मंगलवार, 22 सितंबर 2020

संस्कार भारती मुरादाबाद की ओर से रविवार 20 सितंबर 2020 को आयोजित हिन्दी साहित्य महोत्सव में प्रस्तुत विभांशु दुबे, इला सागर रस्तोगी, पिंकेश चौहान, अभिषेक रुहेला, प्रवीण राही, नृपेंद्र शर्मा सागर, रानी इंदु , प्रशांत मिश्र, ईशांत शर्मा ईशु, आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ , डॉ रीता सिंह, मयंक शर्मा , मीनाक्षी ठाकुर, रश्मि प्रभाकर, मोनिका मासूम , हेमा तिवारी भट्ट , डॉ ममता सिंह, राजीव प्रखर, मुजाहिद चौधरी, कृष्ण शुक्ल , डॉ एमपी बादल जायसी, डॉ मनोज रस्तोगी, योगेंद्र वर्मा व्योम , अशोक विद्रोही , डॉ मीना कौल, डॉ पूनम बंसल अशोक विश्नोई , अमित कुमार सिंह, डॉ सतीश वर्धन जी, बाबा कानपुरी जी और संजीव आकांक्षी की रचनाएं------


(1)
भारत  की  भाषा  हिन्दी  है
जन-जन की आशा हिन्दी है
यह नहीं मिटाये मिट सकती
यह जननि भाल की बिंदी है

(2)
आओ बात करें भारत में हिन्दी के सम्मान की
आओ मिलकर शपथ उठाएं हिन्दी के उत्थान की
देख के दुनिया की भाषाएं हमको ये ही लगता है-
सबसे सुंदर सबसे प्यारी हिन्दी हिदुस्तान की ।।

✍️ अशोक विश्नोई
      मुरादाबाद
     मो० 9411809222

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हिंदी का सम्मान करें हम, हिंदी अपनी शान है।
भारती के भाल की बिंदिया, हम सबका अभिमान है।।

सहज सरल है अनुपम है ये, शब्दों का गहरा सागर।
इसके अंग अंग से देखो, भावों की छलके गागर।
सम्प्रेषण का मधुर प्रसाधन, मीठी बहुत जुबान है।।

है वैज्ञानिक भाषा हिंदी, नियमों से अभिसार करें।
सजी हुई है अलंकार से, छंदों से श्रृंगार करें।
संस्कृति की बनती है पोषक, गीतों का प्रतिमान है।।

सबसे ज्यादा समझी जाती, दुनिया में बोली जाती।
फिर न जाने क्यूँ कर के यह, इंग्लिश से तोली जाती।
हिंदी को जो हीन समझता, वो तो बस नादान है।।

क्यूँ हो एक दिवस हिंदी का, इस पर भी कुछ ध्यान करें।
हर दिन हर पल हो हिंदी का, ऐसा अब अभियान करें।
मानवता को मिला हुआ यह, शारद का वरदान है।।
भारती के भाल की बिंदिया, हम सबका अभिमान है।

✍️डॉ पूनम बंसल
10, गोकुल विहार
कांठ रोड, मुरादाबाद
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जिंदगी आजकल
कोरोना के खौफ में गुजर रही है
  हर कदम पर बीमारी
  एक नयी साजिश रच रही है।
  वायरस के बोझ से
  हर व्यवस्था कुचल रही है
  निर्दोषों की चीख से
  मानवता भी दहल रही है।
  महामारी की आग में
  हर इच्छा ही जल रही है
  दूर देश से उठी आग
  कितनी साँसें निगल रही है।
  आपसी सद्भाव पर
  संदेह की काली छाया पड़ रही है
  धर्म स्थल पर भी
  शत्रु की काली दृष्टि पड़ रही है।
  कौन है जिसने
  यह अवांछित कर दिया
अपने ही घर में
हमें असुरक्षित कर दिया।
आखिर कब तक
जिंदगी कोरोना के साए में गुजरेगी
आँखें कब तक
अपने सपनों को तरसेंगी।
कभी कभी लगता है
इसकी कोई दुआ जरूर आएगी
महामारी छोड़ पीछे
मीना जिंदगी आगे बढ़ जाएगी।।
  ✍️ डाॅ मीना कौल
  मुरादाबाद
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अपने ही घर में कोई ,पाए ना सम्मान ।
कुछ राज्यों में होत यों,हिंदी का अपमान।।
हिन्दी का अपमान ,सुनो नेता गण प्यारे ।
हिंदी को अनिवार्य करो ,राज्यों में सारे।।
,विद्रोही,सच‌ होंय , राष्ट्र भाषा के सपने ।
यदि अपमानित न हो , हिन्दी घर मेंअपने।।

हिन्दी के हों दोहरे, छंद, बंध, श्रृंगार।
चौपाई और गीत में ,रस की पड़े फुहार ।।
रस की पड़े फुहार,भाव के घन उमड़े हों।
हिन्दी लो अपनाय, बंद सारे झगड़े हों ।।
,विद्रोही, मां के माथे,ज्यों सजती बिन्दी ।
भारत माता के माथे ,यों सजती हिन्दी ।।

✍️ अशोक विद्रोही
मुरादाबाद
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1:
हमारी अस्मिता है राष्ट्र का अभिमान है हिंदी।
परस्पर के सहज संवाद की पहचान है हिंदी ।
नहीं बस मात्र भाषा, ये हमारी मातृ भाषा है।
हमारा मान है हिंदी,  हमारी शान है हिंदी ।।

2:
है अँधेरा घना फिर भी, दीप जल जल कर लड़ा है।
सूर्य सा तो नहीं है पर, हौसला इसमें बड़ा है।।
मुश्किलों में डटे रहना, दीप से ही सीख लो तुम।
जीत उसकी ही हुई है, जो अडिग होकर खड़ा है।।

3:
अँधेरे दिलों के मिटाते रहेंगे।
दिये प्यार के बस जलाते रहेंगे।।
हवाओं से यदि तुम करोगे हिफाजत ।
दिये रात भर जगमगाते रहेंगे।।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,  मुरादाबाद
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रेल की पटरियों सा
हो गया जीवन
        लक्ष्य प्राप्ति के लिए
        हम भटकते  रहे
        अर्थ लाभ के लिए
        बर्फ सा गलते रहे
सुख की कामना में
जर्जर हो गया तन
       स्वाभिमान भी गिरवी
       रख नागों के हाथ
       भेड़ियों के सम्मुख
       टिका दिया माथ
इस तरह होता रहा
अपना चीरहरन
रेल की पटरियों सा
हो गया जीवन
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश , भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
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चिन्ताओं के ऊसर में फिर
उगीं प्रार्थनाएँ

अब क्या होगा कैसे होगा
प्रश्न बहुत सारे
बढ़ा रहे आशंकाओं के
पल-पल अँधियारे
उम्मीदों की एक किरन-सी
लगीं प्रार्थनाएँ

बिना कहे सूनी आँखों ने
सबकुछ बता दिया
विषम समय की पीड़ाओं का
जब अनुवाद किया
समझाने को मन के भीतर
जगीं प्रार्थनाएँ

धीरज रख हालात ज़ल्द ही
निश्चित बदलेंगे
इन्हीं उलझनों से सुलझन के
रस्ते निकलेंगे
कहें, हरेपन की ख़ुशबू में
पगीं प्रार्थनाएँ

✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
मुरादाबाद
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माँ हिन्दी के नेह की, एक बड़ी पहचान।
इसके आँचल में मिला, हर भाषा को मान।।

मानो मुझको मिल गये, सारे तीरथ-धाम।
जब हिन्दी में लिख दिया, मैंने अपना नाम।।

तभी सफल होगा सखे, हिन्दी का अभियान।
मिले इसे व्यवहार में, जब पूरा सम्मान।।

मन की आँखें खोल कर, देख सके तो देख।
कोई है जो लिख रहा, कर्मों के अभिलेख।।

प्यारी मुनिया को मिला, उसी जगह से त्रास।
जिसमें लोगों ने रखा, नौ दिन का उपवास।।

सुन गोरी के पाँव से, पायल की झंकार।
ढल जाने को काव्य में, मचल उठा श्रृंगार।।

पुतले जैसा जल उठे, जब अन्तस का पाप।
तभी दशहरा मित्रवर, मना सकेंगे आप।।

बुरे ग्रहों ने साथियो, ज्यों ही सूँघे नोट।
पल में पावन हो गये, रहा न कोई खोट।।

-✍️ राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
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मैं जब भी अपने पुरखों से मिला हूं ये लगा मुझको ।
मैं उनके ख्वाब जैसा हूं हमेशा ये लगा मुझको ।।
मेरे गांव के रस्ते,सूने घर,वीरान चौपालें ।
मेरे ही मुंतज़िर हैं वो हमेशा ये लगा मुझको ।।
कभी भूला नहीं बचपन के यारों को,बुजु़र्गों को ।
मैं जब भी घर गया उनसे मिला हूं ये लगा मुझको ।।
अजब मायूसी है,वहशत का आलम है जमाने में ।
नहीं गांव में कुछ खौ़फो़ ख़तर बस ये लगा मुझको ।।
ये हिंदू और मुस्लिम के जो झगड़े हैं शहर में हैं ।
मेरे गांव में हैं सब भाई भाई ये लगा मुझको ।।
ये दरिया धूप बादल और सितारे भी सभी के हैं ।
मेरा घर मेरा आंगन है सभी का ये लगा मुझको ।।
मुजाहिद एक इंसां है उसे इंसां से रग़बत है ।
मैं तन्हा हो के सबका हूं हमेशा ये लगा मुझको ।।

