गुरुवार, 10 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी - विद्रोही । यह हमने उनके वर्ष 1941 में प्रकाशित कहानी संग्रह 'कारवां' से ली है। इस कहानी संग्रह को पृथ्वीराज मिश्र ने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित किया था। इस संग्रह की भूमिका पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखी थी ।


 चित्रकार के सामने कैनवस पर आधा चित्र बन चुका था। मेज पर तरह-तरह के रंग और ब्रश रखे हुए थे। उसकी कल्पना चित्र-रचना में डूबी हुई थी। आँखों से प्रतिमा का प्रकाश सामने चित्र-पट पर बरस रहा था । नुकीली पतली नासिका उसके कुशल कलाकार होने का परिचय दे रही थी। इस समय वह स्वप्न-लोक के खिले हुए पुष्प के समान अवर्णनीय सौन्दर्य ग्रहण किये हुए था । आज तड़के ही से उसकी आँखें खुल गयी थीं। उनकी निद्रा रूप रचना की लालसा ने चुराली थी। उसने विद्युत प्रकाश किया और - स्टूडियो में खड़े-खड़े उसके कर एक सुन्दर चित्रपट पर तूलिका से अपार सौन्दर्य को क्रमशः रेखा-बद्ध करने लगे। आँखों में एक छवि झूल रही थी  और सामने तूलिका व्याकुलता से कैनवस पर चल रही थी। उसे कई घन्टे इसी तरह व्यतीत हो गये, प्रभात की रश्मियां अब आरम्भ हो चुकी थीं।

वह कार्य कर ही रहा था कि उसके सेवक ने धीरे-धीरे स्टूडियो में प्रवेश करके उससे कहा - "स्वामी, डाकिया ये लिफाफे और कार्ड लाया है।" "सामने मेज पर रख कर चले जाओ" - उत्तर देकर चित्रकार फिर एक नया ब्रश उठाकर रंग भरने में तल्लीन हो गया। नौकर दबे पैर आज्ञा पालन कर कक्ष से धीरे-धीरे बाहर चला गया । वह कुछ बड़ बड़ाता हुआ बाहर जा रहा था। जैसे अपने स्वामी के पागल पन पर खीझ रहा हो ।
      मध्यान्ह तक चित्र भी समाप्त हो गया। उल्लास की एक रेखा उसके विकसित मुख पर दौड़ रही थी। वह अपने चित्र को देखता जाता था और अस्फुट बुदबुद स्वर में उसकी प्रशंसा भी करता जाता था । चित्र एक पुष्प से उत्पन्न रमणी का था, उसमें अनन्त वसन्त का यौवन और विकास अवतरित हुआ था। कुछ कालतक वह मुग्ध निर्निमेष दृष्टि से चित्र के रूप को निरखता रहा और मन ही मन प्रसन्न होता रहा। यह चित्र भविष्य में संसार के आलोचकों का अमर अजेय मोह बन जायगा, उस का ऐसा दृढ़ विश्वास था। इस चित्र के प्रकाशन के बाद उसकी अनवरत साधना कुसुमित हो जायगी। हर्षातिरेक से अपनी मानवीय सीमा को भूलते हुए चित्रकार ने रंगों की उस प्रतिमा को सम्बोधित करते हुए कहा रूपसि ! जिस प्रकार उषा को जन्म देकर उसका पिता सूर्य अपनी पुत्री पर रीझ उठता है और उसके यौवन को निरखने के लिए तत्काल मेघों के परदों से झाँकने लगता है और फिर कन्या अपने पिता को चिरकाल को दूसरे रूप में वरण कर लेती हैं वैसे ही आज से तुम भी मेरे हृदय को अपने सौन्दर्य से जगमगाती रहो। अच्छा, अब मुझे अपने दैनिक कार्यों से निबटने की आज्ञा दो, तुम्हारी ग्रीवा में माला फिर पहनाऊँगा ।" चित्रकार ने यह कह कर भावावेश में अपनी सुन्दर कृति के कपोल उसे रति समझते हुए चूम लिये | चित्र का नाम पुष्पा था ।
चित्रकार ने लिफाफे खोलना प्रारम्भ किये । लिफाफे पत्रिकाओं के सम्पादकों के भेजे हुए थे। पहला लिफ़ाफ़ा 'उषा' के सम्पादक का था | सम्पादक ने उसका चित्र 'सौंदर्य अवतरण' वापस भेजते हुए लिखा था- चित्र अत्यंत चित्ताकर्षक, मनोहर और कल्पनापूर्ण है । कलाकार को अमर करने के लिए ऐसी एक कृति ही पर्याप्त है । संसार में सौंदर्य ने किस प्रकार जन्म लिया, इसकी कल्पना में मौलिकता और स्वाभाविकता दोनों ही का सुन्दर सामंजस्य है लेकिन हमें खेद है कि हम इसे प्रकाशित नहीं कर सकते । शिष्टाचार, नीति और सदाचार के नाते ऐसे चित्रों को प्रोत्साहन न देने में ही समाज का कल्याण है ! " पत्र पढ़ते ही चित्रकार कलेजा मसोस कर रह गया। झूठी नीति का ख्याल उसे घायल कर रहा था ।
    दूसरा लिफाफा 'इन्दु' के सम्पादक का था। उन्होंने चित्र वापस करते हुए अपनी टिप्पणी भी लिख दी थी कि हम ऐसे अश्लील, धृष्ट और हेय चित्र को छाप कर अपनी ग्राहक संख्या नहीं घटाना चाहते | हम व्यवसाय की दृष्टि से इसका प्रकाशन करने में असमर्थ हैं, यद्यपि ऐसा सुन्दर चित्र 'सुरा और साकी' हमारी दृष्टि से अभी तक नहीं गुजरा है। हम न छाप सकने पर भी आपको इस कलाकृति के लिए बधाई दिये बिना नहीं रह सकते। इसी प्रकार किसी सम्पादक ने यह लिखा था कि चित्र देखने में अत्यन्त सुन्दर है लेकिन ऐसे चित्र को छाप कर वे पब्लिक को किस प्रकार मुँह दिखा सकते हैं। किसी ने यह लिखा था कि चित्र बड़ा ही कलापूर्ण मालूम होता है यद्यपि उसकी कला वह समझ नहीं सका। अत: चित्र वापस किया जा रहा है। जैसे गूंगा मिठास का आनन्द तो लेता है लेकिन 'मिठाई क्या है' बता नहीं सकता । कोई सम्पादक जो बहुत शिष्ट था उसने केवल इतना ही लिखकर चित्र वापस कर दिया था कि 'हम स्थानाभाव के कारण छापने में असमर्थ हैं।' वह इन संक्षिप्त शब्दों का अर्थ खूब समझता था । ये गागर में सागर वाली कहावत चरितार्थ करते हैं।
     चित्रकार ने लिफाफे जमीन पर पटक दिये। कितने ही काल से निराशा उसका भोजन और नीर बन चुकी थी। वह ऐसे ढोंगी संसार से नाता तोड़ रहा था। वह बाहर इष्ट मित्रों से बहुत कम मिलने जाया करता था | अब वह साहित्यिक संसार से भी सम्बन्ध अलग करने की सोच रहा था। कभी-कभी उसके हृदय में ऐसी विचार-तरंगें उठती थीं कि वह अपने रंग बहा दे, ब्रश और तूलिकाएँ तोड़ डाले और पटपत्रों में आग लगा दे, लेकिन ललित कला का प्रेमी उनके बिना जी भी कैसे सकता है ? वह फिर उन धक्कों को भूल जाने की कोशिश करता और अपने इष्ट की आराधना में मग्न हो जाता था ।
     चित्रकार उदास, आभाहीन, विवर्ण आनन लिये हुए उठा और कमरे में गुनगुनाता हुआ धीरे-धीरे टहलने लगा । उसका आत्म विश्वास ठगा गया था, साधना विक्षिप्त हो रही थी और विवेचना गूंगी संसार की रुचि को अपनाने की चेष्टा उससे न होती थी और न वह अपने चित्रों को बाजारू बनाना चाहता था। वह अपनी कला की परख वाली हीरे की दृष्टि काँच के परखने वालों की आँखों से कैसे बदल ले ? स्वान्तः सुखाय के अतिरिक्त यश और ख्याति की आशा उसे न छल सकेगी | अब वह प्रकाशकों के पास अपनी कृतियाँ प्रकाशनार्थ न भेजेगा जिनमें साहस, क्रान्ति, नवीनता तथा मौलिकता के लिए सहानुभूति नहीं है । उसे इन विचारों में बहुत देर हो गई। नौकर को झाँकते हुए देख कर वह दैनिक कार्यों को समाप्त करने के लिए कक्ष से बाहर चला गया |
निपट निराशा में इतना दुःख नहीं होता जितना उसे उकसाने वाली आशा के यदाकदा विफल दौरे होते रहने पर । एक लौ से जलने वाले दीप का प्रकाश आँखों को बहुत तेज होने पर भी सुहा जाता है, उसी तरह घोर अटूट अन्धकार भी, लेकिन बिजली की क्षणिक दमक सन्तोषी जीवन को तृष्णा का गरल पिला देती है । चित्रकार का जीवन शतरंज की पटी की तरह, दिन में वृक्ष की छाया की तरह, आशा और निराशा से दुरंगा था। वह कभी अधीर उबल उठता तो कभी शीतल हिम की तरह जम जाता था । कला के पुजारियों की यही दशा हुआ करती है । आलोचकों के थप्पड़ों की उनके गालों को आदत होनी चाहिए और एक गाल के बाद दूसरा गाल बढ़ा देने की क्षमता भी  लेकिन चित्रकार अभी युवक ही था वह सांसारिक पाठ धीरे धीरे सीख रहा था ।

एक दिन उसका एक साहित्यिक मित्र उससे मिलने आया । दोनों कई वर्ष तक प्रयाग विश्वविद्यालय में सहपाठी रह चुके थे और बहुत दिनों से बिछुड़े हुए थे। दोनों छाती भर कर मिले, जैसे कृष्ण और सुदामा | वह विवेकी आलोचक भी था | उसने चित्रकार से कहा – “आदर आतिथ्य तो फिर करना पहले यह तो बताओ कि वह पुरानी बीमारी चली जा रही है या अच्छे हो गये हो ?" "उस रोग का इलाज ही कहाँ है? हाँ, तुम आलोचक हो, ऐसी दवा दे सकते हो कि रोग न रहे, न रोगी ही।" चित्रकार ने मार्मिक ढंग से मजाक करते हुए उत्तर दिया ।
(हँसते हुए) “समझ गया, लेकिन तुम्हारे चित्र किसी पत्रिका में देखने को नहीं मिले । "
“रोगी ने तुम्हारी कड़वी गोली की कभी आवश्यकता नहीं समझी | " " उन गोलियों के बिना सुधार नहीं हो सकता।”
“ और सुधार के बिना प्रकाशन नहीं हो सकता।”
"मतलब ? "
“मुझ में परिष्कृत रुचि नहीं मेरे चित्र अश्लील और अनैतिक होते हैं, इसलिए सम्पादक छाप नहीं सकते। उन्हें यह भय है कि मेरी अश्लीलता की मुहर उनके मोम के सांचे पर न लग जाय ।”
“ मैं भी तो उन चित्रों को देखूं । "
"कहीं तुम्हारे मानस में काई लग गई तो ?”
" फिर तुम्हारी संख्या बढ़ जायगी | "
" ठीक है । बहुमत के दोष उसकी शक्ति बन जाते हैं। अच्छा तो भीतर आओ । ”
दोनों उठ खड़े हुए और स्टूडियो में पहुँचे । चारों ओर तरह तरह के चित्र बने हुए रखे थे। कई कैनवस कोरे टँगे हुए थे और कई पर केवल रेखा चित्र ही बने थे। उनमें अभी रंग भरना शेष था, तरह-तरह के रंग और ब्रश, तूलिकाएँ, कैंची, चाकू तथा चित्रकारी के अन्य यन्त्र वहाँ संग्रहीत थे । इधर-उधर छोटे-बड़े दर्पण जड़े हुए थे और उनके निकट मिट्टी के बने हुए चित्र क़रीने से सजे हुए थे । काग़ज़ पर बने चित्र भी स्थान स्थान पर सुन्दर बेल वूटों से खचित चौखटों में जड़े हुए दीवालों से टँगे थे । चित्रकारी का सारा सामान जुटाया हुआ था । मूँज की चटाइयों पर मखमल और सूत की रंग-बिरंगी कालीनों का फ़र्श था। एक दो मेज पर लिखने-पढ़ने का सामान भी था तथा एक कोने में चित्रकला सम्बन्धी पुस्तकों से भरी हुई एक अलमारी रखी हुई थी । चित्रकार चित्रों को दिखलाता हुआ अपने चित्रकला सम्बन्धी विचार प्रकट करता जाता था जैसे आजकल प्राचीन इमारतों के दिखलाने गाइड' काम करते हैं और उसका मित्र विस्फारित प्रशंसक दृष्टि से चित्रों को देखता जाता था। उसका जी चित्रों को देखकर भरता ही न था, वह जिस चित्र को भी देखता उसी पर उसकी नज़र चिपक जाती। ऐसे सुन्दर चित्र उसने कभी नहीं देखे थे । चित्र देखते हुए दोनों अब सबसे नवीन चित्र के निकट आ पहुँचे । यह सबसे अंतिम चित्र 'पुष्पा का था। अभी तक चित्रकार ने उसे माला नहीं पहनायी थी। उसका हृदय इतना भारी हो चुका था कि वह तूलिका न उठा सकता था और तब से उसे उसने अपूर्ण ही छोड़ रखा था । चित्रकार उस चित्र की ओर संकेत करता हुआ दुखित स्वर में अपने मित्र से बोला: – " मित्र, यह मेरा अन्तिम प्रयास है, अभी तक मैंने इसे पूरा भी नहीं किया है ।
" क्यों ? तुम्हारे चित्र इतने कलापूर्ण हैं कि सर्वोत्तम कलाकार ने ही ऐसे सुन्दर चित्र बनाये होंगे ।
" लेकिन संसार इन्हें केवल एकान्त के लिये सुन्दर समझता है । विश्व के आलोक में इन्हें देखने की हिम्मत नहीं रखता । " वे ढोंगी हैं । सुन्दर सर्वत्र सुन्दर है, प्राइवेट में भी और पब्लिक में भी । इसे पूरा कर डालो । "
" तुम्हें सचमुच चित्र पसन्द आये या केवल मैत्री के नाते से ही.....?
" विश्वास करो, तुम्हारे स्टूडियो में हीरों की खान है जिनका मूल्य अङ्कों की गिनती में नहीं आ सकता । "
" देखो, मैं अभी चित्र पूरा किये देता हूँ — " कहकर कलाकार ने तूलिका उठाली । जितनी जितनी माला बनती गई उसका मित्र प्रशंसापूर्ण विस्मित नेत्रों से कभी उसके मुख को कभी तूलिका को और कभी चित्र को देखता रहा। इतना अभ्यस्त कर उसने कभी
किसी चित्रकार का नहीं देखा था। कुछ ही काल में माला हो गई। चित्रकार गद्-गद् बोल उठा — “ रूपसि ! तुम्हारी वर्णमाला पूर्ण हो गई । "
“ मित्र, तुमने कमाल हासिल कर लिया है - " आदर के स्वर में चित्रकार से उसने कहा
" चित्र कैसा है ? " चित्रकार ने पूछा ।
“ सबसे श्रेष्ठ और कलापूर्ण । तुम अपने चित्र “ पिक्चर्स आर्ट गैलरी" में अवश्य भेजना सर्व प्रथम पारितोषिक पाओगे।"
“कलाकार धन का भूखा नहीं होता। केवल सम्मान चाहता है | क्या चित्र इतने सुन्दर हैं ?"
" निस्सन्देह, और चित्र को तो जी चाहता है कि अपने साथ ले जाऊँ।"
"सच ? "
" हां "
"तो लो, मेरी ओर से इसे उपहार समझो। ( उसका हाथ पकड़ते हुए) संकोच मत करो, ले लो, इसे अपनी ही वस्तु समझो | "
(प्रसन्नता से हाथ बढ़ाते हुए) "लाओ, (लेकिन उसी क्षण हाथ खींचते हुए) आज नहीं फिर कभी ले जाऊँगा ।”
" न लेने का बहाना अच्छा है, (हँसते हुए) क्यों ?"
"क्षमा करो। स्पष्ट कह रहा हूँ, मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। उनकी फूल सी कोमल कल्पना पर चित्र का बुरा प्रभाव पड़ेगा ।"
(व्यंगपूर्वक) "उनके मानस में काई लग जाने का भय है। बड़े सीधे हो ढोंग करना नहीं जानते | "
( घबराते हुए ) "अब मैं जाने की आज्ञा चाहता हूँ ।”
" धन्यवाद !"
चित्रकार का मित्र डगमगाते पैरों से शीघ्रातिशीघ्र कक्ष से बाहर हो गया । खुले मैदान में पहुँच कर उसने आराम की साँस ली । अब तक उसका दम घुट-सा रहा था । परीक्षा के वे क्षण याद कर वह काँप गया, कन्धे उठाकर चित्रकार मार्मिक चोट खाया हुआ सा कोच पर लेट गया और उसने हाथों से आँखें ढक कर आशा का कपड़ा उधेड़ना शुरू कर दिया, संसार की ढोल की नीति से वह कितनी बार धोखा खा चुका था ।
   उसने एक मास बँधे हुए पानी के सरोवर की भांति निस्पन्द, निर्जीव आलस्य में बिता दिया, तूलिका हाथ में बिना पकड़े हुए | वह कभी तरंग उठने पर स्टूडियों में चोरों की तरह घुसता और घबरा कर उसी क्षण बाहर निकल आता था। कमरे में गर्द चढ़ने लगी थी, जैसी त्यागे हुए स्थान की दशा हो जाती है ।
संसार का क्रम ही परिवर्तनशील है वह एक बार फिर रंगों की दुनियों बनाने में अपने को बाँधने लगा और साथ ही साथ उसके हृदय में यश अर्जन लिप्सा सजग होने लगी। कलाकार की सबसे महान् दुर्बलता यही होती है ।
'पिक्चर्स आर्ट गैलरी' के उद्घाटन का समय ज्यों ज्यों निकट आने लगा उसके हृदय की उत्तेजना बढ़ने लगी। चित्रकारों के समुदाय में एक बार बैठने की अभिलाषा उसके उर को उकसा रही थी। शराबी की तरह निषेध का प्रण उसे कब तक रोक सकता था ? आखिर उसने अपने सर्वोत्तम चित्र छाँट ही डाले और पिक्चर्स गैलरी में भेज दिये। उसने सोचा कि असफलता होने पर उसका प्रतियोगिता के अखाड़े में अन्तिम बार ही उतरना होगा ।
उन दिनों उसके हृदय में कितनी धुकधुक रहती थी। वह दिन बड़ी बेचैनी से बीतते थे । समाचार पत्रों में निर्णय छपा । उसका नम्बर केवल इसलिए नीचे धकेल दिया गया था कि उसके चित्र समष्टि के लिए कल्याणकारी नहीं थे। बाग़ी को वहाँ भी सहारा न मिला । कला की वस्तु पर साधारण के लाभ की छाप होनी चाहिए। इस बार भी वह अपने मन से अपने कला के आदर्शों से इन निर्णायकों के दृष्टिकोण का समझौता न कर सका लेकिन इस बार उसके विद्रोह की आग पर क्षणिक राख भी न पड़ सकी, वह और भी तीव्र भड़क उठा। इस बार उसके भीतर का नर जाग उठा था जैसे सोये हुए सिंह को छेड़ने पर । उसने संसार को चुनौती देने की ठान ली ।
इस घटना के कई दिन बाद वह एक सन्ध्या में अपने स्टूडियो में बैठा हुआ चित्र बना रहा था, नौकर ने सूचना दी कि एक नवयुवती महिला आप से मिलना चाहती है। वह उन्हें अन्दर लाने की आज्ञा देकर उत्सुक दृष्टि से नवागन्तुका की प्रतीक्षा करता हुआ द्वार की ओर देखने लगा। द्वार खुला और सौन्दर्य की एक प्रतिमा ने अन्दर प्रवेश किया। दोनों में बात चीत प्रारम्भ हो गयी। उसके लावण्य के साथ विद्रोह की ज्वाला उसके स्वर तथा हाव-भाव भंगिमाओं में भभक उठती थी। उसने बतलाया कि वह उससे चित्रकला सीखना चाहती है। उसने पिक्चर्स गैलरी में उसके चित्र देखे थे और उसे वे सबसे अधिक पसन्द आये थे । चित्रकार एकाएक उसकी बातों पर विश्वास न कर सका । उसने उत्तर दिया "लेकिन वे चित्रनीति के नियमों का उल्लंघन करते हैं। समाज शरीर को संघातक रोग की तरह उनसे विपक्ति की आशंका है। फिर आप उन्हें कैसे पसन्द करती हैं ?"
"वे संक्रामक अवश्य हैं। मुझे भी उनसे छूत लग गयी | "
" इसी कारण आप किसी तीर्थ को जाएं और देवालय में रहें , यहाँ शो शायद ही...|''
“ लेकिन मेरा तीर्थ तो यही है, देवालय भी यही बनेगा।" ( हँसते हुए ) आप अपनी आत्मा को बचाने का प्रयत्न करें।"
" मै अब किसी और धर्म में अपनी शुद्धि नहीं चाहती। आप मुझे दीक्षा दें और शिक्षा भी । "
चित्रकार कुछ और न कह सका। उसने उसे चित्रकला की शिक्षा देना स्वीकार कर लिया आज उसने चित्र ही दिखलाये। उसे अब कुछ कम एक वर्ष सीखते हुए बीत गया । उसने अपने लेखों द्वारा साहित्य क्षेत्र में चित्रकार के अनुकूल वातावरण बना दिया | उसके लेख गहन, गवेषणा पूर्ण होते थे और पत्रिकाओं में छपते थे। कुछ सम्पादक यदा कदा चित्रकार के चित्र भी छाप देते थे | प्रोपेगेन्डा का यही महत्व है । चित्रकार के हृदय में उसकी शिष्या ने घर कर लिया था । एक दिन दोनों स्टूडियो में बैठे हुए थे । बाहर रिमझिम रिमझिम बूंदें गिर रही थीं । अँधेरे में कभी बिजली जैसे हँसी उनके गम्भीर मुख पर दौड़ पड़ती थी। उसने चित्रकार से कहा -
"आज मुझे पूरा एक वर्ष हो गया । आज ही के दिन मैं यहाँ आई थी।"
"बड़ा ही शुभ था वह दिन । मुझे तो एक वर्ष एक दिन की तरह मालूम हुआ | ये दिन कितने सुख से कटे ! "
"अब मैं विदा चाहती हूँ ।"
( चौंकते हुए ) " क्यों ?”
“मेरा उद्देश्य समाप्त हो चुका है । "
“लेकिन मैं किस तरह से रह सकूंगा ?"
“पहले की तरह, तब भी तो अकेले थे, निपट अकेले साहित्य तथा संसार में । "
पर तब भी मुझे अपनी दुर्बलता प्यारी मालूम होती है। तुम्हारा वियोग असह्य होगा |”
“ऐसी मुझमें कौनसी वस्तु है जिसको बिना देखे तुम रह नहीं सकते।"
" तुम ! "
“ मैं भी तुम्हें विदाई के उपलक्ष्य में कुछ देना चाहती हूँ और वह भी तुम्हारा मन चाहा | "
" सच ?" चित्रकार उछल पड़ा ।
( उसका कर चूमते हुए ) “तुम्हें मैंने धोका ही कब दिया ? मैं तुम्हें अनन्त काल के लिये, अनन्त आनन्द के लिये अपने को ही दे रही हूँ । उठो, यह लो "
इतना कह कर प्रकाश के नीचे चित्रकार की मेज़ के पास कैनवेस खचित लकड़ी के सहारे वह खड़ी हो गई। उसके वस्त्र खिसक गये थे, किसी यन्त्र की तरह उसने चित्रकार से सस्मित अधरों से कहा
“आओ, चित्रकार आओ, अपनी तूलिका उठा लो और रंगों से अमर चित्रपटी पर मुझे ग्रहण कर लो ।”
चित्रकार मुस्कराता हुआ उठा। वह माडेल की भाँति कैनवेस की लकड़ी के सहारे मुस्कराती खड़ी थी और चित्रकार की चंचल उँगलियाँ तूलिका और रंगों के सहारे मनोवांछित वस्तु ग्रहण करने के लिये चित्रपटी पर उत्सुक दौड़ रही थीं ।

