शुक्रवार, 19 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शील कुमार शर्मा शील की कविता --"मुझे शब्द दो" । छात्र जीवन के दौरान लिखी गई उनकी यह कविता लगभग 52 वर्ष पूर्व केजीके स्नातकोत्तर महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका के अंक 18 (1967- 68) में प्रकाशित हुई थी ।




::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष वीरेंद्र मिश्र की कहानी ----- ऐलान । यह कहानी ली गई है अशोक विश्नोई के संपादन में प्रकाशित अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका 'आकार' के कहानी अंक ( वर्ष 1996-97 ) से । यह पत्रिका सागर तरंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की जाती थी ।






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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष डॉ भूपति शर्मा जोशी की एक रचना--- यह रचना ली गई है अशोक विश्नोई के संपादन में प्रकाशित अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका 'आकार'( वर्ष 1995 ) से । यह पत्रिका सागर तरंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की जाती थी ।



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मुरादाबाद की साहित्यकार पूनम गुप्ता की कविता


गुरुवार, 18 जून 2020

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद संभल ) निवासी साहित्यकार रूप किशोर गुप्ता की रचना ------- चीन को चेतावनी


शौर्य देख भारत वीरों का, सब दुश्मन हैरान हुए।
पैंतालिस को मार हिन्द के, बीस लाल बलिदान हुए।।
मोदी जी! संदेश युद्ध का , तुम सीमा पर भिजवा दो।
छप्पन इंची अपना सीना, आज चीन को दिखला दो।।
सवा अरब हम साथ - साथ हैं, दुश्मन को दहला देगें।
शेरों में कितनी ताकत है, चीन तुझे दिखला देगें।।
हिंसा के हम घोर विरोधी, पर कायर बलहीन नहीं।
युद्ध हुआ तो मानचित्र में, कहीं रहेगा चीन नहीं।।
अभी समय है क्षमा मांग ले, फिर गलती मत दोहराना।
सीमा पर लक्ष्मण रेखा हैं, पास नहीं उसके आना।।
                       
  ✍️ रूपकिशोर गुप्ता
  संरक्षक संस्कार भारती मेरठ प्रांत
  गोला गंज बहजोई (सम्भल)
 उत्तर प्रदेश, भारत
 मो. 9368218205

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष शंभू दयाल गुप्त की पांच कविताएं ------ये कविताएं उनके काव्य संग्रह 'कंचन कलश' से ली गई हैं । यह संग्रह लगभग 22 साल पहले वर्ष 1998 में टारगेट प्रिंटर्स मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित हुआ था।







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मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की रचना


चीन द्वारा धोखा देकर किए गए हमले में
हुए वीर शहीदों के नाम अश्रूपूर्ण श्रद्धांजलि!

रक्षा करते देश की,
            आहत हुए जवान!
बलिवेदी पर चढ़ गए,
            भारत पुत्र महान !!

सीने पर खा गोलियां,
            भू पर गिरे निढाल!
भारत मां ने गोद में,
        लेकर किया निहाल!!

पुत्रों के शव देखकर,
           सुमनों सजे किशोर!
नैन छलक कर रह गए,
           माता भाव विभोर!!

हाथ तिरंगा थामकर,
              लड़े देश के लाल!
प्राण किए उत्सर्ग पर,
       झुका न उनका भाल!!

 स्वागत वीर शहीद का,
           किया घटा ने मौन !
वीरों के प्रयाण को
           रोक सका है कौन!!

 धन्य देश की आत्मा!
            भारत मां के भाल !
अश्रू पूर्ण श्रद्धांजली!
            युद्धवीर हे लाल!!

 नमन! नमन!शत शत नमन!
       नमन त्याग! बलिदान!
याद रहेगा देश को,
         अमर! महा प्रस्थान!!

✍️ डॉ महेश दिवाकर
'सरस्वती भवन'
12-मिलन विहार, दिल्ली रोड
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर  9927383777,  9837263411, 9319696216

बुधवार, 17 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष आनंद स्वरूप मिश्रा की कहानी "इंतजार" ------- यह कहानी हमने उन्हीं के कहानी संग्रह "इंतजार" से ली है । यह कहानी संग्रह दिशा पब्लिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड मुरादाबाद द्वारा लगभग 17 वर्ष पूर्व सन 2003 में प्रकाशित हुआ था। श्री आनंद स्वरूप मिश्रा जी यहां महाराजा अग्रसेन इंटर कॉलेज में शिक्षक थे ।













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डॉ मनोज रस्तोगी
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मुरादाबाद 244001
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मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी-----लौटने के ​बाद


​ मंगू  आँगन में पड़ी टूटी चारपाई पर बैठा मोबाइल चला रहा था .टिकटॉक के वीडिओज़ देखकर हंस रहा था मन ही मन .शहर ​जाकर ​उसने पिछली ​दफा ​सबसे ​पहले यह  ​मोबाइल  ​ही तो  ​खरीदा था .कमाई से थोड़ा थोड़ा बचाकर .
​चारो बच्चे भाग भागकर आँगन में  ऊधम
मचा रहे थे .
​"उसकी पत्नी कुंता चूल्हे में आग जलाने के लिए कभी कागज़ रखती तो कभी सूखी घास मगर आग जलने का नाम नहीं ले रही थी .
आँखों से धुएं के कारण तो कुछ मन के कारण आंसू निकल रहे थे .
​उसकी आँखों के आगे दो माह पहले की जिंदगी तैरने लगी .
​"शहर में कम से काम  ई आग धुंआ से तौ  खेलनो नाय पड़तौ I"
​वह हौले से बड़बड़ाई .
​"क्यों बड़बड़ा रही है ...?"
​"कित्ती देर है गई जो आग नाय पजर रही
​है I"वह गुस्से में फूकनी एक तरफ पटककर आँखें मलते हुए बोली .
​"अम्मा तोसे कित्ती फेरे कई सिलेंडर ले लिए पर तूने लायो ही नाय ...अब देख कुंता कित्ती परेशान है रही है ?"
​"हाँ लल्ला सिलेंडर तो आयो मगर मैंने सौ रुपया ज्यादा ले के गगन को बेच दियो ...मैं तो घास फूस जलाय के अपने लायक रोटी बनाय ही लेती अब हमें का पतों हो तुम्हारी मेहरुआ शहर की है गई हैं ?"
​"आज चलो जइयो प्रधान के पास ...मनरेगा में काम मिल रहो है I"अम्मा ने खांसते हुए कहा .
​"अरे अम्मा हम पे नाय होयगी खुदाई ...शहर में हम चादरें बुनते बो भी मशीन से ...I"
​"तो खाओगे का .?अब यहां तो चददरें नाय बन रही हैं ...फाब्डो और खुरपा पकड़ लियो I"अम्मा ने मुँह बनाते हुए कहा .
​"अब तो साल भर तक तो कम से कम गाँव में रहने ही पड़ेI"
​"कुंता देख नयो वीडिओ आयो है टिक टॉक पे I"
​"कहाँ है जी ..."कुंता चूल्हा छोड़कर
​दौड़ी I"
​"जा डिबिया से पेट नाय भरेगो काम काज देख बाहर जायके I"अम्मा ने फिर से मुँह बनाते हुए कहा I
​"अम्मा पहले तो तुम ऐसे नाय करती जब कभो कभार हम गाँव आते ?"उसने चिढ़ते हुए कहा I
​"पहले हरे हरे लोट जो लाबते I"कुंता ने हथेली से रोटी पीटते हुए कहा ऐसा लग रहा था की गुस्से में रोटी के भी ज्यादा चोट लग रही थी .
​"लल्ला जो बीमारी का पतों कब तक रहेगी ..तब तक सब भूखे तो नाय रह
​ सकत I"
​अम्मा ने अपनत्व और प्रेम से बेटे का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा .
​​​"का बहुरिया ...का बोलत हो हम लोटन के भूखे हैं ..री नाय ...कछु काम धंधो करे तब ही तो रोटी मिलेगी ...दो बीघे जमीन से पेट भरेगो का ?"
​"अम्मा सच ही तो कह रही है I"उसने धीरे से कहा और खेलते हुए बच्चों की तरफ एक नजर डालकर वह गमछा लेकर निकल गया काम की तलाश में

