शुक्रवार, 4 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी--- नेता। यह कहानी हमने ली है उनके कहानी संग्रह मंजिल से । उनकी यह कृति अग्रगामी प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 1956 में प्रकाशित हुई थी। इस कृति की भूमिका प्रख्यात साहित्यकार पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखी है।

 


सेठ दामोदर दास दामले अपने आफिस में बैठे दैनिक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उनके आफिस के तीन कमरे थे। पहला कमरा क्लर्कों के लिए था, दूसरा उनके प्राइवेट सेक्रेट्री तथा तीसरा उनके बैठने के लिए था । आगन्तुक को उनसे भेंट करने के लिए दो कमरे पार करके जाना पड़ता था। प्रातःकाल के सात बजे होंगे। गर्मी का मौसम था। सात बजे भी काफी दिन चढ़ आता है। उनकी मेज़ पर कई पत्र—अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू तथा मराठी के पड़े हुए थे। उस समय उनकी आँखें एक अंग्रेजी दैनिक के सम्पादकीय वक्तव्य पर पञ्जाब मेल की रफ़्तार से दौड़ रही थीं। इसके बाद उन्होंने शीर्षक पंक्तियाँ तथा कहीं कहीं बीच से कुछ पंक्तियाँ पढ़ डालीं। इसी प्रकार कई पत्र बाँच डाले । लेकिन वह पत्रों का व्यावसायिक स्तम्भ अवश्य पढ़ लेते थे, क्योंकि वह उनका पैतृक गुण था। इसके बाद उन्होंने पत्रों की गिन गिन कर तह बनाई। अनेक पत्र थे – दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा मिश्रित इन पत्रों की तह बना डालने के बाद उन्होंने कमरे के चारों ओर सजे हुए सामान पर दृष्टि दौड़ाई तथा सन्तोष की एक निश्वास छोड़ी । समाचार पत्रों का सारांश, मुख्यांश, भावांश तथा रसांश ग्रहण करने के बाद उनका अपने कमरे की 'सजावट पर ध्यान गया। भैरवनृत्य करने की मुद्रायुक्त आबनूसी दीपक वृक्ष कमरे के एक कोने में रखा हुआ था | उड़ते हुए पक्षियों के चित्र, झील के सूर्योदय और सूर्यास्त के चित्र तथा राकाइन्दु पर सिन्धु-उन्माद के चित्र आदि उनकी कक्ष की दीवारों से टंगे हुए थे । एक नग्न रमणी-सौन्दर्य की प्रतिमा भी ऊँचे डेस पर खड़ी हुई थी। कमरे के ठीक मध्य में महात्मा गाँधी का हँसता हुआ चित्र उन के आदर्श तथा राजनैतिक सिद्धान्तों को व्यक्त कर रहा था। नील कादम्बिनी के रङ्ग के रँगे हुए पर्दों पर आँखें मारते हुए तारों के फूल हँस रहे थे। उनके नीचे नाचते हुए मोरों की पंक्तियाँ विलक्षण छवि ग्रहण कर रही थीं। मेज पर ताजे प्रभात की सुरभि से मदहोश पुष्पदान की महक कमरे में बसी हुई थी। सेठ दामले एक बार अपने सौभाग्य पर सिहर उठे। वे प्रान्तीय शासन मशीन के डायनमो थे। हिटलर के प्रोपेगेण्डा मन्त्री की अपेक्षा उनकी वाणी में प्रभाव और शक्ति कम नहीं थी । मिनिस्ट्री के कार्यों का प्रकाशन तथा प्रशंसा उनका प्रमुख कर्त्तव्य था । इस समय क्लर्कों के कमरे में अकेला टाइपिस्ट और दूसरे कमरे में उनका प्राइवेट सेक्रेट्री बैठे हुए थे। उन्होंने अपनी कलाई की घड़ी में समय देखते हुए प्राइवेट सेक्रेट्री से प्रश्न किया—

    “मिस्टर नीलकण्ठ, आप आज के व्याख्यानों के लिए तैयार ही होंगे। "

"केवल एक व्याख्यान रह गया है— संगीत परिषद् के

लिये ?"

" इस विषय से मैं बिलकुल अनभिज्ञ हूँ। क्या समय दिया गया है ?"

"कल ८ बजे सायंकाल | "

"आज कहां कहां जाना होगा और किस समय पर? डायरी देखिये तो ।"

 डायरी  देखकर नीलकंठ ने कहा- सबसे  पहले किसान सभा में 9 बजे महावीर दल में 10 बजे रेलवे वर्क असोसियेशन में साढ़े दस  बजे, मजदूर सभा में 11 बजे,  दलितोद्धार समिति में साढ़े 11 बजे स्काउट्स असोसियेशन में 12 बजे जाना होगा। इसके बाद आराम और फिर श्रीयुत विजयकर राव के यहाँ भोज में जाना होगा।

 "अच्छा फिर ।"

"एक लम्बी व्याख्यानमाला-म्यूनीसिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में एड्रेस 4 बजे तक स्वदेशी संघ में 4-15 बजे, एन्टीकरप्शन सोसायटी में 4-30 बजे, नागरीप्रचार मण्डल में 6 बजे, धर्म-समाज में 6-30 बजे और फिर 7 बजे सायंकाल से 9-30 बजे तक आजाद-पार्क में भाषण।"

"ओह!"

" कल फिर आज का-सा चक्र वही, प्रचार, व्याख्यान और भाषणों का पिष्टपेषण, सम्वाद- दाताओं से मगजपच्ची , इन्टरव्यू, मुलाकात और कागजी किश्तियों की यात्रा ।”

"यह तो सदैव लगा रहेगा, जब जीवन का लक्ष्य ही देश सेवा बनाया गया है। "

"परन्तु सेठ जी बच्चे तरसते हैं हमसे बात करने को और हम उनसे । आपने तो अपने हृदय से कोमलता, ममता और स्नेह सरसता निकाल कर फेंक दी है।"☺️ ""तुम्हारी भी सब चकचकाहट जाती रहगी। धैर्य के साथ देश की सेवा करते रहो। प्रारम्भ में मेरा भी मन घबराता था और कभी कभी सार्वजनिक जीवन निष्प्राण, निराकर्षक तथा परीक्षाप्रद मालूम होता था। पर अब त्याग की पवित्रता ने दुर्बलताओं को दूर कर दिया है। "

"यह कहने में तो सुन्दर है। लेकिन वास्तव में धोखा है। इस तरह हम अन्याय करने के लिये अपनी नींव बना लेते हैं । अपनी पत्नी और संतति के प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य है।"


"हमें मानव में विभिन्नता और अन्तर पैदा करने का अधि कार कहाँ है ? अपने सम्बन्धियों को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं ।

नीलकण्ठ ने उत्तर देने के लिए मुँह खोला ही था कि डाकिये ने आवाज दी। टाइपिस्ट उन दोनों की बातों को बड़े ग़ौर से सुन रहा था। डाकिये की आवाज सुनकर वह चौंक कर खड़ा होगया डाकिये ने आकर नीलकण्ठ के सामने मेज पर लिफ़ाफों व पत्रों का ढेर लगा दिया। उसने पत्र खोलने आरम्भ कर दिये। अपने प्राइवेट सेक्रेटरी को पत्रों में व्यस्त होते देखकर सेठ जी ऊपर नाश्ता करने चले गये।

सेठ जी के छः या सात साल की एक कन्या थी। उनके केवल एक मात्र यही सन्तान थी। वह सेठ जी को देखते ही उनकी टाँगों से लिपट गई और कोई कहानी सुनाने के लिये अनुरोध करने लगी सेठजी ने टालने की ग़रज से कहा- “अच्छा कल तुम्हें एक बढ़िया कहानी सुनाऊँगा ।"

“न, मैं तो अभी सुनूँ गी।"

"नहीं बेटा, मुझे जरूरी काम से शीघ्र ही बाहर जाना है।" “आप बाहर सबको रात-दिन कहानी सुनाते रहते हैं। फिर हमें क्यों नहीं सुनाते ?”

"कल तुम्हें भी सुनायेंगे।"

"आप तो कल भी यही कहते थे । " "लेकिन अब कल जरूर ही सुना देंगे।"

“मैं तो आज ही सुनूँगी ।”

"अच्छा रात को सुनायेंगे।"

सेठजी की पत्नी पिता-पुत्री का संलाप ध्यान से सुन रही थी। बच्ची की आँखों में आँसू छलछलाते देखकर उससे न रहा गया और उसने सेठजी से भर्त्सना के मीठे शब्दों में कहा - "हम दोनों तुम्हारे लिए भटक गये हैं लेकिन यह तो नादान बच्ची है। इसका जी रख दो। ज्यादा से ज्यादा दो चार मिनट लगेंगे । ”

" तुम्हीं न कोई कहानी सुना दो।"

“मैं तो रोज ही सुनाती रहती हूँ, लेकिन यह मानती नहीं देखो, इसकी आँखों में आँसू भर आये हैं ।”

पुत्री को पुचकारते हुए सेठजी ने कहानी आरम्भ की - " एक पीपल पर एक गिद्ध रहता था। वह अन्धा था, लेकिन था बहुत ही ईमानदार और साहसी उसी पीपल के तने में कोटर था, जिसमें एक तोते का जोड़ा और उसके बच्चे रहते थे। गिद्ध बुढ्ढा हो गया था और तोते उसे दयाकर खाने को दे दिया करते थे ।”

सेठजी का नाश्ता समाप्त हो आया था और वे खाते हुए कहानी कहते जारहे थे। इतने में उनके सामने नौकर आकर खड़ा हो गया। उन्होंने पूछा “क्या है ?"

"जबाबी तार आये हैं।"

"चलो, आ रहा हूँ।" सेठजी ने अन्तिम ग्रास मुँह में देकर पानी पिया और नीचे जाने को उठ खड़े हुए। उन्होंने लड़की को पुचकार कर कहा "बेटा, बाकी कहानी लौटकर सुनाऊँगा।" यह कह कर सेठ जी चले गये।

सेठजी को आया देखकर उनके प्राइवेट सेक्रेटरी ने कहा- "यह तार विनायक रावजी आप्टे का आया है। पूछते हैं कि वर्किंग कमिटी की मीटिंग 4 मई को है आप किस गाड़ी से आयेंगे ?"

"गर्मी के मौसम में रात का सफ़र ठीक रहता है। लिख दीजिये, हम सबेरे पूना पहुंचेंगे। और दूसरा ?"

"यह दूसरा विश्वनाथ कालेलकर का है। उन्होंने भी आपको नागपुर विश्वविद्यालय की सीनेट की मीटिंग में भाग लेने को बुलाया है। महत्वपूर्ण चुनाव होगा।"

हमारी संख्या सीनेट में वैसे ही बहुत अधिक है। मेरी क्या आवश्यकता है ? इस चुनाव में शरीक होना इतना जरूरी नहीं! लिख दीजिये, समय नहीं, क्षमा चाहते हैं। "

"यह अन्तिम तार रहा ट्रेड यूनियन के जनरल सेक्रेटरी देसाई जी का। उन्होंने आपको 15 मई के लिए मौजूदा हड़ताल के सम्बन्ध में भाषण देने के लिये आमन्त्रित किया है। "

"हाँ बम्बई की कई मिलों में स्ट्राइक है लेकिन समय होगा तभी तो जा सकूँगा जरा डायरी तो देखकर बताइये।" डायरी देखकर नीलकण्ठ ने कहा- "बिलकुल समय नहीं है।" "तो लिख दीजिये कि हम समयाभाव के कारण असमर्थ हैं।"

"इन लोगों को इतना भी खयाल नहीं कि दूसरों के भी कुटुम्ब है, पत्नी और सन्तान है। उन लोगों का भी कोई हक है। उनको भी एक मिनट छोड़ना नहीं चाहते।"

“रहने दीजिये। इन बातों की कोई जरूरत नहीं हम लोग देश के सेवक हैं। जरा डायरी तो मुझे दीजिए।"

सेठजी ने अपने प्राईवेट सेक्रेटरी से डायरी लेकर स्वयं देखना आरम्भ कर दिया। डायरी देखने के बाद उन्होंने कहा "बेशक 15 मई को समय तो नहीं है, लेकिन मध्यान्ह के बाद हमारा भोज का प्रोग्राम है। उसमें सम्मलित न होकर वहाँ पहुँच सकते हैं। आप लिख दीजिए कि मैं आऊंगा । महाशय खोटे जी से क्षमा याचना कर लोजिये, मैं भोज में सम्मिलित न हो सकूँगा।

"बहुत अच्छा" कह कर नीलकण्ठ ने उनकी आज्ञा का पालन आरम्भ कर दिया और सेठजी ऊपर कपड़े पहनने चले गये ।

इस समय 8-30 बज चुके थे। ऊपर पहुंचते ही सेठजी की कन्या ने बाकी कहानी समाप्त कर देने का आग्रह करना शुरू किया। सेठजी कपड़े पहनते जाते थे और कहानी कहते जाते थे। उन्होंने कहा

“गिद्ध इतना दुर्बल था कि वह उड़ नहीं सकता था। चिड़ियों की कृपा से उसके दिन सुख से बीत रहे थे। जब चिड़ियाँ दिन में अपने बच्चों को अकेला छोड़कर भोजन लाने के लिये उड़ जाती थीं तब वह गिद्ध उनके बच्चों की देख-भाल किया करता था। एक दिन एक बिल्ली उधर आ निकली। उसने चिड़ियों के बच्चों को फुदकते हुए देखा तब उनका कोमल माँस खाने के लिए उसकी जीभ तड़प उठी" सेठजी कहानी कह ही रहे थे कि उनका नौकर सामने आकर खड़ा हो गया । उसने कहा – “किसान सभा के 'नेता' नीचे आपकी प्रतीक्षा में बैठे हुए हैं ।"

एक बार फिर अपनी बच्ची को प्यार भरे शब्दों में किसी और समय कहानी सुनाने का दिलासा देते हुए कपड़े शीघ्रातिशीघ्र पहनकर सेठजी नीचे चले गये। उनकी बच्ची और पत्नी हृदय थाम कर रह गईं। सेठ जी को कहानी पूरा करने को अवकाश ही न था। सार्वजानिक जीवन पराया हो जाता है, अपना नहीं रहता।

सेठजी शाम को एक घण्टे की जगह आध घंटे के लिए ही अपने घर आ सके। वैसे तो वे अपने समय के बड़े पाबन्द थे, लेकिन जलसों का भारतीय समय ठहरा, पाँच पाँच मिनट की देर होते होते शाम तक आध घंटे की देर हो ही गई। उन्होंने जल्दी जल्दी खाना खाया उनकी पुत्री कहानी कहने का आग्रह करती रह गई और वे चले गये। रात्रि को 10-20 पर लौटे। मां-बेटी दोनों सो गई थीं। सेठ जी ने उन्हें जगाना उचित न समझा और वे भी सो गये।

सबेरे फिर और दिनों की तरह उन्होंने अपने प्राइवेट सेक्रेटरी से दिन का कार्य्य क्रम मालूम किया। आज उन्हें संगीत विषय पर भाषण करना था, जो उनकी योग्यता के बाहर था। इसमें उनका दखल न था और वे बहुधा राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं पर ही बोला करते थे लेकिन नेताओं से तो जनता सब विषयों के ज्ञान की आशा करती है और नेतागण भी अपने को सब कायों में नेता गिनने लगते हैं। उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कहा “संगीत विषय का भाषण किस प्रकार तैयार किया जाय ?"