:::::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 9 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी --- नया अनुभव । यह कहानी उनके कहानी संग्रह श्रंखलाएं से ली गई है । यह कहानी संग्रह सन 1943 में पृथ्वीराज मिश्र द्वारा अपने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित किया गया था ।


रामजीमल वास्तव में चोर नहीं था लेकिन जिसके यहाँ चोरी का माल पकड़ा जावे वह अपने को निर्दोष कैसे सिद्ध कर सकता है। अन्त में रामजी• मल के हजार कहने पर भी उसे चोरी में छह महीने की सजा हो ही गई। आज तक उसका अंञ्चल साफ था लेकिन जेल में पहुँच कर उसने सभी हुनर सीख लिये । वह चुटकी बजाते बजाते जेब काट सकता था, ताला तोड़ डालना उसके बायें हाथ का खेल था | ताश के पत्तों के खेल उसे एक से एक अच्छे आते थे । कौड़ियाँ फेंकने में वह इतना दक्ष होगया था कि जो दांव माँगता वही आता था । जैसे वह कुछ पढ़ कर कौड़ियाँ फेंकता हो । शराब, चरस, कोकीन, और भांग 0यह नशे उसके जीवन के साथी बन गये थे। सारांश कि जेल ने उसे पक्का सभ्य बना दिया था ।

       जेल से छूटने पर उसे अपने चारों ओर अन्धकार दिखाई दिया। अब कोई भी उसके साथ बैठकर बातचीत करना, हँसना और खेलना पसन्द नहीं करता था। उसके पहुँचने पर सभायें उजड़ जाती थीं । उसने नौकरी बहुत तलाश की लेकिन भला कौन सजा काटे हुए व्यक्ति को अपने यहाँ स्थान दे सकता था ? वह दर-दर मारा बेकार फिरा भूख ने उसके पेट और कमर एक कर दिया । व्यवसाय करने के लिए उसके पास धन नहीं था, वह यही सोचा करता था कि वास्तव में क्या मैं चोर हूँ | क्या संसार मुझे चोरी करने के लिए बाध्य नहीं कर रहा है ? एक बार वह एक बैंक में एक जगह खाली होने की खबर सुनकर आवेदन पत्र लिये पहुँचा। वह खजान्ची या रुपये पैसे रखने या लेने देने वाले काम की नौकरी नहीं माँग रहा था। वह सिर्फ बैंक में चपरासी होना चाह रहा था। आवेदन पत्र लिए मैनेजर के कमरे से वह लौट आया। बैंक में प्रमाण पत्र पाये हुए को जगह कहाँ ? इसी तरह वह एक बीमा कम्पनी के दफ्तर में चपरासी की नौकरी के लिए दरख्वास्त लिए ला रहा था | बरसात का मौसम था सड़क पर कुछ कीचड़ थी । वह पैदल अपना मार्ग पूरा कर रहा था कि बीमा कम्पनी के मैनेजर की मोटर सनसनाती हुई रास्ते से निकल गई । छींटों से उसके कपड़े खराब हो गये । उसने आसमान की ओर देखा और एक ठण्डी आह भरते हुए सोचा कि वह दिन कब आएगा कि जब हम सब आदमी एक दूसरे के बराबर होंगे ।

        जब वह बीमा कम्पनी के मैनेजर के पास पहुँचा तब वहाँ ने उसको धक्के देकर बाहर निकाल दिया । एक गन्दे आदमी को सने हुए जूते पहन कर दफ़्तर का फ़र्श खराब करने का क्या अधिकार हो सकता है ? सर्राफ़, बजाज, बिसाती, पंसारी या ऐसे ही और सौदागर एक चोर को अपने यहाँ किस तरह स्थान दे सकते थे ।

अब उसने भीख माँगने की ठानी ।

नर्बदा तालाब पर रहने वाले महात्माओं के शिष्य भिक्षाटन के लिये वैकुण्ठी कामर लेकर नगर में रोज सुबह दौरा करते थे और शाम तक आटा दाल चावल और बहुत सा घी और पैसे लेकर मठ को लौटते थे। कृष्ण जन्माष्टमी के उत्सव पर वहाँ मठ में बड़ी धूमधाम से जल्सा होता था गाने बजाने के समारोह के साथ साथ श्रद्धालु भक्त चलते समय रुपये पैसे चढ़ाते थे । प्रयागदास एक मोटी थैली में उस दिन की आमदनी संभाल कर अन्दर रखने गए । रामजी भी भूखा गाना बजाना सुनता रहा । भूखे को ऐसे गाने बजाने से आनन्द ही क्या आ सकता है ? जब कृष्ण जन्म हो चुका और जनता चली गई तो रामजीमल ने महन्त प्रयागदास के चरण पकड़ लिए और उनसे कुछ खाना देने के लिए अनुनय विनय की । वह मिठाइयां और फल खाकर वहीं सोगया । महन्त जी और उसके शिष्यगण भी सो गये । रामजीमल ने उस बड़ी थैली को रुपयों और पैसों से ठसाठस भरा देखा था। माया ने उसकी आँखों की नींद हर ली थी । वह नींद का बहाना किये हुए लेटा रहा। अवसर पाकर वह महन्त जी की उसी कोठरी घुस गया, जहाँ वह मोटी थैली रखी हुई थी। मोटी रैली पाकर वह फूला न समाया | वह सोच रहा था कि अब एक महीने के लिए खाने का प्रबन्ध हो गया ।

      वह मठ से निकला पागल की तरह भागा सड़क पर चला जा रहा था । रास्ते में तालाब में स्नान करने को जाने वाले महन्तजी के कुछ भक्तों ने उसे चोर समझ कर पकड़ लिया, थैली इस समय भी उसके हाथ में थी। एक ने टार्च की रोशनी में थैली पहचानते हुए दूसरे से कहा । यह तो वही थैली मालूम होती है जिसमें महन्त जी रोज की आमदनी रखते हैं। दूसरे ने राम जी के हाथ से थैली छीन की । अव सब रामजीमल को पकड़ कर मठ में ले आये । महन्त जी इस समय भजन कर रहे थे। कुछ झुकमुका हो गया था। भक्तों ने रामजीमल को महन्त जी के सामने उपस्थित कर दिया और सब कहानी सुना दी । महन्त जी कुछ मुस्कराये और बोले आप सब ने इनके साथ बड़ा ही अन्याय किया | यह थैली इन्होंने चुराई नहीं थी। यह कई दिन के भूखे थे इसलिये मैंने यह थैली इन्हें दे डाली थी। उनमें से एक ने महन्त जी से पूछा कि आप भूल तो नहीं रहे हैं। महन्तजी नै दृढ़ स्वर में उत्तर दिया । नहीं थैली मैंने ही दी है। आप सब जाइये और इन्हें भी जाने दीजिये ।महंत जी के भक्त धीरे धीरे बाहर चले गये । रामजीमल हाथ में थैली थामे वहीं खड़ा हुआ महन्त जी की उदारता पर अचम्भा कर रहा था । यह उसके जीवन में एक नया अनुभव था ।

:::::::::::प्रस्तुति:::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार की ग़ज़ल ------रोग के इस दौर में कोई किसी का ना हुआ । जिसको अपना मानते थे,वो भी अपना ना हुआ


रोग के इस दौर में कोई   किसी का  ना हुआ ।

 जिसको अपना मानते थे,वो भी अपना ना हुआ ।।


 तंदुरुस्ती छीन लीं        बीमारियों  ने आजकल ,

नाज़ था जिसको बदन पर वो भी उसका ना हुआ ।।


  उम्रभर जो धन बचाया, वो चिकित्सा में गया,

 हमने धन को अपना समझा, वो हमारा ना हुआ ।।


फिर रहे हैं दर-बदर वे काम की करते तलाश ,

कौन है उनमें से ऐसा , जो कि रुसवा ना हुआ ?


दाम हर-इक चीज़ के   आकाश को छूने लगे ,

वो ये कहते हैं कि दामों में इज़ाफ़ा ना हुआ ।।


दीखती रौनक़ नहीं है अब किसी बाज़ार में ,

लगता था बाज़ार अच्छा, वो भी अच्छा ना हुआ।।


उम्र बीती घर बनाने  में   है जिस मज़दूर की ,

उसके रहने के लिए कोई    ठिकाना ना हुआ ।।


हर तरफ़ छाई उदासी आजकल 'ओंकार'  है ,

अब तो बरसों से कहीं हंसना-हंसाना ना हुआ ।।


✍️ ओंकार सिंह'ओंकार', 1-बी-241 बुद्धि विहार, मझोला, मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244001

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत ------झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ


झुर्रियां झुर्रियां, झुर्रियां झुर्रियां 

मुख पे छाई हुई रश्मियां रश्मियां


डोलता है गगन, बोलती यह धरा

संभलो-संभलो कि कांपती यह जरा

क्या पता तुमको,हमने पढ़ी सुर्खियां 

झुर्रियां झुर्रियां झुर्रियां झुर्रियां।।


यदा कदा दमकता, तपता, खनकता

भोर संग उतरता, झिलमिल चमकता

रातभर चाँद तक, चढ़ते थे सीढियां

झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।। 


दौड़ते- भागते, हाँफते- खाँसते

दूर थी मंजिलें, जांचते- वाचते

देखी कब हमने, अपनी कुंडलियाँ

झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।।


मोर है न पँख किन्तु, अंक में अंक है

घोष है समर का, कृष्ण सा शंख है

 लोरियाँ, झपकियाँ, थपकियाँ, थपकियाँ

झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।


अश्वमेघ यज्ञ सा, सूरज के रथ सा

बोल रहा तपस्वी, नक्षत्र यह छत्र का

सामने वेदियां,  भाल पर पोथियां

झुर्रियां झुर्रियां, झुर्रियां झुर्रियां।।


गीत अवसान का, अनुभवी तान का

ठहर जा ठहर जा,  भाव ये मान का

हाथ से आंख तक , तैर गई पीढ़ियां

झुर्रियां, झुर्रियां, झुर्रियां, झुर्रियां।।


✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी

मंगलवार, 8 जून 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार एक जून 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों प्रीति चौधरी, दीपक गोस्वामी चिराग, रवि प्रकाश, रेखा रानी, वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी",अशोक विद्रोही, कमाल ज़ैदी 'वफ़ा', धर्मेंद्र सिंह राजौरा,डॉ. रीता सिंह,इन्दु रानी,चन्द्रकला भागीरथी, सुदेश आर्य , कंचन खन्ना और राजीव प्रखर की कविताएं ------


सैर इस आसमाँ की कराओ परी 

चाँद के पास जाकर सुलाओ परी ।।1।।


 है वहीं माँ , बतायें मुझे सब यही

 अब चलो आज माँ से मिलाओ परी ।।2।।


  तुम सुनाकर कहानी मुझे गोद में 

  नींद भी नैन में अब बुलाओ परी  ।।3।।

   

  झिलमिलाते सितारे कहें  हैं  मुझे

  ज़िंदगी में नया गीत गाओ परी ।।4।।


 सीख अब मैं गयी बात यह काम की

 फूल से तुम सदा मुस्कुराओ परी ।। 5।।

                                     

✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला, अमरोहा

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ऐनक लगा कर पुस्तक खोली ।

फिर गुड़िया मम्मी से बोली।

पढ़ना माँ मुझको सिखलाओ,

मेरी प्यारी हिंदी बोली।

है यह सबसे प्यारी भाषा।

सारे जग से न्यारी भाषा। 

'अ'अनार से आरंभ होकर, 

'ज्ञ' ज्ञानी बनने की आशा। 

क्या है 'स्वर-व्यंजन' समझाओ।

 सारे अक्षर मुझे पढाओ 

इन अक्षर  को कैसे लिखते ,

मुझको बारंबार सिखाओ।


 ✍️ दीपक गोस्वामी चिराग, बहजोई,  संभल

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मोबाइल पर पढ़ते बच्चे 

ऐसे   आगे   बढ़ते  बच्चे 

              

बिना परीक्षा अगली कक्षा 

घर   बैठे   ही  चढ़ते  बच्चे

              

बिना दोस्त के सँग में खेले 

नई   जिंदगी   गढ़ते   बच्चे 

              

खोया बचपन ,दोष समूचा

कोरोना   पर   मढ़ते  बच्चे


✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)

मोबाइल 99976 15451

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जंगल भर में शोर मचा है,

भालू को कोरोना है।

 डरे हुए हैं वन्य जीव सब,

सहमा कोना - कोना है।

  भनक लगी  बंदर मामा को,

गहन सोच में डूब गए। 

 बहन लोमड़ी  भी चिंता में,

भालू भईया सूख गए।

जगह - जगह पर खड़े हुए,

बात यही सारे कहते।

 इंसानों वाली बीमारी 

भालू को हो गई कैसे।

 नन्हा सा खरगोश यह बोला,

इस सब का यह समय नहीं है।

 भालू जी की जान बचालो,

उनकी हालत सही नहीं है।

  बनी सहमति तब बोले सब 

  जाओ वैद्य जी को ले आओ।

 रुको- रुको नंबर है उनका,

उनको फौरन फ़ोन लगाओ।

बंदर मामा ने तब झट से ,

हाथी जी को फ़ोन लगाया। 

  बीमारी का सारा हवाला,

  फ़ोन पे ही उनको समझाया।

  हाथी राजा काढ़ा पुड़िया,

साथ में लेकर दौड़े आए।

 सबने देखा पीपीई किट में

 हाथी राजा नहीं समाए।

    नब्ज़ टटोली भालू जी की,

  खांसी बहुत ही उन्हें सताए।

 बहन लोमड़ी को पुड़िया,काढ़ा,

  देने की विधि भी समझाए।

 भाप भी देना बार बार तुम

उसके सारे महत्व बताए।

 काढ़ा पीकर ,पुड़िया लेकर ,

भालू जी अब स्वस्थ हुए।

 जीवों की एकता के आगे 

कोरोना जी पस्त हुए।

कान पकड़ कर भालू जी ने

 दृढ़ निश्चय इस बार किया।

 सर्कस में जाना नहीं मुझको,

 संग में सबके रहकर रेखा

फिर से स्वप्न संजोना है।

जंगल भर में  शोर मचा है

भालू को कोरोना है।


✍️रेखा रानी, गजरौला

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एक  सपेरा   साँप   पकड़ने,

अपने    घर    पर      आया,

सब बच्चों को हाथ जोड़कर,

उसने        यह     समझाया,


बोला   जहरीली  नागिन  में,

गुस्सा      बहुत    भरा     है,

मेरा  दिल भी  इसके   आगे,

सच    में     डरा-डरा      है।


बीन बजाकर  हाथ  नचाकर,

घंटों         उसे         रिझाया,

कैसे  पकडूं  इस  नागिन को,

समझ    न    उसके    आया।


स्वयं   सपेरे   ने   बच्चों   को,

आकर        यह      बतलाया,

पास  नहीं  जाना  मैं   जाकर,

अंकुश       लेकर        आया।


तभी   सपेरे    ने  अंकुश   में,

उसका        गला      फसाया,

डिब्बे   में कर  बंद  उसे  सब,

बच्चों        को     दिखलाया।


बच्चों  ने  अंकल  को  सबसे,

बलशाली              बतलाया,

कोई   छोटा  भीम, किसी  ने,

साबू          उसे       बताया।


बच्चों   की   सुंदर   बातों  ने,

सबका       मन      बहलाया,

हाव-भाव को देख  सभी  को,

मज़ा      बहुत    ही    आया।

       

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र,

 मोबाइल 971927545

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नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

           छुट्टी में जब हम हैं जाते 

           नाना नानी खुश हो जाते

           अपनी बहुत प्रतीक्षा करते

           दोनों प्यार बहुत हैं करते 

           मैं नानी की राजदुलारी

          और भैया है राज दुलारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

           नानी के घर दो गैया हैं

           एक बहना और एक भैया है

           मामा रोज जलेबी लाते

           सब मिल दही जलेबी खाते

           उधम मचाते कभी झगड़ते 

           खाते कसम ना आएं दोबारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

           नहर किनारे बसा गांव है

           शुद्ध हवा और धूप छांव है

           नाना संग खेत पर जाते

           नलकूप के पानी में नहाते 

           फिर बागिया से अमियां लाते

          अजब खेत और ग़ज़ब नज़ारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा नाना

         पर इस बार नहीं जा पाए

         कोरोना ने होश उड़ाए

         बहुत भयंकर बीमारी है

         घोषित हुई महामारी है

         अखिल विश्व इससे है हारा

          पूछो मत कितनों को मारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

        अबकी अरमां मिल गए माटी

        सारी छुट्टी घर में काटी

        कोरोना से सब हैं बेदम

        केवल घर में कैद हुए हम

        ऊब गये हैं पढ़ते पढ़ते

        होते बोर रहे दिन सारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

       मिलने से मजबूर हो गए 

       नाना-नानी दूर हो गए

       हे प्रभु अब तो दया दिखाओ

       कोरोना को मार भगाओ

       दुखी हो रहे नाना नानी

       निशदिन रस्ता तकें हमारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

    

✍️अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद 

82 188 25 541

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बन्दर ने सबको बहकाया,

जमकर के उत्पात मचाया।


लोकतंत्र का है यह ज़माना,

अब न किसी से है घबराना ।


भालू ने काफी समझाया,

बन्दर की पर समझ न आया।


जंगल मे फिर शोर मचाया,

जोर जोर से गाना गाया।


डाली डाली उछला कूदा,

करता रहा हरकत बेहूदा।


शेर ने जब चिंघाड़ लगाई,

नानी याद बन्दर को आई।


भालू ने फिर मुह को खोला,

बन्दर से चुपके से बोला।


सब मानेगे, देर सवेर,

जंगल का राजा है शेर।


जिसके राज में सबकी खैर,

वो राजा है असली शेर।


✍️कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'

प्रधानाचार्य, अम्बेडकर हाई स्कूल बरखेड़ा (मुरादाबाद), मोबाइल फोन नम्बर 9456031926

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छोटे  छोटे  रंग  बिरंगे 

इस दुनिया में कीट पतंगे 

मधुमक्खी शहद बनाये 

भौरा गुन गुन गुन गाये 


बड़ा कटीला है ततैया 

इससे बचकर रहना भैया 

तितली होतीं बड़ी निराली 

सफ़ेद पीली नीली काली


✍️धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

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चिड़िया रानी गीत सुनाती

चीं चीं चूँ चूँ बात बनाती

सिर पर चढ़ आया है सूरज

सोया मुन्ना उसे जगाती ।


उठो सवेरा यही सिखाती

कितनी सुंदर भोर बताती 

नहीं देर तक सोना अच्छा

ऐसा सबको पाठ पढ़ाती ।


आँगन आती नजर घुमाती

पानी में भी खेल खिलाती

कभी मुंडेर कभी पेड़ पर

फुदक फुदक है नाच दिखाती ।


✍️डॉ. रीता सिंह, आशियाना, मुरादाबाद

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बच्चे नन्हे फूल से ,घर बगिया की शान।

सींच रहे हैं यह धरा,दाता पौधे जान।।


नन्हे नन्हे हाथ हैं, नन्हे पग औ चाल।

पौध लगा कर कर रहे,देखो बड़े कमाल।।


संगी साथी साथ ले, होंठों पर मुस्कान।

बगवानी में जुट गए ,कृषक स्वयं को मान।।


बच्चा-बच्चा दे रहा,धरती को सम्मान।

भावी पीढ़ी पर रहा, सब को ही अभिमान।।


✍️इन्दु रानी, मुरादाबाद

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बचपन बड़ा सुहाना है

बच्चे मन लुभाते है

कई खिलौने होते उन पर

फिर भी शोर मचाते है

बचपन बड़ा सुहाना है।।


हैलिकाप्टर मोटर कार

ये चलाते वे कई बार

धनुष चलाते सोटा दिखाते

फिर भी ऐठ दिखाते हैं

बचपन बड़ा सुहाना है।।


गुडडे गुड़ियों का विवाह करते

छोटे बर्तनों में खाना बनाते

कभी लुका छुपी कभी दौड़ भाग

सारे दिन उद्धम मचाते है

बचपन बड़ा सुहना है।।


गर झुनझुना मिल जाए

बच्चा खूब नाचता गाता है

कभी दद्दू के पास जाकर

झुनझुना उनकों दिखाता है

ऐसी उसकी हरकत देख

सबका मन प्रफुल्लित हो जाता है।

बचपन बड़ा सुहाना है।।


✍️चन्द्रकला भागीरथी

धामपुर जिला बिजनौर

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न होती- कभी पढ़ाई,

होती न कभी -लिखाई। 

कभी जान -'न पाते,

दुनियाभर की- हम सच्चाई। 

 वर्णमाला हिन्दी -की सीखी,

अंग्रेजी की-  alphabet भी सीखी

सारे विषय -हमने पढ़कर,

जानी जग- की रीति।

कभी विज्ञान -को पढ़के ,

कुछ अनुसंधान- भी करके।

मानचित्र भी- हमने जाना,

भूगोल को- भी पढ़के।

मातृभाषा के -द्वारा हमने,

सीखा सब- आपसी वार्तालाप 

गणित के द्वारा -सीखा लेन देन

और जाना'- तोल व नाप।

बुद्धि से हम- बढ़े न होते,

रह जाते-  गंवार अनपढ़।

धन्य धन्य हैं-माता पिता जिन्होंने,

शिक्षा की ज्योति- जलाई हमपर।


✍️ सुदेश आर्य , मुरादाबाद

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी ---परीक्षा । यह कहानी सन 1943 में पृथ्वीराज मिश्र द्वारा अपने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह श्रंखलाएं से ली गई है ।

 


बनारस अब भी हिन्दुत्व का दुर्ग है। सुना जाता है कि दर्शक के मस्तिष्क पर काशी के दर्शन मात्र से ही पवित्र भावनाओं की छाप लग जाती है। पीतल के उच्च कलशों के बुर्ज आकाश से संदेश लेते हुए प्रतीत होते हैं। उनकी तेज चमक ऐसी मालूम होती है, जैसे विधाता उनपर आशीर्वाद कर फेर रहा हो, और मानों सूर्य की किरणें अंधेरा होने पर उन्हीं कलशों पर सो जाती हों। मन्दिर को देखकर मानव के स्मृति इतिहास के उन पन्नों की ओर एकाएक दौड़ जाती है, जिनमें काशी का सुनहरा अतीत, उसके महत्त्व की गाथाएँ अन्धविश्वासी प्रश्न से परे श्रद्धा से संचित हैं। काशी की गलियाँ पाण्डित्य के ललाट पर उभरी हुई संकीर्णता की रेखाओं-सी फैली जान पड़ती हैं । यहाँ के वातावरण में कट्टर धर्मावलम्बी को, शक्ति तथा उदार विचार वाले व्यक्ति को क्षोभ तथा ग्लानि मिलती हैं ।

