बीमार जीवन की कहानी तन्हाइयों का शिखर होती है । दूसरों के आधीन जीवन बड़ा बेबस होता है ।जब आप जिम्मेदारियों से निवृत हो जायें तो कल्पना ऐसी होती है कि मानो सारे जहाँ का सुख आपकी झोली में आ गिरेगा पर नियति कुछ और ही सोचती है । जग से वितृष्णा कराके ही छोड़ती है ।बाबू जी अध्यापक थे ।पूरी जिन्दगी बच्चों को पढ़ा कर अपने बच्चों के लालन पालन में लगा दी और साथ-साथ खेती बाड़ी भी चलती रही ,दो पुत्र और एक बड़ी लाड़ों की बेटी थी ।तीनों बच्चों के विवाह आदि से निवॄत हो चुकें हैं सब अपने -अपने परिवार में भली भाँति खुश हैं ।नाती -नातिन ,पोती -पोते आदि से भरापूरा परिवार अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त है सब मग्न हैं अपनी गृहस्थियों में । इतने भरे पूरे परिवार में मैं क्यों अकेला हूँ ?पत्नी बहुओं के साथ काम में हाथ बटा रही है ।विमला मेरी दवाई का वक्त हो गया है जरा पानी तो देना ।अच्छा ला रही हूँ जरा रुक जाइए ।सोनल बेटे अपने बाबा की दवाई तो उठा के ला ,मैं पानी लाती हूँ ।विमला के घुटनों में आजकल दर्द रहने लगा है इसलिए चलने फिरने में भी दिक्कत होती है लेकिन किसी से कहती नही है ,सोचती हैं जब तक हो सके चलते फिरते रहो ।लो पानी से दवाई खा लो जी ।दवाई कहाँ है? सोनू दवाई नही लाया बेटा ,विमला ने पोते को पुकारा ..लेकिन वह तो अनसुना करके खेलने निकल गया । तुम भी अपनी दवाई अपने पास ही रखा करो ,सबको पुकारते रहो कि तू ला और तू ला ।विमला ने अपनी बहुओं से कहने बजाय खुद ही लाना उचित समझा और दवाई अलमारी में से निकाल कर ,दीन दयाल जी को सहारा देकर उठाया और दवाई खिला कर रसोई में आ गईं और बर्तनों को मांजने लगीं । रहने दीजिए मांजी ,मैं कर लूंगी आप बाबू जी को देख लीजिए वो फिर आपको आवाज लगायेंगें, छोटी बहू निर्मला ने थोड़ा मुस्करा कर कहा ।नही बहू कोई बात नही जब तक हाथ-पैर चलते रहें तब तक सही है नही तो परवशता अपने आप में ......और उनकी आवाज में लाचारी लरजने लगी ।
बाबू दीनदयाल फिर आवाजें देने लगे ।
✍️ मनोरमा शर्मा
अमरोहा
.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें