बुधवार, 1 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी---- बाल मिठाई


    ... बस हरे भरे पर्वतों के बीच से हिचकोले खाती हुई चली जा रही थी मोड़ पर मोड़ आते  जा रहे थे लगता था जैसे किसी हिंडोले में बैठे हों.... दोनों ही ओर बहुत सुंदर पहाड़ी दृश्य थे इनके बीच से सर्पीली सड़क पर बस तेजी से आगे बढ़ रही थी ...आदि और अनीता प्यार और उल्लास में डूबे अलौकिक आनंद का अनुभव कर रहे थे उन दोनों की नयी नयी शादी हुई थी और वे आदि के मित्र दिलीप के साथ अल्मोड़ा जा रहे थे दिलीप पंत की अल्मोड़ा में ननिहाल थी ननिहाल में सब आदि को अपना ही बच्चा मानते थे और आदि और अनीता उन्हीं के बुलावे पर अल्मोड़ा जा रहे थे के.एम.ओ की बस में बड़ी घिचपिच थी और भीड़ के कारण सामान का भी लोगों को ठीक से ध्यान नहीं हो पा रहा था.... हल्द्वानी से चलकर बस गर्म पानी में रुकी फिर अल्मोड़ा के पास बस दोबारा रुकी तभी अनीता ने देखा कि उसकी अटैची गायब है आपस में बात करने पर पता लगा कि हल्द्वानी छूट गई यह देखकर आदि और अनीता सकते में आ गए क्योंकि अटैची में कपड़ों के साथ साथ कुछ कीमती जेवर और करीब ₹10000 भी थे जिनका अब मिलना बहुत मुश्किल था सारा मजा खराब हो गया रास्ते में कुछ  ठीक से खाया पिया भी नहीं गया तभी दिलीप पंत ने आदि से कहा कि मैं अटैची लेने हल्द्वानी वापस जा रहा हूं आप लोग अल्मोड़ा पहुंचो पंत दूसरी बस से हल्द्वानी के लिए लौट गया बस अल्मोड़ा पहुंच गई रात हो चुकी थी बाकी बचे हुए सामान के साथ आदि और अनीता दिलीप के ननिहाल में पहुंचे सब को बड़ी चिंता हो रही थी ,,अरे! दिलीप नहीं आया!,, घर में प्रवेश करते ही मामा जी ने कहा तो आदि ने बताया कि इस तरह से अटैची छूट गयी उसी को वापस लेने हल्द्वानी लौट गया है सभी यही सोच रहे थे कि नहीं मिलेगी सबने खाना खाया रात के 1:00 बजे घर पर दस्तक हुई दिलीप लौट आया था परंतु अटैची नहीं मिली सभी बहुत परेशान थे ....अनीता के पास तो पहनने को कपड़े भी नहीं थे अब अटैची मिलने का कोई प्रश्न ही नहीं था.... ....जैसे-तैसे सुबह हुई एक व्यक्ति गेट पर आया आने वाला जिसका नाम जगदीश पांडेय था मामा जी से कुछ बातें कर रहा था,, आपके यहां कुछ मेहमान आए हैं,,,?,, मामा जी ने कहा,, हां,, उनकी अटैची हल्द्वानी बस स्टैंड पर छूट गई थी?... हां !..... तब तक घर के सभी लोग गेट पर पहुंच गए थे.... आदि और अनीता को अटैची देखकर बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ जगदीश ने बाकायदा पूरी लिस्ट बनाई हुई थी ..  एक एक चीज पूछ कर संतुष्ट होने पर ही उसने अटैची वापस की  कपड़े तक पहचानने के बाद ही जगदीश की संतुष्टि हुई अनीता ने कहा ,,भैया इसमें कुछ पैसे भी थे,,,,और भी कुछ था ?उसनेे पूछा ,,भैया उसमें मेरे कंगन और माथे का टीका भी थे,, जगदीश ने एक-एक सामान वापस कर दिया और बताया यदि अटैची में यहां का पता लिखा कार्ड नहीं होता तो मैं आ भी नहीं पाता ....सभी ने उसका धन्यवाद किया अनीता ने खासतौर से कहा,, भैया बहुत-बहुत धन्यवाद,, जगदीश ने कहा,,भाई कहा है तो धन्यवाद कैसा ,,?  दिलीप ने कहा कुछ तो लेना पड़ेगा ₹1000 देने की कोशिश की परंतु जगदीश ने कुछ भी नहीं लिया ।
       1 सप्ताह बाद वे लोग घर लौटने लगे..... बस में  खिड़की की तरफ अनीता बैठी हुई थी तभी ...अचानक जगदीश दिखाई पड़ा उसके हाथ में एक मिठाई का डिब्बा था अनीता को देते हुए उसने कहा लो दीदी ! रास्ते के लिए इसमें कुछ मीठा है..... वह बाल मिठाई का खूबसूरत डिब्बा था तत्काल ही बस चल दी दूर तक जगदीश हाथ हिलाते हुए दिखाई देता रहा.... अनीता को उसमें अपने भाई की छवि ही नजर ... आ रही थी ..
           अब जब भी कहीं बाल मिठाई दिखाई देती है अनीता को वही घटना याद आ जाती है.. सचमुच पूरी घटना काल्पनिक लगती है .... परंतु यह सत्य कथा है।

✍️ अशोक विद्रोही
 412 प्रकाश नगर
 मुरादाबाद
82 188 25 541

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघु कथा ----- तलाक


आज न्यायालय में उपस्थित जज़ साहब भी आश्चर्य थे जब उन्होंने सुना कि शादी के 28 साल बाद उर्मिला ने अपने पति से तलाक लेने हेतु मुकदमा डाला है।समाज के वे एक खशहाल परिवार के रुप में माने जाते थे।
       जज़ साहब बोले," एक बार सोच लीजिए "।उर्मिला बोली ,"सोच कर ही किया है श्रीमान।जब इनके विवाहेत्तर सम्बध को साक्षात अपनी आँखों से देखा था उसी दिन इन्हें छोडने का निश्चय कर लिया था ।मगर  परिवार की इज्ज़त का वास्ते कुछ न कर सकी।किन्तु मन से अपना न सकी।समाज के तलाक शुदा के बच्चों के प्रति व्यवहार जानते हुए,हम दोनों ने अलग अलग कक्षो मे रहने का फैसला लिया।और एक सहमति पत्र बना लिया था।आज मेरी बेटी की भी शादी हो चुकी है। बेटा भी अच्छे पद पर काम कर रहा है।आज वो मेरी स्थिति को समझ सकते है।उन्हें भी आपत्ति नहीं है। अपने समस्त उत्तरदायित्व मैने निबाहे है ।अब अपने सम्मान केसाथ जीना चाहती हूं।जज़ साहब पिछले 20वर्षों से केवल दिखावे के रिश्ते से आजादी चाहती हूँ।"

✍️ डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रागिनी गर्ग की कहानी -----भावनाओं की सूखी रेत



भूमि को अशोक अंकल  ने फोन करके अस्पताल आने को कहा।......
"भूमि!जल्दी, सिटी हास्पिटल पहुँचो ,दीपक को बहुत चोट आयी है।दीपक आइ सी यू में भर्ती है"
एक पल भी बिना गँवाए भूमि जिस हाल में  थी उसी हाल में अस्पताल पहुँची। उसे डा. अशोक बाहर ही खड़े मिले। वो भूमि के पापा के अच्छे दोस्त थे। सुबह अस्पताल आते समय,दीपक को सड़क से उठाकर वही अस्पताल लाये थे। दीपक का इलाज भी वही कर रहे थे।....
भूमि को देखते ही बोले, "बेटी! मैं तुमको किसी अँधेरे में नहीं रखना चाहता हूँ। दीपक की साँसें चन्द घड़ी की मेहमान हैं। मैंने बहुत कोशिश की,उसको बचाने की पर सिर में चोट काफी गहरी लगी है, और खून भी बहुत बह चुका है।अतःमैं उसको नहीं बचा पाऊँगा।जाओ!आखिरी बार उससे जाकर मिल लो।" .......
यह सुनकर, भूमि के कदम जड़वत हो गये, गला रुँध गया, आँखें पथरा गयीं और शरीर चेतना खोने लगा। वो गिर ही जाती अगर अंकल ने उसको सम्भाल न लिया होता।
वो उसको  साथ लेकर दीपक के पास गये। ......
भूमि दीपक से बस इतना ही बोल पायी, "दीपक! तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।"
तभी ,दीपक ने भूमि को देखकर आखिरी हिचकी ली,जैसे वो सिर्फ उसके आने का ही इन्तजार  कर रहा था और जिन्दगी शरीर रुपी मुठ्ठी से सरक गयी ।वैसे ही जैसे बन्द मुट्ठी से रेत सरक जाती है। ......
अशोक अंकल ने भूमि को सहारा दिया,और बोले,"बेटा!दीपक बच सकता था ,अगर लोगों में  थोडी़ सी भी संवेदनशीलता जिंदा होती।
भूमि बोली ,"मतलब अंकल?मैं कुछ समझी नहीं।"
"समझाता हूँ बेटा! मुझे दीपक सड़क पर बेहोश हालत में मिला तब तक उसका बहुत खून बह चुका था। आस-पास लोगों की भीड़ तो बहुत थी, लेकिन कोई मदद करने वाला नहीं था।सभी वीडियो बनाने में व्यस्त थे। अगर दीपक थोड़ी देर पहले हास्पिटल पहुँच जाता ,तो हम उसे बचा सकते थे।"
 "तुमको याद होगी भूमि! सूरत हादसे में घटी घटना,कितने बच्चे असमय काल का ग्रास बन गये थे। मेरे मानस पटल से तो वो हटती ही नहीं।बच्चे आग से बचने के लिए एक-एक कर ऊपर से नीचे कूदते रहे। किसी ने नहीं सोचा उनको बचाने के बारे में।और तो और यह संवेदनहीनता ही हर  रोज अनेकों दुर्घटनाग्रस्त लोगों की जान जाने का  कारण  है।
यह हमारा दुर्भाग्य है बेटी! हम अपनी भावनाओं को एकदम सूखी रेत बनाते जा रहे हैं।जबकि सूखी रेत रुक नहीं पाती, बन्द मुठ्ठी में भी नहीं।अगर वीडियो बनाने या फोटो खींचने की जगह उस चोटिल इन्सान को हस्पताल तक पहुँचा दें ,तो कई ज़िन्दगियाँ मुठ्ठी से नहीं फिसलेगी,यह मेरा दावा है।"
भूमि आँसू पौंछते हुये बोली, "अंकल!  आज मैं ये प्रण लेती हूँ ।कभी भी भावनाओं की रेत को नहीं सूखने दूँगी अपनी भावनाओं को गीली रेत बनाउँगी। जिससे लोगों की मदद करने का ज़ज्बा मुझमें बरकरार रहे।"
"बंद मुट्ठी रेत सूखी अब न फिसलेगी कहीं।"

✍️ रागिनी गर्ग
रामपुर (यूपी)

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मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार राम किशोर वर्मा की कहानी ------पटरी का सब्जीवाला


