बुधवार, 1 मार्च 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी ) प्रदीप गुप्ता के दोहे ....


उड़े रंग जो प्रेम के होली में इस बार 

सतरंगी आकाश हो गूंजे जय जयकार 


गुजिया घर बनती नहीं ना कांजी का स्वाद  

चाकलेट से हो गया फीका सा   आस्वाद


टेसू अब भी खिल रहे जंगल में सब ओर

किस को फ़ुरसत है बची लाए उनको तोड़ 


चीनी पिचकारी और  रंग से  अटा पड़ा बाज़ार 

देसी राग आलाप कर , लें ख़रीद  हर बार 


बरगुलियाँ ग़ायब हुईं  न मिले आम की डाल  

कैरोसिन को झोंक कर होलिका  दी है बाल  


दोज फुलेरा से होते थे शुरू पहले होली रंग 

सिमट चुका अब  एक दिन होली का हुड़दंग


कभी चंग की थाप पर  खेला जाता फाग जी 

दारू के संग आजकल  गा रहे बेसुरा  राग   


अभी वक्त है कुछ सोच लो छोड़ो सभी कुरंग 

होली खेलो प्रेम से समृद्ध परम्परा के संग

✍️ प्रदीप गुप्ता, मुंबई



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