✍️मुजाहिद चौधरी
हसनपुर, अमरोहा
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अहसास उमड़ते जब मन में, भावों में बांधा जाता है,
भावों को बना लेखनी जब शब्दों में साधा जाता है,
आँखों में उमड़े सपनों की जब हृदय तंत्र से ठनती है,
तब जाकर के निर्भीक लेखनी से इक कविता बनती है।

जब आँसू बिना ही आँखों में आती है नमी विचारों की,
जब कलम उगलती अंगारे, और लिखती ग़ज़ल बहारों की,
संयोग वियोग भावना जब कवि हृदय रक्त में सनती है,
तब जाकर के निर्भीक लेखनी से इक कविता बनती है।

जब धरती से अम्बर तक का एक अद्भुत रूप निखरता है,
जब सागर से अम्बुद बनकर, वापस उस ओर बिखरता है,
उन्मुक्त कल्पनाओं की जब इक सुंदर नदी उफ़नती है,
तब जाकर के निर्भीक लेखनी से इक कविता बनती है।

जब उमस भरी लंबी रातें, तम की चादर फहराती हैं,
जब जुगनू की टिम टिम किरणें अंधियारे को गहराती हैं,
जब सुखद सवेरा करने को, उषा परिधान पहनती है,
तब जाकर के निर्भीक लेखनी से इक कविता बनती है।

जब मस्तक रूपी कागज़ पर अनुबंध उकेरे जाते हैं,
जब उर के श्वेत पटल पर अद्भुत रंग बिखेरे जाते हैं,
जब श्रोताओं की वाह वाह कवि हृदय प्रेरणा बनती है,
तब जाकर के निर्भीक लेखनी से इक कविता बनती है।।

✍️रश्मि प्रभाकर
मुरादाबाद
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ज़िंदगी तुझसे मिलन जिस वक़्त दोबारा हुआ
आँसुओं का ये समंदर और भी खारा हुआ

बट गये ग़म और खुशी दीवारो दर की आड़ में
शर्म आँखों की गई जब घर का बटवारा हुआ

जी रहा है आदमी अब आदमीयत छोड़कर
हर बशर मक़तूल  हर एक शख़्स हत्यारा हुआ

जिसपे क़ुदरत  मेह्रबाँ थी उसको मंज़िल मिल गई
दर बदर फिरता रहा तक़दीर का मारा हुआ

तीर नफ़रत के मुहब्बत की कमां से जब चले
और भी घायल दिले -"मासूम" बेचारा हुआ

✍️ मोनिका "मासूम"
मुरादाबाद
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आओ सिपाही हिन्दी के,
हिन्दी के लिए बलिदान करें।
हिन्दी है भाल तिलक जैसी,
हिन्दी का वही सम्मान करें।

निज भाषा के लिए अगर,
हमने नहीं कोई काम किया।
तो निरर्थक ही जीवन को,
इन साँसों का दाम दिया।
जीवन समर्पित हिन्दी हित,
साँसे हिन्दी को दान करें।
आओ सिपाही......

हिन्दी ओढ़े,हिन्दी पहने,
हिन्दी ही गहना हो अपना
हिन्दी सोचे,हिन्दी बाँचे
हिन्दी ही सपना हो अपना
हिन्दी का जाप करें निशदिन,
हिन्दी का ही गुणगान करें
आओ सिपाही......

जन गण मन के कानों में
हिन्दी हिन्दी हिन्दी गूँजे
हर घर हर जन तक देखो
हिन्दी हिन्दी हिन्दी पहुँचे।
"हिन्दी वालों हिन्दी बोलो"
हिन्दी हित यह आह्वान करें
आओ सिपाही......

✍️ हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद
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हिन्दी भारत का गौरव और श्रृंगार है।
पा रही जग में अब तो ये विस्तार है।।

रस अलंकार छन्दों से है ये सजी,
ये तो रसखान की मीठी रसधार है।।

पीर मीरा की इसमें समाई हुयी,
ये सुभद्रा औ' दिनकर की हुंकार है।।

जोड़ती है सभी के दिलों को तो ये,
हिन्दी भाषा नहीं प्राण आधार है।।

गर्व *ममता* हैं करते बहुत इस पे हम,
छू गई हिन्दी मन के सभी तार है।।

✍️ डाॅ ममता सिंह
मुरादाबाद
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सूरज की किरणें जब आयीं
अंग अंग धरती मुस्कायी
हुए मुदित सब सुमन मनोहर.
पाती तरुवर ने लहरायी ।

सरिता ने धुन मधुर सुनायी
खिली हुईं कलियाँ हर्षायी
उठे विहग, सब राग छेड़ते
निंदिया रानी किसे सुहायी ।

लगे जीव सब ,नित कर्मों में
रोजी - रोटी सबको भायी
कर्मशील लख कोना कोना
सकल सृष्टि में खुशी समायी ।

✍️ डॉ रीता सिंह
चन्दौसी (सम्भल)
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लघुकथा-----  क़सूर

कपड़ों की दुकान बंद होते ही, उस दुकान में टँगी सभी पोशाकें वाचाल हो गयीं। "स्कर्ट "ने अपना अनुभव सुनाते हुए कहा कि सड़कों पर सब  लोग उसे गंदी नज़रों से घूरते हैं।
यह सुनकर, "साड़ी" ने कहा,"नहीं बहन!सिर्फ तुम्हें ही नहीं ,मुझे भी घूरते हैं।
"नकाब "ने कहा,"पर मैं तो दब ढक कर निकलता हूँ,  फिर भी मेरे बदन को भी लोगों की निगाहें खंज़र जैसी निगाहें चुभती रहती हैं।"
"दुपट्टे वाली ड्रेस"ने एक लंबी साँस ली और कहा,"....मेरा आँचल भी लोगों की कुदृष्टि से यत्र- तत्र मैला होता रहता है।"
यह सुनकर  मौन दर्पण  बोल उठा,
" ....सब तुम्हारे यौवन का "क़सूर"है!!लोगों की निगाहों का नहीं।"
"यौवन का "क़सूर."..???पर मुझे भी तो लोगों की गंदी.....!!"बात पूरी करने से पहले ही दुकान के कोने में टँगी "छुटकी" फ्राक सुबक -सुबक कर रोने लगी ।

✍️मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार
मुरादाबाद
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हिंदी संस्कार की भाषा
हिंदी प्रेम प्यार की भाषा
हिंदी राम कृष्ण की भाषा
हिंदी है तो हम हिंदुस्तानी,
हिंदुस्तानी  कहलाते  है
इस हिंदी ने दी पहचान
इसे नमन है सौ सौ बार
  ये हिंदी अपनी भाषा है
   इससे  अपना नाता है
  यह अपनी मिट्टी से जोड़ें
यह अपने दिल कभी ना तोड़े
जख्मों पर मरहम सी हिंदी
दर्द हुआ तो दवा है हिंदी
टूटे रिश्ते जोड़ते हिंदी
कभी न रिश्ते तोड़ती हिंदी
दुनिया को दिखलाती हिंदी
विश्व बंधुत्व सिखलाती हिंदी
प्रेम प्यार की भाषा हिंदी
संस्कार की भाषा हिंदी
हिंदी है तो तुम हम हैं
इस हिंदी की जय बोलो
सब हिंदी की जय बोलो

✍️आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ
मुरादाबाद
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हिंदी अब उड़ने लगी निज पंखों को खोल,
सात समंदर पार भी लोग रहे हैं बोल।

अपना हो या ग़ैर का रखती नहीं विचार,
हिंदी ने हर शब्द को खोल दिये हैं द्वार।

साइलेंट कुछ भी नहीं सबकी है आवाज़,
हिंदी उर पट खोलती रखे न कोई राज़।
✍️मयंक शर्मा
मुरादाबाद
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लघुकथा ---- असंतुलन

"इतना क्यों दुखी होती हो भाभी इतना क्यों रो रही हो?" ध्वनि ने भाभी को सांत्वना देते हुए चुप कराने की कोशिश करते हुए कहा।
भाभी ने सिसकियां भरते हुए उत्तर दिया "ध्वनि अब मैं थक गयी हूँ यह सब करते अब और नहीं किया जाता। महीने भर उन अच्छे दिनों का इंतजार फिर कोशिश करने के बाद वजन मत उठाओ, ज्यादा दौड़ो मत, गर्म चीजें मत खाओ, क्या पता इस बार ईश्वर सुन ही ले और फिर टैस्ट किट का प्रयोग और फिर नेगेटिव रिजल्ट फिर भी यही उम्मीद होती है कि शायद किट गलत हो या फलाना हार्मोन अभी अच्छी मात्रा में बने नहीं और फिर उन दिनों का आ जाना और अंत में मेरा बिलखते रोना, किस्मत को कोसना और फिर शुरू होती है एक नई साइकिल। पिछले दस साल से यही तो कर रही हूँ ध्वनि मैं पर अब थक गई । कितना कहा मैने इनसे कि बस अब मुझसे डॉक्टरों के चक्कर नहीं लगाए जाते पर ये भी मजबूर हैं। बच्चा तो चाहिए ही न। बच्चा गोद लेने की कितनी कोशिश की फिर भी निराशा ही हाथ लगी।"
ध्वनि ने भाभी को गिलास से पानी पिलाते हुए कहा "दुखी मत हो भाभी ईश्वर के घर देर है अन्धेर नहीं। लो आप टीवी देखो मन बदलेगा।"
चैनल लगाते समय ध्वनि ने गलती से न्यूज चैनल लगा दिया। उसपर आती एक खबर ने दोनों का ध्यान आकर्षित किया। खबर में दिखा रहे थे कि किस प्रकार एक नृशंस मानव ने नवजात जुड़वां बच्चियों को कूड़े के डिब्बे में मरने के लिए छोड़ दिया।  ध्वनि समझ नहीं पा रही थी कि इस खबर को देखने के बाद अपनी रोती हुई भाभी को वह अब क्या सांत्वना देकर चुप कराए।