    "नौ बज गये। कब नहाओगे ?"    मनीषा ने पति से कहा - "छोड़ो इस अखबार को । और तुम्हें काम ही क्या है ? दिनभर पड़ा है पढ़ने को ।"
    "लो भई छोड़ दिया ।" कहते हुए मयंक पत्नी से बोला -"जिंदगी भर इतना काम किया है। रिटायरमेंट के बाद भी चैन से बैठा हुआ देखना नहीं चाहतीं।"
      "वो याद आया । टमाटर आने हैं ।" मनीषा ने पति से कहा - "नहाना बाद में । अनलॉक हो गया तो क्या हुआ ? बाजार से आकर नहाना पड़ेगा । इसलिए पहले टमाटर ले आओ। दो-एक सब्जी और ले आना । नहीं तो शाम को तुम्हें बाजार जाने का फिर बहाना मिल जायेगा।"
   मयंक ने थैला उठाया और पैदल ही बाजार की ओर चल दिया ।
    आज मयंक ने एक नये व्यक्ति को पटरी पर सब्जी बेचते देखा । वह रुक गया और पटरी पर रखी सब्जियों पर निगाह मार कर पूंँछा- "आलू नहीं है?"
      सब्जी वाले ने न में सिर हिला दिया ।
       सब्जी वाले जिस स्थायी दुकानदार से मयंक सब्जी लेता था उससे उसने दो किलो आलू लिये । थोड़ी मिर्च यों ही डाल दीं उसने और वह लेकर लौट पड़ा ।
       जब मयंक आलू ले रहा था तो उसने अन्य ग्राहकों से टमाटर, भिण्डी और लौकी के भाव सुन लिये थे ।
           लौटते समय मयंक सोच रहा था कि मैं पटरी के सब्जी वाले से शेष सब्जियांँ लूंँगा । लॉक डाउन के बाद आज यह यहां अकेला कुछ उम्मीद से सब्जी बेचने बैठा होगा । उसके भी बीबी-बच्चे होंगे । दो पैसे का फायदा उसे ही सही । स्थायी दुकानदार से तो खरीदने सभी चले जाते हैैं ।
         यह सब सोचता हुआ मयंक उस पटरी के सब्जीवाले के पास पहुंँच कर रुक गया ।
           पटरी के सब्जीवाले से मयंक ने पूंँछा - "टमाटर क्या भाव हैं?"
       उसने कहा - " 15₹ किलो ।"
       फिर मयंक ने पूंँछा -"यह भिण्डी और लौकी ?"
       उसने कहा - "भिण्डी आपको 25₹ लगा दूंँगा और लौकी 15₹ किलो है । आप ले लो ।"
        मयंक मन-ही-मन स्थायी दुकानदार के भावों की तुलना कर रहा था । कितना अंतर है उसके और इसके भावों में? मयंक ने एक-एक किलो सभी सब्जियांँ थैले में ले लीं । पर इसने हरी मिर्च यों ही नहीं डालीं । मयंक भी समझ गया कि वह अधिक भाव लगाकर थोड़ी हरी मिर्च डालकर बहला देता है । यह सही भाव लगा रहा है तो हरी मिर्च यों ही कैसे देगा ?
     मयंक ने पूंँछा - "कुल कितने ₹ हुए आपके ?"
       उसने हिसाब लगाया और बोला - " 55₹"
         मयंक ने ₹ दिये और घर की ओर चल दिया ।
          घर आकर मयंक ने रोज की तरह सब सब्जियांँ धोयीं और मनीषा को बताया कि मैं आज एक पटरी के नये सब्जीवाले से सब्जी लेकर आया हूं। बेचारा यह सोचकर यहां बैठ गया होगा कि यहांँ जल्दी बिक जायेंगी ।
      मनीषा मयंक का मुंँह ताकती बोली - "तुम नये सब्जीवाले से सब्जी ले आये ! जिसे तुम जानते नहीं । जिसकी स्थायी दुकान नहीं ! कोरोना खत्म नहीं हुआ है। केवल लॉक डाउन हटा है । सामान केवल परिचित दुकान से लाओ ।"
    मयंक सोच रहा था कि  कोरोना ने कहांँ-कहांँ दूरियाँ पैदा कर दी हैं । इसे खत्म करना ही पड़ेगा ।
     मयंक मनीषा से यह कहता हुआ :- "यह सब्जियांँ तुम मत खाना। मुझे खिलाना।"  नहाने के लिए बाथरूम में घुस गया ।
 
✍️ राम किशोर वर्मा
रामपुर
      

मुरादाबाद के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफ़ा की कहानी----- नहीं...नहीं....नहीं....


वह जब घर आती तो उसका चेहरा देखकर उसका भी दिल खिल उठता, जिस दिन वह नही आती उस दिन वह भी बुझा बुझा सा रहता ।वह आती तो उसकी ओर देखकर मुस्कराती उससे बातें करती उसे भी उससे बातें करना अच्छा लगता था। पिछले कई माह से यह सिलसिला चल रहा था ।दोनों में एक दूसरे के प्रति हमदर्दी थी । हर बात में दोनों एक दूसरे के समर्थक होते दोनों की पसंद न पसन्द भी मिलती जुलती थी । अरमान काफी दिन से अजीब कशमकश में था कि किस तरह शगुफ्ता से अपने प्यार का इज़हार करे और उसका जवाब ले । अरमान को उम्मीद थी कि शगुफ्ता की उसके प्रति जो हमदर्दी और लगाव है उसे देखते हुए वह अपने मकसद में कामयाब होगा ।
      बुधवार को  घर के सब लोग  अदनान चाचा के बेटे की सालगिरह में गये हुए थे । वो तबियत ठीक न होने का बहाना करके घर मे रुक गया था । शाम के पांच बजे वह घर मे बैचेनी से टहल रहा था । बार बार उसकी निगाह दरवाजे की ओर जाती और मायूस होकर लौट आती । उसके  दिल दिमाग  में विचारों की उथल पुथल चल रही थी लेकिन आज उसने पक्का इरादा कर लिया था कि शगुफ्ता से अपने सवाल का जवाब लेकर ही रहेगा कुछ ही देर बाद घर की बैल बजी उसने दौड़कर दरवाजा खोला । दरवाजे से हसती खिलखिलाती शगुफ्ता अंदर आई लेकिन घर मे सन्नाटा देखकर उसने अरमान पर सवालों की झड़ी लगा दी । रुखसाना कहाँ है, अंकल आंटी कहाँ है, अरमान ने हँसते हुए उसे बताया कि सब लोग अदनान चाचा के यहाँ सालगिरह में गये हुए है । सुनकर शगुफ्ता जाने लगी तो अरमान ने हाथ पकड़कर उसे रोक लिया बोला तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है । जरा बैठो, शगुफ्ता रुक गई सोफे पर बैठते हुए बोली कहिये क्या बात है ।अरमान ने हिम्मत करके बोलना शुरू किया शगुफ्ता मै तुमसे बहुत प्यार करता हूं तुमसे शादी करना चाहता हूं क्या तुम मुझसे शादी करोगी । सुनते ही शगुफ्ता का चेहरा जर्द पड़ गया अगले ही पल वह दोनों कानो पर हाथ रखकर जोर से चिल्लाई  'नहीं' 'नहीं' 'नहीं' । शगुफ्ता का जवाब सुनकर अरमान पर जैसे बिजली सी गिर गई हो लेकिन उसने अपने को संभालते हुए याचना के अंदाज़ में कहा -- शगुफ्ता मै तुम्हे बहुत चाहता हूं । तुम्हारे बिना जी नही सकूंगा प्लीज़ मान जाओ ।आखिर मुझमे क्या कमी है। अब शगुफ्ता के बोलने की बारी थी उसका जवाब सुनकर अरमान के पास कोई और सवाल करने  की हिम्मत नही थी शगुफ्ता रोते हुए कह रही थी मै भी आपसे बहुत प्यार करती हूं भाईजान आप मेरी सहेली रुखसाना के सगे भाई है लेकिन मै भी आपको सगे भाई से बढ़कर मानती हूं  इसीलिये आपसे हस बोल लेती हूं लेकिन मुझे क्या पता था कि ज्यादातर मर्द एक जैसे होते है किसी से हसने बोलने का मतलब वह कुछ और लगा लेते है क्या प्यार भाई या दोस्त से नही किया जाता एक एक्सीडेंट में मेरे एकलौते भाई नुरुल की मौत हो गई थी लेकिन रुखसाना से मुलाकात के बात जब आप मिले तो मुझे  लगा कि भाई के रूप में मुझे नुरुल मिल गया मुझे क्या पता था कि मेरे हसने बोलने से आपके दिमाग मे कुछ और चल रहा है शगुफ्ता की बात सुनकर निदामत से अरमान की आंखों से आंसू बह निकले दोनों हाथों से मुंह छिपाकर अरमान शगुफ्ता से कह रहा था शगुफ्ता बहन मुझे माफ़ करदो वाकई मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई है मैने तुम्हे गलत समझा प्यारी बहन आज से मेरे लिये तुम वैसी ही हो जैसी मेरी बहन रुखसाना ।

✍️  कमाल ज़ैदी ' वफ़ा'
 सिरसी (सम्भल)
9456031926

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी -----जिसकी लाठी उसकी भैंस


"मैंने कहा था न कि अभी मेरे साथ शहर मत चलो, जब घर का बंदोबस्त हो जाए तभी चलना मगर तुमको तो बस मेरे साथ यहां आने की जिद सी थी... अब रहो इस घौंसले में और...... l"
​"अजी आप तो ऐसे गुस्सा हो रहे हैं जैसे दुनियाँ की हम पहली महिला हों जिसने अपने पति के साथ नौकरी पर संग जाने की जिद की हो l"स्वर्णा को भी गुस्सा आ गया और वह अपने पति सुकुमार पर विफर पडी l
​"अब तुम फिर गुस्सा हो गईं भाग्यवान.... अब देखो न चार दिन हुए हैं हमें इस घर में आये हुए, मकान मालिक ने टोका टाकी शुरू कर दी... यह मत करो... वहाँ वो मत रखो.... l"सुकुमार पत्नी को समझाते हुए बोले l
​"अरे तभी तो कह रहे हैं कि आप इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं, फिर आप वहां पर कोई क्वार्टर क्यों नहीं ले लेते? "स्वर्णा ने दोनों हाथ चलाते हुए कपडे बाहर छोटी सी बालकॉनी में सुखाते हुए कहा l
​"क्वार्टर क्या गाँव के घर जैसे हैं? "वह तिलमिला कर बोला.
​"महल जैसे नहीं मगर मकान मालिक की दुत्कार से तो बचा ही जा सकता है l"वह फिर गुस्से से बोली l
​"पांच साल हो गए शादी को.... अभी तक गोद सूनी है हमारी.... उधर सासु माँ को पोती पोता चाहिए... और उनका लड़का साथ रखना नहीं चाहता.... काहे विवाह किया तुमने हमसे? "वह गुस्से से साग को घोटते हुए बोली l
​"स्वर्णा... ऐसी बात नहीं है..... यूनिवर्सिटी में कोई क्वार्टर खाली है ही नहीं... l"
​"कभी होंगे भी नहीं l"वह गुस्से से आटे को गूंधते हुए बुदबुदाई l
​"आज का पेपर पड़ा? कैसे विद्यार्थी धरना प्रदर्शन कर रहे हैं... देखो न कुछ तो कई कई सालों से रह रहे हैं... पढ़ाई पूरी हो गई फिर भी..... और और कइयों ने तो अपने रिश्तेदारों को भी रख लिया है... जिनके अच्छे सोर्स हैं l"
​"अच्छा..... वहाँ घर मिलने के लिए सोर्स का होना भी जरूरी है का?
​? और नहीं तो क्या......'जिसकी लाठी उसकी भैंस' l"वह बुदबुदाया l
​"नंबर लगा दो.... मिल ही जाएगा l"उसने खाना परोसते हुए लापरवाही से कहा l
​"कबसे नंबर लगा पड़ा है मगर अभी तक आया ही नहीं l"सुकुमार ने बुझी आवाज में कहा l
​"कोई भी प्रोफेसर नहीं रहता क्या वहाँ? "
​"रहते हैं न l"
​"तो शायद आपसे ही कोई जाति दुश्मनी है उन लोगों की? "स्वर्णा ने व्यंगात्मक लहजे मे कहा और पट पट पट करके हथेलियों से रोटी पीटने लगी l इधर सुकुमार परेशान था, कैसे समझाए वीवी को कि सरकारी क्वाटर्स का कितना बुरा दुरूपयोग हो रहा है और उनको पाना सज्जन व्यक्ति के लिए कितने मुश्किल है?