    गङ्गा के किनारे दीप से बसे हुए इसी नगर की यह एक पुरानी कहानी है। अंधेरा हो चुका था। ठीक वही समय था, जबकि बालाखानों से सितार की झंकारें और कामिनीकण्ठ की मीठी-मीठी तानें सड़क पर चलने वालों के दिलों को चंचल कर देती हैं। इन घरों में रात को ही वसन्त आता है। दिन का प्रकाश कृत्रिमरूप से यहाँ पैदा किये जाने का विराट प्रयत्न देखने को मिल सकता है। तुम्हारे अनुसार नरक के अंधेरे गन्दे कोने इसी समय स्वच्छ और आलोकित दिखलाई देते हैं। मैं ऐसे ही समय की बात कह रहा हूं जबकि ऊंचे कमरों के जीने खुले हुए, मेहमानों को बुलाने के लिये संकेत करते हुए मालूम होते हैं।

     तुम उसका नाम और पता जानने चाहते हो। मैं किसी के रहस्य को खोलने के लिये तैयार नहीं। तुन्हें इसी से सन्तोष कर लेना चाहिये कि उस देवाङ्गना का नाम कनक और पेशा परमार्थ था। शायद तुम मेरा मतलब ठीक-ठीक समझ गये होंगे। इस युग में इसी तरह रहना तो चाहिये। वह अप्सरा का सौन्दर्य और कंठ में गन्धर्व कुमारी का स्वर लिये पैदा हुई थी। वह इस व्यवसाय में कैसे आई, उसकी माता भी एक अप्सरा रही होगी, कौन कह सकता है। उसके यौवन का उभार बीस वसन्त ऋतुओं का मद और उन्माद, राग से अनुराग विजय और प्रभुता लिये हुए था। उसको महफिल में काशी के पूज्य पण्डित, शमा पर परवाने से जलते हुए देखे जा सकते थे। सम्भव है कि वे अपने विराग की परीक्षा लेने ही आते हों।

       नर्तकी भी वह साधारण नहीं थी। उसके पदाक्षेप से नृत्य का अस्तित्व स्थिर किया जा सकता था। उसके चरण चरण पर जीवन उठता और गिरता। दिशाएँ तन्मयता से नृत्य के संगीत को कान उठाये सुनतीं और उसके नृत्य को देखने ही के लिये आसमान पर तारे अपने घरों से बाहर निकल आते मालूम होते थे। वह गा रही थी--

रति सुख सारे गतमभिसारे मदन मनोहर वेशं । 

न कुस नितंबिनि गमन विलम्बनुसरतं हृदयेशं ||

धीर समीरे यमुना तीरे वसति बने बनमाली || 

    श्री जयदेव के लिए इस से बढ़ कर क्या प्रशंसा हो सकती है ? उनकी दिवंगतात्मा अपनी कृति के इस प्रचार पर कितनी प्रसन्न होती होगी ! काश, श्री जयदेव आज हमारे मध्य में होते और उस अप्सरा को अपने गीत गोविन्द को इस प्रकार गाते हुए सुनते ?

   इस समय कनक की सभा में पण्डित, वेदव्रती, धनिक, जौहरी, प्रोफे सर, डाक्टर, बैरिस्टर, सट्टेबाज़, कला विशारद तथा संगीत प्रेमी भिन्न भिन्न प्रकार की रुचि के नमू ने इकटठे थे । नर्तकी नाचती और गाती जाती थी और उसके सभासद गरम दिल से अपनी जेबें ठण्डी करते जा रहे थे। वह नाज़ के साथ अपने दाता पास आती और नाचती हुई, दिये हुए उपहारों को ले जाती थी। सहसा दर्शक मण्डली की आँखें एक कषाय वस्त्रधारी सजीव मनुष्य प्रतिमा की ओर उठ गई । एक भिक्षुक उस मंडली में घुस आया था । दर्शक भला इस बात को कैसे सहन कर सकते थे, अगर उस समय तुम भी वहाँ होते, तो शायद आग-बबूला हो गये होते, और उन्हीं लोगों की तरह उसे बाहर निकालने पर उतारू हो जाते ।उसको नाच देखने की दावत देना भला कौन-सा शिष्ट व्यक्ति उचित समझ सकता था। नायिका ने आगे बढ़कर संन्यासी को भीतर आने से रोका। उसने व्यंग करते हुए कहा- क्या यहाँ कोई सदाव्रत खुला हुआ है ? यह धर्मशाला नहीं है ।सन्यासी ने उत्तर दिया – 'हाँ जानता हूँ, धर्मशाला नहीं घनशाला है। जो यहाँ का कर अदा कर सकेगा वही बैठने का अधिकारी होगा। पैसे से वेश्या तो खरीदी ही जा सकती है । 

   सभा में बैठे हुए जौहरी ने तड़क कर कहा- "बड़ा आया है खरीदने वाला| दिन भर पैसा पैसा भीख माँगा किये और रात को चल दिये नाच देखने । बोलो,कै पैसे भीख में पाये ?"

   सन्यासी ने किन्चित रोष भरे स्वर में उत्तर दिया- “मैं तुम्हारी जैसी कितनी ही सभाओं को खरीद सकता हूँ । ( नर्तकी की ओर संकेत करते हुए ) बोलो, तुम्हें इन सबसे तथा दूसरे और व्यक्तियों से क्या मिल जाता है ?

नर्तकी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- 'यही 2000 रु० मासिक।," सन्यासी ने कहा – 'मैं तुम्हें 4000 रु० मासिक दूंगा, किन्तु एक शर्त के साथ | तुम्हें इन सब उपस्थित व्यक्तियों को यहाँ से निकाल देना होगा, और तुम बिना मेरी आज्ञा के किसी पुरुष से नहीं मिल सकोगी और कहीं भी आ जा न सकोगी ।. जब तक मैं तुम्हें निश्चित वेतन देता रहूँगा तब तक तुम्हें इस शर्त को मानना पड़ेगा। हारने पर जितना रुपया मेरा तुम्हारे पास पहुंचेगा, वह सब तुम्हें वापस करना होगा । नर्तकी ने हँसी खुशी के साथ संन्यासी की शर्त मंजूर कर ली । सन्यासी ने एक हीरे की माला अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए नर्तकी को उसी समय भेंट कर दी। नर्तकी के मेहमान एक-एक कर जीने की सीढ़ियां नीचे  जाते हुए आखिरी बार गिन रहे थे ।

  नर्तकी को विश्वास था कि वह इस शर्त में अवश्य जीत जायगी और सन्यासी कुछ महीनों तक या अधिक से अधिक कुछ वर्षों तक इतनी बड़ी रकम को देकर अपनी मूर्खता का अनुभव करने लगेगा और फिर एक बार वह धनी होकर अपनी आज़ादी का भी आनन्द ले सकेगी। संन्यासी समझता था कि नर्तकी फिर भी एक वेश्या है। धन उसकी प्यास को नहीं बुझा सकता । वह सोने के पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह निर्बन्ध होकर मुक्त वातावरण में जाने के लिए बेचैन रहेगी । वह अपना वचन नहीं निभा सकेगी और अन्त में जो कुछ उसका धन नर्तकी के पास पहुँचेगा वह सब मुझे वापिस मिल जावेगा।

    सन्यासी ने एक कोठी में नर्तकी के रहने का प्रबन्ध कर दिया। केवल उसकी नायिका उसके साथ थी । उस कोठी के साथ एक बगीचा भी था । नर्तकी को बगीचे से बाहर कदम रखने की आज्ञा न थो । कोठी की चहार दीवारी इतनी ऊँची थी कि बाहर का चलता-फिरता कोई भो पुरुष नर्तकी को दिखलाई नहीं दे सकता था। सेविकाएँ नर्तकी की सुविधा का ध्यान रखती थीं। भोजन तथा हर प्रकार का प्रबन्ध केवल दासियों के हाथ में था।

     नर्तकी रानी की तरह सब आराम पाती थी। कोई राजा उससे बात करने के लिए उसके महल में नहीं आ सकता था । संन्यासी स्वयं भी कभी कोठी के अन्दर नहीं जाता था। यद्यपि नर्तकी ने कई बार सन्यासी को दासियों द्वारा बुलवाया, लेकिन संन्यासी ने इन्कार कर दिया ।

  इसी तरह उदासी के साथ नर्तकी के दिन व्यतीत होने लगे | दो महीने नर्तकी ने सन्यासी की प्रतीक्षा में काटे । अव उसको पूर्ण विश्वास हो गया कि सन्यासी नहीं आयेगा। शेष 10 महीने नर्तकी ने बगीचे में तरह-तरह के फूलों के पौधे लगाने में और कोठी को सजाने में व्यतीत किये । दूसरे वर्ष नर्तकी बराबर नाचने और गाने का अभ्यास करती थी। ऐसा जान पड़ता था कि वह सङ्गीत और नृत्य से कलात्मक प्रेम करने लगी है और उसके चरण उत्कर्ष तक पहुँचने के लिए अनवरत प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरे वर्ष में नर्तकी ने कृष्ण की एक मूर्ति स्थापित की । अब वह स्वयं राधा बन कर, कभी गोपी बनकर, कभी कुब्जा बनकर, कभी अपने को मीरा समझकर उस मूर्ति के सामने विरह प्रेम के गीत गाती हुई नाचती रहती थी। उसके गीतों में वेदना भरी हुई थी । कृष्ण को वह काल्पनिक प्रियतम समझ कर अपनी पाशविक कामना, तृष्णा और मोह की तृप्ति कर लेती थी। उसके पिछले जीवन के संस्कार इस तरह रहने पर भी उसको व्यग्र कर डालते थे, किंतु जिस प्रकार से मनुष्य की अतृप्त कामनाएं रात्रि 

में स्वप्नों मेंजगकर अपनी तृप्ति कर लेती हैं उसी तरह से पार्थिव वासना की भूख मानसिक भोजन पाकर तृप्त हो जाती थी। कई वर्षों के निरन्तर कार्यक्रम के बाद एक रात उसे बोध हुआ, अब वह रागिनी नहीं वैरागिनी हो गई। उसका प्रेम शरीर से उठकर आत्मा तक पहुँच गया था ! अब वह लोकोत्तर आनन्द में झूमती और वशीभूत रहती थी ।

   अब वह अपने यौवन के दस वर्ष समाप्त कर चुकी थी। जहाँ एक बार उदात्त तरंगों की दौड़ मची रहती थी वहाँ अब ठंडी रेणुका रह गई थी। अब उसके बाल श्वेत हो गये थे। उसकी आकृति तथा प्रकृति इतनी बदल गई थी कि वह किसी ज़माने में एक नर्तकी होगी. अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता था । पाँच वर्षों के निरन्तर गम्भीर तपस्या के बाद उसकी सारी इच्छाएं नष्ट हो गई। पहले उसका मन बराबर किसी न किसी पुरुष को देखने के लिए उत्कंठित रहता था। कभी-कभी वह सोचने लगती थी कि इस प्रकार के धन से क्या हृदय की तृष्णा बुझ सकी है ? क्या यौवन का अंत धन है ? वह ऐसे जीवन से उक्ता उठती थी, किन्तु अब वह बिलकुल बुझे हुए ज्वालामुखी के समान शांत और स्थिर थी । सन्यासी को एक दिन नीचे लिखा हुआ नर्तकी का पत्र मिला 'गुरुदेव,

मैं जीवन भर इसी प्रकार यहाँ रह सकती हूँ, मेरी सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण हुई सी जान पड़ती हैं, क्योंकि अब कोई इच्छा मेरे हृदय में शेष नहीं रह गई है। मेरी इच्छा किसी पुरुष तो क्या स्त्री के साथ की भी नहीं होती। मैं अकेली मृत्यु तक यहीं रह सकती हूँ | मैंने अपनी स्वतन्त्रता, अपना जीवन, केवल धन के लिए उन शर्तों के हाथ सौंप दिया था, लेकिन मैं अब इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि संसार में मुझे किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। जिस धन के लिए मैंने यह सब बन्धन स्वीकार किये थे, अब मुझे उसकी भी ज़रूरत नहीं मालूम होती, मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूँ कि तुमने मुझे सच्चा रास्ता दिखा दिया इसलिए मैं उस शर्त को जानबूझ कर तोड़ रही हूं कि जिससे जो धन आज तक तुमने मुझे दिया है, यह सब तुम्हारे पास बापस पहुंच जाय। यह मैं स्वयं बिना पत्र लिखे भी कर सकती थी, किन्तु मैं यह पत्र इसलिए लिख रही हूँ कि तुम्हारे पास एक प्रमाण-पत्र मौजूद रहे और संसार तुम्हें ऐसा करने के लिए दोषी न कह सके ।

मैं हूँ तुम्हारी उपकृता ।

   जब संन्यासी को यह पत्र मिला, तो उसके हर्ष का वारापार न रहा । रअगले दिन सुबह उसने 15 वर्ष पहले नर्तकी की सभा में बैठे हुए जौहरी महाशय को अपने पास बुलवाया और उन्हें लेकर कोठी के अन्दर नर्तकी का पता लगाने के लिए गया । नर्तकी रात में कोठी से गायब हो चुकी थी। सन्यासी ने जौहरी को नर्तकी का वह पत्र दिखलाया और नायिका से अपने कुल दिये हुए रुपये वापस ले लिये ।


:::::: :प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल का गीत -----गन्ध लुटाते फूल सिखाते हंसते हंसते जिया करो ......


