वाट्स एप पर संचालित समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 14-15 जून 2020 को मुरादाबाद के मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज़ की ग़ज़लों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सबसे पहले डॉ मुजाहिद फ़राज़ ने निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत कीं-
*(1)*
ख़ुद भी आग़ोश में बचपन के वो जाती होंगी
माएं जब लोरियां बच्चों को सुनाती होंगी
ये परिंदे जो उड़े जाते हैं थकते ही नहीं
मंज़िलें पास ही इन को नज़र आती होंगी
दिन तो दुनिया के मसाइल में गुज़रता होगा
मेरी यादें उसे रातों को सताती होंगी
उस के एहसास से ही कानों में रस घुलता है
तितलियाँ राग जो फूलों को सुनाती होंगी
कैसे समझाऊँ मैं नादान तमन्ना को "फ़राज़"
बीती घड़ियां भी कभी लौट के आती होंगी
*(2)*
बस्ते उनके हाथों में हों, ज़हनों में चमकीले ख़्वाब
मुफ़लिस बच्चों की आँखों में अब भी हैं वो लम्हे ख़्वाब
सपने सच भी हो जाते हैं हम तो उस दिन मानेंगें
ताबीरें जिस दिन पहनेंगे अपने रंग बिरंगे ख़्वाब
चाँद-नगर से इक शहज़ादा उस को लेने आयेगा
कुटिया की इक राजकुमारी देख रही है कैसे ख़्वाब
भक्तों ने आदर्शों के सब हीरे-मोती नोच दिये
राम ने किन को सौंप दिये थे अपने युग के उजले ख़्वाब
इक दूजे के दुख और सुख में तन मन धन से लगने के
सब अफ़साने गुज़री बातें, हो गये सारे क़िस्से ख़्वाब
दिल की धड़कन तेज़ है अब भी आँखें अब तक जलती हैं
नादानी में इक दिन हमने देख लिये थे ऐसे ख़्वाब
*(3)*
ज़र्रों में चमकता है जो गौहर नहीं देखा
सूरज ने कभी नीचे उतर कर नहीं देखा
पत्थर था, जो मैं टूट गया उस की तलब में
उस मोम ने इक दिन भी पिघलकर नहीं देखा
महबूब हो, बीवी हो, बहन हो कि हो बेटी
मां जैसा मोहब्बत का समन्दर नहीं देखा
आंखों को ज़रा देर गुमां जिस पे हो घर का
परदेस में ऐसा कोई मंज़र नहीं देखा
किस-किस को सजाया है संवारा है मगर ख़ुद
आईने ने इक दिन भी संवर कर नहीं देखा
हर आज के चेहरे पे थकन है मिरे कल की
यह सोच के बरसों से कलैण्डर नहीं देखा
अच्छा है मुसाफ़िर ही "फ़राज़" ऐसे मकीं से
जो घर में रहा और कभी घर नहीं देखा
*(4)*
यूं तिरी याद का दरवाज़ा खुला रात गए
एक इक लम्हा क़यामत सा कटा रात गए
दिन तो फिर दिन है बहरहाल गुज़र जाता है
हिज्र में होती है नासाज़ फ़ज़ा रात गए
किसकी सांसों से महकती है फ़ज़ा कमरे की
किसने आकर मुझे ख़्वाबों में छुआ रात गए
सारे दुशवार मराहिल से गुज़र जाता हूं
मां मिरे वास्ते करती है दुआ रात गए
जिस्म बिस्तर पे, नज़र दर पे, तमन्ना दिल में
रात यूं गुज़री, कि याद आया ख़ुदा रात गए
याद उसकी मेरी तनहाई सजाने को "फ़राज़"
आई पहने हुए फूलों की क़बा रात गए
*(5)*
वो आज़माएं मझे, उनको आज़माऊँ मैं
फिर आँधियों के लिए इक दिया जलाऊँ मैं
फिर अपनी याद की पुरवाइयाँ भी क़ैद करे
वो चाहता है अगर उस को भूल जाऊँ मैं
उदास आँखों को सौग़ात दे के अश्कों की
ये उसने ख़ूब कहा है कि मुस्कुराऊँ मैं
मियाँ ये ज़ीस्त की सच्चाईयों के क़िस्से हैं
कोई फ़साना नहीं है जिसे सुनाऊँ मैं
फ़िसाद, क़त्ल, तअस्सुब, फ़रेब, मक्कारी
सफ़ेद पोशों की बातें हैं क्या बताऊँ मैं
इसी को कहते हैं मेराज क्या मोहब्बत की!