​✍️राशि सिंंह
​मुरादाबाद उत्तर प्रदेश


मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी -----"सीख लॉकडाउन की"


        सुबह से किचन के काम निपटाते निपटाते सरला थक चुकी थी।क्या बच्चे,क्या बुजुर्ग और क्या मियाँ जी सबकी अलग-अलग फरमाइशें। लॉक डाउन सबके लिए फुर्सत के पल लेकर आया था लेकिन एक हाउसवाइफ के लिए शायद सबसे व्यस्ततम दिन।अभी बाथरूम में धोने के लिए कपड़ों का ढेर लगा था और एहतियातन मेहरी की छुट्टी कर दिये जाने से झाड़ू और पोछा भी सरला की राह तक रहे थे।आज क्लब की सखियों ने ऑनलाइन सिंगिंग मीट रखी थी,वह भी सज सँवरकर उसमें प्रतिभाग करना चाहती थी।पर कैसे....
    पतिदेव ब्रेकफास्ट डटकर ऊपरी मंजिल में वर्क फ्राम होम की कम्प्यूटर टेबल पर बैठ चुके थे।बच्चे ग्राउंड फ्लोर में ड्राइंग रूम में दादा दादी के साथ बैठकर टीवी देख रहे थे।दादा दादी के लाड़ले रोहित और रोनित दोनों जुड़वां भाई इन्टर फर्स्ट इयर में थे और लैपटॉप पर एक दो घण्टे की ऑनलाइन क्लास के अतिरिक्त पूरा दिन टी.वी और मोबाइल पर ही दोनों अपना टाइम पास कर रहे थे।सरला मोबाइल के लिए टोकती तो वे दोनों स्कूल एसाइनमेंट की जरूरत बताने लगते।ज्यादा टी वी देखने के लिए टोकने पर दोनों चीखते,"मॉम बाहर निकलना नहीं है,अब इंटरटेनमेंट के लिए टीवी तो देखने दो।आप का बस चले तो लेक्चर दे दे कर हमें हिमालय की गुफाओं में तपस्या करने के लिए भेज दो।"
    दादी सपोर्ट करती,"अरे बच्चे हैं।ये ही तो मौज मस्ती के दिन हैं इनके।पर इस पत्थरदिल को भी बच्चों को डाँटे बगैर चैन नहीं मिलता।"और बच्चे माँ को चिढ़ाते हुए दादी के गले लग जाते,"वी लव यू दादी माँ।एक आप ही हमारा ख्याल रखती हो।वरना माँ तो हम पर अत्याचार के सारे रिकॉर्ड तोड़ दे।"
    डाइनिंग टेबल पर नाश्ता कर रही सरला ने कुछ सोचकर दोनों बेटों को आवाज दी,"रोनित,रोहित दोनों यहांँ आना बेटा।"उसका नाश्ता खत्म होने वाला था,पर बच्चों ने न तो कोई उत्तर दिया न ही खुद आये।सरला को इसकी आदत थी।एक बार में तो उसके बेटे कभी सुनते ही नहीं थे।उसने फिर से पुकारा,"पापा को बताऊंँ क्या कि तुम मेरी बात नहीं सुन रहे हो।"अक्सर अजमायी जाने वाली यह तरकीब काम कर गयी।बस एक पापा के नाम से ही दोनों डरते थे।
    दोनों ने एहसान सा किया डाइनिंग हॉल में आकर,"हाँ,बताओ।क्या कह रही हो आप?" "कितनी अच्छी मूवी आ रही है।पर आप देखने नहीं दोगे।"
      सरला ने चाय का कप प्लेट पर रखते हुए दोनों से लगभग निवेदन सा किया," मम्मी के प्यारे बेटे।प्लीज अपने अपने कमरों की डस्टिंग ही कर दो,बच्चों।मम्मी की थोड़ी मदद हो जायेगी।आज मम्मी को बहुत काम है।"
      दोनों ने बड़े ही अजीब से फेस बना कर रिएक्ट किया।रोनित बोला,"ओ नो मम्मी!क्या कह रही हो आप।हम ये मेड वाले काम करेंगे।" रोहित का स्वर थोड़ा तेज था,"क्या मम्मी! कितने क्रूअल हो आप।अपने छोटे छोटे बच्चों से घर के काम कौन मम्मी कराती है।हम नहीं कर रहे कोई डस्टिंग वस्टिंग।अपना काम खुद करो।जैसे आप हमको कहते हो पढ़ाई के टाइम।आपको करना ही क्या है पूरा दिन।हमें तो अभी ऑनलाइन क्लास भी अटैण्ड करनी है।"
      तभी ठीक रोहित के पीछे से प्रकट होती दादी बोली,"भइया ऐसी माँ भी नहीं देखी मैं ने।अपने आराम के चक्कर में बच्चों से काम कराएगी।(बच्चों की तरफ देख कर...)तुम कुछ नहीं करोगे,बच्चों।मुझे बता क्या काम करना है?हम पर करले जितने जुलम करने हैं।इन बच्चों पर न कर।यही चिढ़ है न कि बच्चे मुझसे प्यार करते हैं।हे भगवान तू ही देख ले कैसे कैसे सताती है ये महारानी मुझे।"
      दादी ने घड़ियाली आँसू बहाते हुए आँचल से मुँह पोछा।सरला अवाक थी।एक आसान उपाय का इतना भयानक हश्र सोचकर उसकी आँखे भर आयी थी।बच्चे भी अब असहज महसूस कर रहे थे।दादी की ओवर एक्टिंग ने माँ की प्रार्थना की ओर उनका हृदय झुका दिया था।पर अब माँ की तरफदारी करने का मतलब था,दादी की एक हफ्ते की नाराज़गी मोल लेना।आँखों में आँसू लिए सरला अपनी प्लेट उठाकर रसोई की ओर चल दी। रोहित ने बात बदलते हुए कहा,"चलो दादी आप टी वी देखो।मम्मी अपने आप करेगी काम।मेरी दादी क्यों करेगी काम।"
      सरला सिंक में रखे बर्तन धोने लगी।कई विचार उसके ख्याल में आते और जाते थे।
"एक औरत की दुश्मन एक औरत ही होती है, बिल्कुल सच बात है।"
 "संयुक्त परिवार के  बड़े फायदे हैं,मैं भी मानती हूँ पर ऐसी जली कटी बातों का क्या।"
  "क्या एक हाउसवाइफ की कोई खुशी नहीं होती।"
   "क्या एक औरत कभी कुछ पल अपने लिए अपने तरीके से नहीं जी सकती?हर वक्त काम काम काम"
   "एक घर के सभी सदस्य मिल बांटकर घर के काम क्यों नहीं कर सकते?"
   "मम्मी जी की खुश बनाये रखने के चक्कर में मेरी औलाद मेरे हाथों से निकलती जा रही है।पर मैं क्या करूँ?"
       ये विचारों की लड़ी कुछ और लम्बी होती कि तभी बाहर "आलू लो,प्याज लोओअअ...,टमाटर लो,लौकी लोओअअ..." की आवाज ने उसका ध्यान खींचा।उसे याद आया,शाम के लिए सब्जी नहीं है।वह हाथ धोकर फटाफट मुंँह पर मास्क लगाकर और आंगन में रखी बाल्टी लेकर गेट की ओर लपकी।एक 10-11साल का लड़का सब्जी की रेहड़ी धकेलता एक अधेड़ औरत के साथ कॉलोनी में सब्जी बेचने के लिए आया था। सरला सावधानी के तहत बाल्टी लेकर गयी थी और सब्जियांँ तुलवाकर बाल्टी में रखवा रही थी।सब्जियाँ तुलवाते हुए उसने उस औरत से कहा,"कैसी माँ हो?इतनी ख़तरनाक बीमारी फैली हुई है और तुम इतने छोटे बच्चे को गली गली घुमा रही हो।"
      वह बोली,"तुम ठीक कै री हो,भैनजी।पर गरीब आदमी क्या करे। बीमारी से तो बाद में मरेगा,पर भूख से पैले मर जागा।भीख मांगना सीका नहीं हमने। बदकिस्मती से मेरा आदमी लाकडोन के चलते शहर में फंसा हुआ है।पाँच बच्चे हैं मेरे।येई सबसे बड़ा है।ये अकेले ना आने देता।कैता है मम्मी दोनों मिलके काम करेंगे तो हिम्मत रएगी।ये छटे में पड़ता है,सब बात जानता है।कपड़े का माक्स बनाया है।अपने लिए भी,मेरे लिए भी।साबुन और पानी का डब्बा रेहड़ी पे रख के चलता है।ऊपरवाले की दया है।कोई गलती करूँ तो बाप बन के डाँटता है,पर कहीं थक न जाऊँ इसलिए रेहड़ी नहीं खींचने देता।"
      सरला उस बेटे के प्रति अपार श्रद्धा और स्नेह से भर गयी थी। सब्जियाँ तुल चुकी थी।उसने हिसाब पूछा।बेटा वाकई समझदार था।तुरन्त बोला,"एक सौ पैंतालिस रूपये हुए आन्टी जी।हो सके तो खुले पैसे देना।पैसों की लौट फेर में बीमारी न लौट फेर हो जाय।"सरला उसकी ओर देखकर सहज ही मुस्कुरा दी थी।सब्जी की बाल्टी बाहर के बाथरूम में धोने के लिए रखकर वह जैसे ही खुले पैसों के लिए अपने बेटों को आवाज देती,उसने देखा रोहित खुले पैसे लिये सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था।रोनित छज्जे में खड़ा नीचे सड़क पर खड़ी उस रेहड़ी और उसके मालिक को देख रहा था।सरला ने रोहित से पैसे लेकर सब्जी वाली को दे दिये।
      "आलू लोअअअ..प्याज लोअअअ.."की कड़क आवाज पूरे आत्मविश्वास के साथ गली में आगे बढ़ चुकी थी।सरला बाहर बाथरूम में सब्जियों और खुद को सैनिटाइज करने की प्रक्रिया में लग गयी।
       करीब आधे घण्टे बाद जब वह घर के अन्दर पहुँची तो ड्राइंग रूम,जहांँ दादा दादी बैठे थे,को छोड़कर सभी कमरे दोनों भाइयों ने मिलकर बिल्कुल नीट एण्ड क्लीन कर दिये थे।सरला भावुक होकर कुछ कहती इससे पहले ही दोनों भाइयों ने इशारों में उसे ड्राइंग रूम की सफाई और दादी की उपस्थिति याद दिलायी।सरला की आँखों में वही श्रद्धा और दुलार तैरने लगा जो अभी कुछ देर पहले सब्जी वाली के बेटे के लिए उमड़ रहा था।उसके बेटे अनजान होने का मुखौटा लगाकर पढ़ने के लिए अपने अपने कमरों में जा चुके थे।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद 

