आंखों में घड़ियाली आंसू भरकर अम्मा के बारे में न जाने कितनी झूठी बातों को भी सच का लबादा उढ़ाकर अपनी जान का दुश्मन तक कह डाला।
     राजू ने आव देखा न ताव लगा अम्मा पर बरसने।अम्मा को झूठी ,कामचोर,हरामखोर,निकम्मीऔर न जाने क्या-क्या कहते हुए उसपर चप्पल तान कर मारने को उतारू हो गया। अम्मा भी अपनी सफाई में कुछ कहना चाह रही थी मगर उसकी बात तो राजू के गुस्से   की आग में घी का काम कर रही थी।हारकर माँ चुप हो गई और आंखों में आंसू भर कर बेमन से काम में जुट गई।
      अब तो यह रवैया रोज़ का ही  अंग बनता जा रहा था।यहां तक कि बहू भी अम्मा पर हाथ छोड़ने में संकोच न करती।यह बात वहां के संभ्रांत नागरिकों को  अखरने लगी परंतु वे इसे उस परिवार का निजी मामला मानकर चुप रहते।
        परंतु जब उस असहाय अम्मा पर ज्यादतियों की रफ्तार इतनी बढ़ गई कि अम्मा की चीखों को घर के खिड़की,दरवाजे भी रोकने में नाकाम होने लगे तो किसी ने चुपके से सौ नंबर पुलिस को सूचित करके सारी व्यथा कथा से अवगत करा दिया।
    चंद मिनटों के पश्चात ही पुलिस  ने राजू के घर का दरवाजा खटखटाया और बाहर आने को कहा।तुरंत राजू ने पत्नी के साथ डरते-डरते दरवाजा खोला और बाहर आकर पुलिस वालों से आने का कारण पूछा तब पुलिस वालों ने उनसे थाने चलने को कहते हुए कहा हमारे पास आपके विरुद्ध माँ के साथ दुर्व्यवहार करने की शिकायत दर्ज है।आप लोग माँ के साथ मार पीट करते हैं तथा उनसे घर का सारा काम करने का दवाब बनाकर उनको शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं।
     राजू और उसकी पत्नी ने कुछ कहना चाहा तो पुलिस वालों ने कहा जो भी कहना है थाने चलकर कहें।इतना कहकर उन्हें गाड़ी में बैठाकर चलने को तैयार हो गए।
         गाड़ी स्टार्ट होती इससे पहले बूढ़ी अम्मा ने आकर पुलिस वालों से कहा कि मेरा बेटा और बहू बहुत अच्छे हैं।मेरे बड़ा खयाल रखते हैं।मुझे पलंग पर ही खाना देते है और मेरी दवा का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं।मैं तो इन्हीं की बदौलत ज़िंदा हूँ वरना मेरा और कौन है।मेरा बेटा तो हज़ारों में एक है।भगवान ऐसा बेटा सबको दे।तभी पोता बोला नहीं पुलिस अंकल मेरी दादी झूठ बोल रही है।दादी ने उसे भी डांटते हुए अंदर भेज दिया।
        पुलिस वालों को बूढ़ी अम्मा पर दया आ गई,उन्होंने राजुऔर उसकी पत्नी को खास हिदायत देते हुए छोड़ दिया। लेकिन राजू और उसकी पत्नी अपनी करनी पर अंदर ही अंदर बहुत लज्जित हो रहे थे।यहां तक कि अपनी मां से आँखें मिलाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे थे।
      दोनों तुरंत माँ के चरणों में गिरकर बार-बार क्षमा याचना करने लगे और भविष्य में ऐसा न करने की कसमें खाने लगे।ऐसा घ्रणित विचार भी अपने मन में न लाने का प्रण करते हुए माँ की महिमा का गुणगान करते हुए सभी से कहने लगे कि,,
माँ तो साक्षात ईश्वर का स्वरूप होती है।माँ का दिल आईने की तरह साफ होता है।हमारी सारी भूलों को एक पल में क्षमा करके हमें सुपुत्र का दर्जा अगर कोई दे सकता है तो वह है हमारी माँ।
   हम भूल कर सकते हैं परंतु एक मां भूल से भी कभी ऐसी कोई भूल नही कर सकती।
      अर्थात मां तो साक्षात ईश्वर की प्रतिमूर्ति है।
     