​✍️​ राशि सिंह
मुरादाबाद


मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघुकथा---तकलीफ


चारपाई पर बीमार वृद्ध रमन बैचेनी से करवट बदल रहा था।अपनी पुत्रवधू से उसने सीने में दर्द की शिकायत की थी।रसोई घर में सब्जी काटती बहू ने उत्तर दिया,"मैं तो ले जा सकती नहीं आपको। ये आयेगें तो ले जायेगें,तब तक मैं गरम पानी की बोतल देती हूं सिकाई करें कुछ आराम आयेगा"।पुत्रवधू का उत्तर सुन वह अपनी युवावस्था में पहुंच गया जहाँ हेमंत को तेज बुखार में वह अपनी गोद मे उठाये अस्पताल की लम्बी लाइन मेंं लोगोंं से अनुरोध कर रहा था कि उसे पहले जाने दें उसका बेटा बहुत बीमार है।लोगों की टिप्पणी पर भी उसका ध्यान नहीं था।लगभग गिड़गिड़ाने तक की स्थिति आ गयी।अंततः एक व्यक्ति को उसपर दया आगयी और वह जल्दी डाक्टर के पास पहुंच गया।बुखार हल्का होनेतक वहीं रहा।पसीने से लथपथ घर पहुंच कर बिस्तर पर लिटाते हुए अपनी वृद्धा बहन से बोला,"अब चिन्ता की कोई बात नहीं"।हेमंत के जन्म केदो साल बाद ही उसकी पत्नी का स्वर्ग वास हो गया था तभी से बहन ने आकर घर सभाला था।
अचानक खट की आवाज ने उसका विचार भंग किया।घर मे घुसते ही हेमंत से पत्नी बोली,"जल्दी चाय पीलो फिर बाबू जी को डाक्टर यहाँ ले जाना, सीने मे दर्द से बेचैन है"।ध्यान न देने पर पत्नी ने पुनः कहा।"अरे क्या दर्द की रट लगा रखी है।पूरे दिन आफिस में खटो,फिर घर मेंं आते ही इनके दर्द सुनो,मैंं आज बहुत थक गया हूं अभी नहीं जाउंगा।कल टाइम होगा तो दिखा दूगाँ"हेमंत लगभग झुँझलाते बोला।पति का उत्तर सुन पत्नी बोली,"अगर कुछ हो गया तो"?
हेमंत बोला,"तो अच्छा है ना,रोज रोज की परेशानी से छुटकारा मिलेगा"।
बेटे के शब्दों को सुनकर वृद्ध रमन की तकलीफ कई गुना बढ़ गयी।

✍️ डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद 244001

मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर रस्तोगी की लघुकथा ----अर्ध सत्य


          "सर समझ नहीं आ रहा कि लगातार बढ़ने कोरोनावायरस से ग्रसित हुए पॉजिटिव केसों को कैसे घटाया जा सकता है?" अश्विन ने अपने सीनियर प्रशासनिक अफसर से पूछा।
राघव ने उत्तर दिया "देखिए यदि बाल अधिक टूट रहे हो और कंघी करने से बाल और अधिक टूटकर कंघी में आ जाते हो इसका सबसे सरल उपाय है कि कंघी करना ही कम कर दिए जाए अर्थात दो-तीन दिन में एक बार ही कंघी करें तो इससे बालों का टूटना अपने आप ही कम परिलक्षित होगा। जिस प्रकार लोग होटल, सिनेमाहॉल और स्कूल खुलने की जल्दी में है उसके अनुसार तो यह बीमारी एक दम से कम होने वाली नहीं यह तो केवल ऐसे ही कम हो सकती है कि इससे संबंधित परीक्षण ही कम कर दिया जाए, परीक्षण कम होंगे तो कम पॉजिटिव केस ही सामने आएंगे।"
        उत्तर सुनकर सब अवाक रह गए
       
 ✍️ इला सागर रस्तोगी
मुरादाबाद 244001

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा------ ट्रेन चल गई



"क्या करें!! काम बंद हो गया जेब में एक भी पैसा नहीं है।
सारा अनाज भी खत्म हो गया।
फ्री का राशन भी उन्ही को मिल रहा है जिनकी थोड़ी बहुत जान पहचान है।
अब तो झुग्गी का किराया भी दो महीने का हो गया है कैसे काम चलेगा??" सुखिया ने उदास होकर अपने पति सोहन से कहा।
दोनों की पिछले साल ही शादी हुई थी सोहन दो साल से फैक्टर में दरी बुनने का काम करता था। कुछ दिन से सुखिया भी वहीं काम करने आती थी। दोनों के दिल मिले और शादी कर ली।
दोनों ही बिहार के छपरा जिले के अलग अलग गांव के रहने वाले थे।
"क्या करें सुखिया, चल गांव वापस चलते  हैं वहीं पुराने कपड़ों की डरी बनाकर बेचेंगे कुछ खेत मजूरी कर लेंगे गुजरा हो जाएगा। किराए के पैसे तो हैं नहीं, चल बाकियों की तरह पटरी-पटरी चलते हैं कुछ दिन में पहुँच ही जायेंगे। इस भुखमरी से तो अच्छा ही है।" सोहन ने उदास होकर कहा।
"नहीं  बिल्कुल नहीं तुम्हे पता नहीं सरकार ने ट्रेन चला दी हैं", सुखिया चीख कर बोली।

✍️ नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा -------------- जिंदगी


    आकाश दीप रोजाना घर के छोटे छोटे झगड़ों तंग आ गया था । कभी बड़े भाई की जली कटी बाते सुननी पड़ती, तो कभी घर के अन्य सदस्यों के व्यंग्य भरे शब्दों को सहना पड़ता ।इस वातावरण में रहते-रहते इच्छाये जैसे मर सी गई थी।बच्चों की हंसी भी आंगन को सूना कर कब की समाप्त हो चुकी थी ।
      आज फिर वहीं कोहराम और तानाकशी की आवाजें तीर की भांति उसके दिल में घाव कर रही थी---आखिर कब तक ? प्रतिदिन की इस घुटन भरी जिंदगी से राहत पा ही लूँ ।इससे तो यह अच्छा है कि मैं घर से ही अलग हो जाता हूँ।
       यह सोच कर वह गुस्से से उठा ही था की तभी किसी ने रसोई घर के बर्तन नीचे गिरा दिए । उस आवाज़ ने उसे पुनः हिम्मत देकर जीने का सम्बल सौप दिया ।वह शांत होकर कमरे में यह सोच कर बैठ गया , जहां कुछ बर्तन एक साथ होते हैं वहाँ खड़कन होती ही है ।
     
✍️  अशोक विश्नोई
 मुरादाबाद
 मोबाइल--9411809222

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर के चार गीत ----ये गीत उनकी कृति लोकधारा 2 से लिए गए हैं । यह कृति विश्व पुस्तक प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा वर्ष 2019 में प्रकाशित हुई है






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मंगलवार, 16 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ----- उधार का दर्द


