रविवार, 20 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़मीर दरवेश की ग़ज़ल ...... बुज़ुर्ग पेड़ से करके चले सलाम दुआ, हवा को चाहिए पासे अदब निभा के चले!

بہت وہ چل نہیں پاۓ جو بچ بچاکے چلے، 

وہی چلے جو کلیجے پہ تیر کھا کے چلے! 

बहुत वो चल नहीं पाए जो बच बचाके चले, 

वही चले जो कलेजे पे तीर खाके चले! 


بزرگ پیڑ سے کرکے چلے  سلام دعا،

ہوا کوچاہیے پاس ِادب نبھا کے چلے ! 

बुज़ुर्ग पेड़ से करके चले सलाम दुआ, 

हवा को चाहिए पासे अदब निभा के चले! 


یہ میری خو  ہے مخالف ہوا کے چلتا ہوں، 

وہ اور ہوگا کوئی ساتھ جو ہوا کے چلے!

यह मेरी ख़ू* है मुख़ालिफ़ हवा के चलता हूँ, 

वो और होगा कोई साथ जो हवा के चले! 


 ہنسا ہنسا کے چمن زار کردیا گھر کو ،

ہلاکے ہاتھ جو چلنے لگے رلا کے چلے! 

हंसा हंसा के चमनज़ार कर दिया घर को, 

हिलाके हाथ जो चलने लगे रुला के चले! 


دیارِ یار میں جانا ہو چاہے مقتل میں، 

مزہ تو جب ہے کہ دیوانہ سر اٹھا کے

 چلے! 

दायरे यार** में जाना हो चाहे मक़तल में, 

मज़ा तो जब है के दीवाना सर उठा के चले! 


 کسی چراغ کا لینا نہیں پڑا احسان، 

بہت اندھیرا ہُوا جب تو دل جلاکے چلے! 

किसी चराग़ का लेना नहीं पड़ा एहसान, 

बहुत अंधेरा हुआ जब तो दिल जलाके चले! 


چلے جو دشت میں اہلِ جنوں تو نقش ِقدم، 

بنا بنا کے چلے اور مٹا مٹا کے چلے! 

चले जो दश्त में एहले जुनूँ तो नक़्शे क़दम, 

बना बना के चले और मिटा मिटा के चले! 


عجب ہیں ہم بھی کہ ہجرت پہ  جارہے تھے مگر، 

اجاڑ کر نہ چلے گھر کو گھر سجاکے چلے! 

अजब हैं हम भी के हिजरत ***पे जा रहे थे मगर, 

उजाड़ कर न चले घर को घर सजा के चले! 


مٹانے جگنو چلے گھور اندھیرا تو خود کو، 

جلا جلا کے چلے اور بجھا بجھا کے چلے! 

मिटाने जुगनू चले घोर अंधेरा तो ख़ुद को, 

जला जला के चले और बुझा बुझाके चले! 


*आदत  ** मेहबूब का शहर*** मुस्तक़िल तौर पर अपने गाँव/ शहर को छोड़ जाना

  ✍️ज़मीर दरवेश, मुरादाबाद


 

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