               
✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
 मुरादाबाद/उ,प्र,
 मोबाइल-  9719275453
   
                          -----------

शनिवार, 5 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत


शिक्षक हमपर प्यार लुटाते
श्रद्धाभाव  हमें   सिखलाते
जो पढ़ने  से आंख  चुराता
उसको अपने पास  बुलाते।

ठीक समय विद्यालयआते
हिंदी, इंग्लिश, मैथ  पढ़ाते
ब्लैक  बोर्ड परआसानी से
पाठ सभी को याद  कराते।

हल्की-फुल्की डांट लगाते
नहीं किसीपर हाथ  उठाते
खेल-खेल में ही बच्चों को
शिक्षा की महिमा बतलाते।

शिक्षा  से  उजियारा  पाते
बिन शिक्षा  बेहद पछताते
बिना गुरु जीवन  नैया हम
लेकर पार  नहीं  जा  पाते।

पांच सितंबर भूल न  पाते
गुरु चरणों मे सीस  नवाते
अंधकार का  नाम  मिटाने
उजियारा घर-घर पहुंचाते।
शिक्षक हमपर-----------
 
       
  ✍️वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
   मो0-   9719275453

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी -----वार्षिक परीक्षा की फीस


कक्षा अध्यापक ने आवाज़ लगाकर कहा अरे मोहन तुमने हाई स्कूल की वार्षिक परीक्षा फीस अभी तक जमा नहीं की, क्या तुम्हें परीक्षा नहीं देनी।सोच लो कल तक का समय ही शेष है।
        मोहन उदास मन से खड़ा होकर  अध्यापक की तरफ  देखकर कुछ कहने से पहले ही आंखों में आंसू भर लाया और रुंधे गले से बोलते-बोलते यकायक फफक कर रो दिया। अध्यापक अपनी कुर्सी से उठे और मोहन के पास जाकर उसे चुप करते हुए उससे वास्तविकता जानने का प्रयास करने लगे।उन्होंने कहा कि तुम अपनी विवशता खुलकर बताओ हिम्मत हारने से काम नहीं चलेगा।
       मोहन ने कहा सर मैं परीक्षा किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं चाहता हूँ परंतु घर के हालात ऐसे नहीं हैं।मैं अपनी विधवा माँ के साथ रहता हूँ।हमारी देख-रेख करने वाला भी कोई नहीं है।मेरी माँ ही छोटे-मोटे काम करके मुझे पढ़ाने की चाहत में लगी रहती है।
       अब काफी समय से उसकी तबीयत भी बहुत खराब चल रही है।घर में जो कुछ पैसे- धेले थे वह भी माँ के इलाज में उठ गए लेकिन हालत सुधरने की जगह और बिगड़ती जा रही है।मुझे हर समय उनकी है चिंता रहती है।ऐसे में मैं यह फैसला नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं परीक्षा दूँ या छोड़ दूं
परीक्षा तो फिर भी दे दूँगा परंतु माँ तो दोबारा नहीं मिल सकती।यह कहकर वह मौन होकर वहीं बैठ गया।
      अध्यापक महोदय का दिल भर आया उन्होंने कहा कि मेरी कक्षा के तुम सबसे होनहार विद्यार्थी हो मुझे यह भी भरोसा है कि तुम इस विद्यालय का नाम रौशन करोगे।
       परेशानियां तो आती जाती रहती हैं परंतु परीक्षा छोड़ने का तुम्हारा निर्णय तो तुम्हारी माँ की बीमारी को और बढ़ा देगा।इसलिये हिम्मत से काम लो ईस्वर सब अच्छा करेंगे।
          गुरुजी ने अपनी जेब से कुछ रुपए निकाल कर मोहन के हाथ पर रखते हुए कहा लो बेटे इनसे तुम अपनी माँ का सही इलाज कराओ।उनके खाने पीने का उचित प्रबंध करो।फीस की चिंता मुझपर छोड़ दो।
        मोहन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कभी स्वयं को तो कभी पूज्य गुरुवर को देखता और यह सोचता कि भगवान कहीं और नहीं बसता मेरे सहृदय गुरु के रूप में इस संसार मे विद्यमान रहकर असहाय लोगों की सहायता करके अपने होने को प्रमाणित करता है।
      मोहन ने गुरु जी की आज्ञा को सर्वोपरि रखते हुए माँ का इलाज कराया और पूरे मनोयोग से परीक्षा देकर कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया तथा अपनी माँ और पूज्य गुरुवर के चरण स्पर्श करके उनका परम आशीर्वाद भी प्राप्त किया।
     
             
 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
  मुरादाबाद/उ,प्र,
  9719275453

शनिवार, 22 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघुकथा ------अथक परिश्रम

   
छोटी सी नौकरी और छोटी तनख्वाह में वीरू और उनकी पत्नी राजे का अपने तीन बच्चों के साथ गुजारा करना कठिन तो जरूर था लेकिन वे यह जानते थे कि नेक नीयत मंज़िल आसान किसी ने यूँ ही नहीं कहा है।सादा जीवन उच्च विचार कि उक्ति को चरितार्थ करते हुए भगवान पर पूरा भरोसा रखते हुए अपने परिवार में अत्यंत प्रसन्नता के साथ अपने जीवन की गाड़ी को निरंतर आगे बढ़ा रहे थे।
       उनकी जिंदगी का परम उद्देश्य यही था कि उनकी तीनों संतानें खूब पढ़ लिख कर बड़े अधिकारी बनें।इसी उधेड़ बुन में खूब मेहनत और लगन के साथ अपने काम को अंजाम देते। बच्चे भी पढ़ने-लिखने में अच्छे और परिश्रमी थे।हमेशा क्लास में प्रथम रहकर विद्यालय का नाम रौशन करते।
       एक दिन बैठे-बैठे वीरू ने अपने बच्चों से बड़े सहज भाव से यह पूछा कि बच्चों जब हम बूढ़े हो जाएंगे तो हमें अपने पास कौन बुलाएगा।तीनों बच्चों ने उत्सुकता जताते हुए अपने-अपने पास बुलाने की सहमति दी।यह देखकर वीरू ख़ुश तो जरूर हुआ लेकिन उसने बच्चों के सम्मुख एक शर्त भी रख दी।
         वीरू ने कहा कि हम ऐसे ही किसी के पास नहीं जाएंगे,हम तो केवल उसी के पास जाएंगे जिसकी चार पहियों की गाड़ी हमको स्टेशन से लेने आएगी।बच्चों ने स्पर्धा का भाव रखते हुए अपनी-अपनी गाड़ी से लाने को प्राथमिकता दी।
        तब वीरू ने बच्चों को यह समझाया कि बच्चो गाड़ी ऐसे ही नहीं मिलती वह तो अथक परिश्रम और सच्ची लगन के साथ पढ़ाई करने और कंपीटीशन में सर्वोच्च स्थान लाने के उपरांत ही मिलती है।तुम भी ऐसा ही करोगे तभी तुमें गाड़ी भी मिलेगी और सामाजिक सम्मान भी प्राप्त होगा।
         फिर क्या था बच्चो ने इसी को अपना लक्ष्य बना लिया और अंततः उसका बड़ा बेटा राघव जज बन कर ,छोटा बेटा पीयूष सरकारी विभाग  में सीनियर इंजीनियर बनकर तथा बिटिया हिम्मो भी कुशल इंजीनियर की डिग्री लेकर लौटी।
        यह देख कर माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा।अब तीनों की गाड़ी ही पापा - मम्मी को स्टेशन से लेने जातीं हैं।अब पापा यह सोचते हैं कि किसकी गाड़ी में पहले बैठें।
                     