  ....,,गोरू वाच्छी गोरू चुगावे धारे लगाओ,,! सुबह हुई नहीं कि  जगदीश की आवाज पूरे गांव में गूंजने लगती थी ...सभी की गाय बच्छियों को चराने के लिए वह पास की पहाड़ियों पर ले जाता था और .....
 दिन भर जंगल में चुगा चुगा कर शाम को लौटा कर ले आया करता था शाम को लौटने पर गाय बच्छियों के गले में बंधी घंटियों की आवाज से पता लग जाता था सभी कि पशु जंगल में पेट भर घास चर कर वापस आ गए हैं ....
     उस दिन जगदीश अपनी ईजा से चार रोटी बंधवा कर गाय, बकरियों ,बछड़े , बच्चियों को लेकर ऐसा गया  कि लौट कर ही नहीं आया.... परन्तु ... सबके पशु नियत समय पर ही वापस लौट कर आ  गये थे...  पूरे गांव में शोर मच गया ....? .... हां !...उसी दिन एक तेंदुए के पेट में  जगदीश का भाला लगा मिला  तेंदुआ खून से लथपथ  मरा पड़ा मिला था सभी ने सोच लिया कि तेंदुए का जोड़ा रहा होगा...दूसरा तेंदुआ ही उसे उठा कर ले गया  होगा.... नीचे सड़क पर जाने पर लोगों को बहुत सारा खून पड़ा मिला.... जगदीश की मां का रो-रोकर बुरा हाल था...,,चार रूखी रोटियां दीं . थीं.. अचार प्याज भी नहीं था,,..... आज  ...सुबह भूखा ही चला गया था !!...विलाप कर रही...थी !! बेचारी गरीब विधवा का इकलौता बच्चा कौन सहायता करे...? हे भगवान...तकदीर के सामने किसी का ज़ोर नहीं ...जयपाल पधान की चौपाल पर पंचायत बैठी ....भीड़ में चर्चा हो रही थी तरह  तरह की बातें बनाई जा रहीं थीं ,, दो तेंदुए रहे होंगे तेंदुआ ही उसे फाड़ कर खा गया,,! उसको ले गया ... क्योंकि वहां पर खूब सारा खून पड़ा था .. जगह जगह ख़ून की बूंदें पड़ी थी .... नीचे  रामनगर को सड़क  जाती थी.?.. तभी हरीश पांडे ने कहा कि जगदीश ने उससे ₹5000 कर्ज लिया था चुकाया नहीं जा रहा था इसीलिए शहर भाग गया है.....
       ‌  जगदीश की ईजा गंगा का एक ही बेटा था पास पैसे ना होने के कारण से और कोई काम धंधा नहीं सुझाई दिया तो गाय बकरियों को चराने का काम करने  ........ लगा . ..साल भर में फसल के समय सब लोग उसे आनाज और पैसे जिसकी जो श्रद्धा होती दे दिया करता था
       ********************
    .... धीरे धीरे 3 महीने गुजर गए  अचानक गांव में फिर हल्ला हुआ ,, जगदीश लौट आया! .....जगदीश लौट आया !..... जगदीश के घर भीड़ जमा हो गई हरीश भी पहुंचा हरीश ने कहा कहां थे तब जगदीश ने बताया तेंदुआ गाय बकरियों पर लौटते समय टूट पड़ा था वह तेंदुए से भिड़ गया और बुरी तरह जख्मी हो गया तेंदुए को उसने मार डाला गाय बकरियों को बचा लिया.... परन्तु उसका खुद का बहुत सा खून बह जाने से वह बेहोश हो गया आंख खुलीं तो वह अस्पताल में था .... तभी एक एंबुलेंस वहां से गुजरी और वही  उसे उठाकर ले गए रामनगर से  उसे दिल्ली भेज दिया था और वहीं के इलाज से उसकी जान बची ....... परन्तु उसका नाम बहादुर बच्चों में लिख लिया गया है 26 जनवरी को उसे सम्मानित किया जाएगा और इनाम भी दिया जाएगा और सरकार ने उसे भविष्य में नौकरी देने के लिए भी घोषणा की है फिलहाल उसे ₹10000 देकर घर पहुंचाया गया है
     जगदीश ने ईजा से ₹5000 लेकर हरीश पांडे को दिया ... जगदीश ने बताया जख्मी होने के दौरान मुझे सबसे ज्यादा चिंता तुम्हारे उधार की थी जिस काम के लिए पैसे लिए थे वह काम भी नहीं हुआ पैसे भी खर्च हो गए लो चाचा..... आपके पैसे !
           
 ✍️ अशोक विद्रोही
 412, प्रकाश नगर
मुरादाबाद 244001
 मो 82 188 25 541

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफा की कहानी ------ हाजरा बेगम

                           
हाजरा बेगम  के  घर आज सवेरे से ही काफी चहल पहल थी घर मे झड़ाई, पुछाई, धुलाई चल रही थी घर की स्त्रियां घर को व्यवस्थित करने में लगी थी तो पुरुष बाहर से आने वाले सामान को लाने में लगे थे  लगता था जैसे कोई वी वी आई पी आने वाले है हाजरा बेगम सबको निर्देश देकर काम करा रही थी और सभी उनके निर्देशो के पालन की स्वीकृति में सर हिला रहे थे हाजरा बेगम कह रही थी किसी भी चीज की कमी नही रहनी चाहिये आज सायमा के रिश्ते वाले आ रहे है उनपर अच्छा इम्प्रेशन पड़ना चाहिए उनकी हां में हां मिलाते हुए उनकी सहेली फरीदा बेगम कहने लगीं आखिर सायमा आपकी इकलौती बेटी है चार चार भाईयो की बहन है और फिर बाप की तरह उसके भाई भी कोई मामूली आदमी थोड़ी है एक डॉक्टर दूसरा इंजीनियर तीसरा प्रोफेसर और चौथा बड़ा ठेकेदार है घर मे नौकर चाकर सब है आखिर ऐसे घर की लड़की को कौन पसन्द नही करेगा  मैं तो कहूंगी पिछले महीने जो लड़के वाले सायमा को देखने आए थे उनकी मत मारी गई थी जो मना करके चले गये ऐसे घर तो बड़े नसीब वालो को मिलते है फरीदा बेगम की बात पर हाजरा बेगम ने      हाँ कहकर स्वीकृति में सिर     हिलाया थोड़ी देर में ही एक कार उनके बंगले के सामने रुकी जिसमे से दो पुरुष व दो स्त्रियां नीचे उतरे सबने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया उन्हें सजेधजे ड्राईग रूम में बैठाया गया चाय नाश्ते के बाद फरीदा बेगम ने मेहमानों के सामने हाजरा बेगम व उनके घर वालो के कसीदे पढ़ने शुरू कर दिये हाजरा बेगम के शौहर की कितनी आमदनी है बेटे कितने रुतबे वाले है  समाज मे उनका कितना दबदबा है सायमा कितने ऐशो आराम में पली बढ़ी है एक एक कर फरीदा बेगम मेहमानों को बताती रही मेहमान चुपचाप सब सुनते रहे कुछ देर बाद सायमा भी ड्राइंग रूम में आ गई  जीन्स टॉप पहने सायमा ने हाय - हेलो से मेहमानों का अभिवादन किया आधुनिकता में डूबी सायमा पूरी तरह रईसजादी लग रही थी जबकि मेहमानों के साथ आई लड़की पूरी तरह शरीफजादी  लग रही थी  मेहमानों में से उम्र दराज महिला ने बड़ी शालीनता के साथ कहना शुरू किया मेरा नाम आसिया है और यह मेरी बेटी सफिया है मेरे बेटे की डॉक्टरी की पढ़ाई का यह आखरी साल है हम उसके लिये लड़की ढूंढ रहे है जो सुख-दुख में उसका साथ दे सके अपने हाथ से बना दो वक़्त का खाना अपने शौहर को खिला सके आसिया ने कुछेक खानों की रेसिपी सायमा से पूछी तो वो बगले झांकने लगी तभी तपाक से फरीदा बेगम बोली-सायमा अपने बाप की इकलौती बेटी है उसके घर नौकर चाकर है अल्लाह का दिया सब कुछ है उसे कभी किचिन में जाने की जरूरत ही नही पढ़ी बस माँ बाप उसे पढ़ा लिखाकर आला तालीम दिलाना चाहते है जो वो कर रही है फरीदा बेगम चुप हुई तो आसिया  ने कहना शुरू किया  हम मानते है आजकल आला तालीम जरूरी है लेकिन तालीम के साथ साथ लड़कियों को घर गृहस्थी में भी माहिर होना जरूरी है   हमे अपने बेटे के लिये बीवी चाहिये कोई रानी या महारानी नही जिनके नखरे उठाते उठाते हमारा बच्चा बूढा हो जाये फिर हमारे घर भी कोई तंगदस्ती नही है लेकिन हमने अपनी बेटियों को आला तालीम के साथ खाना पकाना सीना- पिरोना सब कुछ सिखाया है कहते हुए आसिया बेगम उठी और अपने साथ आये लोगो के  साथ गाड़ी में जा बैठी हाजरा बेगम ने उनकी ओर हूं कहते हुए मुंह बिसूर लिया फरीदा बेगम भी मेहमानों को खा जाने वाली नजरो से देख रही थी। तभी हाजरा बेगम की बूढ़ी सास बोल पड़ी देख हाजरा, मै न कहती थी  बेटी पराया धन होती है यह शानोशौकत दिखाने के बजाय सायमा को आला तालीम के साथ साथ घर गृहस्थी के काम भी  सिखा ताकि ससुराल जाकर वो अपने घर को जन्नत बना सके।

