बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघुकथा ------जब आवै संतोष धन

 


धक्का- मुक्की, तू तू-मैं मैं करते लोग एक दूसरे के ऊपर चढ़ने को तैयार तथा किसी भी सूरत से टिकिट पाने की आतुरता ने आदमी का विवेक भी शून्य करके रख दिया था।कभी-कभार तो गाली गलौज के साथ अभद्रता का नग्न प्रफ़र्शन करने से भी नहीं चूक रहे थे।

 तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने पास जाकर इसका कारण जानने का प्रयास किया तो पता चला कि उस पिक्चर हॉल में 'जय संतोषी माँ' पिक्चर कल ही लगी है और हर कोई उसके पहले शो का पहला टिकिट पाने की जुगाड़ में लगा है।

          उन महानुभाव ने अपना माथा पीटते हुए कहा ये लोग कितने अज्ञानी हैं ये इतना भी नहीं समझना चाहते कि जिस पिक्चर को देखने के लिए इन्होंने इंसानियत की सारी हदें पार करके अपने संतोष को ही तिलांजलि दे दी है। 

  कम से कम फ़िल्म के टाइटिल को ही गौर से पढ़ लेते।

मैंने तो पूर्वजों को यहीकहते सुना है कि ''जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान''     

✍️वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी,  मुरादाबाद/उ,प्र,

 मो-  9719275453

   

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