“मिस्टर गांगुली की जो नई पुस्तक कल-आई है उसे देख जाइये या किसी का गाना सुनकर अपनी कल्पना कर लीजिए ।""

सेठ जी ने कुछ विचार करने के बाद कहा – “संगीत-परिषद् के मन्त्री को 8-20 बजे सायंकाल का समय सूचित कर दो। मैं 8 बजे भाषण नहीं प्रारम्भ कर सकूँगा।"

"जो आज्ञा " सेक्रेटरी ने उत्तर दिया

दिन भर के भारी कार्य्य के बाद संध्या आई। भोजन करके सेठजी ने अपनी पत्नी से प्यार भरे शब्दों में कहा - "आज तुम्हारा संगीत सुनने को जी कर रहा है ।

पत्नी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया - " अहो भाग्य !”

सेठजी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा – “समय ही नहीं मिलता कि दो चार मिनट भी तुम्हारे पास बैठकर बात-चीत कर सकूँ । सार्वजानिक जीवन वालों को अपने साथ अन्याय करना पड़ता है। "

" और अपने सम्बन्धियों के साथ भी। सच जानो तुम्हारे लिये मेरा हृदय कितना उत्कंठित रहता है ! तुम हमें कितना भूल गये हो !" यह कहने के बाद उसके नेत्र डबडबा आए ।

“नहीं, भूला नहीं, किन्तु विवश हूँ। मैं भी विवश हूँ, हृदय रखता हूँ, पर संसार की सेवा का व्रत धारण कर चुका हूँ। तुम्हें भी अपना यही आदर्श रखना चाहिए।"

" और अपने कुटुम्ब के प्रति तुम्हारा कोई कर्त्तव्य नहीं । मुझे जीवन सहचरी बनाते समय मुझसे ही प्रतिज्ञाएँ ली थीं और क्या स्वयं कोई वचन नहीं दिया था ? परमार्थ प्रेमी को किसी दूसरे को बन्धन में बाँधना ही नहीं चाहिए।"

तुम्हें तो मैंने मुक्त कर रक्खा है, लेकिन तुम ही इस चहर दीवारी से बाहर नहीं जाना चाहतीं। तुम भी इस गृह के अँधेरे से निकल कर इस संसार के प्रकाश में क्यों नहीं आ जाओ ?"

"मेरे इस गृह से बाहर आने पर यहाँ अँधेरा हो जायगा । मेरे यहाँ रहने से अँधेरा नहीं, प्रकाश रहता है लेकिन जब मैं यहाँ रहती हूँ, तुम ही क्यों न अपना कार्यक्रम मेरा सा बना लो । झगड़ा ही समाप्त हो जाय । "

" और देश सेवा ?"

“यह सब ढोंग है। जो खुद दूसरों पर अन्याय करते हैं वे दूसरों पर कैसे न्याय कर सकते हैं ?"

"आज शास्त्रार्थ का समय नहीं है। मेरे यह आनन्द के क्षण हैं। मैं इन्हें नीरस बातों में नष्ट नहीं करना चाहता हूँ । चलो कुछ गाना सुनाओ।"

सेठ जी ने यह कहा ही था और वे अन्दर के कमरे में जाने वाले ही थे कि उनकी कन्या ने कहानी पूरी कर देने का आग्रह किया। माँ-बाप की बात-चीत वह बड़े ध्यान से सुन रही थी और उसने कोई बाधा नहीं डाली थी, लेकिन अब उसका चपल शिशु-धैर्य्य देर तक कहानी टलते देखकर रुक न सका । एक बार गाना आरम्भ हो जाने पर कितना समय लगता, अत: उसने टोकना ही उचित समझा पर इस बार माँ ने घुड़क दिया । एक गाना आरम्भ हुआ हारमोनियम के साथ उसके स्वर में आज माधुरी घुस गई थी। उसके हर्ष का वारापार न था। उसने बहुत दिनों के बाद आज अपने प्रिय पति के कहने से गाया था।

हृदय के सरस स्रोत सूख चुके थे, लेकिन आज उसमें उन्माद-ज्वर आगया था। सचमुच वह अपने प्राणों के स्वर फूँक रही थी। सेठजी गाने में तन्मय हो रहे, लेकिन वे गाने के प्रभाव से उत्पन्न विचारों को स्मृति बद्ध करना नहीं भूले थे। व्याख्यान का भूत उनके सिर पर सवार था । वे गाना सुन रहे थे, लेकिन सोच कहीं और ही रहे थे। आनन्द के प्रवाह में अविराम गति से बहने का भी उनका भाग्य न था, क्रूर काल उन पर मन ही मन हँस रहा था। उन्होंने अपने विचार अंकित करने के लिए चुपके से कागज पेन्सिल उठा ली और संक्षिप्त नोट लेना शुरू कर दिये। उनकी पत्नी मीड़ की लहरी में नयन-निमीलित किये हुए डूब रही थी।

उसने नेत्र खोले तब सेठजी को काग़ज़ पर कुछ लिखते देखा। उसका एकदम यह भाव हुआ कि वे केवल उसका मन बहला रहे हैं और उन्हें गाना नहीं सुनना है, अपना कार्य करना है। गाने का उन्होंने एक बहाना उसे प्रसन्न करने के लिये निकाला है। उस समय वह गा रही थी

'हाय तुम कैसे विमोही !

आज रुक जाओ निठुर घर 

यों न जाओ प्राणमोही ।'

कि उसका कण्ठ एकाएक सिसकियों से रुद्ध होगया आँसू आँखों में उतर आये स्वरतार अनायास टूट गया। यह देखकर सेठजी स्तम्भित रह गये। उन्होंने तत्काल खड़े होकर उसका हाथ पक ड़कर पूछा - "क्यों तुम्हें क्या हुआ ?"

"कुछ नहीं कुछ नहीं।" एक हाथ से आँसू पोछते हुए वह संगीतशाला को उजाड़ती हुई उठ खड़ी हुई । उसने कहा इतना धोखा ! इतना छल !"

"नही, धोखा कैसा ?"

"और क्या ? गाने का तो बहाना था। "

"मैं तो अपने भाव इकट्ठे कर रहा था, भाषण देने के लिए। " उन्होंने कहा

“तो फिर मैं आपके व्याख्यानों का यन्त्र हूँ। मेरा गाना आनन्द के लिए नहीं है। सभाओं में भाषण देने के लिए इसका भी अस्तित्व है अन्यथा इससे क्या प्रयोजन ? तुम्हारे व्याख्यानों पर इसका भी जीवन निर्भर है। अब मैं कभी ऐसी ग़लती न करूँगी ।" उसने दृढ़ता से उत्तर दिया। “तो इसमें तुम्हारा गया क्या ?"

    "चोट पहुँचाकर अपमान करना भी जानते हो। यह काम तो किसी भी किराये की गायिका से निकाला जा सकता था। मेरी ही क्या जरूरत थी ?" उसने एकटक नेत्रों से सेठजी की ओर देखा। उनमें अपमानित स्त्रीत्व की ज्वाला निकल रही थी।

    सेठजी कुछ कहने को मुँह खोल ही रहे थे कि नौकर को देखकर वे पानी पानी हो गये। शायद उसने उनकी सब बातें सुनी होंगी। पता नहीं कितनी देर से खड़ा हुआ है। उसकी ओर उनका ध्यान न जा सका था। उनके पूछने पर उसने कहा "संगीत परिषद के कार्यकर्त्ता आये हैं। "

  सेठजी ने अपनी कलाई की घड़ी देखी। देर हो चुकी थी। उन्हें संगीत की तरंग में समय का बोध न हो सका था। वे जल्दी जल्दी कपड़े पहनने लगे। उनकी कन्या ने फिर अपनी पुरानी हठ आरम्भ की वह अधिक कह भी न पाई थी कि उस की मां ने उसे बलपूर्वक गोद में उठा लिया और उसे ले दूसरे कमरे में चली गई। वह उसे कहती जा रही थी - " चल । मैं आज तुझे कहानी सुनाऊँगी।”

     सेठजी अकेले कपड़े पहनते रह गये । कुछ मिनटों के बाद वे रंगमंच पर आवेश के शब्दों में भाषण दे रहे थे । जनता अपलक दृष्टि से उनके मुख को देखती हुई ध्यानमग्न उनके भाषण प्रवाह में बह रही थी। सभा में सन्नाटा था, केवल उनकी वाणी सुनाई देती थी और उधर माँ बेटी सिसकी भरती हुई एक-दूसरे से चिपटी निद्रा का आवाहन कर रही थीं।

:::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की लघुकथा----- बहू

 


"देखो भाभी,पापा की बातों का बुरा मत माना करो।अब उनकी उम्र हो गयी है,ऊपर से बीमार भी हैं।अगर कुछ उल्टा सीधा बोल भी रहे हैं,तो बुजुर्गों  की बात का बुरा नहीं मानते...और हाँ उनके खाने -पीने का भी खास ख़्याल रखा करो....इस घर की बहू होने के नाते आपका फर्ज़ है भाभी......बेटियाँ तो दूर रहकर कुछ भी नहीं कर पातीं....."सुमन अपनी भाभी,नेहा से फोन पर बात करते हुए बड़े समझाने वाले स्वर में कह रही थी। "

"बहू ..अरे बहू..! कहाँ चली गयीं, आज चाय देना ही भूल गयी क्या बेटा ?,"दूसरे कमरे से सुमन की बीमार सास ने कराहती  आवाज़ में  कहा ।सास की आवाज़ सुनकर सुमन ने कहा,"रुको भाभी ,अभी बाद में फोन करती हूँ..पापा जी का ख्याल रखना...।"कहकर सुमन ने फोन काट दिया। "इस बुढ़िया को पल भर भी चैन नहीं.... पता नहीं कब मरेगी..नाक में दम करके रखा है....पूरा दिन कभी चाय,कभी पानी.......कभी खाना....   बहू...! बहू....! करके इस बुढ़िया ने तो जीना मुश्किल कर दिया है....।"बड़बड़ाती सुमन चाय का पानी गैस पर रखने लगी।

,✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----वरिष्ठ नागरिकों का जीने का अधिकार

     


वरिष्ठ नागरिकों को भला कौन पूछता है ? वरिष्ठ हो ,लेकिन गरिष्ठ भी तो हो ? अब न तुमसे कुछ खाना पच पाता है और न तुम देश को पच पा रहे हो । खाते पीते वरिष्ठ सामाजिक लोग भी वरिष्ठ नागरिकों को अब इसी दृष्टि से देखते हैं । घरों में तो वरिष्ठ नागरिकों को एक कोने में खटिया पर पड़े रहने का उपदेश देने वाले लोगों की संख्या समाज में पहले से ही कम नहीं है ।

     लेकिन इन सब में भी एक पेंच है । अगर वरिष्ठ नागरिक रिटायरमेंट के बाद पेंशन पा रहा है और पेंशन की रकम मोटी है तथा बाकी घर का खर्चा भी उस पेंशन की रकम से चलता है तो बुड्ढे की उम्र चाहे जितनी हो जाए ,उसको जिंदा रखने के लिए पूरा परिवार रात-दिन एक कर देगा । बूढ़े को मरने नहीं देगा । उसकी पेंशन को जिंदा जो रखना है ! कुल मिलाकर मामला उपयोगिता का है ।

      ले-देकर वह वरिष्ठ नागरिक रहमो-करम पर रह जाते हैं ,जिन बेचारों की जेब में पांच पैसे नहीं होते । केवल चालीस साल पुराने संस्मरण होते हैं या फिर समाज में बैठकर सुनाने के लिए चार उपदेश होते हैं । उपदेश कोई वरिष्ठ नागरिक के श्रीमुख से ही क्यों सुने ? उसके लिए गीता ,रामायण और न जाने कितनी बोध-कथाएं हैं । जरूरत है ,तो किताब खोलो और पढ़ लो । जो उपदेश कथावाचक लोग देते रहते हैं ,जब इन सब की किसी ने नहीं सुनी तो फिर लोग वरिष्ठ नागरिक की ही क्यों सुनेंगे ? 

          वरिष्ठ नागरिक अपनी जेब में हाथ डालता है ,तिजोरी खोलता है और बैंक की पासबुक को बार-बार जाकर बैंक में भरवाने का प्रयत्न करता है । लेकिन हर बार उसे निराशा ही हाथ लगती है । कहीं से पैसा आए ,तब तो बूढ़े व्यक्ति के हाथ में दिखेगा ? जब तक पैसा नहीं है ,वरिष्ठ नागरिक सिर्फ कहने के लिए वरिष्ठ हैं । खाते पीते वरिष्ठ सामाजिक लोग तो उनके बारे में निर्ममतापूर्वक यही कहेंगे कि बहुत जी लिए । अब दूसरों को जीने दो।

              इसलिए मेरी तो सलाह सब वरिष्ठ नागरिकों से यही है कि चाहे जैसे हो ,अपने हाथ-पैर सही सलामत रखो। चलते-फिरते रहो । दिमाग सही काम करता रहे । वरना अगर ठोकर लगी ,गिर पड़े  और हड्डी टूट गई तो कोई प्लास्टर बँधवाने वाला भी नहीं मिलेगा । चतुर लोग यही कहेंगे " इन हाथ-पैरों से बहुत चल चुके हो । अब व्यर्थ प्लास्टर पर खर्चा क्या करना ? "

          एक प्रश्न यह भी मन में उठता है कि वृद्ध-आश्रम या ओल्ड एज होम सही भी हैं या इनको भी बंद कर दिया जाए ? नौजवानों के लिए काफी पैसा बच जाएगा ? कितना अच्छा होता ,यदि भगवान ने मनुष्य की आयु सौ वर्ष के स्थान पर केवल साठ वर्ष की रखी होती । इधर आदमी वरिष्ठ नागरिक हुआ ,उधर अर्थी तैयार है । लेटो। हम शवयात्रा खुशी-खुशी शमशान लेकर जाते हैं। तुम नई पीढ़ी को चैन से जीने दो । 

 ✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश ) मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघुकथा ---पहचान


समाज में महिलाओं को जागरूक करने की मुहिम लता  ने शुरू कर रखी थी।शहर की संस्थाओं के बाद उसने गांव का रुख किया।एक गांव में वह सभा में आयी सभी स्त्रियों से उनके नाम पूछ रही थी।घूघंट निकाले जब एक नवयुवती का नम्बर आया तो वह चुपचाप रही।बहुत कहने के बाद वह खडी़ हुई।लता ने बडे प्यार से पूछा,"आप अपना नाम बताओ, हम अपने रिपोर्ट में लिखेगे"।वह बोली,"मेरा नाम  मुझे पता नहीं।सब यह सुनकर हँस पडे़ लता ने समझाया ",जिस नाम से सब आपको बुलाते हैं वह नाम बतायें"।

वह बोली",हम सच कह रहे हैं हमें अपना नाम पता करने के लिए अपने घर जाना होगा।बाबू से पता करके बतायेंगे।बचपन में सब रामुआ की लड़की कहते थे। दादी कलमुँही कहती थी।फिर ब्याह हो गया तो कलुआ की बहू के नाम से सब बुलाते थे।जब से किसना का जनम हुआ तो सभी किसना की अम्मा कहते हैं।यही हैं हमारे नाम ।बापू ने जो नाम दिया होगा हमें याद नहीं ।

उसकी बात सुनकर लता निरुत्तर रह गयी।

✍️ डा.श्वेता पूठिया, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा ------इंसानियत का रिश्ता

 


 'इनकी दोनों किडनी खराब हो चुकी है। इनका ब्लड ग्रुप ए नेगेटिव है।इसी ब्लड ग्रुप की किडनी चाहिये क्योंकि दूसरे ब्लड ग्रुप से कोम्प्लीकेसन के चांस रहते हैं। जल्द इन्तजाम कीजिये। डॉक्टर ने राजेश से कहा।

           राजेश का ब्लड ग्रुप ए पॉजिटिव था। वह बहुत परेशान था। रागिनी के बिना वह जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता था। वह बैन्च पर बैठकर सभी रिश्तेदारों को फोन मिलाने लगा, पर कहीं से कोई इन्तजाम नहीं हो पाया। जिनका ब्लड ग्रुप ए नेगेटिव था, उन्होने भी मना कर दिया। राजेश नीचे मुहँ करके बैठ गया।उसे कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। अचानक एक अजनबी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, 'दोस्त मेरा ब्लड ग्रुप ए नेगेटिव है, मैं किडनी देने को तैयार हूँ।'

पर ........तुम्हारे से तो मेरा कोई रिश्ता भी नहीं है, फिर तुम क्यों .........राजेश ने रुंधे गले से कहा।

       तुम शायद भूल रहे हो, एक बहुत गहरा रिश्ता है मेरा तुमसे .............. इंसानियत का रिश्ता। मै अपनी बीवी को नहीं  बचा सका, पर दोस्त अपनी बहन को कुछ नहीं होने दूँगा। चलो उठो, जल्दी चलो।

दोनों उठे और तेज कदमों से चल दिये।

✍️  प्रीति चौधरी ,गजरौला, अमरोहा 


                       


मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ----पहचान


" मेरा नाम रवि कुमार है। मैं आयकर अधिकारी था।" 

" मैं श्यामा प्रसाद ,डिग्री कॉलेज में प्रधानाचार्य था।"

" मैं राम सिंह हूं। सिंचाई विभाग में मुख्य अभियंता के पद से सेवा निवृत हुआ हूं।"

  सब बारी बारी से,बड़े गर्व के साथ अपना परिचय दे रहे थे। हरिप्रकाश, जो बड़े बाबू के पद से सेवा निवृत हुए थे,अटपटा सा महसूस कर रहे थे। सोच रहे थे, मैं इन बड़े लोगों के बीच कहां फंस गया।जब उनकी बारी आई,उन्होंने हिम्मत जुटा कर बोलना शुरू किया,"क्षमा चाहता हूं। मुझे कुछ भी नहीं याद आ रहा है। मैं किस विभाग में था,किस पद पर था। मैं तो अपना नाम तक भूल चुका हूं। मैं केवल इतना जानता हूं कि मैं एक सेवा निवृत कर्मचारी हूं। अब यही मेरी पहचान है।"

✍️ डॉ पुनीत कुमार, T2/505 आकाश रेजीडेंसी, आदर्श कॉलोनी रोड, मुरादाबाद 244001, M 9837189600

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा -----नया चश्मा


पिद्धान जी तुमने तो कही थी कि अगर हम तुमको वोट दें तो हमारे घर नयो पखानो बन जायेगो ।"वह नीचे बैठा गिड़गिड़ा रहा था ।

"हां भई हां कही थी हमने जे बात मगर अबे पैसा कहां आयो है सरकार से जो तुम्हारी जरूरतें ऐक दिन में पूरी कर दें ...सरकारी काम है दद्दा टेम लगेगो टेम ।"नवनियुक्त प्रधानजी ने मूंह से बीड़ी का धुआं निकालते हुए कहा ।

वह अब खामोश होकर उल्टे पांव जाने लगा ।

"का करें नैकौ चैन से न रहन देत हैं जे सब मूरख ।"पिद्धान जी ने अपने नए नवेले काले चश्मे को पौंचते हुए कहा ।

और पहली ही किश्त में आई बुलेट पर बैठकर फुर्र हो गए अब इस नए चश्मा से गांव की समस्याएं  दिखाई देने बंद जो हो चुकी थीं ,जो पहले नंगी आंखों से साफ दिखाई दे रहीं थीं लेकिन सिर्फ वोट लेने से पहले तक ।

✍️ राशि सिंह, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ---विश्वास


.... ट्रेन का समय हो चुका था ....जल्दी-जल्दी टैक्सी को पैसे दिये और भागते भागते ट्रेन पकड़ी ट्रेन में बहुत भीड़ थी ....

जैसे ही विकास अपनी बर्थ तक पहुंचा..... कि ट्रेन चल दी....

...... 5 दिन बाद रेनू की शादी है सभी तैयारियां विकास को ही करनी थीं.... बैंक से 100 की 500 की नए नोटों की गड्डियां कैश निकाला..., गहने ,कपड़े ,बनारसी साड़ियां बनारस से ही खरीदीं काफी सामान हो गया था ....इसीलिए उसके पास दो बड़े बड़े सूट केस हो गये.... जिन्हें संभाल कर उसने अपनी बर्थ के नीचे रख लिया।

....... सामने वाली बर्थ किसी दिनेश गोस्वामी की थी..... शायद उसकी भी ट्रेन छूट गई...... वैसे सभी बर्थें  भरीं थीं......... प्रतापगढ़ से वह बर्थ *विश्वास* (दूसरी सवारी )को दे दी

गयी ....गोरा चिट्टा सजीला नौजवान सात फिटा.... किसी हीरो से कम आकर्षक व्यक्तित्व नहीं..... विकास के सामने वाली बर्थ पर आ गया चेहरे पर मुस्कुराहट ने बरबस ही विकास को उससे बोलने के लिए मजबूर कर दिया....।

         धीरे-धीरे विकास और विश्वास में घनिष्ठता बहुत बढ़ गई खाने का समय हुआ तो  दोनों ने अपने-अपने घर से लाया हुआ खाना निकाला साथ बैठकर खाना खाया हंसी मजाक होती रही । बातों ही बातों में विकास ने उसे बहन की शादी में आमन्त्रित भी कर दिया........ थोड़ी देर बाद विश्वास को टॉयलेट जाना पड़ा बड़े सुंदर से इंपोर्टेड दो सूटकेस इसके पास भी थे !....बर्थ पर रखकर विकास को सौंप कर चला गया.... शायद काफी देर से रोके हुए था... काफी देर में लौटा.... धीरे धीरे बरेली पास आ रहा था और विकास भी फ्रेश होने के लिए अपना सामान उसको सौंप कर टॉयलेट चला गया बरेली में ट्रेन रुकी....... लौट कर आने पर देखा विश्वास वहां नहीं था और ट्रेन बरेली से आगे खिसक चुकी थी सामने वर्थ पर विश्वास के सूट केस रखे हुए थे ..... जिन्हें देखकर विकास ने चैन की सांस ली..... जब काफी देर हो गई तो उसे चिंता हुई शायद वह बरेली स्टेशन पर उतरा हो और ट्रेन छूट गई हो.... काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब वह नहीं लौटा जो विकास ने झांककर अपनी बर्थ के नीचे देखा ........  तो उसके होश उड़ गए... ........ये क्या ! विकास के दोनों सूटकेस गायब थे.... उसकी जैसे जान ही निकल गई हो.......फिर क्या था ....पूरे कंपार्टमेंट में और पूरी ट्रेन में विकास ने उसे खूब ढूंढा परंतु वह कहीं नहीं मिला .......पुलिस को सूचित किया....

मुरादाबाद आ चुका था उसके सूटकेस खुलवाए गए सूट केसों में अखबारों के बीच में पत्थर के टुकड़े भरे हुए थे......! फोन मिलाने पर बार-बार मैसेज आ रहा था यह नंबर मौजूद नहीं है कृपया नंबर की जांच जांच कर ले.........

....... विकास का सर चक्कर खाने लगा!

✍️ अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद , मोबाइल फोन 82188 25 541

मुरादाबाद की साहित्यकार कंचन खन्ना की लघुकथा ------- तनावमुक्त

 


कल से लॉकडाउन खुल रहा है। शाम की चाय पीते हुए ज्यों ही पुत्र ने बताया, शर्मा जी के हृदय को अनकही सी राहत मिली। शर्मा जी रिटायर्ड प्रोफ़ेसर थे। अधिकांश समय मित्रों से मिलने-जुलने व पढ़ने-लिखने में व्यतीत होता था। इधर जब से कोरोना फैला, घर में बंदी से बनकर रह गये थे। पुत्र का जनरल स्टोर था। राशन व दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ मिलने के कारण दुकान सुबह जल्दी ही लॉकडाउन के बावजूद भी खुल जाती थी, जिससे घर की व्यवस्था में भी बदलाव आ गया था। सुबह बहू जल्दी उठकर पुत्र को चाय-नाश्ता बना कर देती। पोते को भी पुत्र साथ ही मदद के लिये ले जाता। बहू और शर्मा जी घर में रह जाते। घरेलू नौकरानी भी लॉकडाउन में आ नहीं रही थी। बहू पुत्र के साथ ही सुबह उठकर रसोई में जुट जाती, जिससे शर्मा जी की सुबह की चाय लेट हो गयी थी। बहुत बार तो चाय मिलने तक दोपहर के बारह बज जाते। उस पर बहू अनेक बार छोटे-बड़े काम में मदद के लिये कह देती, उसे अकेले परेशान देख स्वयं शर्मा जी भी मदद कर देते। किन्तु दिनचर्या अव्यवस्थित सी हो गयी थी। पुत्र व पोता दोपहर बाद दुकान से लौटते तो बहू समेत सब खा-पीकर सो जाते।

      लॉकडाउन से पूर्व शर्मा जी सुबह परिवार के अन्य सदस्यों के जागने से पूर्व ही नहा-धोकर अपनी व बहू की चाय बनाते, बहू की चाय उसे देते, फिर स्वयं चाय बिस्कुट का नाश्ता करके टहलने निकल जाते। दोपहर तक मित्रों से मिलकर लौटते तो खाना खाकर कुछ देर आराम करते फिर शाम की चाय बहू व पोते के साथ पीकर पुत्र के पास कुछ समय दुकान पर बिता आते।

      किन्तु लॉकडाउन में समस्त दिनचर्या अव्यवस्थित हो गयी थी। पोते का विद्यालय बंद, पुत्र की दुकान के समय में बदलाव से उनकी व बहू की दिनचर्या के साथ ही, सबकी दिनचर्या में बदलाव होने से सभी असहज से होकर रह गये थे। आज ज्यों ही लॉकडाउन के समाप्त होने की सूचना पुत्र ने परिवार को दी तो समस्त परिवार के चेहरों पर अनकहा सा सुकून दिखाई दिया जिसे महसूस कर शर्मा जी मानो अनचाहे तनाव से मुक्त हो गये।

✍️ कंचन खन्ना, कोठीवाल नगर, मुरादाबाद, उ०प्र०, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघु कथा -----बच्चा चोर


अरे,अरे,,,तुम सब लोग यह क्या कर रहे हो।इस स्त्री का क्या दोष है जो तुम इस पर इतनी बेरहमी से लात-घूंसे चला रहे हो।

    साहब, आप नहीं जानते यह भोली नहीं बच्चा चोर है बच्चा चोर।  ठहरो,अभी इस महिला से ही पूछ लेते हैं,की जो बच्चा उसके हाथ से छूटकर नींचे गिरा है, वह उसका अपना है या वह कहीं से उठाकर ले आई है।

     भद्र पुरुष ने पहले तो उस स्त्री को पानी पिलाया,फिर थोड़ा शांत होने पर उससे बड़ी विनम्रता से पूछा 'बहन' तुम डरो मत, मुझे साफ-साफ बताओ कि यह उग्र भीड़ जो कह रही है वह सत्य है क्या?

    नहीं-नहीं यह बिल्कुल भी सत्य नहीं है।मैने किसीका बच्चा नहीं चुराया भैया। भला एक माँ होकर में ऐसा घृणित कार्य क्यों करूंगी।

    सच तो यह है कि मेरे बच्चे को बहुत तेज़ बुखार है,मैं उसे पास के गांव में वैद्य जी को दिखाने की जल्दी में थी।चलते-चलते मेरा पांव किसी पत्थर से टकरा गया।मैं गिरते-गिरते बची मगर मेरा बच्चा छिटककर दूर जा गिरा।बच्चे को गिरते देख इन लोगों ने यह समझा 

की बच्चा मैंने इनको आते देख जानबूझकर फेंक दिया है।

    तभी इन लोगों ने चोर,चोर बच्चा चोर का शोर मचाते हुए मुझे अभद्र शब्दों के साथ बुरी तरह से मारना-पीटना शुरू कर दिया।

       मैंने इनके आगे बहुत हाथ -पंजे जोड़े और यह समझाने की हर संभव कोशिश की की यह बच्चा किसी और का नहीं मेरा ही है।पर इनके सर पर तो भूत सवार था।किसी ने मेरी एक न सुनी।वह तो आप अच्छे आ गए वर्ना तो ये मुझे जान से ही मार देते कह कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और कहने लगी मेरे बाद मेरे बच्चे का क्या होता।

     आप तो इस गांव के हर घर से बच्चा खोने की सूचना मंगालें,अगर सही हुआ तो में सभी के सामने स्वयं को दोषी मान लूंगी।अन्यथा इन सरफिरे गुंडों को भी एक माँ के साथ अभद्रता करने की न्यायोचित कार्यवाही की व्यवस्था अवश्य ही कराएं।

     आपका बहुत बड़ा उपकार होगा भाई साहब!

✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453

                  

                 

                          -------

गुरुवार, 3 जून 2021

बुधवार, 2 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के गीत उन्हीं की हस्तलिपि में .....








 

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की कविता ---रथ पर चढ़ो----------


हे!

भारत महान

तुम्हें मिलते रहते हैं

दीपक भी,

घंटे-घड़ियाल

और थाली भी।

तुम!कितने महान हो 

कुछ बोलते ही नहीं

खाते रहते हो गाली भी।।

ऐसी क्या विवशता है

जो तुम,

जी लेते हो घुट-घुटकर भी।

सहनशीलता तुमने

त्यागी ही नहीं

लुट-लुटकर भी।।

अब,

ये वाली महानता तो

छोड़ ही दो।

शांति दूत मौनी बाबा!

बेचारी शांति की सोचो

और,मौन

तोड़ ही दो।।

कुछ शाश्वत भी है

जिसे,

गिल्ली-डंडा खेलने वाले

बच्चे भी खूब जानते हैं।

लातों के भूत

बातों से नहीं मानते हैं।।

सहनशीलता से

सुचेष्टाओं की

कुचेष्टाओं पर

जीत नहीं होती है।

तुलसीदास की मानों

भय बिन प्रीत नहीं होती है?

