मैं विचारों को
रूई की तरह
धुनता था
अपने ज्ञान के
शब्दकोश से
मोती कुछ चुनता था
भावनाओं के धागे से
गीत नया बुनता था
लेकिन फिर भी
रहता था
उपेक्षित सा
खुद ही उसको
पढ़ता था
खुद ही उसको
सुनता था
धीरे धीरे
जब पड़ी समय की मार
मैं हो गया समझदार
कहीं से ईट
कहीं से रोड़ा उठाने लगा
लीपा पोती करके
कविताओं के
महल बनाने लगा
चर्चित पत्र पत्रिकाओं में
अब धडल्ले से छपता हूं
बुक स्टालों पर बिकता हूं
कवि सम्मेलनों में जमता हूं
अगली पिछली
दोनों पीढ़ियां
आराम से पल रही हैं
और मेरी मौलिक रचनाएं
मुझ तक को खल रही हैं
✍️ डॉ पुनीत कुमार
T 2/505 आकाश रेजीडेंसी
मुरादाबाद 244001
M 9837189600
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