✍️ कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
सिरसी (सम्भल)
9456031926

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ------ मोल भाव


       मैं जब सब्जी लेने पहुंचा,हमारे पड़ोसी अशोक गुप्ता जी सब्जी ले रहे थे।मैं चुपचाप उनके पीछे खड़ा होकर अपनी बारी का इंतजार करने लगा।गुप्ता जी लगभग हर सब्जी के रेट में मोल भाव कर रहे थे।
‌   ----    सब्जी आपस में मिला मत देना।अलग अलग थैली में रखना।
   इसी बीच उन्होंने एक गाजर उठा कर खानी शुरू कर दी थी।सब्जी वाले ने सब्जी पैक कर ,हिसाब जोड़ा --ये लीजिए,105 रुपए हुए आपके।
   गुप्ता जी ने 100 रुपए का नोट उसको थमाया,फिर
विस्मय से बोले -- अरे,धनिया मिर्च तो तूने डाली ही नहीं।
‌   क्या करे साब,इस समय दोनों चीज बहुत महंगी है आपको अलग से लेनी पड़ेगी।आपने 5 रुपए पहले ही कम दिए है।
‌*** कितने साल से सब्जी ले रहे है,अब तू धनिए के भी पैसे लेगा।
‌इतना कहा कर उन्होंने जबरदस्ती धनिया मिर्च ले लिया और जाने लगे तभी उनकी नजर मुझ पर पड़ी ।*----शर्माजी आप,चलिए आप भी सब्जी ले लीजिए , फिर साथ में चलते है।
‌मैंने सब्जी वाले को अपना थैला पकड़ाया ***
‌इसमें 1 किलो आलू,1 किलो प्याज़ और आधा किलो मटर डाल दो।और हां,10 रुपए की धनिया मिर्च भी डाल देना।
‌गुप्ता जी ने मुझे घूर कर देखा,जैसे मैंने कोई बहुत बड़ी गलती कर दी हो।सब्जी वाला भी कभी गुप्ता जी को और कभी मुझे देख रहा था।

 ✍️  डॉ पुनीत कुमार
‌T -2/505
‌ आकाश रेजिडेंसी
‌मधुबनी पार्क के पीछे
‌मुरादाबाद - 244001
‌M - 9837189600

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भक्त की कहानी-----चिड़िया रानी, चिड़िया रानी


         रेनू ने किचन की खिड़की से देखा।नाश्ते में फिर पापाजी ने थाली में रोटी सब्जी बचा दी थी।रात भी वह थाली में खाना बचा कर गेट पर डाल आये थे।वह मन ही मन झुंझला उठी,"पापा जी सठिया गए हैं,खुद ही कहते हैं।अन्न का एक भी दाना बर्बाद नहीं करना चाहिए।चाहे कितनी भी अच्छी सब्जी बना लूँ इन्हें थाली में खाना बचाना ही है।मालूम है यही जताना चाहते होंगे कि खाना स्वाद नहीं बनाती तो पूरा कैसे खायें?पर कह तो सकते हैं कि और रोटी नहीं चाहिए।"
   रेनू को खाना बर्बाद न जाने देने की एक सनक सी थी।वह गरमागरम रोटियांँ बनाती और सबको उनकी जरूरत के अनुसार पूछ पूछ कर उतनी ही रोटियाँ थाली में देती,जितनी जिसे खानी होती ताकि रोटियाँ बर्बाद न जायें या बासी न बचें। पापाजी अक्सर कहते, "बेटा गृहस्थ का घर है,एक दो रोटी फालतू बनी रखी रहें तो अच्छा होता है।कोई भूखा आ जाये तो उसे दे सकते हैं।नहीं तो गाय ,जानवर तो हैं ही।" रेनू कभी कभार तो संयोग से एक रोटी अधिक बना लेती थी।पर अपनी बर्बाद न जाने देने वाली सनक के चलते वह नियमित ऐसा करने से चूक जाती थी।
   रेनू इसी झुंझलाहट में किचन साफ कर रही थी कि उसे छत से कुछ आवाज आती सुनाई दी।वह जिज्ञासा वश छत पर पहुँचने ही वाली थी कि उसे एक गीत के शब्द साफ साफ सुनाई दिये,"चिड़िया रानी,चिड़िया रानी।चुग लो दाना,पी लो पानी।" पापा जी थाली में बची रोटी के टुकड़े टुकड़े कर के छत में फैलाते हुए यह गुनगुना रहे थे और बहुत सी छोटी छोटी गौरैया बेझिझक उन टुकड़ों को चाव से खा रहीं थीं।पापा जी के पाँवों के पास ही गली का वह कुत्ता जिसे कि मोहल्ले वालों ने बहादुर नाम दे रखा था,शान्त आज्ञाकारी शिष्य-सा बैठा था।शायद पापाजी की रात की रोटी का हकदार वही था।रेनू को यह दृश्य देखकर बहुत अच्छा सा लगा।साथ ही उसे अपनी गलती का एहसास भी हुआ।वह किचन में गयी और अपने लिए बना कर रखी रोटी उठा लायी।उसने दबे पांव जाकर वह रोटी बहादुर के आगे डाल दी।बहादुर ने जैसे ही रोटी लपकी,पापाजी के गौरेया से हो रहे संवाद में व्यवधान पड़ गया।पापाजी ने पीछे मुड़कर देखा तो रेनू खड़ी थी,वह मुस्कुरा दिये।अब रेनू भी मुस्कुरा रही थी।
 
✍️हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की लघुकथा-------- गँवार


          मदर्स डे मनाने के लिये पंद्रह वर्ष के  सौरभ  ने अपने पापा से कुछ रुपये लिये और  बाज़ार से एक सुंदर सा गिफ्ट लाकर  अपनी माँ " मोना "को आज मदर्स डे पर  भेंट करते हुए कहा",हैप्पी मदर्स डे!! डियर मम्मा..!!"
"ओहहहहह, थैंक्स बेटा!!"
मोना ने  गिफ्ट लेकर,मुस्कुरा कर सौरभ का माथा चूमते हुए कहा। यह देखकर बरामदे में बैठकर धार्मिक पुस्तक  पढ़ते  हुए सौरभ के बूढ़े दादा ने पूछा,"बेटा आज  तुम्हारी माँ का जन्मदिन है क्या ? यह उपहार किसलिए.......?"
"नहीं दादू...वो आज..मदर्स डे है न,!!..
मतलब आज का दिन माँ के नाम......।"
" ओहहहहह...!! अच्छा.. !अच्छा.."!दादू ने मुस्कुराते हुए कहा।
      "हुँहहह...!!अरे बेटा...किन्हें बता रहे हो ?पहले के लोग बहुत गँवार होते थे।उन लोगों को मदर्स डे और फादर्स डे का क्या पता...!"सौरभ की बात पूरी होने से पहले ही मोना मुँह बिचकाती हुई बोली।
         यह सुनकर बूढ़े दादू  चश्मा उतारकर एक गहरी साँस भरकर .. शून्य में देखते हुए बोले,"सही कह रही हो बहू....!पहले के लोग गँवार ही तो होते थे...।बचपन में बस एक बार श्रवण कुमार की कहानी सुन ली थी....उसके बाद से फिर कभी  अम्मा और पिताजी के लिये अलग से कोई दिन मनाने  की ज़रूरत ही  नहीं पड़ी.....सचमुच गँवार ही रहे हम...।"इतना कहकर बूढे दादू रहस्यमयी हँसी हँसते हुए चश्मा लगाकर फिर से पुस्तक   पढ़ने में व्यस्त हो गये ।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की कहानी -----परिचारिका