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ---- आस्था


‌पूजा अर्चना करके,अनिल जी और मैं,जब मंदिर से बाहर आए,तो देखा --- अनिल जी की चप्पल गायब थी।अपराध बोध की भावना से मन भारी होने लगा।अनिल जी हमारे बचपन के सहपाठी थे और कई साल बाद हमारे घर आए थे। मैं ही उनको अपनी जिद से मंदिर ले कर आया था। मैंने आस पास निगाह दौड़ाई,लेकिन चप्पल कहीं नहीं थी।अनिल जी ,जो अभी तक शांति से खड़े थे, मुस्कराते हुए बोले -- ये तो अच्छा हुआ,चप्पल बिल्कुल नई थी,जिस जरूरत मंद को मिली होगी, खुश हो गया होगा।
‌मैंने अनिल जी से कहा -- आप यहीं रुकिए, मैं बाहर से एक नई चप्पल खरीद कर लाता हूं।
‌ ----- नहीं ...नहीं,उसकी कोई जरूरत नहीं है ।
 हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं, ईश्वर ने मुझे एक अवसर दिया है - धरती पर नंगे पैर चलने का। लगता है,उसने हमारी प्रार्थना सुन ली ।पहले मेरे माध्यम से किसी गरीब का भला करवाया और फिर प्रकृति से मुझे मिलवाया।
  अनिल जी की बातों ने मुझे नि:शब्द कर दिया। मैंने उनकी आस्था को मन ही मन ही नमन किया और उनके साथ घर वापस आ गया।

 ✍️ डॉ पुनीत कुमार
T - 2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद 244001
M- 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा---- काश


      ''अबे ! चल आगे बढ़------न जाने  कहाँ से चले आते हैं साले ।सुबह-सुबह, काम भी तो नहीं करने देते।''सेठ जी ने भिखारी को फटकारते हुए कहा।
       भिखारी जो निरन्तर दस मिनट से खड़ा अपनी भूख मिटाने के लिए पांच रुपये का सवाल कर रहा था, फटकारने पर आँखों में आँसू भरे अगले द्वार की ओर बढ़ गया।
       सेठ जी अपने दैनिक कार्य में व्यस्त हो गये ।एक घण्टे बाद फर्म के जनरल मैनेजर ने आकर बताया सर आज तो भाग्य धोखा दे गया। टेंडर हमारे हाथ से निकल गया।हमारा टेंडर पांच रुपये के अंतर से पिट गया । सेठ को जैसे झटका सा लगा ।पांच रुपये के लिए उस भिखारी का गिड़गिड़ाना उसके मानस पटल पर अंकित हो गया।काश---------?


✍️ अशोक विश्नोई
 मुरादाबाद
 मोबाइल--9411809222

मुरादाबाद की साहित्यकार स्वदेश सिंह की लघुकथा --- माहौल


             बड़ी धूमधाम से शादी के बाद मोहिनी ने अपनी ससुराल में आयी... आशा के विपरीत सुसराल का माहौल देखकर उसका माथा चकरा गया।.... उसके जेठ जो कि रेलवे में टेक्नीशियन के पद पर कार्यरत हैं.. पैर की हड्डी टूटने व अत्यधिक शराब पीने के कारण  कई महीनों से बिस्तर पर पड़े हैं।.... और परिवार का प्रत्येक सदस्य  उन्हें बहुत खरी -खोटी सुनाता रहता है ।यहाँ तक कि उसकी जेठानी भी अपने पति से दिन-रात लड़ती रहती है ।यह देखकर मोहिनी  को बहुत दुख हुआ। उसने मन ही मन घर के माहौल को बदलने का प्रण लिया..... उसने घर के सभी सदस्यों के साथ- साथ जेठ सुरेश को भी मान सम्मान देना शुरू कर दिया। यह देखकर सभी लोग अचंभित हो गए  ।...सभी का व्यवहार सुरेश के प्रति  बदलने लगा... उसकी सेवा से सुरेश धीरे-धीरे ठीक   होने  लगा।  और आज नौकरी पर जाते समय  को मोहिनी  को धन्यवाद देने उसके कमरे में गया और बोला..... मोहिनी.. यदि तुम इस घर में ना आती ....तो मैं कब का खत्म हो चुका होता.... तुम्हारी वजह से ही मुझे नया जीवन मिला है। जन्म देने वाली ही माँ नहीं होती ...बल्कि  जीवन को संवारने  वाली भी माँ के समान ही होती है..... मैं.. तुम्हें शत-शत प्रणाम करता हूँ.... यह सुनकर मोहिनी अपने आँसुओं को रोक नहीं पायी। और जेठ के पैर छूने के लिए नीचे झुक गयी।

 ✍️  स्वदेश सिंह
सिविल लाइन्स
 मुरादाबाद
9456222230

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की लघुकथा----छुट्टी


        दो बार चक्कर काट चुका था वो पर दोनों बार ही बाॅस उसे नहीं मिले । बार - बार काम बीच में छोड़ बाॅस के कमरे के चक्कर लगाना उसे पसंद नहीं है पर आज कुछ मजबूरी ही ऐसी थी कि उसे ऐसा करना पड़ रहा था । परसों उसके इकलौते साले साहब के इकलौते पुत्र की वर्षगाँठ है और श्रीमतीजी ने पिछले सप्ताह ही वारंट निकाल दिया था कि सपरिवार सुबह - सुबह पहुँचने का आग्रह क्रमशः उनके मायके का प्रत्येक प्राणी कर चुका है ।
 मार्च का महीना , आॅफिस में आॅडिट चल रहा था ।कई महत्वपूर्ण डाॅक्यूमैंट्स ( काग़ज़ पत्र ) उसकी निगरानी में थे । बाॅस ने इशारों - इशारों में उसे समझा दिया था कि उसकी उपस्थित आॅफिस में अनिवार्य है ।वैसे वो स्वयं भी अनावश्यक छुट्टियों के पक्ष में नहीं रहता  था । आॅफिस में उसका ओहदा बहुत सम्माननीय था । हर कोई उसकी कार्य कुशलता की प्रशंसा करता । ऐसे में बाॅस के पास छुट्टी माँगने जाने का मतलब था बिना बात के पंगा लेना पर इधर कुआँ उधर खाई जैसी परिस्थिति में मरता क्या ना करता ।
            चपरासी ने आकर बाॅस की उपस्थिति की सूचना दी तो हिम्मत जुटा उसने कदम आॅफिस की तरफ बढ़ाए , लाॅबी में  लगे टी वी पर समाचार प्रसारित हो रहे थे । देश की सबसे  ऊँची चोटी सियाचिन ग्लैशियर और  तिब्बती सीमा पर रहने वाले सैनिकों पर कोई विशेष प्रसारण आ रहा था । किसी अनिश्चित खतरे की बात जानकर सुरक्षा एजेंसियों और सेना ने जवानों की छुट्टियां कैंसिल कर दीं थीं । इनमें से कई जवान ऐसे भी थे जो लंबे समय से घर नहीं गए थे ।संवाददाता बता रहा था कि कैसे एक जवान के बीमार पिता ने आई सी यू से वीडियो बना कर अपने बेटे से हिम्मत बनाए रखने और देश सेवा में डटे रहने की अपील की थी । कुछ जवानों के इंटरव्यू भी आ रहे थे जो बता रहे थे कि छुट्टी से ज्यादा उन्हें देशसेवा आनंद देती है ।
        वो बाॅस के आॅफिस के दरवाजे पर खड़ा था , समाचार अब भी चल रहे थे । असमंजस में पड़ा हुआ था कि अंदर जाए या नहीं । उसके दिल और दिमाग में जंग चल रही थी । कुछ मन में ठान उसने कदम वापस लौटा लिए ।

 ✍️   सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद 

मुरादाबाद के साहित्यकार प्रवीण राही की कहानी ---- नाम

   

        कमल ने अपनी पत्नी जया, दो बच्चों और माँ-पापा के साथ नया मकान किराए पर लिया। पापा-मम्मी दोनों ही की तबीयत ठीक ना होने की वजह से, कमल ने अपना काम घर से ही करना शुरू कर दिया था।
कमल अपनी व्यस्तता की वजह से बाजार  से सब्जी नहीं ला पाता था।
जया भी अपने ऑफिस से  काफी लेट आती। जया ने घर आते ही कमल से कहा,  "आप ज्यादातर घर पर ही रहते हो, सब्जी लेकर आ सकते हैं।"
कमल ने सवाल किया, "तुम क्यों नहीं लेकर आती?"
"क्या कह रहे हो आप ? सब्जी का थैला इतना ज्यादा भारी हो जाएगा, मैं कैसे बाजार से यहां तक लेकर आऊंगी।" जया ने जवाब दिया।
दोनों के बीच की बहस को देख-सुनकर बीमार पापा ने कहा, "तुम दोनों मत जाओ, मैं खुद ही जाकर सब्जी लेकर आजाऊँगा।"
"नहीं पापा मैं कुछ रास्ता निकलता हूं। आप इतना भारी थैला कैसे लेकर आ सकते हैं?" ऐसा कह कर जया कि तरफ कमल ने तिरछी निगाहों से देखा....।
काम की व्यस्तता, घर के सारे सदस्यों की अपेक्षाओं के बीच समझदारी और तालमेल नहीं बना पाने की वजह से कमल बहुत ज्यादा चिड़चिड़ा हो गया था।
अगले दिन जया के ऑफिस जाने के बाद , लगभग 12:00 बजे कमल को सब्जी वाले की आवाज सुनाई दी। कमल बालकोनी में आया.., "भैया!!, सब्जी वाले भाई, रुक जाना सब्जी लेनी है..।"
"जी साहब आ रहा हूं मैं, आपके मकान के नीचे..।" सब्जी वाला मुस्कुराकर बोला।
"आलू ,प्याज ,टमाटर ...इन सब का भाव बताओ", कमल ने पूछा।
सब्जी वाले के कहे भाव को सुनकर कमल ने कहा,  "अरे तू तो बहुत ज्यादा भाव बता रहा है। लूट मचा रखी है तुम जैसो ने, देना है तो सही भाव में दे वरना खिसक ले।"
"नहीं साहब मंडी से बस हर किलो पर तीन रुपए ज्यादा ले रहा हूँ। आप चाहो तो मालूम कर लो..., साहब यह भी तो देखो धूप में घूम रहा हूं।", सब्जी वाला सफाई देता हुआ बोला।
 "मै तुम जैसों के मुंह नहीं लगता। सब्जी दे और पैसे लेकर खिसक ले । और सुन,हर रोज इसी समय पर आ जाया कर", कमल ने बहुत रुखेपन से कहा।
"जी ...जी साहब!!
साहब आपको जो सही लगे पैसे दे देना", सब्जी वाले ने प्यार से कमल को कहा। पर कमल का रुखा व्यवहार हर रोज बढ़ता ही जा रहा था।
रविवार का दिन था ,जया घर पर ही थी सब्जी वाले ने घंटी बजाई। कमल- जरूर सब्जीवाला होगा। कमल जया दोनों बालकनी में गए।
आ गया तू ,वहीं रुक और सुन घंटी एक ही बार बजाया कर। हमें तेरा समय पता है", कमल ने चिढ़कर कहा।
"कमल रहने भी दो", जया ने टोका।
दोनों साथ नीचे गए।
"भैया क्या नाम है आपका?" जया  ने मुस्कुराकर पूछा। 
"दीदी, मेरा नाम गणेश है", सब्जी वाले ने धीरे से कहा।
"भैया आप अपना मोबाइल नंबर दे दो, हम सब कल बाहर जा रहे हैं... वापिस आते ही कमल आपको फोन कर देंगे। फिर आप सब्जी देने आ जाना", जया ने कहा।
सब्जी वाले ने जया को कहा - "जी दीदी।" गणेश नाम सुनकर राहुल का व्यवहार उस दिन सब्जी वाले के साथ थोड़ा मधुर था, और उस दिन उसने सब्जी वाले को आप कह  कर बोला।
कुछ दिनों बाद जब जया ,कमल सहित पूरा परिवार शहर वापस आए तो कमल ने सब्जी वाले को फोन किया,  "भैया गणेश जी आप सब्जी देना आ जाओ।"
"साहब मैंने आप सबके आशीर्वाद से  छोटी सी सब्जी दुकान खोल ली है ।आपके घर के पीछे वाली गली में  ही है। गेट से शायद पचास कदम दूर ही होगा...., साहब आप मेहरबानी कर यहीं आ जाइए", उधर से सब्जी वाले कि आवाज आई।
शाम होते ही कमल उस दुकान पर गया। कमल सब्जी वाले से -  "कैसे हो गणेश भैया?"
सब्जी वाला -  "ठीक हूं साहब ,और आप और दीदी..?"
कमल - "हम भी बढ़िया। बधाई हो गणेश भैया, अब धूप से बचोगे। एक जगह बैठकर बेचना है सब्जी।अच्छी है तरक्की...."
तभी बगल में एक साहब आए,बोले - "वालेकुम सलाम मियांं,अब्दुल।"
सब्जी वाला - अस्ससलाम वालेकुम आरिफ़ भाईजान सब खैरियत।"
"साहब इनका नाम गणेश है।"कमल ने  बीच में कहा उसे समझ नहीं आ रहा था। 
वे दोनों एक दूसरे को हतप्रभ होकर देखने लगे।
"भैया क्या नाम है आपका?", आरिफ ने भी चौंक कर पूछा।
"साहब आप दोनों माफ करे, मेरा नाम जॉन है। पर साहब मेरा नाम आप सब ने जब अपने भगवान, खुदा के नाम पर सुना तो फिर मै आपके रूखे व्यवहार से, गाली-गलौज से बच गया। अब आप सब मुझसे प्यार और आदर से पेश आते हैं।" सब्जी वाले ने धीरे से कहा।
ऐसा सुनकर कमल और आरिफ़ दोनों ने अपनी नजर शरम से झुका लीं।
"भैया जॉन माफ करना हमें" दोनों के मुँह से एक साथ निकला।


✍️  प्रवीण "राही"
मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार मनोरमा शर्मा की कहानी ----- परवशता


बीमार जीवन की कहानी तन्हाइयों का शिखर होती है । दूसरों के आधीन जीवन बड़ा बेबस होता है ।जब आप जिम्मेदारियों से निवृत हो जायें तो कल्पना ऐसी होती है कि मानो सारे जहाँ का सुख आपकी झोली में आ गिरेगा पर नियति कुछ और ही सोचती है । जग से वितृष्णा कराके ही छोड़ती है ।बाबू जी अध्यापक थे ।पूरी जिन्दगी बच्चों को पढ़ा कर अपने बच्चों के लालन पालन में लगा दी और साथ-साथ खेती बाड़ी भी चलती रही ,दो पुत्र और एक बड़ी लाड़ों की बेटी थी ।तीनों बच्चों के विवाह आदि से निवॄत हो चुकें हैं सब अपने -अपने परिवार में भली भाँति खुश हैं ।नाती -नातिन ,पोती -पोते आदि से भरापूरा परिवार अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त है सब मग्न हैं अपनी गृहस्थियों में । इतने भरे पूरे परिवार में मैं क्यों अकेला हूँ ?पत्नी बहुओं के साथ काम में हाथ बटा रही है ।विमला मेरी दवाई का वक्त हो गया है जरा पानी तो देना ।अच्छा ला रही हूँ जरा रुक जाइए ।सोनल बेटे अपने बाबा की दवाई तो उठा के ला ,मैं पानी लाती हूँ ।विमला के घुटनों में आजकल दर्द रहने लगा है इसलिए चलने फिरने में भी दिक्कत होती है लेकिन किसी से कहती नही है ,सोचती हैं जब तक हो सके चलते फिरते रहो ।लो पानी से दवाई खा लो जी ।दवाई कहाँ है? सोनू दवाई नही लाया बेटा ,विमला ने पोते को पुकारा ..लेकिन वह तो अनसुना करके खेलने निकल गया । तुम भी अपनी दवाई अपने पास ही रखा करो ,सबको पुकारते रहो कि तू ला और तू ला ।विमला ने अपनी बहुओं से कहने बजाय खुद ही लाना उचित समझा और दवाई अलमारी में से निकाल कर ,दीन दयाल जी को सहारा देकर उठाया और दवाई खिला कर रसोई में आ गईं और बर्तनों को मांजने लगीं । रहने दीजिए मांजी ,मैं कर लूंगी आप बाबू जी को देख लीजिए वो फिर आपको आवाज लगायेंगें, छोटी बहू निर्मला ने थोड़ा मुस्करा कर कहा ।नही बहू कोई बात नही जब तक हाथ-पैर चलते रहें तब तक सही है नही तो परवशता अपने आप में ......और उनकी आवाज में लाचारी लरजने लगी ।
बाबू दीनदयाल फिर आवाजें देने लगे ।

 ✍️  मनोरमा शर्मा
अमरोहा
.

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा --------अहसान


        कभी मारना, कभी गालियां देना ,कभी बिना किसी बात उसके चरित्र को दाग लगाना ,यही सब सहते अवनि को 10 वर्ष बीत गए ।दो बच्चों की परवरिश पूरी तरह अवनि ने सम्हाली ।उसकी मेहनत की कमाई पर पति का हक था ,पर पति अपनी कमाई कहाँ डालता है,यह पूछने की हिम्मत न जाने किस डर से वह कभी न कर सकी ।
अति रूपमती ,धनलक्ष्मी पत्नी और मां  सब होने पर भी वह किसी भी पद का सम्मान अर्जित न कर सकी । एक अहसान किया उसने अवनि के नाम के साथ अपना नाम जोड़कर ,जिसका उसको जीवन भर लाभ मिलता रहा । साथ रहकर भी साथ न रहने का एहसान अवनि के अस्तित्व को मिटा ही गया था।

  ✍️ डॉ प्रीति हुँकार
 मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर जी लघु कथा ----- स्वतंत्रता दिवस


"अरे तारा बाबू, आज पड़ोस के पार्क में स्वतंत्रता दिवस समारोह मनाया जा रहा है। देखने चलोगे ना ?" अपने परिवार में अकेले बचे वृद्ध तारा बाबू से उनके दोस्त महेन्द्र ने पूछा।
"नहीं भाई, वहाँ भीड़ बहुत है,  अब इस उम्र में क्या धक्के खाऊँ। मैं तो आज घर पर ही रह कर स्वतंत्रता दिवस मनाऊँगा"... कहते-कहते तारा बाबू की आँखों में चमक आने लगी थी।
"घर पर रहकर मनाओगे, मगर कैसे ?" पूछते हुए महेन्द्र के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आये थे।
"अभी लो", कहते-कहते तारा बाबू ने अपने घर के एक कोने में रखा पिंजरा खोला और उसमें कैद तोते को उड़ा दिया।
"जय हिन्द"....जय हिन्द.....जय हिन्द"....... वृद्ध तारा बाबू के मुख से निकल रहे जोशीले नारे सुनसान पड़े घर में गूंज उठे थे।

✍️राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार का गीत ----- स्वदेशी अपनाओ रे


चीज विदेशी छोड़ के भाई ,
देशी घर में लाओ रे ।
धोखेबाज पड़ोसी को अब,
मिलके मजा चखाओ रे ।
स्वदेशी अपनाओ रे ,स्वदेशी अपनाओ रे ।

ब्रांडेड का चक्कर छोड़ो ,
देशी को अपनाना है ।
लोकल को वोकल करके ही,
भारत भव्य बनाना है ।
स्वावलंबन का पथ अपनाओ,
करके कुछ दिखलाओ रे ।
स्वदेशी अपनाओ रे ,स्वदेशी अपनाओ रे ।

कचरा जिसने देश का अपने ,
भारत में भिजवाया है ।
इसकी चीजें नही खरीदें ,
सबको मिल समझाया है ।
माल हमारा लूट रहा जो ,
उसको आज भगाओ रे ।
स्वदेशी अपनाओ रे ,स्वदेशी अपनाओ रे।

लेकर प्रतिभा देश की अपने ,
देश का मिलकर करें उत्थान।
ड्रेगन हमसे तभी डरेगा ,
डूबेगा उसका दिनमान ।
 देश के हित को खुद भी समझो ,
औरों को समझाओ रे ।
स्वदेशी अपनाओ रे ,स्वदेशी अपनाओ रे ।
 
 ✍️ डॉ प्रीति हुँकार
मुरादाबाद

मंगलवार, 30 जून 2020

वाट्सएप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। मंगलवार 23 जून 2020 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों डॉ ममता सिंह, रवि प्रकाश, डॉ अर्चना गुप्ता, नवल किशोर शर्मा नवल, मीनाक्षी ठाकुर, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, डॉ श्वेता पूठिया, डॉ पुनीत कुमार, सीमा वर्मा, अशोक विद्रोही, दीपक गोस्वामी चिराग, रामकिशोर वर्मा ,मरगूब हुसैन अमरोहवी, प्रीति चौधरी, निवेदिता सक्सेना, स्वदेश सिंह, कमाल जैदी वफा , राजीव प्रखर और सीमा रानी की कविताएं-----


बरखा, तेरे रंग निराले
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काली काली मस्त बदरिया,
आसमान में छाई है।
अपनी झोली में भर कर वो ,
ढेरों खुशियां लाई है ।।

बच्चों की इक टोली देखो,
निकल घरों से आई है ।
गली-गली छत आंगन सबने,
मिल कर धूम मचाई है ।।

बरखा की रिमझिम ने सब में ,
हरियाली फैलाई है।
खेतों औ खलिहानों में भी,
लौट खुशी अब आई है।।

तेज हवा ने लाचारों की,
धड़कन बहुत बढ़ाई है।
छोटी सी उनकी कुटिया पे,
आफत सी लहराई  है ।।

कहीं कहीं खुश हो मेघा ने,
खुशहाली बरसाई है।
वहीं कहीं क्रोधित होने पर,
विकट तबाही आई है।।

✍️ डाॅ ममता सिंह
मुरादाबाद
-----------------------------

सुनो मास्क पहनो दूल्हे जी
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चूहे जी बारात संग ले
शादी करने आए ,
सिर पर साफा ,सेहरा लंबा
मंद मंद मुस्काए

चुहिया आई थी चूहे को
पहनाने वरमाला ,
बिना मास्क पहने चूहे को
देखा तो कह डाला

सुनो मास्क पहनो दूल्हे जी
फिर शादी में आना ,
सभी बराती जाँचे परखे
सिर्फ नेगेटिव लाना

बेचारा खिसियाकर चूहा
बोला मैं पछताया,
मास्क लगाना बहुत जरूरी
समझ मुझे यह आया।।

✍️ रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर(उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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 जामुन का पेड़
************
ठीक हमारे घर के आगे
जामुन  का इक पेड़ लगा है
काले काले बड़े बड़े से
गुच्छों से वो खूब लदा है

ललचाई नज़रों से देखे
हर कोई आता जाता है
इसके गुच्छे देख देखकर
मुँह में  पानी भर आता है

मन मसोस कर रह जाते हम
तोड़ नहीं इनको पाते हैं
लेकिन बच्चे उछल उछल कर
इनपर पत्थर बरसाते हैं

रूप रंग में काली दिखती
खाने में पर मीठी लगती
इसके ही गूदे गुठली से
दवा रोग की देखो बनती

देकर ये ऑक्सीजन अपनी
हमको स्वस्थ बनाता है
हरा भरा ये पेड़ हमारा
घर का द्वार सजाता है

✍️ डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
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दादा जी बंदूक दिला दो
मैं सीमा पर जाऊंगा
जिसने सैनिक मारे अपने
नानी याद दिलाऊंगा

छल करके जो लड़ता रण में
वीर नहीं वो कहलाता
काट शीश बैरी के रण में
खोलूंगा मैं भी खाता