✍️ इला सागर रस्तोगी
मुरादाबाद
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भटक रहा संसार में, इधर-उधर  इंसान।
चले अगर सदमार्ग पर,मिल जाये भगवान।।

प्रेम साँचा उसे मिले, जो नर हो निष्काम।
मीरा खातिर प्रेम के, कर बैठी विषपान।।

पर नारी के  रूप ने , भेदा है हर चित्त,
कामातुर  देवेश भी, बन बैठा हैवान ।।

धारण कर भगवा वसन,बनें न दुर्जन संत।
इंद्रासन पर बैठकर, हुए न असुर महान।।

सेवा कर माँ बाप की,मिल जाएं सब धाम।
जग में तेरा नाम हो, पावन संतति जान।।
                     
✍️ पिंकेश चौहान ' तपन '
मुरादाबाद
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1.......
शब्द से मोतियों को पिरोते हैं हम,
लोग बेचैन हैं कैसे सोते हैं हम।
है नहीं काम आसान सुन लो सभी,
पृष्ठ को आँसुओं से भिगोते हैं हम।

2.......
ग़मों की वादियों में भी हमेशा मुस्कुराते हैं,
नहीं ज़ख्मी परिन्दे की तरह हम छटपटाते हैं।
ज़रूरत आपको होगी भले ही चाँद की हम तो,
लिये आज़ाद इक चेहरा सदा ही जगमगाते हैं।

✍️ अभिषेक रुहेला
ग्रा०पो०- फतेहपुर विश्नोई, मुरादाबाद
(उ०प्र०)- 244504
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अध जले आंचल
भुरभुरे काग़ज़
जैसी हूं
उसपे अब भी कुछ लिख सकती हूं
कुछ तो अब भी रंग भर सकती हूं
आईना तू क्या  रूठा है मुझसे ?
अब तो मैं भी तुझसे रूठी हूं
जरा देख
तेरे सामने ही बैठी हूं
जितना बचा है मेरे चेहरे पे चेहरा
बिंदिया कहीं भी अब लगा लूंगी
ठेढ़े मेढ़े अधरो को भी
लिपिस्टिक से सजा दूंगी
आईना तुझे कोई किरदार
निभाने कहां आता है?
तू हर चेहरे से बिक जाता है
फिर मुझे देखे क्यों नज़रे चुराता है?
मेरी नजरों में आज भी
मैं उतनी ही खूबसूरत हूं
पापा की लाडली
मां की लक्ष्मी
घर की इज्जत की मूरत हूं
सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा
वक्त के साथ घाव भर भर जाएगा
मैं हिमालय सी अडिग
प्रशांत महासागर सी गहरी
सियाचिन की बर्फ सी जमी पड़ी हूं
पर जीने की आस में
खुद के सामने खड़ी हूं
संकीर्ण गली सी सोच वालों
तुमसे आज भी मैं बड़ी हूं
बस ठीक है सब
केवल रसायन शास्त्र को अब
पसंद नहीं  करती हूं
जब  भी इसे मैं पढ़ती हूं
अंदर से रो रो पड़ती हूं
उस तेजाबी हादसे से 
बारम्बार जल पड़ती हूं
बारम्बार जल पड़ती हूं

✍️ प्रवीण राही
8860213526
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ख़ातिर औलाद की एक घोंसले को बुनते हुए
नही है देखता कोई बाप को उधड़ते हुए

बने थे फूल जिस चमन के हम थे जानो जहां
कैसे कोई देख ले चमन को यूँ उजडते हुए

वो जो औलाद की ही खाल मे दुश्मन है छुपा
कैसे कोई रोके ले औलाद को बिगड़ते हुए

चोरी करते सभी पर चोर वो जो पकड़ा गया
नामी बदमाश हमने देखे खूब चलते हुए

हैं गिरी हरकतें किसकी नही बूझो तो जरा
बड़े बड़े नाम वाले देखे हमने गिरते हुए

✍️इन्दु,अमरोहा,उत्तर प्रदेश
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सियासत की राह में,
इंसानियत मैली हो गई,
अब तक नदी का जल पीते थे,
अब फिल्टर गोमुख हो गई,

गंगा की कालिख़ में,
दाग तुम्हारा भी है,

इतनी फ़िक्र थी,
खुद ही गंदगी रोक लेते,
ऐसा सुनकर बात हमारी टाल गए,
नदी साफ करने चले थे
खुद गन्दगी डाल गए,

✍️प्रशान्त मिश्र
मुरादाबाद
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छोटी - सी ज़िन्दगी है हर बात में खुश रहो ।
जो चेहरा पास न हो उसकी आवाज़ में खुश रहो ।
कोई रूठा हो आपसे उसके अंदाज़ मे खुश रहो ।
जो लौट कर नहीं आने वाले उसकी याद में खुश रहो ।
कल किसने देखा है अपने आज में खुश रहो ।
छोटी - सी ज़िन्दगी है हर बात में खुश रहो।

✍️ईशांत शर्मा
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हम पढे और पढाये
         कुछ करके दिखाये
हम कम नही किसी से
         दुनिया को ये बताये
हम पढे ----
कुछ करके----
         हिन्दू हो या मुस्लमान
सिख हो या इसाई
         इक साथ मिल सभी ने
अवाज ये उठाई
        हम पढे और----
        कुछ करके------
अनपढ़ न रहे कोई
       हमने है सौगन्ध खाइ
मजदूर हो या किसान
       बुढा हो या जवान
हम पढे और-----
कुछ करके------
      बटे और बेटी को
शिक्षा मिले समान
      अज्ञानता का दाग
माथे से हम मिटायें
       हम पढे और -----
       कुछ करके ------
गर मंजिलों को है पाना
       खुद का है पहचान बनाना
पढ़ लिख शिक्षित हो के
       आगे ही बढ़ते जाना है
अशिक्षित पायें शिक्षा
      और शिक्षित उन्हें पढ़ायें
हम पढे़ -------
कुछ करके ----
      
✍️ डा एम पी बादल जायसी
  9319318919
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आईने के सामने
आब ऐ आईना हो जाऊं मैं,
तेरा अक्श देखूँ
तो तुझ सा ही हो जाऊं मैं।
दिल में दबी एक
ख्वाहिश सा मचल जाऊं मैं,
सिमट के तुझ में
खुद ही संभल जाऊं में ।।
दिल रोज ही तेरी चाहत करे
बस तेरी ही रिवायत करे,
अब ये यूँही बिगड़ जाए
तो कोई क्या करे ।
चाहकर भी तुझको
चाहत न हो पूरी,
रास्ते सभी जहां के
लगते हैं क्यों अधूरे,
ये दूरियां मिटाना
लगता है अब जरूरी ।।
तू सामने जो आये तो
तुझमें ही खो जाऊँ में,
तू बेरूखी दिखा दे
अमित कुमार सिंह,मुरादाबाद
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वह दिल भी क्या दिल है यारों,  जिस दिल में किसी का प्यार ना हो।
कोई लक्ष्य ना हो कोई चाह ना हो, किसी चाहत की परवाह ना हो।

है लक्ष्य बिना जीवन सूना, कोई पथ ही नही गर चलने को।
ऐसे जीवन को क्या कहिये, कोई चाह नहीं हो पाने को।।

जिस मिट्टी से तन का नाता,  उस मातृभूमि से प्रेम करो।
निज देश धर्म की रक्षा में,कोई नया मार्ग सृजन कर लो।।

अपने इस नश्वर जीवन को, निज देश के हित कुर्बान करो।
जो मानवता के शत्रु हैं, उनमें मानवता का ज्ञान भरो।।

कुछ पथिक भटकते हैं पथ से, कुछ को भटकाया जाता है।
वे सत्य भुला यह देते हैं, मानव का उनसे नाता है।।

कुछ मासूमों की राह सत्य के, मार्ग में प्रशस्त करो।
जिस मिटी से तन का नाता, उस मातृभूमि से प्रेम करो।।

✍️नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा, जिला मुरादाबाद
mobile:-+919045548008
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न जिद मे न किसी गुस्से में किया था
कुछ कर दिखाने के लिए उसने ये कदम लिया था
एक लड़के ने भी घर छोड़ा था
अपनी मेहनत की कश्ती को एक समंदर में छोड़ा था
एक लड़के ने खुद के करियर के लिए घर छोड़ा था
छोड़कर घर की मोह माया को
हास्टल की दुनिया से नाता जोड़ा था
चंद सपनों की खातिर खुद को अपनों से दूर किया था
एक लड़के ने भी घर छोड़ा था
उम्मीदों की दौड़ में वो मां के आंचल से दूर निकला था
पिता के साये से दूर अब बाहर की दुनिया में पहुंचा था
हाँ, एक लड़के ने भी अपना घर छोड़ा था
किताबों की दुनिया से उसने अपना नाता जोड़ा था
कुछ कर दिखाने के जुनून में खुद को झोंका था
एक लड़के ने भी घर छोड़ा था
रख परे शौक को अपने
अपनी मेहनत के साहिल पर उसने
अपनी किस्मत की कश्ती को छोड़ा था
अपने माता पिता के गर्व को ऊंचा रखने के लिए
खुद को त्याग की आग में झोंका था
एक लड़के ने कुछ कर दिखाने को घर छोड़ा था
वक्त से भी उसकी मशक्कत का सिला उसको मिला था
उस लड़के के कारनामे से
उसके पिता का सीना गर्व फूला था
आखिरकार उसने उस सच को पत्थर पर लिख छोड़ा था
अब लोग कहते थे उसके गांव के B
वाकई कुछ कर दिखाने को
एक लड़के ने घर छोड़ा था ll