तकिये को दोनों हांथों में समेटे मुकुल की अश्रुधारा अचानक बह निकली । सामने उसकी पत्नि अवनि खड़ी थी । उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था ।
       मुकुल ने भी कभी अपनी पत्नी और बच्चों की परवाह नहीं की । पैसा उसके लिये सब कुछ था ।
सेवारत पत्नी के कंधों पर संतान की समस्त जिम्मेदारियां डालकर वह मस्त रहता । पैसे की कमी न होने के कारण उसके भाई बंधु चिकने मुख बिल्लियां चाटें वाली ,कहाबत को साकार कर रहे थे ।        अचानक एक दिन मुकुल की तवीयत बिगड़ने लगी । डॉ साहब ने चेक अप की सलाह दी ।जाँच में वही हुआ जिसका  डर था ,कोरोना पोसिटिव मुकुल जब हॉस्पिटल गया था तो भाई उसके साथ थे लेकिन सात आठ दिन के बाद उसके कोरोना पोसिटिव होने की बात सुनते उनके फोन स्वीच ऑफ हो गए।कई रिश्तेदारों को फोन लगाया पर रातों रात सब कि सब विना संपर्क मेआये ही .. ........".कोरोइंटिन ' ।
अब क्या करता ,पत्नी को फोन लगाया ।कई महीनों से  मायके में रह रही अवनि मुकुल की कॉल देख असमंजस में पड़ गई। उसकी धड़कने बढ़ गई । कहीं मुकुल...... 'नहीं"वो ऐसा नही करेगा ....। मुझे अपने से अलग नही करेगा ।वो मुझे प्रेम नही करता पर मैं तो ..... ...उसको ....।
पिछली सब बातों को एक पल में भूल कर फोन उठाया तो ,मुकुल की बेजान सी आवाज सुनी ।अवनि मुझे तुम्हारी .......। प्लीज आ जाओ ,मैं बहुत अकेला हूँ । सुख के साथियों ने मुझे अकेला छोड़ दिया .....है ।"आओगी न " बताओ ।" नहीं , कभी नही । तुम्ही ने तो कहा था कि यह मनहूस सूरत कभी मत दिखाना । तो नही दिखाउंगी .....। कह कर फोन काट दिया ।
वह नही जायेगी..... कभी नही जायगी ,उस मतलबी इंसान के पास । यह सोचते हुए अवनि की आँख लग गई । फिर सुवह बच्चों को किसी और काम का बहाना कर वह उस दिशा में चल दी जहाँ  वह जाना नही चाहती थी ।
मुकुल को अपनी गलतियों को की एक लंबी सूची अपनी आंखों में नजर आने लगी ।अवनि के सदगुण एक एक कर सामने से गुजरने लगे । ईश्वर मुझे माफ़ करना ,मैने अपने बच्चों  का ख़याल नही रखा ।पत्नी को सम्मान नही दिया ,आज मेरे बच्चे पत्नी मेरे साथ होते गर समय रहते मैं सम्हल जाता .........पर  ,अहम की बातें, मुझे सम्हलने नही देती थीं । इसी विलाप में हृदय  की भावनाओं ने एक कठोर इंसान को रुला दिया । वह सुबकने लगा पर  .......उसे सहारा देने वाला ....       उसके सामने था ।"अवनि तुम'उसके मुंह से निकला।और फिर .....एक जीवन संगिनी ,सच्ची परिचारिका अपने जीवन की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य में तत्पर हो गई ।

✍️डॉ प्रीति हुँकार
मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार सीमा रानी की लघुकथा----- जीवन संध्या


            वर्मा जी ने अपने बच्चों को शहर के प्रमुख स्कूलों में पढ़ाया चाहे उसके लिए उन्हें कितनी फीस क्यों ना चुकानी पड़े। उनकी पत्नी रमा भी अपने दोनों बेटों की इच्छा पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, क्योंकि पैसे की वर्मा परिवार में कोई कमी नहीं थी।
                दोनों बेटे विदेश की प्रसिद्ध कंपनियों में इंजीनियर बन गए एवं दोनों की महीने की तनख्वाह भी लाखों में थी। उन्होंने अपने बराबर की लड़कियों से शादी की एवं अमेरिका में बस गये ।
              वर्मा जी उनकी पत्नी सारे मोहल्ले वालों व रिश्तेदारों में ताल ठोक कर कहते कि शायद उनसे बड़ा सुखी कोई नहीं है क्योंकि उनके बेटे व बहुएं बहुत अच्छा कमाते हैं। सभी पड़ोसी एवं रिश्तेदार उनकी इस बात से सहमत होतेऔर उनके सामने बोलने की हिम्मत ना करते। वर्मा जी को हर किसी में कमी नजर आती व उनकी पत्नी रमा उनसे भी आगे हर महिला के व्यवहार में बहुत कमियां बताती थी।
             समय बीतता गया ,दोनों बेटे अपनी अपनी नौकरी में बहुत व्यस्त रहने लगे।  माता पिता के पास आना तो दूर फोन पर बात करने का भी अब उनके पास समय नहीं होता था। उधर वर्मा जी व उनकी पत्नी पर भी समय ने वृद्धावस्था का प्रभाव जमाना शुरू कर दिया था। उन्हें हर क्षण सहारे की जरूरत पड़ने लगी अथाह पैसा व्यक्ति की जगह नहीं ले सकता यह दोनों पति-पत्नी को समझ आने लगा।
        दोनों को ज्ञात होने लगा कि संतान को केवल पैसा कमाने की ही शिक्षा नहीं देनी चाहिए अपितु तो माता-पिता की जीवन के संध्या समय में देखभाल व  संस्कारों की शिक्षा भी देनी चाहिए। क्योंकि जीवन प्राणी का एक निश्चित समय का सफर मात्र होता है पैसा व्यक्ति को सुख सुविधा दे सकता है परंतु अपनेपन का एहसास कभी नहीं दे सकता। परंतु अब बहुत देर हो चुकी थी अतः उन्होंने स्वयं को बदलने का निश्चय किया एवं दोनों ने अपने बेटों के साथ रहने का फैसला ले लिया क्योंकि वह जान गए अब जीवन संध्या में बच्चों के साथ रहने में ही भलाई है।

 ✍🏻सीमा रानी
  अमरोहा

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी राम किशोर वर्मा की लघुकथा ------ मोबाइल


      "खाना परोस दिया है । छोड़ दो मोबाइल को" की आवाज जैसे ही अंजान जी के कानों से टकरायी वह अपनी पत्नी लता से बोले - "आ रहा हूं । बस कविता की एक पंक्ति लिखनी शेष है ।"
   लता ने कहा -"कैसी कविता हो गयी? 66 साल के हो गये पर लड़कों की तरह मोबाइल पर चिपके रहते हो ।"
    "मैं भी अब आराम करूंगी जब मन हो खा लेना । आंखें लाल हो जाती हैं देखते-देखते। फिर कहते हैं कि चश्मे का नंबर बदलवाना है ।" -लता बुदबुदाते हुए रसोई से निकल गयी ।
   "लो छोड़ दिया लिखना" अंजान ने कहकर मोबाइल को चार्जिंग पर लगा दिया । "अरे ! तुम मेरे भले की ही तो कहती हो । इससे मेरा समय कट जाता है और मेरा शौक भी पूरा हो जाता है ।"
      लता बोली - "थाली ढ़की रखी है । खाना खाकर फिर चिपक जाना मोबाइल पर  और रात को कहना - आई ड्रॉप कहां है?"
   