दादाजी बोले बेटा तुम
अभी बहुत ही छोटे हो
करो अभी तुम तैयारी ही
मन में क्यों तुम रोते हो

जाना होगा सीमा पर गर
मैं पहले ही जाऊंगा
देश की खातिर जिया सदा हूं
उस पर ही मर जाऊंगा

अभी पिता तेरा सीमा पर
खड़ा हुआ सीना ताने
देश का सैनिक मर जायेगा
इंच नहीं हट कर जाने

भारत माता की खातिर सुन
हर बच्चा मर जायेगा
लेकिन चीन भले कुछ कर ले
इंच नहीं बढ़ पायेगा। 

✍️ नवल किशोर शर्मा 'नवल'
 बिलारी मुरादाबाद
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नेक काज में करो न देर,
जंगल का राजा है शेर।

कितनी सुंदर प्यारी भोर,
पक्षी राज कहलाये मोर।

समय से करना अपना काम,
फलों का राजा मीठा आम।

इंद्र धनुष है रंग बिरंगा
राष्ट्र ध्वज का रूप तिरंगा।

जय जवान और जय किसान
मेरा प्यारा देश महान।।

 ✍️मीनाक्षी ठाकुर
मुरादाबाद
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भालू   दादा  नेता  बनकर
जब    जंगल   को    धाए
जंगल  के  सारे  जीवों  ने
तोरण     द्वार      सजाए।
      --------------

उतर  कार  से  भालू दादा
शीघ्र    मंच     पर    आए
कहकर जिंदाबाद सभी ने
नारे        खूब        लगाए
इतना स्वागत पाकर दादा
मन    ही    मन   मुस्काए।
भालू दादा---------------

सबकी तरफ  देख नेताजी
इतना       लगे        बताने
थोड़ा  सब्र  रखो   बदलूँगा
सारे        नियम       पुराने
साफ हवा भोजन पानी  के
सपने      खूब       दिखाए।
भालू दादा----------------

जमकर  खाई   दूध मलाई
खाई        मीठी       रबड़ी
फल खाने को चुहिया रानी
आकर   सब  पर   अकड़ी
चुहिया  रानी  को समझाने
सभी      जानवर      आए।
भालू दादा-----------------

निर्भय होकर सब जंगल में
इधर    -   उधर        घूमेंगे
एक   दूसरे   के  हाथों  को
बढ़-चढ़       कर      चूमेंगे
साफ - सफाई रखने के भी
अद्भुत       मंत्र      सुझाए।
भालू दादा----------------

जंगल के  राजा को पर यह
बात    समझ    ना     आई
मेरे    जीतेजी    भालू   को
किसने      जीत      दिलाई
खैर  चाहता   है   तो  भालू
तुरत         सामने      आए।
भालू दादा-----------------

देख  रंग  में  भंग   सभी  ने
सरपट      दौड़        लगाई
सर्वश्रेष्ठ   ही    बचा   रहेगा
बात    समझ     में     आई
भालू  दादा   भारी  मन   से
इस्तीफा        दे         आए
भालू दादा-----------------

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
 मुरादाबाद/उ,प्र,
 9719275453
---------------–-----------------

       
अम्मा देखो आसमान मे,
काले काले  बादल छाये।
कुछ बरसेगे कुछ गरजेंगे,
कुछ यूंं ही इठलाये।।अम्मा...

रिमझिम रिमझिम करती बूंदे,
धरती के भी मन को भाये।।अम्मा...
वर्षा के इस शीतल जल से
पौधे भी हर्षाये
 हमको भी जाने दो मैय्या
हम भी भीगना चाहे।।।अम्मा.....

 ✍️ डा श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
-----------------------------

तिर तिर तिर तिर चले पवन
प्रफुल्लित ,करती तन मन
ना इसकी है ना उसकी
ये है बच्चोंं हम सबकी

खिल खिल खिल खिल खिलता फूल
हम जिसे देख गम जाते भूल
ना इसका है ना उसका
ये है बच्चोंं ,हम सबका

झर झर झर झर झरना बहता
प्यार बहाओ ,बस येे कहता
ना इसका है ना उसका
ये है बच्चोंं हम सबका

 ✍️ डॉ पुनीत कुमार
T-2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600
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छोटा सा इक गाँव था

         उसमें चार सयाने थे

बड़े - बड़े उनके कद थे
   
       सबके जाने - माने थे

सबकी खोज खबर वो रखते

      कहते - कहते कभी ना थकते

पढ़कर आगे बढ़ना सीखो

  बुरी संगत से डरना सीखो

आस - पास की रखो सफाई

    पड़ो बीमार तो लो दवाई

मेल मिलाप की बेल  सजाओ

    गाँव में अपनापा लाओ

घर की बेटी जरूर पढ़ाओ

     हर घर में एक पेड़ लगाओ

सब उनकी बातों को सुनते

      मन ही मन में सब कुछ गुनते

चार सयानों की बातों को
     
    पूरे गाँव ने मिलकर माना

बेटियों को विद्यालय भेजा

      सबने पढ़ने का मोल था जाना

कूड़ा - करकट सब था हटाया
 
       गाँव में रखी सबने सफाई

हरे-भरे पेड़ों - पौधों से
     
         घर-घर में हरियाली छाई  ।।।

✍️सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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पंछी तुम मुझको भातें हो,
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो ?
      रंग बिरंगे पंख तुम्हारे
      पंछी तुम हो प्यारे प्यारे
      गौरैया ,बुलबुल और तोता
      तुम्हें देख मन हर्षित होता
      कोयल, काक, कबूतर,खंजन
      बोली से करके मनोरंजन           
  दाना पानी खा जाते हो
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो?
      दबे पांव छत पर हो आते
      मगर घोंसले दूर बनाते
      अंडे देते, उनको सेते
      चूजों को फिर भोजन देते
      देखभाल में कमी न आये
      बच्चों को उड़ना सिखलायें     
  मुझसे काहे शर्माते हो ?
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो?
      ये संसार तुम्हारी थाती
      सीमाएं भी रोक न पातीं
      मैं भी एक छोटा सा बच्चा
      तन का कोमल मन का सच्चा
      अपने दल में मुझे मिला लो
      मुझको भी उड़ना सिखला दो
साथ नहीं क्यों ले जाते हो?
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो ?
      खुले गगन की सैर करूंगा
      नहीं किसी से बैर करूंगा
      ऊंचाई से डर न होगा
      सारा जग मेरा घर होगा
      मित्र जगत के बच्चे होंगे
      फिर दिन कितने अच्छे होंगे
मुझको फिर क्यों तरसाते हो !
आऊं तो क्यों उड़ जाते हो?

 ✍️ अशोक विद्रोही
412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
   82 188 25 541
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जीवन का आधार है शिक्षा
सब धर्मों का सार है शिक्षा।

भाग्य बड़े से मिल पाता जो
बालक को उपहार है शिक्षा ।

घाटा कभी न होता जिसमें
एसा इक व्यापार है शिक्षा ।

यज्ञ में समिधा होना पड़ता
वो पावन आचार है शिक्षा ।

जीवन में तुम भुला न देना।
गुरुवर का उपकार है शिक्षा ।

बच्चों को भेजो विद्यालय।
बालक का अधिकार है शिक्षा।
✍️ दीपक गोस्वामी चिराग
 बहजोई
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*सूर्यग्रहण*

मम्मी सबको समझायी थी
ग्रहण सूर्य का बतलायी थी ।

सुबह-सबेरे उठना होगा
नहान-खाना करना होगा ।

ग्रहण पड़े मत खाना-पीना
दान भले कुछ भी कर दीना ।

बाहर भी तुम कब जा सकते
सूर्य देखने से सब बचते ।

राहू-केतू बहुत सताते
निगल सूर्य को है जो जाते ।

मम्मी यों समझातीं हमको
कीर्तन ही बस करना सबको ।

नंँगी आंँख से जो देखेगा
नैनन ज्योति वही खो देगा ।

मम्मी की बातें सब मानीं
उन्हें बतायी असल कहानी ।

बीच में जब चंँदा आ जाता
सूर्य नहीं पृथ्वी पर आता ।

तेज धूप जब भी होती है
दिन में तब संध्या लगती है ।

 यह कारण है सूर्य ग्रहण का
 असर बहुत होता पर इसका ।
 ✍️ राम किशोर वर्मा
    रामपुर
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*रिमझिम बारिश*

रिमझिम बारिश जब जब आती।
मायशा रानी फिर खुश हो जाती।

घर से बाहर निकल खूब नहाती।
झूम झूम के सुरीले गीत है गाती।

पानी से राह लबालब हो जाती।
धमा चौकड़ी  वो उसमें मचाती।

वो कागज की एक नाव बनाती।
इधर उधर से   एक चींटा लाती।

नाव का उसको मल्लाह बनाती।
फिर तेज  धार में  नाव  बहाती।

देख के फिर मन्द मन्द मुस्काती।
जैसे ख्वाहिश जब पूरी हो जाती।

चीख चीख कर  सबको बताती।
इस काम में उसको मस्ती छाती।

ज़ोर की बारिश जब जब आती।
है बार बार इसको वो  दोहराती।

 ✍️ मरग़ूब हुसैन अमरोही
दानिशमन्दान, अमरोहा
मोबाइल-9412587622
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 माँ मेरी गुड़िया रानी
हो गयी है अब सयानी
अच्छा सा एक गुडडा ढूँढो
गुड़िया अब पड़ेगी ब्याहनी
कैसा गुडडा हो गुड़िया का
बात पड़ेगी मुझको समझानी
रूप रंग में सुंदर हो
पैसे की हो न जिसे तंगी
नौकर चाकर हो घर में
मोटर गाड़ी की जो करें सवारी
बात सब गुड़िया की माने
गुड़िया बने उस घर की रानी
ना बेटी गुड़िया का तेरी
गुड़डा ऐसा  ढूँढूँगी
प्यार बेशुमार जो करेगा उसको
जानता हो रोटी ,मेहनत की कमानी।
                 
✍️ प्रीति चौधरी
गजरौला ,अमरोहा
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देश उपवन की नई कोपल ,
सुमन पल्लव सुगंधों,,,
अपने उपवन की सुगंध   
 उपवन से तुम खोने ना देना  ।।
 आधुनिक बनना मगर इस     
 आधुनिकता से कभी भी
 सभ्यताओ  संस्कारों की     
बलि चढ़ने न देना ।।
 जिंदगी के रास्तों पर
 जीत भी है हार भी है।
दृढ़ करो मन को कि तुमको
 ये सभी स्वीकार ही हैं
 ये है जीवन सिर्फ इसमें   
जीत का रास्ता नहीं है ।
 हार के बिन अनुभवों का
 रंग कभी चढ़ता नहीं है।।
 कितना पा लो पुराने
 मित्र तुम  खोने ना देना।
आधुनिक बनना मगर इस   
 आधुनिकता से कभी भी
 सभ्यताओं संस्कारों की बली चढ़ने न देना।।
धन बड़े होने की परिभाषा
नहीं ,है सिर्फ साधन
सोच करनी है बड़ी बस
और बड़ा करना है ये मन
ऊंंचा  उठना  ठीक है पर पांव
धरती पर ही  रखना ।
दूरी दुष्कर्मों से लेकिन
 प्रेम मन में अमर रखना।
बनना पहले एक इंसा ,
बाद उसके कुछ भी बनना
अपने अंदर से कभी
इंसानियत खोने  न देना ।।
आधुनिक बनना मगर इस     
आधुनिकता  से कभी भी
 सभ्यताओं संस्कारों की बली चढ़ने न देना।।
देश उपवन की नई  कोपल
 सुमन  पल्लव सुगंधो,
अपने उपवन की सुगंध
उपवन से कभी खोने न देना।।