 

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम ने 6 जून 2021 को आयोजित की गूगल मीट पर काव्य-गोष्ठी

 साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में  रविवार 6 जून 2021 को गूगल मीट के माध्यम से  काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माँ शारदे की वंदना से आरंभ हुए इस कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पूनम बंसल ने की एवं मुख्य अतिथि के रुप में वरिष्ठ कवि श्रीकृष्ण शुक्ल उपस्थित रहे जबकि कार्यक्रम का संचालन जितेंद्र जौली ने किया। 

कार्यक्रम में वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पूनम बंसल की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार रही - 

जीवन के तपते मरुथल में माँ गंगा की धार है। अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर माँ गीता का सार है।। 

कवि श्रीकृष्ण शुक्ल का कहना था  - 

 रात भले हो घोर अँधेरी, 

 उसकी भी सीमा होती है, 

 रवि के रथ की आहट से ही

  निशा रोज ही मिट जाती है। 

अशोक विद्रोही ने कहा - 

वनस्पति ,जंतु जगत, जलवायु मिल जाय। 

इन सबका  संतुलन ही, पर्यावरण कहाय।।

वरिष्ठ कवि शिशुपाल मधुकर ने अपना दर्द कुछ इस प्रकार बयां किया - 

 झूठ कहूँ तो मिलती इज़्ज़त, 

 सच बोलूँ तो गाली। 

 छोड़ के असली, दुनिया हो गयी, 

 नक़ली की मतवाली।।

डाॅ. मनोज रस्तोगी  की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार रही - 

सुन रहे यह साल आदमखोर है । 

हर तरफ बस चीख दहशत शोर है ।। 

मत कहो यह वायरस जहरीला बहुत, 

आदमी ही आजकल कमजोर है।। 

नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने अपनी अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार की - 

चलो निराशा के ऊसर में 

एक हरापन रोपें भीतर। 

क्षणिक लाभ के लिए

 त्यागकर मानवता, 

 संवेदन सब कुछ 

 छल-फरेब ने गढ़े 

 स्वार्थ के कीर्तिमान, 

 सम्मोहन सब कुछ। 

 लुगदी-सी हो चुकी सोच में, 

 एक भलापन रोपें भीतर ।

 राजीव प्रखर ने कहा -

 दूरियों का इक बवंडर, जब कहानी गढ़ गया। 

 मैं अकेला मुश्किलों पर तान सीना चढ़ गया। 

 हाल मेरा जानने को फ़ोन जब तुमने किया, 

 सच कहूँ तो ख़ून मेरा और ज़्यादा बढ़ गया। 

 डॉ. रीता सिंह ने समाज को चेताते हुए कहा - कंकड़ पत्थर के जंगल में, 

तरूवर छाँव कहाँ से लाऊँ। 

तपस में तपती मीनारों की, 

कैसे अब मैं तपन मिटाऊँ ।

 कवयित्री इंदु रानी का कहना था -

  कोरोना यह लिख गयो, सबके मन के द्वार। वृक्षारोपण हो परम ,आक्सीजन आधार।।

 जितेंद्र जौली ने परिस्थितियों का चित्र कुछ इस प्रकार खींचा - 

कोरोना को मात दें, हम अब मिलकर संग।

 अपना भारत लड़ रहा, कोरोना के जंग।। 

 कवि प्रशांत मिश्र का कहना था  -

 जब अपना ही घर लूट लिया देश के गद्दारों ने, जनता खड़ी देखती रही सिमटी अपने किरदारों में। 

 कार्यक्रम में  विकास मुरादाबादी एवं मोनिका मासूम ने बतौर श्रोता उपस्थित रहकर सभी का उत्साहवर्धन किया। राजीव प्रखर द्वारा आभार अभिव्यक्त किया गया ।

सोमवार, 7 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त का कहानी संग्रह ---श्रंखलाएं । इस कृति में उनकी 17 कहानियां संगृहीत हैं । इस कृति का प्रकाशन पृथ्वीराज मिश्र ने सन 1943 में अपने अरुण प्रकाशन द्वारा किया था ।


 

क्लिक कीजिए और पढ़िये पूरा कहानी संग्रह

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::::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी)आमोद कुमार की नज़्म ---कुदरत का पैगाम दुनिया की महाशक्तियों के नाम ......


 

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत -----करें प्रतिज्ञा सबको मिलकर सौ-सौ पेड़ लगाना होगा


डाली  -  डाली, पत्ती -  पत्ती

का  एहसान   चुकाना  होगा

विकसित होती  हुई जड़ोंको

मिलकर  हमें  बचाना  होगा।

          ---------------

पेड़  सभी के  लिए  धरा पर

जीवन काअनमोल  खजाना

जो भी नहीं  समझता इनको

उसका व्यर्थ  जगत में आना

अभी  समय  है  चेतो  वरना

रो-रोकर   मर  जाना   होगा।


हरियाली   आनंदित   करती

सभी दिलों में खुशियां भरती

आंखों  को  शीतलता  देकर

मन   में   नई   उमंगें   धरती

इन्हें  नष्ट  करने  का  मन  में

किंचित भाव न  लाना  होगा।


यह  पर्वत  को  जकड़े  रहते

नदियों का  तट  पकड़े  रहते

आंधी,   पानी,   सैलावों   से

टक्कर   लेने   अकड़े   रहते

हैं  जग  के  रखवाले  इनको

कभी  नहीं  बिसराना  होगा।


सांस-सांस पर इनका हकहै

इसमें भी क्या  कोई  शक है

बेरहमी  से  इन्हें   काट  कर

करी व्याधियों की आवक है

अपने  हित में  सच्चाई   को

कभी  नहीं  झुठलाना  होगा।


मौसम भी इन पर  निर्भर है

वृक्ष  बिना  धरती  बंजर  है

सूखा  झेल  रहे  मानव  की

देह   हुई   अस्थी   पंजर  है

हरियाली चहुं ओर बिछाकर

स्वर्ग  धरा  पर  लाना  होगा।


खुशहाली ही  खुशहाली  हो

नहीं  कहीं भी  बदहाली  हो

रंग   बिरंगे   गुलदस्तों   की

महक बड़ी ही  मतवाली हो

करें प्रतिज्ञा सबको मिलकर

सौ-सौ  पेड़   लगाना  होगा।

✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"

      मुरादाबाद/उ,प्र,

       9719275453

               

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार रेखा रानी की रचना ---- धरती माँ तेरी पीड़ा .....


 

रविवार, 6 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल का मुक्तक ----अगर क़ुदरत बिगड़ती है, तबाही फिर मचाती है

 


बनी है मीत साँसों की, परम वायु बहाती है। 

नहीं कुछ मोल लेती है, ख़जाने ये लुटाती है। 

करें इसको सुरक्षित हम, समय है जाग जाएं अब 

अगर क़ुदरत बिगड़ती है, तबाही फिर मचाती है।। 

✍️ डॉ पूनम बंसल, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई के दोहे ----



1, हरियाले वन हैं सदा,जीवोँ का आवास,

    निश्चित इनके छरण से,पर्यावरण विनाश ।

2,  शुद्ध हवा,निर्मल गगन,वर्षा हो भरपूर,

     ऐसा ही पर्यावरण, है हमको मंजूर ।

3,  वन्य जीव सेवार्थ जो,करे त्याग बलिदान,

     ऐसा मानव ही सदा, होते यहां महान।

4,  जीव संरक्षित हों सभी, ऐसा करो प्रयास,

     जीव हमारे मित्र हैं, करियेगा विश्वास ।


✍️अशोक विश्नोई, मुरादाबाद , मो ० 9411809222

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता की रचना ----- हर साल जन्मदिन पर तब से, पौधा नया लगती थी ....


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार दीपक गोस्वामी चिराग की रचना --- हूँ मैं जननी तेरी, हूँ मैं धरिणी धरा ...


 


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कुण्डलिया ---वनस्पति ,जंतु जगत, जलवायु मिल जाय, इन सबका संतुलन ही, पर्यावरण कहाय।।


वनस्पति ,जंतु जगत,

         जलवायु मिल जाय।

इन सबका  संतुलन ही,

           पर्यावरण कहाय।।

पर्यावरण  कहाय ,  

       हरे मत  विरवे   काटो,

वन्य जगत के जीवों,

        को  भी जीवन बांटो।

विद्रोही जीवन   की  ,

          वर्ना    होय दुर्गति ।

 प्राणवायु हो शून्य , 

      यदि न रहे   वनस्पति।।


✍️ अशोक विद्रोही, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की रचना ---- वृक्ष की तब आँचल फैलाती है शीतल छांव


जब थके हों 

पसीने से बेहाल

ढूँढें सहारा


वृक्ष की तब

आँचल फैलाती है

शीतल छांव


बहती हवा

दूर करती पीड़ा

सहला ज़ख़्म


चलते फिर

जीवन सफ़र में

ताजगी भर


सहारा देते

जो वृक्ष हमें सदा

नमन उन्हें 

 ✍🏻 प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार ओंकार सिंह विवेक के दोहे ------बार-बार विनती करें,बरगद-शीशम-आम, मानव हमको काट मत, हम आएँगे काम


माना आवश्यक हुआ , सड़कों का विस्तार,

किंतु न हो इसके लिए, पेड़ों  पर नित  वार।       


बार-बार  विनती  करें,बरगद-शीशम-आम,

मानव  हमको काट  मत, हम आएँगे  काम


देते   हैं  हम   पेड़  तो ,  प्राणवायु  का  दान,

फिर  क्यों  लेता है मनुज, बता हमारी जान।

    

देते  हैं  ये   पेड़  ही   , घनी  छाँव, फल-फूल,

इन्हें काटने की मनुज,मत कर प्रतिपल भूल।


पेड़ो  की  लेकर  सतत ,  निर्ममता  से  जान,

मत कर अपनी मौत का, मानव  तू सामान।


सबसे   है    मेरी    यही  ,  विनती   बारंबार,

पेड़  लगाकर   कीजिए , धरती  का  शृंगार।


 ✍️ ओंकार सिंह विवेक, रामपुर

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल ) के साहित्यकार धर्मेंद्र सिंह राजौरा की रचना ---- वृक्ष धरा का आभूषण हैं इनको मत काटो प्यारे

 


