एक-----
ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
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ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
साल, साल में घर आती हैं।
नहीं एक का, साझे का है
छह बहनों का पुस्तैनी घर।
जो भी इसमें रहती आई
वह, देखी गई अकेली पर।।
रहन-सहन इस ढब का हो तो
शंकाएँ घर कर जाती हैं।
बतलाए जाते हैं, इनके
और कहीं भी ठौर-ठिकाने।
चली वहीं जाती हैं क्रम से
अपना-अपना अर्थ कमाने।।
कमा-कमाकर गर्मी, ठिठुरन
और कमा जलधर लाती हैं।
जाती एक दूसरी लौटे
निज मान सुरक्षित रखने को।
घर की बात बना रक्खी है
आते जिसको सब लखने को।।
जोड़-जमाकर जी की ठंडक
हँसने को,पतझर लाती हैं।
दो-----
खेत जोत कर जब आते थे
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खेत जोत कर जब आते थे
थककर पिता हमारे।
कहते! बैलों को लेजाकर
पानी जरा दिखाना।
हरा मिलाकर न्यार डालना
रातब खूब मिलाना।।
बलिहारी थे, उस जोड़ी पर
हलधर पिता हमारे।
स्वर से लेकर वर्णों तक के
जो भी पाठ पढ़ाए।
इस जीवन में उत्कर्षों तक
ले, जो हमको आए।।
परम शास्त्र के मंदिर जैसे
गुरुवर पिता हमारे।
इसी लोक से अपर लोक को
जाने वाला रस्ता।
इसपर पड़कर चलने वाला
बाँधे बैठा बस्ता।।
इसी मार्ग से मिल जाते हैं
ईश्वर! पिता हमारे।
तीन-----
काम बोलता है
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शोर मचा है! सबका
काम बोलता है।
सच का पता न पाया
पूछ-पूछ कर हारे।
किस मुँह से बतलाएँ
जो, उसके हत्यारे।।
पर, मदिरालय में कुछ
जाम बोलता है।
चुप रहती है कुर्सी
उस पर बैठा भी चुप।
रेंग रही है फाइल
खेल-खेलकर लुकछुप।।
आगे आकर केवल
दाम बोलता है।
सुस्ती में दिन सारे
ताल ठोकती रातें।
छंद विफल हो बैठे
पास हो गईं बातें।।
जिस पर होवे, उसका
राम बोलता है।
रुष्ट देवता इतने
सुनती नहीं देवियाँ।
घाटे पर घाटा है
उस पर नई लेवियाँ।।
लिखा मुकद्दर ऐसा
धाम बोलता है।
चार----
पीले पत्ते रड़क लिए
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नव का स्वागत करते-करते
पीले पत्ते रड़क लिए।
खींच हमें ले जाता बरबस
मधुशाला का अपनापन।
वहाँ बैठकर कलुषित में भी
दिख जाता है उजलापन।।
झूठे सच्च बोलने लगते
घूँट तनिक जो कड़क लिए।
जितना सोचो, उतना दुष्कर
हवा महल के घर जाना।
गुनी-धुनी भी सीख न पाए
खूब तैरकर तिर पाना।।
बटिया-रस्ते थक हारें तो
चल पड़ती है सड़क लिए।
अच्छे-अच्छे सपने देखे
और दिखाए औरौं को।
पके फलों का सदा टपकना
भाग्य मिला है बौरों को।।
जितनी साँसें थीं, दिल उतने
रह सीने में धड़क लिए।
पांच--------------------------
फुदक रही हैं खीलें
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गिद्ध और सब चीलें
लगी हुई हैं, लाशें
गिर जायें तो छीलें।
प्रोपेगैंडा के सब
अक्षर लगे चीखने।
पास हमारे आओ
हमसे कला सीखने।।
लूट घरों को,उनपर
लगा रहे खुद सीलें।
गाँव-गाँव अब भुरजी
भाड़ झोंक हर्षाए।
आये जो भुनवाने
सबने उधम मचाए।।
जली-भुनी जितनी भी
फुदक रही हैं खीलें।
चढ़ मंचों पर गरजें
भटिये इधर-उधर के।
मूषक मक़सद पूरे
गन्ने कुतर-कुतर के।।
भेड़ भेड़िए खाएँ
हुई पड़ी हैं डीलें।
अगुआ हलधर सारे
लगे देखने धन्धे।
चौपट फसल करा दी
यूज़ हो गए कंधे।।
लुटिया भरी डुबाकर
अब गंगाजल पीलें।
छह------------------------
चलो! एक हम भी होलें
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रोग-व्याधियों के कुनबे
एक हो गए मिलकर।
चलो! एक हम भी होलें
फटा-पुराना सिलकर।।
पाँचों उंगली अलग-अलग
सिर्फ विवशता जीतीं।
मिल बैठैं तो मिली जुली
सार शक्तियाँ पीतीं।।
सीख ग़लतियों से मिलती
दर्द दुखों में बिल कर।
दुरुपयोग शक्तियाँ जियें
तो चिंता हो पुर को।
भस्मासुर की अतियाँ ही
डहतीं भस्मासुर को।।
एक हुआ था, लेकिन सच
देवलोक भी हिलकर।
विविध धर्म भाषाएँ मिल
मानव मर्म बचाएँ।
महल, मड़ैया, घेर सभी
संजीवन हो जाएँ।।
राम हुए ज्यों पुरुषोत्तम
मर्यादा में खिलकर।
सात-----
डर बैठाते हैं
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गरज-गरज कर काले बादल
डर बैठाते हैं।
ज़िद पर उतर हवा आए तो
दौड़ लगाते हैं।।
ख़बर बुरी है! पर, जीने को
हरगिज़ जीना है।
सुख-दुख जीवन के साजिंदे
समय हसीना है।।
दिवस-रात ही विषम चक्र में
शुभ ले आते हैं।
भाग्य बुरा है तो मिल-जुलकर
उसे सँवारेंगे।
पास-दूर के सब ही अपने
उन्हें पुकारेंगे।।
निष्ठाओं के दम पर ही, घर
भगवन् आते हैं।
विपदाओं का गुण ही सबको
दुख पहुँचाना है।
हमने सीखा खुद को, कैसे
पार लगाना है।।
पंख खुलें तो उड़ धरती का
अम्बर छाते हैं।
✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी
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