 ✍️ निवेदिता सक्सेना
आशियाना
मुरादाबाद
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        *सेहत*
सेहत है अनमोल  खजाना
इसको तुम कभी नही खोना

सफाई का तुम रखना ख्याल
रोगों  से बचायें हर हाल

रोज खाओं  ताजे फल-सब्जी
इन्ही  से  होती  सेहत अच्छी

खेलों-कूदो करो  व्यायाम
हाथ जोड़कर करो प्रणाम

स्वस्थ शरीर तेज दिमाग
इनसे होता सही विकास

 ✍️ स्वदेश सिंह
सिविल लाइन्स
मुरादाबाद
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     वर्षा रानी                                   
वर्षा रानी, वर्षा रानी,
अबकि न करना मनमानी।

कोरोना ने बहुत सताया,
अभी तलक न टीका आया।

कितने ही तूफान है आये,
हिम्मत से पार हमने पाये।

साथ न लाना बाढ़ का पानी,
वर्षा रानी वर्षा रानी।

शालाये सब बंद पड़ी है,
कैसी मुसीबत दर पा खड़ी है।

तुम्ही भगा दो कोरोना को
खूब सज़ा दो कोरोना को

दवा मिलाकर छिड़को पानी,
वर्षा रानी, वर्षा रानी।

✍️ कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
सिरसी (सम्भल)
9456031926
---------------------------------


सीमा रानी, अमरोहा



मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा की रचना ---- -पत्थर का योगदान


        अरे पत्थर! तुम कठोर होकर भी बहुत ही सह्रदय हो,जो किसी विचलित मन वाले इंसानी हाथों से छूट कर,एक देवता के सिर पर जा लगे,जिससे एक डॉक्टर रूपी देवता की तकदीर तो फूटी लेकिन तुम्हारी तकदीर बदल गई,तुमने अपने त्याग,बलिदान और देशप्रेम की मिसाल पेश कर दी।तुमने एक सिर को चोट तो जरूर पहुंचाई,लेकिन कई दुष्ट पात्रों को,जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया।तुम्हारी यह देश-भक्ति हमेशा याद रखी जाएगी।
      हालांकि प्राचीन काल से अब तक,पत्थरों का बहुत बड़ा योगदान रहा है,चक्की के रूप में प्रकट होकर,पूरे संसार का पेट पालन किया है,शिवलिंग रूप में स्थापित होकर,जगत का कल्याण किया है,अपना विस्तार करते हुए हिमालय पर्वत बनकर,तुम सीना ताने खड़े हो और प्रहरी बनकर युवाओं को ऊंचा बनने की प्रेरणा देते रहे हो।
     पत्थर और परम पिता परमेश्वर का परस्पर प्रेम भी,चौंकाने वाला है,गौतम ऋषि की पत्नी,देवी अहिल्या के रूप में,तुमने काफी कष्ट उठाए,लेकिन तुम्हारा,स्वयं प्रभु श्रीराम ने आकर उद्धार किया।रावण तक पहुंचने के लिए, श्री राम को रास्ता देने वाले तुम ही तो थे जो सागर के जल में तैरने लगे,पुरुषोत्तम श्रीराम की मदद के लिए,पानी में सदा डूब जाने वाले अपने जन्मजात गुण से भी,तुम पथभ्रष्ट हो गए।आखिर विश्व के कल्याण को,तुम बारम्बार पथभ्रष्ट होते रहना,अपना धर्म भूलते रहना,क्योंकि सृष्टि को तुम्हारी बहुत जरूरत है,तुम्हारे कंधों पर बहुत जिम्मेदारियां हैं,अलग-अलग रूपों में रहकर तुम हमेशा कल्याणकारी ही बने रहना।
       हे पत्थर!तुम इसी तरह,जगत का हमेशा उद्धार करते रहोगे,उधर जगतपिता तुम्हारा उद्धार करते रहेंगे।भगवान कृष्ण और गोवर्धन पर्वत भी पूरे अध्यात्म जगत में चर्चित हैं,वह पत्थर भी कितने भाग्यशाली रहे होंगे जिन्होंने माखन भरी मटकियां फोड़ीं।एक वो पत्थर,जो केदारनाथ घाटी में आई बाढ़ के प्रकोप को रोकने के लिए,मंदिर के ठीक पीछे आकर टिक गया,जिसने सनातन धर्म के मुख्य स्तंभ यानि केदारनाथ मंदिर को,ध्वस्त होने से बचा लिया। कुछ तो है,वरना रसखान अगले जन्म में खुद को पत्थर बनने की अभिलाषा मन में लाते ही क्यों?             तुम्हारी शक्ति और भक्ति को जो जानता है,वह हमेशा पत्थर बनने को तैयार रहता है लेकिन अब कलयुगी संसार में,कोई पत्थर नहीं बनना चाहता और ना ही उसके महत्व को पहचानता है। इतना जरूर है कि पत्थरदिल इंसानों की संख्या में,बढ़ोतरी जरूर हुई है,लेकिन तुम उदास मत होना।इन पत्थरदिल लोगों की वजह से पाप बढ़ेगा, धर्म का विनाश होगा, फिर शीघ्र ही भगवान को अवतरित होना पड़ेगा।इस तरह,दुष्टों के दिलों में बैठे हुए पत्थर की भूमिका भी कम नहीं है,मैं तुमको नमन करता हूं,वंदन करता हूं,अभिनंदन करता हूं।
         इसलिए हे पत्थर! तुम अपने कार्यक्रम और पराक्रम का क्रम जारी रखो,तुम खुश रहो,कभी देवों पर, तो कभी दुष्टों पर,उछलते रहो, इतिहास में तुम हमेशा पूजे ही जाओगे।
         हालांकि मैं तो कबीर की कल्पनाओं वाले पत्थर को ढूंढने निकला था,जाने कहां-कहां भटकने लगा ?देखना यह होगा कि अगला आने वाला पत्थर, किसी आधुनिक भगवान के मस्तक पर पड़ेगा या दुष्टों की मत पर।

✍️ अतुल कुमार शर्मा
निकट प्रेमशंकर वाटिका
संभल
मो०9759285761, 8273011742

सोमवार, 29 जून 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की रचना ----कवि सम्मेलन की असली रिपोर्ट


      कवि सम्मेलन दोपहर 3:00 बजे शुरू होना था । हमेशा की तरह एक घंटे बाद आयोजक पधारे ।उस समय स्थल पर कोई नहीं था । होता भी क्यों ? सबको मालूम था
कम से कम एक घंटा लेट आयोजक महोदय आते हैं ।
           फिर धीरे-धीरे डेढ़ घंटे बाद लोग उपस्थित होने लगे । लोग अर्थात वह कवि जिनको कविता पाठ करना था ।कुल मिलाकर 11 कवि आ गए और काव्य पाठ शुरू कर दिया गया। पहले एक कवि ने कविता पढ़ी ,लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं था। कारण यह था कि उस समय कवि गण आ - जा रहे थे और सबका ध्यान एक दूसरे को नमस्कार करने में लगा हुआ था। कुछ लोग आपस में एक दूसरे का हाल-चाल भी पूछ रहे थे तथा कह रहे थे कि बहुत दिनों बाद मिलना हुआ ।
      पहला कवि जब कविता पाठ कर चुका तब दूसरा कवि आया । दूसरे कवि की तरफ लोगों का ध्यान जाना शुरू हुआ, लेकिन इसी बीच पहला कवि कमरे से उठ कर बाहर जाने लगा । कमरे में हलचल मच गई। तीन कवि उसके पीछे दौड़े ।उसको पकड़ कर वापस लाए। कहा" बाकी दस की कविताएं कौन सुनेगा , अगर सब लोग ऐसे ही जाने लगे ?"
    उसने कहा "मैं जा रहा हूँ। लेकिन हमेशा के लिए नहीं जा रहा हूँ। अभी 5 मिनट बाद लौट कर आऊंगा । मेरी कुछ शंका है।"
         सुनकर सब ने उसे छोड़ दिया। वह 5 मिनट बाद वापस आया और मन लगाकर कविता सुनने लगा । माहौल बड़ी मुश्किल से तीसरे कवि के साथ  जमा ।उसके बाद एक-एक करके दस कवियों ने अपनी कविताएं सुनाई।
        विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि यह बात पहले से तय थी कि सब लोग एक दूसरे की कविता शांतिपूर्वक तथा प्यार भरे माहौल में सुनेंगे और एक-दूसरे की प्रशंसा जी भर कर करेंगे । कई बार ऐसा भी हुआ कि किसी को झपकी आ गई  और वह काव्य- पाठ नहीं सुन पाया । लेकिन फिर जब वाह-वाह की आवाजों से उसकी नींद खुली तो उसने वाह-वाह करना शुरू कर दिया । इसे कहते हैं  धंधे में ईमानदारी। जो कवि काव्य-पाठ कर रहा था, उसे यह देखकर अच्छा नहीं लगा। लेकिन फिर भी जब आदमी वाह-वाह कर रहा है तो अच्छा लगता ही है। सबको मालूम है कि आधे से ज्यादा कवि एक दूसरे के साथ अच्छे संपर्क बनाने के कारण ही वाह-वाह करते हैं । वरना कौन किसकी कविताएं पढ़ता सुनता है  और किसको किसकी अच्छी लगती हैं?
         इसी तरह सब लोगों ने कविताएं पढ़ीं और कार्यक्रम परस्पर सौहार्द के वातावरण में संपन्न हुआ। सामूहिक फोटो खींचा गया । छह लोगों का सम्मान हुआ। इस बिंदु पर छह लोगों को बाकी छह लोगों ने सौ सौ रुपए का शाल ओढ़ाया और उनके सुखमय जीवन की कामना की ।
      इसी मीटिंग में यह भी तय हुआ कि इस बार जिन छह लोगों ने शाल ओढ़ाया है, अगली मीटिंग में उन छह.लोगों को शाल ओढ़ाया जाएगा तथा यह कार्य उन लोगों के कर- कमलों से संपन्न होगा ,जिन्होंने इस बार की मीटिंग में शाल ओढ़ा है । इसी के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ।

 ✍️रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
 मोबाइल  999761 5451

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम की कृति "धूप धरती पे जब उतरती है" की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा------- ‘...वो पत्ते मुस्कुराहट फूल की लेकर निकलते हैं’