✍️विभांशु दुबे विदीप्त ,मुरादाबाद
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जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम ।
मन से राम को याद करो तो बन जाते सब बिगड़े काम ।।

ताड़का और सुबाहु तारे पत्थर बनी अहिल्या तारी ।
जयंत और खर-दूषण तारे केवट के संग नौका तारी ।।
मात्र बेर खाने से जग में अमर हो गया शबरी नाम ।
जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम ।

मायावी मारीच तर गया बाली का उद्धार हो गया ।
सुग्रीव और अंगद जैसों का राम नाम आधार हो गया ।।
वानर सेना सारी तर गयी बोल बोल कर जय श्रीराम।
जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम ।।

विभीषण भी गले लगाया ,हनुमान को भक्त बनाया ।
क्रोध राम का देखा तो फिर दम्भी सागर शरण मे आया ।।
पत्थर तक भी तर गये देखो जिन पर लिखा गया था राम ।
जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम जय श्रीराम बोलो जयश्री राम ।।

कुम्भकर्ण जैसा बलशाली ,रावण के जैसा महाज्ञानी ।
परख न पाये थाह राम की मद में होकर के अभिमानी ।।
अंत समय पर जोर जोर से बोले दोनों जय श्रीराम  ।।
जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम ।।

धरा गगन भी हर्षित हो गये मन सबके भी पुलकित हो गये ।
कलियुग में बनवास भोगकर राम अवध में वापस आ गये ।।
धाम अवध सबको चलना है बोल बोल कर जय श्रीराम ।

जय श्रीराम बोलो जयश्रीराम ,जय श्री राम बोलो जय श्रीराम।
मन से राम को याद करो तो बन जाते सब बिगड़े काम ।।

जय श्रीराम बोलो जय श्रीराम -------------------

  ✍️ डॉ सतीश वर्द्धन ,पिलखुवा
9927197480
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जितनी विषम परिस्थितियां हैं, उतने ही दृढ़ मोदी जी,
भरते हैं हुंकार दुश्मनों की छाती चढ़ मोदी जी।

जब भी घोर देश में संकट या विपपदाएं आती हैं,
देते हैं इमदाद सभी को खुद आगे बढ़ मोदी जी।

उग्रवादियों देशद्रोहियों के घुसकर ताहखानों में,
ध्वस्त किए उनकी साजिश के बड़े-बड़े गढ़ मोदी जी।

पाक-चीन से कम,खतरा ज्यादा घर के जयचंदों से,
उनसे मिले निजात, युक्तियां वही रहे गढ़ मोदी जी।

मीठा मीठा गप्प और कड़वा कड़वा जो थूक रहे,
उनको सबक सिखाने का भी रहे पाठ पढ़ मोदी जी।

✍️बाबा कानपुरी

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कुछ नए और
कुछ पुराने मिले
हुए सब अपने
जो भी बेगाने मिलेl
कुछ इस तरह से
मालामाल किया
गया मुझे
गम के गहने,
तकलीफों के ताज़,
धोखे की दौलत
फरेबी जज़्बात
ये बेशुमार दौलत
ज़िंदगी भर की कमाई
से अब भी
कहीं ज्यादा है
और दो, और दो,
ये खज़ाना और दो मुझे
मैं थकूंगा नहीं.
ये मेरा वादा हैl
क्योंकि
मैं पिता हूँ, पति हूँ,
आम नागरिक हूँ,
एक व्यवसायी हूँ,
कुछ कहते हैं
बड़ा हरजाई हूँ,
सामाजिक सरोकारों से
जोड़ा गया हूँ,
बेवज़ह, बेवक्त,
बेमकसद तोडा गया हूँl
जो भी कुछ

✍️ संजीव आकांक्षी
मुरादाबाद

सोमवार, 21 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत -----इंसानियत से गिरती हुई बात न करना प्यारी सी जिंदगी के साथ घात न करना।


इंसानियत   से   गिरती  हुई

बात            न         करना

प्यारी सी  जिंदगी  के  साथ

घात          न          करना।


हम सही  तो  सारा  ज़माना

सही             है           यार

घृणा की राह पर न  बढ़ाओ

कदम          हर          बार

बर्बादियों   की  बातें   कभी

ज्ञात            न        करना।

इंसानियत से---------------

                

हर  बात में  मिठास भरी हो

भरा            हो          प्यार

हो गुल की तरह  रेशमी  हर

शब्द          में         निखार

शापित किसी के सरपे कभी

हाथ            न         धरना।

इंसानियत से--------------


खुशियां सभी की  हैं ज़रा यह

बात           जान            लो

बस  बांटना  है  प्यार  इसको

सही           मान            लो

खुशियों  के  सवेरों  में  सिया

रात           न            भरना।

इंसानियत से----------------


किसके लिए  ईश्वर  का कौन 

रूप                         धरेगा

खुश होके  पीर  सबकी  यहां

कौन                         हरेगा

प्रतिघात कभी  अपनों  से  है

तात           न           करना।

इंसानियत से----------------


जो सबसे  मिलकर धरती पर                             

रह              लेता            हो   

जो सबके  लिए  हर  कष्ट भी 

सह            लेता             हो

शतरंज  की  चालों  सा  कभी

मात             न         करना।

इंसानियत से----------------

      

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र,

मो0- 9719275453


 

रविवार, 20 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़मीर दरवेश की ग़ज़ल ...... बुज़ुर्ग पेड़ से करके चले सलाम दुआ, हवा को चाहिए पासे अदब निभा के चले!

بہت وہ چل نہیں پاۓ جو بچ بچاکے چلے، 

وہی چلے جو کلیجے پہ تیر کھا کے چلے! 

बहुत वो चल नहीं पाए जो बच बचाके चले, 

वही चले जो कलेजे पे तीर खाके चले! 


بزرگ پیڑ سے کرکے چلے  سلام دعا،

ہوا کوچاہیے پاس ِادب نبھا کے چلے ! 

बुज़ुर्ग पेड़ से करके चले सलाम दुआ, 

हवा को चाहिए पासे अदब निभा के चले! 


یہ میری خو  ہے مخالف ہوا کے چلتا ہوں، 

وہ اور ہوگا کوئی ساتھ جو ہوا کے چلے!

यह मेरी ख़ू* है मुख़ालिफ़ हवा के चलता हूँ, 

वो और होगा कोई साथ जो हवा के चले! 


 ہنسا ہنسا کے چمن زار کردیا گھر کو ،

ہلاکے ہاتھ جو چلنے لگے رلا کے چلے! 

हंसा हंसा के चमनज़ार कर दिया घर को, 

हिलाके हाथ जो चलने लगे रुला के चले! 


دیارِ یار میں جانا ہو چاہے مقتل میں، 

مزہ تو جب ہے کہ دیوانہ سر اٹھا کے

 چلے! 

दायरे यार** में जाना हो चाहे मक़तल में, 

मज़ा तो जब है के दीवाना सर उठा के चले! 


 کسی چراغ کا لینا نہیں پڑا احسان، 

بہت اندھیرا ہُوا جب تو دل جلاکے چلے! 

किसी चराग़ का लेना नहीं पड़ा एहसान, 

बहुत अंधेरा हुआ जब तो दिल जलाके चले! 


چلے جو دشت میں اہلِ جنوں تو نقش ِقدم، 

بنا بنا کے چلے اور مٹا مٹا کے چلے! 

चले जो दश्त में एहले जुनूँ तो नक़्शे क़दम, 

बना बना के चले और मिटा मिटा के चले! 


عجب ہیں ہم بھی کہ ہجرت پہ  جارہے تھے مگر، 

اجاڑ کر نہ چلے گھر کو گھر سجاکے چلے! 

अजब हैं हम भी के हिजरत ***पे जा रहे थे मगर, 

उजाड़ कर न चले घर को घर सजा के चले! 


مٹانے جگنو چلے گھور اندھیرا تو خود کو، 

جلا جلا کے چلے اور بجھا بجھا کے چلے! 

मिटाने जुगनू चले घोर अंधेरा तो ख़ुद को, 

जला जला के चले और बुझा बुझाके चले! 