 ✍️ राम किशोर वर्मा
 रामपुर

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की कहानी ---- सब्जी का धर्म


आलू ले लो, बैंगन ले लो, टमाटर ले लो, आवाज सुनकर गौरी तुरंत मास्क मुँह पर चढ़ाते हुए गेट पर आई और आवाज लगायी, सुनो भैया सब्जी वालो, जरा सब्जी हमें भी दे देना।
हाँ हाँ आया बीबी जी। आज तो सुबह से बोहनी भी नहीं हुई है। कहिए क्या दूँ, शकील बोला।
क्यों झूठ बोल रहे हो, जब सुबह से घूम रहे हो तो बोहनी क्यों न हुई होगी, अब तुम भी झूठ बोलने लगे।
नहीं बीबीजी, झूठ क्यों बोलूँगा, आप तो मुझे बरसों से जानती हैं। यहाँ पूरी कालोनी वाले मुझसे ही सब्जी लेते थे। आज सब मेरा मजहब देखकर मना कर रहे हैं। अब तो ऐसा लग रहा है कि सब्जियों का भी धर्म अलग अलग हो गया है।
क्या बताएं बीबीजी सत्तर दिन के लॉकडाउन में तो एक दिन ठेला नहीं लगा पाये। घर में राशन पानी तक की किल्लत हो गयी, जैसे तैसे बच्चों को रूखी सूखी रोटी दे पाये। अब ठेला लेकर निकले हैं तो हमसे कोई सब्जी नहीं खरीद रहा। अब हम क्या करें, कहाँ जायें, कहते कहते शकील रुँआसा हो गया।
इधर उन दोनों की बातें सुनकर आस पड़ोस की कुछ औरतें भी सड़क पर झाँकने लगीं थीं।
शकील की बात सुनकर गौरी को पिछले दिनों की थूकने वाली बातें याद आ गयीं,अभी वो सब्जी वाले को मना करती, तभी शकील फिर बोला बीबीजी, घर में जितने पैसे थे सब इकट्ठे करके सुबह सुबह मंडी से ये सोचकर सब्जी लेकर चले थे कि सब सब्जी बिक जायेगी तो सौ डेढ़ सौ रुपये कमा लेंगे और बच्चों को ढंग से खिला देंगे, लेकिन अब तो लग रहा है ये पैसे भी डूब जायेंगे और रात को सब्जियां फेंकनी पड़ेंगी। आखिर हमारा क्या कसूर है। हमने तो कालोनी में सबका बुरे वक्त में साथ दिया। आज हमारे साथ कोई नहीं है।
उसकी बात सुनकर गौरी को एकाएक ध्यान आ गया। एक दिन स्कूल से लौटते हुए उसका बबलू साइकिल से गिर गया था, तब यही शकील उसे उठाकर डाक्टर के यहाँ ले गया था और मरहमपट्टी करवाकर घर तक लाया था, और साइकिल भी पहुँचा कर गया था।
तुरंत वह बोल पड़ी : अरे अरे शकील ऐसा मत सोचो। चलो दो किलो आलू, दे दो, और मटर, टमाटर, लौकी, बैंगन, पालक, प्याज सब दे दो।
शकील ने फटाफट सब्जियां तोलकर बाल्टी में डाल दीं।
कितने पैसे हुए।
जी बीबीजी दो सौ दस हो गये।
गौरी ने उसे पाँच सौ का नोट दिया।
अभी वह वापस करने को रुपये निकाल ही रहा था कि गौरी बोली, अरे अभी बाकी पैसे भी तुम रख लो, घर के लिये राशन आदि खरीद लेना, और हाँ कल से इधर गली में जरूर आना। तुम पर भरोसा है, तुम ताजी सब्जी लाते हो, और दाम भी सस्ते लगाते हो, मैं तो तुमसे ही सब्जी लूँगी, गौरी ने ये बात जोर से कही ताकि आसपास की सभी औरतें सुन लें।
बीबीजी आप बड़ी दयालु हो, अल्लाह आप पर नेमतें बरसाये।  कहता हुआ शकील ठेला लेकर चल दिया।

 ✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG - 69
रामगंगा विहार,
मुरादाबाद 244001
मोबाइल नं. 9456641400

मुरादाबाद के साहित्यकार नवल किशोर शर्मा नवल की तीन गजलें -----


बैर जग में नित बढ़ाकर क्या मिलेगा?
पाप की गठरी उठाकर क्या मिलेगा ?

झूठ का लेकर सहारा मत बढ़ो तुम,
झूठ को सिर पर चढ़ाकर क्या मिलेगा?

भावना मन में अगर दूषित रहे तो,
रोज गंगा में नहाकर क्या मिलेगा?

पीर गैरों की अगर चुभती न तुझको,
आंख से पानी बहाकर क्या मिलेगा?

जीत जाओगे जहां को प्यार से तुम,
नफरतों को दिल लगाकर क्या मिलेगा?

हार में भी है छिपी निज जीत तेरी,
जूझ तू मन को सताकर क्या मिलेगा?

रोज रिश्तों में भला तकरार क्यों है?
जो रहें अपने गिराकर क्या मिलेगा?

आग क्यों है लग रही हर एक घर में,
यूं चरागों को जलाकर क्या मिलेगा?

"नवल" जख्मों को कभी भी मत कुरेदो,
घाव को गहरा बनाकर क्या मिलेगा?

(2)

मिटाना चाहता है गर मिटा फिर क्यों नहीं देता।
सितमगर है अगर मेरा सजा फिर क्यों नहीं देता।

वफा मैंने निभाई है,सदा तन-मन लुटा करके
अगर तू बेवफा है तो,दगा फिर क्यों नहीं देता।

सताता भी नहीं मुझको,जताता भी नहीं मुझको,
ये कैसी बेकरारी है,बुझा फिर क्यों नहीं देता।

छिपाता इश्क़ क्यों मुझसे,दिवाना हूँ सदा तेरा,
छिपा है इश्क़ दिल में जो,जता फिर क्यों नहीं देता।

सदा हारा लड़ाई मैं,मुहब्बत की मिरे हमदम,
जरा दिल हारकर अपना,जिता फिर क्यों नहीं देता।

कहीं पाबंदियां तेरी,न करदें अब मुझे पागल,
लिपट कर के गले आंसू,बहा फिर क्यों नहीं देता।

'नवल' मासूमियत तेरी,बड़ी ही क़ातिलाना है,
नयन तेरे कटीले हैं,चुभा फिर क्यों नहीं देता।

(3)

प्यार में कब हुआ है नफ़ा देखिए।
प्यार में कब मिली है दवा देखिए।

प्यार सदियों से' जाता रहा है छला,
प्यार को छल रहे बेबफ़ा देखिए।

प्यार पाने की' हसरत सभी में मगर,
प्यार में जिंदगी को लुटा देखिए।

प्यार के नाम पर वासना ही दिखे,
प्यार पावन नदी है बहा देखिए।

चैन मिलता नहीं जिंदगी में अगर,
प्यार को रूह में भी बसा देखिए।

प्यार करना सरल पर निभाना कठिन,
चंद गिनती मिलें बाबफ़ा देखिए।

प्यार प्यारा लगे  रूह में जब बसे,
रूह से रूह को मत जुद़ा देखिए।

प्यार की डोर से बांध लो ये जहां,
प्यार से पत्थरों को हिला देखिए।

प्यार होता खुदा बंदगी तुम करो,
जिंदगी में 'नवल' फिर मज़ा देखिए।

 ✍️  नवल किशोर शर्मा 'नवल'
बिलारी, मुरादाबाद
मो नं - 9758280028

मुरादाबाद के साहित्यकार ( वर्तमान में आगरा निवासी) ए. टी. ज़ाकिर की कविता ----अब सहर होने को है !