ग़ज़ल के संदर्भ में मशहूर शायर बशीर ‘बद्र’ ने अपने एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार में कहा है-‘जो शब्द हमारी ज़िन्दगी में घुलमिल गए हैं, ग़ज़ल की भाषा उन्ही शब्दों से बनती है। हिन्दी ग़ज़ल के असर से उर्दू ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल के असर से हिन्दी ग़ज़ल में बड़ी ख़ूबी आती जा रही है। मुझे वो ग़ज़ल ज़्यादा भरपूर लगती है जिसकी भाषा हिन्दी और उर्दू के फ़र्क को ख़त्म करती है।’ यह बात बिल्कुल सही है कि तत्सम मिश्रित शब्दावली वाली हिन्दी की ग़ज़ल हो या फ़ारसी की इज़ाफ़त वाली उर्दू में कही गई ग़ज़ल, आज की आम बोलचाल की भाषा में कही गई ग़ज़ल की तुलना में शायद कहीं पीछे छूट गई है। दरअस्ल ग़ज़ल एक मुश्किल काव्य विधा है जिसमें छंद का अनुशासन भी ज़रूरी है और कहन का सलीक़ा भी। इसे इशारे की आर्ट भी कहा गया है। जिगर की धरती मुरादाबाद से भी अनेक रचनाकार आम बोलचाल की भाषा में बेहद शानदार ग़ज़लें कहते आए हैं और अब भी कह रहे हैं। ग़ज़ल के ऐसे ही महत्वपूर्ण रचनाकारों में अपनी समृद्ध उपस्थिति मज़बूती से दर्ज़ कराने वाले वरिष्ठ साहित्यकार डा. अजय ‘अनुपम’ के ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह ‘धूप धरती पे जब उतरती है’ से गुज़रते हुए उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल के परंपरागत स्वर के साथ-साथ वर्तमान के त्रासद समय में उपजीं कुंठाओं, चिन्ताओं, उपेक्षाओं, विवशताओं और आशंकाओं सभी की उपस्थिति को मैंने महसूस किया जिन्हें उन्होंने ग़ज़लियत की मिठास के साथ सहजभाषा के माध्यम से बहुत ही प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त किया है-
‘वो मुझे जब भी निगाहों से छुआ करता है
मेरे आँसू के न गिरने की दुआ करता है
हर शुरूआत में पहला जो क़दम रखते हैं
जीत में वो ही मददगार हुआ करता है’
हालांकि ग़ज़ल का मूल स्वर ही श्रृंगारिक है, प्रेम है। कोई भी रचनाकार ग़ज़ल कहे और उसमें प्रेम की बात न हो ऐसा संभव नहीं है। किन्तु प्रेम के संदर्भ में हर रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है, अपना कल्पनालोक होता है। वैसे भी प्रेम तो मन की, मन में उठे भावों की महज अनुभूति है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना बहुत ही कठिन है। बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम को केवल दैहिक प्रेम समझने वाले और मानने वाले लोगों के समक्ष प्रेम को बिल्कुल अनूठे रूप में व्याख्यायित किया है सुविख्यात नवगीतकार डॉ.माहेश्वर तिवारी ने अपने गीत में-‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/बेजुबान छत-दीवारों को घर कर देता है।’ वास्तव में ईंट, रेत, सीमेन्ट से बना ढांचा जिसे मकान कहा जाता है और उस मकान में रखीं सारी चीज़ें तब तक घर नहीं बनतीं जब तक प्रेम उसमें अपनी भूमिका नहीं निभाता। अपनी एक बहुत ही प्यारी ग़ज़ल में डॉ. अजय 'अनुपम' भी तक़रीबन ऐसी ही अनुभूति को स्वर देते हैं-
‘हार-जीत के बिन लड़ने को, कोई तत्पर कब होता है
गहरे प्रश्नों का समझाओ, सब पर उत्तर कब होता है
गद्दा, तकिया, ताला-चाभी और अटैची में कुछ कपड़े
सब होते कमरे में लेकिन, तुम बिन घर, घर कब होता है’
आजकल समकालीन कविता को लेकर जगह-जगह अनेक विमर्श आयोजित होते हैं, लम्बे-चौड़े वक्तव्य दिए जाते हैं और अंततः ‘समकालीन कविता में यथार्थवाद’ के संदर्भ में छान्दसिक कविता को नज़रअंदाज़ करते हुए नई कविता के सिर पर सच्ची समकालीन कविता का ताज रख दिया जाता है। मेरा मानना है कि कविता का फार्मेट चाहे जो हो, रचनाधर्मिता जब अपने समकालीन सन्दर्भों पर विमर्श करती है तो वह विमर्श महत्वपूर्ण तो होता ही है दस्तावेज़ी भी होता है। पिछले कुछ समय से बहुत कुछ बदला है। समाज की दृष्टि बदली है, सोच बदली है, पारंपरिक लीकों को तोड़ते हुए या कहें कि छोड़ते हुए घर की, परिवार की, गृहस्थ की परिभाषाएं भी बदली हैं। तभी तो ‘लिव-इन रिलेशन’ महानगरीय संस्कृति में घुलकर बेहिचक स्वीकार्य होने लगा है। समाज की इस बदलती हुई दशा पर डॉ.अनुपम तीखी टिप्पणी करते हैं-
‘हालत सबकी खस्ता भी
झगड़ा भी समरसता भी
चलन ‘रिलेशन लिव-इन’ का
अच्छा भी है सस्ता भी’
कहा जाता है कि बच्चे भगवान की मूरत होते हैं। उनकी निश्छल मुस्कानों में, तुतलाहट भरी बोली में और काग़ज़ के कोरेपन की तरह पवित्र मन में ईश्वर का वास होता है। तभी तो मिठास भरी शायरी करने वाले शायर निदा फाज़ली की कलम से बेहद नाज़ुक-सा लेकिन बड़ा शे’र निकला-‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें/किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।’ दरअस्ल बच्चे के चेहरे पर मुस्कान लाना ईश्वर की इबादत से भी बड़े एक बेहद पाक़ीज़ा काम को अंजाम देना है। डॉ.अनुपम भी अपनी ग़ज़ल में बच्चे के चेहरे पर हँसी लाने की बात करते हैं-
‘नम निगाही दे कभी जब दिल को दावत दोस्तो
इससे बढ़कर इश्क़ की क्या है सआदत दोस्तो
एक बच्चे की हँसी में सैकड़ों ग़म हैं निहाँ
हारती है इसलिए उससे शराफ़त दोस्तो’
पिछले कुछ दशकों से ग़ज़ल कहने का अंदाज़ भी बदला है और मिज़ाज भी है। तभी तो आज के समय में कही जा रही ग़ज़ल सामाजिक अव्यवस्थाओं की बात करती है, आम आदमी की बात करती है, उसकी चिन्ताओं पर चिंतन करती है, समस्याओं के हल सुझाती है। सभी माता-पिता अपने बच्चों का स्वर्णिम भविष्य गढ़ने के लिए उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाते हैं, सुविधाएं मुहैया कराते हैं लेकिन घोर बेरोज़गारी के इस अराजक समय में शिक्षा के बाद भी बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो ही जायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। लिहाजा रोजगार की तलाश में अपने घर से, शहर से, देश से दूर जाना बच्चों की विवशता बन जाती है। डा. अनुपम भी वर्तमान की इन्हीं सामाजिक विसंगतियों़ को बड़ी ही शिद्दत और संवेदनशीलता के साथ उजागर करती हैं-
‘हर आसानी चुरा रही है सुख मेहनत-मज़दूरी का
यह विकास है या समझौता इंसानी मजबूरी का
भीतर से बाहर तक गहरा अँधियारा-सा फैला है
नई पीढ़ियां भुगत रहीं दुख अपने घर से दूरी का’
वहीं दूसरी ओर आज के विषमताओं भरे अंधकूप समय में मानवता के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्य भी कहीं खो गए हैं, रिश्तों से अपनत्व की भावना और संवेदना कहीं अंतर्ध्यान होती जा रही है और संयुक्त परिवार की परंपरा लगभग टूट चुकी है लिहाजा आँगन की सौंधी सुगंध अब कहीं महसूस नहीं होती। बुज़ुर्गों को पुराने ज़माने का आउटडेटेड सामान समझा जा रहा है। इसीलिए शहरों में वृद्धाश्रमों की संख्या और उनमें आकर रहने वाले सदस्यों की संख्या का ग्राफ़ अचानक बड़ी तेज़ी के साथ बढा है। ऐसे असहज समय में एक सच्चा रचनाकार मौन नहीं रह सकता, अनुपमजी भी अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए अपनी ग़ज़ल में बड़ी बेबाक़ी के साथ समाज को आईना दिखाते हैं-
‘माँ-बाबा के पास न आते, बच्चे जो अब बड़े हुए
अँगुली पकड़ कभी जो अपने पाँवों पर थे खड़े हुए
शर्मसार हैं बूढ़े अपने बच्चों की करतूतों पर
लोग पूछते, सर्दी में क्यों घर के बाहर पड़े हुए’
या फिर-
‘भागदौड़ में दिन कटता है, उनको यह समझाए कौन
मिलने जाने वृद्धाश्रम में, समय कहाँ से लाए कौन
बस अपना सुख, अपनी रोटी, अपना ही आराम भला
बच्चे बिगड़ रहे हैं लेकिन शिष्टाचार सिखाए कौन’
अनुपमजी ने वर्तमान के इस संवेदनहीन समाज में चारों ओर उपस्थित खुरदुरे यथार्थ-भरे भयावह वातावरण को देखा है, जिया है शायद इसीलिए उनका अतिसंवेदनशील मन खिन्न होकर कहने पर विवश हो उठता है-
‘बाग़ लगाया जिस माली ने, पाला-पोसा हरा-भरा
दुनिया ने भी कीं तारीफ़ें, थोड़ी-थोड़ी ज़रा-ज़रा
बच्चों के ही साथ हो गई, अब तो रिश्तेदारी भी
भूल गए सब देना-लेना, माँ-बाबा का करा-धरा’
कहते हैं अंधेरे की उम्र ज़्यादा नहीं होती, उसे परास्त होना ही पड़ता है। उजाले की एक छोटी-सी किरण भी बड़े से बड़े अंधकार को क्षणभर में ही नष्ट कर देती है। इस विद्रूप समय के घोर अंधकार को भी आशावाद और सकारात्मक सात्विक सोच के उजाले की किरण ही समाप्त करेगी। अनुपमजी अपनी ग़ज़ल में उजली उम्मीदों से तर क़ीमती मशविरा भी देते हैं-
‘हर मुश्किल में ज़िन्दा रहने की हर कोशिश जारी रखिये
हिम्मत करिये लफ़्ज़े-मुहब्बत हर कोशिश पर भारी रखिये
बेबस बेकस कैद परिन्दा दिल का, अपने पर खोलेगा
आसमान रोशन होते ही उड़ने की तैयारी रखिये’
अनुपमजी़ की शायरी में भिन्न-भिन्न रंगों के भिन्न-भिन्न दृश्य-चित्र दिखते हैं, कभी वह समसामयिक विद्रूपताओं को अपनी शायरी का विषय बनाते हैं तो कभी फलसफ़े उनके शे’रों की अहमियत को ऊँचाईयों तक ले जाते हैं। उनकी ग़ज़ल के शे’र मुलाहिजा हों-
‘समय की शाख पर जब कुछ नये पत्ते निकलते हैं
पुराने शाह पगड़ी थाम सड़कों पर टहलते हैं
जिन्हें मालूम है पहचान अपनी जड़ से शाखों तक
वो पत्ते मुस्कुराहट फूल की लेकर निकलते हैं’
कुछ शे’र और-
‘हर तक़लीफ किसी अच्छाई की गुमनाम सहेली है
सबने सुलझाई पर अब भी उलझी हुई पहेली है
मिलकर तौबा, मिलकर पूजा, सब क़िस्सागोई बेकार
सभी जानते यही हक़ीकत, सबकी रूह अकेली है’
ग़ज़ल के शिखरपुरुष प्रो. वसीम बरेलवी कहते हैं कि ‘ग़ज़ल एक तहज़ीब का नाम है और शायरी बहुत रियाज़त की चीज़ है, साधना की चीज़ है।’ डॉ.अनुपम की ग़ज़लों से उनकी साधना को स्पष्टतः महसूस किया जा सकता है। ‘धूप धरती पे जब उतरती है’ शीर्षक से डॉ.अजय ‘अनुपम’ की यह ग़ज़ल-कृति निश्चित रूप से साहित्य की अमूल्य धरोहर बनेगी, साहित्य- जगत में पर्याप्त चर्चित होगी तथा अपार प्रतिष्ठा पायेगी, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी।




* कृति - 'धूप धरती पे जब उतरती है' (ग़ज़ल-संग्रह)
* कवि - डॉ.अजय ‘अनुपम’
* प्रकाशक - अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
* प्रकाशन वर्ष - 2019
* मूल्य - ₹ 250/-(सजिल्द)
* समीक्षक - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
मुरादाबाद
मोबाइल- 94128 05981