वृक्ष धरा का आभूषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे 

हर लेते सारा प्रदूषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे


लकड़ी फूल  फल देते 

देते प्राणवायु हम सबको 

करते हम सबका पोषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे 


जनम से लेकर मृत्यु तक 

काम हमारे आते हैं ये 

ये सृष्टि का आकर्षण हैँ 

इनको मत काटो प्यारे 


वृक्ष ना होते अगर धरा पर 

सोचो क्या जीवन संभव था 

ये लाते शीतल वर्षण हैँ 

इनको मत काटो प्यारे 

✍🏻 धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल का गीत --सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है-


सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है।

और हमारा धरती के प्रति सोचो क्या क्या फर्ज है।


हमको धरती से ही जीवन के सब साधन मिलते हैं।

अन्न और जल, वायु आदि सब इसके आँगन मिलते हैं।

लेकिन फिर भी देखो मानव ये कितना खुदगर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है।


हमने वृक्ष काटकर धरती माँ को कितने घाव दिये।

बाँध बनाकर नदियाँ रोकीं ताल तलैया पाट दिये।

अंधाधुंध गंदगी करके सोच रहे क्या हर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।


घोर प्रदूषण करके हमने नदियां दूषित कर डालीं।

उद्योगों से धुंआ धुंआ कर वायु प्रदूषित कर डाली।

हम सबका व्यवहार वस्तुतः अब धरती का मर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।


समय आ गया है धरती के जख्मों को भरना होगा।

वृक्ष लगाकर हरियाली से हरा भरा करना होगा।

वायु और जल स्वच्छ रखें अब यही हमारा फर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।

✍️श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG-69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद 

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ---मिटा रहे हैं उनको ही हम जिन-जिनका करना था पूजन-


मिटा रहे हैं उनको ही हम

जिन-जिनका करना था पूजन।


वृक्ष हमारे देव तुल्य हैं

इनमें बसी हमारी सांसें।

कैसे हमको सांसें दें, ये

रोज़ कटन को अपनी खांसें।।

हवस हमारी खा बैठी है

हर पंछी का कलरव कूजन।


जल जीवन है, कहते लेकिन

जल के स्रोत स्वयं ही प्यासे।

सब पट्टों में कटे पड़े हैं

मुंह दुबकाये सकल धरा से।।

इन्हें बांटकर निगल गये हैं

इधर-उधर के चतरू जन।।


पर्वत भी डकराये हैं, जब

उनको काट सुरंगें निकलीं।

कांप रहे हैं अब भी निशि दिन

सड़कें आकर इनमें टिकलीं।।

धाराओं से रोये हैं ये

उतरी नहीं आंख की सूजन।

✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी, नवीन नगर, कांठ रोड, मुरादाबाद 

मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज वर्मा मनु के दोहे -----देव तुल्य हो वृक्ष तुम, तुमको सतत् प्रणाम


जीवन की इक हम कड़ी, वृक्ष दूसरा छोर। 

इन दोनों पर ही टिकी, इस जीवन की डोर।।


सुनो वृक्ष भी चाहते, प्यार भरा अहसास।

ये भी जीवन से भरे,  ये  भी लेते स्वास।।


वृक्ष बड़े अनमोल हैं, देते  जीवन  वायु।

इनका संरक्षण करें, इनसे मिलती आयु।।


दूषित पर्यावरण में, है जीवन का हास।

नस्लें तक पहलाएंगी, कर लेना विश्वास।।


वृक्षों की रक्षा करें, नैतिकता यह आज।

हरे भरे हों वृक्ष तो, फूले  फले  समाज।।


इनमें भी जीवन बसा, हैं केवल गतिहीन।

हरे वृक्ष के नाश से, मानव  होता  क्षीण।।


जीते मरते हर समय, आते  सबके  काम।

देव तुल्य हो वृक्ष तुम, तुमको सतत् प्रणाम।।

✍️ मनोज वर्मा मनु, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार दुष्यन्त बाबा का गीत -----धरा से कितने ही वृक्ष भी पाए प्राण वायु और फल भी पाए कितने ही काटे कितने जलाए अब कटने से भी इन्हें बचाओ


हे!  मानव तुम  धरा बचाओ

कुछ तो इसका कर्ज चुकाओ

 

बूंद-बूंद  जल संचित  करती

अपने स्वेद से प्यास बुझाती

फिर भी न कोई कीमत पाती

ऐसे न  इसको व्यर्थ  बहाओ

 

सुबह  सबेरे  सूरज उग आता

फिर  सारे जग  को चमकाता

नही  किसी  से  ये विल पाता

ध्यान रखो! इसके  गुण गाओ

 

धरा से कितने ही वृक्ष भी पाए

प्राण  वायु और फल भी पाए

कितने ही काटे कितने जलाए

अब कटने से भी इन्हें बचाओ

 

नदियां धरा  की आभूषण  हैं

रत्नगर्भा और  कृषि भूषण है

समृद्धि  की परिचायक भी  है

प्रदूषण से  तुम इन्हें  बचाओ

 

हे!  मानव तुम  धरा बचाओ

कुछ तो इसका कर्ज चुकाओ

✍️दुष्यंत बाबा, पुलिस लाइन, मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का गीत ----पूजन-सामग्री, कूड़ा-करकट, इनका कुशल प्रबंधन हो, बहता गंगाजल निर्मल हो, हरियाली का वंदन हो ।।


कितने जंगल खेत कटेंगें,

मानव तेरे विकास को ?

कितनी नदियां दूषित होंगी,

गंदे जल के निकास को ?


कठिन परिश्रम और करो

अब थोड़ा तो गौर करो,

हरी-भरी सुंदर धरती थी,

याद पुराना दौर करो।।


आओ अपनी धरती माँ का

वृक्षों से शृंगार करें,

धरती की धानी चूनर का

 आँचल फिर तैयार करें।।


पूजन-सामग्री, कूड़ा-करकट,

इनका कुशल प्रबंधन हो,

बहता गंगाजल निर्मल हो,

हरियाली का वंदन हो ।।


✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार का गीत -----रोगों को दूर भगाते हैं, हरते पीड़ाएँ तन-मन की, सेवा में तत्पर रहते हैं , पत्ते- पत्ते, डाली-डाली।।


मन- मोहक सुख देने वाली, होती धरती की हरियाली।

जो दुनिया के हर प्राणी के, जीवन की करती रखवाली। ।


ये हरी क्यारियां, घास हरी, इठलाती- बलखाती ऐसे,

मदमस्त हवा के झोंकों से, लहराता हो आँचल जैसे,

खुशबू से तर करती सबको, भर-भर देती मधु की प्याली। 


जब पेड़ो पर बैठे पंछी ,मीठी लय में सब गाते हैं,

तो फूलों से लिपटे भौंरे , उनसे सुर-ताल मिलाते हैं,

यह दृश्य देखकर आंखें भी, होती जाती हैं मतवाली।।


मीठे फल लगते पेड़ों पर, जो भूख मिटाते जन-जन की,

रोगों को दूर भगाते हैं, हरते पीड़ाएँ तन-मन की,

सेवा में तत्पर रहते हैं ,  पत्ते- पत्ते, डाली-डाली।।


हरियाली कारण वर्षा का ,जलवायु विशुध्द बनाती है , 

हर जीव-जंतु को धरती के , माता बनकर सहलाती है ,

सिंचित करती रस से जीवन , बनकर माली यह हरियाली।।


हितकामी जन इस जगती के, सब मिलकर चिंतन-मनन करें, 

हरियाली नष्ट न हो पाए , हम ऐसा कोई जतन करें ,

'ओंकार' तभी इस दुनिया में , सब ओर बढ़ेगी खुशहाली।।

✍️ ओंकार सिंह 'ओंकार' , 1-बी-241 बुद्धि विहार, मझोला, दिल्ली रोड, मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) - 244103

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ रीता सिंह की रचना ----वृक्ष रोपण और जल संरक्षण फ़र्ज़ ये निभाने ही होंगे , चूक यदि हो गयी इनमें तो मंजर बहुत भयावह होंगे


सर सर बहती हवा कह रही

मत काटो मनुज पँख हमारे ,

स्वस्थ साँस का स्रोत यही हैं

समझो सच जीवन का प्यारे ।


नहीं रहेंगे विपिन अगर तो

कैसे बदरा मोहित होंगे ,

बरखा रानी के दर्शन को

तरस रहे भू अंबर होंगे ।


तेज ताप का होगा नर्तन

बवंडर मृदंग बजायेंगे

तृप्त न होंगे कंठ जीव के

सब हा हा कार मचायेंगे।


विज्ञान लाचार सा दिखेगा

सुख सँसाधन मुँह चिड़ायेंगे ,

मनमाने कोप प्रकृति के

सब मिलकर बहुत रुलायेंगे ।


जागो मानव अब भी जागो

नहीं भोग के पीछे भागो ,

श्वास महकती यदि लेनी है

लोभ ऊँचे भवन का त्यागो ।


वृक्ष रोपण और जल संरक्षण

 फ़र्ज़ ये निभाने ही होंगे ,

चूक यदि हो गयी इनमें तो 

मंजर बहुत भयावह होंगे ।


✍️ डॉ रीता सिंह, मुरादाबाद


मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर के दोहे -----/


 

शनिवार, 5 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य -----होना एक सरकारी अभिशाप का


सरकारी इश्तहारों में जो नारे लिखे होते हैं, उनकी पोज़ीशन अब यह है कि उन्हें लोग बिना पढ़े निकल लेते हैं, जिससे उन सरकारी मंसूबों पर पानी फिर जाता है, जो दीवारों पर कुछ इस अंदाज़ में लिखे जाते हैं कि आदमी भयभीत ही ना हो, उनसे डरकर उन पर अमल करना भी शुरू कर दे. लोग अब इन्हें देखकर मन ही मन कहते हैं कि यार, दफ़ा करो, जो काम खुद सरकार करवा रही है, उसी को मना भी कर रही है कि ” शराब पीना अभिशाप है. ” या ” बाप शराब पियेंगे, बच्चे भूखे मरेंगे. ” सरकार ने यह सोचा होगा कि इंडियन बाप जो हैं, वो इन इश्तेहारों से डरकर शराब पीना बंद कर देंगे और हमें यह कहने को हो जाएगा कि हमारी सरकारी मुहिम सफल रही.

मज़े की बात तो यह है कि जिस मद्य-निषेध विभाग की तरफ से ये विज्ञापन किये जा रहे हैं, उसका मंत्री कौन है और किसी भी शहर में उसका ऑफिस कहां है, भगवान सहित कोई नहीं जानता. अगर यह ऑफिस किसी गली के किसी कोने में अपना अस्तित्व बनाए हुए कहीं है भी, तो वह क्या कर रहा है, यह भी कोई नहीं जानता. कायदे में तो जिस तरह से दारू की दुकानों के बराबर ही ये विज्ञापन लिखकर दर्ज़ किये जा रहे हैं, वहां इस विभाग के कर्मचारियों को भी तैनात कर देना चाहिए कि तुम किसी को भी शराब नहीं पीने दोगे और जो पिए, उसे पकड़कर थाने पहुंचा दो, मगर ऐसा आज तक नहीं हुआ. लोग ” शराब पीना अभिशाप है.” में से ” अभिशाप ” पर कालिख या स्वसुविधानुसार गोबर पोतकर अन्दर निकल लेते हैं.

सरकार दोनों बातों में दिलचस्पी रखती है कि शराब के राजस्व से उनकी सरकार भी चलती रहे और मद्य-निषेध विभाग भी. लोगों से जिस बात को मना करो, वे उस बात को करते ज़रूर हैं, इस लिहाज़ से सरकार ने कुछ तो अपने छंद बोध से और कुछ जहां बोध सही नहीं लगा, वहां सीधे-सादे शब्दों में अपनी आवाम को यह पैग़ाम भी दे दिया कि दारू पीने के बाद यह सोचो कि तुम्हारे बच्चे अब भूखे मरेंगे कि नहीं ? ऐसे-ऐसे डरावने इश्तहार हैं कि आदमी बिना डरे ना रहे और अपना डर दूर करने को दारू ज़रूर पिए कि यार, सरकार जब खुद बिकवा रही है तो पीने में क्या हर्ज़ है ? ज़्यादा पी ली तो इसी बात को मुददा बना कर सरकार को चार-छह गालियां भी दे लीं कि मन हल्का हो जाये.