*आदत  ** मेहबूब का शहर*** मुस्तक़िल तौर पर अपने गाँव/ शहर को छोड़ जाना

  ✍️ज़मीर दरवेश, मुरादाबाद


 

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नक़वी की ग़ज़ल ---- ये और बात , सुन के वो ख़मोशियों पे टाल दे। सवाल तो है मुन्जमिद जवाब के बग़ैर भी।

वो दर्स-ए-इश्क़ दे गया निसाब के बग़ैर भी। 

पढ़ेंगे उसको हम मगर, किताब के बग़ैर भी। 


ये और बात , सुन के वो ख़मोशियों पे टाल दे।

सवाल तो है मुन्जमिद जवाब के बग़ैर भी। 


हज़ार रंग फ़ूल जब हैं, जा बजा खिले हुये।

महक रहा है गुल्सिताँ, गुलाब के बग़ैर भी। 


वो दश्त दश्त आँख, वो भरी भरी सी इक नदी।

बरस न जाये आसमाँ, हुबाब के बग़ैर भी। 


न जाने कौन भूले बिसरे ,गीत है सुना रहा।

बजा रहा है धुन कोई, रबाब के बग़ैर भी। 


मिला न उनमें बचपना, मिली तो मुफ़लिसी मिली।

कटी है जिनकी ज़िन्दगी शबाब के बग़ैर भी। 


ये और बात रतजगों से ' मीना' रब्त हो गया।

गुज़र रही है शब हमारी, ख़्वाब के बग़ैर भी।


   ✍️ डॉ.मीना नक़वी



 

शनिवार, 19 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी ----- पुश्तैनी मकान


''माँ तुम समझती काहे न ....इस मकान का कोई फ़ायदा नहीं ...हमारे साथ शहर चलो और वहीं रहो ।" अभिषेक ने अपनी माँ का हाथ अपने हाथों में लेकर समझाते हुए कहा ।

''नहीं बेटा मैं यह घर नहीं छोड सकती ,यह तुम्हारे बाबू जी की आखिरी निशानी है --मैं ठीक हूँ यहाँ --तुम आराम से शहर में रहो ।"

''लेकिन माँ ?"

''बस बेटा --मैं इस मुद्दे पर और बात करना नहीं चाहती " अभिषेक की माँ ने दो टूक जवाब दे दिया !

दिन गुजरते गये  धीरे -धीरे अभिषेक की माँ प्यारी का स्वास्थ्य भी गिरने लगा। साल मैं एक -दो बार अभिषेक माँ से मिलने आ जाता था ।

एक बार प्यारी की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गयी । मोहल्ले वालों ने अभिषेक को फ़ोन पर सूचित किया।अभिषेक आया और माँ को शहर ले जाने लगा ,माँ भी इस बार राजी हो गयी। कार में बैठते हुए उन्होंने अभिषेक का हाथ पकड़ा और धीरे से बोलीं 'बेटा वादा करो मेरे जीते -जी इस घर को नहीं बेचोगे ।

''हाँ माँ आप चिंता न करो --ऐसा ही होगा । अभिषेक ने हकलाते हुए कहा ,और माँ को यकीन हो गया। वह इत्मीनान से आँखैं बंद करके लेट गयीं ! और अभिषेक उनके अंगूठे पर लगी स्याही क़ो धोने में लग गया ।

 ✍️ राशि सिंह , मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश 






मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की व्यंग्य कविता ------ मच्छर से बातचीत


 माई डियर मच्छर

बहुत दिनों बाद नजर आ रहे हो

अपनी मधुर तान आजकल

किसको सुना रहे हो

आखिरी बार

जब हमारी हुई थी मुलाकात

गोलू मोलू हो रहा था

तुम्हारा स्वास्थ 

लेकिन आज तुम 

दीनहीन से लग रहे हो

पहले सरकारी जैसे थे

आज वित्त विहीन से लग रहे हो

तुम्हारा चेहरा भी पिटा हुआ है

क्या तुम्हारे साथ कोई हादसा हुआ है


जब हमने बहुत उकसाया

उसने करुण स्वरों मेेें बताया

हमारी इस हालत की जिम्मेदार है

तुम्हारे खून की गिरती हुई क्वालिटी

और उस पर आश्रितों की

बढ़ती हुई क्वांटिटी

हमने कहा ,पहेली मत बुझाओ

क्वालिटी और क्वांटिटी वाली बात

जरा डिटेल मेेें समझाओ

मच्छर बोला

पहले क्वालिटी पर

कर लिया जाय विचार

एक जमाना था

तुम हमसे करते थे अत्यधिक प्यार

दिल से रखते थे हमारा ख्याल

पहनने को चाहें चिथड़े मिले

खून का रंग बनाए रखते थे लाल

लेकिन आजकल

आधुनिकता के नाम पर 

तुम अपने स्वास्थ्य से

कर रहे हो खिलवाड़

झूठी शान के चक्कर मेेें

हैसियत से ज्यादा महंगे

कपड़ो की कर रहे हो जुगाड

समाज मेेें अपनी

इज्जत बढ़ाने के लिए

अपने आप को दूसरो से

ऊंचा दिखाने के लिए

तुमको अंधाधुंध 

पैसा फूंकना पड़ता है

और इसका सारा असर

भोजन के खर्च पर पड़ता है

तुम अपने भोजन पर देते हो

कम से कम ध्यान

क्योंकि तुमने

मटर पनीर खाया या सूखी रोटी

किसी को नहीं होता इसका ज्ञान

लेकिन अगर

भड़कीले कपड़े ना पहनें जाएं

तो इज्जत घाट जाती है

नाक पहले से ही छोटी है

वो भी कट जाती है

आधुनिकता का नशा

दिन प्रतिदिन चढ़ रहा है

तुम्हारे खून मेेें लगातार

पानी का अंश बढ़ रहा है

ऐसे मिलावटी खून को पीकर

हम अब तक ज़िन्दा हैं

येे सोचकर शर्मिंदा हैं


इतना कहकर मच्छर ने

हमारे गालों पर टिकाई अपनी लात

फिर बोला ,

अब सुनो क्वांटिटी वाली बात

आजकल कुछ लोगों मेेें ही

खून का भंडार है

लेकिन उनके खून पर

पहले से ही किसी का अधिकार है

ग्राहकों का खून चूस कर

व्यापारी पैसा कमा रहे हैं

डॉक्टर मरीजों के खून का

लुत्फ उठा रहे हैैं

वकील अपने मुवक्किलों का

खून चख रहे हैैं

महाजन ,गरीब कर्जदारों का खून

अपनी तिजोरी मेेें रख रहे हैैं

और इन सब

खून पीने वालो का खून

नेताजी पी रहे हैैं

शाकाहारी मुखौटा

लगाकर जी रहे हैैं

इसके बाद

जो थोड़ा सा खून बचता है

वही झूठा खून,हमको मिलता है


अगर सच मेेें 

करना चाहते हो हमारी भलाई

एक छोटा सा

काम कर दो मेरे भाई

हमको किसी तरह से करा दो

पार्लियामेंट में प्रविष्ट

वहां एक से बढ़कर एक है

खून के स्टॉकिस्ट

गरीब का खून,अमीर का खून

पढ़े लिखों का खून, बेपढ़ो का खून

गोरों का खून, कालों का खून

हिन्दू का खून,मुस्लिम का खून

उनके पास हर तरह का माल मिलेगा

हमारा मुरझा चेहरा 

वहीं पहुंच कर खिलेगा ।


✍️  डाॅ पुनीत कुमार

T -2/505

आकाश रेजिडेंसी

मधुबनी पार्क के पीछे

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद सम्भल)निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष रामावतार त्यागी का एक गीत और एक ग़ज़ल ... इनका प्रकाशन लगभग 36 साल पहले साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 10 जून 1984 के अंक में हुआ था ।


 

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल के दो मुक्तक


धरती का श्रंगार छीनकर, हमने कितने पाप किये।

जंगल काटे, नदियां बाँधी, ताल तलैया पाट दिये।।

आज प्रदूषण के कारण अब, जीवन भी दुश्वार हुआ।

अपने ही जीवन पर हमने, नित्य कुठाराघात किये।।


हम धरती से भोजन, पानी, प्राणवायु तक लेते हैं।

स्वार्थ सिद्धि की खातिर इसको, घाव निरंतर देते हैं।।

काट काट कर जंगल हमने, इसकी हरियाली छीनी।

आओ अब कुछ वृक्ष लगाकर, इसको जीवन देते हैं।।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद ।

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में दिल्ली निवासी )आमोद कुमार अग्रवाल का गीत ---- प्रीत नहीं जिनके अन्तर में,व्यर्थ ही ये काया पाई, खुद मंज़िल पे जा पहुँचे और,औरों को न राह दिखाई।

 

प्रीत नहीं जिनके अन्तर में,व्यर्थ ही ये काया पाई,
खुद मंज़िल पे जा पहुँचे और,औरों को न राह दिखाई।

सपन नहीं जिनकी निंदिया में,उन नयनों का सोना भी क्या 
आँसू निकले,दिल न रोया,उन आँखों का रोना भी क्या ।
मरहम नहीं रखा घावों पर,न किसी की जान बचाई,
प्रीत नहीं जिनके अन्तर में,व्यर्थ ही ये काया पाई।

सोने का सूरज ये क्षितिज पर,प्यार का संदेशा देता,
चाँदी का चँदा फिर आकर, नयनोंं में मोती भर देता।
प्रेम के अनमोल ये आँसू, इनकी   क्या  कीमत है लगाई, प्रीत नहीं जिनके अन्तर में, व्यर्थ ही ये काया पाई।

मत रो साथी,मृदु हास से ,अधरों का श्रंगार करो तुम,
बीत जायेगी ये निशा भी, भोर का इंतज़ार करो तुम।
नव प्रभात की पहली किरन ये,देखो सुख संदेशा लाई,
प्रीत नहीं जिनके अन्तर में, व्यर्थ ही ये काया पाई।
     
  ✍️ आमोद कुमार अग्रवाल

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल का गीत


 

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद वर्मा व्योम का गीत ---- पुरखों की यादें


 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार ओंकार सिंह विवेक का गीत ----- दुनिया में भारत के गौरव,मान और सम्मान की, आओ बात करें हम अपनी, हिंदी के यशगान की।

दुनिया में  भारत  के  गौरव,मान और सम्मान की,

आओ बात करें हम अपनी, हिंदी के यशगान की।

जय अपनी हिंदी,जय प्यारी हिंदी------------2


राष्ट्र संघ  से  बड़े  मंच  पर,अपना सीना तानकर,

हिंदी  में भाषण  देना  है ,यह ही मन में ठानकर।

रक्षा  अटल बिहारी  जी  ने, की हिंदी के मान की

आओ बात करें---------------

जय अपनी हिंदी,जय प्यारी हिंदी-----------2


परिचित  होने  को अलबेले, अनुपम हिंदुस्तान से,

आज  विदेशी  भी  हिंदी को,सीख रहे हैं शान से।

सचमुच है यह बात हमारे, लिए बड़े अभिमान की

आओ बात करें-----------------

जय अपनी हिंदी,जय प्यारी हिंदी-----------2


आज  नहीं  हिंदी का उनको , मूलभूत भी ज्ञान है,

अँगरेज़ी की शिक्षा पर ही ,बस बच्चों का ध्यान है।

क्या यह बात नहीं है अपनी,भाषा के अपमान की

आओ बात करें-------------------

जय अपनी हिंदी,जय प्यारी हिंदी------------2


अपने  ही  घर  में  हिंदी यों, कभी  नहीं  लाचार हो,

इसको अँगरेज़ी पर शासन, करने का अधिकार हो।

बच  पाएगी  तभी  विरासत, सूर  और रसखान की

आओ बात करें---------------------

जय अपनी हिंदी,जय प्यारी हिंदी---- ------2

✍️  ओंकार सिंह विवेक, रामपुर

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत ------ सबकी बड़ी बहन है हिंदी, सच्ची सरल कहन है हिंदी।


सबकी बड़ी  बहन है हिंदी,

सच्ची सरल  कहन है हिंदी।

        

सभी कोअक्षर ज्ञान बांटती,

पाखंडों   की  जडें  छांटती,

हर भाषा को गले लगा कर,

खुशी-खुशी सम्मान बांटती,

प्रेम  पगे  पावन  भावों   से,

महका हुआ सहन  है हिंदी।

सबकी बड़ी बहन---------


जो  भी  इससे  दूर  भागता,

कभीन उसका वक्त जागता,

अपने घर  का द्वार बंद कर,

अंग्रेज़ी  से   शरण   माँगता,

अंतर्मन   से   देती   सबको,

ही  आशीष  गहन  है  हिंदी।

सबकी बड़ी बहन----------


बच्चे को 'माँ 'शब्द सिखाती,

हर भटके को  राह  दिखाती,

जननी सम सब भाषाओंकी,

हिंदी   है,  सबको  बतलाती,

कोटिक  देवों  की  वाणी  से,

होता  हुआ   हवन  है  हिंदी।

सबकी बड़ी बहन----------


हिंदी   से  नफरत  करते  हो,

माँ  से तनिक नहीं  डरते  हो,

अन्य  विदेशी  भाषाओं   की,

गागर क्यों सिर पर  रखते हो?

गीतों, भजनों ,कविताओं का,

सबका  श्रेष्ठ  चयन  है  हिंदी।

सबकी बड़ी बहन-----------


आओ नमन  करें  हिंदी  को,

पूजें  इस  माँ  की  बिंदी  को,

प्रतिदिन हिंदीदिवस मनाकर,

दें  सम्मान  सतत  हिंदी  को,

सबमें    संस्कार   भरने   का,

करती  भार  वहन   है  हिंदी।

        

 ✍️  वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी

मुरादाबाद/उ,प्र,

फोन-   9719275453

      

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का गीत -- विश्व पटल पर परचम लहराती,हृदय का स्वाभिमान है हिन्दी -


सरस सुुकोमल  भावों की,  मधुर रसधार है हिंदी

विश्व पटल पर परचम लहराती,हृदय का स्वाभिमान है हिन्दी 

कबीर की अक्खड़ भावों की,साखी सबद,रमैनी हिंदी

गोकुल के कुंज गलिन की,राधा कृष्ण की रास है हिन्दी

तुलसीदास के रामचरित औ, सीता सी पावन है हिंदी

जायसी के पद्मावती सी,प्रेम और श्रृंगार है हिन्दी

बिहारी और घनानन्द की मृदुल भाव सुजान है हिंदी

हिंदी से हम हिंदुस्तानी ,केशव औ रसखान है हिन्दी

छायावाद के बिम्ब ,प्रतिकों की कोमल भाव है हिंदी

प्रेम और श्रृंगार प्रसाद की,श्रद्धा सी कोमल भाव है हिंदी

पन्त की सुकुमार कल्पना,निराला की महाप्राण है हिंदी

महादेवी की भाव-लहरी सी मर्यादित ,नारी की अभिमान है हिंदी

मां की ममता सी दुलराती, लोरी की मधुर संगीत है हिंदी

बरगद की छाया विशाल ,पीपल पात सरिस है हिंदी

चंदन सी बंदित भारत के ललाट की मान है हिंदी

मिट्टी की खुशबू से लिपटे ,किसानों की पहचान है हिंदी

मजदूरों की पीड़ा संग ,रोटी की मीठी स्वाद है हिंदी

जन ,मन की पूजा है हिंदी, सबका दृढ़ विश्वास है हिंदी

देश और विदेश में,अपनों की पहचान है हिंदी

हिमालय की उत्तुंग शिखर सी,भारत माँ की भाल है हिंदी

हिन्दवासी की धड़कन हिंदी, आंगन की फुलवारी सी 

हिंदी से सारी दुनियां और ,हिंदी है पहचान हमारी

  ✍️ डॉ मीरा कश्यप , मुरादाबाद 244001

मुरादाबाद के साहित्यकार अंकित गुप्ता अंक का हिन्दी को समर्पित गीत

 

मातृभाषा स्नेह-आँचल है,

जो हमें अपने तले महफ़ूज़ रखता है! 


बोल ये पहला हमारा है,

डूबते का ये सहारा है,

शेष सब हैं तुच्छ जुगनू-से

ये चमकता ध्रुव सितारा है;

मातृभाषा वो धरातल है-

बिन न जिसके सोच का हर वृक्ष टिकता है ।


मातृभाषा है न पिछड़ापन,

संस्कारों का यही दरपन,

ये हवा-सा शुद्ध कर देती-

देश का हर एक मन-आँगन;

मातृभाषा धार अविरल है-

देश का इतिहास जिसके साथ बहता है ।


दूसरों से जब जुड़ें संबंध,

क्या सगी माँ से मिटें संबंध?

कीजिए ये प्रण हमेशा ही-

मातृभाषा से रहें संबंध;

मातृभाषा सघन पीपल है-

छाँव में जिसकी हमारा कल ठहरता है ।

  

 ✍️ अंकित गुप्ता 'अंक'

मुरादाबाद 244001

मुरादाबाद के साहित्यकार अनवर कैफी की ग़ज़ल ----- फूलों से उसकी राहों को मैंने सजा दिया .....


 

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ रीता सिंह का वर्णमाला गीत


 अ से अनार आ से आम , आओ सीखें अच्छे काम ।

इ इमली ई से ईख , माँगो कभी न बच्चों भीख ।

उ उल्लू ऊ से ऊन , कितना सुंदर  देहरादून ।

ऋ से ऋषि बडे तपस्वी , देखो वे हैं बड़े मनस्वी ।

ए से एड़ी ऐ से ऐनक , मेले में है कितनी रौनक ।

ओ से ओम औ से औजार , आओ सीखें अक्षर चार ।

अं से अंगूर अः खाली , आओ बजाएँ मिलकर ताली ।

आओ बजाएँ मिलकर ताली । आओ बजाएँ मिलकर ताली ।

क से कमल ख से खत , किसी को गाली देना मत ।

ग से गमला घ से घर , अपना काम आप ही कर ।

ड़ खाली ड़ खाली , झूल पड़ी है डाली डाली ।

आओ बजाएँ मिलकर ताली , आओ बजाएँ मिलकर ताली ।

च से चम्मच छ से छतरी , लोहे की होती रेल पटरी ।

ज से जग झ से झरना , दुख देश के सदा हैं हरना ।

ञ खाली ञ खाली , गुड़िया ने पहनी सुंदर बाली ।

आओ बजाएँ मिलकर ताली, आओ बजाएँ मिलकर ताली ।

ट से टमाटर ठ से ठेला , सुंदर होती प्रातः बेला ।

ड से डलिया ढ से ढक्कन , दही बिलोकर निकले मक्खन ।

ण खाली ण खाली , रखो न गंदी कोई नाली ।

आओ बजाएँ मिलकर ताली , आओ बजाएँ मिलकर ताली  ।

त से तकली थ से थपकी , मिट्टी से बनती है मटकी ।

द से दूध ध से धूप , राजा को कहते हैं भूप ।

न से नल न से नाली , गोल हमारी खाने की थाली ।

आओ बजाएँ मिलकर ताली , आओ बजाएँ मिलकर ताली ।

प से पतंग फ से फल , बड़ा पवित्र है गंगाजल ।

ब से बाघ भ से भालू , मोटा करता सबको आलू ।

म से मछली म से मोर , चलो सड़क पर बाँयी ओर ।

य से यज्ञ र से रस्सी , पियो लूओं में ठंडी लस्सी ।

ल से लड्डू व से वन , स्वच्छ रखो सब तन और मन ।

श से शेर ष से षट्कोण , अंको का मिलना होता जोड़ ।

स से सड़क ह से हल , अच्छा खाना देता बल ।

क्ष से क्षमा त्र से त्रिशूल , कड़वी बातें देती शूल ।

ज्ञ से ज्ञान देता ज्ञानी , हमें देश की शान बढ़ानी ।

आओ बजाएँ मिलकर ताली , आओ बजाएँ मिलकर ताली ।

✍️  डॉ रीता सिंह

चन्दौसी (सम्भल)

गुरुवार, 17 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना कौल की रचना


 हमारी है हिन्दी तुम्हारी है हिन्दी

जगत में सबकी दुलारी है हिन्दी

गुरुदेव माता पिता सबसे पहले

उससे भी पहले हमारी है हिन्दी।


हिन्दी से उत्तर का हिमाद्रि अपना

हिन्दी से दक्षिण का सागर है अपना

हिन्दी से निखरी है पूरब की लाली

हिन्दी से पश्चिम की आभा निराली

दशों दिशाओ में बिखरी है हिन्दी

फूलों की खुशबू हमारी है हिन्दी।।


तुलसी के मानस सी पावन है हिन्दी

कान्हा की मुरली का वादन है हिन्दी

हिन्दी में है मीरा प्रेम दिवानी

नीरज के गीतों का गायन है हिन्दी

हिन्दी में पन्त प्रसाद निराला

महावीर और हजारी है हिन्दी।।


दिवाली के दीप जलाती है हिन्दी

होली में रंग खिलाती है हिन्दी

हिन्दी में दशाननों का दहन है

रक्षा का बंधन निभाती है हिन्दी

हिन्दी में ईद की मीठी सिवईंयें

लोहड़ी की मस्ती बैसाखी है हिन्दी।।


जन जन की रोटी की आशा है हिन्दी

जीवन के कर्मों की भाषा है हिन्दी

हिन्दी अमीरी गरीबी न देखे

गण मन की अभिलाषा है हिन्दी

हिन्दी से रिश्ते हिन्दी से नाते

अपनों की मुस्कान हमारी है हिन्दी। ।


वोटों की दलदल में फिसली है हिन्दी

कमजोर हाथों ने पकड़ी है हिन्दी

हिन्दी को लेकर मची एक हलचल

सियासी जालों में उलझी है हिन्दी

हिन्दी से हम हैं हम से वतन है

वतन से वफादारी है हिन्दी।।

 ✍️ डाॅ मीना कौल, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक 'विद्रोही' को राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति द्वारा किया गया सम्मानित

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति, की ओर से हिंदी दिवस 14 सितंबर 2020 को आयोजित एक संक्षिप्त समारोह में  साहित्यकार अशोक 'विद्रोही' को सम्मानित किया गया। सम्मान स्वरूप श्री विद्रोही को मान-पत्र, अंग वस्त्र, सम्मान राशि एवं श्रीफल भेंट किए गए। 

अध्यक्षता  के पी सरल ने की तथा मुख्य अतिथि डॉ प्रेमवती उपाध्याय  रहीं। माँ शारदे की वंदना डॉ प्रेमवती उपाध्याय द्वारा प्रस्तुत की गई । संचालन राम सिंह निशंक ने किया।

    इस अवसर पर हिंदी दिवस को समर्पित एक संक्षिप्त काव्य गोष्ठी का भी आयोजन किया गया । गोष्ठी में सम्मानित साहित्यकार अशोक विद्रोही ने हिंदी की महिमा का गुणगान करते हुए कहा-

अपने ही घर में कोई ,पाए ना सम्मान

यो हिंदी का हो रहा ,राज्यों में अपमान।

राज्यों में अपमान ,सुनो नेता गण प्यारे

हिंदी को अनिवार्य करो ,राज्यों में सारे।।

,विद्रोही, फिर पूरे कैसे होंगे सपने

परदेसी सी हिंदी घर में होगी अपने।।


हिंदी देती रोज ही, नए-नए उपहार

कविता में अभिव्यक्त हों ,नित्य हृदय उदगार।

नित्य ह्रदय उदगार ,कवि दुनिया में जाते,

व्यंग, छंद और गीत ,सभी हिंदी में गाते।।

"विद्रोही ,,मां का गौरव ,ज्यों होती बिंदी

भारत की पहचान और गौरव है हिंदी।।


हिंदी के हों दोहरे ,छद, बंध, श्रृंगार,

चौपाई और गीत में ,रस की पड़े फुहार।

रस की पड़े फुहार ,भाव के घन उमड़े हों,

हिंदी अपनाओ !बंद सारे झगड़े हों ।।

,विद्रोही ,मां के माथे ज्यों सजती बिन्दी,

भारत माता के  माथे, यूं सजती हिंदी।।


डॉ प्रेमवती उपाध्याय  ने कहा-

जन्म से प्राणों में रमती 

हिंदी उसका नाम है

 सृष्टा का उद्घोष करती 

हिंदी उसका नाम है

देश का अभिमान है

यह और गौरव गान है

यमक रूपक में बिहंसती

हिंदी उसका नाम है!


केपी सरल जी ने कोरोना पर कहा-

अश्वमेध का अश्व विश्व में,  निर्भय होकर घूम रहा है

सीमाओं का बंधन तोड़े ,

चरागाह को ढूंढ रहा है

 

युवा रचनाकार राजीव प्रखर ने दोहे प्रस्तुत करते हुए कहा ---

माँ हिन्दी के नेह की, एक बड़ी पहचान।

इसके आँचल में मिला, हर भाषा को मान।।

मानो मुझको मिल गये, सारे तीरथ-धाम।

जब हिन्दी में लिख दिया, मैंने अपना नाम।।


प्रशांत मिश्र ने कहा-

सूरज ने बदली से कहा

इतना क्यों बरसती हो।।


जे .पी. विश्नोई ने कहा-

यह साल कुछ ऐसा भी

न अचारों की सुगंध 

न बर्फ की चुस्की 

न गन्ने का रस 

न मटके की कुल्फी

  

काव्य गोष्ठी में  संजय विश्नोई ,शुभम कश्यप,  प्रवीण राही, अनिता विश्नोई, नेपाल सिंह पाल, मनोज मनु, विवेक निर्मल, रघुराज सिंह निश्चल, रामसिंह निशंक, जेपी विश्नोई, रामेश्वर वशिष्ठ, योगेन्द्र पाल सिंह विश्नोई आदि ने  भी रचना पाठ किया।श्री राम सिंह निशंक द्वारा आभार अभिव्यक्त किया गया।











मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा ------नासमझी


       आज रश्मि को अपनी ससुराल छोड़े एक साल हो गया है, लेकिन जो गलती उसने जीवन में कई, वह हरपल उसे शूल जैसी चुभती है ।अपनी बहन, कभी जेठानी तो कभी माँ की दी गई गलत सीख अपने जीवन में न उतारती है तो आज उसने पूरे परिवार में रानी बन के बने रहने पर पर .... उसके व्यर्थ के अहंकार ने, उसके अकड़ ने उसके पति को भी हमेशा के लिए अलग कर दिया। कभी उसके मुख से जेठानी के लिए अपशब्द निकलते हैं तो कभी बहन और बहनोई को, जिसने उसकी ढेरों खुशियों को पल भर में आग लगा दी ।अब सिर्फ पछतावा है सिर्फ पछतावा .....। क्योंकि उसके पति ने व्यर्थ की शर्तों को कहा। मानने से स्वच्छ इंकार कर दिया ।अकड़ और घमंड के कारण वह गलती से भी माफी नहीं मांग सकी।यदि वह अपनी सास ससुर के पैर पड़ने अपनी स्थितियों के सुधरने की याचना करती है तो उसके घरौंदा दूसरों की नजर न लगती है ...। ..अब तो बहुत देर हो चुकी है .....वह सोचता है- सोंचते उसे वे सभी खुशी के पल एक एक करके याद आने लगे जो उसने कभी अपने बड़े परिवार के साथ रेफरी थे। उसकी नासमझी ने, अहम की भावना ने उसे विल्कुल अकेले कर दिया।भाई अपनी पत्नियों के साथ बच्चों के साथ, माता पिता भी एक दूसरे के साथ, जिन्होने उसके घर तोड़ा वे भी सुखी। 
डॉ। प्रीति हुँकार मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा----- रिश्वत


      सरकार ने सामुदायिक विकास केन्द्र के लिए
कुछ लोगों की जमीन अधिग्रहीत की थी ।सोहन के दो खेत भी उसमे शामिल थे।सबको  उसका मुआवजा मिल चुका था, लेकिन सोहन की मुआवजा की रकम अभी  अटकी हुईं थी
  एक दिन सोहन सम्बन्धित कर्मचारी से मिला और जल्दी भुगतान की उम्मीद में ,जेब से एक पांच सौ का नोट निकालकर उसके हाथ पर रख दिया। नोट देखते ही,कर्मचारी बिखर गया "तुम मुझे रिश्वत दे रहे हो, मैं तुम्हे रिश्वत देने के आरोप में बंद करवा सकता हूं"। सोहन ने एक और पांच सौ का नोट निकालकरउसके हाथ पर रखा**ठीक है,ठीक है, पांच छे दिन में आपको चेक मिल जायेगा***
कर्मचारी ने सोहन को आश्वस्त किया और
अपने काम मेेें जुट गया।