यह किस्सा नहीं है केवल

आज का, अभी का।

तुम तो सम्मान 

करते आ रहे हो सभी का।।

फिर भी,

कुछ आगबबूले

तुमसे,

स्थाई रूप से क्रुद्ध हैं।

उन्हें ही,

झेले जा रहे हो

जिन्होंने तुम्हारे भीतर

जमकर, 

बैठाए कई युद्ध हैं।।

तुमने गीता सुनी थी

उसी को फिर से पढ़ो।

सारथी कृष्ण हैं तुम्हारे

रथ पर चढ़ो----------।।

✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी, नवीन नगर ,कांठ रोड, मुरादाबाद 244001

Email:

 makkhan.moradabadi@gmail.com

Mobile: 9319086769

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ जगदीश शरण का व्यंग्य ------"तमाकू पर प्रवचन "


          अपने कॉलेज जाने के लिए घर से निकलकर जैसे ही मैं नुक्कड़ पर स्थित पान के खोखे के करीब पहुँचा, अपने पोपले मुख के सींक से भी पतले होठों में सुरती दबाए मेरे जाहिल भतीजे लल्ला ने मेरा रास्ता रोक लिया। मैंने उसे तत्काल घुड़का लेकिन रेल-ड्राइवर के बार-बार सीटी बजाने पर भी रेललाईन से न हटनेवाले गधे की तरह वह बेग़ैरत अपनी जगह से टस-से-मस न हुआ। आखिर मैंने रुक जाना ही उचित समझा।

       मैंने देखा, लल्ला आज पूरे राजसी ठाठ में दिखाई दे रहा है। मैंने पूछा, 'लल्ला, इतना बनठन कर आज कहाँ बिजली गिराने जा रहा है ?'

      मेरे इस सवाल पर वह जैसे वायदा करनेवाले किन्तु बाक़ायदा वायदा न निभानेवाले आधुनिक प्रपंची अँगूठाछाप नेताओं के द्वारा छली गई पढ़ी-लिखी गंवार जनता के दिमाग़ी 'स्टैंडर्ड' पर बू-हू-बू-हू कर हँसने लगा । उसके इस तरह रस और अलंकारविहीन हँसने पर उसे कम, मुझे ज्यादा लज्जा का अनुभव हुआ। मैं अतिउच्चशिक्षित जो ठहरा !

       अपना थोबड़ा गगनोन्मुख किए, ताकि होठों में दबी सुरती से प्राप्त उसके मुख का कहीं  स्वाद न बिगड़ जाय, वह मुझसे बोला, 'चच्चा ! तुम परोफेसर हो या घनचक्कर ?' मिडिल एजुकेशन के पहले सोपान पर ही चार बार चित्त अपनी ' चाणक्येबिल' बुद्धि से रेलवे का ठेकेदार बनने से लेकर यूनियन का अगुआ बन जाने तक का सफर तय करनेवाले लल्ला के मुखारविंद से ऐसे सरस शब्द सुनकर मैं किंचित बौखला-सा गया, ' मतलब ?'

     'मतबल जे परोफेसर साब ! भाषण देने जा रहा हूँ नरक...ऊँह, नगर निगम में । तमाकू निषेध दिवस है न आज, इसलिए'--लल्ला ने सुरती की पहली पीक थूककर कहा ।

        प्रोफेसर होने के कारण अब मुझे दूसरी बार घोर लज्जा का अनुभव हुआ फिरभी साहस बटोरकर मैंने उससे पूछ ही लिया, 'लल्ला, तू खुद तम्बाकू का सेवन करता है, तू ही उसका सेवन न करने का लोगों को भाषण देगा...!' कमबख्त सुरती को खाये बिना उसे जैसे कोई फ़लसफ़ा न सूझता हो, अपने होठों में दबी सुरती को थूक तथा पुनः नवीन सुरती को रगड़ मुँह में फाँकते हुए मेरे कान में, तनिक निकट आकर वह बोला, 'चच्चा ! सब ढोंग है, ढोंग ! निरी नौटंकी ! दिखावा ! ! कबीर कहते -कहते मर गए । जरा बताओ, मस्जिदों में ऊँची आवाज़ में अजान देना बंद हुआ, क्या ? मन्दिरों में जोर-जोर से घण्टे-घड़ियाल बजने बन्द हुए, क्या ?' 

     मैंने देखा, लल्ला निरन्तर सीरियस होता जा रहा है । सुरती को थूक अंगोछे से मुँह को साफ करते हुए करीब तीस सेकेंड का इंटरवेल लेने के बाद उसने स्टेशन पर किसी ट्रेन के आने की सूचना देनेवाली कम्प्यूटराइज़्ड लेडी एनाउंसर की तरह लगातार बोलना जारी रक्खा, 'देखो, चच्चा ! सीधी और सपाट बात है। तमाकू बेचने और बिकवाने का धंधा जब सरकार खुद करवा रही है तो तमाकू खाने से नुकसान पर बेहूदा प्रवचन क्यों ? चच्चा, कोई ऐसा भी है जिसका खुले माल पर जी न ललचाए ? यह तो किसी को गड्ढ़े में धकेल फिर बाहर निकालनेवाली मसल हुई न ? या तो गड्डा खोदो मत। खोदोगे, कोई-न-कोई उसमें गिरेगा तो जरूर।'

       किसी शोध-प्रबंध का समाहार लिखनेवाले अनुसन्धितसु  की भांति मैंने निष्कर्ष निकाला कि लल्ला ने जो कुछ कहा उसमें सौ फीसदी सच्चाई है। पिछले बाईस सालों से प्रतिवर्ष अतंर्राष्ट्रीय तम्बाकू निषेध दिवस पर तम्बाकू के ख़तरों के प्रति लोगों को जागरूक करने के बाद भी हर साल करीब सत्तर लाख लोग तम्बाकू की कब्र में दफन होने पर अब आम लोगों को नहीं, सरकारों को जागरूक करने की गहरी आवश्यकता है।

   ....मैं अपने चिंतन को और विस्तार देता, सहसा  मेरे कन्धे पर किसी ने हाथ रक्खा। देखा, मेरा वही ज़ाहिल भतीजा लल्ला अपने श्रीमुख पर फैली हँसी की आड़ी-तिरछी तरंगों से उद्भूत शब्दों से जैसे मेरी प्रोफेसरी पर व्यंग्य कर रहा हो ! बोला, 'अच्छा, चलता हूँ। तुम्हारे चक्कर में चाय-समोसों से भी हाथ धो बैठूंगा ।'

       और, वह पुनः सुरती को होठों में ठूंसते तम्बाकू निषेध दिवस पर प्रवचन देने के लिए चल पड़ा । 

       ✍️ डॉ जगदीश शरण,  217, प्रेमनगर, लाइनप, माता मंदिर गली, मुरादाबाद-- 244001, उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल :  983730 8657 


 

मंगलवार, 1 जून 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 25 मई 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों रंजना हरित, नरेन्द्र सिंह नीहार, कमाल ज़ैदी "वफ़ा", डाॅ ममता सिंह, अशोक विद्रोही, डॉ अर्चना गुप्ता, दीपक गोस्वामी 'चिराग', नीमा शर्मा हंसमुख, सीमा रानी, वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", कंचन खन्ना , राजीव प्रखर की कविताएं और विवेक आहूजा की कहानी ------


देखो - देखो मोटर आती ,

इधर उधर से धूल उड़ाती ।

              पेट्रोल की बू फैलाती ,

              बड़े वेग से दौड़ी जाती। 

इसमें नहीं जुते हैं घोड़े, 

 बंधे नहीं  बैल के जोड़े ।

        इसको एक चलाती कल है ,

          इसमें भरा तेल का बल है।

 ड्राइवर साहब हॉक रहे हैं,

 शीशे  में  से   झांक रहे हैं।

          देख किसी को आगे आते।

         भों- भोंं  करके उसे भगाते।

 इसके आगे से हट जाओ ,

भागो - भागो प्राण बचाओ। 

         बीच सड़क में जो आओगे,

          गिरकर घायल हो जाओगे


✍️  रंजना  हरित, बिजनौर, उत्तर प्रदेश

---------------------------------


उछल - कूदकर  हुई उमंगित,

नवल प्रभात की प्रथम किरण।

हँसती - गाती  दौड़ लगाती,

छैल छबीली मृदुल पवन।

मुर्गा जागा उठकर भागा,

चढ़ छप्पर पर बांग लगाये।

जगे गाँव के लोग सभी,

अपने - अपने पथ पर धाये। 

तोता बोला सुन - ओ मैना। 

सैर सुबह की बहुत सुहानी। 

आलस छोड़ निकल भी आओ, 

फिर ढूंढेंगे दाना - पानी। 

छुटकू फुदकू खनकू सारे, 

अब राहों पर घूम रहे हैं। 

खगकुल गाता वन्दनवारे, 

अपनी मंजिल चूम रहे हैं। 

कूक रही कोयलिया प्यारी,

मनभावन से सभी नज़ारे। 

दस्तक देती घूम रही है, 

सुबह सभी के द्वारे - द्वारे।। 

 

✍️ नरेन्द्र सिंह नीहार, नई दिल्ली

 -------------------------- 


     

सबसे अच्छा होता पढ़ाना,

सबसे बुरा आपस मे लड़ाना।

घर मे जो भी आये अतिथि,

इज्ज़त से ही उसे बिठाना।

पहले उसको पानी पिलाना,

फिर मम्मी पापा को बुलाना।

मृदु भाषी बनकर बच्चो,

सबके दिल मे जगह बनाना।

कटु वचन न कहना किसी से,

जो रूठा है उसे मनाना।

नानी के घर  भी जाना तो,

साथ मे बस्ता लेकर जाना।

खेल कूद भी बुरा नही है,

लेकिन अच्छा पढ़ना पढ़ाना।


✍️ कमाल ज़ैदी "वफ़ा"

प्रधानाचार्य,अम्बेडकर हाई स्कूल

सिरसी (संभल)9456031926

------------------------------


कठिन समय है मत घबराओ। 

हर पल आगे बढ़ते जाओ।। 


रात नहीं ये टिकने वाली।

चाहे हो कितनी भी काली। 

मायूसी को दूर भगाओ।।

हर पल आगे बढ़ते जाओ।। 


गम की बदली छट जायेगी। 

भोर सुहानी फिर आयेगी। 

मन में ये विश्वास जगाओ।। 

हर पल आगे बढ़ते जाओ।। 


सुख दुःख है जीवन का हिस्सा। 

यही बनेगा कल फिर किस्सा।। 

रुक कर मत यूँ समय गवाँओ।। 

हर पल आगे बढ़ते जाओ।। 


चुनौतियों से तुम मत ड़रना। 

साहस का दम हर पल भरना। 

शैल चीर के राह बनाओ।। 

हर पल आगे बढ़ते जाओ।। 


कठिन समय है मत घबराओ। 

हर पल आगे बढ़ते जाओ।। 


✍️ डाॅ ममता सिंह, मुरादाबाद

-------------------------------


इन्द्र धनुष का  रंग निराला!

इसका रूप बड़ा मतवाला!!

       वर्षा     रुकी  बदरिया   छाई

       जब सूरज ने झलक दिखाई।

सूरज  की  विपरीत  दिशा में,

यह न  दिखेगा कभी निशा में,

       अद्भुत दृश्य नजर एक आया।

       सात  रंगो  ने  जिसे   बनाया।।

जादू  जैसा  कोई चलाएं,

कैसे इंद्रधनुष बन जाए ?

       इंद्रदेव      वर्षा   करते   हैं।

       इस जग की पीड़ा हरते हैं।।

मेघों   से   जल   बूंदे    झड़तीं,

सूर्य किरण उन पर जब पड़तीं,

      सातों   रंग  उभर  तब  आते।

      मिलकर इंद्रधनुष बन जाते।।

दौड़ दौड़ बच्चों की टोली,

इसे  निहारे  करे  ठिठोली।

      बैंगनी, नीला फिर आसमानी।

      देखो   अम्मा !    देखो नानी !

हरा,   पीला,  नारंगी , लाल।

सात रंगों ने किया कमाल।।

      सब मिल अद्भुत छटा दिखाते

      सब  बच्चों  के  मन  को भाते

बच्चों  बात    हमारी  मानो !

इसमें छुपा रहस्य पहिचानो !

       मिलजुल  कर जब रहते सारे,

       रंग   निखरते  कितने   प्यारे?

तुम सब भी मिल जुल कर रहना !

इंद्रधनुष  सम  जग  से    कहना !

       अगणित  जन  जन भिन्न प्रकार,

       मिल   कर    बनता  है  संसार।।

अलग अलग हम भले अनेक,

सब मिल कर बन जायें एक !

      इससे कितना सुख पाओगे !

      सबके  प्यारे  बन  जाओगे !!


 ✍️ अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद, मोबाइल 8218825541

-----------------------------------


किसने है ये स्कूल बनाए 

कोई हमको जरा बताए 


टीचर जी से डर लगता है

रोज रोज पढ़ना पड़ता है


होमवर्क लगता है दुश्मन

मम्मी से करवाता अनबन 


दोस्त यहां बस मिलते प्यारे 

शोर मचाते मिल कर सारे 


टन टन टन जब घंटी बजती 

लगे जेल से छुट्टी मिलती


कितना प्यारा होता बचपन 

नहीं अगर पढ़ने का बंधन


✍️ डॉ अर्चना गुप्ता, मुरादाबाद

----------------------------


नील गगन के प्यारे तारे। 

कितने सुंदर कितने न्यारे ।

आसमान में ऊँचे ऐसे ।

चमके हो हीरों के जैसे ।


चाँद तुम्हारे पापा शायद,

साथ तुम्हारे आते हैं।

शैतानी न करो कोई तुम, 

हर पल यह समझाते हैं ।


कितने भाई तुम्हारे हैं ये, 

एक ही जैसे दिखते हो ।

सोच-सोच हैरानी होती। 

नभ में कैसे टिकते हो ।


क्या तुम भी विद्यालय जाते?,

 किस कक्षा में पढ़ते हो।

 हम बच्चों के जैसे तुम भी 

क्या आपस में लड़ते हो ।


ओ! तारे चमकीलापन यह तुमने कैसे पाया है। 

सच-सच बतलाना तुम भैया किसने तुम्हें बनाया है?


✍️ -दीपक गोस्वामी 'चिराग', बहजोई (सम्भल) उ.प्र. मो. 9548812618

ईमेल 

deepakchirag.goswami@gmailL.com

--------------------------------------


मुख की शोभा होते दाँत

रोज सफाई करो तुम इनकी

कभी न खाओगे तुम मात।।

जब आये चेहरे पर मुस्कान

दाँत प्रकट होते श्रीमान।

सुंदर मुख मोती से चमके

दाँतो की शोभा यूँ दमके ॥

खाने का आता है स्वाद

मुहँ में अगर हो दाँत जनाब।

नही लगाना कभी औजार

हो जाते है दाँत बेकार ॥

सुबह सवेरे उठकर

मंझन दाँत में नित कर।

रखोगे दाँतो की सफ़ाई

करे दाँत तुमसे वफाई ॥


✍️ नीमा शर्मा हंसमुख, नजीबाबाद बिजनौर

------------------------------ 


ओ चमकीले से प्यारे तारे, 

लगते क्याें तुम इतने प्यारे |

 आसमान में चमकाे ऐसे ,

हीराें का सरदार हो जैसे |


मामा चंदा साथ तुम्हारे, 

हरदम हँसकर रहते हैं |

कभी इधर , कभी उधर, 

बस दोडाे़ तुमसे कहते हैं |


कभी स्कूल भी जाते हो क्या? 

दोस्तों संग गप्प लड़ाते हाे क्या? 

मित्राें मंडली संग घूम घूमकर ,

कभी चाट पकौड़ी खाते हाे क्या |


घर पर मम्मी रोज तुम्हारी, 

तुमकाे भी समझाती होगी |

ज्यादा ऊँचे पर मत जाना, 

बड़ी मुश्किल व परेशानी होगी |


बोलाे इतने ऊँचे आसमान में ,

कैसे तुम जी भर दौड़ लगाते हाे |

क्याें नही फिसलतें पैर तुम्हारे, 

क्या जादू टोना कराते हो  ?


✍🏻सीमा रानी, पुष्कर नगर , अमरोहा 

सम्पर्क सूत्र 7536800712

------------------------------


कहा  भैंस  ने  गैया  मुझसे,

बहस   कभी   मत   करना,

खाकर  पन्नी, कूड़ा  कचरा,

पेट      यहाँ    तू    भरना।

          -------------

शुद्ध  नीर,भूसा, चोकर तो,

नहीं      भाग्य    में      तेरे,

चना,बिनोला,खलचोकरतो,

बदा      भाग्य     में     मेरे,

दूर  खड़ी   ऐसे  खाने  की,

सिर्फ       सोचती    रहना।


मेरा  मालिक  मेरे तन  को,

शीशे        सा    चमकाता,

दुहकर  दूध तुझे गौपालक,

घरसे          दूर     भगाता,

तेरे  मालिक  को आता  है,

सिर्फ     दिखावा    करना।


मेरा मालिक  मुझे नित्य ही,

गुड़   और    तेल   पिलाता,

तेरा मालिक तुझको केवल,

सूखी        घास   खिलाता,

उसको नहींअखरता कतई,

तेरा         जीना      मरना।


बहन बहुत मत शेखी मारो,

थोड़ा      चुपभी      जाओ,

मेरे  लाख गुणों का भी  तो,

वर्णन      सुनती      जाओ,

जो   बोलूँगी  सच   बोलूँगी,

झूठ    नहीं    कुछ  कहना।


मेरे    रोम - रोम   में  रहता,

सब     देवों     का     वास,

मेरी  पूजा से  होता  जाता,

सबका    तन-मन     साफ,

सच कहती हूँ  प्यारे  बच्चो,

मानो        मेरा       कहना।

                      

व्यर्थ बहस करने से अच्छा,

होता    है     चुप     रहना।


✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453

------------------------------------


नंदू  गोपी और गोपाल 

गए घूमने तीनों भोपाल ।


नानी नाना दादा दादी 

मम्मी पापा मामा मामी ।


संग गया सारा परिवार 

झूमे नाचें मौज उड़ाएं 


ताल तलैया देखें तीनों 

झूमें गाएं नहाएं तीनों ।


फिरउपवन की सैर करी 

सूरत आंखों में भर ली ।


हाथ पकड़े नाना नानी 

नहीं करने देते सैतानी ।


दादी दादा ज्ञान बढ़ाएं 

सब चीजों को समझाएं ।


संग  खाएं चाय पकौड़ी 

खूब मचाएं धमा चौकड़ी ।


हंसते गाते रास्ते कट जाएं 

आकर पढ़ाई में लग जाएं ।


✍️ राशि सिंह, मुरादाबाद उत्तर प्रदेश

--------------------------------


वृक्ष मनोहर प्यारे प्यारे

कुदरत की आँखों के तारे 

दानी बनकर खड़े हुए हैं

शांत भाव सारे के सारे ।

वृक्ष मनोहर प्यारे प्यारे ।।


पशु पक्षी और कीट पतंगे

नभ जल थल के सब ही प्राणी

जीव जीव इन पर निर्भर है

दाता जग के सबसे न्यारे ।

वृक्ष मनोहर प्यारे प्यारे ।।


बने दधीचि से महा त्यागी

अंग अंग करते न्यौछावर ,

मूल फूल फल पत्र से लेकर

सबकुछ इस जगती पर वारे ।

वृक्ष मनोहर प्यारे प्यारे ।


✍️ डॉ रीता सिंह, आशियाना , मुरादाबाद

-------------------------------


मां अब वो दिन- कब आयेंगे,

मोबाइल से- छुटकारा कब पायेंगे।

आंखें अब- दुख  रही हैं इतनी,

मां स्कूल फिर हम- कब जायेंगे।

अब मनाह नहीं- तुम करती हो,

मोबाइल लिये -पीछे चलती हो।

पढ़ाई करलो-जिद्द करती हो,

स्कूल के वैन- बस कब आयेंगे,

मां स्कूल अब-कब हम जायेंगे।

जी करता है हाथों-से कुछ करलूं,

अपने घर को- पेंटिंग से भर दूं।

वीणा सरस्वती- वादन से स्वर लूं।

दिन पुराने कब- लौट कर आएंगे।

शीशम-पीपल बरगद के पेड़ लगाकर,

आक्सीजन बने,रखूं पर्यावरण बचाकर।

बर्बाद न करूं- पानी मैं बहाकर।

महामारी के दिन-स्वतः लौट जाएंगे,

मां फिर तो स्कूल- खुल जायेंगे,

लोक डाउन हमेशा- हट जायेंगे।

पहले दिन मां- फिर आएंगे- आयेंगे।


✍️ सुदेश आर्य-"गौड़ ग्रेशियस", मुरादाबाद

------------------------------


बच्चे सच्चे कल का भविष्य

बनेंगे अच्छे नागरिक

हमें उनको सही संस्कार देने होंगे

ये कर लो सब प्रण रे भाई

ये कर लो सब प्रण।।


कैसे विपत्ति का करेगें सामना

कैसे प्रकृति को रखे सुरक्षित

राम चरित्र उनको सुनाए

कृष्ण का गीता पाठ पढाए

हमारी संस्कृति है इतनी प्यारी

विदेशों ने भी इस को अपनाया

ये सब उनको बताओ रे भाई

ये सब उनको बताओ।।


माता-पिता की सेवा करो

भाई बहनों संग प्यार से रहो

नाना नानी दादा दादी का रखो ख्याल

ऐसे बनो देश के तुम सुंदर लाल

ये सब उनको सिखाओ रे भाई

ये सब उनको सिखाओ।।


✍️ चन्द्रकला भागीरथी

धामपुर जिला बिजनौर

-------------------------------





बाल कथा  ----


आज काफी लंबे समय बाद जंगल के राजा शेर🐅ने आपसी भाईचारे को बनाए रखने के लिए सभी जीव जंतुओं की जंगल में एक सभा का आयोजन किया। सर्वप्रथम गधा कुमार जी🐴 ने खड़े होकर अपनी समस्या रखने के लिए महाराज से गुजारिश की जो कि तुरंत स्वीकार कर ली गई ।तत्पश्चात गधे कुमार जी 🐴ने कहना शुरू किया "महाराज मुझे अपने जीव जंतु समुदाय से कोई शिकायत नहीं है परंतु मानव जाति ने मेरा जीना मुश्किल करा हुआ है" आगे बताते हुए गधा कुमार जी बोले "मानव👨‍💼 दिन रात मुझे सामान ढोने पर लगाए रहता है और एक पल भी मुझे आराम करने नहीं देता" ऊपर से मानव जाति ने मेरा मजाक उड़ाने के लिए कहावते तक बना रखी है, जैसे गधे के सिर पर सींग, अबे गधे , ओए गधे आदि इसके बाद में गधे ने रूआंसु होकर कहा सरकार इतनी मेहनत करने के बाद भी मानव समाज में मेरी कोई इज्जत नहीं है। अभी गधे जी🐴 की बात पूरी भी ना हो पाई थी कि बैल 🐂 ने भी सभा में शोर मचा दिया "महाराज में भी कुछ कहना चाहता हूं" महाराज ने कहा बोलो आप भी अपनी समस्या बेहिचक होकर सभा में रख सकते हैं ।बैल जी 🐂बोले "महाराज मेरी भी शिकायत मानव जाति से ही है" उन्होंने बताया कि "मानव अपनी खेती में मेरा खूब इस्तेमाल करता है और इनका हल जोतते जोतते मेरी टांग टूट जाती है व मुझे वह जरा सा भी आराम नहीं करने देता, इतना ही नहीं जब मेरी उम्र हो जाती है तो वह मुझे कसाई को बेच देता है" बैल ने आगे कहा "महाराज आप ही बताएं क्या मुझे आराम करने का कोई हक नहीं" 

                 बैल की बात समाप्त होते ही तोता श्री 🦜, कबूतर श्री 🕊आदि पक्षी भी अपनी शिकायत सभा में रखने को आतुर हो गए ।सभी जंतुओं ने उन्हें समझाया जल्दी मत करो तुम्हें भी अपनी शिकायत करने का पूरा मौका दिया जाएगा ।शेर महाराज 🐅ने पक्षी समुदाय से अपना पक्ष रखने को कहा तो तोता श्री 🦜फुदक कर सभा के मध्य आ गए और तीखी आवाज में बोले "महाराज मानव ने हमें तो बिल्कुल गुलाम ही बना रखा है और हमारा जीवन सालों साल पिंजरे में कैद होकर ही रह जाता और पिंजरे में ही हम लोग मर जाते हैं, महाराज हमें पिंजरे की गुलामी से आजादी दिलाई जाए" महाराज ने पक्षी समुदाय की बात को बड़े ध्यान से सुनी , कुछ पक्षीयो ने अपने भक्षण की शिकायत भी की , भक्षण की बात सुन मुर्गा 🐓और बकरे🐐 ने शोर मचा दिया जोर से सभा में दहाड़े मार-मार कर रोने लगे , शेर महाराज ने उन्हें बमुश्किल चुप कराया और उनसे रोने का कारण पूछा तो वह रोते हुए बोले "महाराज मानव से हमारी रक्षा करें इन लोगों ने तो हमारा जीवन दूभर कर दिया है इनकी कोई दावत होती है वह हमारी जान लेकर ही जाती है" और तो और हम लोग तो अपनी पूरी जिंदगी भी नहीं कर पाते इससे पहले ही मानव👨‍💼 हमारा भक्षण कर लेता है सब की समस्याएं सुन महाराज शेर 🐅ने लंबी सांस लेते हुए कहा आप सब की समस्याएं काफी गंभीर हैं । और इन सब के निस्तारण की भी अति आवश्यकता है। पर मानव को कौन समझाएगा महाराज ने सबसे मानव के सुधार के लिए अपने सुझाव रखने को कहा । करीब करीब सभी छोटे-बड़े जीव-जंतुओं ने एक सुर में महाराज से कहा "अब बात समझाने से आगे निकल चुकी है" अगर हम मानव को समझाने जाएंगे तो वह हम लोगों को और भी ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। अतः अब मानव 👨‍💼को सबक सिखाने का वक्त आ गया और सभी जीव जंतु समुदाय ने सर्वसम्मति से मानव जाति के विरुद्ध जंग का प्रस्ताव पास कर दिया। महाराज ने सभी को समझाया की जंग से कोई फायदा नहीं आपस में ही बैठ कर सुलाह कर लेते हैं। परंतु कोई भी जीव मानने को तैयार नहीं हुआ । सभी ने महाराज 🐅से आग्रह किया कि मानव को एक बार सबक सिखाना अत्यंत आवश्यक है और जंग की पूरी रूपरेखा बनाने के लिए महाराज जी को नियुक्त कर दिया । सभी जीव जंतुओं की मर्जी के आगे महाराज जी की एक न चली और उन्होंने जीव जंतुओं की जंग में पूरा साथ देने का वादा किया व अगले दिन सब को सभा स्थल पर पुनः बुलाया । 

        अगले दिन पूरा जीव जंतु समुदाय सभा स्थल पर एकत्र हुआ और महाराज शेर से जंग की तैयारी का हाल पूछा तो महाराज जी ने कहा मैंने मानव को सबक सिखाने के लिए एक योजना बनाई है। और इस योजना में "कोरोना विषाणु" बेटा हमारी मदद करेगा सभी जीव जंतुओं ने महाराज से पूछा यह कैसे संभव है ।कोरोना तो बहुत छोटा है और नंगी आंखों से हम इसे देख भी नहीं सकते फिर यह हमारी मदद किस प्रकार कर सकेगा ।महाराज ने कहा कोरोना ही हमारी मदद कर सकता है और मानव को अच्छी तरह सबक सिखा सकता है ।उन्होंने करोना बेटा को बुलाया और उसे आदेश दिया कि पृथ्वी के पूर्वी हिस्से में किसी खाद पदार्थ में मिलकर अपना दुष्प्रभाव दिखाना शुरू करो वह एक से दूसरे दूसरे से तीसरे फिर हजारों लाखों करोड़ों लोगों में अपना दुष्प्रभाव पृथ्वी के सभी देशों में फैला दो। महाराज से आज्ञा लेकर कोरोना विषाणु ने पूर्व से पश्चिम तक पूरी पृथ्वी पर अपना दुष्प्रभाव चलाना शुरु कर दिया। धीरे धीरे दुष्प्रभाव से हजारों लाखों फिर करोड़ों लोग प्रभावित होने लगे। लाखों की संख्या में मानव मरने लगे। सभी जीव जंतुओं को मानव द्वारा अपने ऊपर किए गए अत्याचार का बदला मिल गया था और सब एकत्र होकर महाराज के पास आए व बोले "महाराज मानव जाति को अब काफी सबक मिल चुका है ,अब आप कोरोना को वापसी का आदेश दें" 

                           महाराज शेर ने तुरंत कोरोना को बुलवाया और उससे मानव जाति पर उसके प्रभाव की रिपोर्ट मांगी। कोरोना विषाणु ने सीना चौड़ा कर महाराज से कहा कि "मै आपको अभी अपने प्रभाव की छमाही रिपोर्ट देता हूं" यह कहकर करोना ने बताना शुरू किया "मानव मेरे प्रभाव से मुंह पर कपड़ा बांधकर घूमता है , मदिरा जो पीने की वस्तु है उसे मेरे प्रभाव को कम करने के लिए हाथों में लगा कर घूम रहा है, इसके अलावा सबसे मजेदार बात यह है कि मानव एक दूसरे से दूर दूर होकर बैठता है और दूर दूर होकर ही घूम रहा है" यह कहकर कोरोना ने एक जबरदस्त ठहाका लगाया सभी जीव जंतु छमाही रिपोर्ट सुनकर अति प्रसन्न हुए ,तत्पश्चात सभी जीव जंतुओं ने महाराज से कहा अब बहुत हुआ मानव को सबक मिल चुका है आप कोरोना से कहे कि वह अपने प्रभाव को खत्म करें और शांत हो जाए महाराज ने कोरोना को तुरंत आदेश दिया कि वह अपना बोरिया बिस्तर समेट कर पूरे विश्व से रवाना हो जाए । किंतु करोना तो घमंड में चूर हो चुका था उसने महाराज की बात को मानने से साफ इंकार कर दिया और बोला "आप सभी जीव जंतुओं में मैं सबसे ताकतवर हूं ,जो काम आप सब मिलकर नहीं कर सके वह मैंने अकेले कर दिखाया लिहाजा अब तो जब मेरा मन करेगा तभी मैं वापसी करूंगा" यह सुन सभी जीव जंतु बहुत गुस्सा हुए और उन्होंने कोरोना को सभा से धक्के मार कर अपनी जमात से बाहर कर दिया। 