वह याद आये तो फिर ख़ुद को भूल जाऊँ मैं
तिरे बग़ैर तस्व्वुर ही क्या हो जीने का
अगर वो दिन कभी आए तो मर न जाऊँ मैं
जमाले-यार पे ग़ज़लें तो हो चुकीं हैं बहुत
ये सोचता हूँ उसे आइना दिखाऊँ मैं
*(6)*
यह मत पूछो कच्चे घड़े पर दरिया कैसे पार किया
दीवाना था जान पे खेला लहरों को पतवार किया
इक हमजोली भीतर - भीतर घात लगाता रहता है
इक दुश्मन था सामने आया कहकर मुझ पर वार किया
बीती यादें, चंद किताबें, कुछ तस्वीरें, गहरी सोच
उम्र ढली तो उसने अपने कमरे को संसार किया
इक लोभी ने चैन गवांया, दो दो चार के चक्कर मे
इक दानी को दो पैसों ने जन्नत का हक़दार किया
नादानों ने चार दिनों में उसको जंगल कर डाला
जिस धरती को दीवानों ने खूँ देकर गुलज़ार किया
दुनिया तो धुत्कार चुकी थी नफ़रत और हिक़ारत से
मैं मंज़िल पर कैसे पहुंचा किसने बेड़ा पार किया
दिल जिन से मिलता ही नहीं था उनसे मिलना मजबूरी थी
दिल बेचारा बेबस ठहरा समझौता हर बार किया
*(7)*
उम्र गुज़री इसी मैदान को सर करने में
जो मकाँ हम को मिला था उसे घर करने में
सुब्ह के बाद भी कुछ लोगों की नींदें न खुलीं
और हम टूट गए शब को सहर करने में
इश्क़ आसान कहाँ, उम्र गुज़र जाती है
अपनी जानिब किसी ग़ाफिल की नज़र करने में
मैं जहाँ भर की मुसाफ़त से गुज़र आया हूँ
अपनी आँखों से उन आँखों का सफ़र करने में
लाख दुशवार हो, दिल को तो सुकूँ मिलता है
ज़िन्दगी अपने तरीक़े से बसर करने में
रंग लायेंगी तमन्नाएं ज़रा सब्र करो
वक़्त लगता है दुआओं को असर करने में
आज़मइश से तो बेचारी ग़ज़ल भी गुज़री
इक शहंशाह बहादुर को ज़फ़र करने में ।
*(8)*
पता चला कि मिरी ज़िन्दगी में लिक्खा था
वो जिस का नाम कभी डायरी में लिक्खा था
वो किस क़बीले से है ,कौन से घराने से
सब उसके लहजे की शाइस्तगी में लिक्खा था
नज़र में आये बहुत से सजे-बने चेहरे
मगर जो हुस्न तिरी सादगी में लिक्खा था
वो मुझ ग़रीब की हालत पे और क्या कहता
तमाम ज़हर तो उसकी हंसी में लिक्खा था
गए दिनों की कहानी है जब रईसों का
वक़ार चाल की आहिस्तगी में लिक्खा था
"फ़राज़" ढूँढ रहे हो वफ़ाओं की ख़ुशबू
ये ज़ायका किसी गुज़री सदी में लिक्खा था
*(9)*
बबूल बोते हैं और हम गुलाब मांगते हैं
गुनाह करते हैं उस पर सवाब मांगते हैं
ख़ुदा का नाम भी लेते हैं लोग गिन-गिन कर
ख़ुदा से अज्र मगर बेहिसाब माँगते हैं
तमाम शहर में बे-परदा घूमने वाले
जब अपने गाँव में पहुंचें हिजाब माँगते हैं
गुज़र चुकी है शबे-हिज्र उसकी राह न देख
सहर के बाद कहीं माहताब माँगते हैं
ये लोग करते है दिन-रात भूख- प्यास से जंग
ये किन के चेहरों पे हम आब-ओ-ताब माँगते हैं
इसी को कहते हैं दीवानगी मोहब्बत में
किसी की आँखों में हम अपने ख़्वाब माँगते हैं
शुमार करने हैं लम्हात अपने माज़ी के
नए ज़माने के बच्चे हिसाब माँगते हैं
*(10)*
बीच समुंदर रहता हूँ
लेकिन फिर भी प्यासा हूँ
अपने बच्चों की नज़रों में
मैं दो दिन का बच्चा हूँ
ज़ुल्म सहूँ, ख़ामोश रहूँ
क्या मैं एक फ़रिश्ता हूँ
सदियाँ पढ़ कर दुनिया की
लम्हे इसके समझा हूँ
सच कहने की आदत है
यूँ मैं मुजरिम ठहरा हूँ
भीड़ में तन्हा रहने का
ज़हर हमेशा पीता हूँ
सब अपने से लगते है
मैं भी कितना सीधा हूँ
