मंगलवार, 27 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी ------- बेटी क्यों बेचारी है!


अरे लाला बनवारी लाल,बड़ी जल्दी में हो,ऐसी क्या बात है जो दो मिनिट रुककर दो बात भी नहीं कर सकते।नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं शंकर लाल।मैं अपने बेटे के लिए कुछ ताजे फल,मेवे और उसकी पसंद के नुक्ती के लड्डू लेकर आया था सोचा उसे जाकर देआऊं।मैं चाहता हूँ कि वह खूब तंदरुस्त और सुंदर हो।अभी उसके खाने-पीने की उम्र है।कोई हारी-बीमारी उसे छू भी न पाए।बड़े होकर वही तो हमारा सहारा बनेगा।

 बनवारी लाल की बात बीच ही में काटते हुए शंकर लाल ने कहा उस सुंदर बिटिया लक्ष्मी के लिए कुछ भी नहीं।ऐसी क्या बात है वह कोई पराई है क्या।

      तुमने ठीक कहा शंकर लाल बेटी तो पराया धन होती ही है।उससे क्या मोह, उसको तो एक न एक दिन यह घर छोड़कर जाना ही जाना है।फिर मैं फ़िज़ूल उसके ऊपर खर्चा क्यों करूं।

   मैंने लक्ष्मी की माँ को बोल दिया है कि अब यह लगभग पांच साल की हो रही है।इसे घर का काम धंधा भी सिखाओ।सबेरे उठकर पूरे घर में झाड़ू,दोपहर का खाना, चौका-बर्तन के साथ-साथ कुछ सिलाई-कढ़ाई करना भी सिखाया करो।खाली पड़े-पड़े खाएगी तो मोटी और हो जाएगी।शंकर लाल उसकी बात सुनकर चुचाप अपने घर लौट गए।

      यह सुकर बेटी ने पापा से कहा।पापा अगर मैं सारे दिन घर का ही काम करूंगी तो पढ़ने स्कूल कैसे जाऊँगी। मुझे भी तो पढ़-लिख कर आगे बढ़ना है।

      बनवारी लाल झल्लाते हुए,,,,,चल,चल आई बड़ी पढ़लिख कर आगे बढ़ने वाली।पढ़-लिख कर तू कौन सी कलेक्टर बनेगी।तेरे लिए उतनी ही पढ़ाई काफी है ताकि तू चिट्ठी-पत्री बांच सके।

       बेटी लक्ष्मी अपना सा मुंह लेकर आंखों में आंसू भरे माँ के पास जाकर अपने पढ़ने के बारे में पिता जी को समझाने की ज़िद करने लगी। माँ ने कहा बेटी तेरे पिता जी ठीक ही तो कह रहे हैं।

कल से घर के काम में मेरा हाथ बटाना सीख।

     बेटा मोहन भी अब काफी बड़ा हो चुका था।परंतु पढ़ाई में फिसड्डी ही निकला।वह हाई स्कूल भी पास नहीं कर सका।फिर भी पापा कहते क्या हुआ,अगर पास नहीं हुआ वह तो घर का चिराग है चिराग।कुछ नहीं तो दुकान पर बैठकर ही नौ के सौ कर लेगा।अब तो उसकी शादी वाले भी घर का चक्कर काटने लगे।

     बनवारी लाल पत्नी से बोला क्यों भाग्यवान लड़की तो अपने घरवार की हो चुकी।अब मोहन की भी शादी हो जाए तो कैसा रहे।ठीकठाक रिश्ते भी आ रहे हैं। जैसी आपकी इच्छा।

     शादी होते ही मोहन के स्वर बदलने लगे।अब वह केवल वही करता जो उसकी पत्नी कहती।कभी-कभी तो माता-पिता पर बेतहाशा चीख-चीखकर घर से निकल जाने की धमकी भी देने लगा।

       बेटी लक्ष्मी से यह सब देखा न गया।उसने माता-पिता से बड़े विनम्र भाव से प्रार्थना की कि आप चिंता क्यों करते हो ,अगर भैया आपके साथ नहीं रहना चाहते, वह अकेले रहना चाहे हैं तो रहें।आप दोनों अभी इसी वक्त हमारे साथ चलो।

      यह सुनकर बनवारी लाल सुबुक-सुबुककर रोने लगे और रो-रोकर बस यही कहते रहे बेटी मुझे माफ़ करना मैंने तुम्हारा बड़ा अपमान किया।मैं बेटे के प्यार में अंधा हो गया था।पर अब समझा बेटियां ही घर का चिराग होती हैं।

वह एक नहीं दो-दो घरों को रौशन करके भी मां-बाप का साथ निभाना नहीं भूलतीं।

मैं तो यही कहूंगा----

   बेटी   क्यों   बेचारी   है,

   वह  तो  राजदुलारी   है,

   बेटी  ही  तो जीवन  की,

   महक भरी फुलवारी  है।

✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी",  मुरादाबाद/उ,प्र, 9719275453

                 

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