                         कोरोना की इस हरकत पर सभी जीव जंतु बहुत दुखी थे और महाराज शेर से उन्होंने कहा अब इस मुसीबत से मानव को निजात दिलाने के लिए कुछ युक्ति करें महाराज ने कहा "देखो मैं कुछ करता हूं" उन्होंने सबसे कहा "पृथ्वी पर भारतवर्ष के पीएम बहुत अच्छे व्यक्ति हैं मैं उन्हें अपने पत्रवाहक कबूतर को भेजकर खबर करता हूं" कि कैसे जीव-जंतुओं की नासमझी के कारण यह समस्या खड़ी हो गई है व करोना बागी हो गया है।महाराज ने आगे लिखा "अब हम लोगों ने करोना को अपनी जमात से भी बाहर कर दिया है अतः आप जो कठोर से कठोर कार्यवाही करोना के खिलाफ करना चाहे हमारा आपको पूर्ण समर्थन रहेगा" यह कहकर उन्होंने कबूतर जी को पत्र देकर रवाना किया ।

 तत्पश्चात भारतवर्ष के पीएम ने सभी जीव जंतुओं का शुक्रिया अदा करा व अपने वैज्ञानिकों, डॉक्टरों की पूरी टीम को करोना पर कार्यवाही के लिए लगा दिया और जल्द ही पूरा विश्व कोरोना के प्रभाव से मुक्त हो गया। इस प्रकार सभी जीव जंतुओं ने महाराज शेर के सम्मुख अपनी गलती स्वीकारी , अब उन्हे अच्छे से समझ आ चुका था कि दुनिया को प्यार से ही जीता जा सकता है ना कि बदले से, और सभी ने महाराज शेर के समक्ष प्रण किया कि अब वह मानव जाति के साथ प्रेम से ही जीवन व्यतीत करेंगे ।


✍️ विवेक आहूजा, बिलारी

जिला मुरादाबाद

Vivekahuja288@gmail.com

@9410416986

---------------------------




मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल ) के साहित्यकार डॉ मूलचन्द्र गौतम का व्यंग्य ----बहुरूपिये वायरस की बेइज्जती

 


कोरोना वायरस किसी बहुरूपिये मायावी राक्षस से कम नहीं है।जिन्होंने राम रावण युद्ध का वर्णन पढा है वे जानते हैं कि इसे पराजित और परास्त करना कितना कठिन काम है।यह रक्तबीज है,कालिया नाग है ,मारीच है जो आसानी से नष्ट होने को तैयार नहीं।महामारियों के इतिहास में कोरोना ने प्लेग को बहुत पीछे छोड़ दिया है।लोग अपनों को कन्धा देने तक को तैयार नहीं।अस्थि चयन और विसर्जन तो दूर की बात है।कलिकाल   में समस्त आसुरी शक्तियां इसी में  समाहित हो गयी हैं।पहले एक मामूली सा राक्षस तैंतीस करोड देवताओं पर भारी पडता था तो मानुषों की तो कोई गिनती ही नहीं।कोरोना को भी अपनी बेइज्जती कतई बर्दाश्त नहीं।बेइज्जती से यह सुरसा के मुँह की तरह विशालकाय होता चला जाता है।बाबा ने पहले ही आगाह कर दिया था -खल परिहरइ  स्वान की नाईं।

       पूरी दुनिया के तमाम वैज्ञानिक,डाक्टर और विशेषज्ञ रातदिन इसकी काट  ढूंढने में लगे हुए हैं।तरह-तरह के टीके ईजाद किये जा रहे हैं।टोने टोटके अलग।ऊपर से नीम हकीमों के नुस्खे-काढे। हर तरह का धंधा चालू आहे ।इन  सब उपायों और उपचारों से इसका गुस्सा आसमान तक पहुँच गया है।कोरोना को कष्ट है कि जो गालियां देश के नेताओं के लिये फिक्स हैं वो उसे क्यों दी जा रही हैं?क्या इसलिये कि उसने विश्व की हर सत्ता और व्यवस्था की पोल खोल दी है?

      इसीलिए माबदौलत ने तय किया है कि बाबा की रणनीति के तहत इसे तरह-तरह की निंदा से नहीं प्रशंसा से मारा जाना चाहिये।बाबा ने भी सर्वप्रथम खल वन्दना करके इसके कोप से आत्मरक्षा की थी।इसीलिए चतुर सुजानों ने इसकी प्रशंसा और अभिनंदन -वंदन के ढेर लगा दिये हैं ताकि वे इसके प्राणघातक कहर से सुरक्षित रह सकें।कोरोना चालीसा में  इस बहुरूपिये को ब्रह्म ही स्थापित कर दिया गया है।चमगादड के इस वंशज की महिमा अपरंपार है।इसके मेहमानों तक को उल्टा लटकना पडता है तो दमघोंटू शिकारों का क्या कहिये?

      आज भी मोहल्ले का शार्प शूटर सबसे पहले उनसे हिसाब चुकता करता है जो उसे नमस्ते नहीं करते।हर आते-जाते से उसका सवाल होता है कितने भाई हो ,जबाब मिलते ही उनकी संख्या में एक बढाकर पूछता है ,इतने होते तो मेरा क्या कर लेते और उसकी ढिशूम ढिशूम चालू हो जाती है।बयरु अकारण सब काहू सौं।ऐसा नहीं कि यह गुण्डा आदर करने वालों पर कोई रहम दिखाता है बल्कि उनको बेगारी में पकड लेता है और जिन्दगी भर उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी से गुलामी कराता है।गिद्ध सबसे पहले अपने शिकार की आँखें नौंचता है ताकि उसे कुछ दिखाई न दे।यह बाली की तरह सबसे पहले जीव के फेफड़ों को जकड़ता है ताकि मरीज इसके सामने  बेदम हो जाय ।क्या कल्कि अवतार का यही सही समय है?

✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम , शक्ति नगर,चंदौसी,जनपद संभल 244412, मोबाइल  8218636741

शुक्रवार, 28 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य --विशेषज्ञता की हद


 वो ज़माना गया जब हमारे घर में कोई  बीमार पड़ जाता था तो हम सीधे अपनी गली मोहल्ले के डाक्टर के पास जाये थे . इसे फ़ैमिली डाक्टर भी कहा जाता था. यह एक ऐसा बंदा होता था जिसे परिवार के हर सदस्य के स्वास्थ्य के बारे में बारीक से बारीक जानकारी होती थी , उसे यह भी पता होता था कि अम्मा जी  को शुगर रहती है , पापा जी के घुटनों में दर्द रहता है इसलिए वो इलाज के दौरान वही दवाई लिखता या देता था जिससे उनकी मेडिकल कंडिशन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न हो . 

अब तो हाल यह है कि मुहल्ले के नुक्कड़ पर केवल वही डाक्टर बचे हैं जिनके नाम के आगे एबीसीडी , फिर आरएमपी या फिर जीएमपी क़िस्म की डिग्रियाँ लगी होती हैं . बाक़ी लोग इलाज कराने के लिए या तो सीधे पाँच सितारा अस्पताल जाते हैं नहीं तो फिर किसी स्पेशलिस्ट के पास. इलाज शुरू होने से पहले ही ये डाक्टर कई सारे टेस्ट करवाने के लिए लिख देते हैं , उनका सीधा तर्क रहता है कि जब तक वे बीमारी के बारे में मुतमयीन नहीं हो जाएँगे तब तक दवा नहीं देंगे . डाक्टर की फ़ीस मात्र एक हज़ार और टेस्टों की लागत यही कोई दस हज़ार . मरीज इस बात से संतुष्ट हो जाता है  कि डाक्टर बेफ़जूल दवाई देने के पक्ष में नहीं है . लेकिन डाक्टर और टेस्टिंग लैब का सही सही रिश्ता क्या होता है यह मुझे कुछ महीने पहले ही पता लगा . मेरे पैर में दर्द था और पाँच सितारा अस्पताल के डाक्टर भास्कर ने मुझे हार्ट का कलर डापलर करने की पर्ची थमा दी थी. जिस लैब की पर्ची थी वह मेरे घर से काफ़ी दूर थी , मेरे घर के क़रीब एक नई लैब खुली थी मैंने  सोचा क्यों न वहीं से टेस्ट करवा लिया जाए , लैब में पहुँचा , मेरी पर्ची पढ़ कर कर काउंटर पर बैठी रिसेप्शनिस्ट सीधे  अपनी लैब के स्वामी के चेम्बर में पहुँच गयी  . वो बहुत ही इक्सायटेड लग रही थी . वहाँ का पूरा सेट-अप छोटा सा ही था, चेम्बर में हो रही उन दोनों की बात आराम से सुन पा रहा था , लैब स्वामी कह रहा था ,’ जूली , डाक्टर भास्कर को फ़ोन लगाओ , उनको बोलो सर आपका खाता खोल दिया है , हम अभी नए हैं हम  तीस परसेंट के साथ दस परसेंट बोनस भी दे रहे हैं. तब समझ  में आया कि स्पेशलिस्ट डाक्टर क्यों कई क़िस्म के टेस्ट की परची बना  कर देता है. मेरे एक जनरल फिज़िशियन मित्र तो उस पर्ची को देख कर कई मिनट तक पेट पकड़ कर हंसते रहे , कहने लगे मुझे आज ही पता चला कि पैर के दर्द के कारण का पता हार्ट के कलर डोपलर से चल सकता है. 

इन दिनों चिकित्सा विज्ञान में इतनी तरक़्क़ी हो गयी है कि शरीर के छोटे छोटे भागों के विशेषज्ञ बन चुके हैं मसलन दांत को ही लीजिए , दांत में इंप्लांट का विशेषज्ञ अलग है , रूट कैनाल का अलग. एक दिन तो हद  ही हो गई , मेरे एक मित्र एक सितारा हास्पिटल में ईएनटी विभाग में गए , वहाँ बैठे डाक्टर को कान देखने के लिए कहा , डाक्टर बोला ‘सॉरी मैं तो नाक का विशेषज्ञ हूँ ‘ हमारे मित्र उस सितारा अस्पताल में घूम घूम कर और विभाग में बैठे बैठे परेशान हो चुके थे डाक्टर से मुख़ातिब हुए कहने लगे, ‘ठीक है सर मेरा कान मत देखिए पर इतना बता दीजिए आप  नाक के बाएं छेद  के विशेषज्ञ हैं या फिर  दाएँ के ‘.

सच कहूँ तो ऐसे डाक्टर ज़्यादा ज़रूरी हैं जो आपके पूरे शरीर को समझ कर आप का निदान कर सकें .

✍️ प्रदीप गुप्ता

B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ? -

 

       जब बच्चा दूसरी या तीसरी कक्षा में आ जाता है ,तब रिश्तेदार घर पर आने के बाद बच्चों को पुचकारते हुए उससे पहला सवाल यही करते हैं " क्यों बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ? "

         यह सवाल कुछ इस अंदाज में किया जाता है ,जैसे प्रश्न पूछने वाले के हाथ में वरदान देने की क्षमता है अथवा बच्चे को खुली छूट मिली हुई है कि बेटा आज जो चाहो वह मांग लो तुम्हें मिल जाएगा ।

    कक्षा चार में बच्चों को अपने जीवन की न तो नई राह पकड़नी होती है और न ही  विषयों का चयन कर के किसी लाइन में जाना होता है । हमारे जमाने में कक्षा नौ में यह तय किया जाता था कि बच्चा विज्ञान-गणित की लाइन में जाएगा अथवा वाणिज्य - भूगोल - इतिहास पढ़ेगा ? कक्षा 8 तक सबको समान रूप से सभी विषय पढ़ने होते थे । लेकिन बच्चों से बहुत छुटपन से यह पूछा जाता रहा है और वह इसका कोई न कोई बढ़िया-सा जवाब देते रहे हैं । 

          दुकानदारों के बच्चे कक्षा आठ तक अनेक संभावनाओं को अपने आप में समेटे हुए रहते हैं । जिनकी लुटिया हाई स्कूल में डूब जाती है ,वह स्वयं और उनके माता-पिता भी यह सोच कर बैठ जाते हैं कि अब तो बंदे को दुकान पर ही बैठना है। उसके बाद इंटर या बी.ए. करना केवल एक औपचारिकता रह जाती है । 

        ज्यादातर मामलों में प्रतियोगिता इतनी तगड़ी है कि जो व्यक्ति जो बनने की सोचता है ,वह नहीं बन पाता । एक लाख लोग प्रतियोगिता में बैठते हैं ,चयन केवल दो हजार का होता है । बाकी अठानवे हजार उन क्षेत्रों में चले जाते हैं ,जहां जाने की वह इससे पहले नहीं सोचते थे ।

                   ले-देकर राजनीति का बिजनेस ही एक ऐसा है ,जिसमें कुछ सोचने वाली बात नहीं है  । नेता का बेटा है ,तो नेता ही बनेगा । इस काम में हालांकि कंपटीशन है ,लेकिन नेता जब अपने बेटे को प्रमोट करेगा तब वह सफल अवश्य रहेगा । अनेक नेता अपने पुत्रों को कक्षा बारह के बाद नेतागिरी के क्षेत्र में उतारना शुरू कर देते हैं । कुछ नेता प्रारंभ में अपने बच्चों को पढ़ने की खुली छूट देते हैं ।

             "जाओ बेटा ! विदेश से कोई डिग्री लेकर आओ । अपने पढ़े लिखे होने की गहरी छाप जब तक एक विदेशी डिग्री के साथ भारत की जनता के ऊपर नहीं छोड़ोगे ,तब तक यहां के लोग तुम्हें पढ़ा-लिखा नहीं मानेंगे !" 