इन गजलों पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि "फ़राज़ साहब शहर के गम्भीर शायरों में शुमार किये जाते हैं। उनकी ग़ज़लें सामाजिक जीवन के उजालों का सुंदर रूप सामने रखती हैं"।
वरिष्ठ व्यंग कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "यथार्थ की दुनिया और दुनिया के यथार्थ तक डॉ फ़राज़ की पैनी नज़र विचरण करती प्रतीत होती है। उनकी शायरी से फूंक-फूंक कर कदम रखने की आहट आती है"।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि "कुल मिलाकर डॉ मुजाहिद फ़राज की गजलें एक आम आदमी के दर्द को उजागर करती हैं"।
समीक्षक डॉ मौहम्मद आसिफ़ हुसैन ने कहा कि "फ़राज़ साहब की ग़ज़लें पढ़ने के बाद यह बात बिना झिझक कही जा सकती है की उनकी ग़ज़लें ज़ुबानो-बयान और फिक्रो-फन के ऐतबार से कसौटी पर खरी उतरती हैं"।
अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि "डॉ. फ़राज़ ने ज़िंदगी के हर पहलू को बड़ी ही बारीकी से अशआर की शक्ल दी है। उनकी ग़ज़लें बेचैनी, बेबसी और लाचारगी को एक शफ़्फ़ाफ़ आईने में उतारती हैं"।
डॉ मीना नकवी ने कहा कि डा. मुजाहिद फ़राज़ साहब एक सुलझे हुये गंभीर इंसान , बेहतरीन शायर और मंझे हुये मंच संचालक हैं।
हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि डॉ फ़राज की ग़ज़लें सार्वभौमिता का पुट लिए होती हैं।आम भाषा में ग़ज़लियत भरा गम्भीर चिन्तन व दर्शन पेश कर देना उनकी खूबी है।
श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि डा• मुज़ाहिद फ़राज़ की गज़लें जिंदगी के विभिन्न पहलुओं, सामाजिक परिवेश और असमानता के कारण उत्पन्न परिस्थितियों को बखूबी दर्शाती हैं।
फरहत अली खान का कहना था कि मुजाहिद ‘फ़राज़’ की शायरी की दो बड़ी ख़ूबियाँ हैं- ज़बान का आम-फ़हम होना और ख़्याल का गहरा और वसी होना। ख़्याल के लेवल पर आप बड़े डोमेन के शायर हैं। ज़बान को दिल से निकल कर अल्फ़ाज़ में कोडेड हो कर सामने वाले तक पहुँच कर डीकोड हो कर उस के दिल तक पहुँचने में किसी अड़चन का सामना नहीं करना पड़ता। इस तरह की शायरी यक़ीनन असरदार होती है। उनकी शायरी में रिवायत और जदीदियत दोनों ही के निशानात साफ़-तौर पर देखे जा सकते हैं।
डॉ अज़ीम उल हसन ने कहा कि मुजाहिद साहब की ग़ज़लों को पढ़कर महसूस हुआ कि आपने शायरी के कैनवास पर अपने जज़्बात और एहसासात की तस्वीर कशी इस नायाब अंदाज़ से की है जिसमें ज़िन्दगी का हर रंग नुमाया है। आपके कलाम को पढ़कर क़ारी को ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाइयों का इल्म होता है।
मनोज वर्मा मनु ने कहा कि डॉ फ़राज के तक़रीबन सभी अश'आर उनकी फ़िक्र, उनकी तमन्ना ...और ज़माने की इन खुरदरी हक़ीक़तों पर उनके अंदर के हस्सासी इंसान की सकारात्मक नतीजों की ख्वाहिश (ओं ) का मुज़ाहिरा हैं .. ।
शिशुपाल मधुकर ने कहा कि ज़िन्दगी की बुनाबट परतो को व्याख्यायित करती डॉ फ़राज की ग़ज़लें एक नई रोशनी का दीदार करती हैं ।
ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि "जज़्बों के तवाज़ुन का यह गाढ़ापन डॉ फ़राज़ साहब की शायरी को जहां ठहराव अता करता है वहीं दावते हमसफ़री पर भी आमादा करता है"।
:::::::प्रस्तुति::::::::
✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मो० 7017612289
एक और सराहनीय आयोजन। हार्दिक बधाई।
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