 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ, प्र,
 9719275453         
                     

शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी जी की कहानी----भोली जिज्ञासा


   दादाजी को दूर से आते देख बच्चे (रवि) की खुशी का ठिकाना न रहा।दौड़कर बच्चे ने दादा जी के पास पहुंचकर चरण स्पर्श किएऔर उनका आशीर्वाद लिया।
       अगले ही क्षण बच्चे ने बड़े ही भोले पन से दादा से प्रश्न किया दादाजी अब कब जाओगे।दादाजी को उसके इस तरह पूछने पर यह शंका हुई कि शायद मेरा आना उसको या इसके माता-पिता को अच्छा न लगा हो,तभी तो इसने अपनी या अपने माता-पिता की शंका का अविलंब समाधान करने का प्रयास किया है।
      परंतु धैर्य के साथ मुस्कुराते हुए दादा ने बच्चे के उस प्रश्न का बड़ी सहजता से उत्तर दिया कि बेटा हम अभी अभी तो आए हैं।इतनी जल्दी कैसे जाएंगे।अब तो हम तुम्हारे साथ बहुत दिन तक रहेंगे।
       बच्चे ने जब यह सुना कि दादा जी अभी नहीं जाएंगे तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।वह खुशी-खुशी डांस करते हुए दादा से लिपट कर उनके प्यार में खो गया।उनकी छड़ी को शहनाई बजाने की मुद्रा में लेकर उनके आगे-आगे स्वागत करता हुआ घर की ओर बढ़ने लगा।
        दादा जी के आने की खबर मम्मी-पापा को सुनाने के लिए तेज कदमों से घर के अंदर चला गया। कुछ पलों के पश्चात वह मम्मी-पापा के साथ दादा जी के समीप पहुंच कर उनकी गोदी में चढ़कर बैठ गया।मम्मी-पापा ने भी दादा जी के पैर छूए और उनकी खैरियत से वाक़िफ़ होकर उनके लिए जलपान की व्यवस्था में लग गए।
       तब दादाजी ने अपने झोले की चेन खोलकर साथ में लाए मथुरा की सोहन पपड़ी का डिब्बा निकलकर पोते रवि को दिया।
        इस तरह दादू पोते एक दूजे के साथ रहकर खुशियां लुटाते नज़र आते।दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह पाते।बच्चा रात को दादा के पास ही सोता और रोज़ नई से नई कहानियां सुनता।
      काफी समय हो जाने पर दादा घर लौटकर खेती बाड़ी संबंधी कार्य पूर्ति की सोचने लगे।
परंतु उनका घर से निकल पाना इतना आसान नहीं था।
       एक दिन अहले सुबह उठकर उन्होंने जल्दी - जल्दी कपड़े पहने और चुपके - चुपके बाहर निकल कर जूते पहने तथा बहू-बेटे से दो परांठे टिफिन में लेकर आशीर्वाद देकर चले गए।मगर पोते को छोड़कर जाना उन्हें भी बहुत बुरा लग रहा था परंतु जाना भी जरूरी था।
    सुबह जब बच्चे(रवि)की आंख खुली तो सबसे पहले उसने दादाजी को ही पूछा परंतु घर वालों ने कहा कि दादाजी घूमने गए हैं थोड़ी देर में आ जाएंगे।
       बच्चा भी माता-पिता के चेहरे पर बनी झूठ की लकीरों को पढ़ कर बार-बार दादा जी के पास जाने की ज़िद करने लगा और उदास होकर दादा के आने की प्रतीक्षा करने लगा और बोला,,,मैंने तभी तो दादू से पूछा था कि दादा अब कब जाओगे।
         अर्थात वह यह सुनिश्चित करना चाहता था कि दादाजी मुझे छोड़कर जल्दी तो नहीं चले जाओगे।
   यही तो है बच्चे की भोली जिज्ञासा। 
           
  वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
   मुरादाबाद/उ,प्र,
  फोन-9719275453