कुछ पहर और मेरी जां,मुझे जीना होगा,
तिरे ,इस ज़ुल्मों-सितम को मुझे पीना होगा.
तेरा हर ज़ुल्म मेरा हौसला बढ़ाता है,
हार तू जायेगा , इतना मुझे बताता है.
आज की रात सितम कर तुझे थक जाना है,
मुझको सहना है सितम, और मुझे बच जाना है.
काली लम्बी सही पर रात खत्म होती है,
ज़ुल्म की स्याही सिमिटती है,सुब्ह होती है.
खूब कुरेद मेरे घाव, मैं न चीखूंगा,
हार मानूंगा नहीं,अश्कों को मैं पी लूंगा.
तिरे इस ज़ुल्मो -सितम की मीयाद थोड़ी है,
कुछ घड़ी और है सहना, मेरी मजबूरी है.
मुझको उफ़ करना नहीं,ओंठ भींच लेने हैं,
अब मुझे दिखने वाले रॊशनी के घेरे हैं.
तू ज़ुल्म करके थक चुका,मगर मैं ज़िन्दा हूं,
आज पिंजड़ा है टूट जाना,वो परिन्दा हूं.
बस अभी आसमां में सुर्ख़ी उभर आयेगी,
हार जायेगा सितमगर,सहर हो जायेगी.
                                               
✍️ ए. टी. ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी
ताजनगरी फेस 2,फतेहाबाद रोड
आगरा-282 001
मोबाइल फोन नंबर. 9760613902,
847 695 4471.
Mail-  atzakir@gmail.com

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मुजाहिद फ़राज की दस गजलों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा ----


            वाट्स एप पर संचालित समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा  'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 14-15 जून 2020 को मुरादाबाद के मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज़ की ग़ज़लों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सबसे पहले डॉ मुजाहिद फ़राज़ ने निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत कीं-

*(1)*

ख़ुद भी आग़ोश में बचपन के वो जाती होंगी
माएं जब लोरियां बच्चों को सुनाती होंगी

ये परिंदे जो उड़े जाते हैं थकते ही नहीं
मंज़िलें पास ही इन को नज़र आती होंगी

दिन तो दुनिया के मसाइल में गुज़रता होगा
मेरी यादें उसे रातों को सताती होंगी

उस के एहसास से ही कानों में रस घुलता है
तितलियाँ राग जो फूलों को सुनाती होंगी

कैसे समझाऊँ मैं नादान तमन्ना को "फ़राज़"
बीती घड़ियां भी कभी लौट के आती होंगी

*(2)*

बस्ते उनके हाथों में हों, ज़हनों में चमकीले ख़्वाब
मुफ़लिस बच्चों की आँखों में अब भी हैं वो लम्हे ख़्वाब

सपने सच भी हो जाते हैं हम तो उस दिन मानेंगें
ताबीरें जिस दिन पहनेंगे अपने रंग बिरंगे ख़्वाब

चाँद-नगर से इक शहज़ादा उस को लेने आयेगा
कुटिया की इक राजकुमारी देख रही है कैसे ख़्वाब

भक्तों ने आदर्शों के सब हीरे-मोती नोच दिये
राम ने किन को सौंप दिये थे अपने युग के उजले ख़्वाब

इक दूजे के दुख और सुख में तन मन धन से लगने के
सब अफ़साने गुज़री बातें, हो गये सारे क़िस्से ख़्वाब

दिल की धड़कन तेज़ है अब भी आँखें अब तक जलती हैं
नादानी में इक दिन हमने देख लिये थे ऐसे ख़्वाब

*(3)*

ज़र्रों में चमकता है जो गौहर नहीं देखा
सूरज ने कभी नीचे उतर कर नहीं देखा

पत्थर था, जो मैं टूट गया उस की तलब में
उस मोम ने इक दिन भी पिघलकर नहीं देखा

महबूब हो, बीवी हो, बहन हो कि हो बेटी
मां जैसा मोहब्बत का समन्दर नहीं देखा

आंखों को ज़रा देर गुमां जिस पे हो घर का
परदेस में ऐसा कोई मंज़र नहीं देखा

किस-किस को सजाया है संवारा है मगर ख़ुद
आईने ने इक दिन भी संवर कर नहीं देखा

हर आज के चेहरे पे थकन है मिरे कल की
यह सोच के बरसों से कलैण्डर नहीं देखा

अच्छा है मुसाफ़िर ही "फ़राज़" ऐसे मकीं से
जो घर में रहा और कभी घर नहीं देखा

*(4)*

यूं तिरी याद का दरवाज़ा खुला रात गए
एक इक लम्हा क़यामत सा कटा रात गए

दिन तो फिर दिन है बहरहाल गुज़र जाता है
हिज्र में होती है नासाज़ फ़ज़ा रात गए

किसकी सांसों से महकती है फ़ज़ा कमरे की
किसने आकर मुझे ख़्वाबों में छुआ रात गए

सारे दुशवार मराहिल से गुज़र जाता हूं
मां मिरे वास्ते करती है दुआ रात गए

जिस्म बिस्तर पे, नज़र दर पे, तमन्ना दिल में
रात यूं गुज़री, कि याद आया ख़ुदा रात गए

याद उसकी मेरी तनहाई सजाने को "फ़राज़"
आई पहने हुए फूलों की क़बा रात गए

*(5)*

वो आज़माएं मझे, उनको आज़माऊँ मैं
फिर आँधियों के लिए इक दिया जलाऊँ मैं

फिर अपनी याद की पुरवाइयाँ भी क़ैद करे
वो चाहता है अगर उस को भूल जाऊँ मैं

उदास आँखों को सौग़ात दे के अश्कों की
ये उसने ख़ूब कहा है कि मुस्कुराऊँ मैं

मियाँ ये ज़ीस्त की सच्चाईयों के क़िस्से हैं
कोई फ़साना नहीं है जिसे सुनाऊँ मैं

फ़िसाद, क़त्ल, तअस्सुब, फ़रेब, मक्कारी
सफ़ेद पोशों की बातें हैं क्या बताऊँ मैं

इसी को कहते हैं मेराज क्या मोहब्बत की!
वह याद आये तो फिर ख़ुद को भूल जाऊँ मैं

तिरे बग़ैर तस्व्वुर ही क्या हो जीने का
अगर वो दिन कभी आए तो मर न जाऊँ मैं

जमाले-यार पे ग़ज़लें तो हो चुकीं हैं बहुत
ये सोचता हूँ उसे आइना दिखाऊँ मैं

*(6)*

यह मत पूछो कच्चे घड़े पर  दरिया  कैसे  पार किया
दीवाना था जान पे खेला लहरों को पतवार किया

इक हमजोली भीतर - भीतर घात लगाता रहता है
इक दुश्मन था सामने आया कहकर मुझ पर वार किया

बीती यादें, चंद किताबें, कुछ तस्वीरें, गहरी सोच
उम्र ढली तो उसने अपने कमरे को संसार किया

इक लोभी ने चैन गवांया, दो दो चार के चक्कर मे
इक दानी को दो पैसों ने जन्नत का हक़दार किया

नादानों ने चार दिनों में उसको जंगल कर डाला
जिस धरती को दीवानों ने खूँ देकर गुलज़ार किया