  ✍️डाॅ पुनीत कुमार
T - 2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600

मुरादाबाद मंडल के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ---डर


आधी रात बीत चुकी थी, देवेंद्र अपनी रेंजर से बहुत तेजी से पैडल मरते हुए घर लौट रहा था उसे आज अपनी प्रेमिका की बातों में समय का ध्यान ही नहीं रहा।
उसने पहले अपनी प्रेमिका को उसके घर छोड़ा और फिर अपने घर की ओर चल दिया।
आज की रात और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही अँधेरी थी ऊपर से  हवा की तेरी सूखे पत्तों को सहलाकर हँसा रही थी जिनकी हँसी की
खर्र..! खर्र.. चकककक चरर्त्तत...!!
की कर्कश ध्वनि वातावरण में अलग ही भय उतपन्न कर रही थी।
माहौल इतना डरावना था कि गर्मी में भी देवेंद्र के जिस्म का हर रोंया खड़ा था जैसे किसी डर को देखकर शेर की गर्दन के बाल खड़े ही जाते हैं साही के कांटे खड़े हो जाते हैं।
अभी देवेंद्र काली नदी के पुल के बीच में ही पहुँचा था कि उसे सामने किसी के होने का अहसास हुआ उसे डर तो पहले से ही लग रहा था लेकिन अब तो उसकी साँसे राजधानी  की रफ्तार से चलने लगीं।
देवेंद्र ने अपनी रेंजर की गति को बढ़ाने में अपने फेफड़ों की पूरी ताकत लगा दी तभी वह साया उसे ठीक सामने खड़ा नज़र आया, उसके हाथ ब्रेक लीवर पर केस गए, रेंजर चिर्रर.... र्रर!! की आवाज करती हुई उस साये से एक फुट की दूरी पर रुक गयी।
देवेंद्र समने खड़े अजनबी को देखने लगा उसकी बड़ी बड़ी आंखे थी सर पर टोपी पहने हुए था।
लेकिन उसके चेहरे का कोई भी हिस्सा नज़र नहीं आ रहा था वहां बिल्कुल स्याह अँधेरा था।
देवेंद्र उसे देखकर बहुत डर गया उसके मुंह से अचानक तेज चीख निकली,
भ...उ...त...!
तभी उस साये ने कहा, कहाँ घूम रहे हो इतनी रात को? तुम्हे पता नही देश मे कोरोना के चलते इमरजेंसी के हालात हैं , पूरे देश में कर्फ्यू लगा हुआ है और तुम सायकल पर आधी रात को हवा खोरी कर रहे हो इस बार तो चेतावनी देकर छोड़ रहा हूँ।अगली बार दिखे तो 144 में अंदर कर दूंगा।
तब देवेंद्र ने ठीक से देखा वह साया एक काला मास्क पहने हुए पुलिस वाला था।
देवेंद्र भाई चुपचाप लौट आये क्योंकि वह जानते हैं कि भूतों को तो फिर भी समझाया जा सकता है किंतु पुलिस......

✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में नोयडा )निवासी साहित्यकार अटल मुरादाबादी की लघुकथा ----महक


राजू बहुत खुश था आज।खुश हो भी क्यों न,आज उसे अपने बड़े भाई की ससुराल जो जाना था। उसने बाल बगैरह कटवाए, बालों को अच्छी तरह शैंपू किया,और बन संवर कर निकल लिया घर से।रास्ते में,बहुत सारी मीठी यादें, चलचित्र की भांति उसकी आंखों के सामने से गुजरने लगीं।
बात उन दिनों की है जब वह अपने पिता के साथ अपने बड़े भाई की शादी के बाद पहली तीजों पर भाभी के लिए  श्रृंगार का सिंधारा लेकर बड़े भाई की ससुराल गया था। वहां उसकी मुलाकात उसकी भाभी की छोटी बहन महक से हुई थी।पहली ही मुलाकात में वह उसे दिल दे बैठा था। देता भी क्यों न,वह खुद भी सुंदर और गठीले बदन का था,कोई भी नवयौवना उसे देखकर आकर्षित हो जाती।
 महक तो अपने नाम के अनुरूप ही थी।गदराया बदन,यौवन तो उसके अंग अंग से फूट रहा था। बदन किसी गुलाब के फूल की भांति महक रहा था।कोई भी नवयुवक उसके सम्पर्क में आने पर आकर्षित हुए बगैर नहीं रह सकता था।
 पहली ही नजर में दोनों इतना नजदीक आ गये मानों वर्षों से एक दूसरे को जानते हों।राजू दो दिन वहां रुका और उन दो दिनों में ही दोनों की नजदीकियां  कब प्यार में बदल गयीं पता ही न चला।
अगले दिन जब राजू अपने पिता के साथ घर वापिस जाने लगा तो महक की आंखों में प्यार, किसी गगरी में ऊपर तक भरे पानी की तरह छलक रहा था। लेकिन राजू महक को उसी स्थिति में छोड़ कर अपने घर वापिस चला गया।
 राजू घर पहुंचा ही  था कि महक का फोन आ गया था। फिर क्या था दोनों  ने खूब बातें की और धीरे धीरे उनका प्यार प्रगाढ होता चला गया। दोनों एक दूसरे के साथ जीने मरने की बातें करने लगे। इस बीच उन्होंने प्यार का इजहार करने के लिए ,एक दूसरे को , न जाने  कितने ही भावना भरे पत्र भी लिख डाले।यह सब चल ही रहा था कि महक का प्रशासनिक सेवा में चुने जाने का परिणाम आ गया। अब क्या था वह आसमान में उड़ने लगी और इसके सामने उसे राजू का प्यार बौना नजर आने लगा।
 भविष्य की चमक में,  उसने अपने प्यार को छोड़ने का निश्चय कर लिया और "कुछ सूचना" देनी है कहकर , उसने राजू को फ़ोन करके बुला लिया।यह सूचना पाकर राजू का मुंह खुला का खुला रह गया और एक शव्द ही निकल पाया--महक
तुमने क्या किया!!

 ✍️अटल मुरादाबादी
नोएडा,मो ०-९६५०२९११०८

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा -------..'छलिया'



रात्रि का तीसरा पहर शुरू हो चुका था. उपवन में रातरानी और हर श्रंगार के पुष्प अपनी खुश्बू बिखेरकर हवा को और और ज्यादा मदहोश कर रहे थे. चंद्रमा की शीतल चांदनी जमीन की सूरज द्वारा बिखेरी तपन को शीतलता में बदलकर उसकी प्यास को कुछ हद तक कम करने का प्रयास कर रही थी.
नीले स्वच्छ आसमान में दूर तक टिमटिमाते तारे दुपट्टे में झिलमिलाते सितारों से प्रतीत हो रहे थे.
कई तारों का समूह कई कहानियां सुना रहे थे. उत्तर दिशा में चट्टानी सा खड़ा ध्रुव तारा उसको सबसे अधिक प्रिय था.
क्योंकि वह अपने वक्तव्य पर डटा रहने वाला और बहुत ही पाक साफ था.
उसकी कहानी कई बार उसने अपनी दादी के मूँह और किताब में भी पढ़ी थी जो उसको बहुत अच्छी लगती थी.
पास ही बहता झरना और नदी के किनारे बैठी वह मोहिनी अपने अक्स को पानी में निहार रही थी. वह मंद मंद खिलती कली सी मुस्करा रही थी.
शीतल हवा और पेड़ों की हिलती डालियाँ पानी में साफ दिखाई दे रहीं थीं.
उसने नजाकत से अपना पल्लू कंधे से उतार कर जमीन पर रखा और फिर दोनों हथेलियों को अपने घुटने पर रखा और उस पर अपना चेहरा रखकर पानी में पैर डालकर हिलाने लगी शांत वातावरण में पानी की आवाज संगीतमय लग रही थी उस पर पायल के घुँघरूओं की छम छम संगीत को सम्पूर्ण बना रही थी.
तभी उसको पानी में एक और अक्स दिखाई दिया शायद किसी पुरुष का था. उसके प्रियतम उसके पास खड़े मुस्करा रहे थे.
उसने पैर का हिलाना रोक दिया अब वह अक्स साफ दिखाई देने लगा.
मोहिनी ने खनकती आवाज में कहा....
"कौन हो तुम?"
"प्रेम l"उसने धीरे से मुस्कराते हुए कहा.
मोहिनी के मुख पर हया की लालिमा छा गई.
"तो फिर इतने दूर क्यों हो?" मोहिनी ने अदा से आँखें मटकाते हुए पूछा l
"मैं तो तुम्हारे पास ही हूँ l" प्रेम ने फिर मुस्कराते हुए कहा l
"लेकिन......?"
"लेकिन क्या?"
मोहिनी ने उत्सुकता से पूछा l
"तुम में जब तक अहम रहेगा तुम्हारा और मेरा प्रेम असंभव है l"
"फिर तुम में और मेरे अहम में कोई अंतर तो नहीं रह जाता.... जहां बदले की भावना हो वह कैसा प्रेम?" मोहिनी ने प्रश्न किया.
"तुम समझ नहीं रहीं?" प्रेम ने फिर दोहराया.
"अगर तुम मुझे मैं जैसी हूँ स्वीकार नहीं कर सकते तो फिर मैं क्यों....?"
"यही तो अहं है तुम्हारा l"प्रेम ने बात को बीच में ही काटते हुए कहा.
"यह स्वाभिमान भी तो हो सकता है?" मोहिनी ने थोड़े सख्त लहजे मे कहा l
"सिर्फ स्त्री से ही समर्पण की उपेक्षा क्यों?" कहते हुए मोहिनी ने अपने पैर को जोर से पानी में हिलाया अब वह अक्स कहीं नहीं था.
"छलिया l"
कहते हुए मोहिनी उठकर अपने महल की ओर चल दी.

✍️राशि सिंह
मुरादाबाद उत्तर प्रदेश