       नेतापुत्र विदेश जाते हैं और मटरगश्ती करने के बाद कोई न कोई डिग्री लेकर आ जाते हैं । यद्यपि अनेक मामलों में वह डिग्री भी विवादास्पद हो जाती है । नेतागिरी के काम में केवल जींस और टीशर्ट के स्थान पर खद्दर का सफेद कुर्ता-पजामा पहनने का अभ्यास करना होता है। यह कार्य बच्चे सरलता से कर लेते हैं । भाषण देना भी धीरे-धीरे  सीख जाते हैं । 

               जनता की समस्याओं के बारे में उन्हें शुरू में दिक्कत आती है । वह सोचते हैं कि हमारा इन समस्याओं से क्या मतलब ? हमें तो विधायक ,सांसद और मंत्री बन कर मजे मारना हैं । लेकिन उनके नेता-पिता समझाते हैं :- "बेटा समस्याओं के पास जाओ।  समस्याओं को अपना समझो । उन्हें गोद में उठाओ । पुचकारों ,दुलारो ,फिर उसके बाद गोद से उतारकर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो और वापस आकर प्रीतिभोज से युक्त एक बढ़िया - सी प्रेस - कॉन्फ्रेंस में जोरदार भाषण दो । चुने हुए पत्रकारों के, चुने हुए प्रश्नों के ,पहले से याद किए हुए उत्तर दो । देखते ही देखते तुम एक जमीन से जुड़े हुए नेता बन जाओगे ।"

           यद्यपि इन सारे कार्यों के लिए बहुत योजनाबद्ध तरीके से काम करना पड़ता है । फिर भी कई नेताओं के बेटे राजनीति में असफल रह जाते हैं । इसका एक कारण यह भी होता है कि दूसरे नेताओं के बेटे तथा दूसरे नेता-पितागण उनकी टांग खींचते रहते हैं। यह लोग सोचते हैं कि अगर अमुक नेता का बेटा एमएलए बन गया तो  हमारा बेटा क्या घास खोदेगा ? राजनीति में प्रतियोगिता बहुत ज्यादा है । कुछ गिनी-चुनी विधानसभा और लोकसभा की सीटें हैं । यद्यपि आजकल ग्राम-प्रधानी का आकर्षण भी कम नहीं है । पता नहीं इसमें कौन-सी चीनी की चाशनी है  कि बड़े से बड़े लोग ग्राम-प्रधानी के लिए खिंचे चले आ रहे हैं । खैर ,सीटें फिर भी कम हैं। उम्मीदवार ज्यादा है । 

      कुछ लोग अपने बलबूते पर नेता बनते हैं । कुछ लोगों को उनके मां-बाप जबरदस्ती नेता बनाते हैं । कुछ लोगों को खुद का भी शौक होता है और उनके माता-पिता भी उन्हें बढ़ावा देते हैं । आदमी अगर नेता बनना चाहे तो इसमें बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं है। हालांकि टिकट मिलना एक टेढ़ी खीर होता है । फिर उसके बाद चुनाव में तरह-तरह की धांधली और जुगाड़बाजी अतिरिक्त समस्या होती है । पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है ,जो नेता-पुत्रों के लिए आमतौर पर कोई मुश्किल नहीं होती । आदमी एक-दो चुनाव हारेगा ,बाद में जीतेगा । मंत्री बन जाएगा । फिर उसके बाद पौ-बारह। पांचों उंगलियां घी में रहेंगी । पीढ़ी दर पीढ़ी धंधा चलता रहेगा। समस्या मध्यम वर्ग के सामने आती है। बचपन में उससे जो प्रश्न पूछा जाता है कि बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ,वह बड़े होने के बाद भी उसके सामने मुँह बाए खड़ा रहता है। नौकरी मिलती नहीं है ,बिजनेस खड़ा नहीं हो पाता ।

 ✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर [उत्तर प्रदेश], मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार रंजना हरित जी लघुकथा ----- संवेदना


 आज पड़ोसन नीलम के पति  की कोरोना  बीमारी से  चले जाने की खबर सुनकर .... अंजना के पैरो तले ,...जैसे जमीन खिसक गई। 

वह जल्दी किचन से निकलकर

 हाथ में मास्क ....लेकर नीलम के घर जाने के लिए निकली।

 तभी ट्रिन.... ट्रिन..... ट्रिन .... फिर ... घंटी सुनते ही बेटी ने फोन उठाते हुए कहा- 

 मम्मी  ...! दिल्ली से अनीता  मौसी.. का ...फोन है ।

(बचपन की सहेली अनीता  का फोन सुनने के लिए .... रूक जाती है।)

हे भगवान... क्या कह रही होगी?

(मन ही मन सोचती है,ये कैसा  अनर्थ ...।)

 हां ! !!!!बोल ...अनीता 

कैसी है?

क्या बोलूं ....अंजना..

 भाभी हॉस्पिटल में है। (रोते हुए बोली)  सांस लेने में काफी दिक्कत हो रही  थी , और अब डॉ....ने...

अरे!!!... कैसे... हो गया .? कैसे... हो आप सब ? 

क्या भाभी कोरोना पॉजिटिव है?

हां ....अंजना ।

 उनको ...कैसे हो गया ?

 वह ...तो...कभी कही आती ....जाती... ही नहीं .?

(उधर से सहेली अनीता ने जो बताया )

क्या बताऊं ? बहन अंजना !...

भाभी.... पड़ोस में ही कोरोना पेशेंट की मृत्यु होने पर उनके घर संवेदना व्यक्त करने और उन्हें सभालने चली गई थी ।

बस .......भाभी जब से ही..

कोरोना पॉजिटिव हो गई।.

 अंजना को अनीता का फोन.. सुनते -सुनते ...लगा... शरीर में जैसे जान ही न हो।

अंजना के  हाथ से मास्क और मोबाइल गिर ही गया । 

और..पड़ोस में ,.बाहर नीलम के घर से जोर - जोर से ... रोने की आवाज तेज होती जा रही थी।

फोन सुनते-  सुनते  अंजना सोच में पर पड़ गई।

बाहर .... नीलम के घर.जाऊं ..

   या नहीं जाऊं ..

सहेली अनीता की भाभी   की तरह संक्रमित होकर अस्पताल में एडमिट होने के खौफ ने दरवाजे से बाहर नहीं जाने दिया।

✍️ रंजना हरित, बिजनौर, उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद की साहित्यकार इंदु रानी की कहानी ----महान पिता


 "रेलवे की मामूली सी प्राइवेट नौकरी और माँ-पिता से लेकर छोटे भाई,बीमार बड़े भाई के बेटे व खुद के तीन बच्चों की पूरी पूरी जिम्मेदारी ऐसे में एक पिता के नाते किस तरह मैं घर की गाड़ी चला पा रहा हूँ ये तो सिर्फ ईश्वर या मेरा दिल जानता है तनु की माँ.."! एक पिता कराहते हुए पास में सर दबाती अपनी पत्नी से। 

"हां जी वो तो मैं खुद समझ रही हूँ आप खुद के लिए कम और औरों के लिए ज्यादा जी रहे हैं और अब बिटिया भी ग्रेजुएशन कर चुकी उसका मन आगे की पढ़ाई को है..!"पत्नी बोली।

"हां पर मुझे  तो जिम्मेदारी निपटाने की सूझ रही बिटिया को दायरे मे रह कर सामान्य सी पढ़ाई करने की सलाह देते हुए उसे समझा बुझा दिया है मैंने । आखिर, अपने दोनों लड़कों को भी तो लैब टेक्नीशियन और एक्सरा टेक्नीशियन बनाना है और दहेज के लिए धन भी एकत्र करना है फिर छोटी बेटी भी बड़ी हो रही ,बहुत बहुत जिम्मेदारी हैं भाग्यवान"!

बिटिया पल्ले की आड़ से सुन कर मायूस हो गयी...

       पर बिटिया को तो धुन थी हट के पढ़ाई करने की सो उसने चुपके से एक पत्र अपने चाचा को लिखा जिसकी अंतिम पंक्तियां थी- "आप कृपा कर मुझ पर भरोसा रखिये,पढ़ाई पूरी होने पर जब जॉब लगेगी तो मैं सब उधार चुका दूँगी.."! तभी इत्तेफाक से उसके पिता उसे लिखते हुए पकड़ लेते हैं और हाथों से ले कर पढ़ने लगते हैं। उनकी आँख डबडबा जाती है। मन भर आता है।  खुद को सम्भालते हुए वो पत्र  हाथ में मोड़ते हुए रख लेते और शाम को पत्नी से सारे वाकये का जिक्र करते हुए कह उठते हैं - "जब इतनी ही लगन है हमारी बिटिया को तो क्यों न हम दहेज के सारे पैसे रुपए बिटिया की खुद की ही पढ़ाई पर ही लगा के देखें,अरे क्या पता वो हमारे इन्हीं दोनों लड़कों सी निकले। भाग्यवान, कम से कम उसका दिल तो रह जाएगा..!चल बाबली कोई बात नहीं भले हम एक टाइम की सब्जी दोनों टाइम चला लेंगे पर बच्चों के शौक तो पूरे हो सकेंगे..."! 

पिता ने बस यही सोच बिटिया पे भरोसा करते हुए अपने से बहुत दूर दाखिला करवा के छात्रावास में रहने और पढ़ने लिखने को छोड़ दिया और खुद जिम्मेदारियों में दब कर एक टाइम की सब्जी दोनों टाइम पत्नी के साथ खुशी-खुशी बाँट के जीता रहा। इस सोच के साथ के यही बच्चे  तो आगे चल के सहारा होंगे। भले अंत समय कुछ पास हो न हो बच्चों की ये दौलत तो कम से कम होगी।

✍️ इंदु रानी, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा ---रिश्तों का महत्व


 'हम दोनो ही कोरोना पॉजिटिव हैं, राजेश। अब कैसे होगा । घर पर क्वारनटीन...........रोहित को कौन सम्भालेगा। माँ जी भी तो हैं......'।उषा परेशान हो राजेश से कहे जा रही थी। ' देखते हैं , पहले घर चलो ।' राजेश ने गाड़ी घर की तरफ मोड़ दी। उसने फोन पर माँ को बता दिया कि हम दोनो..........

जैसे ही गाड़ी की आवाज सुनी ,  माँ ने कहा बेटे-बहू, मैनें  दोनो अलग अलग कमरों में तुम्हारी जरूरत का सब सामान रख दिया है। गरम पानी अभी रखा है। जाओ सीधे अपने अपने कमरे में जाओ। सब सही हो जायगा, चिंता मत करो। रोहित अपने कमरे में  है।

माँ ने 14 दिन तक कोरोना प्रोटोकाल का पूरा अनुपालन करते हुए, बहू बेटे का ध्यान रखा। रोहित को भी संभाल लिया।

उषा और राजेश धीरे -धीरे सही होने लगे।

माँ के प्रयास से दोनो 14 दिन में बिलकुल सही हो गये।

सही होकर उषा माँ के गले लगकर बहुत रोई। उसे याद आया कि वह अभी कुछ दिन पहले ही राजेश से लड़ रही थी कि माँ को गाँव छोड दो। आज इस बुरे समय से उषा को रिश्तों का महत्व समझ आ गया।

✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा

                                     

मुरादाबाद की साहित्यकार ( वर्तमान में नोएडा निवासी ) सपना सक्सेना दत्ता की कहानी ---भलाई हमेशा वापस आती है


सुधा कार्यालय में अकेले बैठी थी। लगभग साढ़े छः बजे पति से बात हुई थी । वे उसे लेने कार्यालय आने वाले थे परंतु तेज आँधी बारिश के चलते रास्ते में एक पेड़ गिर जाने से वे रास्ता खुलने का इंतजार कर रहे थे और सुधा ढलती हुई शाम में अपने पति का ।

       अधिकांश स्टाफ या तो बीमार था या घर में किसी के बीमार होने पर क़वारन्टीन। कोरोना की तीसरी लहर और तेज़ आँधी तूफान से मौसम ने भयावह रूप ले लिया था ।यह देखते हुए उसने अपनी चार माह पश्चात सेवानिवृत्त होने वाले इंचार्ज एवं अपनी पियोन को जिद करके घर भेज दिया था । उसकी संतोष आंटी बार-बार कह रही थी बिटिया अकेले कैसे बैठोगी  आफिस में ? वह हँस कर बोली- कोई बात नहीं ये हमेशा समय पर आ जाते हैं। अभी मेट्रो भी नहीं चल रही है। आप समय रहते निकल जाओ। कार्यालय प्रथम तल पर था। थोड़ी देर के बाद उसने कार्यालय के बाहर कॉरीडोर में चहल कदमी करते हुए देखा कि आसपास के सभी कार्यालय बंद हो चुके थे। सामने बस सुनसान सड़क दिखाई दे रही थी। वह वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गई  तभी अचानक बिजली की फुर्ती से कई बंदर गुस्से में खों खों चिल्लाते हुए उसके  ऑफिस में घुस आये । सुधा तेजी से अंदर की ओर भागी और अंदर वाले चेंबर में जाते ही उसने दरवाजा बंद कर लिया। चेम्बर भी क्या था बस एक आठ फुट की दीवार मात्र थी जिसके ऊपर छत तक खुला था। एक छलांग में ही बन्दर अंदर चले आते। वह साँस रोककर  दरार में से देख रही थी। वे तीन बन्दर बुरी तरह से लड़ रहे थे। सुधा का फोन भी सामने टेबल पर पड़ा था वह चाह कर भी बंदरों के बीच में अपना फोन लाने की स्थिति में नहीं थी उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए।  तभी उसे शोर मचाते हुए किसी के आने की आवाज सुनाई दी वह समझ गई कि यह तो वह भिखारी है जिसको प्रतिदिन अपने खाने में से दो रोटियाँ दे देती है । थोड़ी देर बाद वह एक  लोहे की रॉड पीटता हुआ आया और उसने उन बंदरों को भगा दिया वह बाहर से बोला मैडम जी अब घर जाओ हमने बंदरों को भगा दिया है ।

सुधा बाहर आई तब तक वह भिखारी लोहे की रॉड को जमीन पर घसीटता हुआ कॉरिडोर में दूर चला जा रहा था। और सामने से उसके पतिदेव आ रहे थे। सुधा के माथे पर पसीना व चेहरे पर मुस्कान थी । उसके दिल ने कहा कि भलाई हमेशा ही वापस आती है।  


✍️  सपना सक्सेना दत्ता, सेक्टर 137, नोएडा 

गुरुवार, 27 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी --नौकरानी


.... "मालकिन आपने तो 1200 रुपए ही दिये हैं..... मेरे 1500 रुपए होते हैं।"".....

"अबकी तो मुझे बच्चों की फीस भी भरनी है।दूसरे मालिकों ने और भी मेरे पैसे कम कर दिए मैडम ऐसा मत करो हम गरीब लोग बिना पैसों के गुजारा कैसे करेंगे.."

     "तुमने जो लॉकडाउन में छुट्टी करी थी उसी के पैसे मैंने काट लिये हैं।"

"मैडम इतने कम पैसों में हमारा पूरा नहीं पड़ता "।

      "तुम्हारा पूरा नहीं पड़ता है तो काम छोड़ दो" मीरा मैडम ने कहा।

... हार कर सावित्री मन मार कर 12 00 रुपए ही ले कर चली गई........।

...... अगले दिन कामवाली के न आने पर दीप्ति ने कहा ,"बिना कामवाली के मैं काम नहीं करूंगी "।

........इस बात को लेकर घर में बहुत हंगामा हो गया । सास बहू में झगड़ा बढ़ते-बढ़ते बात  इतनी ‌बढ़ गई कि दीप्ति घर छोड़कर चली गई साथ में बैग में भरकर अपना सामान ले गई "अब आपसे मै अदालत में मिलूंगी.... मैंने भी एक एक को जेल न करा दी तो मेरा नाम दीप्ति नहीं.।"

 ...... शाम हो चुकी थी शहर से जाने वाली आखरी बस भी चली गई थी । सारे घर वाले परेशान हो गए ।सब जगह ढूंढा मगर जिद्दी दीप्ति कहीं नहीं मिली दीप्ति के घरवालों को फोन किया उनसे पूछा "दीप्ति घर  पहुंची ?......  उन्होंने  कहा नहीं घर तो नहीं पहुंची क्या बात है......?  क्या हुआ?.... क्यों चली गई?? .... क्या हुआ ?"

आखिर पुलिस मैं रिपोर्ट लिखवाई पुलिस ने बहुत ढूंढा.... परंतु कहीं पता नहीं चला....... घर वाले बहुत परेशान हो गये हैं गंभीर सोच में पड़ गए कि यदि....... नहीं मिली तो क्या होगा

 ....."दीप्ति के मायके वालों ने केस लगा दिया तो लाखों रुपए के नीचे आ जाएंगे" मीरा ने कहा और बैठ कर रोने लगी।

  ....... सारे घर वाले एक जगह बैठे थे और यही विषम चल रहा था कि तभी देखा सावित्री बहू का बैग लिए चली आ रही है पीछे पीछे  दीप्ति भी थी ।

          सावित्री ने कहा "मैडम मैं शाम को बस स्टैंड से निकल रही थी सारी वसें जा चुकीं थी और दीप्ति मैडम बस स्टैंड पर अंधेरे में बैठे हुईं थीं...... कुछ गुंडे वहां पर इकट्ठे हो गए और मैडम के साथ बदतमीजी करने लगे ".....वो तो अच्छा हुआ मैं वहां पहुंच गई मैंने सारे गुंडों को धमकाया और दीप्ति मैडम को साथ लेकर अपने घर चली गई मैं रात तो रात को ही  आना चाहती थी मगर दीप्ति मैडम किसी भी कीमत पर लौटने को तैयार नहीं हुईं कहने लगी मैं सुबह ही निकल जाऊंगी  रात भर समझाने बुझाने से मैडम की समझ में आया।

... ‌अब मैडम बहू को प्यार से रखो यहां का माहौल अच्छा नहीं है....

        यह कहकर सावित्री लौटने लगी

तभी मीरा मैडम ने ... आगे बढ़कर सावित्री को गले लगा लिया बोलीं...."आज से तू इस घर की नौकरानी नहीं बेटी की तरह है ....कल से काम पर आ जाना......!"

✍️ अशोक विद्रोही,412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद, मोबाइल फोन 8218825541



    

         

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की लघुकथा------ चमचे

 


आज घर में समारोह था।मंगलगीत गाये जा रहे थे।स्वादिष्ट व्यंजनों से पात्र भरकर पंडाल में रखे जा रहे थे। पात्रों से भीनी -भीनी सुगंध आ रही थी।

  जैसे ही भोजन प्रारंभ हुआ,एक साथ बहुत से चमचे खीर के पात्र में डाले जाने लगे।खीर का पात्र यह देख बाकी व्यंजनों वाले पात्रों  की ओर देख कर गर्व से मुस्कुराया..और बोला,"देखा तुमने! कितने चमचे मेरे साथ हैं...!तुममें से बहुतों को तो एक भी चमचा नसीब नहीं हुआ...!!"

लेकिन कुछ ही देर में अचानक इतने सारे चमचे खीर के पात्र  में होने के कारण पात्र  की खीर जल्दी समाप्त होने लगी थी।खीर जैसे- जैसे खत्म हो रही थी चमचों की रगड़ से पात्र की दीवारें क्षतिग्रस्त होने लगीं और अंततः खीर के पात्र का संतुलन बिगड़ा और वह  धरती  पर औंधा लुढ़क गया। 

  खीर का पात्र गिरने से मालिक को अतिथियों के सामने बहुत अपमान महसूस हुआ ।उसने तुरंत नौकरों को बुलाया और झेंप मिटाने के लिए गुर्रा कर बोला,"यह खराब तली का पात्र यहाँ किसने रखा था...?जाओ!इस बेकार पात्र को कबाड़ में डाल दो!!....और दूसरा पात्र यहाँ रखो ।जल्दी करो..!!"

यह देख बाकी  व्यंजनों वाले पात्र,  अब खीर वाले पात्र की हँसी उड़ाने लगे...।और  चमचे..!!  वे अब अन्य व्यंजन वाले पात्रों की ओर तेजी से लपक रहे थे।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद

बुधवार, 26 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानंद गुप्त की कहानी --- न मंदिर न मस्जिद । यह कहानी उनके कहानी संग्रह 'मंजिल' में संगृहीत है। हमने इसे लिया है दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय मुरादाबाद की वार्षिक पत्रिका भारती के श्री दयानन्द गुप्ता स्मृति विशेषांक से ...


 गोधूलि की वेला हो चुकी थी। पूरब से नीलिमा का एक परदा उठकर सूर्यास्त के स्वर्णिम मेघों को ढकने के लिये पश्चिम की ओर बढ़ रहा था । संसार के दीपक कुल के स्नेहाकुल अधर स्निग्ध होकर हास्य-आलोक विकीर्ण करने को सम्प्रति सजीव हो चुके थे। दिन कुछ ही देर का अतिथि था। उसकी प्रवास यात्रा की शहनाई वन से लौटती हुई विहग-बालिकाएँ बजा रही थीं।

मन्दिर में शंख और मस्जिद में अज़ान का स्वर सुनाई दिया। हिन्दू और मुस्लिम भक्त अपने-अपने उपास्य देव के चरणों की शरण ग्रहण करने को गृहों से निकले । इसी समय एक मुसलमान भिक्षुक एक आबनूस का सोटा, उसी का भिक्षा-पात्र तथा काला कम्बल कन्धे पर लादे धीरे-धीरे रामानुज गली से गुज़रा। वह सूफ़ी था और बहुत दूर से इस नगर में पहली बार आया था। थकान भिक्षु की शक्तियों पर आधिपत्य जमा चुकी थी और अब वह आगे एक भी क़दम उठा नहीं सकता था। उसने कितने ही बालवयोवृद्धों से प्रश्न किया कि अभी नगर की मस्जिद कितनी दूर और है, किन्तु लोगों ने उसकी बात को सुनी अनसुनी करके टाल दिया। वह कुछ कदम आगे और बढ़ा चारों ओर उसके नेत्र किसी स्वच्छ स्थान की ओर दौड़ रहे थे। राधा-कृष्ण का विशाल मन्दिर सामने खड़ा हुआ था । उसके सिंह द्वार के दोनों ओर स्फटिक शिलाओं का दुग्ध धवल शीतल-वक्ष प्रस्तार चबूतरा था । भिक्षक ने एक तरफ के चबूतरे पर अपना कम्बल बिछा कर काबे की ओर मुख करके इबादत शुरू कर दी ।

मन्दिर में अभी आरती आरम्भ ही हुई थी। पुजारी मन्त्र पढ़ता हुआ प्रदीप्त आरती-दान लिये हुये मन्दिर की देहरी पर विशाल घृत दीप धरने आया। दीप रखकर वह फिर अन्दर अपने उपास्यदेव के पास जाने ही को था कि उसकी दृष्टि घुटने और कुहनियों के सहारे नमाज़ में झुके हुए मुस्लिम साधु की ओर गई । वह अवाक् रह गया। साधु अपनी वन्दना में तल्लीन था। आरती का रव उसे सुनाई नहीं दिया । म्लेच्छ के मन्दिर पर चढ़ आने के विचार ही से पुजारी की नस-नस में आग लग गई। वह अपने मन्त्र भूल गया और उसने डांट बताते हुए साधु से कहा -

"यह मन्दिर है। क्या तुम्हें इतना भी दिखाई नहीं देता ? "

"दिखाई क्यों नहीं देता इसी वजह से तो मैं यहां खुदा की इबादत करने बैठ गया। इससे ज्यादा पाक जगह और कौन-सी हो सकती है ?" मुस्लिम साधु ने उत्तर में कहा ।

"लेकिन तुम्हारे यहां बैठ जाने से यह अपवित्र और भ्रष्ट हो गई। यह स्थान म्लेच्छों के लिये नहीं हैं। "

"जनाब खुदा के सभी बन्दे हैं। सभी का खुदा एक है । चाहे आप उसे भगवान कहें या मैं उसे अल्लाह कहूं, लेकिन वह एक है। फिर उसी के बन्दों में ऐसी नापाक तफरीक क्यों ? आप भी तो पूजा ही कर रहे हैं और मैं भी नमाज पढ़ रहा हूं, तो यह जगह मेरे ही उसी काम के करने से नापाक क्यों हो जायगी ?".

"चाहे आप कुछ भी क्यों न कहें, हम अपने मन्दिर पर किसी भी यवन को चढ़ने नहीं दे सकते । आप मस्जिद में जाकर नमाज पढ़िये । "

" ऐ पुजारी ! तुम अपने बुतों को क्या इतना कमजोर समझते हो कि मेरे चबूतरे पर चढ़ आने से घबरा गये ? यहां नजदीक कोई मस्जिद नहीं वरना मैं तुम्हें वहां ले चलता और दिखला देता कि तुम भी वहां शौक से अपनी पूजा कर सकते हो।" 

" तो यह मन्दिर और मस्जिद अलग अलग क्यों ?"

सिर्फ इन्सान की नासमझी की वजह से, जैसे हिन्दू और मुस्लिम अपने को अलग-अलग समझते हैं। अगर मन्दिर और मस्जिद का कोई मतलब है तो सिर्फ इतना ही कि हमें खुदा को याद करने के लिए साफ जगह मिल सके। हम सब वहाँ इकट्ठे होकर मुहब्बत भरे दिल से पाक परवरदिगार को याद कर सके। मन्दिर और मस्जिद मुहब्बत के मकतब है, न कि फसाद के क्लब।"

"हमारे आपके खाने-पीने रहने-सहने व आदर्श विश्वासों में इतना अधिक अन्तर है कि यह असम्भव है कि मन्दिर और मस्जिद एक हो सके।"

"तो हम दोनों ही को क्यों न छोड़ दें ? खुदा को आप भी मानते हैं और हम भी अगर इब्तिलाफ़ है तो सिर्फ उस जगह पहुंचने के रास्ते पर क्या दो मुख्तलिफ रास्तों के चलने वाले मुसाफिर को एक ही जगह पहुंचने पर भी आपस में झगड़ना चाहिये ? हरगिज नहीं रही खाने-पीने व रहने-सहने की बात यह तो महज ऊपरी बाते हैं। ये चीजें मुल्क मुल्क के साथ आबो-हवा के साथ कौम-कौम के साथ तब्दील होती रहती है। आप ही रोजमर्रा न एक-सा खाते हैं, न पहनते हैं। यह तो साबित ही है कि एक मालिक के खादिमों में बाहमी मुहब्बत रहनी ही चाहिए।"

"मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास हो रहा है लेकिन यह बताओ कि तुम्हारे यहाँ भी यह कमजोरी है या नहीं। मस्जिद में  क्या मुझे आरती और पूजा करने की आज्ञा होगी?"

"होनी चाहिए अगर नहीं है तो यह इंसानी फितरत और कमजोरी है ।" 

" तो आप नमाज पढ़िये , तब तक मैं भी पूजा समाप्त कर लूं।"

पुजारी भीतर चला गया। अब भक्त पर्याप्त संख्या में आने लगे थे। उनका एक झुण्ड मुस्लिम साधु को घेर कर खड़ा हो गया और उसे वहाँ से चले जाने के लिए आग्रह व धमकियाँ देने लगा। बाहर कोलाहल बढ़ता जा रहा था। एक बार फिर पुजारी की आराधना में बाधा आ खड़ी हुई। बाहर आकर उसने क्रोधित जनसमुदाय को अभी अभी सीखे हुए मनोगत तर्कों से शान्त करने की चेष्टा की, लेकिन किसी ने उसे 'पागल', किसी ने 'विधर्मी' व 'धोकेवाज़' व 'भ्रष्ट आदि सम्बोधनों से पुकारा। पुजारी की भीड़ के आगे एक न चली। भीड़ ने मुस्लिम साधु को धक्का देकर नीचे उतार दिया और उसका सामान इधर उधर फेंक दिया। पुजारी से यह सब न देखा गया । उसने भी मन्दिर की सेवा से तिलांजलि दे दी और वह उसके साथ-साथ हो लिया ।

दोनों चुपचाप चले जा रहे थे। वे लगभग बीस मिनट चले होंगे कि उन्हें एक मस्जिद दिखाई दी। दोनों वहीं रुक गये। पुजारी ने साधु की ओर देखा और साधु ने  पुजारी की ओर। साधु मस्जिद की तरफ बढ़ा और पीछे पीछे पुजारी भी। अभी तक नमाज चल ही रही थी।  शायद समाप्त होने का समय आ गया था। साधु मस्जिद की देहरी पर पहुंचकर खड़ा हो गया और उसने पुजारी से कहा----

"अन्दर आ जाओ पुजारी, और उस खुदा की, जिस तरह मिजाज चाहे, पूजा करो।"

उपस्थित व्यक्तियों में यह सुनकर एक सनसनाहट-सी दौड़ गई। उसके कान और ध्यान इधर ही थे।

पुजारी धीरे-धीरे बढ़ा और नमाजियों की कतार पार करके वह सबसे आगे करबद्ध खड़ा हो गया, ठीक इमाम के आगे, जो पूरी कतार के आगे खड़ा हुआ था। पुजारी ने उच्च स्वर में उच्चारण आरम्भ किया


" वामांके च विभाति भूधरसुता देवापगे मस्तके भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसिव्यालराट् । सोयं भूति विभूषण: सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातुमाम्।"

अचानक अपरिचित भाषा को सुनकर पहिले तो इमाम को आश्चर्य हुआ और पुजारी जी सुख से श्लोक पढ़े चले गये, लेकिन फिर सबसे पहिला हाथ इमाम का ही उसके ऊपर पड़ा। फिर तो सब ने उसे मारना शुरू कर दिया। लात घूंसे थप्पड़ सभी कुछ लगे। 'काफिर- काफिर' की आवाजों से मस्जिद का वातावरण गूंज उठा। मुस्लिम साधु ने भरसक उसे बचाने का प्रयत्न किया। बहुत-सी चोटें जो पुजारी के लगतीं, वे उसके लगीं ।पुजारी को नमाज़ियों ने इमाम की आज्ञा पाकर मस्जिद से इतनी अधिक उद्दंडता नृशंसता व बर्बरता के साथ निकाल दिया, जितनी कि मुस्लिम-साधु को निकालने में हिन्दू भक्तों ने भी व्यवहार में नहीं लाई थी।

दोनों एक जीवन-नौका में सवार हो चुके थे। फिर भविष्य में न कभी पुजारी को मन्दिर की ओर न फ़क़ीर को ही मस्जिद की जाने की जरूरत पड़ी । उनका ध्येय इन दोनों से बहुत ऊपर था। जहाँ न मन्दिर की ही जरूरत होती है, न मस्जिद की। उनका सन्देश दोनों ही को दूर करने का था ।