दुनिया तो धुत्कार चुकी थी नफ़रत और हिक़ारत से
मैं मंज़िल पर कैसे पहुंचा किसने बेड़ा पार किया

दिल जिन से मिलता ही नहीं था उनसे मिलना मजबूरी थी
दिल बेचारा बेबस ठहरा समझौता हर बार किया

*(7)*

उम्र गुज़री इसी मैदान को सर करने में
जो मकाँ हम को मिला था उसे घर करने में

सुब्ह के बाद भी कुछ लोगों की नींदें न खुलीं
और हम टूट गए शब को सहर करने में

इश्क़ आसान कहाँ, उम्र गुज़र जाती है
अपनी जानिब किसी ग़ाफिल की नज़र करने में

मैं जहाँ भर की मुसाफ़त से गुज़र आया हूँ
अपनी आँखों से उन आँखों का सफ़र करने में

लाख दुशवार हो, दिल को तो सुकूँ मिलता है
ज़िन्दगी अपने तरीक़े से बसर करने में

रंग लायेंगी तमन्नाएं ज़रा सब्र करो
वक़्त लगता है दुआओं को असर करने में

आज़मइश से तो बेचारी ग़ज़ल भी गुज़री
इक शहंशाह बहादुर को ज़फ़र करने में ।

*(8)*

पता चला कि मिरी ज़िन्दगी में लिक्खा था
वो जिस का नाम कभी डायरी में लिक्खा था

वो किस क़बीले से है ,कौन से घराने से
सब उसके लहजे की शाइस्तगी में लिक्खा था

नज़र में आये बहुत से सजे-बने चेहरे
मगर जो हुस्न तिरी सादगी में लिक्खा था

वो मुझ ग़रीब की हालत पे और क्या कहता
तमाम ज़हर तो उसकी हंसी में लिक्खा था

गए दिनों की कहानी है जब रईसों का
वक़ार चाल की आहिस्तगी में लिक्खा था

"फ़राज़" ढूँढ रहे हो वफ़ाओं की ख़ुशबू
ये ज़ायका किसी गुज़री सदी में लिक्खा था

*(9)*

बबूल बोते हैं और हम गुलाब मांगते हैं
गुनाह करते हैं उस पर सवाब मांगते हैं

ख़ुदा का नाम भी लेते हैं लोग गिन-गिन कर
ख़ुदा से अज्र मगर बेहिसाब माँगते हैं

तमाम शहर में बे-परदा घूमने वाले
जब अपने गाँव में पहुंचें हिजाब माँगते हैं

गुज़र चुकी है शबे-हिज्र उसकी राह न देख
सहर के बाद कहीं माहताब माँगते हैं

ये लोग करते है दिन-रात भूख- प्यास से जंग
ये किन के चेहरों पे हम आब-ओ-ताब माँगते हैं

इसी को कहते हैं दीवानगी मोहब्बत में
किसी की आँखों में हम अपने ख़्वाब माँगते हैं

शुमार करने हैं लम्हात अपने माज़ी के
नए ज़माने के बच्चे हिसाब माँगते हैं

*(10)*

बीच समुंदर रहता हूँ
लेकिन फिर भी प्यासा हूँ

अपने बच्चों की नज़रों में
मैं दो दिन का बच्चा हूँ

ज़ुल्म सहूँ, ख़ामोश रहूँ
क्या मैं एक फ़रिश्ता हूँ

सदियाँ पढ़ कर दुनिया की
लम्हे इसके समझा हूँ

सच कहने की आदत है
यूँ मैं मुजरिम ठहरा हूँ

भीड़ में तन्हा रहने का
ज़हर हमेशा पीता हूँ

सब अपने से लगते है
मैं भी कितना सीधा हूँ
     
         इन गजलों पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि "फ़राज़ साहब शहर के गम्भीर शायरों में शुमार किये जाते हैं। उनकी ग़ज़लें सामाजिक जीवन के उजालों का सुंदर रूप सामने रखती हैं"।
       वरिष्ठ व्यंग कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "यथार्थ की दुनिया और दुनिया के यथार्थ तक डॉ फ़राज़ की पैनी नज़र विचरण करती प्रतीत होती है। उनकी शायरी से फूंक-फूंक कर कदम रखने की आहट आती है"।
       वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि "कुल मिलाकर डॉ मुजाहिद फ़राज की गजलें एक आम आदमी के दर्द को उजागर करती हैं"।
        समीक्षक डॉ मौहम्मद आसिफ़ हुसैन ने कहा कि "फ़राज़ साहब की ग़ज़लें पढ़ने के बाद यह बात बिना झिझक कही जा सकती है की उनकी ग़ज़लें ज़ुबानो-बयान और फिक्रो-फन के ऐतबार से कसौटी पर खरी उतरती हैं"।
        अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि "डॉ. फ़राज़ ने ज़िंदगी के हर पहलू को बड़ी ही बारीकी से अशआर की शक्ल दी है। उनकी ग़ज़लें बेचैनी, बेबसी और लाचारगी को एक शफ़्फ़ाफ़ आईने में उतारती हैं"।
       डॉ मीना नकवी  ने कहा कि डा. मुजाहिद फ़राज़ साहब एक सुलझे हुये गंभीर इंसान , बेहतरीन शायर और मंझे हुये मंच संचालक हैं।
         हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि डॉ फ़राज की    ग़ज़लें सार्वभौमिता का पुट लिए होती हैं।आम भाषा में ग़ज़लियत भरा गम्भीर चिन्तन व दर्शन पेश कर देना उनकी खूबी है।
         श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि डा• मुज़ाहिद फ़राज़ की गज़लें जिंदगी के विभिन्न पहलुओं, सामाजिक परिवेश और असमानता के कारण उत्पन्न परिस्थितियों को बखूबी दर्शाती हैं।
         फरहत अली खान का कहना था कि मुजाहिद ‘फ़राज़’ की शायरी की दो बड़ी ख़ूबियाँ हैं- ज़बान का आम-फ़हम होना और ख़्याल का गहरा और वसी होना। ख़्याल के लेवल पर आप बड़े डोमेन के शायर हैं। ज़बान को दिल से निकल कर अल्फ़ाज़ में कोडेड हो कर सामने वाले तक पहुँच कर डीकोड हो कर उस के दिल तक पहुँचने में किसी अड़चन का सामना नहीं करना पड़ता। इस तरह की शायरी यक़ीनन असरदार होती है। उनकी शायरी में रिवायत और जदीदियत दोनों ही के निशानात साफ़-तौर पर देखे जा सकते हैं।
       डॉ अज़ीम उल हसन ने कहा कि  मुजाहिद साहब की ग़ज़लों को पढ़कर महसूस हुआ कि आपने शायरी के कैनवास पर अपने जज़्बात और एहसासात की तस्वीर कशी इस नायाब अंदाज़ से की है जिसमें ज़िन्दगी का हर रंग नुमाया है। आपके कलाम को पढ़कर क़ारी को ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाइयों का इल्म होता है।
        मनोज वर्मा मनु ने कहा कि डॉ फ़राज के तक़रीबन सभी  अश'आर  उनकी फ़िक्र, उनकी तमन्ना ...और ज़माने की इन खुरदरी हक़ीक़तों  पर  उनके अंदर के  हस्सासी इंसान की  सकारात्मक नतीजों की ख्वाहिश (ओं ) का  मुज़ाहिरा हैं .. ।
        शिशुपाल मधुकर ने कहा कि ज़िन्दगी की बुनाबट  परतो को व्याख्यायित करती डॉ फ़राज की ग़ज़लें एक नई रोशनी का दीदार करती हैं ।
         ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि "जज़्बों के तवाज़ुन का यह गाढ़ापन डॉ फ़राज़ साहब की शायरी को जहां ठहराव अता करता है वहीं दावते हमसफ़री पर भी आमादा करता है"।

:::::::प्रस्तुति::::::::

✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
 मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मो० 7017612289

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