मैं अक्सर सोचता हूं कि सरकार अगर वास्तव में शराब पीने को अभिशाप मानते हुए इसकी बिक्री पर ही रोक लगा दे तो क्या होगा ? इस बारे में जब एक मंत्री से पूछा तो उन्होंने बताया कि होगा क्या, भट्टा बैठ जाएगा सरकार का. सरकार का मुंह अमरीका या विश्व बैंक की तरफ मुड़ जाएगा कि भैया, भगवान के नाम पर दे दो या ईमान के नाम पर दे दो. पड़ोसी मुल्कों को समझाना पड़ेगा कि भाई, आजकल ज़रा हालात सही नहीं हैं, इसलिए हमला-वमला करने से पहले सोच लेना कि करना है या नहीं. हमारा मुल्क अब अमन प्रिय हो गया है और लोगों ने दारू भी छोड़ रखी है. सच में, अगर एक बार ऐसा हो जाये तो शराबियों का तो जो होगा, वह होगा ही, सरकार का क्या हाल होगा, यह सोचकर मैं अक्सर गर्मियों में भी कांप उठता हूं.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य -- संस्कारी दामाद

   


हमारे मित्र शर्मा जी के लिए उनके माता पिता उनके लिए एक अच्छा मैच तलाशने में जुटे हुए थे , लेकिन कभी कोई लड़की शर्मा जी को पसंद आती तो लड़की ना पसंद कर देती , कोई लड़की उन्हें पसंद करती तो शर्मा जी को पसंद नहीं आती . फिर अचानक एक ऐसा मैच सामने आया शर्मा जी को पहली नज़र में लड़की भा गयी और लड़की को शर्मा जी . लेकिन विवाह के आड़े एक छोटी सी चुनौती आ गयी , लड़की का परिवार बेहद संस्कारी था , वे ऐसे लड़के की तलाश में थे जो उन्ही की तरह संस्कारी हो , न मीट खाता हो न ही दारू पीता हो . शर्मा जी ने लड़की वालों के सामने ‘आई शपथ’ कह कर अपने आप को सौ टका संस्कारी बता दिया . बस लड़की के पक्ष के लोग उनकी इस अदा पर क़ुर्बान हो गए, आनन फ़ानन में मुहूर्त निकलवाया गया और शादी की तारीख़ पक्की हो गयी .

शर्मा जी के सभी  मित्र उन्हीं की तरह पूरी तरह ग़ैर-संस्कारी थे . इसलिए शर्मा जी ने अपनी शादी में एक भी मित्र आमंत्रित नहीं किया , हाँ , शादी की खबर को सेलिब्रेट करने के लिए हम सब को खंडाला के पास एक रिज़ॉर्ट में ज़बरदस्त पार्टी दी , जिसके लिए ख़ास एयरपोर्ट की ड्यूटी फ़्री शॉप से जुगाड़ करके स्कॉच की बारह बोतल मँगवाई थीं . इसलिए किसी भी मित्र को उनकी शादी का निमंत्रण न पा कर कोई दुःख नहीं हुआ , क्योंकि सब को शर्मा जी की होने वाली ससुराल की संस्कारी पृष्ठभूमि का पता चल चुका था, ऐसी ड्राई जगह वैसे भी भला कौन जाता. 

शर्मा जी की शादी का कुछ कुछ ऐसा शिड्यूल था कि बारात वापस आने के अगले दिन उनके यहाँ संस्कारी क़िस्म का रिसेप्शन रखा गया था , जिसके लिए बधु की बहनें और भाई सभी आए थे , वापसी में वे लोग वधू को विदा कर कर ले गए थे. अब बारी शर्मा जी की थी , शर्मा जी अपनी पत्नी को ससुराल लिवाने के लिए गए , साले सालियों का इसरार था कि शर्मा जी को छै दिन उधर रुकना होगा . दिन भर साले सालियों के बीच शर्मा जी घिरे रहते थे , सास जी चुन चुन कर बेहतरीन से बेहतरीन वेज डिशेज़ बनाने और जमाई को अपने सामने बैठ कर खिलाने में लगी रहतीं . न नान-वेज न सिगरेट ना ही दारू,  शर्मा जी उस क्षण को कोस रहे थे जब उन्होंने शादी की ख़ातिर अपने आप को संस्कारी घोषित किया था . ससुराल में उनका यह पाँचवाँ दिन हो चुका था , दारू , सिगरेट और नान-वेज की बड़ी तलब लग रही थी . एक आइडिया उनके दिमाग़ में ट्यूब लाइट की तरह कौंधा , बस उन्होंने अपनी सासु माँ को बताया कि पेट अपसेट है आज डिनर स्किप करेंगे और थोड़ा टहलने जाएँगे . सासु माँ सुनते ही नींबू, काला नमक , काला जीरा युक्त जलजीरा बना लाईं. शर्मा जी ने जलजीरा  पिया और चुपचाप बिना किसी से कहे सुने घूमने निकल लिए. ससुराल से मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर ही उन्हें एक फ़ाइन डाइनिंग बार दिखायी दिया , शर्मा जी की बाछें खिल गयीं . आनन फ़ानन में बार में प्रवेश किया, मामला ससुराल के शहर का था इसलिए शर्मा जी ने तय किया सबसे आख़िर के स्मोकिंग ज़ोन वाले केबिन में बैठा जाए . सबसे पहले शर्मा जी ने लगातार दो सिगरेटें पी कर पाँच दिनों की बोरियत को दूर किया , पटियाला पेग स्कॉच का ऑर्डर दिया. साथ में साइड दोष में चिकेन ६९ और फ़िश फ़िंगर रोल मँगवाए. उस दिन पता लगा अगर कोई मनपसंद चीज़ कई दिनों के बाद मिले तो उसका क्या आनंद होता है . 

बस खाने पीने के इस अद्भुत सुख का आनंद उठा कर शर्मा जी केबिन के बाहर निकले तो सामने देख कर होश उड़ गए . सामने वाले केबिन से उनके ससुरश्री निकल रहे थे . काटो तो खून नहीं , ससुर जी की भी वही हालात थी पर बुजुर्ग तो बुजुर्ग होते हैं , पहल उन्ही को करनी पड़ती है आगे बढ़ कर दामाद को गले लगा लिया , उनके मुख से भी स्कॉच और फ़िश रोल की महक आ रही थी. गले मिलते ही दोनों के संस्कार भी मिल गए .

✍️  प्रदीप गुप्ता, B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065

शुक्रवार, 4 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा ) निवासी साहित्यकार रेखा रानी की लघुकथा ----ऑन लाइन पढ़ाई


शीला  बड़बड़ाए जा रही थी कि "इस जमाने में तीन - तीन बच्चों को पालना ही कितना मुश्किल  और ऊपर से पढ़ाई भी सरकार फ़ोन पर ही करवाएगी । कहां से लाऊं इतना पैसा ..... सोनू के पापा  होते तो अपने आप जो भी करते मुझे परेशान न होने देते । सरकार के करिंदे बार बार कहे जा रहे हैं कि हाथ सैनेटाइज करो ,साबुन से हाथ धोओ एक टिक्की भी दस से कम की नहीं मिलती है..... सरकार भी....।" मम्मी! मैम कह रही थी, कि मां से कहो टच वाला फ़ोन लो बिना लिए काम नहीं चलेगा। तभी पिंकी ने कहा मां मुझे भी चाहिए, उधर से चिंकू बोला ....." मेरा काम भी नहीं चल पा रहा है बिना फोन "..... अब तो शीला ने अपना माथा ही पीट लिया और चिल्लाने लगी "एक काम करो..... मुझे बेच दो किसी को और ले लो तुम तीनों टच के मोबाइल ....हां ! तुम्हारा बाप तो बडी जायदाद छोड़ कर गया है ना ....जो उसकी कमाई से तुम्हें मोबाइल से पढ़वा लूं " कहते - कहते आपा खो गई शीला.... तभी अचानक नीचे गिर पड़ी बेहोश होकर ,ऐसी गिरी कि फ़िर कभी न उठी। तीनों बच्चे उससे चिपट कर रो रहे

✍️ रेखा रानी,  विजयनगर, गजरौला, जनपद -अमरोहा उत्तर प्रदेश।

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ---- मुंहफट भिखारिन-

 


        माही को बाहर बाइक के पास छोड़ विक्रम मोबाइल रिपेयरिंग शॉप के ऊपरी तल पर अपना मोबाइल लेने गया हुआ था।माही बाइक से टेक लगाकर अपना मोबाइल देखने लगी।तभी एक आठ-दस साल का लड़का उसके सामने कटोरा फैला कर बड़ी मासूमियत से गिड़गिड़ाने लगा,"आंटी जी!दस रुपए दे दो। बहुत भूख लगी है।" माही ने मोबाइल से नज़र हटाकर उसे बड़े ध्यान से देखा।एक आम भिखारी की तरह ही उसका चेहरा कान्तिहीन और मैला था।लेकिन उसके भीख मांगने के लहजे में माही को कहीं भी दयनीयता नहीं दिखी।उसके कटोरे में दस-दस के दो नोट थे,माही के देखते ही लड़के ने जल्दी से वे नोट अपनी नेकर की जेब में ठूंस लिये और दूसरा हाथ जिसमें एक पॉलीथिन में बिस्किट और कुरकुरे का पैकेट था वह पीछे की ओर कर लिया।

                 माही ने सब कुछ अनदेखा करके बड़े प्यार से उस लड़के की तरफ देखा और अपनी आदत के अनुसार उस बच्चे को समझाने लगी,"तुम स्कूल क्यों नहीं जाते हो,बेटा? अब तो थोड़ी थोड़ी दूर पर सरकारी स्कूल हैं।वहाँ खाना,ड्रेस,बस्ता सब मिलता है।तुम्हें स्कूल जाना चाहिए,भीख मांगना गंदी बात होती है।" 

"आंँटी पहले मैं पढ़ता था गाँव में।अब हम अपना गाँव छोड़ के आ गये न तो अभी दाखला नहीं लिया।पर मैं जाऊँगा स्कूल कल से, सच्ची।तुम दस रुपए दे दो।" लड़का वाकपटु था।पड़ी लिखी आधुनिक महिला माही भीख देने के सख्त खिलाफ थी और उपदेश वह मुक्त कंठ से बाँटती थी।फिर भी उस लड़के के बातूनीपन से रीझकर वह उसे दस रूपए देने की सोच ही रही थी कि एक पंद्रह सोलह साल की लड़की डेढ़-दो साल के एक छोटे बच्चे को गोद में लिये और दूसरे हाथ से कटोरा पकड़े वहाँ आकर रुकी।ठीक उसी तरह का संवाद उसने भी दोहराया जो उस लड़के ने बोला था।माही ने भी फिर वहीं स्कूल जाने वाली बात दोहरायी तो लड़की उसे अजीब से घूरने लगी।इधर वह लड़का जल्दी में था उसने एक आखिरी कोशिश करनी चाही,"आंँटी दस रुपए दे दो न।"

                माही कुछ कहती या देती इससे पहले ही वह भिखारिन युवती उस लड़के को पीठ पर धौल देकर खदेड़ती हुई बोली,"चल रे लक्की,आगे बढ़।ये न देने की कुछ भी।पढ़ाई की बात कर री हैं।हमें नहीं पढ़ना।हम तो पढ़ाई छोड़ के आये हैं।हम तो भीख ही मांगेंगे।इनसे मलब।बड़ी आयी सिखाने वाली।पढ़ा के नौकरी दिला देंगी क्या?हमारे अब्बा पढ़ें हैं दसवें तक।भीख माँगते हैं,अब पढ़ाओ उन्हें भी।बात बतायेंगी बस।" इस तरह लताड़कर जाती हुई उस मुँहफट भिखारिन को माही अवाक देखती ही रह गयी।

 ✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद